भूमंडलीकरण : पलायन और विस्थापन / दिलीप शाक्य, एस. लिंगामूर्ति एवं हरीश कुमार / सूत्रधार : भावना

भूमंडलीकरण : पलायन और विस्थापन
- दिलीप शाक्य, एस. लिंगामूर्ति, हरीश कुमार 
सूत्रधार : भावना
प्रस्तुत परिचर्चा में भूमंडलीकरण के दौर में पलायन और विस्थापन  पर विचार किया गया है। पलायन और विस्थापन कोई नवीन क्रिया नहीं है। इसका भी अपना एक इतिहास रहा है। परंतु वर्तमान समय में यह विकराल सामाजिक समस्या के रूप में हमारे सामने उपस्थित है। पलायन  और विस्थापन की समस्या से जूझते आमजन, आदिवासी, किसान, दलित, मजदूर आदि की पीड़ा साहित्य में भी चित्रित हुई है। पलायन और विस्थापन संबंधित चुनौतियाँसकारात्मक और नकारात्मक पहलू, राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसका प्रभाव आदि ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो समय-समय पर गंभीर चिंतन और मनन की मांग करते हैं वर्तमान समय में भूमंडलीकरण अत्यंत चर्चित और विवादास्पद धारणा है हालांकि इसके सूत्र भी हमें प्राचीन समय से मिलते हैं लेकिन समय के साथ-साथ इसके स्वरूप में परिवर्तन अवश्य आया है। अमेरिकी विद्वानों का मानना है कि भूमंडलीकरण का सबसे पहला प्रयोगथ्योडोर लेविटने किया है। डॉ. रामविलास शर्मा भूमंडलीकरण की अवधारणा को नया नहीं मानते। इनका मानना है किग्लोबलाइजेशनशब्द ब्रिटिश कालीन विचारकडीज्बिलका है। वे भूमंडलीकरण को ब्रिटिश उपनिवेशवाद का ही विस्तार मानते हुए कहते हैं कि फ़र्क सिर्फ इतना है कि उस समय महाशक्ति के रूप में ब्रिटेन था और आज अमेरिका। पूंजीवादी व्यवस्था का भूमंडलीकरण निश्चित रूप से कोई नवीन प्रक्रिया नहीं है लेकिन हाल की अवधि में इसने एक गुणात्मक कदम बढ़ाया है।

            भूमंडलीकरण मुख्य रूप से दो क्षेत्रों पर सर्वाधिक बल देता है; ‘उदारीकरणऔरनिजीकरण उदारीकरण का अर्थ है, औद्योगिक और सेवा क्षेत्र की विभिन्न गतिविधियों से संबंधित नियमों में ढील देना और विदेशी कम्पनियों को घरेलू क्षेत्र में व्यापारिक और उत्पादन इकाइयाँ लगाने हेतु प्रोत्साहित करना। निजीकरण के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों की सम्पत्ति को निजी क्षेत्र के हाथों बेचना भी सम्मिलित है। अब चूंकि भूमंडलीकरण एक प्रकार से सरकारों को संसाधनों का निजीकरण करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है जिसके कारण विकास के साथ-साथ लाभ कमाने की दृष्टि से संसाधनों का दोहन करने की संभावना भी बढ़ जाती है। इसी के साथ बाजारवाद और उपभोक्तावाद भूमंडलीकरण के सहचर के रूप में कार्य करते  हैं।  भूमंडलीकरण के इस दौर में आज हमारे समक्ष विकास के जो मॉडल रखे जा रहें हैं, काफ़ी हद तक उनका रूप एकाकी है, और वह बड़े ही सीमित अर्थ में समाज को आधुनिक और विकसित करना चाहता है। भारत में शहरों की ओर बढ़ते प्रवास को संभालने की क्षमता सीमित है और सिर्फ़ भारत के शहरों में बल्कि वैश्विक पटल पर भी देखें तो स्थिति कुछ खास संतोष जनक नहीं है इसका सबसे बड़ा उदाहरण अमेरिका है हाल हीं में शिक्षा के क्षेत्र में अमेरिका ने अन्य देशों के छात्रों को उनके ही देश में बैठे-बैठे डिग्री देने का चलन शुरू किया है कहने का अर्थ है कि अब आपको शिक्षा ग्रहण करने के लिए अमेरिका जाने की जरूरत नहीं है बल्कि आप ऑनलाइन माध्यम से कई क्षेत्रों में घर बैठे डिग्री ले सकते हैं कहीं कहीं अमेरिका प्रवास के दूरगामी परिणामों को समझ रहा है। वहीं दूसरी ओर भारत में बढ़ते शहरीकरण ने परम्परागत सामाजिक ढांचे को पलट कर रख दिया है। विकास का यह स्वरूप सामान्य जन को पलायन और विस्थापन की ओर धकेल रहा है। ये समस्याएँ विकास के पर्याय के रूप में हमारे सामने परोसी जा रही हैं। यदि हम वैश्विक स्तर पर विस्थापन की समस्याओं की गणना करें, तो भारत वह देश ठहरता है, जहाँ भूमंडलीकरण के आगमन से विकास के पर्याय के रूप में विस्थापन की समस्या का दायरा बढ़ा है। भूमंडलीकरण के दौर में सरकार के द्वारा जिन आर्थिक नीतियों को बड़े स्तर पर लागू किया गया उसमें वितरण की असमानता ने मजदूरों को व्यापक स्तर पर पलायन करने के लिए मजबूर किया। मैनेजर पाण्डेय अपनी पुस्तकभारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परामें ग्राम्शी के विचार को उद्धृत करते हुए कहते हैं किमुक्त व्यापार भी एक प्रकार का नियंत्रण है जो कानून और ताकत से लागू किया जाता है। वह जानबूझकर बनाई गयी ऐसी नीति है जो अपने लक्ष्यों के बारे में सचेत है यह आर्थिक स्थिति का स्वाभाविक और स्वतंत्र विकास नहीं।पलायन और विस्थापन भारत में सन् 2000 के बाद और बढ़ा है जहांआंतरिक विस्थापनबड़े पैमाने पर हुआ है जिसने काफी हद तक सामाजिक संरचना में बदलाव पैदा किया है। 

            वर्तमान समय में यह विषय लगातार विचार विमर्श की मांग तो करता ही है साथ ही सरकार की ओर से कानून और नियमों में बदलाव की भी मांग करता है विद्वतजनों का प्रस्तुत विषय को लेकर क्या नजरिया है, वे इसके विभिन्न पहलुओं को किस रूप में देखते हैं यह परिचर्चा इसी का प्रतिफलन है।

प्रश्न:- 

1.    पलायन और विस्थापन को आप किस रूप में देखते हैं?

2.    भूमंडलीकरण के बाद पलायन और विस्थापन संबंधी अवधारणा ने भारत को किस रूप में प्रभावित किया है?

3.     आपकी नजर में, वर्तमान दौर में भारत के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलू क्या-क्या हैं?

4.      साहित्य में यह किस रूप में चित्रित होता दिखाई देता है ?

5.     विकास के लिए विस्थापन और पलायन आवश्यक है ऐसी धारणा लोगों के मन में पैदा हो गई है। इस प्रकार की जो भी संरचनाए समाज में गढ़ी जा रही हैं, वे भविष्य के लिए कितनी घातक हो सकती हैं ?


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1. विस्थापन और पलायन को यदि हम वैश्विक परिदृश्य में देखें तो यह जिस एक और शब्द से जुड़ता है वह है माईग्रेशन। इसी से माइग्रेशन लिटरेचर की अवधारणा निकली है जिसे हिंदी में हम प्रवासी साहित्य कहते हैं। माईग्रेशन को हम सीधे-सीधे अर्थों में समझे तो इसका मतलब है किसी व्यक्ति या समुदाय का एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर जाकर बस जाना I इस तरह जब वह व्यक्ति या समुदाय एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने को मजबूर होता है तो या तो उसे शरणार्थी के रूप में स्वीकार किया जाता है या अनिवासी के रूप में। दोनों ही स्थितियों में वह अपनी जड़ों से कट जाता है। जड़ों से कटने का मतलब है कि वह जगह जहाँ उसने आरम्भिक जीवन बिताया -जीवन का एक अहम हिस्सा-अचानक से किसी व्यक्तिगत या सामाजिक कारण से छूट जाता है। ऐसा कभी मजबूरीवश होता है तो कभी स्वेच्छावश। जब मजबूरीवश होता है तो उसके कई सारे कारण होते हैं जैसे एक बहुत मोटा कारण है,प्राकृतिक आपदा यानी कि बाढ़, भूकंप,तूफान, अकाल,सूखा इत्यादि-इत्यादि। दूसरा जो कारण है वो है शिक्षा,आजीविका या रोजगार के लिए अपने गाँव, शहर या देश से पलायन। इस स्थिति में भी कोई व्यक्ति या समुदाय अपने मूल स्थान को किसी अन्य स्थान के लिए छोड़ देता है उदाहरण के लिए हम और आप जैसे लोग जो चाहे शिक्षा के कारण महानगरों में आए हों चाहे रोजगार के कारण असल बात यह है कि हमने अपने वास्तविक निवास को छोड़ दिया है लेकिन हम अपनी स्मृति और नॉस्टेल्जिया में उसे अब भी पकड़े हुए हैं। तो असली विस्थापन है जड़ों से कट जाना जैसे पेड़ की लकड़ी पेड़ से कटकर फर्नीचर में बदल जाती है।फर्नीचर कितना ही चाहे कि वह पेड़ हो जाए लेकिन नहीं हो सकता। सारांश यही है कि विस्थापन या पलायन चाहे बलपूर्वक हो चाहे स्वेच्छा से आप उस जगह से कट जाते है जिस जगह से आपने अपनी जिंदगी शुरू की थी। केवल आप ही नहीं कटते हैं कटने की प्रक्रिया में एक समाज भी शामिल रहता है संस्कृति भी परंपरा भी राष्ट्रीयता भी आप हर चीज से कटते जाते हैं यहाँ तक कि अपने आप से भी। 

 

2. अगर आप पीछे मुड़कर पूरी बीसवीं सदी को देखें तो बहुत हद तक यह बात कही जा सकती है कि बीसवीं सदी विस्थापन की सदी है -सेंचुरी ऑफ माईग्रेशन। इतिहास बताता है कि विस्थापन और पलायन की यह त्रासदी प्राकृतिक कम मानव निर्मित त्रासदी अधिक होती आयी है। भूमंडलीकरण,उदारीकरण और निजीकरण के बाद पूरी दुनिया में हुए अबाध तकनीकी विकास और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन ने विस्थापन की गति को पहले से कई गुना तेज कर दिया है। बीसवीं सदी को आरम्भ से अंत तक देखें तो पहला विश्वयुद्ध और दूसरा विश्वयुद्ध दो बड़ी घटनाएँ हैं जो विस्थापन की समस्या को क़रीब से समझने का अवसर देती हैं। इन युद्धों के दौरान और पश्चात पूरे यूरोप में बहुत बड़े पैमाने पर पलायन और विस्थापन हुआ। दूसरे विश्वयुद्ध का सीधा-सीधा मतलब उस नाजीवाद से था जिसमें लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपनी जान बचाने के लिए जाना पड़ा या उन्हें जान देने के लिए जहाँ वे थे वहाँ से कन्सन्ट्रेशन कैम्पों में ले जाया गया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद हमारे देश ने भी एक बड़ी त्रासदी को झेला है जिसे हम तक़सीम बटवारा विभाजन या पार्टीशन के नाम से पहचानते हैं। 1947 में जब भारत से टूटकर एक नया देश पाकिस्तान बना तो बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक हिंसा हुई। इस हिंसा ने भारत में पलायन और विस्थापन का एक त्रासद इतिहास लिखा। यह बाई फोर्स भी हुआ और बाई चॉइस भी ।

 

3. विस्थापन और पलायन को जब विद्वान आर्थिक उदारीकरण और विकास के पैमाने से देखते हैं तो कहते हैं तो कहते हैं कि यह एक बहुत सकारात्मक स्थिति है क्योंकि अगर ये लोग नहीं आएंगे तो सड़कें इमारतें और बांध कौन बनाएगा। फैक्टरियों और कंपनियों में काम कौन करेगा। राष्ट्रों का विकास कैसे होगा? विस्थापन और प्रवास से उनको सुविधाएं भी मिलती हैं उनकी जीवन स्थितियाँ बेहतर होती हैं। तो इसका सकारात्मक पहलू भी है। दुनिया में जब भी तकनीकी विकास के युग को समझा जाएगा उसमें मनुष्य की भूमिका को उसकी ह्यूमन स्पिरिट को एनवॉलव किया जाएगा, क्योंकि उसके बिना तो कोई बात बन नहीं सकती। यही विडम्बना है यही त्रासदी है कि जिस रफ़्तार से दुनिया में विकास की गाथा लिखी जा रही है उसी रफ़्तार से दुनिया विस्थापन का दंश भी झेल रही है। विकास चमकीली इमारत के नीचे विस्थापन की अँधेरी बुनियाद है। भारत से विस्थापित होकर ब्रिटेन जाने वाले लोगों की संख्या इतनी है कि वे वहाँ मेयर भी बन जाते हैं मिनिस्टर भी बन जाते हैं। इसी तरह अमेरिका में भी है। हम अगर इन लोगों के निजी पक्ष से सोचें तो वे खुशहाल और समृद्ध हैं लेकिन सांस्कृतिक पक्ष से विचार किया जाए तो वह जिस समाज या जिस राष्ट्र के लिए काम कर रहे हैं उसकी मूल संस्कृति इनकी नहीं हैं।सांस्कृति और राष्ट्रीयता पर आज हमारी सरकार भी गम्भीर है। यही कारण है कि अधिक से अधिक अप्रवासी भारतीयों को भारत की संस्कृति और विरासत से जोड़ा जा रहा है। 

 

4. विस्थापन और पलायन के प्रश्न को साहित्य अलग तरह से देखता है। प्रायः स्मृति नास्टैल्जिया और प्रतिरोध के रूप में। प्रसिद्ध हंगेरियन लेखक जॉर्ज कोनरेड के मेमॉयर ‘ए गेस्ट इन माई ऑन कंट्री’ में इस प्रश्न को बहुत निकटता और संवेदनशीलता के साथ संबोधित किया गया है । वे यहूदी थे और दूसरे विश्वयुद्ध के पीड़ित और सर्वाइवर भी। किताब में वे अपने बचपन की यंत्रणा और अनुभव को जिस सामाजिक अलगाव के साथ दर्ज करते हैं वह विस्थापन का ही दर्द है। विस्थापन और पलायन के प्रश्न को एक अलग क़िस्म की बौद्धिक सतह पर चित्रित करने के लिए हम मिलान कुंडेरा के साहित्य को भी याद कर सकते हैं खासतौर से उनके उपन्यास अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग और इग्नोरेंस को जो प्राग-स्प्रिंग के दौर के माइग्रेशन को संबोधित करते हैं। विस्थापन की पीड़ा को यदि हम भारतीय साहित्य में देखें से तो हमारे लिए विभाजन की त्रासदी से बड़ी कोई घटना नहीं है। हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में इस त्रासदी पर अनेक किताबें लिखी गयीं। झूठा-सच, तमस, टेढ़ी लकीर, ट्रेन टू पाकिस्तान, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान आदि कई मशहूर उपन्यास लिखे गए। टोबाटेक सिंह और अमृतसर आ गया है जैसी कहानियाँ हैं । भारतीय समाज की आंतरिक संरचना को समझें तो विस्थापन और पलायन की बाध्यता के पीछे जातिवाद की समस्या भी दिखेगी। पढ़े लिखे आधुनिक युवाओं का गाँवो और छोटे कस्बों से बड़े शहरों और महानगरों की ओर पलायन का एक गंभीर कारण यह भी है। वहाँ कम से कम वे अपमान और ऊँच नीच के बंधनों से काफ़ी हद तक मुक्त हो जाते हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि जहाँ भेदभाव और असमानता होगी वहाँ से व्यक्ति पलायन करना चाहेगा ऐसा चाहे जातिवाद के कारण हो या सांप्रदायिकता के कारण। इसी तरह हमारे समाज में विवाह की परम्परा को देखिये, एक स्त्री अपने जन्म से विवाह की आयु तक अपने परिवार के साथ रहती है फिर एक दिन विवाह के बाद उसे किसी और भौगोलिक परिवेश में बसे किसी दूसरे परिवार में जाना पड़ता है। मायका एक देस हो जाता है और ससुराल विदेस। इस विदेस में उसका बस जाना भी तो एक प्रकार का विस्थापन ही है। यही वजह है कि आज स्त्री-अस्मिता का अधिकांश साहित्य चाहे उसे स्त्रियाँ लिख रही हों चाहे पुरुष परिवार की संस्था से संघर्ष का साहित्य है। साहित्य हो या समाज वास्तविक मुक्ति और समता के लिए हमें अपने पारम्परिक विश्वासों और रीतिरिवाजों की ओर कठोर आलोचनात्मक दृष्टि से देखना होगा अर्थात् जो जीवन और स्थानिकता हमारे पास है हमें उसमें आगे बढ़ने की सुविधा और स्वतंत्रता होनी चाहिए। विस्थापन देश में हो रहा हो या देश की सीमाओं से बाहर दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति और राष्ट्र की गरिमा को ठेस पहुँचती है। गांधी जी ने जब कहा था कि असली भारत गाँवो में बसता है और गाँव ही किसानों का मुख्य घर है तो इस बात को हमें याद रखना चाहिए। आशय यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था ग्राम और किसान केंद्रित होनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है क्यों कि ग्रामीण और कृषि क्षेत्र को आगे ले जा सकने वाली नई पीढ़ी निरंतर शहरों की ओर भाग रही है। तो जब आप वहां हैं ही नहीं तो आप उन संसाधनों का इस्तेमाल कर ही नहीं सकते फिर कम्पनियां आकर उनका दोहन करेंगी और आप जहाँ भी होंगे अपने ही इलाकों के संसाधनों को नए रूप में आयात करेंगे और अपनी वापसी की असमर्थता पर दुखी होंगे। मैं समझता हूँ कि ये सभी समस्याएं कम या अधिक हमारे आज के साहित्य में चित्रित हो रही हैं।                          

 

5. बात यह है कि जब तक आप कारणों पर विचार नहीं करेंगे कि विस्थापन और पलायन क्यों होता है तब तक सही तस्वीर सामने नहीं आएगी ? अगर आप कारणों का दार्शनिक विश्लेषण करेंगे तो आपको मालूम होगा कि दरअसल बेहतर भविष्य की आकांक्षा में जो लोग एक देश से दूसरे देश जाते हैं वह इसलिए जाते हैं क्योंकि उनके देश में वैसी व्यवस्थाएँ नहीं है। इसलिए हमारे यहां से विदेशों में पलायन तो बहुत होता है लेकिन विदेशों से हमारे यहां कितना पलायन होता है? हमारे यहां आकर कितने अमेरिकन, कितने योरोपियन कितने जैपेनीज, कितने चायनीज बसे हुए हैं? और जो हैं वे अधिकतर अन्य कारणों से हैं ऐसा नहीं है कि वे काम की तलाश में हमारे देश आते हैं। यह संख्या बहुत कम है न के बराबर।अक्सर विकासशील देशों से ही लोग विकसित देश की ओर जाते हैं। देखिए विस्थापन और पलायन की समस्या है और रहेगी। अनेक विविधताओं और असमानताओं से भरे हमारे देश में तो इसकी समाप्ति शायद ही कभी संभव हो। प्रश्न यह यह है कि इसे कम कैसे किया जाए और जो यथा स्थिति है उसे कम से कम असहनीय कैसे बनाया जाए। विस्थापन से जो राजनीतिक और सांस्कृतिक संकट पैदा हो रहें हैं उन्हें कैसे संबोधित किया जाए। 

भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद यदि दिल्ली का उदाहरण लें तो बहुत सारे फ्लाईओवर बने, ओवरब्रिज बने, नोएडा, गुरुग्राम दो बड़े कारोबारी इलाके विकसित हुए। यह स्थिति नब्बे से पहले नहीं थी। अब ये व्यवसाय के केंद्र हैं। तो अब कालसेंटरों, होटलों, रिहायशी अपार्टमेंटों, फ़ार्महाउसो आदि के लिए अब आपको इमारतें बनानी हैं। इसके लिए रेत चाहिए जिसे आप समुद्र से, नदियों से क़ानूनी-गैरकानूनी रूप से निकाल रहे हैं उसके लिए आप गाँवो और कस्बों से मज़दूरों की खेपें बुला रहे हैं। यानी गाँवों से शहरों की तरफ पलायन हो रहा है विस्थापन हो रहा है। इसमें महिलाएं पुरुष बच्चे बूढ़े सभी हैं। रिक्शा चलाने वाले, सब्जी बेचने वाले, गाड़ी साफ़ करने वाले, घरों में काम करने वाली महिलाएं सब गाँव कस्बों से महानगरों की ओर आ रहे हैं। याद कीजिए विनोदकुमार शुक्ल की कविता रायपुर बिलासपुर संभाग।कहने का अर्थ यह है कि राष्ट्र की समृद्धि और विकास तो ठीक है लेकिन जब तक इसे संभव करने वाले विस्थापितों के बेहतर भविष्य के लिए कोई दीर्घकालीन योजना नहीं होगी तब तक विस्थापन को समग्र विकास के लिए सकारात्मक स्थिति के रूप में देखना एक अमानवीय और असंवेदनशील संकल्पना ही कही जाएगी। 

दिलीप शाक्य
प्रोफेसर, हिंदी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई  दिल्ली

 

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1. प्रवास और विस्थापन को आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आदि विभिन्न रूपों में देखा गया है। यद्यपि, प्रवास और विस्थापन के कारण लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, वे समान नहीं हैं। प्रवास के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव हैं। लेकिन विस्थापन प्राकृतिक आपदाओं, युद्धों, आर्थिक संकट, आजीविका के अवसरों के सूखने और चरम जलवायु परिस्थितियों के कारण मानव जीवन के प्रति संवेदनशीलता और विनाशकारी स्थितियों को रेखांकित करता है।

2. प्रवास और विस्थापन दोनों ने भारत और विश्व में समाजों, अर्थव्यवस्थाओं और पर्यावरण को काफी हद तक प्रभावित किया है। स्वैच्छिक प्रवास और जबरन प्रवास के आधार पर ग्रामीण से शहरी, शहरी से देश के भीतर और देश के बाहर, शहर से शहर की ओर प्रवास होता है। बेहतर रोजगार, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और रहन-सहन की गुणवत्ता जैसे अनेक अवसरों के कारण स्वैच्छिक प्रवास किया जा रहा है। आपदाओं, आजीविका की खोज, आर्थिक संकट और प्राकृतिक आपदाओं से प्रेरित मजबूर प्रवास। कोई भी देश इन स्थितियों के लिए असाधारण नहीं है। भारत में, ऐतिहासिक रूप से प्रवास ने विशेष रूप से मेट्रो शहरों में एक सीमित बुनियादी ढाँचे और प्राकृतिक संसाधनों के साथ आर्थिक विकास के माध्यम से नई बस्तियों, कस्बों की स्थापना की। भारत का डायस्पोरा दुनिया में सबसे बड़ा है, जो हर साल प्रेषण में $ 120 बिलियन से अधिक भेजता है, जो ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देता है, बुनियादी ढांचे के विकास, व्यवसायों की स्थापना आदि के लिए निवेश करता है। हालांकि, कुशल प्रवासन को प्रतिभा पलायन के रूप में देखा  जा सकता है जो स्वास्थ्य देखभाल और प्रौद्योगिकी जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को प्रभावित करता है। विश्व स्तर पर, प्रवासी आर्थिक विकास और नवाचार को बढ़ावा देते हैं लेकिन असमानताओं और सामाजिक तनाव को बढ़ा सकते हैं।

भारत में विस्थापन, अक्सर संघर्षों या विकास परियोजनाओं के कारण होता है, समुदायों को बाधित करता है और शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसी सेवाओं तक पहुंच को सीमित करता है। समुद्र के बढ़ते स्तर और चरम मौसम से प्रेरित जलवायु-प्रेरित विस्थापन, एक बढ़ती हुई चुनौती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, युद्ध और जलवायु घटनाएँ लाखों लोगों को विस्थापित करती हैं, सहायता प्रणालियों को प्रभावित करती हैं और राजनीतिक तनाव को बढ़ावा देती हैं। शरणार्थी संकट समन्वित वैश्विक प्रतिक्रियाओं की आवश्यकता को उजागर करते हैं।

3. प्रवासन अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में श्रम अंतराल को पाटकर और नवाचार को बढ़ावा देकर आर्थिक विकास को बढ़ावा देता है। भारत में, आंतरिक प्रवास शहरी अर्थव्यवस्थाओं और निर्माण और कृषि जैसे क्षेत्रों का समर्थन करता है, जबकि प्रवासी भारतीयों से प्रेषण ग्रामीण परिवारों और लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाता है। विश्व स्तर पर, प्रवासन सांस्कृतिक आदान-प्रदान, विविधता को समृद्ध करता है, वैज्ञानिक प्रगति और नवाचारों के लिए सीमा पार सहयोग को बढ़ावा देता है, और जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे  देशों में जनसांख्यिकीय चुनौतियों का समाधान करता है। विस्थापन लचीलापन लाता है, समुदायों के साथ सकारात्मक पहलुओं पर उनके जीवन में प्रतिकूलताओं के बावजूद नए वातावरण के अनुकूल होते हैं।

    नकारात्मक पक्ष पर, भारत में, प्रवासन ने शहरी बुनियादी ढांचे को बाधित किया, मलिन बस्तियों में वृद्धि की, बुनियादी सुविधाओं के बिना भीड़भाड़ को बढ़ा दिया वह भी परिस्थितियों में न्यूनतम आजीविका के अवसरों के साथ। भारत में आर्थिक संकट, सुनामी, बाढ़, भूस्खलन और धार्मिक संघर्षों जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण विस्थापन हुआ, जिससे उन्हें अपनी संपत्ति, परिवार को बचाने के लिए छोड़ना पड़ा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, युद्धों और जलवायु परिवर्तन से बड़े पैमाने पर विस्थापन मानवीय प्रणालियों को प्रभावित करता है, जिससे मेजबान देशों में राजनीतिक तनाव और सामाजिक तनाव पैदा होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका और मेक्सिको के बीच बढ़ती आप्रवासी विरोधी भावनाएँ मानवता के लिए विनाशकारी स्थितियों के लिए एक उदाहरण है।

4.  मैं इस प्रश्न के लिए इसे समझाने के लिए सही व्यक्ति नहीं हूँ। हालांकि, मैं यह मानता हूँ कि, प्रवास और विस्थापन गहराई से खोजे गए विषय हैं क्योंकि मानव जीवन लचीलापन और मानवता इन मुद्दों से जुड़ी हुई है। भारत के विभाजन के आघात को हिंदी साहित्य में सशक्त रूप से चित्रित किया गया है, जो हिंदी सिनेमा में जबरन विस्थापन और इसके भावनात्मक टोल को प्रदर्शित करता है। प्रवासी भारतीयों और प्रवासन पर शक्तिशाली आख्यान लोगों को लोगों द्वारा चुनौतियों का सामना करने के लिए जागरूक करते हैं।

5. अर्थव्यवस्था के विकास, जीवन की गुणवत्ता में सुधार, गुणवत्तापूर्ण नौकरियों को बढ़ावा देने आदि के लिए स्वैच्छिक प्रवास और वैध विस्थापन को स्वीकार किया जाता है। लेकिन, जबरन प्रवास और विस्थापन सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करता है, समुदायों को बाधित करता है, असमानता पैदा करता है, भविष्य की पीढ़ियों को डिस्कनेक्ट करता है। इसलिए, हमें यह समझने की आवश्यकता है कि किस प्रकार का प्रवास और विस्थापन हो रहा है। यदि स्वैच्छिक प्रवास और विस्थापन समाज के साथ-साथ विस्थापित समाज में आर्थिक समृद्धि लाता है, तो समाज इसे भविष्य के फल के लिए स्वीकार कर सकता है। हालांकि, हमें ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जहां कोई अवांछित प्रवास और विस्थापन हो।


एस. लिंगामूर्ति
सह आचार्य, अर्थशास्त्र विभाग, कर्नाटक केन्द्रीय विश्विद्यालय, कलबुर्गी 

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1. पलायन का व्यावहारिक अर्थ किसी एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थायी या आंशिक रूप से जाना होता है। पलायन आंतरिक और बाह्य दोनों ही हो सकता है। आंतरिक पलायन से तात्पर्य है किसी देश के भीतर एक राज्य से दूसरे राज्य में आवागमन करना जबकि बाह्य पलायन का आशय किसी अन्य देश में स्थानान्तरण से है। पलायन शब्द का इस्तेमाल अक्सर विस्थापन शब्द के पर्याय के रूप में स्वीकार किया जाता है लेकिन पलायन और विस्थापन के बीच एक विशेष अंतर होता है मेरा मानना है कि पलायन, मुख्य रूप से व्यक्तियों या परिवारों के अपने मूल स्थान से अन्यत्र, जाने के रूप में देखा जा सकता है। यह सामान्यतः स्वैच्छिक होता है जिसके पीछे प्रमुख रूप से दो कारण होते है -

1.    सकारात्मक (नौकरी के लिए, बेहतर स्थिति में जीवन यापन के लिए, सुबिधा युक्त क्षेत्र में पलायन आदि)

2.    नकारात्मक  (संघर्ष, हिंसा, आपदा, उत्पीड़न इत्यादि

 व्यक्तियों या परिवारों को जब अपने मूल स्थान को इच्छा के विपरीत जबरन छोड़ना पड़ता है तो वह विस्थापन होता है। इसको हम इस रूप में भी देख सकते हैं कि नकारात्मक पलायन भी विस्थापन है विस्थापन से तात्पर्य है कि अपने सामान्य स्थान से दूर आंतरिक (देश के भीतर) अथवा अंतर्राष्ट्रीय (विभिन्न देशों में) सीमाओं के पार जाने के लिए जिन्हें मजबूर किया गया हो इन दोनों स्थितयों से स्पष्ट होते हुए स्वाभाविक है कि सकारात्मक पलायन विकासोन्मुखी होता है

2.  मेरा मानना है कि भूमंडलीकरण ने भारत को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया है। भूमंडलीकरण शुरुआत में एक आर्थिक परिघटना थी परन्तु कालांतर में इसने सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित किया है। आपको विदित ही है कि भूमंडलीकरण प्रवासन का कारण बनता है और प्रवासन सीमाओं के पार सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक संबंधों पर भी प्रभाव डालता है। भारत सांस्कृतिक एवं ज्ञान के स्तर पर उच्चतम स्थितियों में रहा है। भूमंडलीकरण के कारण भारत से लाखों लोगों ने पलायन किया है भूमण्डलीकरण ने भारतीय समाज के मूल्यों में भी परिवर्तन ला दिया है। एकल परिवारों की संख्या में वृद्धि, एक दूसरे पर विश्वास का अभाव, आभासी जिन्दगी पर निर्भरता, परम्पराओं का ह्रास, बुजुर्गों का तिरस्कार, सामाजिकता का अभाव, मानवीय भावनाओं पर भौतिक साधनों का वर्चस्व आदि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। सामाजिक समरसता की जगह व्यक्तिगत लाभ ने घर कर लिया है

3.  आप को विदित ही है कि किसी भी कार्य के दो पहलू होते हैं एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। यदि भूमंडलीकरण के सकारात्मक प्रभावों की चर्चा की जाए तो वह है- आर्थिक उन्नति और गरीबी में कमी, नौकरियों का सृजन, प्रौद्योगिकी तक अधिक पहुँच, सांस्कृतिक विविधता और सहिष्णुता, नए सामाजिक आंदोलनों का उदय, पारदर्शिता आदि हैं। वहीं नकारात्मक पक्ष की बात की जाए तो भूमंडलीकरण के नकारात्मक प्रभावों में अधिक असमानता, भ्रष्टाचार में वृद्धि, संप्रभुता में कमी, सांस्कृतिक पहचान का क्षरण और पर्यावरण का ह्रास आदि शामिल हैं। 

4. साहित्य में भी यह मूलतः प्रवासन और विस्थापन के रूप में चित्रित होता है। 19वीं शताब्दी के मध्य औपनिवेशिक काल में मॉरीशस, त्रिनिदाद, टोबैगो, सूरीनाम, गुयाना, फिजी आदि देशों में जाकर आजीविका की तलाश करना एक पलायन के रूप में प्रारम्भ में हुआ था किन्तु ब्रिटिश शासकों द्वारा उन्हें अपने वतन लौटने देना उन्हें विस्थापित होने के लिए बाध्य किया गया। जिसका जीवंत चित्रणमॉरिशस के प्रेमचन्दकहे जाने वालेअभिमन्यु अनतने अपने उपन्यासलाल पसीनामें किया है। 

             विस्थापन का दंश सबसे अधिक आजादी के समय राजनीतिक दंगों के कारण दिखाई देता है। अज्ञेय की कहानीशरणदाता’, यशपाल का उपन्यासझूठा सच’, भीष्म साहनी की कहानीअमृतसर गया हैआदि विभिन्न परिस्थितियों में विस्थापन साहित्य में चित्रित है बदलते समय के साथ बेहतर अवसर की तलाश में अंतर्राज्यीय और अंतर्देशीय पलायन निरन्तर बढ़ रहा है। जयप्रकाश कर्दम का उपन्यासछप्पर’ , ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथाजूठनआदि  में अंतर्राज्यीय पलायन का साहित्यिक रूप दिखाई पड़ता है। इसी के साथ अन्तरराष्ट्रीय पलायन के विभिन्न रूपों का साहित्यिक चित्रण दिखाई देता है, जिसे आगे चलकर आलोचकों द्वाराप्रवासी साहित्यनाम दिया गया। वर्तमान समय में प्रवासी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर अमेरिका की ऊषा प्रियंवदा और सुषम बेदी, डेनमार्क की अर्चना पैन्यूली, ऑस्ट्रेलिया की रेखा राजवंशी, लंदन के तेजेंद्र शर्मा आदि हैं जो अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रवासन के विभिन्न पक्षों को चित्रित करते हैं। इन्होंने पात्रों के माध्यम से दिखाया है कम समय में नाम और प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए युवा वर्ग कितना जूझ रहा है, नि:संदेह दिन-रात एक करके वह अपने मंजिल को प्राप्त कर लेता है किन्तु इसके पश्चात् वह स्वयं को अकेला पाता है। प्रवासन को साहित्य में अकेलेपन की त्रासदी, नॉस्टैल्जिया, मोहभंग, अपने वतन लौटने की कसक, मशीनी दिनचर्या आदि रूपों में प्रस्तुत किया गया है निःसंकोच यह कहा जा सकता है कि प्रवासन एवं विस्थापन, साहित्य में अकेलेपन की त्रासदी के रूप में चित्रित है  

5. पलायन और विस्थापन के विविध पक्षों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट दिखता है कि पलायन के अपने फायदे और नुकसान हैं   मेरा मानना है कि आज के युवा वर्ग में ऐसी धारणा बन गई है कि विस्थापन और पलायन से ही विकास सम्भव है। ऐसी धारणा भविष्य में और अधिक घातक हो सकती हैं कि क्योंकि इससे सामाजिक संतुलन तेजी से बिगड़ेगा केवल शहरों में रोजगार के अवसर ढूंढ़ने के फलस्वरूप वहां की जनसंख्या तेजी से बढ़ेगी और संसाधनों की कमी भी होगी साथ ही साथ गांवों में कृषि भी प्रभावित होगी पलायन के कारण सामाजिक तानाबाना अधिक प्रभावित होगा। मनुष्य धीरे-धीरे अपनी जड़ों से कट जाएगा और अपनी संस्कृतियों को संजो कर रखने में खुद को असमर्थ पाएगा पलायन के कारण ही पारिवारिक विघटन दिखाई देता है जिससे एकल परिवार की अवधारणा विकसित हुई किंतु तेजी से बढ़ता पलायन सिंगल मदर या सिंगल फादर की अवधारणा को भी बढ़ावा दे रहा है, जो भविष्य के लिए भारतीय समाज के लिए ज्यादा घातक सिद्ध होगी।

 

हरीश कुमार
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी 

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सूत्रधार

भावना

सहायक आचार्य (हिंदी), केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कर्नाटक
ईमेल : bhawna@cuk.ac.in

  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

1 टिप्पणियाँ

  1. बेहद गझिन आलेख है। MA के दौरान डायसपोरा का एक पेपर था मेरे तो इन टॉपिक्स को चूंकि पढ़ा है इसलिए कह सकता हूं। ये परिचर्चा काफी विस्तृत जानकारी देती है।

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