शोध आलेख : बाल साहित्य के विकास में पत्रिकाओं का सफ़र / कुसुम कुञ्ज मालाकार

बाल साहित्य के विकास में पत्रिकाओं का सफ़र
- कुसुम कुञ्ज मालाकार


शोध सार : प्रत्येक बालक देश का भावी कर्णधार है, आज का बालक अर्थात कल के नागरिक। इसलिए यह जरूरी है कि इन भावी कर्णधारों का लालन पालन के साथ साथ शिक्षा दीक्षा उचित ढंग से हो। ताकि वे शारीरिक तथा मानसिक रूप से कल लिए तैयार रहें। बाल साहित्य बालक के संपूर्ण विकास का सूचक हैं। इसमें बच्चों को केंद्र में रख उन्हें मनोरंजन के साथ साथ उचित नैतिक ज्ञान, आगे बढ़ने की प्रेरणा तथा अपने देश के प्रति उनके कर्तव्य की ओर सचेत करने का काम करता हैं। इस बाल साहित्य के अंतर्गत कहानियाँ, कविताएँ, उपन्यास, नाटक और अन्य विधाएँ शामिल हैं। ये बच्चों की कल्पना शक्ति को उड़ान भरने हेतु पंख प्रदान करता हैं। व्यवस्थित ढंग से हिंदी साहित्य में यह प्रयास 19वीं सदी के बाद से देखा जाता है, जो आज भी क्रमशः तेजी से आगे बढ़ती जा रही हैं। आज अनेक विधाओं के साथ साथ इस साहित्य का परिसर बड़ा होता जा रहा हैं। इसकी प्रासंगिकता का आधार बच्चों की बदलती रुचियों के अनुसार इसका ढलना है। बालकों को इसके जरिए आसानी से अपनी नैतिक तथा सामाजिक मूल्यों की शिक्षा दी जा सकती हैं। इसलिए हमें बाल साहित्य के विकास और संवर्धन के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी जड़ों से जुड़ी रहे और एक सशक्त और नैतिक समाज का निर्माण कर सके। अतः बाल साहित्य बच्चों के जीवन का महत्वपूर्ण अंग है, अतः इसका उचित ढंग से प्रचार प्रसार व विकास करना आवश्यक है।

बीज शब्द : बालक, पत्रिका, देश, राष्ट्रीय, विधाएँ, समाज, शिक्षा

मूल आलेख : बाल साहित्य हमारे समाज और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में हम बाल पात्रों और कथाओं का वर्णन पाते हैं। उदाहरण के लिए, पंचतंत्र, जातक कथाएँ और महाभारत में बच्चों की कहानियाँ मिलती हैं। इसके अलावा, मध्यकाल में भक्ति साहित्य में भी बाल पात्रों का प्रमुख स्थान था, जैसे कृष्ण और बाल गोपाल। यह न केवल उनकी शिक्षा और मनोरंजन में मदद करता है, बल्कि उनके सांस्कृतिक और भावनात्मक विकास को भी प्रोत्साहित करता है। उस समय बच्चों के लिए मूलतः कहानियाँ और कविताएँ लिखी जाती थीं।

18वीं और 19वीं सदी में बाल साहित्य के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई। इस दौरान कई प्रख्यात लेखकों ने बच्चों के लिए कहानियाँ और उपन्यास लिखे। उदाहरण के लिए, पश्चिम देश के लेखक चार्ल्स डिकेंस, लुई कैरोल और हॉफमैन की रचनाएँ बहुत लोकप्रिय हुईं। इस समय हिंदी साहित्य के कुछ प्रमुख तथा लोकप्रिय पत्रिकाओं में जैसे बालबोधिनी और बालसखा ने बाल साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह सिलसिला आगे बढ़ा और 20वीं सदी में इसकी संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हुई। कई लेखकों ने इस समय बच्चों के लिए अतिरंजित और रोमांचक कहानियाँ लिखीं। यह वहीं समय था जब हिंदी बाल साहित्य ने गहराई प्राप्त की, जब लेखकों ने बच्चों की मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक जरूरतों पर ध्यान देना शुरू किया। इसके साथ ही बाल साहित्य में विविधता आई और नई विधाएँ जैसे ग्राफिक उपन्यास का प्रादुर्भाव हुआ। 21 वी सदी में साहित्य के अन्य नवीन विधाओं की शुरुआत हुई। जैसे- कहानी, नाटक, उपन्यास, गीत और नृत्य, कविताचित्र, पहेलियाँ, चुटकुले एवं जीवनी आदि शामिल हैं। इस समय बाल साहित्य में अनेक विविधताएँ देखी गयी, जिनमें प्रेरणादायक बाल साहित्य में हिरण और खरगोश (जस्टिन्स टेबर), लिटल वुमन (लुइसा में अल्कॉट), मनोरंजन के लिए (लुई करोल), एलिस की अद्भुत यात्रा, पीटर पैन (जेम्स बैरी), शिक्षात्मक के लिए (जेन यॉलेन), जूसी फल, सनी बहुरंगा गुब्बारा (एरिक कार्ल) तथा प्रतीकात्मक के लिएमैथिल्डा (रोल्ड डाहल), छोटा राजकुमार (एंटोइन डी सेंट-एग्जुपरी) आदि उल्लेखनीय रहीं।

बालको के लिए सही रूप में कहानी का शुभारंभ आधनिक काल में दो उद्देश्यों को लेकर हुआ। एक बच्चों को मनोरंजित करना तथा दूसरा उसके साथ साथ शिक्षा प्रदान करना। अब शिक्षा उपदेश के रूप में नहीं देकर कहानी में वर्णित घटनाओं या चरित्रनायक के सद्‌गुणों से अनायास ही दी जाने लगी। स्वतंत्रयोत्तर युग मे क्रातिकारी परिवर्तन ने इसका कलेवर ही बदल दिया। बालकों की अपनी शिकायतों शैतानियों का चित्रण अब उनमें होने लगा जो बाल मन को अधिकाधिक प्रभावित करने में सक्षम सिद्ध हुआ। सन् 1960 के बाद आधुनिक बोध की कथाएँ प्रचुर मात्रा में प्रकाशित होने लगी। कहानी के पात्र बालक स्वयं या उनके आस पास के परिचित कोई होने लगे। अब उन्हें परी कथाएँ प्रभावित नहीं करती, बरन् यथार्य के धरातल पर चलने को केवल मजबूर करती हैं। इस समय नये नये प्रयोग भी हुए। अब की कथाएँ वैज्ञानिकता को साथ लिए नये कलेबर के साथ प्रस्तुत किये जाने लगे। इस प्रकार की कथाए लिखने में हृदय मनोहर चौहान, हरिकृष्ण तलग, मालती जोशी, हरिकृष्ण देवसरे आदि के नाम उलेखनीय हैं।

“बाल साहित्य की विकास यात्रा को विभिन्न पत्रिकाओं ने बड़े ही सुनियोजित और सुव्यवस्थित ढंग से आगे बढ़ाया है। इस कार्य में बीच-बीच में कुछ बाधायें भी आई, परंतु बाल साहित्य का विकासरथ सफलतापूर्वक अपने गंतव्य की ओर अग्रसर होता रहा। प्रकाशन घरानों के आंतरिक कारणों के चलते ‘पराग’ जैसी महत्वपूर्ण बाल पत्रिका असमय ही काल कवलित हो गई। ‘पराग’ को बाल पत्रिकाओं में शिखर तक पहुँचाने का श्रेय उसके यशस्वी सम्पादक हरिकृष्ण देवसरे, कन्हैयालाल नंदन आदि को जाता है। यद्यपि नंदनजी को जब संपादक नियुक्त किया गया था तब बाल साहित्य में उनका तनिक भी हस्तक्षेप नहीं था किंतु उन्होंने अत्यंत प्रशंसनीय ढंग से ‘पराग’ को बुलंदियों तक पहुँचाया और बाल साहित्य के अनेक नये और अविस्मरणीय मानदंड स्थापित किये”1

अनेक बाल साहित्यकारों के उदय और उनके प्रतिष्ठित होने का श्रेय असंदिग्ध रूप से ‘पराग’ को दिया जा सकता है। एक साक्षात्कार में नन्दन जी ने कहा था कि “बाल पत्रकारिता से जुड़ना अनायास ही रहा, लेकिन जब जुड़ गया तो मैंने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। बच्चों के लिए तो मैंने एक कहानी भी नहीं लिखी थी और मुझे बच्चों की पत्रकारिता दे दी गई। जुड़ने के बाद मुझे लगा कि इसमें कुछ करना चाहिये। इसमें काम करते हुए मैंने महसूस किया कि बच्चों की पत्रकारिता को काफी सीमित करके देखा गया है। जैसे वे केवल कहानियाँ या कविताएँ ही पढ़ते हैं। बच्चे डायरी नहीं लिख सकते ? यात्रा संस्मरण नहीं पढ़ सकते ? हिंदी में लिखें जाने वाले नवगीत क्या बच्चों के लिए नहीं लिखे जा सकते ? क्या बच्चों के लिए नयी बिंब योजना नहीं बनाई जा सकती ? इन सवालों पर मैंने सोचा और उन लेखकों को बाल लेखन के लिए उकसाया जो बड़ों के लिए लिखते थे”2

वास्तव में बाल पत्रकारिता की विधिवत् शुरूआत 19वी शताब्दी के अंत में हुई। इसके पूर्व न तो बाल साहित्य की अलग से कहीं कोई चर्चा होती थी और न ही बाल पत्रकारिता की। बड़ों के लिए जो साहित्य रचा जाता था उसी में से बच्चे कुछ रोचक सामग्री अपने लिए भी छाँट लिया करते थे। प्रायः तुलसीदास और सूरदास के राम और कृष्ण संबंधी काव्य में ही बच्चों को अपनी रुचि का काव्य परिलक्षित होता था या फिर नीति संबंधी रचनाएँ पढ़ी जाती थीं। यह तो बहुत बाद की बात है कि बच्चों के मन और मनोभावों को समझकर बाल साहित्य के सृजन की आवश्यकता अनुभव की गई। बच्चों को साहित्यानुरागी बनाने में जो कार्य बाल पत्रिकाओं ने सहज ढंग से किया उतना किसी शिक्षकों या अभिभावकों के लिए बहुत ही दुष्कर है। हिंदी में यह परंपरा काफी लंबी एवं समृद्ध रहा हैं।

“बालसखा,शिशु, मनमोहन,लल्ला,बालविनोद, पराग, नंदन, चंदामाँमा,चंपक, बालभारती, चकमक आदि बाल पत्रिकाओं की एक सुदीर्घ परम्परा है जिन्होंने न केवल स्वस्थ बाल साहित्य का प्रकाशन किया बल्कि अनेक बाल साहित्यकारों का निर्माण भी किया।1917 जनवरी, में इंडियन प्रेस, इलाहाबाद से बालसखा का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसमें बच्चों के मनोरंजन के लिए कविता, कहानी, लेख आदि छपते रहें। इसके संपादकों की सूची में कुछ नाम है श्रीनाथ सिंह, पं बदरीनाथ भट्ट, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, पं. लल्ली प्रसाद पांडेय और पं. सोहनलाल द्विवेदी। इस पत्रिका के कुछ पृष्ठ काले, कुछ हरे, कुछ नीले, कुछ नारंगी, कुछ लाल और कुछ जामुनी रंग की स्याही में छापे जाते थे। स्वतंत्रता से पूर्व निकलने वाली अन्य बाल पत्रिकाओं में 'छात्र सहोदर' भी एक है, जो वर्ष 1920 में जबलपुर से निकला। 1924 में दिल्ली से माधव जी के संपादन में 'वीर बालक' का प्रकाशन शुरू हुआ। इसी काल में महादेव गोविंद करनेटकर ने काशी से 'उत्साह' निकाला। सन् 1926 में पटना से 'बालक' मासिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ हुआ। आरम्भ में शिवपूजन सहाय इसके सम्पादक रहे. बाद मे आचार्य रामलोचनशरण ने सम्पादन भार संभाला। यह पत्रिका एक लम्बे समय तक निकलती रही।

1927 में प्रयाग से रामजीलाल शर्मा ने 'खिलौना' का प्रकाशन आरम्भ किया। तीन वर्ष बाद उनका निधन हो जाने पर उनके पुत्र रघुनंदन शर्मा ने पत्र का संपादन का भार संभाला। यह पत्र 1940 तक निकलता रहा। इसमें पूरे वर्ष एक ही बहुरंगा मुख पृष्ठ छपता था।

यह हिंदी बाल साहित्य की विडंबना ही है कि इनमें से अधिकांश पत्रिकाएँ असमय ही दिवंगत हो गई। सबसे बड़े दुःख की बात तो यह है कि इन पत्रिकाओं के बंद होने का कारण उनका न चल पाना नहीं था बल्कि वे अपने प्रकाशन समूहों के आंतरिक कारणों के चलते बंद हुई। पराग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है”3। इन पत्रिकाओं के संपादकों ने व्यक्तिगत स्तर पर सम्पर्क करके लोगों का ध्यान बाल साहित्य की ओर आकृष्ट किया और सुयोग्य साहित्यकारों से उच्चकोटि का बाल साहित्य लिखवाया। पत्रिकाएँ भले ही अब इतिहास का हिस्सा बन गई हों किंतु उनके माध्यम से जन्मे बाल साहित्यकार आज भी बाल साहित्य का भंडार भरने के महनीय कार्य में पूरे मनोयोग से जुटे हुए हैं।

बालदर्पण हिंदी की सबसे प्रथम बालपत्रिका थी। इसका प्रथम अंक सन् 1882 ई. प्रकाशन में हुआ। यह पत्रिका भारतेन्दु के विशेष प्रयत्नों से प्रकाशित किया गया था। इससे पहले बच्चों के लिए केवल हस्तलिखित पत्र मिलते थे। किंतु इस पत्रिका के साथ साथ अनियतकालीन पत्र अलग-अलग स्थानों से प्रकाशित होने लगा। “सन् 1940 के आसपास हिंदी में लगभग 30 मुद्रित तथा सोलह हस्तलिखित बाल पत्रिकाएँ निकलती थी। हस्तलिखित पत्रों का प्रयास इस दृष्टि से महत्वपूर्ण कहा जा सकता है कि इससे बच्चों की लेखन प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है”4। 'बालदर्पण' के बाद हिंदी में इसी के भाँति बाल पत्रिकाओं जैसे 'बाल हितकर',' छात्र हितैषी', 'बाल प्रभाकर', 'विद्यार्थी', 'मानीटर'5 आदि का प्रकाशन हुआ।

भारतेंदु युग में जो बाल पत्रकारिता का बीजारोपण हुआ वह आगे चलकर द्विवेदी युग में और अधिक पुष्पित और पल्लवित हुई। इस काल में प्रकाशित होने बाली 'शिशु' और 'बालसखा' नामक बाल पत्रिकाओं को जबरदस्त लोकप्रियता प्राप्त हुई। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पत्रिकाएँ जैसे 'छात्र सहोदर', 'बीर बालक', 'बालक', 'खिलौना', 'चमचम', 'वानर', 'कुमार', 'अक्षय भैया', 'बाल विनोद', 'किशोर', 'तितली', 'होनहार', 'मदारी', 'बालबोध', 'बालहित', 'किशोर भारती' आदि का प्रकाशन हुआ। “इसके बाद भारत में स्वाधीनता की लहर फैल गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अन्य क्षेत्रों की भाँति बाल पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कांतिकारी परिवर्तन परिलक्षित होने लगे। बड़ी संख्या में नयी बाल पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, जिनमें से कई तो कुछेक अंक निकालने के बाद बंद हो गईं जबकि कुछ का प्रकाशन अभी भी निरन्तर हो रहा है। ज्यादातर पत्रिकाएँ आर्थिक कारणों से बंद हुई”6

आजादी के बाद प्रकाशित होने वाली कुछ प्रमुख बाल पत्रिकाओं में 'बाल भारती', 'प्रकाश', 'मनमोहन', 'अमर कहानी', 'चन्दामामा', 'चुन्नू- मुन्नू', 'नन्हीं दुनिया', 'बालमित्र', 'जीवनशिक्षा', 'स्वतन्त्र बालक', 'पराग', 'नन्हे-मुन्ने', 'राजा बेटा', 'नंदन', 'बालबंधु', 'मीनू-टीनू', 'राजा भैया', 'फुलवारी' आदि पत्रिकाओं ने छठें दशक तक बाल पत्रकारिता के विकास को बहुत ही शानदार तरीके से आगे बढ़ाया।

“बीसवीं सदी का सातवाँ दशक आते-आते विशुद्ध व्यावसायिक और पेशेवर प्रकाशकों की समझ में यह बात आ गई कि बाल पत्रकारिता के माध्यम से भी अच्छा-खासा धन अर्जित किया जा सकता है। परिणामस्वरूप बड़ों की तरह बच्चों की पत्रकारिता में व्यावसायिकता का प्रवेश हुआ”7 इससे अच्छी बात तो यह हुई कि बाल पत्रिकाओं का कलेवर पहले से अधिक चित्ताकर्षक और बड़ा होने लगा, किंतु इससे एक नुकसान यह भी हुआ कि बच्चों को क्या पढ़ाया जाना चाहिये इससे ज्यादा ध्यान इस बात पर दिया जाने लगा कि कौन सी सामग्री परोसकर पत्रिका की बिक्री बढ़ाई जा सकती है और विज्ञापनदाताओं को अधिक आकर्षित किया जा सकता है। इस मानसिकता के चलते बाल पत्रिकाओं में विषय-वस्तु पर चटपटापन हावी होता चला गया। जासूसी कहानियों और चित्रकथाओं की एकाएक भरमार होने लगी। कुछ पत्रिकाएँ तो केवल चित्रकथाओं, चुटकुलों और पहेलियों का संकलनमात्र बनकर रह गई। यह कहना गलत न होगा कि पिछली सदी के सातवें और आठवें दशक बाल पत्रकारिता के इतिहास में ऐसे संक्रमण काल के रूप में स्मरण किये जायेगे जब संख्यात्मक रूप से तो बाल पत्रिकाओं के क्षेत्र में क्रांति का अहसास हो रहा था किंतु गुणवत्ता का निरंतर हास हो रहा था। यही वह समय था जब पत्रिकाओं के समानांतर ही पॉकेट बुक्स के प्रकाशकों ने भी बाल उपन्यासों का प्रकाशन कर व्यावसायिक अवसर का भरपूर लाभ उठाने के लिए कमर कस ली थी। बाल पत्रिकाओं के सम्पादक अपने प्रकाशकों की इच्छानुसार अपनी पत्रिकाओं में सस्ते किस्म के बाल उपन्यास भी धारावाहिक रूप से प्रकाशित करने लगे”8

सन् 1960 के बाद हिंदी बाल पत्रिकाओं का प्रकाशन होता रहा जो निम्नलिखित हैं- फुलवारी (1961), बाललोक (1961), बाल दुनिया (1961), बालवाटिका (1962), रानी बिटिया (1962), शेरसखा (1963), नंदन (1964),  जंगल (1965), नटखट (1966), बालप्रभात (1966), चमकते सितारे (1966), शिशुबन्धु (1967), चंपक (1968),  लोटपोट (1968), चन्द्रखिलौना (1969), बाल रंगभूमि (1970), गोलगप्पा (1970), मुन्ना (1970), हिन्दी कॉमिक्स (1971), गुरुचेला (1972) हँसती दुनिया (1973), बालबन्धु (1973), प्यारा बुलबुल (1974), लल्लूपंजू(1975), बालदर्शन (1975), आदर्श बालसखा (1977), ओ राजा (1976), बाल साहित्य समीक्षा (1977), बाल पताका (1978), बालकल्पना (1979), मेला (1979), बालमन (1980), बालरत्न (1980), नन्हें मुस्कान (1981, नन्हे तारे (1981), चन्दन (1982), सुमन सौरभ (1983), किलकारी (1984), बालहंस (1986), बालमंच (1987), नन्हे सम्राट (1988), किशोर लेखनी (1988), बालमेला (1989), अंगूर के गुच्छे (1989), बच्चों की दुनिया (1989), बाल मिलाप (1998), बाल प्रतिबिंब (2003), अभिनव बालमन (2009), बाल प्रभा (2012), बालवाणी (2012), बालयुग (2014) आदि। इसी दौरान एक तरफ जहाँ बाल पत्रिकाओं की संख्या निरंतर बढ़ती रही थी वहीं, दूसरी ओर कई पत्रिकाएँ बंद भी हो गयी। इनमें से तो कुछ पत्रिकाएँ केवल प्रकाशित होते ही बंद हो गयी।

इनके अतिरिक्त 2009 में अलीगढ़ से एक त्रैमासिक पत्रिका 'अभिनव बालमन' प्रकाशित हुई जिसमें बच्चों की रचनाओं को प्रकाशित किया जाता था। आज तक लगभग सौ से अधिक बाल साहित्यकारों की रचना इस पत्रिका में प्रकाशित हो चुके हैं। इस संदर्भ में उन पत्रिकाओं का योगदान भी अनदेखा नहीं किया जा सकता, जो बाल साहित्य के लिए विशेषांक प्रकाशित करते रहे। इस प्रकार समय-समय पर अनेक पत्रिकाओं के विशेषांकों में बाल साहित्यकारों को दिशा निर्देश करते हुए परवर्ती काल के बाल साहित्य का समीक्षात्मक मूल्यांकन भी किया। इन पत्रिकाओं के बाल साहित्य विशेषांकों का विवरण निम्नलिखित हैं:-

परिकल्पना (बिहार) ने वर्ष 1963,1973 एवं 1975 में बाल विशेषांक, कादंबिनी(1970),पुस्तक परिचय (1970),
आजकल (1979) बाल साहित्य,हिंदी प्रकाशक (1979),संगीत (1981),केशव प्रयास (1982),दृष्टिकोण (1985),
रस सुलभ (1987),अभ्यन्तर (1991), प्रज्ञा (1996) आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों में बाल साहित्य पर विभिन्न कोणों से विचार किया गया है।

इन पत्रिकाओं में एक साप्ताहिक हिंदुस्तान पत्रिका समय समय पर बाल साहित्य की बेहतर सामग्री प्रकाशित करती रही। इस संदर्भ में दैनिक समाचार पत्रों के साप्ताहिक परिशिष्टों में भी बालसाहित्य प्रकाशित होते रहे। इन समाचार पत्रों में अमर उजाला, दैनिक जागरण, जनसत्ता, स्वंतत्र भारत, नवभारत टाइम्स, राजस्थान पत्रिका, हिन्दुस्तान, दक्षिण समाचार, नई दुनिया आदि प्रमुख हैं। इन बाल पत्रिकाओं के अतिरिक्त इस समय कुछ हस्तलिखित बाल पत्रिकाएँ भी लिखे जा रहे थे जैसे आशा, तरुण, परिन्दे, जीवन, आलोक, बालभारत, किरण, कल्पना, पत्रिका, ज्योति, शारदा, बालेन्दु, शिखर, तरुणपुष्प आदि। आजादी के बाद जिन पत्रिकाओं ने बालमानस को सर्वाधिक प्रभावित किया उनमें चंपक, चंदामामा, पराग, नन्दन, बालभारती और बालहंस प्रमुख रहा हैं।

भारत सरकार के प्रकाशन विभाग बालभारती का प्रकाशन सन् 1948 में प्रारंभ किया था। सरकारी पत्रिका होने के नाते इसके संपादक जल्दी-जल्दी बदलते रहें। सावित्री देवी वर्मा तथा द्रोणवीर कोहली ने सामग्री संकलन, छपाई तथा प्रस्तुति पर विशेष ध्यान दिया। इनके कार्यकाल में बालभारती की लोकप्रियता निरंतर बढ़ती गई। आजकल इसका प्रकाशन मात्र औपचारिकता होकर रह गया है।

चंदामामा का प्रकाशन बालशौरि रेड्डी के हाथों मद्रास में सन् 1949 प्रारंभ हुआ। यह अकेली ऐसी मासिक बाल पत्रिका है जिसका प्रकाशन अनेक भाषाओं में होता है। यह पत्रिका कहानियों के लिए बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गई। इसकी कहानियाँ मुख्यतः ऐतिहासिक व पौराणिक प्रसंगों पर आधारित रही,जिसका मूल लक्ष्य भारतीय बच्चों को प्राचीन जीवन मूल्यों से परिचित कराना है। संपादनकाल में इस पत्रिका का सर्वाधिक प्रसार हुआ।

‘पराग’ का प्रकाशन टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप ने मार्च 1958 में सत्यकाम विद्यालंकार के हाथों प्रारंभ हुआ। बाद में यह दायित्व आनंद प्रकाश जैन ने संभाला। उनके योग्य संपादन ने पराग को बाल साहित्य सृजन की नई दिशा दी। बाल एकांकियो का नियमित प्रकाशन सबसे पहले पराग ने प्रारंभ किया। बाद में इसका प्रकाशन स्थल बंबई से बदलकर दिल्ली कर दिया गया। यहाँ इसके स्वरूप के साथ किये गये खिलवाड़ ने पत्रिका की लोकप्रियता को काफी धक्का पहुँचाया। कुछ समय के लिए इसे किशोरों की पत्रिका कर दिया गया। ऐसा होते ही इसकी प्रसार संख्या में जबरदस्त गिरावट आने लगी जिसकी वजह से इसे पुनः बालपत्रिका बनाकर पुराने स्वरूप में परिवर्तित कर दिया गया। कन्हैयालाल नंदन के संपादन काल में इस पत्रिका ने लोकप्रियता के अनेक नये कीर्तिमान रचे, किंतु अंततः टाइम्स की अन्य पत्रिकाओं के साथ यह भी असमय ही काल के गति में समा गई।

हिंदुस्तान टाइम्स की पत्रिका 'नंदन' अभी भी बच्चों में लोकप्रिय बनी हुई है। जयप्रकाश भारती के संपादन काल में इस पत्रिका ने अनेक संग्रहणीय अंक निकाले। भूतपूर्व प्रधानमंत्रियों श्रीमती इंदिरा गांधी और मोरारजीं देसाई समेत विभिन्न क्षेत्रों के अनेक प्रसिद्ध व्यक्तियों ने इसमें बच्चों के लिए लेख लिखे”9।

बाल पत्रकारिता की संभावना के लिए कहा जा सकता है कि ये विकास के अनेक सोपान तय कर लेने के बाद भी बाल पत्रकारिता में अभी भी बहुत कुछ करने को शेष है। आवश्यकता इस बात की है कि बाल पत्रिकाओं को समुचित प्रश्रय मिले। उनकी अकाल मृत्यु को रोकने के लिए सार्थक प्रयास किये जायें। हाल ही के कुछ वर्षों में अनेक बाल पत्रिकाएँ यदि बंद हुई तो अनेक शुरू भी हुई हैं। भोपाल से प्रकाशित बाल पत्रिका 'स्नेह' ने कुछ महीनों में अच्छी ख्याति अर्जित की है। किसी बाल पत्रिका की उपयोगिता और प्रसिद्धि उसके संपादक की योग्यता, प्रतिभा और क्षमता पर निर्भर करती है। बाल पत्रिका के संपादक के लिए यह कतई आवश्यक नहीं है कि वह स्वयं भी कुशल बाल लेखक हो,अपितु उसके लिए अधिक आवश्यक यह है कि वह बाल मनोविज्ञान को भलीभाँति समझता हो और यह भी समझता हो कि उसके बाल पाठकों को किस प्रकार की सामग्री की आवश्यकता है। बच्चों की दुनिया बड़ों की दुनिया से सर्वथा भिन्न होती है, इसलिए बाल पत्रिकाओं का सम्पादन भी बड़ों की पत्रिकाओं से सर्वथा अलग मानसिकता के साथ करना होता है। बाल पत्रिकाओं का प्राथमिक दायित्व यह है कि वे मित्र की तरह बच्चों का मनोरंजन तो करें ही साथ ही उन्हें जीवन में सफलता पाने का मार्ग भी दिखायें।

निष्कर्ष : कहा जा सकता है कि प्रारंभ से लेकर अबतक बाल पत्रकारिताओं ने काफी लंबी दूरी तय कर ली है। किंतु इतना होने पर भी आज तक हिंदी साहित्य के कुछ ठेकेदारों व समीक्षकों तथा इतिहास लेखकों के कारण ये बालसाहित्य एवं बाल पत्रकारों को अभी भी हिंदी साहित्य में प्रवेश नहीं मिल पायी है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस स्थिति में एक सुखद बदलाव अवश्य परिलक्षित हुए जब कोटा विश्वविद्यालय ने बाल पत्रकारिता को पत्रकारिता के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर इस दिशा में सराहनीय पहल की। 1882 में इलाहाबाद से प्रकाशित होनेवाली बालदर्पण बाल पत्रिका आज भी अनवरत गतिशील है। यह स्वतंत्र रूप से बच्चों के लिए निकलने वाली प्रथम पत्रिका थी। जनवरी, 1917 में इंडियन प्रेस, इलाहाबाद से निकलने वाला बालसखा बच्चों का मनभावन मासिक पत्र बना। विचारणीय स्थिति इसलिए है क्योंकि उपुर्यक्त बाल-पत्रिकाओं की सूची में से भी पराग जैसी लोकप्रिय एवं टाइम्स ऑफ इंडिया की पत्रिका का प्रकाशन अक्टूबर, 1991 के बाद बंद हो जाना हमारे लिए चिंता का विषय है।अब समकालीन बाल पत्रकारिता अनेक दृष्टियों से हमारा ध्यान खींचती है। आज भिन्न आयु के बच्चों के लिए अलग-अलग पत्रिकाओं की बात महसूस की गई है। जुलाई 2011 से बालवाटिका किशोरों की पत्रिका बन गई है। सुमन-सौरभ किशोरों की पत्रिका है। उसमें किशोरवय के बालक-बालिकाओं की रुचि के विषयों पर रचनाएं प्रकाशित होती हैं। अपना कैरियर बनाने के लिए सचेष्ट किशोर इस पत्रिका में अपने मनोनुकूल सामग्री प्राप्त करते हैं।

डॉ. सुरेन्द्र विक्रम ने 'हिंदी बाल पत्रकारिता उद्भव और विकास' नामक पुस्तक में बाल पत्रकारिता की विकासयात्रा को रेखांकित करने का स्तुत्य प्रयास किया है। देश की आजादी से पूर्व पाश्चात्य एवं भारतीय मूल्यों के बीच जो संघर्ष होता रहा उसकी झलक बाल साहित्य पत्रिका में देखने को मिलती है। इस समय के पत्रिकाओं में भारतीय संस्कृति के प्रति गौरव, आत्म निर्भरता, स्वाभिमान आदि प्रचुर मात्रा में देखने को मिलता हैं। किंतु इतना होने पर भी 60 के दशक के बाद बच्चे पितृसत्ता को भी चुनौती देते नजर आते हैं। बच्चों के प्रति नए दृष्टिकोण को बढ़ावा देने में शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों के साथ-साथ बाल साहित्यकारों का योगदान तो है ही, बाल पत्रिकाओं का भी है जिन्होंने बच्चे पर केन्द्रित बहस एवं चर्चाओं को एक मंच दिया था। चकमक को अब भी कई ऐसे बड़े लोग पढ़ते हैं जो दिन भर बहुत व्यस्त रहते हैं। इसकी सरल भाषा और पठनीयता की कसौटी के आधार पर ही यह एक सफल पत्रिका बनने में समर्थ हुआ है।

साहित्य किसी का भी हो बच्चों का या बड़ों का उसे पल्लवित व पुष्पित करने में सबसे महत्वपूर्ण और सार्थक भूमिका समकालीन पत्र-पत्रिकाओं द्वारा निभाई जाती है। इन पत्रिकाओं की एक मूल विशेषता यह रही कि एक तो इनकी पहुँच विशिष्ट वर्ग से लेकर जनसाधारण तक समान रूप से होती है, दूसरे ये पाठकों की मानसिकता को दिशा देने का काम भी करती हैं। यही कारण है कि विश्व साहित्य की अनेक अनमोल कृतियाँ पुस्तकाकार रूप लेने से पहले पत्र-पत्रिकाओं में धारावाहिक रूप में प्रकाशित होकर ख्याति अर्जित कर चुकी हैं। प्रारंभिक अवस्था में भले ही इन बाल पत्रिकाओं को उतना महत्व न रहा हो किंतु आज इन बाल पत्रिकाओं को न केवल पर्याप्त सम्मान मिल रहा है साथ ही साथ उनकी प्रचार प्रसार की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हुई है। चंदामामा और चंपक जैसी बाल पत्रिकाएँ जब एक दर्जन से भी अधिक भाषाओं में प्रकाशित होकर विक्रय के कीर्तिमान स्थापित कर रही थीं तब उनके समीप कोई अन्य साहित्यिक पत्रिका नजर तक नहीं आती। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि हिंदी बाल पत्रकारिता विकासमान है पर साधन संपन्नता के अभाव में अनेक बाल पत्रिकाएं असमय ही काल कवलित हो जाती है। अतः हिंदी साहित्य में इनका भी जो अतुलनीय योगदान रहा हैं इसलिए यह जरूरी है कि इनके बचाव के विषय में अब हम सभी गंभीर से सोचे।

संदर्भः
  1. पत्रिकाओं की घटती प्रहार संख्या बह्यानंद: प्रांकुर नवम्बर 1999
  2. राष्ट्रीय सहारा, नंवबर, 1992
  3. भारतीय बाल साहित्य के विविध आयाम (हिन्दी बाल साहित्य के विकास में बात पत्रिकाओं का योगदान - डॉ. सुरेन्द्र विक्रम
  4. भारतीय बाल साहित्य के विविध आयाम (हिन्दी बाल साहित्य के विकास में बाल पत्रिकाबों का योगदान - डॉ. सुरेन्द्र विक्रम), पृ. 265
  5. तदैव, पृ. 266
  6. बाल पत्रकारिता: डॉ. ओमप्रकाश सिंहल, पृ. 108
  7. व्यवसाय बनती बाल पत्रकारिता अपर्णा खरे, नई दुनिया 28 जनवरी 1999
  8. वहीं,
  9. हिंदी बाल साहित्य डॉ. ओमप्रकाश सिंहल, पृ. 111

कुसुम कुंज मालाकार
विभागाध्यक्ष एवं सहयोगी प्राध्यापक, हिंदी विभाग, कॉटन विश्वविद्यालय

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

Post a Comment

और नया पुराने