- मनोज कुमार सैनी
शोध सार : सिनेमा किसी समाज की सांस्कृतिक विविधता, परम्परा और रीति-रिवाजों को दर्शाने का सबसे रोचक, आनंददायी तथा सशक्त माध्यम है। भारतीय फ़िल्मों, विशेषतौर पर हिन्दी सिनेमा ने मनोरंजन का महत्वपूर्ण साधन बनते हुए भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को भी प्रतिबिम्बित एवं प्रभावित किया है। हिन्दी सिनेमा सामाजिक बदलाव और सांस्कृतिक परिष्कृतिकरण का भी माध्यम रहा है। आज सिनेमा समाज के बड़े वर्ग तक अपनी पहुँच बना चुका है। मनोरंजन का दायितव निभाते-निभाते सामाजिक सरोकारों का उद्देश्य भी इसके माध्यम से सहज प्राप्त हो रहा है। स्त्री की भूमिका हर युग एवं सस्कृति में बदलती रही है। हिंदी सिनेमा भी इस बदलाव का साक्षी रहा है। सिनेमा का समाज में महिलाओं की स्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इस शोध आलेख में हिंदी सिनेमा में स्त्री की भूमिका और चित्रण का विश्लेषण किया गया है। समकालीन सिनेमा में नारी सशक्तिकरण के परिप्रेक्ष्य में उसके ऐतिहासिक विकास की समीक्षा की गई । प्रस्तुत आलेख के माध्यम से 21वीं सदी में प्रदर्शित हिन्दी के स्त्री केन्द्रित सिनेमा में स्त्री की उपस्थिति का विश्लेषण करते हुए सिनेमा में हो रहे परिवर्तनों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : संस्कृति, भूमंडलीकरण, देहवाद, यौन स्वच्छंदता, पारम्परिक, मुक्ति दायरा, स्टीरियोटाईप, अपवंचना, पोपकोर्न संस्कृति, यथार्थवाद।
मूल आलेख : हिंदी सिनेमा, भारतीय समाज की धड़कन और सांस्कृतिक अनुभवों का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह केवल मनोरंजन का स्रोत नहीं है, बल्कि सामाजिक मान्यताओं, धारणाओं और व्यवस्था में परिवर्तन को प्रतिबिम्बित करने वाला दर्पण भी है। सिनेमाशास्त्र के महनीय लेखक जवरीमल पारख के अनुसार ’’सिनेमा चाहे मनोरंजन के लिए हो या व्यवसाय के लिए या फिल्मकला के उत्कर्ष की अभिव्यक्ति के लिए, उसमें अपने दौर का समाज किसी न किसी रूप में व्यक्त हुए बिना नहीं रह सकता। यह अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष और अतिरंजित रूप में भी हो सकती है और अप्रत्यक्ष और रचनात्मक रूप में भी।’’[1]
हिंदी सिनेमा, भारतीय समाज की सांस्कृतिक धारा और सामाजिक मान्यताओं को प्रतिबिंबित करने के साथ-साथ उसे चुनौती भी प्रदान करता है।
आधुनिक हिंदी सिनेमा ने स्त्री पात्रों को उनके पारंपरिक छवियों से बाहर निकालकर जटिल और विविध स्वरूपों में प्रस्तुत किया है। इस शोध पत्र का उद्देश्य आधुनिक हिंदी सिनेमा में स्त्री सशक्तिकरण के विभिन्न आयामों का विश्लेषण करना है और यह समझना है कि कैसे यह सिनेमा स्त्री अस्मिता,पहचान, स्वतंत्रता, और शक्ति को चित्रित करता है।
स्त्री सशक्तिकरण अवधारणा और महत्व
भारतीय समाज में पुरुष की अपेक्षा स्त्री जाति सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक उत्थान के रूप में पूर्व में चिंतनीय दशा में रही थी। घर की चाहरदीवारी में कैद, सामाजिक बंधनों की ओढ़नी लादे उसकी उम्र कब पूरी हो जाती है उसे पता तक नहीं चल पाता। स्त्री के लिए जितने भी नियम और कानून थे वह पुरुष प्रधान समाज के संविधान के अनुरूप थे।
बीसवीं शताब्दी का प्रारंभिक दौर ‘स्त्री आंदोलन’ का श्रीगणेश रहा है। इस प्रारंभिक दौर में स्त्री ने अपनी सामाजिक पराधीनता को पहचाना तथा इसे दूर करने के लिए वह प्रयासरत हुई। शमीम खान के अनुसार “भारतीय नारी सदियों से सामाजिक एवं पारिवारिक बंधनों में जकडी हुई थी। परदा प्रथा और परंपराओं की बेडियों ने उसकी प्रतिभा को ग्रहण लगा दिया था। उसे किसी तरह की आजादी नहीं थी। बीसवीं सदी की शुरुआत नारी के लिए एक नए युग की शुरुआत थी। जो हजारों साल में मुमकिन न हुआ
वह एक सदी में उसने कर दिखाया। हर उस दरवाजे पर दस्तक दी, जो उसके लिए बंद थे। हालांकि उन दरवाजों को खोलना इतना आसान न था। कभी उसके हाथ जख्मी हुए तो कभी उसकी रूह। कभी उसे कुल्टा कहकर उसका सामाजिक बहिष्कार किया गया तो कभी उसकी आबरू लूटकर उसे अपने कदम पीछे लेने को मजबूर किया गया। लेकिन अपने बुलंद इरादों से नारी ने वो कर दिखाया, जिसकी एक सदी पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।“[2]
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर में स्त्री ने न केवल स्वयं की पराधीनता पर चिंतन किया अपितु उसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी अपनी जगह बनाई। पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने दकियानूसी वातावरण में अपनी बात मजबूती से रखते हुए स्त्री चेतना को अभिव्यक्ति दी। वस्तुतः स्त्री सशक्तिकरण का मूल तात्पर्य महिलाओं को समाज में समान अधिकार, स्वतंत्रता, और शक्ति प्रदान करने की प्रक्रिया से है। यह महिलाओं को आत्मनिर्भर, आर्थिक रूप से स्वतंत्र और समाज में समान अवसर प्रदान करने की दिशा में काम करता है। महिला सशक्तिकरण का सही अर्थ जटिल है, लेकिन इसके मूल में, यह महिलाओं को अपने जीवन को नियंत्रित करने और अपने निर्णय लेने की शक्ति और संसाधन देने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है। वंचित महिलाओं को सशक्त बनाने में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और आर्थिक अवसरों तक पहुँच के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक जीवन में पूरी तरह से भाग लेने की क्षमता जैसी चीजें शामिल हैं। स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में प्रभावी प्राथमिक पैरोकार रही सुधा सिंह नारी के इस रूप को देखते हुए कहती है “स्त्री संबंधी सवालों को उठाने और विचारने से पुरूष-वर्चस्ववादी सामाजिक चेतना के दुर्ग में सेंध लगी है।’’[3] इस संदर्भ में सीमोन द बोउवार का यह कथन विशेष महत्व रखता है कि ’’स्त्री पैदा नहीं होतीं बल्कि बना दी जाती है।’’[4]
महिला सशक्तिकरण के सम्बन्ध में स्त्रीविमर्श की प्रमुख आवाज पैलिनीथूराई ने लिखा है कि महिला सशक्तिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा समाज के विकास की प्रक्रिया में राजनीतिक संस्थाओं के द्वारा महिलाओं को पुरूषों के बराबर मान्यता दी जाती है। शमीम खान लिखती हैं की ”तीस के दशक में महामा गाँधी द्वारा किए गए नारीमुक्ति के प्रयासों के कारण औरत की दशा में परिवर्तन की शुरुआत हुई।“[5]
समकालीन भारतीय सिनेमा कला का एक वृहद् रचना संसार है, जिसमें समकालीन और पूर्व परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हम नारी के आत्मसंघर्षो और विकास प्रक्रियाओं के दौर से गुजरते हुए इसके अद्यतन स्वरूप को देखते हैं । सिनेमा एक प्रभावशाली माध्यम है जो इन अवधारणाओं को लोकप्रिय बनाने और सामाजिक चेतना को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। आधुनिक हिंदी सिनेमा ने स्त्री सशक्तिकरण को एक सामाजिक मुद्दे के रूप में प्रस्तुत किया है, जो समाज में गहराई से परिवर्तन ला सकता है। महिला विमर्श की मशहूर लेखिका शमीम खान का सिनेमा में स्त्री की भूमिका को लेकर कहना है कि “समय-समय पर नायिकाओं ने अपने अभिनय और जीवंत पात्रों द्वारा नारी समाज के दुःख-दर्द, उनके प्रति किए जा रहे अन्याय एवं शोषण, समाज में उनकी स्थिति को परदे पर पूरी गहराई और शिद्दत से पेश किया। ‘मदर इंडिया’ की राधा, ‘प्यासा’ की गुलाबी, ‘सुजाता’ की सुजाता, ‘सीमा’ की गौरी,’धुल का फूल’ की मीना, ‘साधना’ की चम्पाबाई , ‘घर’ की आरती ,’अर्थ’ की पूजा,’अस्तित्व’ अदिति ,’लज्जा की जानकी’, चांदनी बार ‘ की मुमताज , महज सिनेमा की नारी पात्र नहीं हैं। नारी समाज को दिशा प्रदान करने में इन पात्रों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।“[6]
भारतीय समाज का सबसे महत्वपूर्ण घटक ’स्त्री’ है। लेकिन दुर्भाग्य से न केवल समाज में अपितु सिनेमा में भी स्त्री को उसकी मुकम्मल पहचान से दूर रखा। वैदिक काल से ही स्त्री को पूजनीय देवी या ’मात्र शक्ति’ आदि उपमाओं से विभूषित कर उनका महिमा मण्डन तो किया जाता रहा किन्तु पित्रसत्तात्मक समाज में उसे अपनी पहचान पाने में सदैव संघर्ष ही करना पड़ा। हर युग, हर समाज में महिलाओं का वस्तुकरण कर उनका शोषण ही किया जाता रहा। स्त्री के सम्बन्ध में आदिकाल से ही यह सर्वमान्य धारणा रही है ’’ पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। रक्षन्ति स्थाविरे पुत्राः न स्त्री स्वातर्न्त्यमर्हति।।’’[7] भारतीय सिनेमा के यथार्थवादी सिनेमा की शाखा द्वारा स्त्री की इन विड़म्बनाओं को, अपने वजूद का अहसास कराने वाली फ़िल्मों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता रहा है।
वास्तव में हिन्दी सिनेमा में मुख्यधारा के सिनेमा के अतिरिक्त 60 के दशक में शुरू हुए नये यथार्थवादी सिनेमा ने स्त्री को उसकी सम्पूर्ण मानवीय आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के साथ प्रस्तुत किया है।
सिनेमा के इतिहास को पलट कर देखें तो इन सौ वर्षों के लंबे समय में आवश्यक प्रस्थान बिन्दु होते हुए भी स्त्रियां हमेशा हाशिये पर रहीं। वजह यही है कि पुरुषों ने उन्हें हमेशा कमजोर समझा। उनकी कार्यक्षमता को कम आंका गया। लेकिन सिनेमा ने इस मिथक को तोडकर स्त्रियों के वजूद को आधार देने का प्रयास किया है। ऐसा नहीं है कि हिंदी में ’स्त्री-समस्या’ केंद्रित फिल्मों का निर्माण हुआ ही नहीं दरअसल अधिकतर प्रारंभिक हिंदी फिल्मों में स्त्री को आदर्शवादी और ममतामयी मां, बहन, भाभी, पुत्री, पत्नी और प्रेमिका के रूप में ही अधिक चित्रित किया जाता रहा है जो विद्रोह भी करती है तो क्षण भर के लिए ।
सवाक फिल्मों के आरंभिक दौर से लगभग 1980 तक ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसमें स्त्री अपने अधिकारों और अस्मिता के लिए तनकर खड़ी तो होती है परंतु जल्द ही अपने सामाजिक बंधनों कि जकड़न में आ जाती है। ऐसी फिल्मों में-’चित्रलेखा’, ’महल’, ’दहेज’, ’बिराज बहू’, ’मदर इंडिया’, ’सुजाता’, ’मैं चुप रहूंगी’, ’बंदिनी’, ’काजल’, ’ममता’, ’साहब बीबी और गुलाम’, ’पाकीजा’, ’परिणीता’, ’गुड्डी’, ’आंधी’, ’जूली’, ’मौसम’, ’राम तेरी गंगा मैली’, ’तवायफ’, ’निकाह’, ’उमराव जान’, ’अभिमान’ आदि कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्में हैं।
मध्यकालीन हिन्दी सिनेमा में स्त्री को केवल ’फिलर’ के रूप में नायक के साथ नाचने-गाने के लिए ही रख कर उसकी भूमिका की इतिश्री कर दी जाती थी। हिंदी के व्यावसायिक सिनेमा ने बीसवीं सदी की नारी की जो तस्वीर प्रस्तुत की है वह वही है जिसके आदर्श धार्मिक पुस्तकों में मिलते हैं और जो प्राक् पूंजीवादी समाज में नारी की वास्तविक स्थिति का प्रतिबिंब है। इसके अनुसार, नारी जीवन की इसके अतिरिक्त और कोई सार्थकता नहीं है कि वह अपने पति और बच्चों के लिए अपने दैहिक पवित्रता की रक्षा करे और हर तरह से अपने पति के प्रति एकनिष्ठ रहे। स्त्री के शरीर को एक पवित्र मंदिर के रूप में प्रस्तुत किया गया,वह ऐसा कोई कदम ना उठाए, जिससे घर की मान-मर्यादा (पुरुषोचित) पर आँच आए। जो नारी इन जीवन-मूल्यों को स्वीकार नहीं करती, उन्हें हिंदी फिल्मों में ही नहीं वरन समाज में भी खलनायिका बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। नारी के ये ही दो रूप हिंदी सिनेमा को स्वीकार्य हैं। इनका सम-सामयिक नारी-यथार्थ से कोई संबंध नहीं है।
स्वतंत्रता-संघर्ष के दौर में भी यदा-कदा ऐसी फिल्में बनी थीं, जिनमें प्रतिगामी जीवन-मूल्यों पर चोट की गई थी। ऐसी कई फिल्मों में नारी की विडंबनाओं को भी कथानक बनाया गया था। ऐसी फिल्में थीं -‘दुनिया न माने’ (1937), ‘अछूत कन्या’(1936), ‘देवदासी (1935),
‘इन्दिरा एम॰ ए॰’(1934), ‘बाल योगिनी’ (1936), तथा ‘आदमी(1939 )।
नव यथार्थवादी सिनेमा ने साहित्य के समांनातर स्त्री विमर्श को अभिव्यक्ति प्रदान कर समाज में महिलाओं की स्थति को उजागर करने का प्रयास शुरू किया। समकालीन हिन्दी सिनेमा ही नहीं वरन् भारत की अन्य भाषाओं में भी स्त्री विषयों से जुड़ी सार्थक फ़िल्मों का निर्माण उस दौर में तेजी से हुआ। ’पाथेर पांचाली’ (1955), ’अपराजितो (1956),
’भुवनशोम’ (1969), ’माया दर्पण’ (1972), ’अंकुर (1982),
’मंडी’ (1983), ’बाजार’ (1982), ’गिद्ध’ (1984), ’मिर्च मसाला’ (1985) जैसी फ़िल्मों के माध्यम से ’स्त्री जीवन’ के तनावों को वर्ण्य विषय बना इन फ़िल्मकारों ने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता और जवाबदेही को प्रस्तुत किया है।
इन्हीं फ़िल्मों के माध्यम से स्त्री-दुनिया से जुड़े हुए प्रश्नों को पूरी गम्भीरता के साथ भारतीय फ़िल्मों में उस समय स्थापित किया गया जब समाज में स्त्री की दिशा एवं दशा अत्यंत चिंतनीय थी। इसी बीच भारतीय सिनेमा में भूमण्डलीकरण का दौर शुरू हुआ। भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी सिनेमा वैश्विक पहुँच के लिए अधिक उपयुक्त विषयों और सार्थक कहानियों पर केन्द्रित होने लगा। इस दौरान पारम्परिक भारतीय कहानियों के साथ-साथ अन्तरर्राष्ट्रीय दर्शकों को ध्यान में रखकर फ़िल्मों का निर्माण शुरू हुआ। फ़िल्मों की निर्माण प्रक्रिया में भी व्यापक बदलाव हुआ। बड़ी-बड़ी कम्पनियों के आगमन से फ़िल्मों का बजट बढ़ने लगा। प्रौद्योगिकी के उपयोग से फ़िल्मों की विजुअल गुणवत्ता में सुधार हुआ। इस दौर में भारतीय फ़िल्में वैश्विक स्तर पर अधिक प्रसारित हुई। वैश्विकरण के हिन्दी सिनेमा पर प्रत्यक्षतः कई सकारात्मक प्रभाव तो पड़े किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से इसने भारतीय सामानांतर सिनेमा को काफी नुकसान पहुँचाया। इस दौर में निर्माताओं की रूचि सार्थक सिनेमा के बजाय गीत-संगीत, एक्शन, आईटम सांग्स से सजी मसाला फ़िल्मों की और अधिक रही क्योंकि व्यावसायिक पैमाने पर ऐसी फ़िल्में अधिक सफल हो रही थी। डॉ. संध्या गर्ग के अनुसार ’’फिल्मों मे स्त्री सौंदर्य को भुनाने का एक और माध्यम है आइटम गीत। एक स्त्री का छोट-छोटे कपड़ों मे नृत्य और पुरुष दर्शकों द्वारा उसे लेकर अश्लील इशारे और कमेंट भी पुरुष दर्शकों को हॉल तक लाने का एक तरीका है। इस प्रकार स्त्री को दो जगह एक उपकरण के रूप मे प्रयोग किया जाता है।’’[8]
1980 के बाद स्त्री-चेतना से युक्त फिल्मों का निर्माण पुनः आरंभ हुआ जिसमें समान्तर सिनेमा या नव सिनेमा ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। समान्तर सिनेमा ने स्त्री की उन्मुक्त भावनाओं को नया आसमान दे दिया जिसमें विचरण कर उन्हें अपनी आजादी के नए सपने दिखने शुरू हुए। अपने अधिकारों की नयी सूची उनके हाथ लग गयी। ऐसी फिल्मों में-’मंडी’, ’बाजार’, ’भूमिका’, ’मिर्च मसाला’, ’महायात्रा’, ’इजाजत’, ’प्रतिघात’, ’रिहाई’ आदि महत्वपूर्ण रही। 1990 के बाद का हिंदी सिनेमा भूमंडलीकरण और उदारीकरण के प्रभाव से तेजी से बदला है। बकौल शमीम खान “समाज बदल रहा था और नारी के हालत भी , सामाजिक बदलाव के साथ नारी की स्थिति में भी परिवर्तन हो रहा था। महिलाएं सिर्फ नौकरी करके ही संतुष्ट नहीं थी , उन्होंने अपने लिये वर्जित समझे जाने वाले क्षेत्रों में प्रवेश कर पुरुष वर्चस्व को चुनौती दी ।“[9] नए निर्देशकों ने अपनी नयी विचारधाराओं के माध्यम से हिंदी सिनेमा को तमाम साहित्यिक विमर्शों से जोड़ दिया है। हिंदी सिनेमा और साहित्य में एक सामंजस्य स्थापित हुआ है। इसी बीच वरिष्ठ स्तम्भकार राकेश दुबे ने हिन्दी साहित्य से सिनेमा में ’शिफ्ट’ हुए स्त्री विमर्श की पडताल करते हुए लिखा है कि ’’जब देश में स्त्री सम्मान, स्त्री अस्मिता व स्त्री की ‘हां-ना’ पर नए सिरे से बहस छिड़ी हुई है। बहस का सिरा कभी साहित्य बन रहा है, कभी राजनीति, तो कभी सिनेमा। हमारी कुछ हिंदी फिल्में तो इधर स्त्री अस्मिता की बहस को नई दिशा देती दिखाई दी हैं। ये बहस की नई जमीन भी तैयार कर रही हैं। ये उस पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ मुखर होती दिखी हैं, जो अपनी सुविधा से स्त्री और पुरुष के अलग-अलग खांचे बनाती है। हिंदी सिनेमा में स्त्री का यह स्वर लंबे समय बाद मुखरित हुआ है।’’[10]
भारतीय समान्तर सिनेमा में ’स्त्री विमर्श’ को हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा के सिनेमा के इतर हमेशा ही अभिव्यक्ति मिलती रही है। ‘दिशा’, ‘तर्पण’, ‘बवंडर’, ‘गॉड मदर’, ,
‘वाटर’, ‘फायर’, ‘अर्थ’, ‘कामसूत्र’ ‘मातृभूमि’ ‘सत्ता’, ‘चमेली’, ‘अस्तित्व’, ‘जुबैदा’, ‘चांदनी बार’, ‘फैशन’, ‘हीरोईन’ , ‘नो वन किल्ड जेसिका’, ‘इश्किया’, ’डेढ इश्किया’, ’लिपस्टिक अन्डर माय बुर्का’ ,’बेगमजान’ ,’पिंक’ , ’थप्पड़’, जैसी फिल्मों ने स्त्री-विमर्श को नया आयाम दिया है। इन फिल्मों में स्त्री की बदलती और प्रगतिशील छवि को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया है। स्त्री विमर्श वास्तव में केवल स्त्रीमुक्ति की बात नहीं करता , बकौल संध्या गर्ग “स्त्री विमर्श पर पिछले कुछ वर्षो में बहुत कुछ, लिखा गया और बहुत सी विचार गोष्ठियाँ हुई। वास्तव मे स्त्री विमर्श का उद्देश्य स्त्री की मुक्ति नहीं पुरूष को भी उन कामनाओ और वर्जनाओ से मुक्त करना है जो स्त्री पर पुरूष वर्चस्व को सही ठहराती हैं।“[11]
सन् 2000 के बाद का हिन्दी समान्तर सिनेमा भारतीय स्त्री की ’मुक्ति’ की कहानी कहता है और यह मुक्ति उसने स्वयं अपने की ही बदौलत पाई है। अपनी वैचारिकता में उपजे शून्य को उसने ही रचा अपने दुख दर्द, सुख और इच्छाएँ बाँटने के लिए और धीरे-धीरे परत-दर-परत समय के साथ मन में सदियों से विराजमान गाँठें खुलती चलीं गईं और उसके मन में एक नई रोशनी ने जन्म लिया जिसने उसके अंतर्मन को दीप्त कर दिया, उसकी सोच को मुक्त कर दिया और उसे अत्यंत सशक्त कर दिया। वर्ष 2010 से 2020 का दशक , स्त्री केन्द्रित मजबूत फिल्मों के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण रहा। 21 वीं सदी के सिनेमा में बदलाव तब आया जब स्त्रियों ने सिनेमा के हर क्षेत्र में अपने कदम रखे। अभिनेत्री से ऊपर उठाकर निर्देशक, निर्माता, पटकथाकार, संवाद , कास्टिंग निर्देशक, कास्ट्यम डिजाईन आदि एवं तकनीकी क्षेत्रों में उसने अपने हाथ डालें हैं।
स्त्री-भागीदारी को लेकर कुछ नकारात्मक रहा हिंदी सिनेमा अब जागरूक हो चुका है। सिनेमा के इतिहास को पलट कर देखें तो इन सौ वर्षों के लंबे समय में आवश्यक प्रस्थान बिंदु होते हुए भी स्त्रियां हमेशा हांशिए पर रहीं। वजह यही है कि पुरुषों ने उन्हें हमेशा कमजोर समझा। उनकी कार्यक्षमता को कम आंका गया। शमीम खान के अनुसार “समाज की तरह हिंदी फिल्मों में भी पुरुषों का दबदबा है। ज्यादातर फिल्मों का भार नायक के ‘मजबूत’ कन्धों पर होता है। फिल्म उनके नाम से बिकती है।उन्हें नायिका से ज्यादा कीमत और प्रचार मिलता है। इन कड़वी सच्चाइयों के बावजूद नरगिस,मीना कुमारी , मधुबाला,नूतन,हेमा मालिनी , रेखा, माधुरी दीक्षित,एश्वर्या रॉय जैसी नायिकाओं ने अपनी लोकिप्रियता से समय-समय पर नायकों के ‘मजबूत’ कन्धों को को चनौती दी है।“[12]
इधर के विगत सिनेमा के इतिहास में 2010 से 2020 का दशक विशेष रूप से इसलिए रेखांकित करने योग्य है क्योंकि इस वर्ष लगभग एक दर्जन ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसने स्त्री छवि को पूरी तरह बदल दिया। ऐसा पहली बार हुआ जब हमने हिंदी सिनेमा में स्त्री के उस रूप को बड़े स्तर पर देखा गया जिस रूप को वह वर्षों से अंदर-अंदर जी रही थी। उनकी तमाम दमित भावनाओं को कई रूपों में देखने के लिहाज से यह दशक बहुत महत्वपूर्ण रहा। इस दशक में प्रदर्शित फिल्मों के नामों पर अगर हम दृष्टिपात करें तो -’नो वन किल्ड जेसिका ’ ,
’डेढ़ इश्किया’, ’हाईवे’, ’गुलाब गैंग’, ’क्वीन’, ’कांची’, ’मरदानी’, ’हैदर’, ’अनुराधा’, ’द पार्च्ड’ , ’राजी’, ’छपाक’ , ‘पिंक’, ‘थप्पड़’ आदि उन फिल्मों की सूची है जिसमें
स्त्री जीवन के उत्कर्ष का उत्सव है।
अभी कई ऐसी फिल्में भी हैं - जिनमें स्त्री मुक्ति के स्वर तो हैं , लेकिन उनकी प्राथमिकता पैसा कमाना मात्र है - ऐसी फिल्मों में आप अनन्या पाण्डे, रकुलप्रीत सिंह,दीपिका पादुकोण,करीना कपूर, सनी लियोन, पूनम पांडे, नीतू चंद्रा, शर्लिन चोपड़ा जैसी कुछ अधिक उन्मुक्त नायिकाओं की फिल्मों को शुमार कर सकते हैं। इधर जिन स्त्री केंद्रित फिल्मों का निर्माण हुआ उसके केंद्र में किसी दबाई, सताई और घबराई स्त्री का चेहरा नहीं है बल्कि पुरुषों को चुनौती देती उस स्त्री का अक्स है जिसमें अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बना लिया है।
इक्कसवीं सदी का आरम्भ भारतीय हिन्दी सिनेमा में स्त्रीवादी दुष्टिकोण से नई रोशनी लेकर हुआ। 21वीं सदी के हिन्दी सिनेमा में स्त्री किरदारों को और अधिक गरिमा और सशक्तता प्रदान करने की प्रवृति
शुरू हुई। यह लिंग समानता और सामाजिक परिवर्तन की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। सन् 2000 से पहले यह माना जाता था कि केवल तथाकथित ’स्टार’ ही फ़िल्म को चला सकता है। यदि किसी फ़िल्म का प्रधान पात्र नायिका है तो उसकी फ़िल्म की सफलता संदिग्ध है। नई शताब्दी में यह स्थापित मान्यता ध्वस्त होने लगी।
शमीम खान लिखती हैं , “इक्कीसवीं सदी का पहला दशक बडा ही क्रांतिकारी रहा। बीसवीं सदी में जिन सामाजिक परंपराओं की टूटन प्रारंभ हो गई थी, वह इस सदी तक आते-आते पूरी तरह टूट गई। समाज में और परदे पर ये बदलाव साफ तौर पर नजर आ रहे थे। अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रही भारतीय नारी अब अपनी शारीरिक जरूरतों को लेकर बडी मुखर हो गई, विशेषकर शहरों में रहनेवाली आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिलाएँ। समाज में जैसे-जैसे महिलाएँ अपने स्तर को पुनः परिभाषित कर रही हैं, सिनेमा में भी उनके चरित्र में परिवर्तन आ रहा है।“[13]
नई शताब्दी में नयी रचनात्मकता एवं ऊर्जा से सम्पन्न फ़िल्मकारों का उदय हुआ जिन्होंने अपनी कहानियों का प्रमुख पात्र नायकों को नहीं वरन नायिकाओं को बनाना शुरू किया। यह वास्तव में ऐसा था कि जैसे वर्षों से छाये अंधकार में स्वर्णिम सूर्य उदित हो रहा हो। मीरा नायर की ’मानसून वेडिंग’ (2001), ऋतुपर्णों घोष की ’रेनकोट’
(2004), नागेश कुकुनूर की ’ड़ोर’
(2006), राजकुमार गुप्ता की ’नो वन किल्ड जेसिका (2011), सुजॉय घोष की ’कहानी’
(2012), गौरी शिंदे निर्देशित ’इग्लिश-विग्लिश’
(2012), अभीषेक चौबे की ’डेढ़ ईश्किया’
(2014), विकास बहल की ’क्वीन’
(2013), प्रदीप सरकार की ’मरदानी’
(2014), उमंग कुमार की ’मेरीकॉम’
(2014), सोनाली बॉस की ’मार्गरीटा विद अ स्ट्रा’
(2015), अश्विनी अय्यर तिवारी की ’निल बटे सन्नाटा’
(2015), लीना यादव की ’पार्च्ड़’
(2016), अनिरूद्ध रॉय की ’पिंक’
(2016), अविनाश दास की ’अनारकली ऑफ आरा’
(2017), अलंकृता श्रीवास्तव की ’लिपस्टिक अण्डर माय बुर्का’
(2017), मेघना गुलजार की ’राजी’
(2018), अनुभव सिन्हा की ’थप्पड़’
(2020) तथा हाल ही में प्रदर्शित संजय लीला भंसाली की ’गंगूबाई काठियावाड़ी’
(2022) जैसी सफल फ़िल्मों की लम्बी श्रृंखला ने यह सिद्ध कर दिया कि वर्तमान नयी पीढ़ी के दर्शक अब स्त्री नेतृत्व को स्वीकार करने लगे हैं। सुखद आश्चर्य है कि इक्कसवीं सदी में प्रदर्शित इन नायिका प्रधान फ़िल्मों में से बहुतों को किसी महिला निर्देशक ने ही निर्देशित किया है। आज नायिकाओं की मुख्य भूमिकाओं युक्त फ़िल्में ’सौ करोड़’ के तथाकथत फ़िल्मी पैमाने को भी छूकर आर्थिक रूप से अपनी सफलता सिद्ध कर रही हैं। अनुष्का शर्मा, विद्या बालान, प्रियंका चोपड़ा, कंगना राणौत, रानी मुखर्जी, स्वरा भास्कर जैसी नायिकाऐं फ़िल्मों में मजबूत महिला नेतृत्व का पर्याय बन रही हैं। इक्कीसवीं सदी में प्रदर्शित इन फिल्मों ने यह भी सिद्ध कर दिया कि एक स्त्री को केवल उसके दैहिक सौन्दर्य की वजह से नहीं अपितु उसकी प्रतिभा, विचारणा और आत्मबल से भी सफलता मिलती है।
भारतीय सिनेमा के लगभग सौ से अधिक वर्षों के इतिहास में हमने नायिकाओं को अनेक रूपों में देखा है। ममतामयी माँ, कर्तव्य परायण पत्नी या आदर्श प्रेमिका स्नेही बहन बनकर वह विभिन्न भूमिकाओं में हमारे सामने आती रही है। लेकिन समय के साथ अब उसमें बदलाव आ रहा है। शमीम खान के अनुसार “समाज में हुए परिवर्तनों का प्रभाव नायिकाओं की भूमिका पर भी हुआ। परदे से भी धीरे-धीरे दब्बू और आंसू बहाते हुए महिला पात्रों की विदाई शुरू हो गई। महिलाओं के निजी जीवन और उनके संघर्षों से प्रेरित होकर कई फिल्मों का निर्माण हुआ। सिर्फ समाज में नारी की दशा का प्रभाव फिल्मों के नारी पात्रों पर पड़ा , ऐसा नहीं है, यह प्रभाव परस्पर था। सिनेमा के नारी पात्रों से प्रेरित होकर नारी ने अपनी परिस्थितियों को सुधारने के लिए नई संभावनाएँ तलाशीं।“[14]
वर्तमान सिनेमा ने मुख्यधारा सिनेमा और समानांतर सिनेमा की दूरियों को मिटा दिया है। आज फिल्मों में नायिकाओं को भी नायक के बराबर अहमियत दी जा रही है। सशक्त महिला किरदारों की फ़िल्मों की कहानियों में जगह दी जा रही है। प्रस्तुत शोधपत्र में चयनित फ़िल्में ’मरदानी’, ’कहानी’, ’डेढ़ ईश्किया’, ’गुलाब गैंग’, ’अनारकली आफ आरा’, ’लिपस्टिक अण्ड़र माय बुर्का’, ’पिंक’ आदि इसका सशक्त प्रमाण हैं। अब ये परिवर्तनशील सिनेमा और दर्शकों के उभरते हुए वर्ग की परिष्कृत रूचि का ही प्रमाण है कि हिन्दी फिल्मों में नारी के नारित्व की वापसी हुई है। शोध में जिन स्त्रीवादी फ़िल्मों का चयन किया गया है उन सभी की नारी पात्र पारम्परिक सामाजिक रूढ़िवादिता को चुनौती देते हैं। वर्ष 2013 में प्रदर्शित ’क्वीन’ का मशहूर गाना मैंने होठो से लगाई तो.. . .
. हंगामा हो गया। हमारे पित्रसत्तात्मक समाज पर व्यंग्य करता है कि क्यों किसी काम को पुरूष करें तो जायज है और वही कार्य स्त्री तो नाजायज।“ समय के साथ नायिकाओं के प्रस्तुतीकरण में काफी परिवर्तन आया है। यह बदलाव न सिर्फ उनके रहन-सहन में बल्कि उनके द्वारा निभाई भूमिकाओं में भी स्पष्ट रूप से नजर आ रहा है। दर्शक खास तौर पर मल्टीप्लेक्स में फिल्में देखनेवाले भी अब उन्हें सती सावित्री के रूप में देखना नहीं चाहते। यह समाज में महिलाओं की स्थिति का हो प्रतिबिंब है।“[15]
वास्तव में ये फ़िल्में स्त्री को उसके ’स्त्रित्व’ से पहचान करवाती हैं। ये फ़िल्में हर वर्ग की स्त्री को यह संदेश देती है कि अगर स्वयं को खुश करना है तो दूसरों को अपने वजूद पर हावी होने से रोकना होगा। 21वीं सदी में प्रदर्शित इन फ़िल्मों में एक स्त्री में छुपे हुए ’नायकत्व’ को मजबूती से रचा गया है। यह अत्यन्त उत्साहित करने वाली बात है कि समय की संवेदनशीलता को भाँपते हुए हिन्दी सिनेमा में ऐसी फ़िल्मों का निर्माण किया जाने लगा है जिनमें समाज की रूढ़िवादिता एवं उदासीनता पर वार कर सिनेमा की धुंधली होती छवि को पारदर्शी कर दिया है। इस दशक में कुछ ऐसी फ़िल्मों का निर्माण हुआ जिसने हमारे समाज की नैतिकता के नकाब को एक झटके से उतार फैंका है। बदलाव चाहने वाले व्यक्ति को सामाजिक अपयश का भी भागी बनना पड़ेगा उसे मिथ्या आरोपों-प्रत्यारोपों का सामना करना पड़ेगा। घर-बाहर एवं समाज के द्वारा आरोपित कठोर परिक्षाओं का सामना करना पड़ेगा परन्तु बदलाव का बीड़ा उठाने वाला व्यक्ति इन सब चुनौतियों को स्वीकार कर परिवर्तन का अग्रदूत बनता है। समाज उसके महत्व का एक न एक दिन अवश्य स्वीकार करता है। ’पिंक’ की मीनल अरोड़ा, ’थप्पड़’ की अमृता, ’इंग्लिश-विग्लिंश’ की गौरी शिंदे, ’क्वीन’ की रानी, ’छपाक’ की मालती, ’पार्च्ड’ की लाजो, बिजली, रानी, लिपस्टिक अण्डर माय बुर्का
की उषा बुआ, रिहाना आबीदी, लीला, शीरीन, ’अनारकली ऑफ आरा’ की, अनारकली, ’गुलाब-गैंग की रज्जो, ’मरदानी’ की शिवानी आदि सभी उसी बदलाव की अग्रदूत नायिकाऐं हैं।
ये सभी नायिकाऐं फ़िल्मों की कहानियों के इतर कहीं न कहीं हर भारतीय महिला का प्रतिनिधित्व करती है जो अपने जीवन में अब परिवर्तन चाहती है। उसे अब अपना हक, वजूद और अधिकार चाहिए। ये फ़िल्में दर्शकों को अपनी सोच पर पुनर्विचार करवाती हैं। इनके माध्यम से एक साधारण स्त्री को अपनी अर्न्तनिहीत ताकत का अहसास होता है। इन फ़िल्मों को देखने के पश्चात् एक आम भारतीय महिला अपने आपको पहले से कही सशक्त और सक्षम महसूस करती है। इनको देखकर सदियों से पित्रसत्तात्मक समाज द्वारा मान मर्दन करवा रही स्त्री उस निहायत ही खोखले आदर्शवादी, नैतिकता के झूठे ढकोसलों और दोहरे मापदण्डों से भरपूर आवरण को अपने पांव की ठोकर द्वारा चकनाचूर करना चाहती है जिसने उसे छला, शोषित और पग-पग पर प्रताड़ित किया है। हम यह पाते हैं कि ये फ़िल्में एक स्त्री को बिना समाज के ड़र आत्मविश्वास के साथ कदम बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करती हैं और अपने अंदर सदियों से छिपे डर से दो-दो हाथ करने, उससे संघर्ष द्वारा कुचलने की ताकत प्रदान करती हैं।
ये फ़िल्में समसामयिक समाज और सांस्कृतिक परिवेश से पूरी तरह जुड़ी है जो आधुनिक समाज के प्रत्येक पहलू पर विचार करती हैं। समसामयिक होने के कारण न केवल स्त्री अपितु पुरूष को भी अपनी सोच को बदलकर सामाजिक परिवर्तन का सहगामी बनाकर समाज की उन्नति एवं विकास में बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। ये फ़िल्में समाज के हर वर्ग को झिंझोड़ती हैं और उसे चिंतन करने को मजबूर करती हैं तथा प्रत्येक साधारण व्यक्ति को जागरूक कर उसमें असाधारण साहस एवं वैचारिकता परिपक्वता का संचार करती हैं। ये फ़िल्में समाज के प्रत्येक पुरूष को यह अहसास करवाने में सक्षम है कि स्त्री केवल एक ’देह’ नही है बल्कि उसका भी अपना एक वजूद है। वह कोई ’देवी’ नहीं और उसका पुस्तकीय महिमा मण्डन कर उन पर महान दिखने वाले श्लोकों की रचना कर उसे अधिकारहीन करने के बजाय उसे सामान्य मानवी समझकर उसे सम्मान एवं बराबरी का हक देना चाहिए। अब यह हक उसे शिक्षा में नहीं चाहिए वरन् अब वह इतनी सक्षम हो चुकी है कि अपने साहस और आत्मविश्वास से वह उसे छीनने की पर्याप्त शक्ति और सामर्थ्य रखती है। उसे अब ’अबला’ समझना उस पौरूषीय अहं से ग्रस्त समाज के लिए एक भूल ही होगी।
निष्कर्ष : स्त्री संदर्भित इस आधुनिक सिनेमा का दो टूक भाव यह है कि अब स्त्रियों ने अपनी आत्म चेतना का प्रसार कर अपने हौंसलों के पंखों को खोल उन्मुक्त गगन में उड़ने की ठान ली है। सदियों से उन पर आरोपित एक तरफा यांत्रिक तथा मानसिक चाहरदिवारियाँ उन्हें अब कैद कर पाने में सक्षम नहीं है। वह अब मुक्त होकर जीना चाहती है। ये फ़िल्म कथाएं वर्तमान स्त्री की मुक्ति की चाह को बयां कर उनकी अस्मिता, अपने वजूद की मुकम्मल जायज माँग उठाती हैं।
आधार फिल्में :
2. सुजॉय घोष, कहानी, 2012
3. सौमिक सेन, गुलाब गैंग, 2014
4. प्रदीप सरकार, मर्दानी, 2014
5. विकास बहल, क्वीन, 2014
6. इम्तियाज अली, हाईवे, 2014
7. नवदीप सिंह, एन.एच.टेन, 2015
8. नितेश तिवारी, दंगल, 2016
9. अनिरुद्ध रॉय चौधरी, पिंक, 2016
10. लीना यादव,’पार्च्ड़’, 2016
11. अविनाश दास ,’अनारकली ऑफ आरा’,2017
12. अलंकृता श्रीवास्तव ,’लिपस्टिक अण्डर माय बुर्खा’, 2017
13. मेघना गुलजार , ’राजी’,2018
14. अनुभव सिन्हा की ’थप्पड़’, 2020
15. संजय लीला भंसाली ,’गंगूबाई काठियावाड़ी’, 2022
सन्दर्भ :
[2] शमीम खान , सिनेमा में नारी , प्रभात प्रकाशन , दिल्ली ,2008 , पृ.17
[4] डा0 प्रभा खेतानःअनु.स्त्री उपेक्षिता,- सीमोन द बोउवार 2002 प्रकाशकः हिन्द पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड जे-40 नई दिल्ली
[6] शमीम खान , सिनेमा में नारी , प्रभात प्रकाशन , दिल्ली ,2008 , पृ.100
[8] डॉ. संध्या गर्ग ,हिंदी सिनेमा में स्त्री विमर्श,इंटरनेशनल जरनल फॉर साइंटिफिक एंड इनोवेटिव
रिसर्च स्टडीज ,वॉल्यूम -04 अंक -09 ,सितम्बर 2016
[9] शमीम खान , सिनेमा में नारी , प्रभात प्रकाशन , दिल्ली ,2008 , पृ.12
[11] डॉ संध्या गर्ग ,हिंदी सिनेमा में स्त्री विमर्श,इंटरनेशनल जरनल फॉर साइंटिफिक एंड इनोवेटिव
रिसर्च स्टडीज ,वॉल्यूम -04 अंक -09 ,सितम्बर 2016
[12] शमीम खान , सिनेमा में नारी , प्रभात प्रकाशन , दिल्ली ,2008 , पृ.04
सहा.आचार्य, हिंदी साहित्य, राजकीय कन्या महाविद्यालय, कोटपूतली
manu.bagri21@gmail.com, 9509349900
एक टिप्पणी भेजें