बचपन के साथ हमारी जिम्मेदारी कितनी महत्त्वपूर्ण होती है इसे मुंशी प्रेमचंद ने रेखांकित किया है कि “जिन्दगी की वह उम्र जब इंसान को मुहब्बत की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, बचपन है। उस वक्त पौदे को तरी मिल जाय तो जिन्दगी भर के लिए उसकी जड़ें मजबूत हो जाती हैं। उस वक्त खुराक न पाकर उसकी जिन्दगी खुश्क हो जाती है। मेरी माँ का उसी ज़माने में देहान्त हुआ और तब से मेरी रूह को खुराक नहीं मिली। वही भूख मेरी जिन्दगी है। कर्मभूमि उपन्यास के अमरकांत का यह कथन प्रेमचंद के उस नजरिये को बयां करता है जिसमें वे बचपन को उसके सहज रूप में देखने की बात करते हैं। ईदगाह, गुल्ली-डंडा, बड़े भाई साहब, दूध का दाम आदि अनेक कहानियों में बचपन का जो सन्दर्भ आता है वह हमारी उन अवधारणाओं को तोड़ने वाला है जिसमें हम बच्चे की अस्मिता को स्वीकार ही नहीं करते। बाल साहित्य चूँकि आयुवर्ग के आधार पर मुख्यधारा की रचनाशीलता से अलग परिभाषित किया जाता है इसलिए बाल साहित्य में मनोविज्ञान और सामाजिक संवेदनशीलता की दुहरी जिम्मेदारी का निर्वहन जरूरी हो जाता है। हिंदी बाल साहित्य पर विचार करते हुए अगर हम भारतीय समाज को देंखें तो पता चलता है कि भारतीय समाज में बचपन की अस्मिता को स्वीकारने की अवधारणा लंबे समय तक बन ही नहीं पायी। बचपन की जगह यहाँ शिशु की अवधारणा है या फिर वयस्क की। बचपन को भारतीय समाज में वयस्क होने की कल्पना के साथ जोड़कर देखे जाने की परम्परा रही है। यह बात भारतीय लोक स्वभाव का हिस्सा बनकर उपस्थित होती है। लोक में गाये जाने वाले गीतों में ज्यादातर या तो विरह के गीत हैं या विभिन्न संस्कारों के अवसर पर गाये जाने वाले गीत। शिशु के जन्म पर गाया जाने वाला मांगलिक गीत सोहर भी इसी तरह का एक सामूहिक गीत है। इन गीतों में लोक की तमाम विशेषताओं के बावजूद बचपन की स्वाभाविकता के बजाय ‘शिशु’ और ‘वयस्क’ की चर्चा ही ज्यादा मिलती है।
अभी तक भारतीय समाज में बचपन की अस्मिता को स्वीकारने के बजाय उसे वयस्क होने की तैयारी के रूप में देखा जाता रहा है। आज भी बच्चे को बचपन में घर के बड़ों द्वारा यह तय कर दिया जाता है कि वह बड़ा होकर क्या बनेगा। इसी का असर है कि कहीं-कहीं तो नामकरण भी पद के अनुसार हुआ करता है। जैसे- कलेक्टर, डाक्टर, साहेब, दरोगा आदि। यह कहना पूरी तरह सही नहीं है कि ‘हम बच्चों को बच्चा बनकर ही समझ सकते हैं’, या फिर ‘बच्चों से जुड़ने के लिए बच्चे की तरह गतिविधियाँ करनी चाहिए’। सच तो यह है कि हम चाहकर भी न तो बच्चा बन सकते हैं और न ही कोई बच्चा इस तरह हमें अपनी दुनिया का सहयात्री मानने को तैयार ही होगा। बाल मनोविज्ञान में अब गुंजाइश इस बात कि बचती है कि सबसे पहले हम जो हैं (उमर में भी और अनुभव में भी) अपने को वही मान लें और उसी के अनुसार बच्चों के साथ अपने व्यवहार को तय करें। सच्चाई तो यह है कि हम नहीं भी मानेगें तो भी बच्चे जानते हैं कि हम कौन हैं? और उन्हें आपके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? बाल साहित्य का लेखन इस रूप में एक बेहद जिम्मेदारी और जवाबदेही भरा कार्य होता है। जिसके जरिये उनके अंदर कल्पनाओं की समूची दुनिया खोल दी जाती है। बच्चे के जीवन में भाषा और समाज की तमाम अवधारणाओं को आकार देने में इस तरह के साहित्य का बेहतरीन प्रयोग किया जा सकता है। आज के व्यस्त जीवन में जब लोग खुद अपने घर में बच्चे की कोई बात नहीं सुनना चाहते, जरा सोचिये वह व्यक्ति कैसा होगा? जिसकी लिखी चीजों से बच्चे खुद को सहजता से जोड़ पाते होंगें। उसकी रचनाएँ बच्चों की जुबान पर चढ़ जाती हैं। वे उसे गाते हैं। गुनगुनाते हैं। यह कहना गलत न होगा कि उस साहित्य की और उस साहित्यकार की उम्र अपेक्षाकृत ज्यादा होती है जो बच्चों की दुनिया और उनके मनोविज्ञान को साधकर अपनी कहानी और कविताओं को गुनते-बुनते हैं।
बाल साहित्य को समझने से पहले कुछ जरूरी बातें हमें बच्चों के बारे में जान लेना चाहिए। जैसे कि बच्चे मिट्टी का लोदा नहीं होते हैं कि हम जैसा चाहें वैसा उनको बना सकें। अपनी बनी हुई इस परम्परागत धारणा में हमें बदलाव लाना होगा और इस बात में यकीन रखना होगा कि बच्चे अपनी उम्र के लिहाज से उतने ही समझदार होते हैं जितने कि अपनी उम्र के हिसाब से बड़े लोग होते हैं। इसलिए बच्चे भी उतने ही सम्मान के हकदार हैं जितना कि बड़े किसी से भी अपेक्षा करते हैं। बच्चे हरदम यहाँ तक कि वे अपने दोस्तों के साथ खेलने में भी अपनी अस्मिता के प्रति सजग रहते हैं। जिन्हें हम बच्चों के खेल कहते हैं वह दरअसल उनकी श्रम जनित क्रियाएँ हैं जिनके जरिए वे शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर दुनिया में दाख़िल होने की मशक्कत कर रहे होते हैं। वे खेल में गीत-संगीत, सुर, लय सब निर्मित करते हैं और कलाओं की ये संयुक्त क्रियाएं उनकी गतिविधियों का अनिवार्य हिस्सा होती हैं। इन सब सामान्य सी लगती स्थितियों में भी बच्चों की कल्पनाएँ हमसे कई गुना ज्यादा होती हैं: यह बात दूसरी है कि हम अक्सर उनकी कल्पना जनित गतिविधियों को बदमाशियों का नाम दे देते हैं। दुनिया को जानकर ही जीना बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है इसलिए उनकी हर गतिविधि में सवाल होते हैं। हम या तो जीना चाहते हैं या जानना। इसीलिए कभी-कभी बच्चों के सरल से सवाल हमारे लिए परेशानी पैदा करते हैं। दुनियावी चीजों के साथ बच्चों का रिश्ता हमेशा संवाद के क्रम में आगे बढ़ना चाहता है। बच्चा खूब बोलना चाहता है पर अक्सर हम उन्हें चुप रहने की सलाह देते हैं। बाद के जीवन में व्याप्त होने वाली सामूहिक सामाजिक चुप्पी का आरम्भ यहीं से ही होता है। बच्चे बहुत ही जल्दी बड़ों के मनोविज्ञान को पकड़ लेते हैं जबकि बड़े इस मामले में उनसे बहुत पीछे होते हैं। उन्हें बच्चे देर से समझ में आते हैं, और जब समझ में आते हैं तो बच्चे बड़े और बड़े बूढ़े हो चुके होते हैं। जीवन के शुरूआती वषों से ही बच्चे जानते हैं कि कौन सी बात किस वक्त किससे कही जा सकती है। इस मनोविज्ञान को हम अपने परिवार और समाज के बीच व्यवहारित होते हुए देख सकते हैं। इसी तरह पारिवारिक संबंधों के स्तरीकरण को बच्चे बखूबी जानते हैं और उसी के अनुसार बड़ों को अपनी दुनिया के साथ जोड़ते हैं। वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने बचपन की वह उम्र जिसे हम शिशु कहते हैं उसके बारे लिखा है कि “शिशु लोरी के शब्द नहीं, संगीत समझता है। बाद में सीखेगा भाषा, अभी वह अर्थ समझता है। समझता है सबकी मुस्कान, सभी के अल्ले ले ले ले, तुम्हारे वेद पुराण कुरान, अभी वह व्यर्थ समझता है। अभी वह अर्थ समझता है। समझने में उसको, तुम हो कितने असमर्थ, समझता है। बाद में सीखेगा भाषा , उसी से है, जो है आशा।” यह कविता वयस्कता निर्मित चौहद्दी को उजागर करती है और बचपन की धुन को उसके स्वभाव के साथ सुनने की माँग करती है जहाँ शब्द नहीं संगीत और अर्थ ही महत्वपूर्ण हैं।
सामूहिकता का गुण बच्चों में नैसर्गिक ही होता है यही कारण है कि उनको सामूहिक गतिविधियों से ज्यादा लगाव होता है। वह समूह में सहज रहता है, सबसे आगे रहने का भाव उसका स्वाभाविक गुण नहीं होता समाजीकरण के दौरान यह विकसित होता है। जब समाज बच्चों को अपनी खीचीं गयी लकीर से सामाजिक बनाता है तो समूह की सहजता उसे अटपटी लगने लगती है। धीरे-धीरे बड़ों को देखकर वह व्यक्तिपरकता की ओर बढ़ता है। समाज की वह आम धारणा जो अक्सर हम आम बातचीत में सुनते भर ही नहीं बल्कि उस पर जाने-अनजाने अमल भी करते है कि लड़कों को बन्दूक और लड़कियों को गुड़िया जैसे खिलौने पसंद होते हैं। बाल मनोविज्ञान इस तरह के किसी भी लैंगिक विभाजन को ख़ारिज करता है। अब हमें यह मान लेना चाहिए के यह बातें मिथ से ज्यादा कुछ भी नहीं है। मानव विकास का ऐतिहासिक अध्ययन इस बात की गवाही देता है कि रंग और रेखाओं का भी अपना समाजशास्त्र होता है। इसके देशकाल से प्रभावित होकर ही हम बच्चों की दुनिया को प्रभावित करते हैं। आदर्श की कल्पना बुरी चीज नहीं है पर बच्चों के संदर्भ में इस बात को ध्यान में रखना जरूरी होगा कि हम अपने आदर्शों को अनावश्यक और अवैज्ञानिक तरीके से बच्चों में आरोपित न करें। सच बात तो यह है कि आदर्श का जीवन बच्चे कहने से नहीं सीखते बल्कि सामने घटित होती हुई घटनाओं के जरिये सीखते हैं। कहने से बच्चे सिर्फ कहना सीखते हैं। जैसे कि बड़े लोगों ने अपनी पिछली पीढ़ी से कहना ही सीखा है। घर में पिताजी सुबह शाम यह कहते रहें कि झूठ नहीं बोलना चाहिए और किसी का फ़ोन आने पर बच्चे के सामने ही घर से ही यह बताएं कि मैं बाजार में हूँ तो फिर झूठ नहीं बोलना चाहिए के आदर्श वाक्य की ताकत वहीं दम तोड़ देती है और बच्चा इस आदर्श की सीमा घर में ही समझ लेता है। बच्चे अपने परिवेश में अपनी दुनिया तलाशते हैं और विडंबना है कि हम उनका ऐसा परिवेश रचते हैं जिसमें उनकी अपनीं दुनिया ही नहीं होती।
समाज हमेशा एक आदर्श बच्चों के सामने रखता है और उसी आदर्श के इर्द-गिर्द नैतिक शिक्षाओं का ताना-बाना बुनता है। समाज में बचपन के प्रति इसी नजरिये का परिणाम होता है कि हमारे घरों में घर में पालतू के लिए तो उसके अनुसार सुविधाएँ जुटा दी जाती हैं पर बच्चों के लिए करने और कहने को अभी भी सिर्फ नसीहतें होती हैं। बात जब बच्चों की अस्मिता की हो तो हम केवल उनका दाखिला तथाकथित अच्छे स्कूलों में कराकर अपने उस दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते जिसमें एक सम्पूर्ण नागरिक की संभावनाओं की पूरी गुंजाइश होती है। मसलन हम बच्चों से यह तो कहते रहते हैं कि कपड़े इधर-उधर न फैलाओ पर घर में हैंगर की ऊँचाई 5 फिट पर रखेंगें। हम कहेंगें कि पानी इधर-उधर न गिराओ पर बेशिन अपनी लम्बाई के अनुसार लगायेंगें। यही बातें टायलेट के कमोड के साइज से लेकर आलमारी के ताखों की ऊँचाई तक सही है। इतना ही नहीं हम नजरिये को एक मानकता का रूप देते हुए हर चीज को एक तथाकथित स्टैण्डर्ड से जोड़कर रख देते हैं; फिर सबसे उम्मीद करते हैं कि उस स्टैण्डर्ड में फिट हो जाए। जाहिर है बच्चा हमारे इस निर्मित स्टैण्डर्ड से बाहर होता है और हमारी कोशिश हमेशा उसे अपने दायरे में लाने की होती है। बच्चा दिन प्रतिदिन इस तरह की स्टैण्डर्ड के लिए अपने को तैयार करने के क्रम में खुद को भूल जाता है। लब्बोलुआब यह कि घर में बच्चा तो रहता है पर बचपन गायब हो जाता है। यही कारण है कि अपने जीवन के शुरूआती कुछ ही वर्षों में ज्यादातर बच्चे ‘मोनो एक्ट’ की ओर बढ़ जाते हैं। अपने जीवन के शुरूआती वर्षों में वे यह लगभग मान चुके होते हैं कि घर या समाज का पूरा माहौल उन्हें बड़ा बना देने को आमादा है। एक बच्चे के स्वाभाविक विकास को देखना दरअसल मानव सभ्यता के विकास को भी देखना भी है। इसे चाहे शारीरिक विकास के रूप में देखें या फिर भाषिक- सांस्कृतिक विकास के रूप में। पर इतना तो है कि बच्चों की इस सरल सी लगती दुनिया कि जटिलता को समझना इतना भी आसान नहीं है।
बच्चों के बचपन में सीखने-पढ़ने की औपचारिक शुरुआत तो बाद में होती है पर किस्से कहानियों के जरिये उनके अन्दर दुनियावी चीजों की अवधारणाओं के निर्माण की प्रक्रिया स्कूल से काफी पहले ही शुरू हो जाती है। स्कूल से पहले के इन दिनों में बच्चे एक अच्छे श्रोता होते हैं और अच्छे वक्ता भी। इस समय जहाँ उनके भीतर हर एक चीज को बारीकी के साथ जान लेने की तलब होती है वहीं अपने को व्यक्त करने की बलवती इच्छा भी। बड़े जब उन्हें नहीं सुनते तो अपने दोस्तों के बीच में वे अपनी तार्किकता की खूब आजमाइश करते हैं। समूह में खेलते हुए बच्चों को कभी गौर से देखिए और इसे महसूस करिए। जीवन के इस महत्त्वपूर्ण काल में उन्हें ‘कुछ भी’ सुनाया और बताया नहीं जाना चाहिए बल्कि इसमें एक चयन का भाव होना चाहिए। संवेदनशीलता, सहयोग और मित्रता जैसे सामाजिक नागरिक होने के गुणों के बीजारोपण का यह काल होता है अतः समाज के लिए यह जिम्मेदारी पूर्ण समय होता है कि वह इस समय अपने आने वाली पीढ़ी को क्या देता है। सभ्यता के विकास में यह कोई नई बात नहीं है। हर समय और समाज इसके लिए अपने को तैयार रखता है। बालमनोविज्ञान के अनुसन्धान इस बात के साक्षी हैं कि जिस समाज और परिवेश में किस्सागोई की लोकप्रियता ज्यादा होती है वहां के बच्चे अपेक्षाकृत ज्यादा कल्पनाशील और भाषाई रूप से ज्यादा रचनात्मक और समृद्ध हुआ करते हैं। आज के समय में उपर्युक्त चुनौतियों को समझकर ही बाल साहित्य की रचनाशीलता की दिशा तय करनी होगी। आज हमें ऐसे बाल साहित्य की रचनाशीलता को रेखांकित करना होगा जिसमें समाजिक सांस्कृतिक स्टीरियोटाइप से अलग हटाकर कल्पना और तार्किकता की दुनिया खुलती हो।
बचपन को लीला के रूप में समझना और बच्चे के मनोविज्ञान को समझना दोनों अलग बातें हैं। यही कारण है कि बाललीला वर्णन को अपनी तमाम साहित्यिकता और रूपबंध की अनेक मोहक शैलियों के बावजूद बाललीला वर्णन को बाल साहित्य का हिस्सा नहीं माना जा सकता बाकी उसे आप चाहे जो मान लें। लीला में हमेशा इस बात का भान बना रहता है कि जो बच्चा लीला कर रहा है वह ईश्वर का रूप अथवा प्रतीक है। सूरदास और तुलसीदास या रसखान के बाललीला वर्णन के पदों को बाल साहित्य कहने से बचना चाहिए। उनकी रचनाशीलता का उद्देश्य ही दूसरा है। आज एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में हमें यह समझना होगा कि बचपन की अपनी स्वतंत्र अस्मिता होती है और बच्चों की तमाम गतिविधियों को इस पूरी गरिमा के साथ डीकोड करना होगा। अच्छा बाल साहित्य यह कार्य करता है। निरंकारदेव सेवक की यह मान्यता ठीक है कि ‘अच्छे बाल साहित्य का अर्थ इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है कि वह बच्चों के मनोभावों, जिज्ञासाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो, जो बच्चों का मनोरंजन कर सके और मनोरंजन भी वह जो स्वस्थ और स्वाभाविक हो, जो बच्चों को बड़ों जैसा बनाने के लिए नहीं, अपने अनुसार बनने में सहायक होने के लिए रचा गया हो। ’
बाल साहित्य की विविध विधाओं की रचनाशीलता को जानना समझना अपनी परम्परा में बचपन को देखने की दृष्टि को समझना है। बाल साहित्य के लिखने और पढ़ने की संस्कृति का संबंध साक्षरता और प्रेस के अविष्कार से जुड़ता है। लोक में बच्चों के लिए किस्सों, कहानियों और गीतों की परंपरा इसके पहले की है। सामुदायिक जीवन में बच्चों की देखभाल के क्रम में इन चीजों का विकास हुआ। धर्म जिस तरह और चीजों की नैतिकता को तय करता था। साहित्य की रचनाशीलता को भी उसने प्रभावित किया। बाल साहित्य आलोचक ओम प्रकाश कश्यप ने इस ऐतिहासिक यात्रा को सही ही रेखांकित किया है “उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के संधिकल में, जब हिंदी में बाल साहित्य लेखन की शुरुआत हुई, देश में कई राजनितिक, सामाजिक एवं अस्मितावादी आन्दोलन उफान पर थे। समाज का एक वर्ग धार्मिक पुनरुत्थान की कोशिशों में लगा था। बुद्धिजीविओं का मानना था कि श्रेष्ठ नागरिक बनने के लिए बालक का संस्कारवान होना आवश्यक है। इसके लिए धर्म और धार्मिक अनुज्ञाओं पर विश्वास तथा उनका अनुकरण अपरिहार्य है। धर्म को नैतिकता का एकमात्र स्रोत माना जाता था। इसलिए पुराणों, उपनिषदों, महाकाव्यों और उनके प्रभाव में लोक में रची-बसी कहानियों का बालोपयोगी साहित्य में बोलबाला था। लड़कियों के लिए सीता, सावित्री, अनसूया जैसी स्त्रियों को आदर्श के रूप में पेश किया जाता था। जो उन्हें पितृसत्तात्मक समज के साथ अनुकूलन करना सिखाता था। अपनी आत्मकथा में गाँधी ने ‘सत्य हरिश्चंद्र’ से प्रेरणा लेने के बारे में लिखा था। जाहिर है इसलिए उसे भी कहानी या नाटक के रूप में पढ़ने का चलन था। समानता, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और विश्व-बन्धुत्व जैसे आधुनिक मूल्यों का तब कोई महत्त्व न था। समाज में भीषण आर्थिक असमानता थी। लोग जातियों के आधार पर बुरी तरह विभाजित थे मगर बाल साहित्य और अध्ययन-अध्यापन की पुस्तकों से वह सब नदारद था। पुरातन को श्रेष्ठतम मानने वाली उस व्यवस्था में नएपन के लिए बहुत कम गुंजाइश थी। ” कमोवेश देश की आजादी के समय तक चरित्र निर्माण की चिंता ही बाल साहित्य के केंद्र में बनी रही। इस रूप में आजादी के आन्दोलन के समय जो बाल कविताएँ अथवा बाल कहानियाँ लिखी जा रही थी उसका प्रभाव बच्चों के मानस पर लंबे समय तक बना रहा। हिंदी के अधिकांश लेखकों और कवियों ने बच्चों के लिए लिखा है। मुंशी प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ सुभद्रा कुमारी चौहान, सोहन लाल द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी की कहानियां और कविताएँ इसका उदाहरण हैं।
आज नयी सदी की चुनैतियों के क्रम में देंखें तो हिंदी बाल साहित्य की भरी पूरी दुनिया हमारे सामने उपस्थित है। बच्चों के मनोविज्ञान और उनके परिवेश को ध्यान में रखकर रचनाएँ लिखी जा रही हैं। आज बाल साहित्य की कसौटियां बदल रही हैं। हिंदी साहित्य की मुख्यधारा का रचनाकार भी बच्चों की दुनिया को लेकर न केवल सचेत है बल्कि ओम प्रकाश कश्यप के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि “आज एक अच्छे बाल साहित्य की पहली शर्त यह है उसे सरल-सुबोध भाषा में रचा जाए। ऐसी भाषा जिसे 7 से 17 वर्ष का बालक भी आसानी से समझ सके। शैली ऐसी होनी चाहिए जो पाठक के साथ संवाद करती हो। जिससे रचना पढने के साथ ही साथ सुनने का भी आनंद दे। छोटा बच्चा जिज्ञासु होता है। बाल साहित्य के लिए सिर्फ़ इतना पर्याप्त नहीं है कि बच्चे की जिज्ञासा का समाधान करे। यह साहित्य का एक महज एक गुण है। अच्छा बाल साहित्य बच्चे की प्रश्नाकुलता को बढ़ाता है। उसे अपने तथा अपने परिवेश के बारे में सवाल उठाने को उत्प्रेरित करता है। इसके साथ -साथ मनोरंजन प्रधान होना भी बाल साहित्य की अनिवार्यता है। ” हिंदी का बाल साहित्य अपनी परंपरा में तो समृद्ध है ही और आज भी खूब लिखा जा रहा है। बाल साहित्यकार प्रकाश मनु, दिविक रमेश, देवेंद्र मेवाड़ी, पंकज चतुर्वेदी, प्रभात, सुशील शुक्ल, मनोहर चमोली, क्षमा शर्मा की रचनाएँ आज भी बच्चों में खूब लोकप्रिय हैं।
बाल साहित्य आलोचना का क्षेत्र लगभग खाली है। हिंदी की मुख्यधारा की आलोचना ने बाल साहित्य को कोई खास महत्व नहीं दिया। यही कारण है कि जीवन की स्मृतियों में सर्वाधिक टिकाऊ साहित्य हिंदी आलोचना में कहीं नहीं दिखायी पड़ता है। प्रस्तुत विशेषांक बाल साहित्य लेखन की समृद्ध परम्परा को समझते हुए आज के परिवेश में बच्चों के लिए लिखे जाने वाले साहित्य के समक्ष आने वाली चुनौतियों को जानने समझने का एक विनम्र प्रयास है। सूचना क्रान्ति और टेक्नोलॉजी के इस समय में साहित्य को पढ़ने-समझने और बच्चों के बदलते मानसिक स्तर के अनुसार बाल साहित्य की रचनाशीलता पर विचार करना लक्ष्य इस विशेषांक की परिकल्पना में शामिल था। बाल साहित्य के अध्ययन-अध्यापन और साहित्य के नए विमर्शों के साथ उसके बनते रिश्ते को समझने की कोशिश भी इसी रूप में की गयी है। ‘शब्दों की दुनिया में बचपन की धुन’ को सुनने-समझने की यह एक शुरुआत भर है। इसमें लिखने वाले अधिकांश लेखक साहित्यकार उच्च शिक्षा से जुड़े हुए हैं। यह उम्मीद रखना होगा कि भविष्य में इस तरह से विचार-विमर्श के साथ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी बालसाहित्य के अध्ययन की प्रविधि की खोज भी संभव हो सकेगी। जहाँ से बाल साहित्य को पढ़ने-रचने के कुछ आलोचनात्मक सूत्र भी विकसित होंगे।
पत्रिका में प्रकाशित आलेखों पर संपादकीय टिप्पणी से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि आप स्वयं इन आलेखों के बारे में स्वयं अपनी राय बनाएं। ‘बाल साहित्य संदर्भ’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित आलेख बाल साहित्य की वर्तमान स्थितियों और बाल साहित्य के विविधताओं से भरे संसार से हमें परिचित कराते हैं। ‘बाल साहित्य संवाद’ के अंतर्गत वरिष्ठ बाल साहित्यकार प्रकाश मनु से विकास दवे की बातचीत बाल साहित्य की व्यापक दुनिया से हमें जोड़ती ही है साथ में प्रकाश मनु के रचनात्मक व्यक्तित्व से भी हम यहाँ मिलते हैं। ‘स्कूली शिक्षा में बाल साहित्य’ की परख करते दो आलेख बच्चों के स्कूली परिवेश में बाल साहित्य की विवेचना करते हैं। साहित्य लेखन से पहले लोक की भावभूमि पर उपस्थित रहता है। ‘लोक के रस में बचपन’ के अंतर्गत जयपुरी और भोजपुरी बाल लोकगीतों को समझने की कोशिश है। हिंदी के साथ ही साथ हिंदी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओँ के बाल साहित्य पर चर्चा का कालम है -‘हिंदीतर भारतीय भाषाओँ का बाल साहित्य’। जिसमें भारतीय बाल साहित्य की कविताओं के संदर्भ के साथ ही साथ तमिल, तेलगू, ओड़िया और रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाल साहित्य पर लिखे गये आलेख संकलित हैं। बचपन की वह दुनिया जो हमारे पास रहती हुई भी हमारी दृष्टि के केंद्र के बाहर छूट जाती है। ‘बचपन के अलक्षित संदर्भ’ के अंतर्गत लिखे गये आलेख हमें उस बेहद जरूरी दृश्य के पास ले जाते हैं। जहाँ बचपन विषमताओं की तकलीफदेह दुनिया के साथ आकार पाता है। बाल पत्रकारिता के संदर्भ को समझने में ‘बाल पत्रकारिता’ पर लिखे गए आलेख महत्त्वपूर्ण हैं। हिंदी साहित्य की मुख्यधारा के रचनाकारों ने बाल साहित्य पर क्या कुछ लिखा है इसकी चर्चा ‘हिंदी साहित्य में बचपन के प्रसंग’ में संकलित है। देशान्तर के अंतर्गत कोशिश यह रही है कि विदेशी भाषा के बाल साहित्य पर भी कुछ बातचीत हो। स्पेनिश, जर्मन और रूसी साहित्य पर लिखे गए आलेख विदेशी भाषाओँ के बाल साहित्य की प्रवृत्तियों को समझने में सहायक हैं। ‘बाल साहित्य: विविध प्रसंग’ के अंतर्गत बाल साहित्य के साथ जुड़ती दूसरी विधाओं के आपसी रिश्तों को जोड़कर देखा गया है। सिनेमा, कार्टून, चित्रकला आदि के साथ बचपन कैसे अपने संगीत का निर्माण करता है। ऊर्दू गज़ल और संस्कृत साहित्य में बचपन के संदर्भ को खोजते आलेख यहाँ संकलित हैं। पुस्तकों की समीक्षाओं के जरिए हम बाल साहित्य को देखने समझने की आलोचकीय शैली को समझ सकते हैं। अलग-अलग विधाओं और माध्यमों के प्रभाव के साथ बच्चों के जीवन में खुशियों की विविधता किस तरह रंग लाती है। इसके परख के सूत्र भी यहं उपस्थित हैं।
वरिष्ठ साहित्यकार प्रकाश मनु जी ने बाल साहित्य इतिहास के लेखन के जरिए बाल साहित्य की दुनिया में स्थायी महत्त्व की रचनाशीलता को संकलित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने इस विशेषांक के लिए अपने साक्षात्कार के प्रकाशन की अनुमति दी और साथ में आवश्यक सुझाव भी दिए। सर्वश्री पंकज चतुर्वेदी, मनोहर चमोली, खजान सिंह, ओमप्रकाश कश्यप, प्रभात, प्रवीण शेखर, अनमिका यादव, अपर्णा चौधरी, डॉ. जनार्दन, डॉ. राजू गाजुला, चंद्रकांत सिंह, प्रवीण कुमार, जीतेंद्र थदानी, पी. कुमार मंगलम, शुभम मिश्र, मोतीलाल, राजीव रंजन प्रसाद, वेद मित्र शुक्ल, संगीता मौर्य, निरंजन कुमार , कोमल यादव, पारस सैनी, अरविंद शर्मा, आदित्य त्रिपाठी और रितेश वर्मा के साथ ही साथ बड़ी संख्या में पूरे भारत से साहित्यकारों और शोधार्थियों ने बाल साहित्य में अपनी अभिरुचि प्रकट करते हुए इस विशेषांक के लिए महत्त्वपूर्ण आलेख उपलब्ध कराए। हम इस रचनात्मक सहयोग के लिए सबके आभारी हैं।
पत्रिका का कार्य सहयोगी प्रयास से संभव हो पाता है। संकलन से लेकर प्रूफरीडिंग तक में एक टीमवर्क के रूप में अंकित कुमार मौर्य, कोमल यादव, आदित्य त्रिपाठी और पारस सैनी ने सहयोग दिया। चंद्रकांत यादव और आरती तो इस अंक के संपादन सहयोगी ही हैं। बिना इनके सहयोग के यह कार्य संभव नहीं था। अपने इन सभी विद्यार्थियों के सहयोग के लिए आभारी हूँ। इस विशेषांक को इस रूप में लाने के लिए अर्जुन, गुणवंत और राम रतन का आभार। विश्वविद्यालय के साथी डॉ. संदीप मेघवाल का धन्यवाद कि उन्होंने इस विशेषांक का कवर डिज़ाइन किया। अपनी माटी पत्रिका के संपादक श्री माणिक और जीतेन्द्र यादव का विशेष धन्यवाद। इन लोगों ने इस विषय में न सिर्फ़ रूचि दिखाई बल्कि उचित समय पर सचेत भी किया। मुझे भी पता चला कि संपादक का कार्य कितना महत्त्वपूर्ण और कठिन होता है। इस यात्रा में सहभागी बनने के लिए आप सबका बहुत शुक्रिया। आपके मूल्यवान सुझावों का सदैव इंतजार रहेगा।
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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