शोध सार : शिक्षा किसी भी समाज का एक महत्वपूर्ण अंग है। यह हमें एक संवेदनशील मानव के रूप में निर्मित करती है। बच्चे किसी भी देश और समाज के लिए भविष्य की पूँजी होते हैं। शिक्षा के दो रूप हमारे सामनेआते हैं पहला, औपचारिक तथा दूसरा, अनौपचारिक। बच्चों के लिए अनौपचारिक शिक्षा,औपचारिक शिक्षा से कहीं ज्यादा मायने रखता है। बदलते परिवेश और समय की बढ़ती जरूरतें को पूरा करने के लिए शिक्षा का वर्तमान स्वरुप बच्चों के मस्तिष्क के विकास के लिए कितना उपयोगी साबित होगा, यह शोध का विषय हो सकता है। वर्तमान लेख के माध्यम से यह देखने का प्रयास किया गया है कि यह शिक्षा (बाल पोथी) स्वतंत्र चेतना वाले मस्तिष्क का निर्माण कर पाने में कितना सहयोगी है?
बीज शब्द : बालपोथी, शिक्षा, मानवीय मूल्य, बालमन, स्वतंत्र चेतना, लोकभाषा, मोबाइल, आधुनिकता, मानसिक अवसाद, संस्कृति,विविधता, राष्ट्र निर्माण आदि।
प्रस्तावना : “शिक्षा का उद्देश्य तथ्यों को सीखना नहीं होता है बल्कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य दिमाग को प्रशिक्षित करना होता है।” - अल्बर्ट आइंस्टीन
इस उक्ति के आलोक में जब हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को देखते हैं तो बहुत संतोषजनक स्थिति नहीं दिखायी पड़ती।खासकर बाल शिक्षण में यह स्थिति और ख़राब है।तथ्यों को रटने की प्रवृति से ही हमारे यहाँ टॉपर का चुनाव होता है। एक बच्चे के भीतर कितनी संवेदना विकसित हुई? या उसमें नागरिकता बोध का कितना विकास हुआ, इस पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। जबकी होना ऐसा ही चाहिए। हम वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से एक ऐसे भावी समाज की कल्पना करते हैं जहाँ मानवीय मूल्य गौण होंगे। मनुष्य की संवेदनाओं का कोई खास महत्त्व नहीं होगा। किसी को किसी से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।भविष्य के इस समाज की आहट कहीं-कहीं हमें सुनाई भी देने लगी है। अभीहाल ही में लखनऊ के एक पब्लिक स्कूल की वह घटना ने मुझे विचलित कर दिया था किजब छात्रों का एक गुट आपस में लड़ जाते हैं।एक बच्चे को एक लड़का गमला उठाकर उसके सिर परमार देता है और वह लड़का वही मर जाता है। शिक्षक जब इस घटना का विरोध करते हैं तो बच्चे उन्हें पिस्तौल दिखाकर मारने की धमकी देते हैं। पहले इस तरह की घटनाएँ पश्चिमी देशों खासकर अमेरिका वगैरह में सुनाई देती थी कि बच्चे अपने शिक्षकों पर गोली चला देते हैं। लेकिन आज भारतीय परिप्रेक्ष्य में जहाँ शिक्षा और संस्कार का अन्योन्याश्रित संबंध है वहाँ इस तरह की घटना, यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि आखिर शिक्षा का उद्देश्य क्या है?निश्चित रूप से भारतीय शिक्षा का उद्देश्य यह तो नहीं है।इस सन्दर्भ में श्री अरविंद ने शिक्षा के उद्देश्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि -“बालक की प्रकृति में जो कुछ सर्वोत्तम, सर्वाधिक शक्तिशाली,सर्वाधिक अन्तरंग और जीवन पूर्ण है, उसको व्यक्त करना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। बालक की सच्ची शिक्षा वही है जो उसके समस्त पक्षों का विकास करे।उसके जीवन, मस्तिष्क और आत्मा,व्यक्तिगत और सामाजिक स्थिति-सभी में, उसके सर्वागीण विकास में योगदान दे।"[i] यह सत्य है कि शिक्षा का उद्देश्य एक ऐसे स्वतंत्र चेतना वाले मनुष्य का निर्माण करना है जो किसी वस्तु को बिना किसी दुराग्रह के देखने की क्षमता अर्जित करता हो। इसके लिए जरूरी है कि ऐसी शिक्षा की बुनियाद प्राथमिक स्तर पर ही पड़नी चाहिए। हमारे समाज में बालक के सर्वांगीण विकास में अनौपचारिक शिक्षा के रूप में बाल साहित्य का विशेष योगदान है। यहाँ बाल साहित्य से हमारा आशय उस साहित्य से है जो बड़ों और बच्चों द्वारा बालक की रुचियों, मनोवृत्तियों, जिज्ञासाओं, अपेक्षाओं एवं बाल परिवेश को केंद्र में रखकर रचा जाए। बाल साहित्य की अनेक विधाएं हैं। यथा-बाल काव्य, बाल कथा, बाल उपन्यास, बाल नाटक, बाल एकांकी, बाल जीवनी, बाल यात्रा, ज्ञान-विज्ञान संबंधी आलेख, सूचनापरक बाल साहित्य, आख्यायिका आदि।
इस प्रकार से देखे तो हम पाते हैं कि लोक कथाओं का सृजन बालमन को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से ही हुआ है, जो आगे चल कर दादा-दादी और नाना-नानी की कथा के रूप में रूढ़ हो गया।कहने का आशय यह है कि बाल साहित्य हमारे समाज में बहुत पहले से अनौपचारिक शिक्षा के रूप में मौजूद रहा है,लेकिन औपचारिक शिक्षा में इसका प्रचलन बहुत बाद में हुआ है। उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने सरकारी विद्यालयों मेंइसे प्राथमिक स्तर पर बाल पोथी के रूप में लागू किया है,लेकिन अन्य विद्यालयों में इसकी अनिवार्यता नहीं है।अब एक प्रश्न तो यही बनता है कि यह अंतर क्यों है? लेकिन इस बहस में पड़ने से मामला विषयांतर हो जायेगा। अतः अपने विषय पर ही केन्द्रित रहते हैं और यह देखते है कि यह शिक्षा (बाल पोथी)स्वतंत्र चेतना वाले मस्तिष्क का निर्माण कर पाने में कितना सहयोगी है?
मैंने अपने लेख के लिए हिंदी विषय की उन बालपोथियों का चुनाव किया है जो उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा प्राइमरी पाठशाला में पढ़ायी जाती हैं। मुझे याद है जब मैं पढ़ती थी तब एक पाठ ‘भेड़िया’ से संबंधित था। उस कहानीका सारांश यह है कि भेड़िया एक बच्चे को खाना चाहता है। इस कहानी के माध्यम से भेड़िये की धूर्तता या भेड़िये जैसे मनुष्य की धूर्तता का पता चलता है। यह भेड़िया किताबों से निकलकर कक्षाओं में घुस जा रहा है।यह चिंतनीय विषय है।इस भेड़िये को रोकना होगा; पर कैसे? क्या इस दिशा में हमारी बाल पोथियाँ कुछ कारगर साबित हो सकती हैं? आइए इसकी पड़ताल करते हैं। मुझे इन बाल पोथियों में सबसे अच्छी बात यह लगीकि इस पुस्तक को खोलने पर सबसे पहले पृष्ठ पर ही ‘संविधान’ की प्रस्तावना अंकित है। अब देखना यह है कि क्या वह बच्चों को स्वतंत्र नागरिक, धर्मनिरपेक्ष नागरिक, धर्म निरपेक्ष मन के निर्माण में सहायक है? इन बाल पोथियों की विषयवस्तु का बाल मन के प्रभाव को देखने एवं उनके व्यक्तित्व निर्माण के लिए सबसे पहले कक्षा एक की वर्णमाला को समझने का प्रयास करेंगे। जिसमें अनार, आम, इमली, ईख, उल्लू और ऊन तक तो ठीक है लेकिन ‘ऋ’ से ‘ऋषि’ में जिस तरह के ऋषि का जिक्र है अब यह तस्वीर बच्चों को वास्तविक जीवन में देखने को नहीं मिलती। वह ऋषि भी बाघ की खाल पर बैठा है जबकि ऋषि की जो छवि पढ़ायी जाती है। वह, यह कि वह परोपकारी होता है। जीवों पर दया करता है। यह कैसा ऋषि है जो बाघ मारकर उसके खाल पर बैठा है। संविधान को रचने वाले बाबा साहेब स्वयं अहिंसा की बात करते हैं तब यह हिंसक ऋषि कहाँ से आ गया? ‘ए’ से ‘एक’ इसमें एक बिलौटा घर को जाता! बच्चे बिलौटा जैसे जानवर से सहज परिचित नहीं होते। ‘ओ’ से ओखली जो अब गाँव के कुछ ही घरों में दिखाई पड़ती है। वह अपनी परम्परा को जीवित रखता है। इसके पहले एक गोल बिंदी लगाये उत्तर-भारत की एक स्त्री दिखती थी जो साड़ी पहने हुए थी लेकिन अब ‘औ’ से औरत में एक खास तरह की औरत है जो एक हाथ में तलवार लिए हुए और दूसरे हाथ में ढाल लिए हुए है। यानि वह स्त्री एक साधारण भारतीय स्त्री न होकर झांसी की रानी वाली मर्दानी स्त्री है। कितनी मजेदार बात है जब हमलोग पढ़ा करते थे तब ‘च’ से चकरी हुआ करती थी लेकिन अब ‘च’ से चना हो गया जैसे जीवन से ‘चकरी’ गयी वैसे ही वर्णमाला से भी। और पहले ‘द’ से दवात हुआ करता था। तब पुड़िया वाली स्याही मिलती थी जो पानी में खोल दी जाती थी। उसे हमलोग नरकट या किरिच से लिखते थे लेकिन अब ‘द’, से ‘दही’ हो गया। ‘ध’ से धनुष बाण की जगह ‘ध’ से धनिया हो गया। ‘य’ से ‘यज्ञ’ और ‘र’ से ‘रथ’ अपना स्थान जमाये हुए हैं। देखा जाए तो यहाँ ‘यज्ञ’ एक खास तरह की संस्कृति का द्योतक है। यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना होगा इन पाठों में एक खास तरह की संस्कृति के बजाय भारतीय संस्कृति की विविधता को ध्यान में रखना होगा। जोकि संविधान में वर्णित एक धर्मनिरपेक्ष समाज का प्रतीक है। यह पुस्तक किसी एक धर्म और जाति में बटे लोगों के लिए नहीं है बल्कि इसका उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्ष होना है। ‘स’ से ‘सड़क’ की जगह अब ‘सरसों’ने ले लिया है निश्चित ही यह प्रकृति के सुंदर रूपों में से एक है। वन, सरसों, हवा इनसे तो बच्चों का परिचय होना ही चाहिए। प्रकृति की स्वच्छता और सुंदरता से बच्चों के स्वस्थ और सुंदर मन का विकास होता है। सरसों की लहलहाती फसल बच्चों को किसानों तक ले जाएगी। उनकी मेहनत तक ले जाएगी। तब जाकर कहीं बच्चा मिटटी की महक और किसानों के पसीने की महक को जोड़कर देख पाएगा। अब ‘ह’ से हल की जगह ‘हवा’ ने ले लिया है सच में अब हीरा-मोती दो बैल भी नहीं रहे और उनके पीछे चलने वाला ‘हल’ भी नहीं । पहले ‘क्ष’ से ‘क्षत्रिय’ होता था जो एक खास तरह कि ‘जाति’ का बोध कराता था लेकिन उसकी जगह अब ‘क्षमा’ ने ले लिया है। इस वर्णमाला का सबसे अच्छा और खुबसूरत शब्द ‘श्र’ को ‘श्रम’[ii] से जोड़कर देखना है। बच्चे अब ‘श्रम’ के महत्त्व को भूलते जा रहे हैं। जिसको बताना बहुत जरुरी है। मुझे एक घटना याद आ रही है, जब एक बार हमारे महाविद्यालय में शिक्षक-अभिभावक मीटिंग हो रही थी तब एक लड़की के साथ उसकी मासी आयी थीं। उन्होंने बताया की यह लड़की बहुत काम करती है और तब पढ़ती है। यह बात सुनकर उस लड़की का जैसे दिमाग ही ख़राब हो गया वह शर्मिंदा हो गयी और सफाई में मुझसे कहने लगी कि नहीं मैंम मैं काम नहीं करती बस पढ़ती हूँ। मेरी ‘ममा’ मुझसे काम नहीं कराती। मैंने कहा मैं तो तुम्हारे काम करने वाली बात पर खुश हो रही थी कि तुम पढ़ाई के साथ काम भी करती हो। मैंने कहा तब तुमको साहित्य और ठीक ढंग से पढ़ना पड़ेगा क्योंकि कबीर जुलाहा थे, कपड़ा बुनते थे।रैदास चमड़े का जूता बनाते थे। इतनी अच्छी कविता करते हैं। नामदेव दरजी थे और कपडा सिलते थे। श्रम तो साहित्य की परम्परा है। ऐसे शब्दों की और श्रम के महत्त्व के पहचान की आज जरुरत है।
हिंदी वर्णमाला के बाद अब बात करते हैं बालपोथियों की कविताओं पर कि यह पोथियाँ बच्चों के अखिल भारतीय मन का निर्माण करती हैं या नहीं?यह घटना विश्वप्रसिद्ध है कि अब्राहम लिंकन का बच्चा जब स्कूल जा रहा था तो उसने अपने बेटे के शिक्षक को एक पत्र लिखा था-“मैं जानता हूँ कि इस दुनिया में सारे लोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं। यह बात मेरे बेटे को सीखनी होगी। पर मैं चाहता हूँ कि आप उसे यह बताएँ कि हर बुरे आदमी के पास भी अच्छा हृदय होता है। हर स्वार्थी नेता के अंदर अच्छा लीडर बनने की क्षमता होती है।मैं चाहता हूँ कि आप उसे सिखाएँ कि हर दुश्मन के अंदर एक दोस्त बनने की संभावना भी होती है। यह बातें सीखने में उसे समय लगेगा, मैं जानता हूँ। पर आप उसे सिखाइए कि मेहनत से कमाया गया एक रुपया, सड़क पर मिलने वाले पांच रुपये के नोट से भी ज्यादा कीमती है।”[iii] यह पत्र यह अपील करता है कि बच्चों और उसके चरित्र निर्माण में शिक्षा और शिक्षक की कितनी बड़ी भूमिका होती है। पत्र में वह आगे लिखते हैं-“ आप उसे किताबें पढ़ने के लिए तो कहियेगा ही पर साथ ही उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को, धूप में हरे-भरे मैदानों में खिले फूलों पर मडराती तितलियों को निहारने की याद भी दिलाते रहिएगा। मैं समझता हूँ कि ये बातें उसके लिए ज्यादा काम की हैं।”[iv] अब्राहम लिंकन का यह पत्र ध्यान से पढ़ा जाय तो हमें यह एहसास हो जाता है कि बालपोथियों में दी हुई कविताएँ बच्चों को प्रकृति के और करीब ले जाती हैं। जो पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण कार्य भी है।
कक्षा-एक की बालपोथी में कविता और गद्य का अनुपात लगभग बराबर है। इसमें पहली कविता -
“चंदा मामा आ जाना, साथ मुझे कल ले जाना।
कल से मेरी छुट्टी हा, ना आये तो कुट्टी है।।”[v]
इस कविता के चित्र में एक लड़का और एक लड़की है जो जेंडर सेंसटिविटी को लेकर भी सचेत दिखती है। बच्चों का अपने मामा से प्यार का रिश्ता होता है। हर बच्चों की चाहत चाँद पर जाकर देख आने की होती है। मेरा बच्चा मुझसे कहने लगा मम्मी मुझे भी चाँद पर जाना है। मैंने कहाँ इसके लिए तुमको खूब पढ़ना पड़ेगा वह बोलता है वही जाकर पढ़ लेंगे न....बच्चों की बातें ही निराली होती है जिसका जवाब किसी के पास नहीं होता। साथ ही बच्चों को अपनी छुट्टियाँ बहुत प्रिय होती हैं। छुट्टियों में बच्चों को मामा अपने गाँव ले जाते हैं बच्चा इसी चंदा मामा को अपने गाँव ले जाने के लिए कह रहा है। नहीं तो कुट्टी हो जाएगी या बच्चा बातचीत बंद करने की धमकी बच्चा देता है।
एक कविता है ‘दादा-दादी’ एकल परिवार हो जाने से बच्चे अपने दादा-दादी या नाना-नानी से दूर होते जा रहे हैं यह कविता संबंधों की पहचान कराती है-
“एक हमारे दादा जी हैं, एक हमारी दादी।
दोनों ही पहना करते हैं, बिलकुल भूरी खादी,
दादी गाना गाया करती, दादा जी मुस्काते।
कभी-कभी दादा जी भी, कोई गाना गाते।।”[vi]
यह कविता संबंधों को जोड़ने के साथ ही गाँधी के खद्दर की बात भी बताती है। चित्र में दादा-दादी और बच्चे बैठे हुए हैं। यहाँ बच्चों के साथ ही दादा-दादी का भी खूब मनोरंजन होता है। किसी को कोई अकेलापन नहीं। सब भावनात्मक रूप से मजबूत हैं।
एक खुबसूरत सी कविता है ‘हुआ सवेरा’ जिसमें बच्चों की नियमित दिनचर्या को जगह दी गयी है।ऐसी ही एक कविता हमारे समय में थी ‘उठो लाल अब आँखे खोलो’ और ‘राजू- राधा दो बच्चे हम’ जिसके माध्यम से हमारे दिनचर्या को बताया जाता था।यह कविता भी अच्छे बच्चे की दिनचर्या बताती है-
“हुआ सवेरा चिड़िया बोलीं, बच्चों ने फिर आखें खोलीं।
अच्छे बच्चे मंजन करते, मंजन करके कुल्ला करते। ####
रोज नहाकर खाना खाते,खाना खाकर पढ़ने जाते।।”[vii]
सचमुच में मोबाइल–टेलीविजन और लैपटॉप ने हमारे बच्चों और कमोबेश हमारीभी दिनचर्या बिगाड़ कर रख दिया है।आजकल बच्चों के सोने-जगने का कोई समय ही नहीं रहा इसलिए इस तरह की कविताएँ रोज की दिनचर्या में मदद करती हैं।
इस पाठ्यक्रम में एक कविता अलग सी है ‘कबरी झबरी बकरी’ इसमें एक बकरी है जिसका अर्थ तो समझ में आता है लेकिन उसके साथ ही कबरी और झबरी का क्या अर्थ है। यह सिर्फ एक तुक है या इस तरह के द्विपद वाले शब्द का कोई खास अर्थ है? जैसे अच्छा के साथ बुरा या अच्छी संस्कृति के साथ बुरी संस्कृति। कविता इस प्रकार है-
“बकरी कबरी, बकरी झबरी। कबरी झबरी बकरी; आगे निकली कबरी बकरी,पीछे रह गई झबरी।”[viii]
इस प्रकार की कविताएँ या तो विशुद्ध रूप से मनोरंजनपरक होती हैं या उनका एक खास निहितार्थ होता है, जो बिना योग्य शिक्षक के अभाव में उसके अर्थ तक पहुँचना एक बच्चे के लिए आसान नहीं होता। वैसे भी इस बात का हमें यहाँ ध्यान रखना चाहिए किइस बालपोथी में संकलित बाल साहित्य औपचारिक शिक्षा के अंतर्गत आता है। जिसमें विविधता खूब है।इसी में एक कविता है ‘झूलम-झूली’ । इस कविता में माटी और पानी के साथ धरती में बीज बोने की बात सिखाने पर जोर दिया गया है। साथ ही किसान और उसकी मेहनत से भी बच्चों का परिचय आवश्यक है–
“माटी-माटी खेलें, आओं, पानी-पानी खेलें;
धरती में बीजों को बोएँ, खेल किसानी खेलें।
छुप्पम-छुप्पी खेलें, आओ, झुलम-झूली खेलें;
चढ़ें पेड़ पर पकड़म-पकड़ी, कूदम-कूदी खेलें।।”[ix]
आज के मोबाईल और इंटनेट के समय में जब बच्चे घर से बाहर नहीं निकलना चाह रहे हैं वैसे में यह कविता और प्रासंगिक हो उठती है। इसके चित्रांकन को देखकर अपना बचपना सहज याद हो जाता है। कैसे हम लोग बंदरों कीभाँति इस डाल से उस डाल पर ओल्हा-पाती खेला करते थे। आज के समय में तो बच्चों को पेड़ पर चढ़ना ही नहीं आता और हम चित्र में दिए हुए बच्चों के जैसे ही पेड़ पर टंगे रहते थे। आज इस तरह के खेल बस किताबों की वस्तु रह गये हैं। आज हर दूसरा बच्चामानसिक अवसाद का शिकार है ऐसे समय में इन खेलों से बच्चे के तन और मन दोनों का विकास होता था।
इस बालपोथी की एक सुन्दर विशेषता यह लगी कि इसमें परम्परा के साथ आधुनिकता का सामंजस्य बिठाने की एक सुन्दर कोशिश की गयी है; जैसे- जन्मदिन मनाओ और पेड़ लगाओ। इस पर भी इस बालपोथी में एक कविता है- ‘जन्मदिवस पर पेड़ लगाओ’ । आज पर्यावरण प्रदूषण के इस दौर में जहाँ पेड़ विकास की भेट चढ़ रहे हैं। वैसे में हर एक व्यक्ति अपने जन्म दिन के अवसर पर एक पेड़ लगाने की ठान ले तब यह धरा ही हरी-भरी और सुंदर हो जाएगी-
“जन्मदिवस पर पेड़ लगाओ,हरा-भरा संसार बसाओ, जन्म दिवस पर पेड़ लगाओ।
हरियाली से है खुशहाली,सुंदरता मन हरने वाली, पेड़ों और प्रकृति का नाता,
जैसे हो बच्चों कि माता,फूल और फल तुम पाओ, जन्मदिवस पर पेड़ लगाओं।।”[x]
बारिश का दिन किसे प्रिय नहीं होता?जब पहले-पहलबारिश होती है तब उसमें भींगने के लिए मन मयूर नाच उठता है। मैं याद करती रही हूँ अपने बचपन का दिन जब खूब बारिश होती थी मिटटी के आँगन वाले घर में चारों तरफ से ओरवानी चूती थी। हम सब बहने ओरवानी का एक-एक कोर (किनारा) पकड़ लेते थे। रेडियो पर गाना बजा लेते थे और खूब खेलते और नहाते थे। आज बचपना में पढ़ी हुई वह कविता भी याद आ रही है-
“अम्मा जरा देख तो ऊपर, चले आ रहे हैं बादल,
गरज रहे हैं, बरस रहे हैं, दिख रहा है जल ही जल।
हवा चल रही क्या पुरवाई, झूम रही डाली-डाली
ऊपर काली घटा घिरी है, झूम रही डाली-डाली,
भींग रहे हैं खेत,बाग़, वन भीग रहे हैं घर, आँगन,
बहार निकलूँ मैं भी भीगूँ चाह रहा है मेरा मन।।”[xi]
बच्चों को पहेलियाँ बहुत प्रिय होती हैं। अमीर खुसरो अपनी पहेलियों और मुकरियों के माध्यम से बच्चों के दिलों पर राज करते थे उसी प्रकार एक पहेली है–
“आँखे दो हों चाहे चार, मेरे बिना कोट बेकार,
घुसा आँख में मेरे धागा, दरजी के घर से मैं भागा।।”[xii]
कक्षा-३ की इस बालपोथी की एक बात जो इसे और खास बनाती वह है लोकगीत जो ब्रज भाषा,’आज बिरज में होरी रे रसिया’ वही भोजपुरी में ‘सुंदर सुभूमि भईया भारत के देसवा से, मोरे प्राण बसे हिम-खोह रे बटोहिया’ अवधी में ‘बाबा निमिया क पेड़ जिनि काटेउ, निमिया चिरइया क बसेर, पहले गाँव में सबके घरों के आगे नीम का पेड़ हुआ करता था। यहाँ नीम का पेड़ न कटाने की गुजारिश कि जा रही है क्योंकि वहाँ चिड़िया का बसेरा है। वही बुन्देली में ‘देखो सखी वर्षा ऋतु आई, बागन मोर, कोकिला बोलत, चातक, दादुर शोर मचाई।”[xiii]याद रहे हमारे साहित्य का स्वर्णयुग भक्तिकाल अपनी लोकभाषाओं के बल पर ही इतने समय बाद भी लोगों के दिलों में बसता है लेकिन आज लोकगीत की परम्परा समाप्त हो रही है। अपनी बोली-बानी लोकपरंपरा को जीवित रखना आज की चुनौती बन गयी है। ऐसे में बालपोथियों में लोकगीतों का यह प्रयास सराहनीय है।
हमारे यहाँ प्रकृति की पूजा की जाती रही है। छठ को प्रकृति पूजा के पर्व के रूप में भी मनाया जाता रहा है हाँ आज अलग बात है कि पर्वों के निहितार्थ को हम भूलते जा रहे हैं। एक कविता है-‘हे जग के स्वामी!’ में अर्ध लाल सूर्य दिखाई पड़ रहा है। चारो तरफ,प्रकृति पहाड़ खिले हुए हैं। चिड़ियाँ डाल पर फुदक रही हैं-
“चमक रहा है तेज तुम्हारा, बनकर लाल सूर्यमंडल
फैल रही है कीर्ति तुम्हारी, बन करके चाँदनी धवल।
चमक रहे हैं लाखो तारे, बन तेरा श्रृंगार अमल
चमक रही है किरण तुम्हारी, चमक रहे हैं सब जल थल
हे जग के प्रकाश के स्वामी! जब सब जग दमका देना,
मेरे जीवन के पथ पर, कुछ किरणें चमका देना।।”[xiv]
हे जग के प्रकाश के स्वामी जब सारा जग दमका देना तब मेरे पथ पर भी कुछ करने चमकाने की बात व्यक्ति कर रहा है।
बच्चों का पक्षियों से और प्रकृति से बड़ा लगाव होता है शायद इस लिए कि तीनों निश्छल होते हैं। ‘कहाँ रहेगी चिड़िया रानी’ बच्चे भी चिड़िया के दुःख से दुखी हैं-
आँधी आई जोर-शोर से,डालें टूटी हैं झकोर से। उड़ा घोसला अंड्डे फूटे,
किससे दुःख कि बात कहेगी, अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी?
इस कविता का चित्रांकन भी बहुत मार्मिक है डाल टूट चुकी है, चिड़िया का घोसला नीचे गिर गए हैं, अंडे फूट चुके हैं चिड़िया यह सब दुखी होकर देख रही है उधर दो बच्चे भी अपने घर के बरमादे से यह सब दृश्य देख रहे हैं।
सुमित्रानंदन पंत की कविता ‘ग्राम श्री’ का अद्भुत संयोजन है। आप कितना भी शहरों के पीछे भाग लीजिए लेकिन सुकून तो गाँवों में ही है जब कवि वर्णन करता है-
“फैली खेतों में दूर तलक, मखमल- सी कोमल हरियाली,
लिपटी जिसमें रवि की किरणें चाँदी की सी उजली जाली।
अब रजत स्वर्ण मजरियों से, लद गई आम्र तरु कि डाली
झर रहे ढाक, पीपल के दल, हो उठी कोकिला मतवाली।।”[xv]
हरियाली और आम की मंजरियों से लदी डाली देखकर कोयल का मतवाला होना लाजिमी है।
बच्चों को पढ़ने लिखने के साथ ही घर का काम-काज करना भी जरुरी हैं। एक कविता है ‘टेसू राजा’ टेसू एक बच्चे का नाम नाम है माँ प्यार से उसे राजा कहकर पुकारती है जिसे दही बड़ा खाना है।
“टेसू राजा अड़े खड़े, मांग रहे हैं दही बड़े।
बड़े कहाँ से लाऊँ मैं, पहले खेत खुदाऊ मैं।
उसमें उड़द उगाऊं मैं, फसल काटकर घर ले लाऊं मैं।।”[xvi]
इस पूरी कविता को सुनकर बड़े बनने की मेहनत का अंदाजा लगाया जा सकता है। एक बात और है कि इस पूरी कविता को पढ़कर दही-बड़े बनाने की विधि का ज्ञान हो सकता है। बच्चे इससे सीख सकते हैं। साथ ही साबूदाना बड़ा बनाने की विधि भी दिया हुआ है बच्चे आसानी से इस विधि द्वारा कुछ नया बनाना सीख सकते हैं।
आज जब गंदगी और प्रदूषण के कारण नदियों का बहना बंद हो रहा है यहाँ तक कि गंगा जैसी बड़ी नदी भी विषैली हो रही है यमुना तो दिल्ली जैसी जगहों पर अपना अस्तित्व ही खो चुकी है ऐसे में सरिता का कल-कल निनाद कितना मनोरम लगता है।
“यह लघु सरिता का बहता जल, कितना शीतल कितना निर्मल।
हिमगिरि के हिम से निकल-निकल, यह विमल दूध सा हिम का जल,
कर-कर निनाद कल-कल, छल-छल, तन का चंचल मन का विह्वल
यह लघु सरिता का बहता जल।”[xvii]
मुझे अपना बचपना याद आता है जब हमारे दादी के यहाँ एक सदाबहार नदी बहती थी और वही नदी हमारी नानी के गाँव तक चली जाती थी उसी नदी के किनारे एक तालाब था जिसमें शीतल,निर्मल जल बहता था। हम सब बच्चे उसमें रोज नहाते थे। बचपन में पढ़ी जिस कविता का असर बचपन में कम होता था आज कल-कल निनाद की ध्वनि हमारे कानों में गुंजित हो रही है। ऐसा लगता है आज फिर बचपना जाग उठा हो।
एक बहुत ही महत्वपूर्ण कविता है ‘प्रकृति की सीख’ निश्चित ही हम प्रकृति से बहुत कुछ सीख सकते हैं जैसे-
“पर्वत कहता शीश उठाकर, तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता लहराकर मन में गहराई लाओं।
समझ रहे हो क्या कहती है, उठ-उठ गिर-गिर तरल तरंग
भर लो, भर लो अपने मन में मीठी-मीठी मृदुल उमंग।।”[xviii]
यहाँ पृथ्वी अपने जैसा धैर्यवान बनने के लिए कहती है। और पूरा आकाश जैसे अपने सबको संरक्षण दिया है वैसे ही सबको संरक्षित करने वाला बनाना चाहता है। अगर मनुष्य प्रकृति के ये सभी गुण सीख ले तो निश्चित ही यह धरा स्वर्ग बन जाएगी।
आज जब बच्चा बाहर खेलने नहीं जाना चाहता वह मोबाईल में ही खोया रहता है आज यह सब बच्चो के साथ बड़ो कि भी समस्या बन गयी है कैसे इस समस्या से निजात पाया जाया? वैसे में यह कविता याद आती है-
“कोई ला के मुझे दे, एक छुट्टी वाला दिन
अक अच्छी सी किताब, एक मीठा सा जवाब-
कोई ला के मुझे दे!”[xix]
सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘झाँसी कि रानी कि समाधि पर’ जैसी कविता से भला कौन परिचित नहीं होगा! इसका चित्रांकन भी बड़ा खुबसूरत है एक तरफ झाँसी का किला बना हुआ है और रानी चारो तरफ से दुश्मनों से घिरी हुई हैं। राजसी वेश, हाथ में तलवार पीछे एक बालक बंधा हुआ है लेकिन वीरता में कोई कमी नहीं आ रही है। ऐसी वीर रानी की समाधि कविता याद की जाती है-
“रानी से भी अधिक हमें अब, यह समाधि है प्यारी।
यहाँ निहित है स्वतंत्रता की, आशा की चिंनगारी।।”[xx]
इन सारी कविताओं को पढ़ने पर एक बात तो समझ में आती है जो पहले ही पृष्ठ भारत के संविधान में वर्णित है इन कविताओं में संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता का कहाँ तक पालन हुआ है? गौर करने वाली बात तो यह यहाँ हिन्दू संस्कृति की छाप तो आपको हर जगह दिखाई पड़ेगी लेकिन अन्य संस्कृतियों की कहीं कोई छाप दिखाई नहीं पड़ती, जैसे होली से संबधित कविताएँ तो दिखती है-
“रंग रंगीली होली आई,सबके मन को होली भायी।
खेलें-कूदें खुशी मनाएँ,ढोल बजाकर होली गाएं।।”[xxi]
लेकिन ‘ईद’ संबंधित या किसी अन्य धर्म से सबंधित कविताएँ नहीं दिखती। इन सारी कविताओं में अपने नार्थइस्ट की कही कोई झलक देखने को नहीं मिलती। हाँ एक कविता है ‘भारत मेरा घर’। जिसमें रानी बिटिया घूमने निकलती है वह दिल्ली से आगे चंडीगढ़ और चंडीगढ़ से जयपुर, जयपुर से आगे रामेश्वरम तक जाती है। इस कविता में बने चित्र और वर्णन इन शहरों का परिचय कराते हैं,लेकिन जिस भारतबोध की तरफ मैं ईशारा कर रही हूँ वह नदारद है। इस बालपोथी में माँ भी दिखती है तो उत्तर-भारत की ही, कमरे की बनावट में भी यहीं की छाप है। पूरी कविता में एक खास तरह की संस्कृति की बनावट नजर आएगी, किन्तु कविता के साथ जो चित्र बने हैं वे बहुत प्रभावित करते हैं।
निष्कर्ष : भारत देश की खूबसूरती इसकी विविधता है। इन विविधताओं से बच्चों को परिचित कराना आवश्यक है। तभी ये सब धर्म और संस्कृति का सम्मान करना सीखेंगे। वैसे तो इन बालपोथियों के विषयों के माध्यम से बच्चों को जोड़ने का प्रयास तो किया गया है। थोड़ी सी चूक संस्कृतियों के मामले में दिखाई पड़ती है। मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्माण में समाज की जो संरचना है या राष्ट्र निर्माण में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षा ही उन सभी मूल्यों को स्थापित करती है।ऐसे में प्राईमरी की किताबें बहुत महत्वपूर्ण हो जाती हैं; क्योंकि वही से बच्चा पहली बार अक्षर सीखता है, बिम्बों को समझता है, उसको जानता है।
[i]शिक्षा का उद्देश्य vidyasagar. guru
असिस्टेंट प्रोफेसर-हिंदी, राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय गाजीपुर(उ.प्र.)
9026115390
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