शोध आलेख : 21वीं सदी के हिन्दी सिनेमा के प्रतिमान / यतीन्द्र सिंह कुशवाह

21वीं सदी के हिन्दी सिनेमा के प्रतिमान
- यतीन्द्र सिंह कुशवाह

शोध सार : बीसवीं सदी के दूसरे दशक में प्रारंभ हुई हिन्दी सिनेमा की यात्रा प्रारंभ हुई। यह यात्रा आज भी निर्वाध रूप से गतिशील है। सांस्कृतिक एवं सामाजिक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में प्रारंभ हुई यह यात्रा भूमण्डीकरण के युग में सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए वैश्विर स्तर पर स्थापित की गयी है। 21वीं सदी का हिन्दी सिनेमा समाज और सिनेमा के सम्बन्धों को नवीन प्रतिमानों के आधार पर स्थापित कर रहा है। आज का हिन्दी सिनेमा ऐतिहासिक फिल्मों की भव्य प्रस्तुति, बायोयिक फिल्मों का बेबाक प्रदर्शन, स्त्री की परंपरागत छवि का अतिक्रमण, व्यावसायिक फिल्मों तथा कला फिल्मों की दूरी में कमी, कला फिल्मों का मुख्य धारा के सिनेमा में सम्मिलित होना, सीक्वल तथा कॉन फिल्मों का प्रारंभ, अन्य भाषाओं की फिल्मों की हिन्दी भाषी क्षेत्रों में लोकप्रियता आदि के माध्यम से नये प्रतिमान गढ़ रहा है।

आज का सिनेमा जहाँ एक ओर मान सिंह तोमर, कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों के माध्यम से यथार्थ को प्रस्तुत कर रही है वहीं इनके माध्यम सांस्कृतिक तथा पौराणिक सन्दर्भों को नवीन दृष्टि से देखने का अवसर प्रदान कर रहा है, वहीं लिव इन रिलेशनशिप, साम्प्रदायिक संबंधों को बहुविषयक प्रस्तुति, सेवा को विश्वासनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाने जैसे दृश्य राष्ट्रीय एकता तथा भारतीय संस्कृति के लिए एक चुनौती की भाँति है। कॉमन फिल्मों के माध्यम से खलनायक के नवीन स्वरूप को गढ़ना ( कॉन मैन) तथा ठगी को बौद्धिक कुशलता के रूप में प्रस्तुत करना समाज के नैतिक मापदण्डों का अतिक्रमण करता है। दृश्य श्रव्य माध्यम मनुष्य के अवचेतन में स्थान बनाने में सक्षम है। अतः हिन्दी सिनेमा की भूमिका पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।

बीज शब्द : संस्कृति, सिनेमा, भूमंडलीकरण, बायोयिक, नैरेटिव, सीक्वल, कॉन मैन, सीक्वल

मूल आलेख : “आज का हिन्दी सिनेमा महज आह्दलादयरक आख्यान नहीं, सरोकार धर्म परिवर्तन का क्रान्तिकारी आह्वान भी हैं एक ओर वह कला भी है, दूसरी ओर विज्ञान भी। साहित्य की भाँति आज सिनेमा भी समान का दर्पण है। वह मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक दायित्व का भी निर्वहन हैं।“¹ “सिनेमा और समाज एक दूसरे के सामने भी दिखते हैं और समानान्तर भी। एक ओर यदि सिनेमा के माध्यम से सामाजिक परिवर्तनों को लक्ष्य किया जाता है तो दूसरी ओर सामाजिक बदलावों को लक्ष्य करने की संभावना सिनेमा में उतनी ही बनती है। बुनियादी रूप में सारी दुनिया में आज सिनेमा समाज के मनोरंजन का एक व्यापक माध्यम है, इसलिए जाहिर है कि किसी भी रूप में वे एक दूसरे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।“²

केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा दो सौ में भाषा पत्रिका के भारतीय एवं विश्व सिनेमा विशेषांक में डॉ. आलोक रंजन पाण्डेय तथा डॉ. सुनील कुमार तिवारी के आलेख में उल्लेखित उपर्युक्त कथन सिनेमा और समाज के अंतर्संबंध की व्याख्या करते हैं। सिनेमा और समाज का परस्पर प्रभाव डालना मात्र कथन नहीं अपितु वास्तविकता है। आज के सिनेमा के सन्दर्भ में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। भारत में 1913 में हिन्दी सिनेमा का प्रारंभ हुआ। हिन्दी सिनेमा के यशस्वी हस्ताक्षर दादा साहब फाल्के ने 19 अक्टूबर, 1919 को केसरी नामक समाचार पत्र में साक्षात्कार देते हुए रहा था कि ‘‘मैं सभी विषयों पर फिल्में बनाऊँगा, विशेषकर प्राचीन संस्कृत नाटकों और नये मराठी नाटकों पर। फिर भारत के विभिन्न आचार विचारों पर, सामाजिक मूल्यों पर और वैज्ञानिक और शैक्षणिक विषयों पर मैं फिल्में बनाऊँगा।“³

दादा साहब फाल्के के दृष्टिकोण को हिन्दी सिनेमा लेकर आगे बढ़ा और अतीत, वर्तमान एवं भविष्य को प्रभावित किया। समीक्षक इस तथ्य को एक मत से स्वीकार करते हैं कि “चित्रपट अभिव्यक्ति का सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम है जो किसी घटना या विचार को मनमोहक ढ़ंग से प्रस्तुत करता हैं यह व्यक्ति के मन को अंदर तक स्पर्श करता है। सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन नहीं है वह तो अतीत का अभिलेख, वर्तमान का चितेरा और भविष्य की कल्पना है। सामाजिक परिवर्तन, लोकजागरण तथा बौद्धिक क्रान्ति की दिशा में भारतीय सिनेमा अविस्मरणीय है। यह ऐसा प्रभावकारी माध्यम है जिसने सभी उम्र के लोगों की आवाज को झंकृत कर दिया है।“⁴ हिन्दी सिनेमा के प्रारंभ से उसके समक्ष उसके उद्देश्य को स्पष्ट कर दादा साहब फाल्के ने सिनेमा के व्यापक फलक एवं उत्तरदायित्व का चित्र खींचा था किन्तु यह जानते हुए कि दृश्य श्रव्य माध्यम अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है, इसकी अनदेखी की गयी। इन बाधाओं के पश्चात भी हिन्दी सिनेमा अपना स्थान बनाने में सफल रहा। “भले ही किन्हीं पूर्वाग्रहों के कारण अथवा साहित्य शास्त्र की बंधी हुई परिपाटी के कारण फिल्म को साहित्यिक विद्या अथवा कला का स्तर न प्रदान किया गया हो किंतु आज इस तथ्य से विमुख नहीं हुआ जा सकता है कि सामाजिक क्षेत्र में सिनेमा ने अपना एक निजी सांस्कृतिक परिवेश धारण कर लिया है।“⁵

यह नवीन सांस्कृतिक परिवेश अनायास निर्मित नहीं हुआ बल्कि इसके लिए हिन्दी सिनेमा ने सौ वर्षों तक अनवरत परिश्रम किया है तथा अनेक उतार-चढ़ाव को देखते हुए वर्तमान स्वरूप को प्राप्त किया है जो सामाजिक तथा आर्थिक रूप से एक नवीन युग में प्रवेश किया है यद्यपि यह दादा साहब फाल्के के सांस्कृतिक जागरण की तुलना में एक निजी सांस्कृतिक परिवेश के निर्माण में अधिक सफल हुआ है। यह भी महत्वपूर्ण है कि इसे संस्कृति भी संज्ञा देना कहाँ तक उचित होगा क्योंकि सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना में सैकड़ों वर्ष लगते हैं जबकि हिन्दी सिनेमा का निजी सांस्कृतिक परिवेश एक या दो दशक में अधिक स्थायी नहीं रह पा रहे हैं। बीसवीं सदी के दूसरे तथा तीसरे दोनों दशकों की फिल्में पौराणिक पात्रों तथा कथानकों पर आधारित थीं।शताब्दी के दूसरे तथा तीसरे दशक में निर्मित फिल्मों के सम्बन्ध में समीक्षकों का मत है कि ‘‘ये दशक चूँकि सक्रिय रूप से राष्ट्रीय जनजागरण और स्वतन्त्रता आन्दोलन की शुरूआत का दशक था इसलिए भारतवासियों के हृदय में सामाजिक पुनर्निर्माण और राष्ट्रीय उत्थान की भावना प्रबल हो चुकी थी।’’ इन दशकों की प्रमुख फिल्मों में सावकारी पाश, अयोध्या का राजा, संत तुकाराम चंदीदास, इंकलाब, संत ज्ञानेश्वर, अश्वत्थामा, ध्रुव चरित्र आदि थीं।“⁶

भारतीय इतिहास का चतुर्थ दशक वर्तमान, भौगोलिक भारत के उद्भव का काल था। एक ओर भारत की स्वतंत्रता की प्रसन्नता थी वहीं दूसरी ओर भारत विभाजन तथा उसके कारण हिंसा का ताण्डव किसी भी मनुष्य को व्यथित कर सकता है। अतः हिन्दी सिनेमा भी इन परिस्थितियों से अछूता नहीं रहा। सामाजिक विषयों पर रोटी, जवाब तथा धरती के लाल, अनमोल घड़ी, आग, बरसात आदि प्रेमकथाओं पर आधारित फिल्में हैं। इस दशक के विषय पर प्रसून सिन्हा लिखते हैं कि ‘‘चालीस का दशक, एक ओर जहाँ सामाजिक और राष्ट्रीय परिवेश में परिवर्तन का दशक रहा है। वहीं भारतीय सिनेमा की शैली, विषय वस्तु और प्रस्तुति पर यह परिवर्तन साफ-साफ झलकता है। हिन्दी सिनेमा पहले की अपेक्षा अधिक रूमानी होता चला गया। यह दशक गीत-संगीत से भरे मनोरंजन फिल्मों की एक अलग शैली की शुरूआत का दशक रहा है।“⁷

पचास का दशक आवारा, श्री 420, जागते रहो, प्यासा, नौकरी, दो बीघा जमीन जैसी फिल्मों के लिए जाना जाता है। यह दशक गाँव से शहर की ओर पलायन तथा युवा वर्ग एवं रोजगार के मुख्य विषयों पर आधारित है। इसी दशक में मदर इंडिया फिल्म भी पर्दे पर उतरी, जो भारत की ओर से ऑस्कर के लिए नामित प्रथम हिन्दी फिल्म थी। इसके अतिरिक्त बाजी, आर-पार, नया दौर, धूल का फूल, सुजान, छलिया जैसी फिल्मों ने सामाजिक विषयों को स्पर्श किया और दर्शकों को अपनी ओर खींचा। मदर इंडिया के विषय में कहा जा सकता है कि ‘‘भारत की आजादी के बाद भारतीय हिन्दी सिनेमा की यह पहली ऐसी सशक्त फिल्म थी जो तत्कालीन भारत की ग्रामीण सामाजिक अर्थव्यवस्था, जमींदारों द्वारा छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों का आर्थिक शोषण किए जाने से उत्पन्न समस्याओं से जूझने की भावना पर आधारित थी।“⁸ बीसवीं सदी के छठे दशक में हिन्दी फिल्में कल्पना आधारित मनोरंजन के युग में प्रवेश करती हैं। तकनीकी रूप से भी हिन्दी सिनेमा ने नया स्तर प्राप्त किया तथा डबल रोल की परंपरा प्रारंभ हुई। गंगा-जमुना, राम और श्याम, गोरा और काला आदि इस दृष्टि से प्रमुख हैं। साहब, बीबी और गुलाम, छोटी बहु, गाइड, उपकार, प्रेम पुजारी, हकीकत, संघर्ष, दोस्ती, दो दोस्त, तीसरी कसम, मेरा नाम जोकर, आदि इस दशक की प्रमुख फिल्मे हैं। यह दशक भले ही कल्पना पर आधारित था किन्तु वैविध्यपूर्ण कथानकों ने दर्शकों के समक्ष उनकी रूचि के अनुसार अनेक विकल्प उत्पन्न किये।

सातवें दशक का हिन्दी सिनेमा मनोरंजन पर आधारित व्यावसायिक सिनेमा तथा कला सिनेमा या समानान्तर सिनेमा की दो धाराओं में विभाजित हो गया। ‘‘एक तरफ बड़े-बड़े बजटों की, आम लोगों के रंग बिरंगी सपनों को संजोए हुए, नाच गाना, प्रेम कहानियों और मारपीट से भरपूर दर्शकों के लिए उनका पूरा पैसा वसूल के सिद्धान्त पर फिल्में बनती रही और ठीक इसके समानान्तर शुरु हुआ कम बजट की फिल्मों का निर्माण जिसमें आम लोगों के जीवन पर, देश की विकराल राजनीतिक आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से प्रभावित और यथार्थवादी कथाओं पर आधारित सार्थक कला फिल्में शामिल थीं। इन फिल्मों की कथाओं में मुख्य रूप से जमींदार या पूँजीपतियों द्वारा गाँव के मजदूरों का आर्थिक और सामाजिक शोषण, अंधविश्वास और धार्मिक रुढिवादी मिथकों के विरुद्ध यथार्थ की पृष्ठभूमि, महानगरों में गरीब और मध्यवर्गीय परिवारों की सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा, मिल मजदूरों की समस्याएं, गाँव के सामन्ती शासकों द्वारा गरीब परिवारों और दलित वर्ग की महिलाओं का दैहिक शोषण, युवाओं के अंदर बढ़ती हुई असन्तोष की भावनाओं, छूत-अछूत जैसे भेदभाव, रोजगार की तलाश में पलायन कर रहे लोगों की कथाएँ आदि जैसी कई मानवीय और सामाजिक समस्याओं पर आधारित विषय वस्तु का समावेश अधिकांशतः हुआ करता था।’’⁹

यह दशक समानान्तर सिनेमा के प्रारंभ के लिए भी सदैव जाना जायेगा। सारा आकाश, अंकुर, गरम हवा, उसकी रोटी, चरगदास चोर, भूमिका जुनून, आक्रोश, सद्गति, जाने भी दो यारो आदि प्रमुख हैं। इस दशक में ही हिन्दी सिनेमा में सुपरस्टार की संकल्पना का जन्म हुआ। जिस अभिनेता तथा अभिनेत्री की अनेक फिल्में हिट हुई, जिसका नाम देखकर ही दर्शक सिनेमा हॉल में आते हैं, वह सुपरस्टार के रूप में स्वीकृत हो गया। इसी दशक में हिन्दी के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना का उदय हुआ जिन्होंने तीन साल में पन्द्रह हिट फिल्में दीं। अस्सी का दशक सत्तर के दशक की परंपरा पर ही चलता रहा तथा राजेश खन्ना का स्थान एंग्री यंगमैन की छवि गढ़ने वाले अमिताभ बच्चन ने ले लिया। यह दशक फार्मूला फिल्मों का दशक था जो पूर्ण रूप से कल्पना आधारित कहानियों पर आधारित था।

भारत ने नब्बे के दशक में उदारीकरण तथा निजीकरण के दौर में प्रवेश किया। यह सुनिश्चित हुआ कि भारत वैश्विक बाजार में प्रवेश करने वाला है। भूमण्डलीकरण संस्कृति की यह विशेषता है कि इसका ताना बाना प्रत्येक स्तर पर देखा जा सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि “भूमण्डलीकरण संस्कृति जब किसी देश में प्रवेश करती है तो इसका प्रवाह तेज गति से होता है और यह सभी सांस्कृतिक बंधनों को तोड़कर निकलती है जिसे हम ग्लोबल विलेज या भूमण्डलीय गाँव के नाम से जानते हैं। भूमण्डलीय संस्कृति वस्तुतः भूमण्डलीय गाँव की सृष्टि करती है और इस गाँव में वही जी सकता है जिसमें इस गाँव की प्रकृति के साथ रचने-बसने या घुलने मिलने की क्षमता हो।“¹⁰ इस दशक में आये आर्थिक उदारीकरण और भूमण्डलीकरण ने भारतीय समाज को गहराई तक प्रभावित किया। इससे जनजीवन में गहराई तक जुड़ा मनोरंजन का लोकप्रिय साधन सिनेमा भी अछूता नहीं रहा। हिन्दी सिनेमा में पूँजी प्रवाह के साथ-साथ नये विमर्शो को भी स्थान मिलने लगा। हिन्दी सिनेमा में बदलाव की बयार आई।

इक्कीसवीं सदी के सिनेमा के केन्द्र में दर्शक है क्योंकि बाजार उपभोक्ता पर निर्भर होता है। अतः उत्पादक उपभोक्ता की माँग के अनुरूप होना अनिवार्य है। यह अर्थशास्त्र का मूलभूत सिद्धान्त है। फिल्म समीक्षकों का स्पष्ट मत है कि ‘‘हिन्दी सिनेमा के इतिहास में इक्कीसवीं सदी का समय हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के लिए अधिक संवेदनशील है। इस युग में दर्शकों को ध्यान में रखकर उनकी इच्छा और माँग के अनुरूप फिल्में बनाए जाने की एक प्रतिद्वंद्विता सी चल रही है। जिसमें वर्तमान जीवन के समस्त कोणों तथा अछूते प्रसंगों को हाशिए के बाहर के व्यक्ति को ध्यान में रखकर फिल्म निर्माण करने का प्रयास चल रहा है। जिसमें बॉक्स ऑफिस पर जोरदार दस्तक देने और पूँजीगत लाभ कमाने का प्रयास भी सम्मिलित है।’’¹¹ इस सदी की हिन्दी फिल्मों में संवेदना के साथ-साथ व्यापक परिवर्तन हुये हैं। स्त्री की परंपरागत छवि को तोड़कर नायिका प्रधान फिल्मों का प्रचलन प्रारंभ हुआ। अब नायिका अपने कंधे पर बॉक्स ऑफिस पर सफलता प्राप्त कर सकती है। कहानी, पिंक, मणिकर्णिका जैसी फिल्मों में न सिर्फ विषयगत वैविध्य है बल्कि नारी एक सबला के रूप में स्थापित हुई है, जिसकी न का अर्थ न ही लिया जाये, के लिए न केवल संघर्ष करती है बल्कि विवश करती है।

इसी समय में सत्य घटनाओं पर आधारित तथा बायोयिक सिनेमा का दौर प्रारंभ हुआ। आज का दर्शक कपोल कल्पनाओं में नहीं यथार्थ में जीना चाहता है। वह पीडा को मात्र पर्दे पर देखता नहीं है बल्कि उसके साथ साधारणीकृत भी होता है। यही कारण है कि मैरीकॉम, सैम बहादुर, पान सिंह तोमर, शेरशाह, सरबजीत, माँझी-द माउन्टेन मैन, ट्वेल्थ फेल, नीरजा, सूरमा, स्वातंत्र्य वीर सावरकर, चंदू चेम्पियन, साइना, पैडमैन, एम.एस. धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी, मिशन रानीगंज आदि ने न केवल बॉक्स ऑफिस पर सफलता प्राप्त की बल्कि दर्शकों को प्रेरित भी किया और भाव विभोर भी किया। आज का सिनेमा नैरेटिव द्वन्द्व के दौर में है। एक ओर पठान, टाइगर जैसी फिल्मों के माध्यम से भारत-पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसियों को साथ कार्य करते दिखाकर नया नैरेटिव गढ़ने का प्रयास किया वहीं दूसरी ओर शेरशाह, कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्में यथार्थ को दिखाकर इस मृग मरीचिका को तोड़ देना चाहती हैं। कश्मीर फाइल्स न केवल कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को अभिव्यक्ति देती है बल्कि दर्शक को क्रूर सत्य के सामने खड़े होने को मजबूर कर देती है। इस फिल्म से ‘‘दर्शक भावविह्वल हो उठता है क्योंकि वह वास्तविक सत्य का साक्षात्कार करता है। उसके आँसू मात्र कश्मीरी पंडितों के लिए नहीं निकलते हैं बल्कि वह इसलिए भी रोता है कि वह झूठ के सहारे जी रहा था।’’¹²

इक्कीसवीं सदी ऐतिहासिक फिल्मों के लिए भी जाना जायेगा। बीसवीं सदी में पौराणिक तथा ऐतिहासिक फिल्मों पर कार्य हुआ किन्तु यह सदी भव्यता के साथ इतिहास को परोसती है। आज का दर्शक इतिहास को मुगले आजम की भाँति कल्पनाओं के सहारे नहीं जीना चाहता है वह तथ्यात्मक पुष्टि भी चाहता है। यदि फिल्म तथ्यों के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं करती है तो बड़े से बड़ा अभिनेता भी उसे अधिक सफलता नहीं दिला सकता है। ऐतिहासिक फिल्मों में पृथ्वीराज, तानाजी : द अनसंग वैरियर, केसरी, चिदृगॉग, पदमावत, पानीपत, बाजीराव मस्तानी, मंगल पाण्डेय जैसी फिलमों ने अपना स्थान बनाया है। इन फिल्मों में ऐतिहासिक नायकों का चरित्र चित्रण थोड़ा सतही सा प्रतीत होता है। पृथ्वीराज, बाजीराव जैसे नायकों को गीत गाते और सतही संवाद बोलते देखना मन को कचोटता है। पद्मावत फिल्म में तो नायक से अधिक महत्व खलनायक को दे दिया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अलाउद्दीन ही फिल्म का वास्तविक नायक है।

इस सदी की फिल्मों में सीक्वल का दौर भी प्रारंभ हुआ। सीक्वल फिल्मों का निर्माण लोकप्रियता तथा बाजार को ध्यान रखकर किया गया। “सीक्वल फिल्म दो प्रकार की होती है जिन्हें हम स्पिन ऑफ सीक्वल और स्प्रिचुअल सीक्वल कह सकते हैं। स्पिन ऑफ सीक्वल में पिछली फिल्म के कुछ किरदारों को लेकर कहानी आगे बढ़ाई जाती है तो वहीं स्प्रिचुअल सीक्वल में कहानी पुरानी फिल्म की कहानी पर आधारित नहीं होती बल्कि उसमें पुरानी फिल्म के थीम, स्टाइल, एलिमेंट अवश्य होते हैं।¹³ इन सीक्वल फिल्मों बाहुवली, धूम, गोलमाल आदि प्रमुख हैं।

इस सदी में खलनायक की भूमिका में परिवर्तन हुआ तथा कॉन मैन की अवधारणा अवतरित हुई। कॉन फिल्मों के माध्यम से ठगी को नायकत्व की श्रेणी में ले जाकर खड़ा करने का प्रयास किया गया है। “खलनायक और कॉन मैन में अन्तर होता है, खलनायक जहाँ खतरनाक होता है वहीं कॉन मैन खतरनाक न होकर अपनी बुद्धि का उपयोग कर अमीर तथा ताकतवर लोगों को ठगता है।“¹⁴ यदि इस समय की फिल्मों ने वास्तविक घटनाओं पर फिल्म बनाकर दर्शकों को रोमांचित किया है तो वहीं यथार्थ और सत्य के नाम पर सीमाओं का अतिक्रमण करने में भी संकोच नहीं किया है। अश्लील दृश्य और गाली-गलौज की सतही भाषा यथार्थ की प्राथमिक आवश्यकता बन गयी। “फिल्म को लोकप्रिय बनाने और उन्हें अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुँचाने के लिए मसाला फिल्में बनाई जाती हैं। जिनमें आइटम सॉग से लेकर गाली-गलौज तक को अपनाया जा रहा हैं। हिंसा, अपराध, चालू संगीत के जरिए उन्हें अगली सीटों को भरने लायक बनाया जा रहा है।“¹⁵

आज का सिनेमा राष्ट्रवाद को मुख्य विषय के रूप में स्वीकार करने को बाध्य हुआ है। यद्यपि यह समानांतर धारा के रूप में प्रवाहित हो रहा है किन्तु हिन्दी फिल्म जगत इसे तथ्य के रूप में स्वीकार कर रहा है। विशेष रूप से राष्ट्रवाद बाजार से सम्बद्ध है और आर्थिक दृष्टिकोण से भी निर्माताओं के लाभ का विषय बन गया है। फिल्म समीक्षक का मत है कि “समकालीन सिनेमा में राष्ट्रवाद धार्मिक रूप से उग्र राष्ट्रवाद के रूप में, जन राष्ट्रवाद के रूप में हमारे सामने आता है। जिसमें कुछ हिंसा के रास्ते पर भी जाकर लक्ष्य प्राप्त करने से नहीं चूकते हैं। यह सिनेमा राष्ट्रवाद को बचाने व उसके विरोधी समस्याओं से संघर्ष करने की प्रेरणा देता नजर आता है।“¹⁶ सभी समीक्षक चाहे प्राचीन हो अथवा नवीन दृश्य श्रव्य माध्यम के प्रभाव को स्वीकार करते हैं। इस माध्यम में अवचेतन में प्रवेश करने की क्षमता है। “हिन्दी सिनेमा की भूमिका अवचेतन को प्रभावित करने में समर्थ है। पिछली शताब्दी में निर्मित हिन्दी सिनेमा ने संवेदना के अनेक स्तरों पर नैरेटिव गढ़े और सामान्य दर्शक के अवचेतन में स्थापित कर दिये।“¹⁷

हिन्दी सिनेमा की नैरेटिव गढ़ने की क्षमता अद्भुत है। यही कारण है कि ठाकुर शब्द आते ही डाकू, जमींदार, शोषक, खलनायक, दुष्चरित्र आदि विशेषण मन में प्रकट हो जाते हैं। जबकि स्वतंत्रता के समय अधिकांश जमींदार किस वर्ग से थे यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। आज का सिनेमा देश के सबसे विश्वसनीय संस्था क्षेत्र की विश्वसनीयता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाने से संकोच नहीं कर रहा है। यही कारण है कि एक ओर जहाँ शेरशाह, मेजर, उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक जैसी फिल्में दर्शक को राष्ट्रप्रेम से ओत प्रोत कर देती हैं वहीं दूसरी ओर टाइगर, पठान, शौर्य जैसी फिल्मों में मन में प्रश्न और संशय उत्पन्न कर देती है। इसी प्रकार शौर्य जैसी फिल्म ने एक मुस्लिम सैनिक के माध्यम से भारतीय सेना कश्मीर के मुसलमानों पर अत्याचार कर रही है, यह दिखाया है। यह मात्र संयोग नहीं है। यह एक नैरेटिव को प्रचारित करने का प्रयास है। ‘‘इन फिल्मों के द्वारा स्थापित नैरेटिव से यह भी संभव है कि किसी राजनैतिक दल का प्रवक्ता समाचार चैलन की चर्चा में बैठकर यह वक्तव्य भी दे दे कि आई एस आई भी भारतीय गुप्तचर एजेंसी की सहायता आतंकवाद के विरूद्ध कर रही है।’’¹⁸

अतः यह कहा जा सकता है कि हिन्दी सिनेमा ने अपनी लम्बी यात्रा में अनेक मील के पत्थर स्थापित किये हैं। 21वीं सदी का हिन्दी सिनेमा नये दौर में है जो नैरेटिव संघर्ष, कॉन फिल्मों आदि के माध्यम से नवीन प्रतिमानों को गढ़ रहा है किन्त आज दर्शक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गयी है उसके सामने एक साथ सब कुछ परोसने का प्रयास किया जा रहा है। अतः उसे चुनना है कि वह किस दिशा और दशा को प्राप्त करना चाहता है। इस असमंजस की स्थिति में फिल्म समीक्षकों को मार्गदर्शक की भाँति कार्य करना पड़ेगा तथा फिल्मों की समीक्षा मात्र मनोरंजन के साधन की भाँति न कर तथापरक करनी पड़ेगी।

सन्दर्भ :
1. डॉ. सुनील कुमार तिवारी, बदल रहा है हिन्दी सिनेमा, भाषा (अंक 291), जुलाई-अगस्त 2020,पृष्ठ 101
2. डॉ. आलोक रंजन पाण्डेय,हिन्दी सिनेमा का बदलता ट्रेंड,, भाषा ( अंक 291), जुलाई-अगस्त 2020, पृष्ठ 105
3. हिन्दी सिनेमा का बदलता स्वरूप, प्रियांशी गुप्ता, www.ijnrd.org/Papers/IJNRD-2203079.pat/1.9.2024)
4. डॉ. अर्जुन तिवारी,आधुनिक पत्रकारिता, वाराणसी विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2004, पृष्ठ 222
5. हिन्दी सिनेमा का बदलता स्वरूप, प्रियांशी गुप्ता, www.ijnrd.org/Papers/IJNRD-2203079.pat/1.9.2024)
6. प्रसून सिन्हा,भारतीय सिनेमा: एक अनन्त यात्रा, श्री नटराज प्रकाशन, दिल्ली, 2006, पृष्ठ संख्या 87
7. वही, पृष्ठ 98
8. वही, पृष्ठ 122
9. वही, पृष्ठ 126-127
10. जगदीश्वर चतुर्वेदी, सुधा सिंह,डिजिटल युग में मास कल्चर और विज्ञान, अनामिका पब्लिशर्स नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ 118
11. वही, पृष्ठ 19
12. डॉ यतीन्द्र सिंह, नेरेटिव से यथार्थ की ओर हिन्दी सिनेमा, ध्येय साधना, विश्व संवाद केन्द्र, कानपुर, अप्रैल 2022,(विशेषांक) पृष्ठ 8
13. हिन्दी फिल्मों का बदलता ट्रेंड, डॉ0 आलोक रंजन पाण्डेय, भाषा, जुलाई-अगस्त 2020, (अंक 291) पृष्ठ 110
14. वही, पृष्ठ 109
15. डॉ0 देवेन्द्रनाथ सिंह, डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव, भारतीय सिनेमा की विकास यात्रा: एक मूल्यांकन, पैसिफिक पब्लिकेशनस दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ 48
16. शैव्य कुमार पांडेय, समकालीन सिनेमा में राष्ट्रवाद, मीडिया विमर्श, सिनेमा विशेषांक-3, जून 2013, पृष्ठ संख्या 48
17. डॉ. यतीन्द्र सिंह कुशवाहा, सेना के प्रति नये नैरेटिव के दौर में हिन्दी सिनेमा: एक गंभीर सुरक्षा चुनौती, भारत में गैर पारंपरिक सुरक्षा मुद्दे (संपादक: प्रो.अरूण कुमार दीक्षित), 2024, पृष्ठ सं. 286
18. डॉ. यतीन्द्र सिंह कुशवाहा, सेना के प्रति नये नैरेटिव के दौर में हिन्दी सिनेमा: एक गंभीर सुरक्षा चुनौती, भारत में गैर पारंपरिक सुरक्षा मुद्दे (संपादक: प्रो.अरूण कुमार दीक्षित), 2024, पृष्ठ सं. 289

यतीन्द्र सिंह कुशवाह
सहायक आचार्य (हिन्दी विभाग), डी.ए-वी.कॉलेज कानपुर
dryatindrakushwaha@gmail.com 9336109161, 8299703474
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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