कहानी और सिनेमा के अंतर्संबंध का ऐतिहासिक परिदृश्य
- ज्ञान चन्द्र पाल
शोध सार : दो भिन्न विधा होते हुए भी कहानी और सिनेमा का संबंध बहुत पुराना है। भारत में फिल्मों का संबंध अपने जन्मकाल से ही कहानियों से रहा है। दादा साहब फाल्के द्वारा निर्देशित भारत की प्रथम मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ (1913) भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक ‘हरिश्चंद्र’ पर भले ही आधारित है; पर उसके बाद की उनकी लगभग सभी फिल्में पौराणिक कहानियों पर ही आधारित हैं। सन् 1913 ई. में ही प्रदर्शित उनकी दूसरी फिल्म ‘मोहिनी भस्मासुर’ शिव पुराण के एक आख्यान पर आधारित है। इसी प्रकार ‘सत्यवान-सावित्री’ (1914), ‘लंका दहन’ (1917), ‘श्रीक़ृष्ण जन्म’ (1918), ‘कालिया मर्दन’ (1919) तथा ‘गंगावतरण’ (1937) आदि फिल्में किसी-न-किसी पौराणिक आख्यान पर ही आधारित हैं। इसी प्रकार भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग (1940-60) में ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा निर्देशित फिल्म ‘धरती के लाल’ (1946) कृष्ण चंदर की कहानी ‘अन्नदाता’ पर आधारित है। इस प्रकार कहानी और सिनेमा का यह संबंध अपने आरंभ से लेकर आज तक थोड़ी कड़वाहट और थोड़ी मधुरता के बीच कायम है। प्रस्तुत आलेख में कहानियों पर आधारित फिल्मों की समीक्षा ऐतिहासिकता और उसकी जनलोकप्रियता के आधार प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : कहानी, सिनेमा, अंतर्संबंध, ऐतिहासिक परिदृश्य, लोकप्रिय सिनेमा।
मूल आलेख : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में यदि सिनेमा के आरंभ की बात की जाए तो वह साहित्य पर ही आधारित है पर, सीधे तौर पर यदि किसी हिंदी कहानी पर फिल्म निर्माण की बात आती है तो वह उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की ‘त्रियाचरित्र’ (‘औरत की फितरत’ उर्दू कहानी का अनुवाद) नामक कहानी पर निर्देशक अब्दुर राशिद करदार ने प्रथम हिंदी फिल्म ‘स्वामी’ (1941) का निर्माण किया है। इसके पश्चात प्रेमचंद की ही कहानी ‘दो बैलों की कथा’ पर ‘हीरा-मोती’, चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी ‘उसने कहा था’ पर ‘उसने कहा था’, तथा आंचलिक लेखक फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ नामक फिल्म का निर्माण किया गया। तब से आज तक अनेक हिंदी कहानियों पर अनेक हिंदी फिल्मों का निर्माण हो चुका है।
चूँकि हिंदी कहानी हिंदी साहित्य की एक विधा है। अतः हम हिंदी फिल्म का हिंदी कहानी से संबंध जानने के लिए उसका हिंदी साहित्य से संबंध जानना जरूरी समझते हैं। यहाँ पर साहित्य और फिल्म के संबंध को स्पष्ट रूप से समझने के लिए प्रसिद्ध निर्माता, निर्देशक और गीतकार गुलजार का कथन दृष्टव्य है। उनका मानना है कि “सिनेमा और साहित्य का संबंध एक अच्छे अथवा बुरे पड़ोसी, मित्र या संबंधी की तरह एक दूसरे पर निर्भर है। यह कहना जायज़ होगा कि दोनों में प्रेम संबंध है।” गुलज़ार के उपरोक्त कथन से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि साहित्य और सिनेमा के बीच का संबंध भले ही पड़ोसी के समान है, पर दोनों की एक-दूसरे पर निर्भरता जरूर है। दो पड़ोसियों के बीच जहाँ प्रेम देखने को मिलता है वहीं तकरार भी कम देखने को नहीं मिलती है। जहाँ यह प्रेम दोनों के संबंधों में प्रगाढ़ता लाता है वहीं अपनी-अपनी प्रतिबद्धता और स्वार्थ को लेकर तकरार भी देखने को मिलती हैं। साहित्य और सिनेमा के मध्य का यह तकरार कभी-कभी तो दोनों के बीच बहस का एक मुद्दा ही बन जाता है। विजय आनंद की फिल्म ‘गाइड’ को लेकर उनके और लेखक आर. के. नारायण के बीच हुए विवाद से सभी परिचित ही हैं। इन्हीं विवादों को देख-सुनकर चर्चित फिल्म समीक्षक श्याम माथुर आवेशवश लिखते हैं- “साहित्य और सिनेमा के रिश्ते आम तौर पर मधुर और आत्मीय नहीं रहे। दोनों के दरम्यान एक किस्म का तनाव हमेशा कायम रहा। फ़िल्मकारों के अपने तर्क हैं और रचनाकारों की अपनी अलग प्रतिबद्धता है। शब्दों और दृश्यों के सहारे अभिव्यक्ति का रास्ता अख़्तियार करने वाले साहित्यकारों और फ़िल्मकारों में तीखे विवाद हमेशा होते रहे।” हालांकि श्याम माथुर ने उपरोक्त दोनों विधाओं की आपसी गृह-कलह को ही उद्घाटित किया है। सिनेमा परिवार बहुत बड़ा है। इसमें निर्माता, निर्देशक, कथालेखक, संवादलेखक, दृश्यलेखक, गीतकार, संगीतकार आदि से लेकर अनेक लोग काम करते हैं। श्याम माथुर के अनुसार दोनों की अपनी प्रतिबद्धता होते हुए भी बी. आर. चोपड़ा अपने प्रसिद्ध सीरियल ‘महाभारत’ के संवाद लेखन के लिए प्रतिष्ठित साहित्यकार राही मासूम राजा को चुनते हैं।, कमलेश्वर दशकों तक फिल्मी दुनिया मुंबई में फिल्म लेखन के लिए ठहरते हैं। यदि साहित्यकारों और फ़िल्मकारों में हमेशा विवाद ही होता तो गुलजार; कमलेश्वर की रचनाओं पर और बासु भट्टाचार्य; मन्नू भण्डारी की कहानी ‘यही सच है’ पर ‘रजनीगंधा’ फिल्म का निर्माण न करते। यहाँ पर साहित्य और सिनेमा के संबंध के बारे में चर्चित फिल्म समीक्षक इकबाल रिजवी ने बहुत ही मुकम्मल कहा है- “हालांकि सिनेमा और साहित्य दो अलग विधाएँ हैं लेकिन दोनों का पारस्परिक संबंध बहुत गहरा है। जब कहानी पर आधारित फिल्में बनने की शुरुआत हुई तो इनका आधार साहित्य ही बना।”
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि जिस प्रकार विभिन्न विचारों के होते हुए भी परिवार के सदस्य अलग नहीं कहे जाते, उसी प्रकार साहित्य और सिनेमा भिन्न विधा होते हुए भी परिवार के सदस्य की ही तरह हैं। हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध उपन्यासकार, पटकथा लेखक राही मासूम रजा तो सिनेमा को साहित्य की ही एक विधा के रूप में स्वीकारते हैं। उन्होंने सिनेमा की समझ के लिए चर्चित पुस्तक ‘सिनेमा और संस्कृति’ में लिखा है- “सिनेमा साहित्य की एक विधा है। इसे भी उन्हीं तकाजों को पूरा करना चाहिए, जो दूसरी साहित्यिक विधायें पूरी करती हैं। यानि वह प्रचार या प्रोपोगेंडा नहीं है, वह लोगों को सुख प्रदान करता है तथा इस सुख से वह समाज को स्वस्थ बनाने की लड़ाई लड़ता है। जिस तरह कोई नज़्म, नाविल, कहानी या साहित्य जो इस कर्म को पूरा नहीं करता वह बेकार है, उसी तरह जो फिल्म इस कर्तव्य को पूरा नहीं करती वह त्रुटिपूर्ण है।” इतना ही नहीं वह इसे साहित्य का हिस्सा मानते हुए सिनेमा को साहित्यिक पाठ्यक्रमों में शामिल करने की वकालत भी करते है- “मैं इसे साहित्य का हिस्सा समझता हूँ इसलिए इस बात पर बल देता हूँ कि इसे साहित्य में शामिल कर लेना चाहिए और साहित्य मानकर साहित्यिक पाठ्यक्रमों में शामिल कर लेना चाहिए।”
दरअसल साहित्य और सिनेमा के बीच का संबंध अनुभवयुक्त अभिभावक और तकनीकी सक्षम नौजवान बेटे के समान है। यहाँ साहित्य रूपी अभिभावक के अनुभव से सिनेमा रूपी बेटा अपने को समृद्ध और सुसंस्कृत कर सकता है। गुलज़ार ने दोनों के संबंधों को रिश्ते में पिरोते हुए लिखा है- “साहित्य शताब्दियों का अनुभव-समृद्ध एक विवेकी बुजुर्ग है और सिनेमा एक अपरिपक्व तरुण।’’ इसको आप इस रूप में भी देख सकते हैं कि यदि साहित्य प्राचीनतम अनुभव-ज्ञान से समृद्ध वृद्ध है तो सिनेमा आधुनिक तकनीक और संसाधनों से परिपक्व युवा। जहाँ पर साहित्य की बुजुर्ग आँखें धुंधला देखने लगती हैं, वहीं सिनेमा उसे आधुनिकता के चश्में प्रदान करता है। सिनेमा यदि साहित्य को सीधा खड़ा होने में लाठी की भूमिका अदा करता है तो साहित्य अपने संचित अनुभव से उसे अच्छे-बुरे में भेद करना सिखाता है।
अतः सिनेमा का संबंध जैसे-जैसे साहित्य के साथ बढ़ता गया, हिंदी कहानियाँ उतना ही उसके करीब आईं। जिस प्रकार हिंदी साहित्य की चर्चा हिंदी कहानी के बिना अधूरी है; ठीक उसी प्रकार हिंदी कहानियों के बिना हिंदी सिनेमा की चर्चा करना बेमानी साबित होगा। हिंदी कहानियों ने हिंदी सिनेमा को अनेक बेजोड़ फिल्म निर्माण का मौका दिया है। ‘तीसरी कसम’, ‘रजनीगंधा’, ‘दुविधा’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘त्रिया चरित्र’ आदि फिल्में इसके सशक्त उदाहरण हैं।
अब तक हिंदी की अनेक कहानियों पर हिंदी फिल्म का निर्माण हो चुका है; पर इनमें से वह पहली कहानी जिस पर हिंदी फिल्म का निर्माण हुआ, बताना मुश्किल है। अनेक शोध ग्रंथ और पुस्तकों में जिस कहानी पर आधारित फिल्म का निर्माण बताया गया है वह फिल्म भी अब अनुपलब्ध है। कई लेखकों ने मुंशी प्रेमचंद की ‘त्रियाचरित्र’ (‘औरत की फितरत’ उर्दू कहानी का अनुवाद) नामक हिंदी कहानी पर निर्देशक अब्दुर राशिद करदार द्वारा प्रथम हिंदी फिल्म ‘स्वामी’ (1941) का निर्माण होना बताया है। इकबाल रिजवी के अनुसार, “1941 में ए. आर. कारदार ने प्रेमचंद की कहानी ‘त्रिया चरित्र’ को आधार बनाकर ‘स्वामी’ नाम की फिल्म बनाई जो चली नहीं।” यह फिल्म नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया, पुणे में भी उपलब्ध नहीं है। कहानी में एक दिल्ली के सेठ लगनदास के गोद लिए बेटे मगनदास की शादी नागपुर के सेठ मक्खनलाल की बेटी इंदिरा बाई से हुई है। इसमें घर से दुखी होने तथा परिचय छिपाकर नागपुर के पास एक गाँव में बसे मगनलाल का वेश छुपाकर रंभा नामक मालिन बनकर इंदिरा बाई का पति की सेवा परायण करने का जिक्र किया गया है। इस प्रकार यह फिल्म आदर्शपरक कहानी पर आधारित है।
इसके पश्चात लगभग अट्ठारह-बीस वर्ष तक किसी हिंदी कहानी पर हिंदी भाषा में किसी फिल्म का निर्माण होते दिखाई नहीं देता है। इत्तेफाक देखिए कि अब्दुर राशिद करदार द्वारा प्रेमचंद की कहानी ‘त्रियाचरित्र पर ‘स्वामी’ (1941) नामक फिल्म के निर्माण होने के पश्चात एक बार फिर से अट्ठारह वर्ष पश्चात उन्हीं की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ (1931) पर कृष्ण चोपड़ा ने ‘हीरा-मोती’ (1959) नामक फिल्म बनाने का निश्चय किया। ज्ञात रहे कि हिंदी साहित्य में यह समय ‘प्रयोगवाद’ और ‘नई कविता’ के तथा सिनेमा में ‘समांतर सिनेमा’ के नाम से जाना जाता है। ‘दो बैलों की कथा’ के प्रकाशन के समय भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। अतः देश के नागरिकों में स्वतंत्रता के प्रति जागृति और परतंत्रता के विरोध के लिए अन्योक्ति शैली का सहारा लिया जाता था। मुंशी प्रेमचंद ने जिस प्रकार दो बैलों को अपनी स्वतंत्रता के लिए हिंसक संघर्ष करते दिखाया है वह उन पर मार्क्सवाद के प्रभाव का परिणाम है। कुशल निर्देशक कृष्ण चोपड़ा और उस जमाने के प्रसिद्ध अभिनेता तथा ‘भारतीय जन नाट्य संगठन’ से जुड़े बलराज साहनी ने इस फिल्म में मुख्य चरित्र की भूमिका निभाई थी।
इसके पश्चात कहानियों पर आधारित फिल्मों की एक कड़ी-सी दिखाई देती है। कृष्ण चोपड़ा द्वारा ‘हीरा मोती’ के निर्माण के अगले ही वर्ष यानि सन् 1960 ई॰ में मोनी भट्टाचार्य के कुशल निर्देशन में चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ द्वारा लिखित हिंदी की प्रथम प्रसिद्ध कहानी ‘उसने कहा था’ का इसी नाम से फिल्मांकन किया गया। इस फिल्म में कहानी के पात्रों के नाम बदलकर तथा अन्य घटनाओं को जोड़कर इसे मनोरंजक फिल्म के रूप में बनाया गया है। फिल्म के प्रमुख पात्रों में अभिनेता सुनील दत्त ने लहना सिंह की तथा अभिनेत्री नन्दा ने सरदारनी की भूमिका निभाई थी। पुनः छः वर्ष पश्चात आंचलिक उपन्यासकर फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ की चर्चित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुलफाम’ पर बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में ‘तीसरी कसम’ (1966) नामक फिल्म का निर्माण हुआ। फिल्म की मुख्य भूमिका में राजकपूर और वहीदा रहमान थे। इस फिल्म के निर्माता हिंदी फिल्मों के सुप्रसिद्द गीतकार शैलेंद्र थे। ऐसा कहा जाता है कि इस फिल्म से अच्छी कमाई न होने के कारण ही शैलेंद्र की मृत्यु हृदयघात से हो गई थी। बाद में इस फिल्म को खूब सराहना मिली।
अब एक तरफ मनोरंजन सिनेमा में यंग एंग्रीमैन का प्रवेश हो रहा था तो दूसरी तरफ समांतर सिनेमा के सफल पैरोकार मणि कौल का सिनेमा निर्देशन में प्रवेश हो रहा था। इसी समय उन्होंने सन् 1970 ई. में मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ पर इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया। फिल्म की कहानी ‘सुच्चा सिंह’ नामक ट्रक ड्राइवर और उसकी पत्नी के इर्द-गिर्द घूमती है। फिल्म समीक्षक मुकेश आनंद ने मणि कौल के इस निर्माण को ‘समकालीन जनमत’ पर, “अतियथार्थवाद का जोखिम भरा रास्ता अख़्तियार करती मणि कौल की उसकी रोटी” नामक लेख द्वारा उल्लेखित किया है। अगले वर्ष सन् 1971 ई. में कमलेश्वर की ‘तलाश’ नामक कहानी पर ‘फिर भी’ नाम से शिवेंद्र सिन्हा के निर्देशन में फिल्म का प्रदर्शन किया गया। फिल्म की प्रमुख भूमिका में प्रताप सिन्हा और उर्मिला भट्ट थे। दूसरे वर्ष सन् 1972 ई. में निर्मल वर्मा की कहानी ‘माया दर्पण’ पर ‘नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कार्पोरेशन ऑफ इंडिया’ के सहयोग तथा ‘फिल्म एवं टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया’, पुणे से प्रशिक्षित तथा कुशल शिक्षक, सफल निर्देशक तथा समांतर सिनेमा के पैरोकार ऋत्विक घटक के शिष्य कुमार शाहनी के निर्देशन में इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया गया। इस फिल्म ने उस वर्ष की ‘क्रिटिक च्वाइस बेस्ट फिल्म’ का अवार्ड’ प्राप्त किया था। कहानी में ‘तरन’ नामक एक ऐसी लड़की का वर्णन किया गया है जिसके मन में अधिक उम्र हो जाने पर भी शादी न होने के कारण एकाकीपन तथा कुंठा घर कर गया है।
इसके दो वर्ष पश्चात सन् 1973 ई. में मणि कौल ने पुनः राजस्थान के प्रसिद्ध साहित्यकार विजय दान देथा की प्रसिद्ध कहानी ‘दुविधा’ पर इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया। कहानी और फिल्म दोनों इतनी चर्चित हुईं कि आगे चलकर इस कहानी पर फिर से आमोल पारेकर के निर्देशन तथा शाहरूख खान और रानी मुखर्जी के अभिनय में एक फिल्म ‘पहेली’ का निर्माण किया गया। कहानी में परिवार और धन में से परिवार की महत्ता को स्थापित करने का प्रयास किया गया है। इस फिल्म के लिए फिल्म के निर्देशक मणि कौल को ‘बेस्ट डाइरेक्शन’ का अवार्ड तथा फिल्म को सन् 1974 ई. के फिल्म फेयर अवार्ड में ‘बेस्ट क्रिटिक अवार्ड’ प्राप्त हुआ है।
इसके ठीक अगले वर्ष सन् 1974 ई. को सफल फिल्म निर्देशक बासु चटर्जी द्वारा चर्चित महिला कहानीकार मन्नू भण्डारी की कहानी ‘यही सच है’ पर ‘रजनीगंधा’ (1974) नामक फिल्म का निर्माण किया गया। यह कहानी डायरी शैली में लिखी गई है। इसमें एक स्त्री के जीवन में पहला प्यार और मंगेहतर के बीच चयन के अंतर्द्वंद का चित्रण किया गया है। कहानी और फिल्म दोनों की बुनावट कुछ ऐसी है कि पाठक और दर्शक दोनों आगे क्या होगा की इच्छा रखते हुए कहानी और फिल्म को पूर्ण करके ही दम लेते हैं।
साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्मों पर प्रायः लेखक-निर्देशक विवाद होते देखा जाता रहा है। ‘रजनीगंधा’ फिल्म के साथ कुछ ऐसा संयोग रहा कि इसके निर्देशक ने स्वयं लेखक को इसकी पटकथा और संवाद लिखने के लिए राजी कर लिया। फिर तो कहानी और फिल्म का ऐसा गठजोड़ तैयार हुआ कि दोनों एक-दूसरे के पूरक-से लगते हैं। फिल्म में मुख्य भूमिका अमोल पालेकर, विद्या सिन्हा और दिनेश ठाकुर ने निभाई थी। यह फिल्म, फिल्म फेयर अवार्ड में ‘बेस्ट क्रिटिक अवार्ड’ से नवाजी गई। इस कहानी को वर्तमान समय की चर्चित कवयित्री अनामिका ने ‘हिंदी समय’ वेबसाइट के एक लेख में “प्रेम और द्वंद्व की कहानी” नाम से अभिहित किया है।
बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित ‘रजनीगंधा’ की सफलता के पश्चात समांतर सिनेमा के प्रतिबद्ध निर्देशक श्याम बेनेगल ने सन् 1975 ई. में विजयदान देथा की लोककथा पर आधारित कहानी ‘चरणदास चोर’ पर इसी नाम से बाल फिल्म का निर्माण किया। फिल्म की प्रमुख भूमिका में स्मिता पाटिल का नाम अग्रणी है। इसके पश्चात बंगला सिनेमा के ख्यातिलब्ध निर्देशक सत्यजीत रे ने हिंदी साहित्य के ख्याति प्राप्त लेखक तथा उपन्यास सम्राट की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर इसी नाम से सन् 1977 ई. में फिल्म का निर्माण किया। मुंशी प्रेमचंद ने इस कहानी के माध्यम से मुगल जमीदारी शासन पर अँग्रेजी शासन की विजय को दिखाने का प्रयास किया है। सत्यजीत रे ने कहानी के अंत को बदलकर जमीदारी शासन के नए रूप को दिखाने का प्रयास किया है। ज्ञात हो प्रसिद्ध आंचलिक उपन्यासकर फणीश्वर नाथ रेणु ने भी अपने उपन्यास ‘मैला आँचल’ में जमीदार विश्वनाथ मलिक को कांग्रेस में सम्मिलित कराकर जमीदारी के नए रूप को चित्रित किया है। ‘रजनीगंधा’ की अपार प्रशंसा के बाद निर्देशक बासु चटर्जी ने हिंदी कथा लेखिका मन्नू भण्डारी की एक और कहानी ‘एखाने आकाश नई’ पर ‘जीना यहाँ’ (1979) नामक फिल्म को शबाना आजमी और शेखर कपूर की मुख्य भूमिका में निर्माण किया।
‘शतरंज के खिलाड़ी’ की प्रशंसा के पश्चात एक बार पुनः मणि कौल ने प्रसिद्द प्रगतिवादी कवि, लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध की दो कविता, दो निबंध और छः लघु कहानियों को सम्मिलित कर ‘सतह से उठता आदमी’ नाम से सन् 1980 ई. में फिल्म का निर्माण किया। यह फिल्म मुक्तिबोध के प्रशंसकों और फिल्म जगत में साहित्य को स्थान देने वालों के बीच काफी चर्चा में रही। इसके पश्चात एक बार हिंदी फिल्म और हिंदी साहित्य में रूचि लेने के पश्चात सत्यजीत रे ने ‘सद्गति’ (1981) नाम से टेलीफिल्म का निर्माण मुंशी प्रेमचंद की इसी नाम की कहानी पर किया। बासु भट्टाचार्य, मणि कौल तथा सत्यजीत रे के पश्चात एक और नवोदित निर्देशक ने हिंदी कहानियों पर आधारित फिल्म के निर्माण में अपनी रुचि दर्ज किया। फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में आये इन नए निर्देशक का नाम प्रकाशा झा है। प्रकाश झा ने सन् 1985 ई. में कहानीकार शैवाल की ‘दामुल’ कहानी पर इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया। निर्देशक और लेखक दोनों ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के आधार पर फिल्म और कहानी में शोषक और शोषित वर्ग का पर्दाफाश किया है। यह फिल्म उस वर्ष के फिल्म फेयर अवार्ड का ‘बेस्ट फिल्म क्रिटिक अवार्ड’ प्राप्त की थी। इस फिल्म को फिल्म समीक्षक मुकेश आनंद ने “पूंजीवाद और सामंतवाद के गठजोड़ से उपजे शोषण को चित्रित करती फिल्म” बताया है।
अब एक बार फिर ‘सारा आकाश’, ‘रजनीगंधा’, जैसी साहित्य कृतियों पर आधारित फिल्म बनाने वाले बासु चटर्जी ने ग्रामीण जीवन और बोली-बानी को ठेठ रूप में चित्रित करने वाले कहानीकार शिवमूर्ति की कहानी ‘तिरिया चरित्तर’ पर ‘त्रियाचरित्र’ (1994) नाम से फिल्म का निर्माण किया। फिल्म में ओम पूरी, नसिरुद्दीन शाह तथा राजेश्वरी सचदेव जैसे कलाकारों के सधे अभिनय ने ग्रामीण जीवन के प्रेम और छल-कपट को बहुत ही बारीकी से उद्धृत किया है। लंबे अरसे के पश्चात एक बार फिर से प्रसिद्ध राजस्थानी लेखक विजय दान देथा की ‘दुविधा’ कहानी पर अमोल पालेकर के निर्देशन तथा शाहरूख खान और रानी मुखर्जी के अभिनय में ‘पहेली’ (2005) नामक फिल्म का निर्माण किया गया। यह फिल्म अपने पूर्व फिल्म की तुलना में व्यावसायिक अधिक और साहित्यिक कम है। ‘पहेली’ के निर्माण के पश्चात नए-नए निर्देशक भी साहित्यिक रूचियों के चलते फिल्म विधा में अपना हाथ आजमाने आगे आए। इस कड़ी में सन् 2007 ई. में निर्देशक मनीष झा ने प्रियवंद की कहानी ‘एक फाल्गुन की उपकथा’ पर ‘अनवर’ नामक फिल्म का निर्माण किया। यह कहानी और फिल्म दोनों समाज में फैले सांप्रदायिक विद्वेष को एक नए दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करती है। इसके पश्चात सन् 2009 ई. में दो फिल्मों का निर्माण किया गया। एक प्रियंवद की कहानी ‘खरगोश’ पर इसी नाम से परेश कामदार ने तथा दूसरी उदय प्रकाश की साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत कहानी ‘मोहनदास’ पर इसी नाम से मजहर कामरान ने फिल्म का निर्माण किया। ‘मोहनदास’ कहानी और फिल्म दोनों समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, जातिवाद तथा भाई-भतीजावाद की बुराई को परत-दर-परत खोलती हैं।
इधर काफी दिनों से किसी हिंदी कहानी पर कोई फिल्म का निर्माण नहीं किया गया। सन् 2017 ई. में एक बार फिर फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘पंचलाइट’ पर प्रेम प्रकाश मोदी के निर्देशन में इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया गया। दुर्भाग्य यह कि साहित्य जगत में विशेष चर्चित रेणु की कहानी पर बनी यह फिल्म साहित्य-जगत और फिल्म-जगत दोनों में कोई चर्चा नहीं बटोर पाई। इस प्रकार कहानी और फिल्म का यह रिश्ता कटु-मधुर संबंधों के बीच आज भी निरंतर मंद गति से ही सही, गतिशील है।
संदर्भ :
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- https://samkaleenjanmat.in/damul-portrays-exploitation-arising-out-of-the-nexus-of-capitalism-and-feudalism/
ज्ञान चन्द्र पाल
अतिथि व्याख्याता, हिंदी विभाग, शासकीय नवीन कन्या महाविद्यालय बैकुंठपुर, कोरिया (छ.ग.)
gyan.mgahv@gmail.com
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved & Peer Reviewed / Refereed Journal
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग : विनोद कुमार
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