शोध आलेख : साहित्य अकादमी पुरस्कृत काव्य-संग्रहों में किसान-व्यथा / हरीश कुमार धाकड़

साहित्य अकादमी पुरस्कृत काव्य-संग्रहों में किसान-व्यथा
- हरीश कुमार धाकड़


शोध सार : विश्व में सर्वाधिक मेहनत करने वाले वर्गों में किसान वर्ग का नाम सबसे ऊपर रखा जाता है। किसान अपनी फसलों को सँवारने में बिना घड़ी देखे दिन-रात मशीन की तरह कार्य करता रहता है एवं अधिकांश जनसंख्या के लिए खाद्यान्न उत्पन्न करता है। बिना स्वार्थ के किए गए इस कार्य में भी मौसम की मार की वजह से या सही मूल्य न मिल सकने की वजह से किसान निरंतर गरीबी के गहरे गर्त में डूबा रहता है। साल दर साल वक्त गुजरने के बाद भी उसकी आर्थिक स्थिति सही नहीं होती। तब सभी का पोषण करने वाला किसान स्वयं ऋण न चुका पाने की वजह से आत्महत्या करता है। उस एक बार मरने से पहले भी वह कई बार मर चुका होता है। आखिर ऐसे क्या कारण रहे कि सबसे महत्वपूर्ण कार्य अनाज व दुग्ध उत्पादन करने पर भी वर्तमान में सबसे अधिक उपेक्षित वर्ग किसान वर्ग ही है? अधिकांश व्यक्ति इस वर्ग के प्रति उदासीन हैं, एवं यह उदासीनता दिनों दिन घटने के बजाय बढ़ती ही चली जा रही है। यह बहुत अधिक चिंतनीय एवं ज्वलंत प्रश्न है! सभी सरकारों द्वारा एवं सामान्यजन की इस उदासीनता से किसानों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। उनकी वास्तविक स्थिति की सुध लेने वाला कोई नजर नहीं आता। दुःख की बात यह भी है कि सभी का भरण-पोषण करने वाले किसानों के मुद्दे ही साहित्य व समाज से गायब हैं। कहीं-कहीं उनका नाम मात्र का जिक्र आता है, वह भी स्थिति विशेष के संदर्भ में! यह दु:खद स्थिति है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जब अधिकांश जनसंख्या का कार्य ही कृषि है, किसान की उपेक्षा करना स्वयं की हत्या करने जैसा कदम है!

स्तरीय कविताओं में भी इनका नाम मात्र का जिक्र आना मन को आहत करता है। सरकारों, साहित्यकारों एवं सभी व्यक्तियों को किसानों की समस्याओं व उनके मुद्दों को मुख्य विचारणीय बिंदुओं में शामिल करना चाहिए एवं किसान हितैषी नीतियाँ बनानी चाहिए। यह आज की आवश्यकता एवं समय की मांग भी है।

बीज शब्द : किसान, फसल, आर्थिक स्थिति, सरकार, साहित्य, आत्महत्या, उपेक्षा, संघर्ष, नीतियां, निर्वाह, मानसून, बाजार, सांकृतिक परिवेश, मूल्य, उदासीनता, अस्तित्व, दासता।

मूल आलेख : भारत एक कृषि प्रधान देश है यहाँ की लगभग 67% जनसंख्या कृषि एवं संबंधित कार्यों से जुड़ी हुई है। लगभग सभी किसान गाँवों में ही रहते हुए अपना निर्वाह करते हैं। वे सभी व्यक्ति जो कृषि एवं इससे संबंधित कार्यों में जुड़े हुए हैं, किसान संस्कृति में शामिल किए जा सकते हैं। स्वतंत्रता पूर्व से ही किसानों का जीवन कष्टों एवं संकटों से भरा हुआ बहुत ही दुःखद रहा है। प्रारम्भ में जमीदारी प्रथा के कारण किसानों का अत्यधिक शोषण हुआ फलतः वे अपनी स्थिति से उभरना तो बहुत दूर जीवन निर्वाह भी बमुश्किल कर पाते थे। बहुत जगह किसान आंदोलन की स्थितियाँ बनी, आंदोलन भी हुए परंतु दुर्भाग्य से स्थितियां वही की वही बनी रही। 1947 में मिली स्वतंत्रता के बाद भी किसानों के प्रति उदासीनता का वातावरण ही बना रहा उनकी स्थिति पहले जैसी ही थी। वर्तमान तक आयी विभिन्न सरकारों द्वारा भी किसानों की उपेक्षा की गई है। कृषि की नीतियाँ भी सही नहीं है, साथ ही मुआवजा न मिलना, न्यूनतम समर्थन मूल्य न होना आदि ऐसे कारण हैं जिससे किसान आहत हैं एवं उनकी स्थिति आज भी वैसी ही बनी हुई है जैसी स्वतंत्रता पूर्व थी।

हिंदी काव्य में किसान-विमर्श की शुरूआत भक्तिकाल से देखी जा सकती है। सूर, तुलसी एवं कबीर की पंक्तियों में किसानी जीवन एवं कृषि कार्यों की चर्चा मिलती है तत्पश्चात रीतिकाल में उदासीनता देखी गयी इसके बाद आधुनिक काल में प्रगतिवादी कवियों ने अपने काव्य में किसानी जीवन का वर्णन किया है। यहां किसानों के प्रति संवेदना मुखरित हुई। इस दृष्टि से सुमित्रानंदन पंत की ‘वे आँखें’ कविता किसान के जीवन की मार्मिक स्थिति का बोध कराने में पूर्णतः सफल रही है। कहीं-कहीं खेतों के साथ ग्रामीण संस्कृति का जीवंत वर्णन मिलता है।

वर्तमान में हिंदी की अनेक पत्रिकाओं में किसान विमर्श को लेकर संस्मरण, लेख आदि छपे हैं, छपते रहते हैं, फिर भी उनकी संख्या बहुत ही कम है। साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त स्तरीय रचनाओं में भी किसान विमर्श पर बहुत ही कम मात्रा में लिखा हुआ मिलता है।

आज के आर्थिक युग में सभी अधिक कमाने की लालसा में अनेकानेक कार्यों में लगे हुए हैं। बहुत से व्यक्ति अनैतिक कार्यों में भी लगे हुए हैं, छीना-झपटी के इस दौर में भी किसान अपने खेत की मेड़ पर बैठा उम्मीद भरी नज़रों से सबकी तरफ देखता है, इस पर भी आश्चर्य की बात यह है कि इसकी दारुण स्थिति की तरफ कोई ध्यान ही नहीं देना चाहता। कभी किसी का ध्यान इस ओर चला भी जाता है तब भी वह अपना मुँह फेर लेता है। सरकार व सामान्यजन की ये हीन भावनाएँ उसे प्रोत्साहन न देकर और अधिक निराश बनाती है। अगर थोड़ी-सी भी सहानुभूति रखी जाए तो वह उसका सुख ही बढ़ाएगी एवं वह अपने काम में पहले की अपेक्षा और अधिक उत्साह से जुट पाएगा। इसी आशय में नंद किशोर आचार्य लिखते हैं–

“बसा नहीं लेता
तुम्हारा दुःख
कोई दुनिया में अपनी।
सहानुभूति, हाँ,
रख सकता है वह
और वह
उस का सुख बढ़ाती है।1

किसान अपना दु:ख अकेले ही मनाता है, उसके दु:ख में शामिल होने के लिए कोई भी तैयार नहीं है, सब उसकी उपेक्षा करके आगे बढ़ते रहते हैं। वह केवल आशा भरी नज़रों से सबको देखता रह जाता है। दूसरी तरफ़ एक बात यह भी है कि उसने कभी अकेले ख़ुशी मनाना सीखा ही नहीं। वह अपनी खुशी में सभी को शामिल करता है। वह अपने घरों में लगे फल, सब्जियाँ एवं अनाज अपने दूर के रिश्तेदार एवं मित्र तक पहुँचाना भी नही भूलता है। कभी वह लहसुन प्याज तो कभी फल सब्जियां इत्यादि उन्हें भेजता रहता है क्योंकि अकेले में खुश होना भी उसे गवारा नहीं है। नंदकिशोर आचार्य अपनी कविता ‘अकेले में’ लिखते हैं–

“कितना गमगीन करती है
अकेले को खुशी कोई–
उस से बड़ी राहत है
दुख में अकेले होना ।”2

किसान को अपनी खेती-बाड़ी एवं अपने परिवेश से बहुत गहरा लगाव है। वह अपनी फसलों की खुशहाली में ही अपने जीवन की खुशहाली समझता है। जब तक दिन में दो-तीन चक्कर वह अपने खेत की मेढ़ के नहीं लगा लेता उसे चैन नहीं मिलता। उसके जीवन में सभी फसलें, सब्जियाँ, तरकारियाँ रची बसी हैं। एक ‘प्याज’ तक उसके जीवन का आधार है, उसका दिनभर का संगी है। नगरीय जीवन मे प्याज महज सब्जी छौंकने के एवं सलाद के काम आता हो पर ग्रामीण जीवन में यह किसान के दोनों समय के खाने में सब्जी की जगह भी शामिल रहता है, साथ ही दिनभर का साथी होकर उसे लू से भी बचाता है। चंद्रकांत देवताले अपनी कविता ‘प्याज़ के विषय में’ लिखते हैं–

“प्याज़ के बिना मुश्किल है शाहीभोज
असम्भव है ग़रीब का खाना
प्याज़ की प्रशंसा में
कुछ कहने का यह वक़्त नहीं
पर जो काँख में दबा ले
प्याज़ की नन्हीं सी गाँठ
कोई भी नाज़नीन
तो बहाना नहीं रहे बुखार
प्याज़ रक्खा हो जो जेब में
तो तपते थपेड़ों को सहते
मेहनतकश मज़दूर-किसान
फाँदते जाते हैं देखते-के-देखते
दहकते खेत-मैदान।”
“ग़रीबों के घर में मौजूद डॉक्टर है प्याज़
सचमुच धरती की सृजनशीलता का
ज़मीन पर झुका करिश्मा है प्याज़।”3

लीलाधर जगूड़ी अपनी कविता ‘प्रकृति है इस मुकाबले के लिए’ में लिखते हैं कि किसान का पूरा जीवन उसकी फसलों, साग-सब्जियों, गेहूँ, धान से अटा-पटा रहता है। उसकी यादें भी इन्हीं सब चीजों से जुड़ी हुई हैं, वह अपने परिवेश से दूर होने की कल्पना तक नहीं कर सकता —

“भात की भपाती डेगची। कुटुमदारी को भर देगी स्वाद से
लाई-धनिया की गंध वाला मिर्चदार हरा पीला नमक भूख भड़कायेगा,
भक्क फूली हुई रोटी किनारे से फूटकर भाड़ को फूँक मारेगी
भुभराती आग जैसे किसी को पुकारेगी आत्मा
खाते हुए हम जिसको याद करेंगे
उसको हुचकियाँ आयेंगी।”4

गेहूँ भारत की अधिकांश जनसंख्या का भोजन है। गेहूँ उपजाकर किसान आत्मसंतुष्ट है, उसे इस बात का गर्व भी है कि उसके उपजाये गेहूँ से सभी का पेट भरता है। किसान गेहूँ के सही उपयोग की इच्छा भी व्यक्त करता है, वह मन ही मन चाहता है कि गेहूँ किसी की भूख मिटाने के काम आए तभी इसकी सार्थकता है। यह किसी शराबी, अय्याश के काम न आए। कैलाश वाजपेयी की कविता ‘गेहूँ’ में इस मनोरथ को व्यक्त होते हुए देखा जा सकता है—

“ओ मेरे जन्मदाता
मैं हरा गेहूँ दूध भरा
मेरी यह विनती है
जब मैं पक जाऊँ और बने रोटी
यह मेरी काया मैं किसी शराबी अघाए अय्याश की आँत में न जाऊँ
किसी फटेहाल थके पेट की
जलती भट्ठी में स्वाहा होता हुआ
तृप्ति की धुन गुनगुनाऊँ
वही मोक्ष सही मोक्ष होगा
मेरे सुनहरे विकास का।”5

लगातार संघर्ष करते हुए, अपनी परिस्थितियों से लड़ते हुए भी किसान को सरकार से किसान हितैषी नीतियों की उम्मीद है। उसे लगता है कि उसकी ये स्थिति एक दिन जरूर बदलेगी। कहा भी गया है कि उम्मीद पर दुनियाँ कायम है, सभी उम्मीद रखते हैं, ऐसे में उसका उम्मीद रखना भी लाजमी है। उम्मीदों से पहले भी मिली निराशा से भी वह आहत नहीं है, बल्कि उसकी जीवटता ही इन पंक्तियों में दिखायी देती है -

“जब तृषित हैं सभी
उस के लिए
मेरा दोष क्या इस में
जो चाहता हूँ मैं
केवल छाँह भर उस की–
न बरसे चाहे बदली
छाया ही उसकी सही।”6

लगातार उपेक्षित रहते हुए भी किसान को सरकारी योजनाओं एवं नीतियों पर पूरा विश्वास है। उसे लगता है कि इस देश में बिना किसानों के हितों को ध्यान में रखकर न देश चल पाएगा न यहाँ की व्यवस्था, इसलिए भी क्योकिं दोनों एक दूसरे पर बहुत अधिक निर्भर हैं। ये एक दूसरे के सहायक बनकर ही सभी की समृद्धि का सपना साकार हो पाएगा–-

“समान्तर ही सही
दोनों पटरियों का
गन्तव्य जब है वही
नहीं चल पायेगी
गाड़ी
एक की
दूसरी के बिना।”7

सरकार ने अब तक किसानों के हित में कोई अच्छा कार्य नहीं किया केवल कुछ काम हुए हैं वह भी महज दिखावे के लिए! किसानों को अच्छे औजार, खाद एवं बीज दिखाना ही पर्याप्त नहीं है। उपलब्ध भी करवाना चाहिए। ज़मीनी हकीकत देखी जाए तो ऊपरी योजनाओं का फायदा निम्नस्तर के किसानों तक नहीं पहुँच पाता है। किसान अपनी पिछड़ी स्थिति के कारण उन्नत किस्म के बीज, उर्वरक, दवाइयाँ, कृषि यंत्र नहीं खरीद सकता। इसी संदर्भ में 'ज्ञानेन्द्रपति' की 'बीज-व्यथा' कविता खाद, उर्वरक, पानी तथा बीज की समस्या को रेखांकित करती है–

"वे बीज
जो बखारी में बंद
कुठलों में सहेजे
हंडियों में जुगोए
दिनोंदिन सूखते देखते थे मेघ-स्वप्न
चिलकती दुपहरिया में
उठेंगी देह की मूँदी आँखों से
उनींदे गेह के अनमुँद गोखों से।
वे बीज
भारतभूमि के अद्भुत जीवन-स्फुलिंग
अन्नात्मा अनन्य
जो यहाँ बस बहुत बूढ़े किसानों की स्मृति में ही बचे हुए हैं
दिनोंदिन धुँधलाते दूर से दूरतर
खोए जाते निर्जल अतीत में
जाते-जाते हमें सजल आँखों से देखते हैं।"8

किसान अपना पूरा जीवन स्वाभिमान के साथ जीता है। परिस्थितियों से लड़ते हुए भी वह अपना जमीर नही बेचता है। वह अपने मान सम्मान के लिए सदैव सजग रहता है। अनेकानेक कष्टों के बावजूद वह अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाता है। वह अपने बेटे व बेटी को सीख देता है, कि किसी भी कीमत पर अपना मान-सम्मान की प्रतीक ‘पगड़ी’ मत झुकाना। अनामिका की ‘पगड़ी’ कविता में यह भाव स्पष्ट दिखलायी पड़ता है–

“जब भी बाबा जाते बाहर,
धीरे से पगड़ी उठाते,
मैं भी मचल जाती,
फिर आजी समझाती -
'जा तो रही है तू
सिर चढ़ा रखा है तुझको ही
तू ही है बाबा की पगड़ी!”9

किसान कहता है कि यदि इस वर्ष अच्छी वर्षा हुई एवं सरकारी नीतियाँ ठीक होकर बीज एवं ऋण की उपलब्धता रही तो सभी के लिए अच्छी एवं शुद्ब उपज देने का मेरा वादा रहेगा! वह इस हेतु जी जान से जूट भी जाता है, लेकिन मौसमी दशाओं एवं सरकार के दोगले व्यवहार की वजह से वह इस वादे को फिर पूरा करने में असफल रहता है। तब वह अपनी स्थिति से हताश एवं निराश है, साथ ही कुछ अच्छा न कर पाने की वजह से शर्म महसूस कर रहा है। ‘शर्मिन्दगी’ कविता में उसकी चुप्पी को समझा जा सकता है–

“चुप यह
किसी मौन की नहीं–
हम दोनों लय हों जिस में–
शर्मिन्दगी की है
एक वादा
आपस में नहीं
ख़ुद से किया था हम ने
हम से नहीं निभ पाया
अकेले में।”10

सालभर मेहनत करने के बाद प्राप्त उपज बेचकर उसका मूल्य लेकर जब किसान अपनी बही खोलकर उसमें आय-व्यय का हिसाब जोड़ता है तब उसकी स्थिति बहुत विचित्र एवं विचलित करने वाली होती है। वह अपनी लागत भी नहीं जोड़ पाता है। यह बात उसे अंदर तक तोड़ देती है। वह बेहद हताशा एवं निराशा से भर जाता है-

“मिलाता हूँ हिसाब हर बार
साल के आख़िर में-
जानते हुए हस्बमामूल
पाया नहीं है कुछ
खोया ही है ख़ुद को-
जान तो लूँ
कितना बचा हूँ अब तक
आगे खो पाने की ख़ातिर।”11

पूरा जीवन तिल-तिल कर दुःख में निकालने वाले किसान से जब कोई उसके जीवन में मिली उपलब्धि के बारे में पूछता है तब उसके हृदय से एक हूक निकलती है एवं वह अपने कँपकँपाते सूखे होठों से कह उठता है-

“कैसे लिखूँ लेकिन
जिया ही नहीं
अपना आत्म मैं ने जब
लिखूँगा जो
कथा होगी वह
तिल-पल मरने की
मेरे।”12

मेहनत करके किसान की फसल तैयार होती है। इस फसल को लेकर जब किसान इसे बाजार में बेचने ले जाता है तब उसे उसका लागत मूल्य ही मुश्किल से मिल पाता है। हर कोई उसे लूटना चाहता है, एवं उसकी मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिश करता रहता है। सभी उसके खून पसीने की कमाई को निचोड़ लेना चाहते हैं। सरकार द्वारा भी सभी फसलों पर उचित मूल्य का निर्धारण नहीं कर रखा है जिससे किसान दुःखी है। इन सबके परिणाम स्वरूप क़र्ज़ में डूबा किसान मजबूरी में कम मूल्य पर अपनी फसल बेच देता है। किसान अपने वर्तमान जीवन के निर्वाह के लिए सपने संजोता है जबकि बड़े लुटेरे अपनी आगामी पीढ़ियों की कुशल क्षेम के लिए भी लूट कर संग्रह कर लेना चाहते हैं। व्यापारी भी किसानों को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। इन सब से किसान को स्वयं भी बचना होगा एवं अपने सपनों को भी बचना होगा–

“बड़ी मछली तो सिर्फ़ अपना पेट भरने पुरता दबोचती है छोटियों को
पर ये बड़े गोदामों वाले चाहे महामंडी के हों
या राजकाज धरम-धन्धे के
ये तो सौ पीढ़ियों के कुशल-क्षेम-भोग-योग के लिए निचोड़ते रहते हैं खून मेहनत का।
बेतरह याद आते हैं ऐसे वक़्त ब्रेख्त–
'अब जनता को ही पकानी होगी इन्साफ की रोटी' और हत्यारों के अदृश्य साये से भी
बचाने होंगे अपने सपने और उनके बीज।”13

वर्तमान आर्थिक युग मे जब सब केवल पैसे कमाने की अंधी दौड़ में दौड़ रहे हैं! ऐसे माहौल में सर्वथा उपेक्षित किसान की ‘आह’ का कोई मूल्य नहीं है। आज न ही किसी को किसान की चिंता है! न उसके आत्महत्या करने से किसी को फर्क पड़ता है! न ही उसकी खेती-बाड़ी की ज़मीन छीन जाने का किसी को अफसोस है! आज किसान, खेती, पशुधन सभी का महत्व तब तक ही है, जब तक कि उनका कोई-न-कोई लाभ मिलता रहे! आज सर्वत्र एक अराजकता का माहौल बना हुआ है! डर के इस माहौल में किसान दिन-रात काम करता रहता है! आखिर किसके लिए? उससे पूछा जाए कि तुम्हें रात को डर नहीं लगता तब वह कह उठता है—

“दिन ही इतने खूँख्वार
हो चुके हैं
इन दिनों
कि डर जाता रहा रात का।”14

गरीबी दुष्चक्र, सरकारी नीतियाँ, ऋण, ब्याज को समस्या, मौसमी दशाओं, जलवायु, वर्षा की अनिश्चितता, सभी की उपेक्षा एवं अपनी विपरीत परिस्थितियों की मार सहने के बावजूद भी किसान स्थिर चित्त है। लगातार अपने काम खुशी की तलाश में कर ही रहा है। वह अपने दु:ख का रोना ना रोकर, अपनी जगह अडिग है। अपने सपनों को पूरा न करने का मलाल मन में रखते हुए भी वह आने वाली पीढ़ी के लिए शुभकामनाएँ देता है, वह अपना सपना तो पूरा नहीं कर पाया लेकिन आगे सभी अपने सपने पूरे कर पाएँ ऐसी उसकी शुभकामनाएँ हैं, उसने सदैव सभी का कल्याण ही चाहा है।

नंद किशोर आचार्य अपनी ‘विरासत’ कविता में लिखते हैं–

“नहीं बना पाया दुनिया
अपने सपने-सी
देखा जो मैंने –
तो भी क्या
कमाता रहा वही सपना
जैसा भी जितना
ज़िन्दगी और है ही क्या
अपना सपना कमाने के सिवा
मेरे वारिस हो तुम
पर सपने के नहीं
अपने सपने से नहीं बाँधता तुम्हें
तुम देखो अपना सपना
और कमाओ उसे
सपना देखने की, कमाने की
बनी रहे कूव्वत–
यही है शुभकामना मेरी–
विरासत भी।”15

किसान अपनी सांकृतिक अस्मिता के प्रति भी जागरूक है। नित के संघर्षों से वह समस्याओं के मूल में भी पहुँच गया है जो उसकी प्रगति में बाधक है। वह सभी के कल्याण की कामना रखता है एवं नवक्रान्ति का वाहक भी बन गया है। हमें विकास की अंधी दौड़ में भी अपने जीवन को बचाने के लिए पुनः एक नवीन शुरुआत करनी होगी। हमें बाँझ होती भूमि को बचाना होगा, वनों के साथ वन्यजीवों को, नदियों, पहाड़ों, कृषि भूमि को बचाना होगा क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि इस विकास की अंधी दौड़ में हम स्वयं समूल नष्ट न हो जाएँ। कैलाश वाजपेयी नवक्रान्ति का संदेश देते हुए लिखते हैं–

“तुम अगर परिवर्तन के
पक्षधर हो
मिट्टी से शुरू करना
जो बाँझ हो रही है।
धान से शुरू करना
जो गोरे पंजों के
चंगुल में जा रहा।
वृक्षों से शुरू करना
जिनका वध हो रहा है बेरहमी से।
वायु से शुरू करना जिसका
दम घुटा जा रहा।
नदियों से शुरू करना
जिनका यौवन रोज़ लुट रहा
यही सब तो हो तुम
अपनी जड़ों की पड़ताल के बिना
क्रान्ति कहाँ?”16

“भारतीय किसान आर्थिक रूप से आज भी अभिशप्त है। भारत में व्यक्तिगत कृषि जोत कम हो गई है, इसलिए ज़्यादातर किसान खुद के लिए ही अनाज पैदा कर पाते हैं, उनके पास कृषि से आय की संभावना कम हो गई है। जो किसान बेचने के लिए फसल पैदा करते हैं वे निरंतर नुकसान ही उठा रहे हैं। कुछ बड़े किसान ही सरकारी सुविधाओं का लाभ ले पाते हैं, बाकी मध्यम श्रेणी के किसान कर्ज और अभाव में ही गुजारा करते हैं। उन्हें अपने फसल के उचित मूल्य की जरूरत है। सरकार को ऐसी नीति बनाने की जरूरत है जिसमें बिचौलिया के बजाय किसान की आय में बढ़ोत्तरी हो सके।”17

इस प्रकार आज किसानों के हालातों एवं हितों के मद्देनजर नीतियां बनायी जानी आवश्यक है। साथ ही जल,जंगल एवं जीवन का संरक्षण करके एवं इस संबंधी नीतियां भी बनाकर पुनः समृद्धि की ओर लौटा जा सकता है। यह आज के समय की महती आवश्यकता है।

निष्कर्ष : यह कहा जा सकता है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहाँ लगभग दो तिहाई जनसंख्या कृषि एवं संबंधित कार्यों से जुड़ी हुई है, वहां पर कृषकों की तरफ उपेक्षित दृष्टि से देखा जाना अत्यंत चिंतनीय है। न केवल सरकारों वरन आम जनता द्वारा भी कृषकों के प्रति हमेशा से ही उदासीनता का भाव रखा गया है, जिसके कारण किसानों के मुद्दों पर न ही साहित्य में, न किसी प्रकार की चर्चाओं में मुख्य विषय के रूप में बात हुई। प्रारम्भ से ही किसान निर्धनता के दुष्चक्र में फँसा हुआ है, पहले जमींदार, महाजन शोषण करते थे, अब सरकारों द्वारा उपेक्षा से देखा जाना उनकी प्रगति में बाधक बना हुआ है। ऋण का दबाव, कर्जे की अधिकता, न्यूनतम समर्थन मूल्य न होना, कृषि नीतियों का सही न होना, बिचौलियों के कारण उपज का मूल्य सही नहीं मिलने आदि कारणों से किसान हरवर्ष ओर अधिक ऋणग्रस्तता की तरफ बढ़ता जाता है, एवं अंततः अत्यधिक दबाव के कारण आत्महत्या जैसे कार्य भी कर लेता है। सरकारों को कृषकों हेतु किसान कल्याण की योजनाएँ बनानी चाहिए, उर्वरकों की उपलब्धता, उन्नत बीज, कृषि यंत्रों की उपलब्धता भी सुनिश्चित करनी चाहिए। इनके साथ ही साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर एवं मौसमी दशाओं अनुरूप आर्थिक मदद, मुआवजा एवं सब्सिडी प्रदान कर किसानों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सरकारों के साथ ही साहित्य में भी कृषकों को उदासीनता से देखा गया है, स्तरीय कविताओं में किसानों एवं कृषि पर बहुत ही कम रचनाएँ देखने को मिलती है। कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण है। जैसा समाज होता है वैसा आईना दिखाता है परंतु समाज के बड़े भाग अर्थात् किसानों का रूप पूर्णतः सही अर्थों में न दिखाया जाना चिंतनीय है। सच्चे अर्थों में सृजन के महत्व को सिद्ध करने के लिए किसानों की उपयोगिता को झुठलाया नहीं जा सकता है।

संदर्भ :
  1. नन्दकिशोर आचार्य, छीलते हुए अपने को, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर 334003, प्रथम संस्करण:2013 पृष्ठ संख्या-62
  2. वही, पृष्ठ संख्या-40
  3. चन्द्रकान्त देवताले, पत्थर फेंक रहा हूँ, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली 110002, प्रथम संस्करण:2010 पृष्ठ संख्या - 89
  4. लीलाधर जगूड़ी, अनुभव के आकाश में चाँद, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नयी दिल्ली-110002, पहला संस्करण:1994, पृष्ठ संख्या - 122
  5. कैलाश वाजपेयी, हवा में हस्ताक्षर, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली 110002, संस्करण: 2005 पृष्ठ संख्या -17
  6. नन्दकिशोर आचार्य, छीलते हुए अपने को, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर 334003, प्रथम संस्करण:2013 ई., पृष्ठ संख्या-30
  7. वही, पृष्ठ संख्या - 47
  8. ज्ञानेन्द्रपति, संशयात्मा, राधकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., नयी दिल्ली-110002, पहला संस्करण: 2004, पृष्ठ संख्या - 169
  9. अनामिका, टोकरी में दिगंत, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नयी दिल्ली-110002, प्रकाशन :2015, पृष्ठ संख्या - 141
  10. नन्दकिशोर आचार्य,छीलते हुए अपने को, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर 334003, प्रथम संस्करण:2013 ई., पृष्ठ संख्या-52
  11. वही, पृष्ठ संख्या -70
  12. वही, पृष्ठ संख्या -92
  13. चन्द्रकान्त देवताले, पत्थर फेंक रहा हूँ, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली 110002, प्रथम संस्करण:2010, पृष्ठ संख्या - 160,161
  14. कैलाश वाजपेयी, हवा में हस्ताक्षर, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली 110002, संस्करण: 2005, पृष्ठ संख्या -33
  15. नन्दकिशोर आचार्य, छीलते हुए अपने को, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर 334003, प्रथम संस्करण: 2013 ई., पृष्ठ संख्या-43
  16. कैलाश वाजपेयी, हवा में हस्ताक्षर, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली 110002, संस्करण :2005, पृष्ठ संख्या -13
  17. शोध आलेख:- भारतीय किसान की चुनौतियाँ और संभावनाएं / जितेन्द्र यादव| https://www.apnimaati.com/2022/06/blog-post_94.html

हरीश कुमार धाकड़
शोधार्थी, गोविंद गुरू जनजातीय विश्वविद्यालय, बांसवाड़ा, (राज.)
dhakerh98@gmail.com9950306410

मार्गदर्शक
डॉ. लोकेंद्र कुमार
सहायक आचार्य,गोविंदगुरु राजकीय महाविद्यालय, बांसवाड़ा,(राज.)
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

5 टिप्पणियाँ

  1. अद्भुत काव्य 💥💥

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  2. डाक्टर हरीश कुमार जी धाकड़ का किसान की व्यथा किसान की मार्मिक एवं ह्रदय स्पर्शी रचना है, इसमें किसान व्यथा एवं मजबूरियों को बारिकी से लिखा गया है डाक्टर हरीश कुमार जी धाकड़ भी एक किसान होने के कारण किसानों कि व्यथा को अच्छें शब्दों में उतार पाएं।
    आपकी यह रचना पाठकों एवं श्रोताओं में खुब नाम बटोरेगी।
    राजमल राठौर

    जवाब देंहटाएं
  3. बाबु लाल धाकड़जनवरी 31, 2025 5:30 pm

    बहुत ही सुन्दर शब्दों में लिखा है किसी बदलाव की जरूरत नहीं है।

    जवाब देंहटाएं
  4. हरीश जी धाकड़ ने वास्तव में देश में विद्यमान अन्नदाताओं की दयनीय दशा को उजागर करके प्रत्येक व्यक्ति को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। यह देश में विभिन्न सरकारो द्वारा किए गए किसानों के प्रति कार्यों की पोल खोलता है।

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