- हर्ष कुमार एवं रविंद्र सिंह
शोध सार : परंपरागत रूप से स्वच्छता कार्य से जुड़े रहे वाल्मीकि समुदाय ने जम्मू-कश्मीर को विकास पथ पर आगे बढ़ाने में बहुमूल्य योगदान दिया है। इसके बावजूद राज्य की व्यवस्था में कई ऐसे भेदभावपूर्ण प्रावधान कर दिए गए, जो राज्य के अन्य नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकारों से भिन्न उन्हें मूलभूत अधिकारों से वंचित करते रहे। इस प्रकार जम्मू-कश्मीर में वाल्मीकि समुदाय का एक लंबा और जटिल इतिहास रहा है, जो उन्हें हाशिए पर खड़ा कर निरंतर शोषण और भेदभाव के दंश झेलने के लिए विवश करता रहा। इस भेदभावपूर्ण वातावरण में राज्य का वाल्मीकि समुदाय अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए लंबे समय तक संवैधानिक संस्थाओं की ओर देखता रहा। यह शोध पत्र जम्मू-कश्मीर में वाल्मीकि समुदाय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की जांच से शुरू होगा। इसके बाद यह चर्चा की जाएगी कि कैसे यहां विकास के क्रम में वाल्मीकि समुदाय को हाशिए की ओर धकेल दिया गया। उनके साथ होने वाले भेदभाव और शोषण की यात्रा किन-किन पड़ावों से होकर गुजरती है। अंत में एक अवलोकन इस संदर्भ को सामने रखकर किया जाएगा कि अनुच्छेद-370
और 35-ए के निरस्तीकरण के पश्चात् जम्मू-कश्मीर में वाल्मीकि समुदाय के जीवन में किस तरह के परिर्वतन हुए। इनमें उनके मूलभूत मानवाधिकारों जैसे कि स्थायी नागरिकता, राजनीतिक अधिकार, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार तक पहुंच से संबंधित मुद्दे शामिल हैं।
बीज शब्द : जम्मू-कश्मीर, वाल्मीकि समुदाय, अनुच्छेद-370,
अनुच्छेद-35ए, मौलिक अधिकार, नागरिकता, मानवाधिकार, बुनियादी सुविधाएं इत्यादि।
मूल आलेख :
भारत सरकार ने वर्ष
2019 में जम्मू-कश्मीर में लागू अनुच्छेद-370
और 35ए को निरस्त करने का जो साहसिक निर्णय लिया, उस पर लंबे समय तक विश्वास कर पाना बहुत से लोगों के लिए असंभव जैसा था। जम्मू कश्मीर के संदर्भ में यह निर्णय एक नए युग की शुरुआत जैसा था। इस एक निर्णय के साथ जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और देश के कुछ वर्गों की ओर से स्थापित झूठे विमर्श मानो एक ही झटके में लुप्त हो गए और जम्मू-कश्मीर का एक नया एवं उज्जवल विमर्श आगे बढ़ाने के लिए तैयार था। कश्मीर के समाज ने अवसर पाते ही जिस तीव्रता से दशकों से स्थापित व्यवस्था के चंगुल से अपने आप को स्वतंत्र करा लिया, यह आश्चर्यजनक है। समूचे घटनाक्रम में राज्य के राजनैतिक नेतृत्व की भूमिका सिमटते ही वहां के जनसामान्य ने चैन की साँस ली। अनुच्छेद-370
और 35ए को निरस्त किए जाने के निर्णय की विविध संदर्भों में व्याख्या की गई। यहां वाल्मीकि समाज के द्वारा वर्षों से सहे जा रहे शोषण और अन्याय का लेखा-जोखा होना भी आवश्यक है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370
और 35ए की आड़ में वाल्मीकि समुदाय के मानवाधिकारों के हनन एक लंबी कहानी है। मगर मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली संस्थाओं ने भी इस ओर कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अंततः वर्ष
2019 में भारत सरकार के प्रयासों से जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370
और 35ए निरस्त होते हैं और यहां वाल्मीकि समुदाय के मानवाधिकारों के हनन का सिलसिला भी थम जाता है।
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और 35ए का प्रावधान लंबे समय तक देश को भ्रमित करता रहा। जब इसके दुष्प्रभाव सामने आने लगे, तो कई संस्थाओं ने इसको लेकर अध्ययन करना शुरू किया। इस अध्ययन के आधार पर इन दोनों ही अनुच्छेदों को लेकर संदेह और भी बढ़ना शुरू हो गया। वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने इस विषय पर जब लोकसभा के सेक्रेटरी जनरल रह चुके सीके जैन से बात की तो इसमें हैरान करने वाले खुलासे हुए। उन्होंने स्पष्ट कहा था - “यह कंस्टीट्यूशनल फ्रॉड है।” यानी
1954 का जो राष्ट्रपति का आदेश है, वह आदेश संविधान में कहीं जोड़ा नहीं गया था। लेकिन, हम पाते हैं कि करीब 14 पेज वाले राष्ट्रपति के उस आदेश में यह बात दर्ज है कि यह एक अस्थायी प्रावधान है। आगे चलकर इन्हीं अध्ययनों के आधार पर भेदभावपूर्ण प्रावधान को खत्म किए जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
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और 35ए
:
एक परिचय
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भारतीय संविधान को कश्मीर में लागू होने को वर्जित करता है। यह वह नाका है, जहाँ से हो कर भारतीय संविधान के कुछ ही अनुच्छेद उस पार जा सकते हैं। बाकी का वीजा नहीं बनता। अनुच्छेद 35ए जो कि अनुच्छेद 370
का विस्तार है, राज्य के स्थायी निवासियों को परिभाषित करने के लिये जम्मू-कश्मीर राज्य की विधायिका को शक्ति प्रदान करता है और उन स्थायी निवासियों को विशेषाधिकार प्रदान करता है तथा राज्य में अन्य राज्यों के निवासियों को कार्य करने या संपत्ति के स्वामित्व की अनुमति नहीं देता है। इस प्रकार से अनुच्छेद-370
और अनुच्छेद-35ए दोनों ही जहां एक तरफ जम्मू-कश्मीर में राज्य के सर्वांगीण विकास की संभावनाओं को बाधित करते रहे, वहीं वाल्मीकि समुदाय समेत कई अन्य वर्गों के शोषण का भी उपकरण बन गए।
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और 35ए से वाल्मीकि समाज के मानवाधिकारों का हनन
भारत जब 15 अगस्त,
1947 को ब्रिटिश साम्राज्य के शासन से मुक्त हुआ, तो इसकी रियासतों को जोड़कर एक राष्ट्र के निर्माण के लिए एकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। इसमें भारत राष्ट्र के अधिकार क्षेत्र में आने वाले राज्यों के लोगों ने अलग-अलग संस्कृति और परंपराएं होने के बावजूद एक राष्ट्र के रूप में संगठित होने का प्रयास किया। मगर इस एकीकरण की प्रक्रिया को अनुच्छेद-370
और 35ए ने गहरे तक प्रभावित किया। अनुच्छेद-370
के कारण 35ए ने जो स्थाई नागरिकता कानून का प्रावधान किया, उसने राष्ट्रीय एकीकरण में गम्भीर बाधा पैदा की है। साथ ही साथ इसने नागरिक अधिकारों का भी हनन किया है। इसके कारण शेष भारत के लोग स्थाई रूप से वहाँ निवास नहीं कर सकते, सम्पत्ति नहीं खरीद सकते, रोजगार नहीं कर सकते। कोई व्यक्ति
15-20 वर्ष तक जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा में तैनात तो रह सकता है, लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद वह वहाँ पर निवास नहीं कर सकता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विभाजन के समय पंजाब के सियालकोट जिले से जो लोग जम्मू में आकर बसे थे जो 65 वर्षों से वहाँ पर निवासरत हैं लेकिन उनको राज्य के स्थायी निवासी संबंधी कोई अधिकार नहीं है। इस प्रकार राज्य में रहने वाले लोगों के लिए दोहरी नीति का खेल शुरू हुआ।
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और 35ए के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य में रहने वाले लोगों के बीच ‘राज्य का’ और ‘बाहरी’ दो श्रेणियां में विभाजन पैदा कर दिया गया। यहीं से वाल्मीकि समुदाय के मानवाधिकारों के हनन की राह खुली। 35ए जम्मू-कश्मीर में ‘बाहर’ से आए हुए वाल्मीकि समुदाय के लोगों के मानवाधिकार के हनन का सबसे बड़ा हथियार बन गया। भारतीय संविधान में अब एक ऐसा प्रावधान जोड़ दिया गया जिसने जाने-अनजाने में दलितों के साथ इस भेदभाव को जायज ठहरा दिया। छह दशक से अधिक समय से उन्हें उनके मौलिक अधिकार नहीं मिल पाए, क्योंकि उनका नाम ‘बाहरी’ है। आजादी के बाद एक संवैधानिक प्रावधान ने जम्मू कश्मीर के वाल्मीकि समुदाय के भाग्य पर एक हस्ताक्षर ऐसा कर दिया, जिसकी बदौलत उनकी पीढ़ियां सिर्फ मैला ढोने और सफाई करने के काम से आगे नहीं बढ़ पाईं। मगर भारत में काम करने वाले मानवाधिकार समूहों ने इस अन्याय की तरफ ध्यान देना आवश्यक नहीं समझा।
ईश्वरीय विधान है कि व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र है। मगर अनुच्छेद-370
और 35ए ने जम्मू-कश्मीर में रहने वाले वाल्मीकि समुदाय को इस ईश्वरीय वरदान से भी वंचित कर दिया। इस व्यवस्था ने वाल्मीकि समुदाय को केवल और केवल मैला ढोने के एकमात्र कार्य करने के लिए अभिशप्त कर दिया, फिर चाहे उसकी योग्यता किसी उच्च पद पर सेवाएं देने की ही क्यों न हो। इस एक अनुच्छेद के आधार पर यहाँ पर रहने वाले दलित न कभी पूरी शिक्षा हासिल कर सके और न ही उन्हें कभी अच्छी नौकरी ही मिल पाई। उनके हिस्से अगर कुछ काम शेष था तो वो था मैला ढोने और सफाई करने का, जिसके लिए उनके पूर्वजों को जम्मू कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री बक्शी ग़ुलाम मुहम्मद ने पंजाब से जम्मू कश्मीर बुलाया था। शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। भारत का संविधान भी राज्य को यह निर्देश देता है कि नागरिकों के इन मूलभूत अधिकारों की रक्षा की जाए। इसके बावजूद जम्मू-कश्मीर में वाल्मीकि समुदाय के मानवाधिकारों के हनन का खेल वर्षों तक जारी रहा। केवल स्थायी निवासी ही संपत्ति के अधिकार, राज्य सरकार में रोजगार, पंचायत, नगर पालिकाओं और विधान सभा चुनावों में भागीदारी, सरकार द्वारा संचालित तकनीकी शिक्षा संस्थानों में प्रवेश, छात्रवृत्ति और अन्य सामाजिक लाभ, मतदान के अधिकार, केंद्रीय सेवाओं में शामिल होने का अधिकार के हकदार हैं। यह बाकी भारतीय नागरिकों के साथ भेदभाव करता था।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र है। लोकतंत्र को सदैव सजीव बनाए रखने हेतु निर्धारित समय पर या कुछ विशेष परिस्थितियों में निर्धारित समय से पूर्व भी चुनाव करवाए जाते हैं। मगर वाल्मीकि समुदाय का यह दुर्भाग्य देखिए कि न तो इससे संबंधित कोई व्यक्ति विधानसभा और स्थानीय निकाय का चुनाव लड़ सकता था और ना ही मतदान कर सकता था। हमारे देश का लोकतंत्र इतना मजबूत है, लेकिन आप यह जानकर चौंक जाएंगे कि जम्मू-कश्मीर में दशकों से हजारों-लाखों की संख्या में ऐसे भाई-बहन रहते हैं, जिन्हें लोकसभा के चुनाव में तो वोट डालने का अधिकार था, लेकिन वो विधानसभा और स्थानीय निकाय के चुनावों में मतदान नहीं कर सकते थे। इसे मानवाधिकारों के हनन का एक उत्कृष्ट उदाहरण माना जा सकता है।
वर्ष
2024 में लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। इन चुनावों में आरक्षण एक बड़ा मुद्दा है। कमोबेश हर राजनीतिक दल ने आरक्षण के आधार पर अपने लिए वोट मांगे हैं। मगर इसे वाल्मीकि समुदाय का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि जम्मू-कश्मीर में इनके आरक्षण के लाभ की बहाली के लिए किसी राजनीतिक दल ने कभी दो शब्द नहीं कहे। परिणाम यह हुआ कि पात्र होते हुए भी वाल्मीकि समुदाय को अनुसूचित जाति के तहत मिलने वाला आरक्षण का लाभ नहीं मिल सका। देश के अन्य राज्यों में चुनाव लड़ते समय अनुसूचित जनजाति के भाई-बहनों को आरक्षण का लाभ मिलता था, लेकिन जम्मू-कश्मीर में ऐसा नहीं था। अब आर्टिकल 370
और 35-ए इतिहास की बात हो जाने के बाद उसके नकारात्मक प्रभावों से भी जम्मू-कश्मीर जल्द बाहर निकलेगा, इसका मुझे पूरा विश्वास है। अनुच्छेद-370
के निरस्तीकरण के पश्चात निश्चित रूप से आरक्षण का लाभ लेकर वाल्मीकि समुदाय विकास पथ पर आगे बढ़ पाएगा।
देश भर में सफाई कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए सफाई कर्मचारी एक्ट बने हुए हैं। ये एक्ट उन्हें रोजगार देने वाले व्यक्ति अथवा संस्था के शोषण से बचाते हैं। मगर धारा-370
के कारण जम्मू-कश्मीर में सफाई कर्मचारी के रूप में सेवाएं देने वाले वाल्मीकि समुदाय इस रक्षा कवच से भी मुक्त वंचित रह गया। देश के अन्य राज्यों में दलितों पर अत्याचार रोकने के लिए सख़्त कानून लागू हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर में ऐसा नहीं था। देश के अन्य राज्यों में अल्पसंख्यकों के हितों के संरक्षण के लिए माइनॉरिटी एक्ट लागू है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में ऐसा नहीं था। जम्मू-कश्मीर के वाल्मीकि समुदाय के सफाई कर्मचारियों के मानवाधिकारों का यह खुले तौर पर हनन माना जाएगा।
न्यायपालिका से भी राहत की नहीं थी आस
भारत में जब कभी किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन होता है तो उस स्थिति में राहत के लिए वह न्यायपालिका जा सकता है। मगर अनुच्छेद-370
की सबसे बड़ी समस्या ही यही थी कि भारतीय संविधान के कई कानून जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होते थे। इस सीमाबंदी के कारण जम्मू-कश्मीर में शोषित हो रहे वाल्मीकि समुदाय के लोग अपने मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ न्यायपालिका भी नहीं जा सकते थे। इस तकनीकी जटिलता के कारण जम्मू-कश्मीर में वाल्मीकि समुदाय के मानवाधिकारों के हनन की पहेली और भी जटिल होती गई। इस प्रावधान के अनुसार भारत का नागरिक जम्मू-कश्मीर में कई अधिकारों से वंचित हो जाता है। लेकिन वह इन मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन को लेकर भारत के किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दे सकता। यह संवैधानिक प्रावधान अनुच्छेद 370
से संबंधित विवाद की जड़ है। निश्चित रूप से अनुच्छेद-370
के निरस्तीकरण के पश्चात् इस संदर्भ में हालात बदलेंगे।
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का निरस्तीकरण और मानवाधिकारों की बहाली
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और 35ए के कारण जहां अलगाववादी विचारधारा के लिए स्थान उपलब्ध होता रहा, वहीं वाल्मीकि समुदाय के मानवाधिकारों के हनन का मामला भी निरंतर आगे बढ़ता रहा। जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों की बहाली और राज्य को विकास के पथ पर आगे बढ़ाने की दिशा में अनुच्छेद-370
और 35ए का निरस्तीकरण एक बड़ी उपलब्धि माना जाएगा। केंद्र सरकार ने संसदीय प्रक्रिया द्वारा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370
एवं 35 ए का स्थगन प्रस्ताव पारित किया और अक्तूबर 2019
में वैधानिक रूप से इन दोनों अनुच्छेदओं का अभिनिषेध कर दिया गया। अनुच्छेद-370
एवं 35 ए का स्थगन ना केवल विदेशी षडयंत्र, आतंकवाद और अलगाववादी विचार अनुच्छेद वाले राष्ट्रीय एकीकरण के शत्रु तत्वों को रोकने के साथ ही शांति निर्माण, विकास एवं मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए भी अति आवश्यक था। भारत रत्न लालकृष्ण आडवाणी अनुच्छेद-370
के प्रावधानों के प्रति न केवल चिंतित थे, बल्कि इसे खत्म करने के लिए भी निरंतर प्रयासरत रहे। अनुच्छेद-370
के निरस्तीकरण के फैसले पर उन्होंने खुलकर अपनी खुशी जाहिर की। अनुच्छेद 370
को हटाने वाले केंद्र सरकार के फैसले का हम स्वागत करते हैं, देश की एकजुटता को मजबूत करने की और यह ऐतिहासिक फैसला है। अनुच्छेद 370
को हटाना भाजपा के हित में रहा है, जनसंघ के जमाने से हमारे संकल्प में है। इस तरह से अनुच्छेद 370
के निरस्तीकरण के पश्चात हर देशवासी ने इस निर्णय पर अपनी खुशी जाहिर की।
राष्ट्रीय एकीकरण और मानवाधिकारों की पुन बहाली के लिए यह निर्णय एक मील का पत्थर साबित होगा। वहीं इस निर्णय के बाद जम्मू कश्मीर में लोकतांत्रिक संस्थाओं, व्यवस्थाओं एवं परंपराओं का भी सुदृढ़ीकरण होगा। 5 अगस्त,
2019 को केंद्र की मोदी सरकार ने विश्व राजनीति को आश्चर्यचकित करते हुए जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370
व 35ए को संसदीय प्रक्रिया के अंतर्गत अभिनिषेधित करने का प्रस्ताव पास करते हुए जम्मू-कश्मीर में सशक्त लोकतंत्र की नीव रखते हुए शांति, विकास एवं मानवाधिकारों की पुनः बहाली एवं राष्ट्रीय एकीकरण की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण एवं आवश्यक निर्णय लिया है। उम्मीद के अनुरूप अब इसके परिणाम भी सामने आने लगे हैं।
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के स्थगन के पश्चात् जम्मू-कश्मीर में विकास कार्यों के क्रियान्वयन में आने वाले अवधान समाप्त हो गए हैं और अनेक ऐसे क्षेत्र जिनमें निर्णय लेने में केन्द्र सरकार अनुच्छेद 370
में किये गए प्रावधानों के अंतर्गत अक्षम थी, उन सभी क्षेत्रों में भी अब केन्द्र सरकार द्वारा निर्णय लेने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। अब आर्टिकल 370
और 35-ए इतिहास की बात हो जाने के बाद उसके नकारात्मक प्रभावों से भी जम्मू-कश्मीर जल्द बाहर निकलेगा, इसका मुझे पूरा विश्वास है। वाल्मीकि समुदाय, गोरखा लोगों और पश्चिमी पाकिस्तान से उजाड़े और खदेड़े गए शरणार्थियों को पहली बार राज्य में होने वाले चुनाव में मत देने का अधिकार मिला। वाल्मीकि, दलित और गोरखा जो राज्य में दशकों से रह रहे हैं, उन्हें भी राज्य के अन्य निवासियों की तरह समान अधिकार मिल रहे हैं। इस प्रकार से वाल्मीकि समुदाय ने कई दशकों तक शोषण, अन्याय और पीड़ा सही, उसका अब एक सुखद अंत हो रहा है।
निष्कर्ष : गरिमापूर्ण जीवन जीना हर मनुष्य का एक जन्मसिद्ध अधिकार है। संविधान भी नागरिकों के इस अधिकार की रक्षा की गारंटी देता है। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में अनुच्छेद-370
और 35ए के रूप में जो एक ऐतिहासिक भूल हुई थी, उसे अब सुधार लिया गया है। इन अन्यायपूर्ण प्रावधानों के अंत के साथ ही जम्मू-कश्मीर में अब तक उपेक्षित रहे वाल्मीकि समुदाय के मानवाधिकारों की बहाली का मार्ग प्रशस्त हुआ है। जम्मू-कश्मीर के समग्र एवं समावेशी विकास की दृष्टि से इस निर्णय के निश्चित रूप से सुखद एवं दूरगामी परिणाम होंगे।
संदर्भ :
पृष्ठ-35
2019). प्रभात खबर, पटना संस्करण,
पृष्ठ-3
पृष्ठ-39
पृष्ठ-39
अनुच्छेद-370 और 35ए. नई दिल्लीः दि रीडर्ज पैराडाइज. पृष्ठ-10-11
एक देश, एक विधान, एक निशान का सपना साकार, पृष्ठ-9
हर्ष कुमार
शोधार्थी, कश्मीर अध्ययन केंद्र, हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला
harshgashwa33@gmail.com, 8352020880
रविंद्र सिंह
रिसोर्स पर्सन, जनजातीय अध्ययन केंद्र, हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशालाdrrsbhadwal@gmail.com, 9015060820
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