शोध आलेख : सिनेमा और कॉपीराइट के बीच मध्यस्थता की भूमिका / आशुतोष मिश्रा, श्रुति शुक्ला एवं सूरज कुमार मौर्य

सिनेमा और कॉपीराइट के बीच मध्यस्थता की भूमिका
- आशुतोष मिश्रा, श्रुति शुक्ला एवं सूरज कुमार मौर्य

शोध सार : भारत में सिनेमा एक ऐसा विषय है जिसके बारे में हर व्यक्ति चाहें वो शिक्षित हो या अनपढ़, अपनी कोई न कोई राय अवश्य रखता है। इसी सिनेमा की एक बड़ी एवं जीवंत समस्या है प्रतिलिप्यधिकार या कॉपीराइट का उल्लंघन। प्रतिलिप्यधिकार या कॉपीराइट बौद्धिक संपदा का एक रूप है, जो एक मूल कृति के लेखक को प्रकाशन, वितरण और अनुकूलन का निश्चित समय अवधि के लिए, विशेष अधिकार देता है। व्यापक इंटरनेट पहुंच और डेटा के अंतर-क्षेत्रीय उपयोग के कारण कॉपीराइट उल्लंघन के मामले भी तेज़ी से बढ़ रहे हैं। हाल ही में यह देखा गया है कि इन विवादों को सुलझाने के लिए हितधारकों या कॉपीराइट धारकों का सबसे स्वीकार्य तरीका मध्यस्थता या अदालत के बाहर समझौता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पारंपरिक अदालतें पहले से ही लंबित मामलों के बोझ से दबी हुई हैं और उनके निपटारे की धीमी गति से परेशान हैं। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न संसदीय समितियों ने समय-समय पर विशेष रूप से पारिवारिक और वाणिज्यिक मामलों में वैकल्पिक विवाद समाधान के रूप में मध्यस्थता को बढ़ावा दिया है और इसके उपयोग को बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए हैं। मध्यस्थता विधेयक 2023 को हाल ही में अधिनियमित किया गया है और यह इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय उपलब्धि है। इस शोध पत्र में, भारतीय सिनेमा में कॉपीराइट विवादों के समाधान में मध्यस्थता के अवसरों और लाभों का वर्णन और व्याख्या करने का प्रयास किया गया है। इसे विभिन्न केस कानूनों और भारतीय कॉपीराइट अधिनियम 1957 के विभिन्न प्रावधानों का उपयोग करके प्रमाणित किया गया है।

बीज शब्द : मध्यस्थता, कॉपीराइट, विवाद समाधान, सिनेमैटोग्राफिक फिल्म, बौद्धिक संपदा अधिकार, कॉपीराइट अधिनियम 1957

मूल आलेख :  भारतीय सिनेमा, एक जीवंत, कालांतर से परे, जैविक, एवं निरंतर रूप से बढ़ता हुआ उद्योग है। एक ऐसा उद्योग जो 20 लाख से अधिक लोगों को रोजगार और उन सभी के परिवारों के लिए जीवनयापन की व्यवस्था प्रदान करता है। एक उद्योग जिसका वार्षिक राजस्व 3 बिलियन डालर से अधिक हो चुका है। वर्ष 2023 में अपने 9743 से अधिक स्क्रीनों के माध्यम से 943 मिलियन टिकट बेच कर इस उद्योग में 157 मिलियन उपभोगताओं का मनोरंजन किया है। समाज में सिनेमा का योगदान सिर्फ वित्तीय रूप से ही नहीं है, अपितु अपनी कलाकृतियों एवं फिल्मों के माध्यम से यह समाज को एक दिशा भी प्रदान करता है। ऐसी कितनी ही फिल्में है जिन्होंने समाज के अलग अलग वर्गों पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। साथ ही, सिनेमा ने हमें अनेक अवसरों पर ना सिर्फ समाज को मजबूत संदेश भी दिए है अपितु आत्मावलोकन के अवसर भी प्रदान किए है।

कोई भी उद्योग हितधारकों से रहित नहीं होता है, भारतीय सिनेमा में भी किसी फिल्म के संदर्भ में विचार के उपज से लेकर उसे दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने तक कई हितधारक शामिल होते हैं। सभी हितधारकों को अपनी-अपनी भूमिका निभानी है और अपने अधिकारों का लाभ लेना है। ये अधिकार न केवल आर्थिक बल्कि नैतिक भी हैं। सिनेमा उद्योग में निर्माता, निर्देशक, लेखक, गायक, कलाकार आदि, हितधारक शामिल हैं और सभी अपने कर्तव्यों का पालन शारीरिक रूप से अपने श्रम को नियोजित करके या अपने रचनात्मक सुझाव देकर करते हैं जो सिनेमा की आत्मा बन जाता है। एक फिल्म के बनने में कई लोगों की बौद्धिक संपदा भी सम्मिलित होती है जिसके ऊपर उनका नैतिक एवं वित्तीय अधिकार होता है। कोई भी अधिकार पूर्णतः किसी एक व्यक्ति विशेष का नहीं होता एवं इन्हें सरलता से अलग अलग परिभाषित कर पाना या बांट पाना संभव नहीं। उदाहरण स्वरूप, एक सिनेमेटोग्राफीक फिल्म में कहानी किसी एक लेखक की हो सकती है, और उस कहानी को परदे पर उतारने वाला कोई और निर्देशक हो सकता है। ऐसा करने में लगने वाला धन किसी और का हो सकता है और इस दृश्य में नाटक करने वाला कलाकार कोई और। इस कारण इनके बीच समय-समय पर विवाद भी उठते रहते हैं। पूर्णतः एक फिल्म केवल किसी एक व्यक्ति विशेष के योगदान से निर्मित हो जाए ऐसा संभव नहीं। इस कारण, कॉपीराइट अधिनियम 1957 में सभी के अधिकारों और अधिकार क्षेत्रों का अलग अलग वर्णन किया गया है। हितधारकों के बीच के विवाद कॉपीराइट की वैधानिक मान्यता से लेकर उसकै स्वामित्व के विषय में, पुनः आगे लाइसेंस प्रदान करने को लेकर, अधिकार के असाइनमेंट या ट्रांसफर को ले कर, यहां तक कि अवधि आदि को ले कर भी हो सकते हैं। इन सभी अधिकारों को 1957 के कॉपीराइट अधिनियम में स्पष्टता से संबोधित किया गया है और मान्यता दी गई है। यह कलाकारों के, प्रसारकों के, कॉपीराइट सोसायटी आदि के अधिकारों का वर्णन करता है।

यह अधिनियम न केवल अधिकारों और उनकी रक्षा के बारे में बात करता है, बल्कि अधिकारों का उल्लंघन होने की स्थिति में क्या करना है, इसके बारे में भी हमारा मार्गदर्शन करता है। अधिनियम हमें विभिन्न सिविल उपचार और कॉपीराइट से संबंधित अपराध के बारे में भी बताता है। ऐसे अधिनियम की मौजूदगी के बावजूद, कॉपीराइट के संबंध में उत्पन्न होने वाले विवादों की संख्या की कोई सीमा नहीं है। ये विवाद हर बार सिर्फ भारत के क्षेत्राधिकार के ही नहीं बल्कि कई बार विदेशी हितधारक भी इसमें शामिल होते हैं। भारतीय सिनेमा को सीमाओं में बांधा जाना संभव नहीं, और ये उचित भी नहीं है। इसकी पहुंच और उपभोक्ता आधार 70 से अधिक देशों में है। कई भारतीय देश के बाहर से ही भारतीय सिनेमा और उसकी फिल्मों से अपना मनोरंजन करते हैं। दूसरे ऐशियाई देश और विभिन्न पश्चिमी देशों में भी भारतीय सिनेमा में रुचि लेने वालों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही हैं। इंटरनेट ने पूरे विश्व के मनोरंजन जगत को एक तार में पिरो दिया है। बॉलीवुड स्वयं पश्चिम में हॉलीवुड फिल्मों से लेकर पूर्व में कोरियाई नाटकों तक से प्रेरणा लेता है और इनकी कृतियों को किसी न किसी रूप में अपनी फिल्मों में सम्मिलित करता रहता है। इस प्रकार, जब इतना बड़ा क्षेत्राधिकार शामिल होता है, तो इसमें शामिल विवादों की प्रकृति न केवल राष्ट्रीय, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय होती है और इनसे जुड़े होते हैं विभिन्न देशों के अलग अलग कानून।

अंतर्राष्ट्रीय विवादों के अलावा, राष्ट्रीय विवाद भी हमेशा समान मात्रा में शक्ति और धन वाले दो हितधारकों के बीच ही हों ऐसा हर बार संभव नहीं। उदाहरण के लिए, रॉयल्टी के संबंध में विवाद एक बहुत शक्तिशाली और फिल्म उद्योग में पकड़ रखने वाले निर्माता और एक नए उभरते हुए लेखक या गायक के बीच हो सकता है। ऐसे मामले में, गायक निर्माता को अदालत में खींचकर अपने संबंधों और उद्योग में आगे के लिए अपने अवसरों को खराब करना नहीं चाहेगा। परंतु उसके हितों एवं अधिकारों का हनन हो, ऐसा भी उसे स्वीकार्य नहीं। ऐसी स्थिति में मध्यस्तता एक बेहतर विकल्प है। इस प्रकार, हर बार किसी विवाद की स्थिति में मुकदमेबाजी करना सर्वोत्तम समाधान नहीं हो सकता है। यहां बचाव के लिए मध्यस्थता आती है जो अक्सर सार्वजनिक रूप से किसी भी व्यक्ति की मानहानि किए बिना स्वस्थ और सौहार्दपूर्ण रूप से समाधान की ओर ले जाती है। मध्यस्थता दो पक्षों के बीच एक निजी लेनदेन है जिसमें एक न्यूट्रल मीडिएटर शामिल होता है जो पार्टियों को सौहार्दपूर्ण समाधान तक पहुंचने में सहायता करता है। मध्यस्थता न केवल दोनों पक्षों के बीच संबंधों को बरकरार रखती है बल्कि अक्सर इसे भविष्य के लिए मजबूत भी करती है। गोपनीयता का पहलू मामले को सार्वजनिक रुप से उजागर नहीं होने देता है और समझौते की शर्ते, दोनों पार्टियों की ताकतें और कमजोरियां हमेशा उनके बीच ही रहती है जिससे उनकी सार्वजनिक छवि अच्छी बरकरार रहती है

कॉपीराइट क्या है?

कॉपीराइट या प्रतिलिप्यधिकार को कॉपीराइट अधिनियम 1957 की धारा 14 के तहत परिभाषित किया गया है। सरल शब्दों में, कॉपीराइट किसी भी मूल साहित्यिक, नाटकीय, संगीतात्मक, कलात्मक कार्यों, एवं सिनेमैटोग्राफिक फिल्मों के निर्माता और लेखक को मृत्यु के बाद 60 वर्षों तक चलने वाली सुरक्षा है। इस सुरक्षा के तहत, कोई भी इनके कृतियों का बिना इनसे अनुमति लिए अपनी किसी नई कृति में प्रयोग नहीं कर सकता। साहित्यिक, नाटकीय, संगीतमय और कलात्मक कार्यों के मामले में या सिनेमैटोग्राफिक फिल्मों के मामले में ये अधिकार प्रकाशन तिथि से 60 वर्ष तक मान्य है।

कॉपीराइट अधिनियम के तहत प्रदान किये गये अधिकारः

अगर हम सिनेमा जगत से जुड़े हितधारकों के अधिकारों की बात करें, तो कॉपीराइट अधिनियम के सेक्शन 13 में विभिन्न प्रकार के अधिकारों को मान्यता दी गई है। इसमे मूलतः मौलिक, साहित्यिक, नाट्य, संगीतात्मक, कलात्मक कृतियां, चलचित्र फिल्म (सिनेमेटोग्राफीक फिल्म) और धवन्यकं (साउंड रिकॉर्डिंग्स) शामिल है। साथ ही, यह भी स्पष्ट किया गया है कि किन परिस्थितयों में कॉपीराइट का अधिकार नहीं माना जाएगा। इसमें साफ साफ संस्करण है कि अगर आपके काम से कोई और व्यक्ति के काम में मिले हुए कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो इस परिस्थिती में आपका कॉपीराइट मान्य नहीं होगा। अधिनियम के सेक्शन 2 में सभी अधिकारों एवं उनके हितधारकों को गहनता से परिभाषित किया गया है। साथ ही सेक्शन 14 में यह भी बताया गया है कि अधिकारों का प्रयोग कब, कैसे और कितनी सीमा में किया जा सकता है। अधिनियम में धारा 51 के तहत कॉपीराइट उल्लंघन के प्रावधान भी शामिल हैं, जिसमें कहा गया है कि कॉपीराइट का उल्लंघन तब होता है जब कोई कार्य पहले कार्य की 'पर्याप्त और भौतिक प्रतिलिपि हो। धारा 52 इस नियम के अपवादों को निर्दिष्ट करती है। अध्याय 4 हमें बताता है कि कॉपीराइट का ट्रांसफर किसे एवं किस प्रकार किया जा सकता है तथा अध्याय 5 अधिकारों की अवधि की बात करता है। इस प्रकार, हम सभी यह समझ सकते है कि कॉपीराइट अधिनियम भारतीय सिनेमा में विभिन्न रूप से योगदान देने वालों के हित एवं अधिकारों की रक्षा कैसे करता है।

सिनेमा में कॉपीराइट को लेकर सामान्यतः होने वाले विवाद:

बॉलीवुड फिल्मों का हॉलीवुड फिल्मों की नकल होनाः

लंबे समय से, नए विचारों की खोज में निर्माता निर्देशक पहले से बन चुकी सफल फिल्मों की ओर देखते हैं, ऐसे में कई बार कई बॉलीवुड फिल्मों पर ये आरोप लगा है कि उनमें और दूसरी हॉलीवुड फिल्मों में काफी या पूर्ण रूप से समानताएं हैं। ऐसी फिल्मों की सूची भी काफी लंबी है। पार्टनर (2007), एक भारतीय फिल्म, हॉलीवुड फिल्म “हिच” की स्पष्ट नकल थी। पार्टनर के निर्माताओं को ओवरब्रुक एंटरटेनमेंट और सोनी पिक्चर्स से काम बंद करने के पत्र मिले और वे उनके खिलाफ मुकदमा दायर करने पर विचार कर रहे थे। बॉम्बे हाई कोर्ट ने पार्टनर की रिलीज़ को रोकने के लिए एक आदेश दिया, लेकिन अदालत के फैसले से पहले ही दोनों पक्षों ने अदालत के बाहर समझौता कर लिया।

हालांकि, 2007 तक, ब्रेडफोर्ड बनाम सहारा मीडिया एंटरटेनमेंट लिमिटेड एकमात्र ऐसा मामला था जिसमें किसी भारतीय अदालत ने कॉपीराइट विवाद की सुनवाई की अनुमति दी थी। विषय वस्तु पर स्पष्टीकरण देने या हॉलीवुड प्रोडक्शन हाउस के पक्ष में फैसला देने की न्यायिक घोषणाओं की कमी के परिणामस्वरूप, ओवरब्रुक ने मामले शुरू न करने का फैसला किया। यह इस बात के प्रमाण है की अक्सर ऐसे विवादों में पार्टियां अपने अपने हितों का अवलोकन कर के अदालत के बाहर ही सुलह कर लेती हैं।

“द्वैटिएथ सेंचुरी फॉक्स ने बीआर फिल्म्स के खिलाफ बंदा ये बिंदास है बनाने के लिए पहले कानूनी सिनेमैटोग्राफी उल्लंघन की शिकायत दर्ज की, जो कथित तौर पर उनकी फिल्म “माई कजिन विन्नी” की "पर्याप्त नकल थी। हालांकि, कोर्ट के फैसला सुनाने से पहले, दोनों पक्ष कोर्ट के बाहर समझौते पर सहमत हो गए, जिसमें दोनों निर्माता माई कजिन विन्नी रूपांतरण को कानूनी रूप से पुनः पेश करने के लिए अपने अधिकारों को सौंपने के लिए सहमत हुए। क्योंकि यह पहली बार था जब किसी बॉलीवुड स्टूडियो को अवैध रीमेक के लिए भुगतान करने के लिए कहा गया था, इस मामले ने मीडिया का बहुत ध्यान आकर्षित किया। अस्पष्ट न्यायिक मिसालों के कारण, कोर्ट के बाहर समझौते को प्राथमिकता दी गई”।

विचार अभिव्यक्ति द्वैतवाद (आइडिया एक्सप्रेशन डाइकोटॉमी):

किसी विचार और उसकी अभिव्यक्ति के बीच के अंतर को विचार/अभिव्यक्ति द्वंद् के रूप में जाना जाता है। कॉपीराइट कानून के तहत केवल अभिव्यक्ति के रूपों को ही संरक्षित किया जाता है, विचारों को नहीं। अवधारणा अमूर्त है, फिर भी इसे अभिव्यक्ति के माध्यम से भौतिक रुप दिया जाता है। कॉपीराइट कानून का सार यही है। यदि अवधारणाओं को भी इसी तरह संरक्षित किया जाता है, तो व्यक्तियों की उसी विचार के आधार पर अपनी अभिव्यक्तियाँ बनाने की स्वतंत्रता गंभीर रूप से सीमित हो जाएगी। यह विचारों के मुक्त प्रवाह को न तो प्रोत्साहित करेगा और न ही पुरस्कृत करेगा। परिणामस्वरूप, कलाकारों के काम के भौतिक रूपों (जिन्हें ठोस सबूत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है) को विशेष रूप से कॉपीराइट देना महत्वपूर्ण है। चूंकि भारतीय कॉपीराइट अधिनियम विचार/अभिव्यक्ति के द्वंद्व पर चुप है, इसलिए इस अवधारणा को समझने के लिए केस लॉ पर भरोसा किया जाता है।

“आरजी आनंद बनाम डीलक्स फिल्म्स” और अन्य के महत्वपूर्ण मामलों ने इस विषय पर भारतीय न्यायशास्त्र की स्थापना की। इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने "कॉपी करना" शब्द की व्यापक व्याख्या की और कॉपीराइट उल्लंघन का निर्धारण करने के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत निर्धारित किया। इसने सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही कि किसी भी विचार, कथानक, विषय, विषयवस्त किंवदंतियों या ऐतिहासिक तथ्यों पर कोई कॉपीराइट सुरक्षा लागू नहीं की जा सकती। विचार का रूप, संरचना, और अभिव्यक्ति, सभी को संरक्षित कला माना जाता है। दूसरा, यदि एक ही धारणा को अलग अलग तरीकों से व्यक्त किया जाता है तो कुछ समानताएँ होंगी। विचार करने का मुख्य कारण यह है कि क्या समानताएँ मौलिक हैं ?

उपर्युक्त मामले में ले आब्जर्वर टेस्ट, जो यह निर्धारित करता है कि यदि पर्यवेक्षक को कालानुक्रमिक रुप से दूसरे टुकड़े को देखने के बाद यह स्पष्ट धारणा हो कि अगला काम पहले पाले की नकल है तो उल्लंघन होता है। यदि सामान्य स्मृति वाला व्यक्ति किसी काम को देखने या पढ़ने के बाद मूल और कॉपी किए गए काम के बीच पहचान कर सकता है तो इसे कॉपीराइट उल्लंघन नहीं माना जाएगा। जब दो कामों में एक ही मूल विचार होता है, लेकिन उस केंद्रीय विषय का उपचार और प्रस्तुति अलग अलग होती है, तो उल्लंघन का कोई सवाल नही उठता। । मंसूब हैदर बनाम यशराज फिल्मस के हालिया मामले में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि विचाराधीन दो कामों के बीच असमानताओं को दूर करने के बाद बचा हुआ अवशेष विचार है, जो कॉपीराइट योग्य नहीं है, और इसलिए केवल समानता होने से उल्लंघन नहीं होगी।

निर्माता और निर्देशक के बीच कई बार नैतिक अधिकारों को लेकर विवाद हुआ हैः

हाल ही में मणिकर्णिका फिल्म के बनते समय, निर्देशक कृष की फिल्म के निर्माता और सह निर्देशक कंगना रनौत से नैतिक अधिकारों को ले कर विवाद हुआ। दोनो अपने अपने कार्यों के अंश और निर्देशन के भाग को ले कर विवाद में थे। ऐसे मामलों में मध्यस्थता काफी मददगार होती है। कई बार लेखकों ने भी ये आरोप लगाए है कि उनकी कहानी या पटकथा का प्रयोग न सिर्फ बिना अनुमति के किसी फिल्म की बनाने में किया गया है अपितु उन्हें इसके लिए उचित मानदेय भी नहीं प्राप्त हुआ। ऐसे में अनेक बार लेखकों ने अदाल का दरवाजा खटखटाया है और फिल्म के प्रसारण पर रोक लगाने की सिफारिश की है।

सिनेमा में कॉपीराइट से संबंधित विवादों के कुछ अन्य उदाहरणः

अनिल कपूर के प्रोडक्शन हाउस ने फिल्म 'फटा पोस्टर निकला हीरो' (2013) के गीत 'मेरे बिना तु’ का उपयोग करने के लिए टी-सीरीज पर मुकदमा दायर किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि यह उनकी फिल्म 'एजेंट विनांद" (2012) के गीत "दिल मेरा मुफा का’ का कॉपी किया गया संस्करण था। अंततः मामला अदालत के बाहर सुलझ गया और टी-सीरीज़ ने मुआवजे के रूप में 50 लाख रुपये देने पर सहमति व्यक्त की। अनुराग बसु द्वारा निर्देशित समीक्षकों द्वारा प्रशसित फिल्म 'बर्फी" पर "द नोटबुक" (2004), "सिंगिन इन द रेन (1952), और "सिटी लाइट्स (1931) जैसी अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों से प्रेरित कई दृश्य होने का आरोप लगाया गया था। ब्लॉकबस्टर फिल्म "3 इडियट्स" पर चेतन भगत के सबसे ज्यादा बिकने वाले उपन्यास "फाइव प्वाइंट समवन' का अनधिकृत रुपांताण होने का आरोप लगाया गया था। भगत ने दावा किया कि उन्हें कहानी के लिए उचित श्रेय नहीं दिया गया तथा इस मुद्दे पर मीडिया में व्यापक चर्चा हुई। हालांकि, फिल्म के निर्माताओं का कहना था कि यह पुस्तक पर आधारित है, तथा इस संबंध में कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई। इस प्रकार के अनेको मामले समय-समय पर मीडिया में चर्चा पकड़ते हैं परंतु अधिकतर मामले अदालतों में जाने की जगह मध्यस्थता में जा कर सेटल हो जाते है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मध्यस्थता ना सिर्फ गोपनीय होती है बल्कि, स्वैच्छिक भी होती है जिसमें दोनों पार्टियों को उनके हानी, लाभ के लिए स्वयं बातचीत करनी होती है और फैसला करने की आजादी होती है।

इसी प्रकार, अधिनियम का अध्याय ४, प्रसार संगठन और प्रसारणकर्ताओं के आधिकारों के बारे में बात करता है। कई बार एक क्रिकेट मैच जिसके प्रसारण के अधिकार किसी एक चैनल के पास है का दूसरा चैनल बिना पूर्व अनुमती के प्रसारण कर देते हैं जो कि एक अपराध है। ऐसे में अदालतों में जाना ना सिर्फ समय बल्कि खर्च की भी बर्बादी करता है। मध्यस्थता यहां पर उनके नुक्सान का सही सही अंदाजा लगा कर के एक ऐसा समझौता कराने में मदद करती है जो दोनो के हित में हो। हो सकता है किसी एक पक्ष को वित्तीय नुकसान हो, परंतु वह भी अदालत में लगने वाले लंबे समय, खर्च, और सार्वजनिक रूप से मुकदमा हारने की बदनामी से बेहतर विकल्प साधित होता है।

सिनेमा के कॉपीराइट विवादों में मुकदमेबाजी की तुलना में मध्यस्थता एक बेहतर विकल्प क्यों है?

1. फिल्म की लागत की तुलना में मुकदमेबाजी की लागत:

कई बार, किसी विवाद के समाधान के लिए अदालतों में किया गया खर्च उस मूल्य या मुआवजे से कहीं अधिक होता है जो मध्यस्थता में विवाद को निपटाने के लिए भुगतान किया जा सकता है। इस प्रकार, यदि किसी प्रकार की अंतरिम या त्वरित राहत की आवश्यकता नहीं है, तो मध्यस्थता का विकल्प चुनना और न्यूनतम खर्च के साथ विवाद को सुलझाना बेहतर है।

2. अदालती कार्यवाही की लंबी अवधि और मानहानि की संभावनाः

आम तौर पर, ऐसे कई मानक होते हैं जो किसी फिल्म के रिलीज शेडयूल का फैसला करते हैं। इसके अलावा फिल्म की तैयारी में काफी पैसा और कई लोगों की मेहनत भी लगती है। निर्माता अक्सर फिल्म के लिए बाजार से अग्रिम राशि भी उधार पर लेते हैं और फिल्म की रिलीज के बाद उन्हें कई तरह के भुगतान करने पड़ते है। साथ ही, ऐसा हर बार नहीं होता है की मीडिया में फिल्म की चर्चा होने पर फिल्म को हर बार फायदा ही होगा। कई बार नुक्सान अधिक हो जाता है। कई बार देरी होने पर फिल्म किसी के द्वारा गैर कानूनी रूप से इंटरनेट पर प्रसारित कर दी जाती है जिससे निर्माता को भारी आर्थिक नुकसान झेलना पड़ता है। ऐसी स्तिथि में, कोई भी निर्माता अनुचित देरी के कारण वित्तीय नुकसान नहीं उठाना चाहता और इसलिए, मध्यस्थता में जाकर विवाद को जल्दी निपटाना पसंद करता है।

3. गोपनीयताः

कई बार, बड़े प्रोडक्शन हाउसों ने वास्तव में कॉपीराइट का उल्लंघन किया होता है और ऐसे मामलों में, यदि लेखक/गायक/निर्माता या कोई अन्य व्यक्ति जिसके काम का उल्लंघन हुआ है, अदालत से निषेधाज्ञा आदेश लेता है, तो प्रोडक्शन हाउस को गंभीर नुकसान का सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा उनकी प्रतिष्ठा भी नष्ट हो जाती है। इस प्रकार, ये हमेशा मध्यस्थता के माध्यम से मामले को निपटाने को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि ऐसा समझौता गोपनीय होगा और उनकी प्रतिष्ठा भी सुरक्षित रहेगी।

4. उच्च न्यायालय न्यायाधीश बनाम सेक्टर विशेषज्ञ मेडिएटर:

हर बार मुकदमेबाजी में, यह निश्चित नहीं होता है कि मामले की सुनवाई करने वाला न्यायाधीश बौद्धिक संपदा या कॉपीराइट के मामलों से अच्छी तरह वाकिफ ही होगा। अदालतों द्वारा सुने जाने वाले अधिकतर मामले अंतरिम या त्वरित राहत देने के संबंध में होते हैं। दूसरी ओर, नियुक्त मेडिएटर ऐसा व्यक्ति होगा जिसे कॉपीराइट मामलों की विस्तृत जानकारी होगी और इस प्रकार यह मामले को बेहतर तरीके से निपटाने में मदद कर सकता है।

5. मध्यस्थता जटिल विवादों को रचनात्मक ढंग से सुलझाने में मदद करती है और रिश्तों को भविष्य के लिए भी सुरक्षित रखती है:

मुकदमेबाजी में हमेशा एक पक्ष की जीत और दूसरे की हार होती है। इस प्रकार, यह उनके अहंकार को ठेस लगती है और उनके भविष्य में साथ काम करने की संभावनाओं पर भी अंकुश लग जाता है। इसके विपरीत, मध्यस्थता में, हमेशा एक जीत-जीत समाधान पर ही सहमति होती है जो दोनों पक्षों को संतुष्ट करती है और भविष्य में सहयोग के लिए दरवाजे भी खोलती है। इसके अलावा, कभी-कभी मामला बहुत जटिल हो सकता है जैसे कि दो अलग-अलग देशों के अलग-अलग स्थानीय कानूनों का शामिल होना या विचार-अभिव्यक्ति द्वंद से संबंधित जिससे यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि कॉपीराइट का उल्लंघन वास्तव में हुआ है या नहीं। और यदि हुआ तो किस स्तर तक? इस प्रकार, ऐसे जटिल मुद्दों को केवल तभी हल किया जा सकता है जब सौहार्दपूर्वक एक साथ बैठे और समस्या को एक साथ हल करने के लिए काम करें। ऐसे में किसी योग्य विशेषज्ञ की मदद भी ली जा सकती है।

6. मध्यस्थता की स्वैच्छिक और गैर-बाध्यकारी प्रकृतिः

मध्यस्थता की प्रक्रिया पूरी तरह से स्वैच्छिक होती है। यानी संतुष्ट ना होने की स्थिति में पहले सत्र के बाद पक्षकार कभी भी मध्यस्थता में बाहर निकल सकते हैं। साथ ही सेटलमेंट की शर्ते भी गैर-बाध्यकारी होती है और इस प्रकार, पार्टियों को लगता है कि जोखिम लेना उचित है। यदि मध्यस्थता किसी भी तरह असफल होती है तो मुकदमा करने का विकल्प हमेशा खुला रहता है।

मध्यस्थता में संख्या एवं सफलता प्रतिशतः

मुंबई उच्च न्यायालय के आकड़ों के अनुमार, वर्ष (2008-2019) तक, मध्यस्थता में भेजे गए मामलों की संख्या 4,66,896 है और निपटाए गए मामलों की संख्या 2,10,776 है। इस प्रकार, निपटान दर और सफलता अनुपात 46.09% है जो मुकदमेबाजी के माध्यम से हल होने वाले मामलों की तुलना में काफी अच्छी संख्या है। इसके अलावा, कई बार बड़ी पार्टियां समझौते के लिए कानून फर्मों के माध्यम से निजी मध्यस्थों और क्षेत्र विशेषज्ञों को नियुक्त करना पसंद करती है, जिनका डेटा निजी होता है।

निष्कर्ष : गौतम बुद्ध ने एक बार कहा था, "अच्छी तरह से जाने कि क्या आपको आगे ले जाता है और क्या आपको पीछे खींचता है और फिर यह रास्ता चुनें जो ज्ञान की ओर ले जाता है इसी तरह, किसी को भी अपने मामले की ताकत और कमजोरियों को अच्छी तरह से जानना चाहिए और यह निर्णय लेना चाहिए कि उनकी स्थिति के अनुसार क्या बेहतर है। मुकदमेबाजी के कई फायदे हो सकते है लेकिन जब कॉपीराइट उल्लंघन विवादों के संबंध में बात की जाती है, तो ज्यादातर मामलों में मध्यस्थता बेहता परिणाम देती है। यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि कॉपीराइट विवादों के अधिकतम मामले, चाहे वे राष्ट्रीय हो या अंतर्राष्ट्रीय, अदालत के बाहर ही निपट जाते हैं। बौद्धिक संपदा के मामलों को वाणिज्यिक मामलों की ही एक उपश्रेणी माना जा सकता है और मध्यस्थता के माध्यम से वाणिज्यिक विवादों के निपटारे की सफलता दर बहुत अधिक है। यह सस्ता, त्वरित, सरल, गोपनीय, गैर-बाध्यकारी है और भविष्य के लिए पार्टियों के संबंधों को साक्षित करने और कभी-कभी मजबूत करने के लिए रचनात्मक समाधान भी देता है। विक्टर ह्यूगो ने बहुत अच्छी तरह से कहा, "उस विचार में अधिक शक्तिशाली कुछ भी नहीं है जिसका समय आ गया है। अतः निस्संदेह मध्यस्थता के विचार को व्यापक रूप से प्रचारित एवं प्रसारित किया जाना चाहिए। यदि मध्यस्थता का अभ्यास किया जाए तो यह कॉपीराइट विवादों के समाधान के लिए बहुत प्रभावी और आशाजनक हो सकती है।

सन्दर्भ:
1. श्रीराम पंचू, वाणिज्यिक मध्यस्थता मोनोग्राफ, ओक ब्रिज पब्लिशिंग प्राइवेट। लिमिटेड, 2019, पृष्ठ 37
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3. डॉ. भरत बारोवालिया, बैलेंसिंग द स्केल्स, एचपी हैमिल्टन लिमिटेड, 2024, पृष्ठ 145
4. डॉ. वी.के. आहूजा, डॉ. आशुतोष मिश्रा, डॉ. आशुतोष आचार्य, मध्यस्थता, सत्यम लॉ इंटरनेशनल, 2020, पृष्ठ 127
5. हर्षुल बांगिया, मध्यस्थता अधिनियम 2023 (2023 का क्रमांक 32), सुमेधा पब्लिशिंग हाउस, 2023, पृष्ठ 10
6. फ़िल्मों में कॉपीराइट उल्लंघन के प्रसिद्ध मामले, bytescare.com
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8. अनिल कपूर फिल्म कंपनी प्रा.लि., मुंबई बनाम पी.आर.सी.आई.टी.-16, मुंबई, 31 दिसंबर, 2018
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10. बौद्धिक संपदा कानून, यूनिवर्सल, लेक्सिसनेक्सिस, पृष्ठ 440
11. बी. सी. थिरुवेंगदम, मेकिंग माइंड्स मीट, लेक्सक्विसाइट, पहला संस्करण, 2020, पृष्ठ 97
12. पीठ के माध्यम से बाधाओं को दूर करना, हाशिए पर रहने वाले समुदायों से संबंधित कानूनों और मुद्दों पर न्यायाधीशों के लिए एक प्रशिक्षण मैनुअल, भारत सरकार और यूएनडीपी, 2012, पृष्ठ 63
13. कॉपीराइट उल्लंघन: बॉलीवुड बनाम हॉलीवुड, https://www.khuranaandkhurana.com/
14. लैटिन मैक्सिम्स, लॉ एंड जस्टिस पब्लिशिंग कंपनी, चौथा संस्करण, 2023, पृष्ठ 171
15. सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908, एंबिशन प्रकाशन, 2023, पृष्ठ 64

आशुतोष मिश्रा
डीन अकादमिक मामले एवं विभागाध्यक्ष, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, सोनीपत
ashu.du@gmail.com+91-9873558866

श्रुति शुक्ला
पी.एच.डी विद्वान, विधि संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय
shrutishukla895@gmail.com+91-8130239998

सूरज कुमार मौर्य
पी.एच.डी विद्वान, एमिटी ग्लोबल वार्मिंग और पारिस्थितिक अध्ययन संस्थान, एमिटी विश्वविद्यालय, नोएडा
Surajmaurya13@yahoo.com+91-9911441407

सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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