शोध आलेख : हिंदी कथा साहित्य में बाल जीवन की समस्याओं का विवेचन / मीनू देवी

हिंदी कथा साहित्य में बाल जीवन की समस्याओं का विवेचन
मीनू देवी

 

शोध सार : हिन्दी कथा साहित्य में बड़ी संख्या में ऐसी बाल केन्द्रित कहानियाँ तथा उपन्यास मिलते हैं, जिनमें बच्चों के जीवन की विभिन्न समस्याओं को अनेक कोणों से देखा परखा गया है और उनके कारणों, क्षेत्र, विस्तार तथा दुष्परिणामों पर भी प्रकाश डाला गया है। संसार में जितनी भी सभ्यताएं हैं उनमें मानवीय सभ्यता की सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवस्था बचपन है। 'बचपन'भविष्य में आने वाले जीवन की आधारशिला है। मनोवैज्ञानिक होते हुए भी साहित्यकार नेन केवल बाल-मनोविज्ञान की गहरी समझ के साथ उनकी मनोवैज्ञानिक समस्याओं के कई पक्ष सम्मुख रखे गए हैं अपितु बच्चों के असामान्य व्यवहार, विचलित व्यवहार, समस्यात्मक आचरण तथा उनकी आपराधिक मनोवृत्ति के कारणभूत तत्त्वों की खोज कीहै।साहित्यकार एक साथ ही विभिन्न सामाजिक समस्याओं का चितेरा, अन्वेषक, विश्लेषक, चिंतक और व्याख्याता होता है और उसकी रचनाओं में मानवीय सभ्यता के विविध पहलुओं मानव जीवन की विविध अवस्थाओं की झाँकी मिलती है।जब कोई रचनाकार या विमर्शकार बाल जीवन से जुड़ी समस्याओं तथा बाल-अधिकारों के विषय में चर्चा करता है तो उसकेस्वानुभूत सत्यके साथयुगीन सत्यभी जुड़ जाता है। बाल विमर्श की दृष्टि से अनेक हिन्दी कथाकारों की लेखनीने अपने समय और समाज के बच्चों के जीवन की जटिलताओं तथा संकटों का केवल संस्पर्श किया है बल्कि अत्यन्त गहन-गम्भीर चिन्तन और विचार-विमर्श का ठोस धरातल भी प्रदान किया है। यही नहीं जिस प्रकार एक माँ अपने बच्चे के मन को समझती है उसी प्रकार हिन्दी रचनाकारों ने बाल मन की अत्यंत गहराइयों में उतरकर बाल-मनोविज्ञान की अनेक झाँकियाँ प्रस्तुत की हैं।

बीज शब्द : मनोवैज्ञानिक, रूदन, प्राथमिक शिक्षा, लिंगभेद, दण्डित, हीनभाव, भौगोलिक संरचना, उत्पीड़न, चिन्तन, दुव्यर्वहार।

मूल आलेख : साहित्य में मानव जीवन की विविध अवस्थाओं एवं पक्षों की विविध कोणों से व्याख्या की गई है तथा आलोचकों ने खुलकर उन पर विचार-विमर्श भी किया है किन्तु बालजीवन पर गम्भीर चिन्तन एवं विचार-विमर्श का अभाव खटकता है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी कथा साहित्य में रचनाकारों ने इस विषय को पूर्णतः अनदेखा किया हो क्योंकि अनेक कहानियों एवं उपन्यासों में बच्चों की आवश्यकताओं (शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक), अधिकारों, समस्याओं, हास और रूदन, निष्कलुष मन, बड़ों द्वारा उत्पीड़न और शोषण तथा उनके गुम होते बचपन के अनेक स्थूल एवं सूक्ष्म चित्र उकेरे गए हैं किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि साहित्यकारों द्वारा इंगित किए गए इन बिन्दुओं पर गंभीर चिन्तन किया जाये एवं स्थिति परिवर्तन के लिए उचित कदम उठाए जायें। बाल जीवन से जुड़ीहुई समस्याओं को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जा सकता है -

सामाजिक समस्याएँ

मनोवैज्ञानिक समस्याएँ

बच्चों से संबंधित सामाजिक समस्याओं पर विचार विमर्श करें तो ज्ञात होता है कि समाज में अपने-अपने हक के लिए मोर्चा खोलने वालों के मध्य बच्चे, ऐसे प्राणी हैं जो अपने अधिकारों की लड़ाई स्वयं नहीं लड़ सकते, ऐसे में हम बड़े उनके प्रति अपने उत्तरदायित्वों एवं कर्तत्यों से मुख नहीं मोड़सकते। वर्तमान समय में बच्चों की तमाम सामाजिक समस्याएँ-अशिक्षा, कुपोषण, भेदभाव, यौन शोषण, बालश्रम, बाल अपराध आदि विकराल रूप लेकर सामने खड़ी हैं और समाधान की माँग कर रही हैं। बाल अधिकारों पर सम्मेलन की 20वीं वर्षगाँठ के अवसर पर अहसास, मुस्कान इंडिया, हम, सी.डब्ल्यू.सी. (बाल अधिकार सम्मेलन), यूनीसेफ के प्रतिनिधियों ने बच्चों से जुड़ी निम्नलिखित समस्याओं को रेखांकित किया जो सामाजिक समस्याओं की श्रेणी में आती हैं

1.बहुत बड़ी संख्या में अभी भी बच्चे अशिक्षित हैं।

2.गरीबी उनकी पढ़ाई में बाधा का एक मुख्य कारण है।

3.शिक्षकों के साथ छात्र-छात्राओं की संवादहीनता की स्थिति हैं।

4.पचास फीसदी बच्चे कुपोषित हैं तथा 40 फीसदी बच्चे गम्भीर रोगों - डायरिया, निमोनिया आदि से ग्रसित हैं तथा वे पर्याप्त टीकाकरण एवं पोषण सुविधाओं से भी वंचित हैं।

5.राज्य की बाल कार्य-योजना एवं बाल नीति नहीं है।

6.बाल अधिकार किसी भी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र में शामिल नहीं हैं।

7.कार्यक्रम एवं कानूनों के क्रियान्वयन निगरानी के लिए सुदृढ़ तंत्र का अभाव है।

8.मानसिक मंदित बच्चों के लिए अलग बजट नहीं हैं।

9.सामान्य अनाथ बच्चों की परवरिश भी असामान्य बच्चों के साथ की जाती है जो कतई उचित नहीं।

10.लैंगिक भेदभाव बरते जाने की घटनाएँ बहुत अधिक हैं।

11.बच्चों को अभिभावक प्रयोगशाला के रूप में समझते हैं जो अनुचित हैं।

12.अभिभावकों द्वारा बच्चों पर मात्र अपने स्वप्न, अपनी महत्वाकांक्षाएँ लादना, यह जाने बिना कि उनकी रूचि-अरूचि क्या है।

13.उन्हें एक नागरिक के तौर पर पालना।

14.टेलीविजन के माध्यम से आधुनिकता के नाम पर परोसी जाने वाली फूहड़ता जो बच्चों के मन-मस्तिष्क पर बहुत बुरा असर डाल रही है।

15.बाल-संरक्षण की जिम्मेदारी निभाने में सरकारी तंत्र की विफलता।

 

हिन्दी कथा साहित्य में चित्रित बाल-जीवन की सामाजिक समस्याओं के विषय पर ध्यान दें तो ज्ञात होता हैं कि हिन्दी कथा साहित्य में विस्तृत रूप से इनकी चर्चा की गई है और समस्या से जुड़े कारणों एवं हर पहलुओं पर विचार किया गया हैबाल आबादी में से लगभग आधे बच्चे अशिक्षित हैं। एक बड़ा प्रतिशत उन बच्चों का है जिनका नाम स्कूली रजिस्टर में तो दर्ज है किन्तु वे अनेककारणों से स्कूल जाते नहीं है अथवाड्राप आउटके कारण एक निश्चित स्तर तक की शिक्षा पूर्ण करने से पूर्व ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। सबको निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का संकल्प उठाने तथा उसके प्रति प्रतिबद्धता के बावजूद बाल-अशिक्षा की व्यापकता के पीछे अनेक कारण हैं, जैसेनिर्धनता, बालश्रम, अभिभावकों में जागरूकता का अभाव, लिंगभेद तथा बालिका शिक्षा की वृद्धि हेतु आवश्यक सुविधाओं को बालिका शिक्षा से जोड़कर देखना, पर्याप्त शैक्षिक संसाधनों का अभाव, अनुपयुक्त शैक्षिक प्रणाली, बुनियादी शिक्षा तक सबकी पहुँच के सम्बन्ध में विषमताएँ तथा शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकत्र्ताओं एवं भारतीय मध्यवर्ग की अनुचित सोच आदि। हिन्दी कथा साहित्य में बाल-अशिक्षा की विकट समस्या पर प्रकाश डालते हुए इन सभी पहलुओं को सामने लाया गया है। जैसे- ‘कुछ बेमतलब लोग’ (दिनेश पालीवाल) नामक कहानी में भीख माँगने वाले बच्चे जो अपने सामने अपने ही समान बच्चों को जब साफ सुन्दर ड्रेस पहनकर स्कूल जाता देखते हैं तो उन्हें अपनी हीनावस्था का तीव्रता से बोध होता है। अपने इस मूल अधिकार (और अब संवैधानिक हक) को पाने से वंचित होने के कारण उनके अन्दर उफनता हुआ आक्रोश का लावा उनकी जिह्वा पर गालियों के रूप में फूट पड़ता है - ‘‘फुटपाथ पर बैठे सब बच्चे उस सफेद बच्चे को कुछ पल देखते रहते हैं। इसके बाद उनकी आँखों की रही सही चमक भी फ्यूज बल्ब की तरह विलुप्त हो जाती है। दो तीन बच्चे अजीब तरह गम्भीर हो जाते हैं ‘‘जरूर अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता होगा‘‘एक बुझे चेहरे के बच्चे ने पास वाले बच्चे से कहा ‘‘और क्या हमारी तरह भिखमंगा बना डोलता है? ’’‘‘अपने माँ बाप साले कितने हरामी हैं ...... नगर पालिका वाले स्कूल तक हमें पढ़ने नहीं भेजते।’’1यद्यपि सरकार ने मुफ्त स्कूली शिक्षा तथा उसके साथ मध्यान्तर भोजन कार्यक्रम को संयुक्त करके इस समस्या का निराकरण करने का प्रयास किया है किन्तु विद्यालय में नामांकन हो भी जाए तो भी ड्रेस, कापी, किताब आदि की विकट समस्या उठ खड़ी होती है। इन अत्यावश्यक वस्तुओं के अभाव में बच्चे दण्डित होते हैं और स्कूल जाने से कतराने लगते हैं जैसेपरम्परानामक कहानी को लिया जा सकता है, जहाँ रग्घू के पास पढ़ाई-लिखाई के लिए कोई सामान नहीं है - ‘‘स्लेट की जगह उसके पास टीन का टुकड़ा था जिस पर बदलू (पिता) ने काला रंग पुतवा लिया था उसी पर वह खड़िया से सवाल निकालता था, रग्घू के पास रबर थी, ड्राइंग पेपर की कापी। उसे इतनी सजा मिलती है कि वह पिता से कहता है-जब तक सामान नहीं होगा, मैं स्कूल नहीं जाऊँगा। मास्टर जी मारते भी हैं और नाराज भी होते हैं।’’2 स्कूल के जलसे में वर्दी पहनकर आना अनिवार्य हो जाने पर वह अपने दोस्त से माँगकर वर्दी तो पहन लेता है किन्तु जूतों के लिए पिता के कुर्ते में लगे बटन चुराकर, बेचकर जूते ले आता है, परिणामस्वरूप अभिभावकों के सम्मुख भी भुखमरी की भीषण समस्या उपस्थित होने पर उन्हें अपने बच्चों को शिक्षा देने के बजाय किसी काम पर लगा देना ही उपयुक्त विकल्प प्रतीत होता है। फलस्वरूप खेलने कूदने पढ़ने की अवस्था में बच्चे स्कूल के बजाय श्रम मण्डी में कदम रखते हैं या पैतृक व्यवसाय में खप जाते हैं ऐसे श्रमिक बच्चों के लिए शिक्षा सर्वथा दुष्प्राप्य बनकर रह जाती है। आभिजात्य वर्ग की यह दूषित सोच भी है कि निम्न वर्ग के बच्चे नौकर बनने लायक ही हैं, पढ़ाई-लिखाई उनके लिए है ही नहीं।जैसे- ‘उसका स्कूलनामक कहानी में कामकाजी पति-पत्नी अपने बच्चों की देखभाल करने के लिए नौकरानी के साथ-साथ उसकी बेटी मुन्नी को भी अपने काम के लिए नियुक्त करना चाहते हैं जबकि मुन्नी स्कूल जाना चाहती है और पढ़ाई कतई नहीं छोड़ना चाहती परन्तु उसका रोना-धोना सब व्यर्थ चला जाता है-‘‘जब मनाए-मनाए वह नहीं उठी तो बाई ने उसकी टेहुनी पकड़ी और जोर से खींचादो चार नीचट हाथ जमाते हुए उसने उसे घसीट कर कमरे के बीचोंबीच डाल दिया और चिल्लाई‘‘ उठ, हरामजादी उठती है कि नहीं।’’3

स्थान विशेष की भौगोलिक संरचना के कारण जहाँ अभी भी शिक्षण संस्थानों का अभाव है, वहाँ बच्चे अशिक्षित रहने के लिए विवश हैं। उनके सम्मुख बहुत दूर-दराज पर स्कूल होना एक विकट समस्या बनकर प्रकट होती है।गलत लोहाकहानी इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि एक मेधावी छात्र भी कैसे आगे की पढ़ाई के लिए गाँव में विद्यालय होने के कारण अन्ततः मात्र एक लोहार बनकर रह जाता है - ‘‘आगे की पढ़ाई के लिए जो स्कूल था वह गाँव से चार मील दूर था। दो मील की चढ़ाई के अलावा बरसात के मौसम में रास्ते में पड़ने वाली नदी की समस्या अलग थी।’’4

एक अन्य कहानीयह चिट्ठी मेरी हैमें अपने पिता का सही नाम पता लिख पाने वाला बच्चा जग्गी अपनी भेजी चिट्ठी वापस लौट आने पर यही समझता है कि पिता ने उसकी चिट्ठी वापस लौटा दी और रोने लगता है किन्तु मालिक उसके अज्ञान एवं रूदन से करूणा विगलित हो जाते हैं और उसे पढ़ाने का निश्चय करते है - ‘‘जग्गी जोर से सुबकने लगा। प्रकाश बाबू ने चिट्ठी को लिया और उसमें लिखे शब्दों का अर्थ ढूँढने लगे। .... अरे जग्गी इतने दिन हो गए, तुझे मात्राएँ लगानी नहीं आई....... जा अपनी किताब लेकर आ। मैं आज तुझे मात्राएँ लगाना बताऊँगा।’’5 इस प्रकार इस कहानी के माध्यम से यह संदेश भी दिया गया है कि हर शिक्षित व्यक्ति यदि एक अशिक्षित को शिक्षित कर देने का बीड़ा उठा ले तो अशिक्षा का अन्धकार सदा के लिए दूर हो जाए।

बाल-कुपोषण की समस्या के सन्दर्भ में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। भारत में लगभग 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं जिसके कारण जन्म के समय कम वजन, प्रोटीन विटामिन तथा अन्य पोषक तत्वों की कमी तथा संक्रामक रोगों से ग्रस्त होने के कारण पाँच वर्ष की आयु तक पहुँचने सेपूर्व ही बच्चे मृत्यु के मुख में चले जाते हैं। समाज वैज्ञानिकों ने बाल-कुपोषण के पीछे- (1) देशभर में व्याप्त व्यापक गरीबी और भुखमरी, (2) स्वास्थ्य एवं पोषण संबंधी सेवाओं की अपर्याप्तता तथा उनतक सबकी पहुँच होना, (3) माता की गर्भकाल में अल्पपोषण की स्थिति, (4) जल्दी-जल्दी सन्तानोपत्ति, (5) मातृ-अशिक्षा एवं माता को स्वास्थ्य एवं पोषण सम्बन्धी ज्ञान होना, (6) बच्चे की उचित देखरेख हो पाना आदि को मुख्य कारणों के रूप में माना है। जन्म से ही दुर्बल तथा अस्वस्थ बच्चे कालान्तर में भी दूध, सन्तुलित भोज्य पदार्थ इत्यादि मिलने से गम्भीर कुपोषण का शिकार होते चले जाते हैं। हिन्दी कथा साहित्य में बाल- कुपोषण की समस्या पर कुछ कहानियाँ रची गई हैं। जैसेबबलूनामक कहानी में एक रिक्शा चालक अपने बच्चे बबलू के लिए स्कूल की मोटी फीस जुटाने के बाद सिवाय सूखी रोटी के कुछ नहीं जुटा पाता - ‘‘बबलू के लिए पाव भर दूध का जुगाड़ नही हो पा रहा है। चाय के साथ रोटी खा जाता है स्कूल।’’6 इसी तरह एक दिन वह पीलिया से ग्रस्त होकर काल का ग्रास बन जाता है। बाल-कुपोषण का एक बड़ा कारण बालक-बालिका के बीच भेदभाव भी है इसी के चलते प्रत्येक पाँच बालकों में जहाँ एक बालक कुपोषित है वहीं प्रत्येक दो बालिकाओं मे एक कुपोषित है क्योंकि बालकों की अपेक्षा उन्हें कम समय तक स्तनपान कराने, आहार में अन्तर, बालिका जन्म के पश्चात अगले बच्चे के जन्म में कम अन्तराल, बीमारियाँ होने पर उनकी उचित चिकित्सा कराया जाना तथा उपेक्षा बरतने की प्रवृत्ति अधिकतर पाई जाती है। अपनी ही जन्मी बच्ची को बोझ समझने वाली माताएँ जन्म के पश्चात ही उपेक्षा बरतना शुरू कर देती हैं। देखरेख और प्यार दुलार तो दूर बालिका शिशु को माता दुग्धपान से भी वंचित कर देती है। जैसे- ‘तीन किलो की छोरीनामक कहानी में स्वस्थ, सुन्दर तथा अच्छे वजन की बच्ची को जन्म देने वाली लल्लीबेन के घर जब दाई बच्ची को लेकर जाती है तो वहाँ सिर्फ लताड़ें ही पाती है। माता मातम मनाती है और दादी कहती है - ‘‘मरने दो हरामजादी को। ........... तीन किलो! तीन किलो! दूध है जो डिपो पर बेच आएँ। क्यों जले पर नमक छिड़क रही है, डाल परे कमबख्त को। मरे तो अपने भाग से जिए तो अपने भाग से।’’7वहीं दूसरी ओर पड़ोस में रहने वाली नन्नीबेन स्वयं कुपोषित है तथा जल्दी ही बच्चे को छोड़कर काम पर जाने लगती है, जिससे जन्म के समय ही अत्यन्त कम वजन का (मात्र डेढ़ किलो) उसका लड़का पोषण के अभाव के कारण दम तोड़ देता है।प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से अभिभावकों, संरक्षकों, शिक्षकों, कार्य मालिकों या समाज द्वारा किये वे कार्य जो बच्चों को शारीरिक, मानसिक, भावात्मक या यौनिक क्षति पहुँचाते हैं, बाल दुव्यर्वहार या बाल शोषण की श्रेणी में आते हैं। इनका बच्चों के शारीरिक, मानसिक तथा भावात्मक विकास पर तात्कालिक तथा दूरगामी दुष्प्रभाव पड़ता है। समाजशास्त्रियों ने बाल-शोषण को निम्नलिखित श्रेणियों में बाँटा है-

दैहिक शोषण या शारीरिक हिंसा

लैंगिक शोषण

भावात्मक शोषण

है- शारीरिक हिंसा-बाल शोषण का प्रथम प्रकार है। नित्यप्रति किसी किसी बात को लेकर क्रूरता की हदों को पार करते हुए अति बर्बरतापूर्ण ढंग से मार पीट के कारण बच्चे शारीरिक हिंसा का शिकार बनते हैं। परिवार में माता-पिता, विमाता या सौतेले पिता, स्कूल में शिक्षक तथा समाज के हाथों बच्चे अनेक प्रकार से क्रूरता के शिकार होते हैं।पिता से प्यार-दुलार पाने को तरसते बच्चों को छोटे से छोटे अपराध के लिए जब भयानक शारीरिक दण्ड दिया जाता है तो उनके और पिता के बीच का स्नेह का बन्धन चिटक जाता है जैसे- चित्रा मुद्गल की कहानीदशरथ का वनवासमें एक व्यक्ति जो पिता से पूरी तरह से नाता तोड़ चुका है, अपने बचपन के विषय में सोंचता है- ‘बाबूजी कभी उसेमहाबीरनके मेले नहीं ले गए। कभी रंगीन काँचोंवाला चश्मा ही दिलाया, गैस का गुब्बारा।’’8  एक दिन उनकी साइकिल बिना पूछे स्कूल ले जाने के अपराध में पिता उसे बेतहाशा मारते हैं - ‘बेंत की मार से देह के कई हिस्सों की खाल उधेड़ दी। दुआरे के बीचोंबीच खड़े बूढ़े नीम से उसे बाँध दिया गया था। दरवाजे की आड़ से लगी माँ उसे पिटता देखती रहीं और गुहार गुहारकर रोती रहीं। .... बाबा आते तो शायद बाबूजी उसकी जान लेकर ही छोड़ते।’’9महत्वाकांक्षी पिता अपने बच्चों की अवस्था,उनकी रूचि, बालसुलभ वृत्तियों एवं सीमाओं या दुर्बलताओं की अनदेखी कर केवल और केवल अपनी इच्छाओं स्वप्नों को बच्चे के माध्यम से पूरा होता देखना चाहते हैं। फलतः मासूम कोमल बच्चे उनकी महत्त्वाकांक्षाओं तले पिसने को विवश हो जाते हैं जैसे- ‘दुःख भरी दुनियानामक कहानी में पेशे से क्लर्क एक पिता अपने बेटे दीपू को इंजीनियर के रूप में देखना चाहते हैं, इसलिए जब-जब वे उसे पढ़ाने बैठते है, बहुत मारते हैं - ‘‘अठारह सत्ते’’............. दीपू के होश हवास गुम हो रहे थे। आँखों के आगे अँधेरा छा रहा था, ‘‘अठारह सत्ते एक सौ............... एक सौ’’ और तभी एक जोर का तमाचा उसकी कनपटी पर पड़ा था  ‘‘अठारह सत्ते ......... बोल। हाथ आगे कर। ..... हाथ आगे कर।’’ बिहारी बाबू चीख रहे थे दीपू अपने छोटे-छोटे स्याही रंगे और धूल भरे हाथ आगे करता जा रहा था और रूलें पड़ती जा रही थीं। ‘‘अठारह सत्ते? बोल!‘‘और आठ दस थप्पड़ और पड़ गए। धरती घूम गई और दीपू बेहाल होकर गिर पड़ा।’’10हिन्दी कथा साहित्य में कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ परिवार में बच्चे धन कमाने का एक मुख्य जरिया या माध्यम हैं और स्वार्थ में पड़कर माता-पिता किसी भी हद तक चले जाते हैं। जैसे- ‘बेड़ीनामक कहानी में अन्धा पिता भीख माँगने के लिए नित्य छोटे से बेटे को साथ लेकर जाता था पर एक बार बच्चा नौकरी की तलाश करने के लिए भाग जाता है और वापस आने पर उसे यह सजा मिलती है कि उसके पैरों में बेड़ी डाल दी गई है और इसी बेड़ी के कारण एक दिन वह मर जाता है - बुड्ढा बोला-‘‘बाबूजी, अब यह नहीं भाग सकेगा, इसके पैरों में बेड़ी डाल दी गई है।...........’’ मैंने मन ही मन कहा-हे भगवान, भीख मँगवाने के लिए बाप अपने बेटे के पैरों में बेड़ी भी डाल सकता है।’’11

कुछ कहानियों में दर्शाया गया है कि विमाता द्वारा भड़काए जाने, झूठे आरोप लगाने तथा पक्षपात करने से बच्चे पिता से पिटते, प्रताड़ित होते रहने के फलस्वरूप अपराधी बन जाते हैं। विद्रोहात्मक रवैया अख्तियार कर लेते है। इस प्रकार विमाता द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से प्रताड़ित होना भी कहानियों में दर्शाया गया है जैसे- ‘गृहदाहनामक कहानी में अपने सौतेले भाई को गोद में लेने, छू लेने मात्र से विमाता सत्य प्रकाश पर इतना क्रोधित हो उठती है कि पति से उसकी झूठी सच्ची शिकायतें जड़ती है और पिता बिना कुछ समझे उसे तमाचे जड़ देते हैं। यह घटना सत्य प्रकाश के जीवन की कायापलट कर देती है - ‘उस दिन से सत्यप्रकाश के स्वभाव में एक विचित्र परिवर्तन दिखाई देने लगा। वह घर में बहुत कम आता, पिता आते तो उनसे मुँह छिपाता फिरता।.......वह अब पढ़ने से जी चुराता, मैले कुचैले कपड़े पहनता।...... बाजार के लड़कों के साथ गली-गली घूमता, कनकौवे लूटता, गालियाँ बकना भी सीख गया।’’12

माता कभी कुमाता नहीं हो सकती, यह प्रचलित मुहावरा भी अब पुराना पड़ गया। कुछ ऐसे माताएँ भी हैं जिनकी कटुता, दुव्र्यवहार, कर्कशता और बच्चों को प्रताड़ित करना कभी-कभी सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है।तुम किसकी हो बिन्नीनामक कहानी में आरती दो बेटियों के बाद लगातार तीन बार गर्भपात करवा लेती है किन्तु फिर भी पुत्र की पूरी आशा के पश्चात पुत्री जन्म लेती है तो वह पहले तो उसे अपनी बेटी मानती ही नहीं, फिर जब घर लाती है तो उसे दुग्धपान, नामकरण और अपने स्नेह सबसे पूर्णतः वंचित रखती है। सर्वथा उपेक्षित, दबी-घुटी, निर्मम मारपीट का शिकार भी वही होती रही। बहन की उतरन पहनने से मना किया तो बेतरह मारी गई - ‘‘ढीठ कहीं की। कंजरिया।’’ थप्पड़ों की दर्दीली बौछार। मम्मी के हाथ जब चोट से झनझना उठे तो बिन्नी की नरम बाँह पर उन्होंने माँस काटकर ले जाने वाली चिकोटी गाढ़ दी-चीखों भरा रूदन घर मे फैल गया।’’13माँ को खुश रखने के लिए सारे घर का काम काज अपने कन्धों पर उठा लेने पर भी एक दिन उसके हाथ से कप प्लेट छूटकर टूट गया और माँ का क्रोध मानवीयता की सीमा का अतिक्रमण कर गया - ‘मम्मी ने निर्दयता से पीटा था...........बहुत........... बहुत। मम्मी के क्रोध के विस्फोट से उठी ज्वाला में विदग्ध बिन्नी को ऐसा लगा कि जैसे उसके बालों को किसी ने जड़ से उखाड़ दिया हो........थप्पड़ों के असह्य आघात। कान का जड़ से उमेठा जाना...... ‘आह ओंठ भींचकर मूक हो जाने की चेष्टा को तोड़ता विवश आत्र्तनाद.... उन अमानवीय प्रहारों में कितने दिन का जमा लावा? कब से रूका बैर...?’’14क्या इस दृश्य से माता के सदैव एवं सर्वत्र ममतामयी और वात्सल्यमयी होने का मिथक चूर-चूर नहीं हो जाता? लिंगभेद की मानसिकता रखने वाली माताओं द्वारा भी बालिकाओं को कई बार शारीरिक हिंसा तथा दुव्र्यवहार का सामना करना पड़ता है।

हिन्दी कथा साहित्य में कुछ कहानियों एवं उपन्यासों के माध्यम से स्कूलों में शिक्षकों द्वारा बच्चों के साथ किए जाने वाले बर्बर व्यवहार का पर्दाफाश किया गया है। जैसे- ‘गोबर-गणेशनामक उपन्यास में कक्षा में ही गाली-गलौच करते हुए अध्यापक बच्चों को बेतरह मारते हैं- ‘नेने मास्टर फुफकारते हुए उठते हैं। कोने में रखे हुए जूते के भीतर से एक मोजा निकालते हैं और उसे चाबुक की तरह घुमाते हुए उस लड़के की ओर बढ़ते हैं। सुअर का बच्चा।.......कापी फाड़ता है? तेरे बाप ने खरीद के दी थी कापी उसको?.........सड़ासड़ मोजा बरस रहा है-लड़के के मुँह पर, खोपड़ी पर, पीठ पर। नेने मास्टर उसे जाते हुए लात जमाते हैं लड़का गिरते-गिरते बचता है और चुपचाप कोने में मुर्गा बना दिया जाता है। दूसरे लड़के से- ‘‘क्यों बे क्यों दी उसे माँ की गाली फिर लातें....’’15 

अशिक्षा और रूढ़िग्रस्त मानसिकता के अन्धकार में कई बार स्वयं अभिभावक या संरक्षक ही अपने बच्चों को गलत हाथों में सौंपकर आँखें मूँद लेते हैं। टोने-टोटके, धर्माडम्बर तथा तंत्र मंत्र की आड़ में बच्चों के साथ किया जाने वाला व्यवहार कई बार प्राणघातक सिद्ध होता है।अशिक्षा और रूढ़िग्रस्त मानसिकता के अन्धकार में कई बार स्वयं अभिभावक या संरक्षक ही अपने बच्चों को गलत हाथों में सौंपकर आँखें मूँद लेते हैं। टोने-टोटके, धर्माडम्बर तथा तंत्र मंत्र की आड़ में बच्चों के साथ किया जाने वाला व्यवहार कई बार प्राणघातक सिद्ध होता हैयोगमायानामक कहानी में अपनी मानसिक रूप से विकलांग पोती का इलाज कराने गई दादी साँई के हाथों में उसे सौंप देती है और साँई धन पाने के लोभ में उसे नशा डालकर चरणामृत पिलाने और सिंकाई करके ठीक कर देने का ढोंग रचते हैं। इसी प्रक्रिया में एक दिन बच्ची यज्ञकुंड में गिरकर एक क्षण में जलकर राख हो जाती है - ‘बच्ची को साँई ने रोज की तरह उठा रखा था। पहले चरणामृत पिलाया फिर हाथ सेंके फिर जोर जोर से मंत्र बोलते उसे समूचा अग्निकुंड के ऊपर लटका दिया। ताप अधिक था फिर पीठ पूरी नंगी, चरणामृत में पड़े नशे से ग्रस्त अर्द्धसुप्त बच्ची अचानक जोर से कुलबुलाई और देखते-देखते बीच कुंड में जा गिरी।’’16

बच्चों के यौन-उत्पीड़न के सबसे ज्यादा मामले (औसतन चार लाख) प्रतिवर्ष भारत में दर्ज कराए जाते हैं जबकि कितने ही मामले दर्ज भी नहीं होते। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार देश में हर 35वें मिनट में बाल-यौन उत्पीड़न का एक मामला दर्ज होता है। हर 155वें मिनट में एक बच्ची के साथ दुष्कर्म होता है और देश का प्रत्येक चार में से एक बच्चा यौन शोषण का शिकार है।ये आँकड़े ही दिल दहला देने वाले हैं तो सहज यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उत्पीड़ित बच्चों की पीड़ा और कष्ट क्या होगा। बच्चों की सहज उपलब्धता, उनका आसानी से गिरफ्त में जाना, भेद खुलने या बच्चों के ओर से प्रतिरोध की सम्भावना बहुत ही कम होने के कारण अपनी विकृत वासना को शान्त करने के लिए बच्चों पर नर-पिशाचों का शिंकजा कसता ही जा रहा है। पिछले कई वर्षों से बाल-दुष्कर्म के मामलों में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि होती जा रही है। कई मामलों में दुष्कर्मी घर का ही कोई व्यक्ति-सौतेला पिता, भाई, चाचा, ताऊ अथवा अन्य कोई नजदीकी रिश्तेदारअथवा पड़ोसी आदि होते हैं जिनकी पहुँच बच्चों तक सहज हो तथा जो विश्वासपात्र माने जाते हों। अधिकाशतः वहीभक्षकबनकर मर्यादा और पद की गरिमा की सारी सीमाओं का उल्लंघन करके यह जघन्य अपराध करते हैं। उस पर न्याय या छुटकारा मिलना तो दूर, मुँह सीकर चुपचाप बच्चे जाने कब तक यह सबकुछ सहते चले जाते हैं। ऐेसे मामलों में पीड़ित ही सर्वाधिक लांछित होते हैं और हेय दृष्टि से देखे जाते हैं। सारा खामियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ता है सामाजिक दृष्टिकोण ही कुछ ऐसा है।

हिन्दी कथा साहित्य में अनेक कहानियों तथा उपन्यासों के माध्यम से इस समस्या को बड़ी गंभीरता से उठाया गया है तथा उन खामियों, लापरवाही तथा कारणों की ओर इंगित करते हुए, जिनके कारण ऐसे हादसे होते हैं, इनके दुष्परिणामों की भयंकरता पर भी प्रकाश डाला गया है।समाज वैज्ञानिकों के दिए गए आँकड़ो के अनुसार ऐसे दो तिहाई मामलों में भाई, पिता या घर के सदस्य बालक-बालिकाओं के साथ यौन-शोषण या दुष्कर्म करने के अपराधी होते हैं जबकि 80 प्रतिशत मामलों में कोई नज़दीकी सदस्य, रिश्तेदार, मित्रगण आदि ऐसा करते हैं। भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को कलंकित करने वाले ऐसे भाई भी हैं जो अपनी बहन का जीवन ही नष्ट कर डालते हैं बेचारी बालिकाएँ दबती घुटती सब सहकर भी कुछ नहीं कह पाती या कहें भी तो विश्वास कौन करे, यूँ ही वे बालिका होने की सजा पहले ही भुगत रही होती हैं। प्रभा खेतान के उपन्यासछिन्नमस्तामें इस समस्या को बड़ी ही गम्भीरता से प्रस्तुत किया गया है। प्रिया नामक बालिका दस वर्ष की उम्र में सगे बड़े भाई की हवस का शिकार बनती है और भाभी की अनुपस्थिति में तो सिलसिला सा चल पड़ता है घर भर में उपेक्षित प्रिया एकमात्र निकटस्थ अपनी दाई माँ को यह बात बताती है। इस हादसे के कारण कुचले हुए बचपन, असमय कैशोर्य का भार और सारा दोष भी बेचारी प्रिया पर ही मढ़ दिया जाता है और वह घर भर के लिए और भी फालतू उपेक्षित और सिरदर्द जैसीवस्तुबनकर रह जाती है। जब प्रिया इस सबके जिम्मेदार के विषय में सोचती है तो अन्दर ही अन्दर क्रोध का लावा उबलने लगता है-असमय को बोझिल कैशोर्य, कुचला हुआ बचपन...........दाई माँ के शब्द ‘‘काहू से मत कहिह बिटिया, कभी नाहीं।‘‘और माँ का अपराध बोध, समूचा हीनभाव मुझको लेकर......बड़े भैया? मेरा समूचा अस्तित्व चीख रहा था, हाहाकार कर रहा था।’’18

निष्कर्ष : हिन्दी कथाकारों ने जिस प्रकार इन समस्याओं पर विचार विमर्श किया है उसके अध्ययन से पता चलता है कि प्रेमचन्द युग में बच्चों की समस्याएँ भिन्न प्रकार की हैं, वहाँ बालक ग्रामीण अंचलों में फैली निर्धनता, निरक्षरता, बेरोज़गारी, अभावों तथा सामंती परिवेश की समस्याओं से ग्रसित है। वहीं जैनेन्द्र के रचनाकाल में कहानी क्षेत्र में मनोविज्ञान के प्रवेश के साथ बालमन को प्रभावित करने वाले घटकों पर प्रकाश डाला गया है। अज्ञेय और उनके समकालीन रचनाकारों की कहानियों उपन्यासों में बालक आधुनिक परिवेश के दबाव का दंश झेल रहा है। भीष्म साहनी, मन्नू भण्डारीजैसे लेखकों की रचनाओं में तत्कालीन समाज के विघटन, टूटन, बिखराव तथा माता-पिता के असहज, असफल दाम्पत्य सम्बन्धों में पिसते बच्चों का आत्र्तनाद सुनाई देता है। आगे उत्तर आधुनिकता के दौर में भूमण्डलीकरण, उपभोक्तावाद, बाज़ारवाद तथामीडिया संस्कृतिका चहुँतरफा दबाव झेलते बच्चों की बहुआयामी समस्याओं पर चिन्तन-मनन किया गया है।घर में पिता, माता, विमाता अथवा अन्य सदस्यों द्वारा तथा विद्यालयों में शिक्षकों के द्वारा बच्चे शारीरिक हिंसा का शिकार होते हैं। परिवार में अति अनुशासनप्रियता, बच्चों को नियन्त्रित करने हेतु सदा दण्ड का तरीका अपनाने मादक द्रव्यों के व्यसन आदि के कारण पिता प्रायः आतंक के पर्याय बन जाते हैं। वहीं परिवार में विमाता द्वारा अपने-पराए का भेद करने, सपत्नी के बच्चों को प्रताड़ित कर अपने बच्चों के साथ पक्षपातपूर्ण बर्ताव करने तथा माता के द्वारा क्रोध, खीझ, झुँझलाहट आदि के कारण बच्चों के साथ निर्मम व्यवहार किया जाता है। स्कूलों में शिक्षक बच्चों को उनकी छोटी-छोटी गलतियों के कारण कठोर शारीरिक दण्ड देते हैं, जैसे - बेतों से पिटाई, बाल नोंचना, थप्पड़ मारना, कान उमेठना, लटका देना, धूप में दौड़ाना, उठक-बैठक लगवाना, मुर्गा बना देना, कमरे में बन्द कर देना। हिन्दी कथा साहित्य में कठोर शारीरिक दण्ड भुगतने वाले बच्चों की दुरावस्था का चित्रण करती हुई कई रचनाएँ मिलती हैं, जैसे- ‘दशरथ का वनवास’ (चित्रा मुद्गल), तुम किसकी हो बिन्नी’ (मैत्रेयी पुष्पा),गोबर गणेश (रमेश चन्द्र शाह), ‘वंशज’ (मृदुला गर्ग),दुख भरी दुनिया’ (कमलेश्वर), आदि। समाज में व्याप्त कई प्रकार के धर्माडम्बर, अन्धविश्वास और कुप्रथाएँ बच्चों के लिए अत्यन्त अहितकारी तथा खतरनाक हैं, फिर भी, इनका उन्मूलन नहीं किया जा सका है हम अपनी सभ्यता, संस्कृति और मानवता को कलंकित कर बच्चों को अपनी विकृत मानसिकता, मनोविकृति तथा हवस के कारण यौन-शोषण दुराचार का शिकार बनाते हैं। अधिकांशतः दुष्कर्मी कोई घर का सदस्य - पिता, भाई, चाचा, ताऊ, मामा या अन्य कोई नज़दीकी रिश्तेदार अथवा पड़ोसी या ऐसे व्यक्ति होते हैं जिन पर आसानी से विश्वास करके उनके साथ निश्चिन्त होकर बच्चों को छोड़ दिया जाता है। स्कूली शिक्षकों, ट्यूटरों, प्रिंसिपलों आदि की हैवानियत से भी बच्चे बचे नहीं हैं। हिन्दी कथा साहित्य में यौन अत्याचारों से पीड़ित बच्चों की दुर्दशा, उनके दुःख एवं इस प्रकार के शोषण से उनके व्यक्तित्व, उनके सम्पूर्ण आगामी जीवन पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रण मिलता है मनुष्य की निरन्तर बढ़ती हुई अहंवादी प्रवृत्ति, अति महत्त्वाकांक्षा, असहिष्णुता तथा प्रेम की उष्मा आपसी सामंजस्य को बनाए रखने के लिए आवश्यक त्याग एवं बलिदान की भावना के अभाव के कारण परिवार रूपी संस्था में दरार पड़़ गई है। आपसी संबंधों के बिगड़ते ही परिवार में उठने वाले तूफानों में सबसे पहले बच्चों काबचपनउजड़ता है। चाहे अभिभावकों के आपसी तनाव हों या उनके आपसी कलह-क्लेश द्वन्दों की स्थितियाँ हों, विवाहेतर संबंधों से उत्पन्न जटिलताएँ हों या अन्य प्रकार की आशंकाएँ, संदेह और झगड़े, तलाक हो या  अलग-अलग रहने की परिस्थितियाँ, इनमें कहीं से भी दोषी होते हुए भी निर्दोष, मासूम बच्चों को ही सर्वाधिक सजा मिलती है क्योंकि वे अपने भीतर माता-पिता की जिस छवि के साथ एक सुन्दर संसार, एक सुखद सम्पूर्ण परिवार की अनुभूति करते हैं उसमें दरार पड़ते ही उनका सब कुछ टूटकर बिखर जाता है।

संदर्भ :

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मीनू देवी 

असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी विभाग), हर्ष विद्या मंदिर पी.जी. कॉलेज, रायसी, हरिद्वार (उत्तराखंड)


बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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