शोध आलेख : कला शिक्षा के रिश्तों पर पुनर्विचार; कितना समीचीन / राजेन्द्र प्रसाद

कला शिक्षा के रिश्तों पर पुनर्विचार; कितना समीचीन

- राजेन्द्र प्रसाद


चित्र संख्या-1 कक्षा प्रायोगिकी कार्य

शोध सार :  शिक्षा सामाजिक न्याय और समानता प्राप्त करने का एकमात्र और सबसे प्रभावी साधन है। कला और शिक्षा यह दोनों मनुष्य के साथ जड़ों की तरह जुड़ी हुई है।कला शिक्षा के रिश्तों के बरक्स ही मनुष्य जीवन का रस, संस्कृति के सरोकार, सृजन एवं मानवता के गुणों एवं प्रकृति का साक्षात्कार तथा ‘वसुदेव कुटुंबकम’ को सार्थक करता है।रोजगार और वैश्विक पारीस्थितिकी में तीव्र गति से आ रहे परिवर्तनों की वजह से यह समय की मांग है कि बच्चे समस्या समाधान और तार्किक एवं रचनात्मक रूप से सोचना सीखे। ब्रिटिश राज में एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की शुरूआत हुई जिसमें भारतीय कला एवं परम्परा को यूरोपीय आंखों से देखना और समझना आरंभ किया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के आलोक में कला शिक्षा के स्कूली तथा उच्चतर शिक्षा में बुनियादी कला, चित्रकला, शिल्प एवं संस्कृति को प्रमुखता दी है, इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति का लक्ष्य भारतीय मूल्यों से विकसित शिक्षा प्रणाली है। कला समन्वय, आर्ट इंटीग्रेशन एवं क्रॉस करिकुलर शैक्षणिक सरीखे दृष्टिकोण द्वारा कला समन्वित शिक्षण को कक्षा प्रक्रियाओं में स्थान दिया जाएगा। निष्कर्षत, कला शिक्षा के रिश्तों पर पुनर्विचार एवं संवर्धन से ही ‘अतुल्य!भारत’ के सपनें को साकार किया जा सकता है।

बीज शब्द : कला शिक्षा, वैश्विक शिक्षा, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, कला समन्वय, अतुल्य भारत

मूल आलेख : कला और शिक्षा, यह दोनों मनुष्य के साथ जड़ों की तरह जुड़ी हुई हैं। वे जितनी मज़बूत होंगी, उनका फैलाव विस्तृत होगा, उतना ही मानव मन सृजन और सकारात्मकता की ओर आगे बढ़ेगा। जमीन के नीचे जड़े किस प्रकार की हैं, स्वस्थ या बीमार, उसकी जानकारी जमीन के उपर पनपता वृक्ष ही दे पाता है। ठीक उसी प्रकार हमारे मन में संवादिता है या विसंवादिता, उसी के अनुसार हम सृजन करते हैं या फिर विसर्जन। सकारात्मक मन अजंता और एलोरा की अद्भूत गुफाएं बनाता है, वहीं नकारात्मक मन बामियान की बुद्ध प्रतिमाओं को बारूद से उड़ा देता है। पश्चिम में देखें तो ग्रीस और रोम के प्राचीन एम्फीथियेटर वहां के लोगों की नाटक और संगीत के प्रति उनकी रूचि का परिचय देता है, तो भारत में कोणार्क और मीनाक्षी मंदिरों की नृत्य करती या वाद्य बजाती मूर्तियाँ भारत की समृद्ध दृश्य-श्रव्य कला का परिचय देती हैं। (1)

शिक्षा की योजना बहुत समझ-बूझकर बनानी पड़ती है। उसका आधार मुख्यतः दो बातों पर रहना चाहिये। मानव-समाज के जो आदर्श तैयार हुए हैं, शिक्षा का उद्देश्य हो कि उसके द्वारा व्यक्ति उन आदर्शों की तरफ बढ़ता रहे। मानव संस्कृति का जो 'पैटर्न’ तैयार करना चाहता है, शिक्षा उस 'पैटर्न' का निर्माण करें। दूसरा आधार है व्यक्ति और समाज का गुणधर्म। यानी आदर्श चाहे कितना भी ऊँचा क्यों न हो, शिक्षा का तरीका इस गुणधर्म को सामने रखते हुए ही बनेगा। इसी प्रकार शिक्षा की योजना सामाजिक और सांस्कृतिक आदर्श और (मनुष्य-स्वभाव) दोनों के मिलान से ही बननी चाहिये।(2)

शिक्षा पूर्ण मानव क्षमता को प्राप्त करने, एक न्यायसंगत और न्यायपूर्ण समाज और राष्ट्रीय विकास को बढ़ावा देने के लिए मूलभूत आवश्यकता है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुँच प्रदान करना वैश्विक मंच पर सामाजिक न्याय और समानता वैज्ञानिक उन्नति, राष्ट्रीय एकीकरण और सांस्कृतिक संरक्षण के संदर्भ में भारत की सतत प्रगति और आर्थिक विकास की कुंजी है।(3)

ज्ञान, प्रज्ञा और सत्य की खोज को भारतीय विचार परंपरा और दर्शन में सदैव सर्वोच्च मानवीय लक्ष्य माना जाता था। भारतवर्ष में शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा विद्यालय के बाद के जीवन की तैयारी के रुप में ज्ञान अर्जन के इतर पूर्ण आत्मज्ञान एवं मुक्ति के रुप में माना गया था। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला एवं वल्लभी सरीखे प्राचीन विश्वस्तरीय संस्थानों ने अध्ययन के विविध क्षेत्रों में शिक्षण और शोध के ऊंचे कीर्तिमान स्थापित किए थे। कालांतर में बाह्य आक्रांताओं ने उक्त परंपरा को ध्वस्त किया।

लगभग 19वीं शताब्दी के मध्य अंग्रेजी राज्य ने प्रेसीडेंसी नगरों में संस्थाएँ स्थापित कर कला की अकादमिक शिक्षा युरोपीय पद्धति से देना आरम्भ किया। अंग्रेजो द्वारा जब 1857 में पहले तीन विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई तो सरकार (ब्रिटिश) ने लंदन विश्वविद्यालय को मॉडल के रूप में अपनाया। हालांकि उस समय तक जब 1902 में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग का गठन किया गया था जिसके द्वारा भी 1857 के उसी ब्रिटिश मॉडल का पालन करने का फैसला किया।(4) यह भी स्मरणीय है कि ब्रिटिशराज में एक ऐसी व्यवस्था की शुरूआत हुई, जिससे भारतीय विद्यार्थियों ने अपनी कलात्मक और सांस्कृतिक परम्परा को योरोपीय आँखों से देखना और समझना आरम्भ किया, जो व्यवहार में ग्रीक-रोमन प्लास्टर आकारों और अंग्रेजी अकादमिक चित्रकला के मध्य विक्टोरियन शैली की नकल बन गया। हैवेल और अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस दुर्भाग्य को महसूस किया और शिक्षण की प्रविधि में देशज गुणों को परिवर्तित करते हुए आदर्शवादी ढ़ंग से इसका विरोध किया। इस नये परिवर्तन में प्रतिभाशाली छात्रों के एक दल को स्वयं के भीतर झाँक कर प्रेरणा लेने तथा तत्कालीन आयातीत कला की शैली को एक नई दृष्टि से देखने के लिए प्रेरित किया। कालांतर में चित्रकला का एक ऐसा स्कूल विकसित हुआ जिसने राष्ट्रीय स्वभाव की आकांक्षाओं को प्रतिबिम्बित किया। यद्यपि इससे कला व्यवस्था में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया लेकिन सारे सरकारी कला-स्कूलों के बीच समय की मांग और लोकप्रियता के अनुसार भारतीय कला का एक पाठ्यक्रम आरम्भ किया।(5) धीरे-धीरे कला के देशज मूल्यों में पाश्चात्य प्रभाव की नकल के चलते गिरावट आई एवं इसका नकारात्मक प्रभाव संस्थानों पर भी आया।


कला के शिक्षण के अभाव में न केवल हमारी वर्तमान जीवन यात्रा असुन्दर हो गयी है वरन हमारे अतीत के रस स्रष्टाओं द्वारा निर्मित रचनाओं की सौन्दर्य-निधि से भी हम वंचित हुए जा रहे हैं। यदि हमारी शिक्षा का उद्देश्य सर्वांगीण विकास हो तो हमारे पाठ्यक्रम में कला का स्थान अन्यान्य पढ़ाई-लिखाई के विषयों के समान होना चाहिए। हमारे देश में विश्वविद्यालयों की ओर से अब तक तो व्यवस्था की गई है, वह नितान्त अपर्याप्त है। कला शिक्षा की पहली माँग है कि प्रकृति को एक अच्छी कलात्मक वस्तुओं को श्रद्धा सहित देखा जाये। उनके निकट रहा जाये एवं जिन व्यक्तियों का सौन्दर्य बोध जगत हैं उनसे इस संबंध में चर्चा करके कलाकृति के सौन्दर्य को समझा जाये। विश्वविद्यालयों का यह कर्तव्य है कि अन्यान्य विषयों के साथ-साथ वे कला विषय को भी पाठ्यक्रम में रखें, परीक्षा की दृष्टि से कला को अनिवार्य विषय मानें और विद्यार्थी प्रकृति के निकट सम्पर्क में आ सकें इसकी व्यवस्था करे।(6) इसके साथ यह भी सुनिश्चित किया जाये कि प्रत्येक पाठ्यक्रम में नैसर्गिक अध्ययन हेतु कक्षा-कक्ष से इत्तर भी विद्यार्थियों को ले जाना अनिवार्य हो। जिससे विद्यार्थियों को देखना एवं पहचानना आ सके।

कला शिक्षा हेतु दूसरी मांग है कि विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों को अन्तर्रानुशासनात्मक एप्रोच काम में लेते हुए कार्यशालायें आयोजित करवाना चाहिए जिससे कि विद्यार्थियों के कौशल में वृद्धि हो एवं समूह में कार्य करने की प्रवृति बलवती हो। एक कार्यशाला का चरित्र हमेशा धर्मनिरपेक्ष, किसी भी ’वाद’ से मुक्त तथा समतामूलक होना चाहिए। कला की तकनीक, उसके सिद्धान्त समझने के लिए लेना आवश्यक है, लेकिन यह कौशल जब आंतरिक अनुभूति से जुड़ता है तब वह दर्शक या प्रेक्षक के अर्न्तमन को छू पाता है।

कला शिक्षा की तीसरी आवश्यकता है कि पाठ्यक्रम लचीला हो, जिसमें विद्यार्थी अपनी परिधि से बाहर आकर कार्य कर सके। यानि पाठ्यक्रम स्वतन्त्रता मुहैया करवाये जिससे विद्यार्थी की रचनात्मक सम्भावनाओं को निखरने में सहायक सिद्ध हो।

कला शिक्षा के लिए चौथी मांग पाठ्यक्रम में बुनियादी बातों/विषयों को शामिल करना जैसे कि मिसाल के तौर पर टोकरी या घड़े की बुनाई एवं बनावट। रोजमर्रा के जीवन में शामिल लोक व आदिवासी कलाकारों द्वारा निर्मित वस्तुओं एवं कलात्मक उपादानों का अध्ययन एवं प्रक्रियाओं को डालना ताकि लोक एवं आदिवासी कलाकार की सर्जना के जितने पाठ वह जानता एवं जीता है उसे समझने-देखने हेतु विद्यार्थी का नजरिया विकसित हो।

पाँचवी मांग जो कला शिक्षा के लिहाज से जरूरी है, वो ये कि पूरे भारत में कला व शिल्प-रूपों में रचना/उपादान, सामग्री, औजार व निर्माण-प्रक्रिया को इतने असंख्य एवं विलक्षण तरह से बरता गया है कि इसका अपना एक एनसाइक्लोपिडिया जरूर ही तैयार हो जाना चाहिए। विजुअल आर्ट्स की अलग-अलग विधाओं के रिसोर्स सेन्टर को भी चाहिये कि वे विद्यार्थियों एवं शोधार्थियों को बतायें ताकि ज्ञानार्जन में वृद्धि हो क्योंकि यह सब कुछ समुद्र जैसा अथाह व अपार है। पश्चिम में आधुनिक कलाकारों ने वहाँ अपनी तकनीक ढूंढ कर काफी प्रयोग किये। जो भारत में भी कलाकार कर रहे हैं मगर उतना नहीं जबकि हमारी परम्परा में तो ये तकनीकें भरी पड़ी है। भारत की पारम्परिक धरोहर को जाने बिना हमारी कला शिक्षण संस्थानों की क्षति हो रही है।

कला शिक्षा के पाठ्यक्रम की छठी मांग मटीरियल यानी रचना-सामग्री को लेकर हमारे कलाविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में बाकायदा एक पूरा पाठ्यक्रम होना चाहिए। हमारे लोक आदिवासी कला रूपों में रचना-सामग्री को अद्भूत तरह से बरता गया है(7) इसलिए स्थानीय महत्त्व, सम्भावनाओं व दर्शन को पहचाने एवं पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। कला-सृजन के लिए तो रचना सामग्री हमारे चारों और फैली है, बिखरी पड़ी है। सवाल यह है कि हम इसको कैसे बरतते हैं। संभावनाए असंख्य है लेकिन हमारी आँख इस ओर जाएं तो सही। यह नितांत सत्य है कि सौन्दर्यबोध के अभाव में मनुष्य केवल रसानुभूति से वंचित रह जाता हो, बल्कि मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्ट से भी उसकी क्षति होती है। और इस कमी को कमोबेश पूर्ण करने का कार्य करती है - ललित कलायें।

यह सचमुच एक भयावह स्थिति है, कि 'कला’को शिक्षा के लिहाज से, जीवन के सौन्दर्य की गहरी श्वास सरीखी है, पर हम इससे कटते जा रहे हैं। विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक मानों जागरूकता का अभाव सा है। जबकि हमारे समाज में लगभग हर जगह कला रूप जीवन का एक दैन्दित भाग रहें हैं। कला शिक्षा के अवदान के सन्दर्भ में सामाजिक सरोकार भी एक महत्वपूर्ण टूल है, जिसे कला से ढांपा जा सकता है।

रोजगार और वैश्विक परिस्थितिकी में तीव्र गति से आ रहे परिवर्तनों की वजह से यह जरूरी हो गया है कि बच्चे को जो कुछ सिखाया जा रहा है, उसे तो सीखें ही और साथ ही वे सतत सीखते रहने की कला भी सीखें। इसलिए शिक्षा में विषयवस्तु को बढ़ाने की जगह जोर इस बात पर अधिक देने की जरूरत है कि बच्चे समस्या-समाधान और तार्किक एवं रचनात्मक रूप से सोचना सीखें, विविध विषयों के बीच अंतर्सबंधों को देख पायें, कुछ नया सोच पायें और नयी जानकारी को नए और बदलती परिस्थितियों या क्षेत्रों में उपयोग में ला पायें। शिक्षा शिक्षार्थियों के जीवन के सभी पक्षों और क्षमताओं का संतुलित विकास करे इसके लिए पाठ्यक्रम में विज्ञान और गणित के अलावा बुनियादी कला, शिल्प, मानविकी, खेल और फिटनेश, भाषाओं, साहित्य, संस्कृति और मूल्य का अवश्य ही समावेश किया जाए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परंपरा के आलोक में रचनात्मक क्षमताओं के विकास पर विशेष जोर देती है। 1.2 बिन्दु के अन्तर्गत ईसीसीई में मुख्य रूप से रंग, आकार, चित्रकला, पेंटिंग एवं अन्य दृश्य कला, शिल्प, नाटक कठपुतली, संगीत तथा अन्य गतिविधियों के तहत नैतिक एवं सांस्कृतिक विकास में अधिकतम परिणामों को प्राप्त करना है। प्रायोगिक अधिगम के तहत प्रत्येक विषय में कला (4.6 पैरा सं.), कला-समन्वय (आर्ट-इंटीग्रेशन) (पैरा सं. 4.7) एक क्रॉस-करिकुलर शैक्षणिक दृष्टिकोण है जिसमें विविध-विषयों की अवधारणाओं के अधिगम आधार के रूप में कला एवं संस्कृति के विभिन्न अवयवों का उपयोग किया जाता है। अनुभव आधारित अधिगम पर विशेष बल दिए जाने के अन्तर्गत कला-समन्वित शिक्षण को कक्षा प्रक्रियाओं में स्थान दिया जायेगा जिससे न सिर्फ कक्षा ज्यादा आनंदपूर्ण बनेगी बल्कि भारतीय कला और संस्कृति के शिक्षण में समावेश से भारतीयता से भी बच्चों का परिचय हो पायेगा। इस एप्रोच से शिक्षा और संस्कृति के परस्पर संबंधों को भी मजबूती मिलेगी।(8) (पैरा सं. 4.26) के अनुसार कक्षा 6 से 8 तक के विद्यार्थी एक दस दिन के बस्ता-रहित पीरियड में भाग लेंगे जब वे स्थानीय व्यावसायिक विशेषज्ञों, जैसे बढ़ई, माली, कुम्हार, कलाकार आदि के साथ प्रशिक्षण के रूप में कार्य करेंगे। इसी तर्ज पर कक्षा 6 से 12 तक छुट्टियों के दौरान स्थानीय कलाकारों, हस्तकलाओं एवं सांस्कृतिक महत्व की गतिविधियों को अधिक एक्सपोजर दिया जाएगा। वहीं (पैरा सं. 4.27) में वास्तुकला विषय को शामिल किया गया है।(9)

उच्चतर शिक्षा में समग्र और बहु-विषयक शिक्षा के अन्तर्गत (पैरा सं. 11.1) भारत में समग्र एवं बहु-विषयक तरीके से सीखने की एक प्राचीन परम्परा है। प्राचीन भारतीय साहित्य जैसे बाणभट्ट की कादंबरी शिक्षा को 64 कलाओं के ज्ञान के रूप में परिभाषित करती है, और इन 64 कलाओं में न केवल गायन और चित्रकला जैसे विषय शामिल हैं बल्कि बढ़ई का काम, कपड़े सिलने जैसे व्यावहारिक कौशल को शामिल किया है। विभिन्न कलाओं के ज्ञान के इस विचार या जैसा कि आधुनिक युग में जिसे ’लिबरल आर्ट्स; (कलाओं का एक उदार नज़रिया) कहा जाता है को भारतीय शिक्षा में (उच्चतर शिक्षा) में पुनः शामिल करने का संकल्प लिया है जिसकी 21वीं शताब्दी में आवश्यकता होगी। ऐसी समग्र और बहु-विषयक शिक्षा के विचार को धरातल पर लाने के लिए सभी इचईआई के लचीले और नवीन पाठ्यक्रम में क्रेडिट आधारित पाठ्यक्रम शामिल होंगे। साथ ही विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली (सीबीसीएस) पर भी बल दिया जायेगा।

निष्कर्ष : शिक्षा के स्वाभाविक और अत्यावश्यक अंगों को छोड़कर हमने ऐसे विषयों पर अधिक ध्यान दिया, जो मनुष्य का एक तरफा एवं बौद्धिक विकास करते हैं, जबकि इसका स्याह पक्ष यानि व्यक्त्त्वि का बड़े से बड़े भाग अतृप्त रह जाता है। इसी सन्दर्भ में हर्बर्ट रीड ने कहा है – "हमारा अनुभव हमें बताता है कि हर व्यक्ति ग्यारह साल की उम्र के बाद, किशोर अवस्था और उसके बाद भी सारे जीवन-काल तक किसी न किसी कला-प्रवृति को अपने भाव-प्रकटन का जरिया बनाये रख सकता है। आज के सभी विषय-जिन पर हम अपनी एकमात्र श्रद्धा करते हैं, उन सबकी बुनियाद तार्किक है। इन पर एकमात्र जोर देने के कारण कला-प्रवृतियां, जो भावना-प्रधान होती हैं, पाठ्यक्रम से करीब-करीब निकल जाती है। ये प्रवृतियां केवल पाठ्यक्रम से ही नहीं निकल जातीं, बल्कि इन तार्किक विषयों को महत्त्व देने के कारण व्यक्ति के दिमाग से भी बिल्कुल निकल जाती हैं। किशोर अवस्था को इस तरह गलत रास्ते पर ले जाने का नतीजा भयानक हो रहा है। सभ्यता रोज-ब-रोज बेढब होती जा रही है। व्यक्ति का गलत विकास हो रहा है। उसका मानस अस्व्स्थ है, परिवार दुखी है। समाज में फूट पड़ी है और दुनिया पर ध्वंस करने का ज्वर चढ़ा है। इन भयानक अवस्थाओं को हमारा ज्ञान-विज्ञान सहारा दे रहा है। आज की तालीम भी इसी दौड़ को साथ दे रही है। किन्तु कला की प्रवृतियां, जो हमारे जीवन को सुंदर और सुसमंजस बना सकती है, जो मन के घावों को भर सकती हैं, जो मनुष्य का प्रकृति के साथ मिलन करा सकती है और जो राष्ट्र के साथ राष्ट्र का बंधुत्व कायम कर सकती हैं, उन्हें हम फिजूल और निरर्थक कहकर टाल देते हैं।(10) बकौल कला शिक्षा हमारे ’चितवृत्ति-निरोध’में सहायता करती है, तो इस लिहाज से उच्च शिक्षा में कला प्रवृतियां केवल स्थान है कि शिक्षा का ढांचा तैयार करते समय व्यक्तित्व विकास के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों से साबध पाठ्यक्रम तैयार हो, जिसमें विश्व-प्रकृति के साथ एकारम्य स्थापित करने की पहल भी होनी चाहिए।

बहरहाल भारत की कला शिक्षा, हस्तशिल्प, संस्कृति, एवं कौशल आधारित गतिविधियों, भारत के वैविध्यपूर्ण संगीत एवं कला की सराहना करना और भारतीय फिल्मों को देखना आदि ऐसे आयाम हैं जो हमारी सांस्कृतिक विरासत एवं संपदा है जो भारत को वास्तव में "अतुल्य! भारत" बनाती है। कौशलों और क्षमताओं का शिक्षाकर्मीय एकीकरण, भारतीय कला एवं संस्कृति का संवर्द्धन न सिर्फ राष्ट्र बल्कि व्यक्तियों के लिए भी महत्वपूर्ण है। बरसों के चिंतन के बाद आज के सन्दर्भ में बात करें तो आज भी कला और शिक्षा के रिश्तों पर पुनर्विचार करना बहुत समीचीन लगता है और सार्थक भी। आज की महती आवश्यकता भी है कि कला जीवन का रस, संस्कृति के सरोकार, सृजन एवं मानवीयता के गुण, प्रकृति का साक्षात्कार तथा "वसुदेव कुटुम्बकम" को सार्थक करें। जिसको कमोबेश राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 बुनियादी शिक्षा के मानकों पर पूरा करेंगी।

इसके इतर भारत द्वारा 2015 में अपनाएं गए सतत विकास एजेंडा 2030 के लक्ष्य 4 (एस.डी.पी.4) में परिलक्षित वैश्विक शिक्षा विकास एजेंडा के अनुसार विश्व में 2030 तक सभी के लिए समावेशी और समान गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन पर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने का लक्ष्य निर्धारित किया है।

संदर्भ :
  1. थानवी, रमेश (संपा.); अनौपचारिका (समकालीन शिक्षा-चिन्तन की पत्रिका), राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति, वर्षः32, अंक-4-5-6, अप्रेल-मई-जून-2008, पृ.सं. 6
  2. प्रसाद, देवी; शिक्षा का वाहन कला, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली, 1990, पृ.सं. 1
  3. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020; मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 2020, पृ.सं. 3
  4. Pillai, K.N. Madhusudanan; Indian Education; Genesis, Growth Development and Decline, Vivekanand Kendra Prakashan Trust, Chennai,2000. P.g. No. 122
  5. सान्याल, भुवनेशचन्द्र; संपा. जौशी, ज्योतिष; भारत में कला शिक्षा: स्थिति और आवश्यकता; समकालीन कला, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, अंक 19, जून-2001, पृ.सं.13
  6. बसु, नन्दलाल; जोशी, ज्योतिष; शिक्षा में कला का स्थान, समकालीन कला, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, जून-सितम्बर 2002, अंक 2, पृ.सं.13
  7. थानवी, रमेश (संपा.); अनौपचारिका (समकालीन शिक्षा-चिन्तन की पत्रिका), राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति, वर्षः32, अंक-4-5-6, अप्रेल-मई-जून-2008, पृ.सं. 13
  8. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020; मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 2020, पृ.सं. 18
  9. उपरोक्त, पृ.सं. 57
  10. प्रसाद, देवी; शिक्षा का वाहन कला, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली, 1999, पृ.सं. 63

राजेन्द्र प्रसाद

सहायक आचार्य, चित्रकला विभाग, ललित कला संकाय, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर (राज.)

rajsutharart@rediffmail.com


दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक  तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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