आलेख : आरंभिक शिक्षा में बाल साहित्य क्यों? / खजान सिंह

आरंभिक शिक्षा में  बाल साहित्य क्यों?
- खजान सिंह

वर्तमान समय  स्कूली शिक्षा में बाल साहित्य के समावेश की बात सर्वत्र हो रही है यह स्थिति बहुत ही सुखद है। यहकाम केवल स्कूलों की रूखी-सूखी पाठयचार्य में  तरावट और रंगत लता  है अपितु इंसान निर्माण की प्रक्रिया में साहित्य का अवदान इससे कहीं अधिक है। साहित्य, पढ़े जाने का विषय है। पढ़ने के लिए बेहतर साहित्य उपलब्ध होना भी चाहिए ,बच्चों की पहुँच में भी होना चाहिए। और बेहतर शिक्षण भी होना चाहिए।

यह बात 2002 की है हम लखनऊ में  नालंदा नामक  संस्था में काम करते थे वह संस्था उत्तर प्रदेश में शिक्षा के लिए संदर्भ एजेंसी के रूप में काम करती थी। हमारे वरिष्ठ साथी कमलेश चंद्र जोशी ने बुनियादी साक्षरता की अवधारणा और क्रियान्वयन को लेकर सयुक्त राष्ट्र बालकोश, लखनऊ, को एक प्रस्ताव दिया था। उस समय यूनिसेफ़ की एक प्रोफेशनल थी सुमन भटनागर जो खुद भी साहित्यक रूचि की व्यक्ति थी। उन्होने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उस प्रस्ताव में बुनियादी साक्षरता के लिए बाल साहित्य की जरूरत और उपादेयता को पुरजोर रूप में रेखांकित किया था। इच्छा थी की 8-10 वर्ष तक की आयु रखने वाले बच्चों के लिए 90-100 पुस्तकों का एक पुल बनाया जाये और इन पुस्तकों को पढ़ने- लिखने की काबिलियत को बढ़ाने के लिए कैसे इस्तेमाल करना है इस पर शिक्षकों, शिक्षा कर्मियों के साथ बातचीत की जाएँ इसके लिए यूनिसेफ पूरी मदद करेगा सोचा गया था कि इससे आरंभिक साक्षरता और पढ़ने लिखने के कौशल में बेहतरी आएगी। इसमें देश - विदेश के ऐसे तमाम संदर्भ भी संज्ञान  में आए जो बताते हैं कि आरंभिक से ही स्कूली शिक्षा में बालसाहित्य का समावेश कैसे साक्षारता को पुष्ट करता है।  मगर हैरानी तब हुई जब बाज़ार के सर्वेक्षण में हमें मानक कसौटी के अनुरूप 10 पुस्तकें भी ऐसी नहीं मिली जिन्हें इस आयु के बच्चों के लिए अनुमोदित किया जा सके।

तब वैकल्पिक योजना यह सोची गयी थी कि हिन्दी के ऐसे संभवनशील लेखक, शिक्षक और इलेस्ट्रेटर बुलाए जाने चाहिए जो बच्चों के  के लिए लिखते हैं इलेस्ट्रेशन बनाते है,दूसरी भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद करते है।  योजना साकार हुई करीब 25-30 लेखक, शिक्षक  और चित्रकार पहली  कार्यशाला में नेडा नमक संस्थान में जमा हुये थे। लेखकों, चित्रकारों को दिशा दे रहे थे नेशनल बुक ट्रस्ट   से श्री पंकज चतुर्वेदी मानस रंजन महापात्र, एकलव्य से श्री राजेश उत्साही।इस समूह को आदरणीय श्रीलाल शुक्ल ने संबोधित किया था। उन्होने अपने सम्बोधन में इस आयोजन की सराहना की थी और  बहुत ही मार्मिक बातें बताई थी जो एक बेहतर इंसान के निर्माण में  बाल साहित्य की जरूरत को रेखांकित करती हैं ।उनकी बात  का सार कुछ इस तरह से था कि जब हमने राग दरबारीलिखी थी तो वह एक व्यंग रचना थी मगर सामाजिक परिवेश की वास्तविकता उससे भी आगे बतर स्थिति में पहुँच गई है। उन्होने कहा था कि हमारे भारतीय समाज ने बचपन को ठीक से समझा ही नहीं है। मगर कभी हमारे सामाजिक ताने- बाने में शिक्षा के परंपरागत चैनल बहुत सी विडंनाओं के साथ-साथ बेहतर संभावनाओं के लिए भी  सुदृढ़ थे। उसमें यह ताकत थी और संभावना  थी की अगर कोई बच्चा  स्कूली शिक्षा से वांच्छित भी रहा गया है तब भी इंसानी मूल्यों और संवेदनाओं के साथ समंझदार इंसान के रूप में पोषित हो  सकता था,अफसोस की वह परिवेश ध्वस्त हो चुका है आज बेहद  जटिल और विद्रुप सामाजिक परिवेश बन गया है। ऐसी सूरत में स्कूल ही वह अनूठी और संभवनशील जगह है हो सकती है  जहां नन्हें इन्सानों को  बाल साहित्य के जरिये जंतान्त्रिक मानवीय मूल्यों से संवेदित किया जा सकता है। लेखन की यह श्रिंखला तीन कार्यशालाओं तक चली, लेखन, सम्पादन, मूल्यांकन, समीक्षा की लंबी प्रक्रिया के बाद इसमें 16 पुस्तकों का एक सैट तैयार हो पाया जिसे यूनिसेफ ने प्रकाशित किया और प्रदेश के प्राथमिक स्कूलों को उपलब्ध कराया।

आज हम विभिन्न भाषाओं में बेहतर बाल साहित्य की उपलब्धता  के परिदृश्य को देखें तो वह भी संतोषजनक है। पिछले दो दशकों में लेखकों और प्रकाशकों, संस्थाओं ने अच्छी मेहनत की है और इफ़रात मात्रा में अच्छी पुस्तकें,पत्रिकाएँप्रकाशित की है। आज भी रुचिकर और अच्छा साहित्य रचा जा रहा है अनुवाद किया जा रहा है परंतु यह स्थिति हमेशा से ऐसी नहीं थी। विशेषकर हिन्दी भाषा में, हमारे पास विरासत में उपलब्ध कुछ पंचतंत्र की कहानियाँ,कुछ उपदेशात्मक साहित्य,कुछ जानकारीफरक  साहित्य था। छोटे बच्चों के लिए यह बहुत सीमित मात्रा में उपलब्ध  था। जहां तक बाल साहित्य की उपलब्धता की बात आती है आज हम कह सकते हैं कि हमारे पास बालसाहित्य की समृद्धि है।

अब सवाल यह है कि बाल साहित्य को पाठ्यचर्या का अभिन्न हिस्सा कैसे बनाया जाये?कैसे बाल साहित्य को स्कूल की साझी प्रक्रियाओं में बुना जाये? शिक्षा में यह विमर्श शिद्दत से जारी है। सामन्यत: शिक्षा तंत्र, शिक्षकों और बच्चों के अभिभावकों  में एक बात हमेशा से गहरे में पैठी हुई थी और आज भी होगी ही  कि पाठ्यपुस्तकों के अलावा अतिरिक्त पाठय सामाग्री का इस्तेमाल शिक्षार्थी को भ्रमित करेगा। परीक्षा में कम अंक हासिल होंगे। अधिकांश शिक्षक भी यही मानते हैं कि पाठ्यपुस्तकों के इतर की सामाग्री पाठ्येतर है। इसका इस्तेमाल होगा तो समय से पाठ्यक्रम कैसे पूरा करेंगे? अभिभावक भी इसके लिए बच्चों के साथ काफी टोका टाकी करते हैं कि की यह ठीक नहीं है  केवल स्कूल की पाठ्यपुस्तकें ही पढ़ी जाएँ। कभी कभी तो बुरी तरह झाड़ भी देते हैं। अब भी बहुत से लोग हैं जिनके अनुभवों में आता है कि  अपने पसंद की सामाग्री पाठ्यपुस्तकों के बीच रख कर चोरी छिपे कैसे पढ़ा करते थे। उनके इस कर्म से  जीवन में किस तरह के कमाल  हुए। जेहन और समवेदनाओं की बुनावट में उन पुस्तकों ने हौले से कुछ जोड़ दिया। सृजन और संवेदना का कोई नया आयाम खोल दिया। इसमें हम अपना भी अनुभव शामिल करके देखें तो जो आज साहित्य का विद्यार्थी हूँ  ऐसे ही चोरी छिपे कुछ पाठ्येतर सामग्री पढ़ी थी शायद तभी मेरी रूचि भी साहित्य में विकसित होती चली गई, साहित्य ने मेरे चिंतन और कर्म को काफी प्रभावित किया है। मेरी ईज़ा कम पढ़ी लिखी थी कक्षा 4 तक, साक्षर मात्र थी मगर वे अक्सर इस बात के लिए झिड़क देती थी की ये स्कूल की कितबों के अलावा क्या क्या पढ़ता रहता है। यह कि मुझे केवल पाठ्यपुस्तकें ही पढ़नी चाहिए। मेरा यही विश्वास है कि साहित्य में बाया बाई पास होकर गुज़र जाने से कुछ हासिल नहीं होता साहित्य का मर्म जानने के लिए गहरे से डुबना होता है जितना साहित्य लेखन करना कठिन है पाठक होना भी बहुत आसान नहीं है। पढ़ना पढ़कर ही आता है और लिखना लिख कर ही आता है। और यह घटना उम्र के  किसी पढ़ाव पर अचानक नहीं घटती जैसे इंसान को हर चीज़ सीखनी होती है साहित्य की सराहना करना भी सीखना पढ़ता है। शिक्षा में साहित्य को पढ़ना जितना आरंभ से ही होगा उतना ही बेहतर होगा और अच्छे पाठक तैयार होंगे।

अगला सवाल यह है कि शिक्षा के नीतिगत परिप्रेक्ष्य में इस विमर्श को कैसे देखा गया है। शिक्षा के नीतिगत दस्तावेज़ यही सुझाते हैं कि शिक्षा में पाठ्यचर्या के उद्देश्य और उसकी संप्राप्ति होना साध्य है वही केन्द्रीय हैं। यह जिस जरिये से प्राप्त किए जाएँगे वह सब साधन है   राष्ट्रीय पाठ्यचर्या दस्तावेज़ में  सीखने के जो अपेक्षित प्रतिफल निर्धारित किए गए हैं उसके लिए पाठ्यपुस्तक एक साधन है  उसकी अपनी सीमाएं हैं इसके लिए और  क्या क्या कर सकते हैं ? विशेषकर भाषा शिक्षण में, बाल साहित्य को अहम स्थान दिया गया है। शिक्षा के अधिकार कानून-2009 में भी  में भी स्कूल पुस्तकालय के संचालन को कोडिफ़ाई किया गया है।  यह प्रावधान शिक्षकों और शिक्षा तंत्र को पाठ्यपुस्तक केद्रित बँधी बंधाई टाइट  व्यवस्था से इतर सोचने की सहूलियन देते हैं। ऐसा कोई निर्देश नहीं है कि एक ही जरिये से बच्चों को सीखा सकते हैं। अब अगर ऐसा सोचें की आखिर पाठ्यपुस्तकों में भी तो साहित्य के विपुल भंडार से ही तो साहित्यांजलि पाठों के रूप में प्रस्तुत होती है और उन पाठों को बरतने के लिए पाठांत अभ्यास दिये रहते हैं। इस रूप में देखें तो पाठ्यपुस्तक एक महत्वपूर्ण शिक्षणशास्त्रीय टूल है। यह सही बात है कि किसी पाठ को समझने के लिए बच्चों के साथ कैसे काम किया जाए यह अंतर्दृष्टि पाठ्यपुस्तक दे सकती है तो पाठ्यपुस्तक को नकारने की बात नहीं है बात है की इसस्के साथ साथ अन्य पाठ्यसामाग्री के रूप में बाल साहित्य क्या कमाल करता है। बात यह है कि केवल पाठ्यपुस्तकों तक ही सीमित हो  जाना एक रूढ़ परिपाटी बन जाती है।

इस संदर्भ में पाठशाला भीतर बाहरपत्रिका में कविता की सप्रसंग व्याख्याशीर्षक से प्रकाशित श्री मनोज कुमार के लेख का उल्लेख करना चाहूँगा यह  लेख भाषा पढ़ाने वाले या भाषा पर काम करने वाले साथियों के लिए शानदार  है. इसमें वे कविता शिक्षण का उदाहरण लेकर लिखते हैं कि कविता को समझने में तीसरा संवादी यानि विद्यार्थी गायब रहता है.” हम अपने अनुभव से जानते हैं कि कविता की यांत्रिक और बंधे बंधाए सांचे में व्याख्या  किये जाने की परम्परा जाने कब से शुरू हुई है. अब आलम यह है कि उच्च प्राथमिक कक्षाओं से कविता की सप्रसंग व्याख्या विधिवत आरम्भ होती हुई, भाषा और साहित्य शिक्षण में परास्नातक  तक चलती हुई देखी जा सकती  है।  परीक्षा में अंक लाने के लिए अमूमन इसी फार्मेट का इस्तेमाल किया जाता है, मसलन: सन्दर्भ, प्रसंग, व्याख्या और अंत में काव्यगत विशेषताएं. यह सप्रसंग व्याख्या  हर कवि की कविताओं के लिए थोड़े से फेरबदल के साथ तयशुद्धा होती है।। कविता अध्यापन की  इस रूढ़ परिपाटी से पाठक का भला नहीं हो सकता। व्याख्या इसी तरह से आरम्भ होती है जैसे इस कविता के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि....कवि यदि यही मात्र कहना चाहता तो वह कविता क्यों लिखता? पम्फलेट छपवा कर बाँट देता या कि चिट्टी लिख देता कि मैं यह कहना चाहता हूँ. अगर कोई विद्यार्थी इस सांचे से बाहर छलक जाता है और अपने सन्दर्भ बोध के अनुसार व्याख्या कर दें तो वह अमान्य सी हो जायेगी। अंक कटना तो तय ही हो सकता  है। क्योंकि यदि कवि सदा-सदा से कविता के माध्यम से एक सा सन्देश देता रहा है जो भाषा के शिक्षकों  ने तय किया हुआ  है तब तो कवि और अध्यापक की शान में पाठक केन्द्रित सप्रसंग व्याख्या गुस्ताखी ही मानी जायेगी।  आलेख  में अनेक उदाहरणों से मनोज जी   इस समस्या को बेजोड़ तरीके से स्थापित करते हैं. इस समस्या को कविता के अध्यापन के साथ-साथ समूचे साहित्य शिक्षण में विस्तारित  करके देख सकते है जैसे कहानी की समीक्षा हो या कथेतर गद्य विधाओं का बोध हो, वह भी इसी तरह के टाइप्ड फार्मेट में छटपटा रहा है. इसका दूरगामी परिणाम यही होता है कि व्यापकता में साहित्य के प्रति पाठकों की अरूचि हो जाती है और प्रबुद्ध पाठकों का अभाव सा  होने लगता है। पाठक अभिधा तक ही सिमित होकर रह जाते हैं कविता में अर्थ की परतों को खोलना   उसका आनंद लेना, व्यग्य या फैंटेसी,जादुई यथार्त जैसे टैक्स्ट बहुत दूर की बात लगने लगती है। इसलिए भी जरूरी है कि शिक्षार्थी को साहित्य के व्यापक संसार से परिचित होने दें और सचेतन तौर पर ऐसे उपक्रम बनाए जाएँ जिसमें पाठक को अनेक तरह के टैक्स्ट पढ्ने के अवसर मिल पाए।

स्कूली शिक्षा में आरंभिक स्तर की बात करें तो यही सवाल दरपेश होता है कि अभी तो बच्चे पढ़ना लिखना सीख ही रहें है तो उनके लिए बाल साहित्य क्या मायने रखेगा? वह तो बहुत बाद की बात है। अब इस रूप में देखें तो साहित्य एक भाषाई प्रेक्टिस भी तो है। भाषा को दो तरह से देख सकते हैं एक तो वह अपने आप में साध्य है, अपने आप में एक विषय है भाषा के  अपने नियम है। अपनी संरचना है, शब्दावली है, साहित्यक रूप है। माने अपने आप में एक भरा पूरा  डोमेन है। दूसरे रूप में भाषा जीवन, जगत, दुनिया संसार को जानने समझने का औज़ार बनती हैं। भाषा के जरिये ही हम अपने अंतरजगत और बाहरी दुनिया को जानते समझते है। भाषा दर्शन में इस दुनिया को नाम रूप जगत भी कहते हैं यहां हर भाव, हर शय, चीजों वस्तुओं, पेड़ पौधे जीव जंतुओं मनुष्यों, घटनाओं,  इत्यादि सभी के नाम है सम्बन्धों के नाम है क्रियाओं के नाम हैं देखा जाए तो हर रूप का कोई कोई नाम है। यही संज्ञान हमारा शब्द जाल हमारा शब्द कोश बनाता है। इन्हीं शब्दों को हम किसी भाव या विचार को जानने या प्रकट करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। विचार के लिए शब्दो का इस्तेमाल  सिले सिलाए जामे की भांति  नहीं किया जा सकता, विचार की प्रक्रिया में विचार और शब्द के दरमियान एक संबंध बनता  है। इस  संबंध से  भाषा के इस्तेमाल का संदर्भ बनता  है। हमारा भाषाई संसार संदर्भों की उपज है,वरना तो शब्दकोश ही श्रेष्ठ साहित्य होते। 

यह कैसे होता है? इसके लिए एक उदाहरण रखना समीचीन होगा हमने एक स्कूल में  छोटे बच्चों के लिए जो अभी पढ़ना सीख ही रहे थे।  यह जानने के लिए बोर्ड पर एक छोटी सी कहानी लिखी कि अभी बच्चों ने लिपि को कितना पहचाना है? या की कितना पढ़ना समझना सीख गए हैं?कहानी का  नाम था छिपकली की दुमहमने सभी बच्चों से पूछा कि यह जो दुमहै यह क्या है  तो एक बच्चे ने तपाक  से बताया की मुझको  पता है दुम माने पूंछ हमने सवाल पूछा की आपको कैसे पता चला तो बच्चे का उत्तर बहुत ही दिलचस्प था उनका उत्तर था की घोड़े की दुम पे जो मारा हथोड़ा,दौड़ा-दौड़ा-दौड़ा घोड़ा दुम दबाकर दौड़ा। यही तो साहित्य की ताकत है वह ऐसे अनजाने नए शब्दों को संदर्भ में इस्तेमाल करना सिखाता  है। इसी तरह बोध के साथ भाषा विकास सहज होता जाता है।

भाषा को हम अनेक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करते हैं ।इस रूप में देखें तो  भाषा के अपने स्वाद होते हैं जैसे मीठी भाषा, तीखी भाषा, कड़ुई भाषा। भाषा की छुअन महसूस की जा सकती है जैसे कोमल भाषा, अखड़ भाषा, ऊबड़ खाबड़ भाषा। भाषा के अपने तेवर भी होते हैं जैसे शक्तिशाली की भाषा माने शेर जब बोलेगा तो उसकी भाषा में दहाड़ होगी  यदि वह किसी से बुरी स्थिति में मदद की गुहार लगाएगा तो एक खास तरह की नरमी होगी। जब बच्चे सचित्र रचनाओं को पढ़ते हैं तो भाषा की असंख्य संभावनाए खुलती है। अच्छे बाल साहित्य में रंगविरंगे चित्र,पात्रों  के स्वभाव, आपसी संवाद, गुदगुदाने वाली कल्पनाएं , उनकी अदाएं, क्रियाएँ, वेषभूषा, परिवेश, दु: -सुख, संघर्ष जिजीविषा   में भाषा का इस्तेमाल बड़ी सहजता से आता है। बाल साहित्य में यह पात्र अकेले नहीं आते उनके साथ आता है उसका परिवेश भी साथ आता है जैसे ऊंट तो ऊंट अकेला नहीं आएगा उसके साथ आएगा मरुस्थल, रेत कंटीली झाड़ियाँ, उसकी अजीब सी बनावट, उसका स्वभाव, उसका भोजन,  इंसानी जगत में उसकी उपयोगिता, मरुस्थल की संस्कृति के ताने-बाने का परिचय लेकर आएगा। कोई हिमालय का पात्र अकेला नहीं होगा उसके साथ होगी उसकी गरम पोशाक,ऊंचे पहाड़, उसके भोजन की रुचियाँ और हिमालय का प्राकृतिक,सांस्कृतिक परिवेश साथ होगा। इस रूप में देखें तो साहित्य केवल भाषाई कौशलों को साधता है इसके साथ साथ हमारे ज्ञान, सौंदर्य बोध, सृजन और सम्बन्धों का असीमित विस्तार बड़े ही करीने से करता है।

साहित्य बच्चों के नजरिए को विकसित  करता है वे साहित्य के साथ साथ बारीकी में अनेक  आयामों को देख पाते हैं सुशील शुक्ल की एक कविता है कि एक कहानी कहानी है/ वो जो आम की टहनी है/ वही कहीं एक तोती है/ जो दिन भर बस सोती है/ कोई उसे जागा दे तो बड़ी देर तक रोती है/ सभी परिंदे कहते हैं/ वह कुंभकरण की पोती है।  अमूमन हमने देखा की साहित्य में कुछ किरदार रूढ़ हो जाते हैं साहित्य में जो पात्र आता है वह हमेशा तोता ही होता है। हमने तोती का जिक्र कहीं  नहीं सुना है मगर यह कविता तोती के वजूद को ध्यान में लाती  है।  यह रचना बालमन में जेंडर अस्मिता को देखने का परिप्रेक्ष्य खोलती है।  साहित्य में इस तरह के अनगिनत उदाहरण है जो हमारे नजरिए को बहुआयामी बनाते हैं और बन चुके नजरिए पर पुनर्विचार करने को विवश करते हैं।

एक बड़ी ही प्रचलित कहावत है कि जंगल में मोर नाचा किसने देखा?’ इसको बोध के संदर्भ में ऐसे समझ सकते हैं कि अगर किसी ने देखा लिया, तो बस देख लिया गया है ।यह देखना हमारे साझे अनुभवों का हिस्सा बन जाता है। फिर यह जरूरी नहीं कि जब तक हम प्रत्यक्ष रूप से मोर का  नाचना देख लें तब तक मोर का नाचना नहीं हुआ। मोर नाच लिया और देख लिया गया यह भी प्रयाप्त है। मानुष की ऐसी असंख्य रूप में  जानने की इच्छाएँ हैं, अतृप्तियाँ हैं, जीवन जगत की जटिलताएं हैं जिन्हें एक इंसान के लिए एक छोटी सी जिंदगी में अपने पाँच ज्ञानेन्द्रियों के प्रत्यक्ष अनुभव से जानना संभव नहीं हैं। साहित्य यही संभावनाएं देता है कि हम दूसरे के अनुभवों से भी दुनिया को देख सकते हैं समझ सकते हैं। यह जीवन के आरंभिक अवस्था में संज्ञानात्मक विकास और बोध के विस्तार हेतु तो  निहायत जरूरी है ही साथ ही साहित्य हमें जीवन की अग्रगामी परिस्थितियों  foregrounding से भी रूबरू करता है आगे जीवन में किस तरह की परिस्थिति सकती है तो उससे कैसे निपटेंगे? इसकी मानसिक तैयारी भी साहित्य कर  देता है।

अगर हम ऐसे देखे कि आरंभिक शिक्षा दरअसल भाषा शिक्षा ही है जब हम अलग अलग रूप में भाषा को ही साधते हैं। तब यह और भी जरूरी हो जाता है कि हम बच्चों को आरंभ से ही साहित्य के विविधता भरे संसार में प्रवेश कराएं मसलन गणित की भाषा जिसमें गणितीय चिंतन हो पाये, विज्ञान की भाषा जिसमें कार्यकारण, खोजबीन और व्यवस्थित तर्क संरचना आती हैं। सामाजिक विज्ञान की भाषा जिसमें परिवेश, समयरेखा , स्पेस, तिथियों,तथ्यों और मानवीय सम्बन्धों की जटिल दुनियाँ  को समझते हैं। अलग अलग संस्कृति की रंगते और जीवन के रंग रूप आते हैं, सृजन और सौंदर्य की सराहना करना सिखाते हैं। और इसी तरह स्वयं को व्यक्त करने में भाषा का इस्तेमाल सीखते हैं। स्कूली शिक्षा में यह सब कुछ सीखना समेकित रूप में होता है। साहित्य में इसकी असीम संभावना है।

स्कूली शिक्षा में ऐसे भी कई स्वर उभरते हैं कि आधुनिक शिक्षा में मानवीय मूल्यों का तेजी से ह्रास हो रहा है। इसके लिए बड़े ही मासूम से सुझाव भी आते हैं कि इसके उनयन के लिए अलग से नैतिक शिक्षा की पुस्तकें पढ़ाई जानी चाहिए। इसमें उपदेशात्मक साहित्य का एक रूप सुझाया जाता है। लेकिन हमारा मानना है की शायद इस तरह नैतिकता नहीं सिखाई जा सकेगी। मगर हम बेहतर साहित्य से यह उम्मीद  कर सकते हैं। अच्छा साहित्य समवेदनाओं की संरचनाएं उभरता है। साहित्यक रचनाओं  की संरचना में नैतिक मूल्य बुने हुये होते हैं अच्छी रचनाए पढ्ने सनझने से  इंसान का प्रवर्तन( ट्रान्सफ़ार्मेशन) हो जाता है हर अच्छी पुस्तक हममें कुछ जोड़ती है या काटछाँट करती हैं। और हमारा जेहन हौले से उन्न्त, उदात भावना की किसी दूसरी ओरविट में जा सटकता है। तो आरंभिक शिक्षा में साहित्य का समावेश भाषाई कौशलों के साथ साथ मानवीय मूल्यों को भी पोषित करता है। हमारे स्कूलों में साहित्य पढ़ने समझने की व्यवस्था जितनी हो सके  शिक्षा के आरंभ से ही होनी चाहिए। तभी साहित्य का विमर्श फलीभूत होगा।

खजान सिंह
अजीम प्रेमजी फाउन्डेशन उत्तरकाशीउत्तराखंड
8954029656 

(लेखक को लंबे समय से स्कूली बच्चों के साथ कार्य करने का अनुभव है बाल मनोविज्ञान और बाल विमर्श से संबंधित कई चर्चित आलेख प्रकाशित है संप्रति अजीम प्रेमजी फाउन्डेशन उत्तरकाशी, उत्तराखंड में कार्यरत)

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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