शोध आलेख : लौह धात्विकी और पूर्व मध्यकालीन उत्तरी भारत का समाज / नैरंजना श्रीवास्तव

लौह धात्विकी और पूर्व मध्यकालीन उत्तरी भारत का समाज
- नैरंजना श्रीवास्तव

शोध सार : विश्व की अन्य संस्कृतियों के ही समान भारत में भी नगरीय जीवन और धातु एवं धातु-कर्म की स्थिति के बीच अन्योन्याश्रित संबंध रहा है। सभी धातुओं में जिस धातु ने प्रारंभ से ही संस्कृतियों की विकास यात्रा का संचालन किया है वह है लोहा अथवा 'लौह'। लौह धातु युद्ध और शांति दोनों कालों में आधारभूत सामर्थ्य का निर्माण करती है जिसके कारण समाजों की निर्णायक प्रगति संभव है। जीवन के सभी क्षेत्रों में मनुष्य को लोहे की आवश्यकता होती रही चाहे वह सेनानी हो या संत, गृहस्थ हो या कृषक, वैद्य हो या व्यापारी। उल्लेखनीय है कि जहां एक और लौह धात्विकी ने नगरीकरण की प्रक्रिया को द्रुततर किया वहीं नगरीय ढांचे का विखंडन इसके तकनीकी और कौशल ज्ञान के लिए सांघातिक सिद्ध हुआ। इस दृष्टि से पूर्व मध्यकालीन भारतीय समाज, प्राचीन इतिहास और संस्कृति के अध्ययन के लिए किसी 'प्रयोग-काल' से कम नहीं जिसे गुप्तों के स्वर्ण युग का सर्वाधिक आतप झेलना पड़ा है। यह सामान्य धारणा है कि गुप्त काल के बाद परिवर्तित राजनैतिक परिदृश्य में भारतीय उत्पाद अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप न रह सकने के कारण अंतरराष्ट्रीय व्यापार से बाहर हो गए और भारत में एक नए दौर की 'बंद अर्थव्यवस्था' या हीनतर सामंती संस्कृति का सूत्रपात हुआ। किंतु वस्तुतः ऐसी किसी भी धारणा के प्रति अतिशय सावधानी अपेक्षित है क्योंकि पूर्व मध्यकालीन संस्कृति के तत्त्व धातु-धातुकर्म की समुन्नत स्थिति का चित्र प्रस्तुत करते हैं जिसके आलोक में तत्कालीन समाज और संस्कृति की पुनर्व्याख्या की आवश्यकता है।

बीज शब्द : पूर्व मध्यकाल, धातुकर्म, कलासाक्ष्य, तकनीक, संस्कृति, समाज, नगरीकरण, आयुध, क्षेत्रीयता, श्रेणी, अर्थव्यवस्था।

मूल आलेख : लौह धातु तकनीक में गुप्त काल से ही शास्त्रीय सिद्धि प्राप्त हो चुकी थी जिसके घनत्व में पूर्व-मध्यकालीन सांस्कृतिक आवश्यकताओं ने उल्लेखनीय वृद्धि की। इस (प्रतीहार तथा प्रतीहारोत्तर) युग के पुरातात्विक, साहित्यिक और कलागत साक्ष्यों से तत्युगीन लौह धातु कर्म की समुन्नत स्थिति का सहज अनुमान होता है। धात्विकी के इतिहास की दृष्टि से मेहरौली का लौह स्तंभ कोंडाचारी, आबू, तंगीनाथ और धार के ठोस लोह स्तंभ तथा त्रिशूल अत्यंत महत्त्व के हैं। उत्बी ने तारीख-ए- यामीनी में लिखा है कि मथुरा में लगभग 1000 घर हैं जिनसे संलग्न मंदिरों को ऊपर से नीचे लोहे की कीलों से दृढ़ता प्रदान की गई है।(बी.पी. मजूमदार: 1987, पृष्ठ 141) किंतु भारतीय लौहकार उसे प्राचीन समय में मात्र खूंटी तथा कीलों के निर्माण में ही निपुण नहीं थे बल्कि वह उपरोल्लिखित स्तंभों के साथ-साथ उन भारी भरकम धरनों का भी निर्माण कर रहे थे जिन्हें पुरी तथा कोणार्क के मंदिरों से पुराविदों ने प्राप्त किया है। कोणार्क के मंदिर से स्टर्लिंग ने 1824 में 9 धरनों की प्राप्ति सूचित की जबकि ग्रेव्स के अनुसार इनकी संख्या 29 थी। डॉ.आर.एल.मित्रा ने इन बीमों की लंबाई 21 फीट और औसत अनुप्रस्थ काट 8 ×10 इंच बताई थी जबकि ग्रेव्स के अनुसार यह 35 फीट लंबी तथा 7 से 7.5 इंच की चौकोर काट वाली है। इनका वजन 6000 आई.बी.एस. मापा गया है। पुरी के 1174 ईस्वी में निर्मित गुंडुचबरी के मंदिर से कुल 239 बीमें प्राप्त हुईं जिनकी लंबाई 17 फीट और मोटाई 6 इंच × 4 इंच अथवा 5 इंच × 6 इंच थी। उस प्राचीन काल की इस महती तकनीकी उपलब्धि के अध्ययन से न मात्र इन उपादानों की उत्तम गढ़न, वरन् निर्माण तकनीक की भी निपुणता का अंदाजा लगाया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि मेहरौली लौह स्तंभ की रासायनिक बनावट तथा उड़ीसा से प्राप्त बीमों की रासायनिक बनावट में अद्भुत समानता है। दोनों ही पिटवाँ लौह से बनी हैं। इन बीमों को लोहे के ब्लूम को हथौड़े के प्रहार से आपस में जोड़कर बनाते थे। इसी विधि का प्रयोग धारा के लौह स्तंभ के निर्माण में भी दिखता है। भानु प्रकाश ने इस स्तंभ के अपने अध्ययन में पाया (पुरातत्त्व संख्या 18, 1987-88, पृष्ठ 118-122) कि संभवत उज्जैन की बड़ी आकार की लौह प्रगलन भट्ठी में 700 से 850 मिमी. आकार के चौकोर धातु खंड पिटवाँ तकनीक से बनाकर मांडू अथवा किसी समीपस्थ स्थान पर भेज दिए जाते थे जहां इनका अंतिम परिष्कार किया जाता था। यहाँ चौकोर खंडों के मध्य 40 से 60 मिमी. व्यास के छेद किए जाते थे जिसके लिए यह चौकोर टुकड़े रक्तिम गर्म करते थे उसके बाद इन 700 से 850 मिमी. आकार के लंबे खंडों को लौह कीलों के माध्यम से हथौड़ों के प्रहार से आपस में जोड़ देते थे। संभवत इस प्रकार के टुकड़ों को जोड़कर बनाए गए लंबे स्तंभ को इसके बाद भूमि पर लिटाकर पीटते हुए निर्णायक रूप से तैयार किया जाता था। यह उदाहरण न मात्र प्राचीन धातुकारों के धातु संबंधी विकसित ज्ञान का वरन् धातु शालाओं की उच्च निर्माण क्षमता का भी परिचायक है।

नवीं-दसवीं शताब्दी ईस्वीं के अरब लेखकों ने भारत के समृद्ध धातु उद्योग का बहुशः वर्णन किया है। अभिधान रत्न माला, अभिधान चिंतामणि जैसे समकालीन शब्दकोषों में भी लौह, इस्पात, सीसा, रंगा, चांदी तथा स्वर्ण धातुओं का उल्लेख मिलता है। देश के विभिन्न हिस्सों में इनके निर्माण के विशेषज्ञतापूर्ण केंद्र भी बन गए थे। राजनैतिक दृष्टि से यह समय अत्यधिक घटनाक्रमों वाला दौर था जबकि देशी और विदेशी राज्यों के साथ निरंतर होने वाले संघर्षों के कारण आयुध निर्माण के प्रति विशेष रुचि तथा सक्रियता प्रदर्शित की जाने लगी थी। ज्ञात उदाहरणों से इस समय यद्यपि अस्त्र-शस्त्रों के नवीन प्रकारों का प्रचलन तो नहीं दिखता परंतु संख्या की दृष्टि से इनमें अवश्य ही तेजी का दौर रहा। बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश तथा कर्नाटक से प्राप्त लौह का विदेशों में निर्यात किया जा रहा था तथा साथ ही समस्त विश्व में लोकप्रिय भारतीय तलवारों के कुछ विशिष्ट निर्माण केंद्र भी बन चुके थे जो गंगा घाटी में बनारस, अंग, मगध, विदेह; पूर्व में वंग, कलिंग; पश्चिम में शूर्पारक, सौराष्ट्र के अतिरिक्त ऋषिक, मध्यमग्राम, सहग्राम और चेदिदेश में स्थित थे। अग्नि पुराण (अध्याय 245/ 21-22) में खटीखट्टर, ऋषिक, शूर्पारक, वंग और अंग इन पांच केंद्रों की चर्चा की गई है जहां तलवारों का निर्माण किया जा रहा था तथा शारंगधर पद्धति में इनके अतिरिक्त विदेही, मध्यम ग्राम, चेदिदेश तथा सहग्राम एवं कालिंजर का उल्लेख मिलता है। गंगा घाटी की खड्ग-निर्माता आयुध शालाओं में बिहार के उत्तम कोटि के अयस्क भंडार का प्रयोग किया जाता रहा होगा जबकि कलिंग और मध्य भारत को स्थानीय रूप से प्राप्त बढ़िया लौह अयस्क की निर्बाध आपूर्ति होती रही होगी। इब्न हौकल ने सिंध के देवल को तलवार निर्माण का प्रसिद्ध केंद्र बताया है जहां संभवत हिंदुकुश और काबुल की लौह खानें धातु का उत्तम स्रोत रही होंगी।(जे.एन. सरकार:1984, पृष्ठ 118) कच्छ के कुरीज में भी उत्तम प्रकार की तलवारें बनाई जाती थीं।(इंडियन जर्नल ऑफ़ हिस्ट्री ऑफ़ साइंस, 2007, पृष्ठ 419) इससे प्रकट होता है कि इस समय देश में तलवारों की माँग में अच्छी वृद्धि हो चुकी थी। आयुध निर्माण की आधारभूत धातु लोहा थी जिसे तकनीकी उन्नयन के साथ अधिकाधिक उपयोगी और युद्ध में अत्यंत प्रभावी बनाया गया। अग्नि पुराण, युक्ति कल्पतरु तथा शारंगधर पद्धति में उनके केन्द्रों का नामोल्लेख हुआ है जो तलवार निर्माण के लिए प्रसिद्ध थे। न सिर्फ देशी ग्रंथ बल्कि चाउ जु क्वा, (व्हिट लेवी:1959, पृष्ठ 117) अलबरूनी तथा उत्बी और निजामी जैसे विदेशी यात्रा-साहित्यकारों ने भी उत्तर भारतीय तलवारों की महिमा का गान किया है। पुरातात्विक उत्खननों में तलवारों, भालाग्रों, बाणाग्रों, तथा चाकुओं की प्राप्ति हुई है जिनकी अधिक संख्या इस तथ्य से सहमति रखती है कि न सिर्फ राजपूत पुरुष वरन् स्त्रियां भी युद्ध को तत्पर रहती थीं। अतः माँग के अनुरूप ही शस्त्र उद्योग ने शोधों से परिपुष्ट आयुधों का निर्माण किया। इनके निर्माण के विविध केंद्र सम्राट तथा सामंतों की प्रत्यक्ष निगरानी में कार्य करते थे (शुक्रनीति, II, पृष्ठ 196 से 197) तथा यहाँ से निर्मित माल को राज्य की सेवा में ही लगाया जा सकता था इसलिए आयुध निर्माण को शासक वर्ग के मुख्य संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए जिसके इतर वे जनजातीय थीं जिनमें स्थानीय उत्पादन को उनके अपने लोगों में ही खपा दिया जाता था। ये जनजातियां यथा अगरिया, विकास की मुख्य धारा से दूर जंगलों और पर्वतों में निवास करती थीं तथा उनके द्वारा निर्मित मुख्य उपादान तीर-धनुष और बाण आदि होते थे। (सुशील मालती देवी: 1987, पृष्ठ 108) कलासाक्ष्यों में साम्राज्यिक तथा जनजातीय आयुधों का विभेद नहीं मिलता। साथ ही राज्य की लौह-कार्यशाला के उन उत्पादों का विवरण भी नहीं मिलता जो युद्ध के लिए अप्रत्यक्ष रूप से जरूरी होते थे जैसे घोड़े की नाल, कीलें आदि। युद्ध के लिए तत्पर पूर्व मध्यकालीन समाज में इनके माध्यम से लोहारों को बड़े पैमाने पर रोजगार अवश्य ही सुलभ होता थाI

साहित्य और कला में समकालीन लौह उपादान:- यह समय आयुधों के निर्माण में तेजी का था। ऊपर वर्णित विभिन्न आयुध निर्माण कार्यशालाओं से तैयार हथियार समकालीन विभिन्न राजपूत राजाओं की युद्धक आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे थे। राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश से ज्ञात तलवारों के कला-साक्ष्यगत नमूनों में समानता है। इसी प्रकार अन्य अस्त्र-शस्त्र भी यथा, भाले, त्रिशूल, गदा आदि के अंकन में सार्वभौमिकता दिखती है जिससे यह अनुमान किया जा सकता है कि इस काल में आयुधों का निर्माण कुछ निश्चित मानकों के अनुरूप ही हो रहा था। मध्य प्रदेश में धारा के राजा भोज के ग्रंथ युक्ति कल्पतरु में उत्तम तलवार के जिन गुणों का वर्णन किया गया है उनका तथावत् अंकन राजस्थान (हर्षागिरी) के 973 ई. के एक योद्धा फलक में प्राप्त होता है जहां यह तलवार लंबी, भार रहित, तीक्ष्ण, दृढ़ तथा लचीली है।(युक्ति कल्पतरु, 174, VV.59-68) इसी प्रकार इस समय की अतिशिष्ट घुमावदार खड्ग राजस्थान के अतिरिक्त दक्षिणी भारत के शिल्प में प्राप्त होती है। इन दूरस्थ स्थानों से उपलब्ध घुमावदार तलवारों के ये उदाहरण प्रतीहारों के विस्तृत साम्राज्य के अंतर्गत सांस्कृतिक आदान-प्रदान को तो परिलक्षित करते ही हैं साथ ही यह भी संकेत करते हैं कि आयुधों के प्रभावी प्रकारों में क्षेत्रीयता का तत्त्व समाप्त हो रहा था। इस प्रकार की तलवारें कालांतर में राजपूतों द्वारा प्रयुक्त 'सोसुन पट्टाह', गोरखाओं द्वारा प्रयुक्त 'कोरा' तथा असमके 'कचरिया', 'खासी' तथा 'आदि' लोगों की 'दाओ' खड्गों की जननी भी मानी जा सकती है। (जी.एन.पंत:1980, पृष्ठ 52) समकालीन साहित्यिक विवरणों में भी राजाओं को युद्ध में खड्ग का प्रयोग करते हुए वर्णित किया गया है जिसकी निर्णायक भूमिका को दृष्टिगत रखते हुए शारंगधर पद्धति में राजाओं द्वारा इसे अपने शरीर के बराबर महत्त्व देने की अनुशंसा की गई है। (संस्कृतटीका, श्लोक- 468) पूर्व मध्यकालीन कलासाक्ष्यों में साहित्य में वर्णित तलवारों के विभिन्न प्रकारों का शिल्पगत अंकन प्राप्त होता है। इनमें ‘असि धेनुका’ छोटी तलवार, कटार या छुरिका को कहते थे। कलासाक्ष्यों में इसके अनेक प्रकार दिखते हैं जो धातु के पतले पत्र के बने अथवा मध्यरेखा तथा फुलर से भी युक्त हैं। महिषासुर मर्दिनी की मूर्तियों में इन्हें आक्रमण में प्रयुक्त दिखाया गया है। ऐसे वर्णन मिलते हैं कि गुर्जर प्रतीहार सैनिक युद्धों में अपनी धोती से भैंसे की मूठ वाली छुरिका या कटार को छुपाए रहते थे।(जे.एन. सरकार:वहीं, पृष्ठ 124) वुट्ज़ स्टील की बनी भारतीय तलवारें सिकंदर के समय से ही लब्धख्याति हो चुकी थीं। अध्येय काल में चीन तथा भारत में उनकी लोकप्रियता के विषय में समकालीन लेखकों ने लिखा है। इस समय फारस के धनुष, तार्तरी के भाले तथा भारतीय तलवारें पूरे विश्व में प्रसिद्ध थीं। (जे.एन. सरकार, पृष्ठ 113) अरब के बाजारों में भारतीय तलवारें 'अलमुहन्नद' कही जाती थीं जहां ये भारत और यमन से पहुंचती थीं तथा यमन में भी इनका भारत से ही आयात किया जाता था। (मकबूल अहमद: 1969, पृष्ठ 82) मल्लाल नामक एक अरबी कवि ने भारतीय तलवारों को अत्यंत तीक्ष्ण वर्णित किया है। (जर्नल ऑफ़ द बॉम्बे ब्रांच ऑफ द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, बॉम्बे,XIV, पृष्ठ 240) तलवारों के अनेक प्रकार जैसे निस्त्रिंश, मंडलाग्र, कमल पत्र जैसी तलवारें, कुल्हाड़ी जैसी तलवारें, हलाकार और घुमावदार तलवारें आदि कलासाक्ष्यों में भी अंकित प्राप्त होती हैं। ये भेदक, कर्तक और प्रहार कर खंडित करने वाली हैं जिन्हें सार्वभौमिक रूप से राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के शैल्पिक नमूनों में देखा जा सकता है।

समकालीन युद्धों में भालों का प्रयोग घुड़सवारों, हाथी सवारों और पैदल सैनिकों के द्वारा विशेष रूप से किया जाता था। उत्बी ने ब्राह्मणपाल की सेवा में नील भालों का प्रचलन उद्धृत किया है। (इलियट व डाउसन: 1964, वॉल्यूम 2, पृष्ठ 33) समकालीन कलासाक्ष्यों में भी भालों का अंकन प्राप्त होता है जो दंड की लंबाई तथा फाल की आकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के होते थे। कुन्त और भिंदिपाल जैसे भालों का दंड भाग भी लौह-निर्मित होता था। देवाकृतियों के साथ प्रदर्शित त्रिशूलों के वास्तविक प्रयोग को लेकर बहुधा शंकाएं प्रकट की गई है किंतु उनके कलागत नमूनों में विविधता दर्शनीय है और ब्लेड पर अंकित फुलर तथा मध्य रेखा को इस आयुध के वास्तविक धार्मिक प्रयोग के प्रति मूर्तिकार की चैतन्यता का प्रतीक माना जा सकता है। प्रतीहार और चंदेल नमूनों की तुलना में कलचुरियों के शिल्प में अंकित त्रिशूल कुछ विकसित प्रकार के हैं। हमें कलासाक्ष्यों में गदा के भी अनेक अंकन मिलते हैं जो साहित्य में वर्णित इनके प्रकारों से सामने रखते हैं। उत्खनन में चन्हूदड़ो से कांस्य निर्मित गदाशीर्ष की प्राप्ति हुई है जो सैंधव संस्कृति के अंतिम चरण से संबंध है।(जी.एन.पंत:1980,वॉ.II, पृष्ठ 24) अग्निपुराण में गदा युद्ध में गदा के एक ही प्रहार से शत्रु के नाश की बात कही गई है(अग्निपुराण, पृष्ठ 1180, अध्याय 251) इससे प्रतीत होता है कि इस आयुध का कलागत अंकन और उसके विभिन्न प्रकार वास्तविक प्रयोग को परिलक्षित करते हैं। सैन्य उद्देश्यों से परशु के प्रयोग की जानकारी ह्वेनसांग ने दी है जिसके अनुसार सातवीं शताब्दी ईस्वी के योद्धाओं द्वारा अस्त्र-शस्त्रों के साथ-साथ परशु संचालन में भी दक्षता प्राप्त की जाती थी। (सैमुअलबील: 1973, पृष्ठ 83) युद्ध में परशु का प्रहार काटने और फाड़ने के लिए किया जाता था। पूर्व मध्यकालीन शिल्प में अंकित गणेश के आयुध के रूप में परशु के विभिन्न प्रकार इसके निर्माण की विभिन्न तकनीकें प्रदर्शित करते हैं। कलासाक्ष्य में जिन अन्य आयुधों का अंकन प्राप्त होता है उनमें वज्र, चक्र, पाश और धनुष बाण महत्त्वपूर्ण हैं। वज्र को सांकेतिक शस्त्र की तरह अंकित किया गया है। इसी प्रकार चक्र के बहुविध प्रकार हालांकि उनकी कार्यात्मक निपुणता की दृष्टि से उल्लेखनीय है किंतु अध्येय काल में इनका वास्तविक प्रयोग शंकास्पद ही है। हालांकि मुस्लिम काल में चक्र का प्रयोग सिख योद्धाओं द्वारा किया जाता रहा। ऐसा जान पड़ता है कि हिंदू योद्धाओं में सैन्य प्रयोजन से चक्र का अलोकप्रिय होना ही इनके अलंकृत स्वरूपों में सांकेतिक अंकन का कारण रहा होगा। धनुषों को वास्तविक युद्ध में दीर्घकाल तक प्रयुक्त किया गया। पूर्व मध्यकालीन साहित्य के अतिरिक्त कलासाक्ष्यों में भी इस तथ्य का संकेत प्राप्त होता है। इस संदर्भ में रोचक है कि प्राचीन इराक, मिश्र क्रीट, असीरिया, साइबेरिया और तुर्की में प्रचलित मिश्र-धनुष का भारत में अग्नि पुराण से प्रचलन प्रारंभ हुआI (अग्निपुराण, अध्याय 245, श्लोक 4) किंतु इसकी निर्माण लागत के कारण यह बाँस के धनुषों के समान लोकप्रिय न हो सका। (जी. एन. पंत 1980, पृष्ठ 62) समकालीन कलासाक्ष्यों में भी इसका संकेत मिलता है जहां 8वीं से 11वीं शताब्दी इस्वीं के बीच निर्मित धनुषों के उदाहरण में मात्र कुछ ही शिल्पित नमूने मध्यवर्ती भाग में मँठे हुए मिलते हैं। ये मिश्र धनुष स्वर्ण, रजत, ताम्र तथा काले लोहे के बनते थे। दारूमय धनुषों का मध्य भाग लोहे या सींग आदि से मठा जाता था। तरकश तथा इसमें रखे हुए तीरों का अंकन कलासाक्ष्यों में बहुधा मिलता है जो राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के समकालीन शैल्पिक नमूनों में त्रिकोणाकृति अथवा हीरकाकार अग्रभाग वाले बाणों के रूप में दिखते हैंI इन बाणों का पिछला हिस्सा पंखनुमा है। प्रतीहार सैनिकों के दोनों कंधों से लटकते तरकश का साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध होता है(जे.एन. सरकार,पृष्ठ 124) और इसी प्रकार का कलांकित नमूना अहिच्छत्रा के एक छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी के मृण्मय फलक पर भी अंकित मिलता है। (प्रमोदचंद्रा: 1970, प्लेट CLXVIII, आकृति 487)तरकश जिन्हें वंश या धातु से निर्मित करते थे शिल्प में प्राप्त होते हैं। यद्यपि समकालीन कलासाक्ष्यों में बाणों का अंकन विषय के अनुरूप सीमित मात्रा में मिलता है किंतु प्राचीन काल में एरियन के विवरणों और मुस्लिम काल में फख़्र ए मुदब्बिर के विवरण से ऐसा लगता है कि भारतीय तीरंदाज अत्यंत निपुण होते थे और उनके तीक्ष्ण बाण सभी प्रकार के शिरस्त्राण तथा कवचों को भेज सकते थे।(जे.एन. सरकार, पृष्ठ 116) उल्लेखनीय है कि यह कवच और ढाल भी इस्पात की बनती थी। समकालीन कलासाक्ष्यों में वक्ष को ढँके हुए तथा हाथ-पैर पर बंधे कवचों का अंकन प्राप्त होता है। गोल उत्तल ढालें भी प्राप्त होती हैं जिनकी पिछली ओर हत्था लगा है। सभी प्रकार के कवच अलंकृत हैं जिन पर खुरच कर अथवा उभार कर अलंकरण का निर्माण किया जाता था। अहाड़ के मीरा मंदिर की पिछली भित्ति पर लौहकारों को कार्य में संलग्न दिखाया गया है। (आर.सी. अग्रवाल: आर्ट्स एशियाटिक्स, XI, पृष्ठ 63- 64, आकृति 4, 7) जैन ग्रंथ वृहद् कल्पभाष्य और बाणभट्ट के विवरण से समकालीन लौह प्रगलन की विधियों पर विस्तार से प्रकाश पड़ता है।(अभयकांत चौधरी 1971, पृष्ठ 197)

देश के बाहर विदेशों में भी भारतीय इस्पात की अत्यधिक माँग थी। अल इद्रीसी ने अरब लोगों द्वारा भारतीय इस्पात की तलवारों को खरीदने की बात स्पष्ट रूप से स्वीकार की है। चीनी लेखक चाउ जु क्वा भी भारतीय इस्पात की छड़ों का चीन द्वारा सामुद्रिक मार्ग से आयात करने का उल्लेख करता है। भारतीय व्यापारी अपने जहाजों में अन्य वस्तुओं के साथ ताम्र-टिन-सीसा तथा इस्पात के पिंड लादकर ले जाते थे तथा बदले में घोड़ों की ख़रीदारी कर वापस हो जाते थे। चीन में शुंग वंश के ऐतिहासिक दस्तावेजों में पिन-ट-ले (ब्रेशनेडर, मेडिवल रिसर्चेस, वॉल्यूम 1, पृष्ठ-146 ,147 /वॉल्यूम 2, पृष्ठ-180, 193, 272) को व्यापार का मद बताया गया है जिसके संबंध में विद्वानों की मान्यता है कि यह दमिश्क इस्पात रहा होगा जिससे तलवारों का निर्माण किया जाता था। भारतीय इस्पात की तत्कालीन विश्व में अत्यधिक माँग थी तथा विदेशों के साथ होने वाले व्यापार में इस्पात और इससे निर्मित तलवारें अवश्य ही निर्यात की लाभदायी मद रही होंगी। पुरातात्विक खोजों में भी इन युद्धक आयुधों की प्राप्ति हुई है जो उपरोक्त साहित्यिक साक्ष्य को सही ठहराती है। पहाड़पुर,(के.एन. दीक्षित: नंबर-55, 1999, पेज 85-86) अंतिचक आदि से समकालीन तलवार, भालाग्र, तथा चाकुओं को उत्खननों में खोदा गया है जिससे राजपूतों की युद्धप्रियता का प्रमाण मिलता है।

आयुधों के साथ-साथ विजय स्तंभों और विशालकाय बीमों की पुरातात्विक प्राप्ति संकेत करती है कि तत्कालीन लौह उद्योग परिवर्तित आवश्यकताओं अतएव तदनुरूप वर्धित माँग की आपूर्ति में अत्यंत व्यस्त हो चुका था। कृषक, घास काटने वाले, दर्जी, बढ़ई, मछुआरों, शिकारी तथा नाई से लेकर लोहार तक सभी व्यवसायियों को अपने कार्य के लिए लौह उपादानों पर निर्भर रहना पड़ता था। दैनिक उपयोग के उपादान जैसे कल्छुल, पात्र, पीठिका आदि भी इस्पात के बनते थे। केशवदेव के एलिचपुर अभिलेख(इनस्क्रिप्शंस ऑफ़ बंगाल, 3, पृष्ठ 123, 128) में पानी रखने वाले लोहे का पात्र वर्णित है। संन्यस्त जीवन जीने वाले ऋषि-मुनि भी अपनी सुरक्षा के लिए खक्खर अथवा लौह चिमटा अवश्य ही अपने पास रखते थे। सोमनाथ मंदिर की मुख्य प्रतिमा को मुस्लिम लेखकों ने चमचमाती स्टील की बनी बताया है। (इलियट व डाउसन: 1964, वॉल्यूम 1, पृष्ठ 99) समकालीन कलासाक्ष्यों में यद्यपि लौह के उपरोक्त समस्त उपयोगों का अंकन नहीं मिलता फिर भी खजुराहो के कलासाक्ष्यों में खुरपी का कलांकित साक्ष्य मिला है। अहाड़ के मीरा मंदिर पर दो पात्रों वाली तुला का नमूना अंकित मिलता है। शिल्प में पारसी पनचक्की का भी एक नमूना प्राप्त होता है जो 11वीं शताब्दी ईस्वी मंडोर का है। इसमें इसे ऊंटों द्वारा चालित दिखाया गया है जिसका एक अन्य शैल्पिक उदाहरण 11वीं शताब्दी ईस्वी के जोगेश्वर मंदिर पाली (राजस्थान) से प्राप्त हुआ है। प्रतीहार राजा महेंद्रपाल के समय के प्रतापगढ़ अभिलेख (एपीग्राफिया इंडिका, वॉल्यूम 14, 1917- 18, पृष्ठ 26) में तथा अन्यत्र भी इसी के लिए ‘अरहटन’ (संस्कृत-अरघट्ट) शब्द प्रयुक्त किया गया है। उल्लेखनीय है कि प्रतीहार काल से ही पारसी पनचक्की का प्रथम प्रमाण प्राप्त होता है।

वस्तुओं के अतिरिक्त औषधि निर्माण के लिए भी लौह का महत्त्व कम न था। आठवीं शताब्दी ईस्वी में वाग्भट्ट ने लौह सल्फेट का औषधीय प्रयोग वर्णित किया है। वृन्द के सिद्धयोग में लोहे के ऑक्सीकरण द्वारा इस औषधीय प्रयोग हेतु तैयार करने का उल्लेख मिलता है। (अरुण कुमार बिस्वास एवं सुलेखा बिस्वास, 1996, पृष्ठ 135) इसी प्रकार चक्रपाणि दत्त ने भी मुण्ड लोह (killed iron) तथा मंदुर (rust of iron) को औषधीय गुणों से युक्त बताया है। (वहीं, पृष्ठ 145) पूर्वमध्यकालीन रस-शास्त्रीय ग्रन्थों में धातुओं के औषधीय गुणों पर चर्चा करने के साथ-साथ उनकी धातु संबंधी विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला गया है। रसार्णव में धातुओं के क्षयशीलता के क्रम में लोहे की गणना सर्वाधिक क्षयशील धातु के रूप में की गई है। रसरत्न समुच्चय 12वीं से 14वीं शताब्दी इस्वीं के मध्य लोहे के प्रचलित प्रकारों का वर्णन करता है। ये थे, मुंडलोह, तीक्ष्ण लोह तथा कान्त लोह। मुंड लोह संभवत पिटवाँ लोह था जिसका नामकरण बस्तर की लौह व्यवसायरत 'मुंडिया' जनजाति के नाम पर पड़ा। (भानुप्रकाश व के. इगाकी, 1984, पृष्ठ, 172-185) भोज के युक्तिकल्पतरु में भी लोहे के प्रकारों का वर्णन मिलता है जिसे सामान्य, क्रौंच, कलिंग, भद्र, वज्र, पंडि, निर॔ग तथा कंथ के रूप में वर्णित किया गया है। प्रत्येक अपने पूर्ववर्ती से गुणों में उन्नत होता जाता है। ये समस्त प्रकार कालायस, मुंडलोह या पिटवाँ लोह तथा तीक्ष्ण लोह के ही वर्गीकृत विभाग हैं तथा साथ ही क्रौंच, कालिंग आदि प्रकार इसकी स्थानीय विशेषता को भी इंगित करते हैं।

धातुओं के ऑक्सीकरण के लिए प्रयुक्त विशेष प्रकार की घरियां ‘जामाय यंत्रम’ के निर्माण में भी लौह अयस्क के बुरादे का इस्तेमाल किया जाता था। (रसार्णव, पुस्तक IV.7;. रसरत्न समुच्चय, पुस्तक X, 5-6) पारसी पनचक्की को मूर्तिसाक्ष्य में उत्कीर्णित पाते हैं जिसके लिए चक्र का निर्माण लोहे से करते थे। घरेलू यंत्रों जैसे तुला तथा कुआं से पानी निकालने की चक्की तथा बीज बटोरने के लौह यंत्र के अतिरिक्त राजा भोज कृत समरांगण सूत्रधार में हवाई जहाज में भी लोहे के बर्तन को लगा हुआ बताया गया है। इसके अतिरिक्त ‘लोहाड़िय’ नामक एक प्रकार का लौह-सिक्का भी इस समय प्रचलन में दिखता है जो मुद्रा निर्माण में कथित धातु के निवेश पर प्रकाश डालता है। भवन निर्माण में लोहे की कीलों, सरिया, बीम, कुंडी, चाबियां, द्वार-श्रृंखला आदि के उपयोग की पुष्टि साहित्य तथा उत्खनित प्रमाणों के आधार पर हो जाती है। यद्यपि समकालीन कला साक्ष्य की सीमित मर्यादा में जीवन के इन अपरिहार्य उपकरणों का उत्कीर्णन सामान्यतः नहीं मिलता किंतु तत्कालीन समाज और संस्कृति में धातुकारों के श्रम निवेश को इन उद्धरणों के समवेत अध्ययन से समझा जा सकता है।

समाज और लौह धातुकार:- समाजों की सांस्कृतिक बुनावट में भी धातुकारों की प्रभावी भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती। साहित्य की साक्षी से पता चलता है की शिल्पकारों का जो भी सामाजिक स्तर रहा हो किंतु धातुकार सदैव सम्मानित रहे। ह्वेनत्सांग ने अपनी यात्रा के दौरान भारत के वैज्ञानिक चिंतन को पांच मानक शाखाओं में विकसित होता पाया जिसमें 'शिल्पस्थान' अथवा राजशेखर की काव्यमीमांसा में उद्धृत 'शिल्पशास्त्र' एक था और शिल्प की पांच शाखाओं में लौह-शिल्प भी एक था। इसके अतिरिक्त ताम्र-शिल्प, स्वर्ण-शिल्प, बढ़ईगिरी तथा प्रस्तर कला, शिल्प की अन्य शाखायें बताई गई हैं। इस युग में श्रेणियाँ पहले की भांति आर्थिक संगठन से अधिक जातीय समूहों के रूप में पहचानी जाने लगी थीं जो निश्चित रूप से व्यावसायिक स्तर पर इनकी क्रियाशीलता में कमी, व्यवसायों के स्थानीयकरण तथा सामंती युद्धों द्वारा लाई गई सामाजिकार्थिक अस्थिरता के कारण हुआ होगा। किन्तु शूद्र वर्ण का सदस्य होने पर भी धातुकारों का वर्ग अंत्यज शूद्रों की श्रेणी में न होकर बहुधा सम्मानित शूद्रों की श्रेणी में ही रखा गया। कुछ विशेष परिस्थितियों में, जबकि वे गर्हित आचरण करने में प्रवृत्त हुए मात्र तभी उन्हें अछूत शुद्ध माना गया, यथा मध्य प्रदेश के लोहार जो माँस-भक्षण करते हैं अतः अछूत शूद्र माने जाते हैं। (एम.के.पाल: 1978, पृष्ठ 117) लल्लन जी गोपाल ने श्रेणियों के पतन का मुख्य कारण गुप्तोत्तर युगीन ग्रामीण अर्थव्यवस्था को माना है (लल्लन जी गोपाल, 1965, पृष्ठ 82) जो इस युग की अर्थव्यवस्था का सामान्य लक्षण बन कर उभरती है। फिर भी, पूर्व मध्यकाल में शिल्पकारों को उनके कार्य के अनुरूप तथा कहीं न कहीं ध्रुव अतीत में वैश्य वर्ण से उनके जुड़ाव के कारण सम्मान मिलता रहा। वे अन्य छूत शूद्रों के साथ ब्राह्मणों के कुछ संस्कारों जैसे, श्राद्ध आदि का पालन करते थे तथा इस अवसर पर ब्राह्मण भोज भी करवाते थे। व्यावसायिक बसावट की दृष्टि से श्रेणियों के रूप में संगठित शिल्पकारों के दो वर्ग थे प्रथम वह जो गावों में निवास करता था और दूसरा वह जो शहरी क्षेत्रों में बसा था। डी.डी. कौशांबी ने अपने अध्ययन में पाया कि पूर्व मध्यकाल में गाँव के शिल्पकारों की श्रेणियां कमजोर होती जा रही थीं और शिल्पकार-ग्राम पतनोन्मुख थे। इसके स्थान पर वणिकों या व्यापारियों का संघ मज़बूत हो रहा था जिनके विकास में सामन्त राजाओं की अहम भूमिका रही। (डी. डी. कौशांबी, 1975) इन वणिक संगठनों ने ग्रामीण क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था को अपने अनुकूल संचालित करना आरंभ कर दिया। वे मूल्य चुकाकर इच्छित वस्तुओं का निर्माण करवाने लगे जिसके कारण वस्तुओं का कुल उत्पादन तो बढ़ा किंतु प्रति-व्यक्ति उत्पादन का ह्रास हुआ। व्यापारियों द्वारा चुनिंदा कारीगरों से इच्छित वस्तुओं का निर्माण करवाने के कारण इस समय के गांवों में 'लोहारों का ग्राम' या 'बढ़इयों का ग्राम' जैसी अवधारणा अनुपयोगी हो गई थी। शहरी क्षेत्रों की आवश्यकता भी क्योंकि शहरी शिल्पकार पूरी कर रहे थे अतः ग्रामीण शिल्पियों को कृषक-ग्रामों में विभिन्न आवश्यक शिल्पों के उत्पादन प्रक्रिया का हिस्सा बनने को बाध्य होना पड़ा। गाँव की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले बढ़ई, लोहार जैसे शिल्पियों का समूह अपनी सेवाओं के बदले ग्रामीण उपभोक्ताओं से ज़मीन, बीज आदि भरण-पोषण के निमित्त प्राप्त करता था। डी.डी. कौशांबी के अनुसार उन्हें प्रति कृषक 1.75% अनाज और 1 से 3 पाउंड बीज की प्राप्ति होती थी जिसके बदले वे पूरे गाँव का लौह उपकरण ठीक करते थे। नए उपादान के निर्माण हेतु उन्हें धातु प्रदान करने के साथ ही अतिरिक्त भुगतान भी किया जाता था। इस नवीन व्यवस्था के चलते धातुकारों तथा अन्य शिल्पों की तकनीकी विकास की गति निश्चित रूप से अवरुद्ध हुई क्योंकि समान व्यवसाय से जुड़े कर्मियों के सामूहिक बसाव का सकरात्मक प्रभाव उत्पादन की गुणवत्ता पर भी पड़ता है।

ग्रामीण शिल्पकारों के विपरीत शहरी शिल्पकारों का उद्यम अच्छी स्थिति में था। इनके अपनी गली, अपनी सड़क और अपना क्षेत्र निर्धारित थे। भुवन देव के ग्रंथ अपराजितपृच्छा में श्रेणियों और प्रकृतियों को राजा द्वारा आवासित शहरी क्षेत्र में बसाने का विधान किया गया है। यहाँ सुनार, ताम्रकार और लोहार नगर के सामाजिकार्थिक जीवन के महत्त्वपूर्ण अंग बन चुके थे। 12वीं शताब्दी ईस्वी के ग्रंथकार हेमचंद्र ने धातु व्यवसायियों के संगठन को राज्य की महत्त्वपूर्ण राजनीतिक-आर्थिक नीतियों के निर्धारण में प्रभावी कारक माना है। ये व्यापारी स्वर्ण, रजत, ताम्र, लौह धातुओं से संबंधित देशी और विदेशी व्यापार करते थे और नगर में रहते थे। धातुकारों के निवास की इस व्यवस्था से स्पष्ट है कि शहरों में रहने वाले कारीगर अच्छी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में थे।

निष्कर्ष : उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पूर्व मध्यकाल में लौह धात्विकी में उल्लेखनीय विकास हुआ तथा मात्र कुशलता (skill) ही नहीं यह ज्ञान-शाखा के रूप में पूर्ण प्रस्फुटित हुई। भोजकृत समरांगण सूत्रधार में लोहार्णव तथा लोहादस्प जैसे ग्रंथों का उल्लेख मिलता है जो लौह तकनीक को विषय बनाकर लिखे गए थे। इस समय लौह धातुकर्म का राज्य द्वारा संरक्षण और विवर्धन किया जा रहा था जिसके संबंध में बहुधा यह शंका प्रकट की जाती है कि भारत में लौह तकनीक अत्यंत उपेक्षित तथा निम्न-वर्गीय लोहारों के व्यावहारिक ज्ञान पर आधारित कौशल मात्र थी। 11वीं- 12वीं शताब्दी ईस्वी तक भारतीय धातुकार लौह की प्रकृति तथा इसके प्रगलन-शोधन की विधियों से भलीभांति परिचित हो चुका था जैसा कि समकालीन ग्रंथों रसार्णव और रसरत्न समुच्चय से स्पष्ट होता है।

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नैरंजना श्रीवास्तव
असिस्टेंट प्रोफेस वसंत कन्या महाविद्यालयकमच्छा, वाराणसी
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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