- दिवाकर मिश्र
शोध सार : लेखन कला की लोकप्रियता तथा लेख के विषय-वस्तु की विविधता के कारण भारत में विभिन्न प्रकार के लेखन आधारों का उपयोग किया जाता रहा है। इन लेखन आधारों में भूर्जपत्र अपना विशेष महत्व रखता है, जो दक्षिणी भारत को छोड़कर सम्पूर्ण भारत, विशेषतः कश्मीर में प्रचलित था। वस्तुतः यह भूर्ज वृक्ष की कोमल छाल होती है, जिसपर प्राचीन काल में एक विशेष प्रकार से निर्मित काली स्याही से लिखा जाता था। इसकी लोकप्रियता तथा व्यापक प्रचलन का प्रमाण प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, जहाँ भूर्जपत्र पर राजकीय पत्र, न्यायिक कार्यवाही, प्रेमपत्र व तन्त्र-मन्त्र आदि लिखने के अनेक उदाहरण खोजे जा सकते हैं। भूर्जपत्र पर लिखित प्राचीनतम पाण्डुलिपि मध्य एशिया में खोतान से मिली है। भारत में वैदिक काल से प्रचलित भूर्जपत्र को मध्य काल में कागज के प्रचलन ने यद्यपि सीमित कर दिया, किन्तु धार्मिक क्रियाकलापों सहित जन्म कुण्डली आदि बनाने में इसका प्रयोग आज भी देखा जा सकता है।
बीज शब्द : भूर्जपत्र, तुज, कश्मीर, खोतान, पाण्डुलिपि, साहित्य, लेखन, स्याही, अलबरूनी, कालिदास।
मूल आलेख : सर्वविदित है कि किसी भी युग का साहित्य तत्कालीन समाज का दर्पण होता है। इनके माध्यम से उस समय व्यवहार में रहे वे सभी पक्ष उजागर होते हैं, जिन्हें साहित्यकार अपनी दृष्टि से देखता है तथा उनका उल्लेख अपनी रचनाओं में यथास्थान करता है। भारतीय साहित्य के अध्ययन से तत्कालीन समाज में प्रचलित लेखन सामग्री जैसे महत्वपूर्ण पक्ष पर भी प्रकाश पड़ता है। भारत में प्रारम्भ से ही प्रस्तर, काष्ठ फलक तथा ताम्रपत्र आदि जैसे स्थायी लेखन आधारों के साथ-साथ भूर्जपत्र, ताड़पत्र, वस्त्र आदि कोमल पदार्थों पर भी लेख लिखे जाते थे। साहित्यिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि कागज के प्रचलन से पूर्व कोमल पदार्थों की श्रेणी में भूर्जपत्र भारत विशेषत: उत्तरी भारत में एक प्रमुख व लोकप्रिय लेखन आधार रहा। भूर्जपत्र की पवित्रता के कारण इसका प्रयोग हस्तलिखित ग्रन्थ, पंचाग, भविष्यफल, तन्त्र-मन्त्र, आदि के लिए तो किया ही जाता था, साथ ही पत्र लेखन व औषधियों के लिए भी भूर्जपत्रों के प्रयोग के अनेक उदाहरण साहित्यिक संदर्भों में यत्र-तत्र प्राप्त होते हैं।
भूर्जपत्र पर लिखी हुई अधिकांश पुस्तकें या ग्रन्थ उत्तरी भारत विशेषत: कश्मीर में पाये जाते हैं। कश्मीर में भूर्जपत्रों के प्रचलन के सम्बन्ध में प्राच्यविद् जॉर्ज ब्यूलर(1) अपनी रिर्पोट में लिखते हैं कि प्राचीन काल से लेकर मुगल काल तक कश्मीर में इसका प्रयोग अनवरत रूप से जारी रहा। कश्मीर विजय के पश्चात अकबर ने वहाँ कागज का उत्पादन प्रारम्भ करवाया। इस प्रकार कश्मीर में कागज उद्योग विकसित होने से लेखन के लिए भूर्जपत्रों का प्रयोग बन्द हो गया तथा इसके निर्माण की विधि लोग भूल गये। कालान्तर में भारत के अन्य भागों सहित मध्य एशिया में भी भूर्जपत्रों का प्रसार हुआ, जबकि दक्षिण भारत में ताड़पत्रों की बहुलता के कारण यह वहाँ कभी अधिक लोकप्रिय नहीं हो सका। कतिपय धार्मिक कार्यों में भूर्जपत्रों का सीमित रूप से प्रयोग वर्तमान समय में भी देखा जा सकता है।
सामान्य परिचय : भूर्जपत्र में भूर्ज के साथ प्रयुक्त होने वाले ‘पत्र’ शब्द से लगता है कि ताड़पत्रों की तरह लेखन के लिए वृक्ष के पत्तों को ही प्रयोग में लाया जाता रहा होगा, किन्तु वास्तव में यह भूर्ज नामक वृक्ष की आन्तरिक कोमल छाल होती है, जो हिमालय क्षेत्र में लगभग 14,000 फीट (4,600 मी.) की ऊँचाई पर बहुतायत में मिलते हैं। गुप्तकालीन विश्वकोशीय ग्रन्थ अमरकोष में ‘चर्मि’ व ‘मृदुत्वच’ भूर्ज के दो पर्याय मिलते हैं,(2) जबकि ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी में भारत आए अरबी यात्री अलबरुनी अपने विवरण में इस वृक्ष को ‘तुज’ की संज्ञा देते हैं।(3) साथ ही इसे ‘लेखन’ के एक दूसरे नाम से भी जाना जाता है।(4) ऋतु परिवर्तन के प्रभाव से सर्दियों में इस वृक्ष की छाल स्वत: वृक्ष से अलग होती रहती है। यह छाल कभी-कभी 60 फुट तक निकल आती है, जो प्रारम्भ में चौड़ी तथा बाद में क्रमश: संकरी होती चली जाती है। ओ. पी. अग्रवाल(5) के अनुसार यह छाल कई परतों से बनी होती है तथा प्रत्येक परत कागज की तरह ही बहुत पतली होती है। ये परतें एक-दूसरे से प्राकृतिक गोंद और लकड़ी की गाँठों के द्वारा जुड़ी होती हैं। लेखन हेतु भूर्ज के छाल की इन्हीं परतों का प्रयोग पत्र के रूप में किया जाता है।
पत्र निर्माण व लेखन प्रक्रिया : भूर्जपत्र को लिखने योग्य बनाने हेतु सर्वप्रथम भूर्ज की आन्तरिक छाल को वृक्ष से उतारने के बाद उसे सुखाया जाता था, तत्पश्चात इस पर तेल रगड़ कर चिकना व चमकदार बनाया जाता था। इस प्रक्रिया के अन्त में इन्हें वांछित आकार में काटकर लिखने के लिए इनका उपयोग किया जाता था तथा इन्हें सुरक्षा की दृष्टि से दो समान आकार के काष्ठ फलकों के मध्य रखा जाता था।(6) इस सम्बन्ध में अलबरुनी ने भी अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि मध्य व उत्तरी भारत में लोग ‘तूज’ वृक्ष की छाल का प्रयोग करते हैं, जिसका एक प्रकार धनुषों पर आवरण चढ़ाने के काम आता है, इसे भूर्ज कहा जाता है। वे एक गज लम्बा और अंगुलि पर्यन्त एक हाथ चौड़ा अथवा कुछ कम का टुकडा लेते हैं और अनेक तरह से तैयार करते हैं। वे उसे तेल से चिकना व चमकदार बनाते हैं, जिससे वह सख्त और चिकना हो जाए। तब वे उस पर लिखते हैं। उचित क्रम संख्या द्वारा प्रत्येक पत्र पर निशान लगाया जाता है। पूरी पुस्तक कपड़े के एक टुकडे में लपेट दी जाती है और उसी आकार की दो लकड़ी की दो पट्टियों से बाँध दिया जाता है। इस प्रकार की पुस्तक को ‘पुथी’ कहा जाता है।(7) डी. सी. सरकार(8) बताते हैं कि दक्षिण भारत की तालपत्र-पाण्डुलिपियों की तरह भूर्जपत्रों के टुकडों पर लिखित पाण्डुलिपियों में भी आर-पार धागा डालने के लिए एक या दो छेद रहते थे। उन्होंने बावर पाण्डुलिपि का उदाहरण दिया है, जिनके पत्रों में धागा बांधने के लिए आर-पार छेद किया गया है। भूर्जपत्रों पर सम्भवत: स्याही से लिखते समय ही मध्य में कुछ स्थान छोड़ दिया जाता था, जिससे बाद में धागा बांधने के लिए छेद किया जा सके।
भूर्जपत्रों हेतु स्याही व लेखनी : कागज की तरह कोमल लेखन आधार होने के कारण भूर्जपत्रों पर सामान्यत: कलम व स्याही से ही लिखा जाता था, जबकि ताड़पत्रों पर अक्षर प्राय: उत्कीर्ण किये जाते थे। भूर्जपत्रों पर लिखने के लिए विभिन्न प्रकार की स्याहियों को प्रयोग में लाया जाता था। इनमें काली स्याही बहुत लोकप्रिय थी, जिसका प्रयोग व्यापक रूप से किया जाता था। भूर्जपत्रों के लिए कश्मीर में एक विशेष प्रकार की पक्की काली स्याही बनायी जाती थी, जिसका वर्णन ब्युलर ने अपनी कश्मीर रिपोर्ट में किया है। उसके अनुसार भूर्जपत्रों पर लिखने के लिए स्याही बादाम के छिलकों के कोयलों को गौमुत्र में उबाल कर बनायी जाती थी। इस प्रकार बनी स्याही नमी या पानी से प्रभावित नहीं होती।(9) जोनराजकृत राजतरंगिणी में वर्णित एक मुकदमे का रोचक उदाहरण देते हुए गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने बताया है कि भूर्जपत्र उष्ण हवा में जल्दी खराब हो जाते हैं, परन्तु जल में पडे़ रहने से वे बिल्कुल नही बिगड़ते इसलिए कश्मीर वाले जब भूर्जपत्र के पुस्तकों को साफ करना चाहते हैं, तब उनको जल में डाल देते हैं जिससे पत्रों एवं अक्षरों के ऊपर की मैल निकल कर वे फिर स्वच्छ हो जाते हैं और न स्याही हल्की पड़ती है और न ही फैलती है। भूर्जपत्र पर लिखे हुए पुस्तकों में कहीं अक्षर आदि अस्पष्ट हों तो ऐसा करने से वे भी स्पष्ट दिखने लग जाते हैं।(10) इसके अतिरिक्त भारत में तेज धारदार व लकड़ी के हत्थे सहित धातु व अस्थि के उपकरण बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं,(11) जो सम्भवत: भूर्जपत्र लेखन के लिए प्रयुक्त किए जाते रहे होंगे।
भूर्जपत्रों की प्राचीनता : जहाँ तक लेखन के लिए भूर्जपत्र की प्राचीनता का प्रश्न है, तो अब तक उपलब्ध भूर्जपत्र की सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि दूसरी या तीसरी शती र्ईस्वी की काली स्याही से खरोष्ठी लिपि में लिखित प्राकृत ‘धम्मपद’ के कुछ अंशों की मानी जाती है, जो मध्य एशिया में खोतान से प्राप्त हुई है।(12) अन्य पाण्डुलिपियों में संयुक्तागमसूत्र पाण्डुलिपि (लगभग चौथी शती ई.), बावर पाण्डुलिपि (लगभग पाँचवीं शती ई.), बख्शाली पाण्डुलिपि (लगभग आठवीं शती ई.) प्रमुख हैं।(13) किन्तु इसके प्रचलन का प्रमाण चतुर्थ शती र्ईसा पूर्व से ही देखा जा सकता है। ग्रीक लेखक क्विण्टस कर्टियस(14) ने लिखा है कि सिकन्दर के आक्रमण के समय भारत के लोग लेखन के लिए वृक्षों की छाल के आन्तरिक कोमल भाग का प्रयोग करते थे। इस विवरण से स्पष्टत: संकेत मिलता है कि तत्कालीन समय में पश्चिमोत्तर भारत में लिखने के लिए भूर्जपत्रों का प्रयोग होता था। भारतीय जलवायु की प्रतिकूलता के कारण प्राचीन भूर्जपत्रों पर लिखित पाण्डुलिपियाँ वर्तमान समय तक सुरक्षित नहीं रह पायीं, किन्तु ब्रिटिश लाइब्रेरी को 1994 में एक मिट्टी के पात्र में सुरक्षित रखे हुए भूर्जपत्र प्राप्त हुए थे, खरोष्ठी लिपि में लिखित इन पाण्डुलिपियों का काल लगभग प्रथम शताब्दी ईस्वी है।(15) श्रृंगवेरपुर के उत्खनन के दौरान पी.जी.डब्ल्यू. स्तर से भी भूर्जपत्र की प्राप्ति हुई है, जिसका काल लगभग 800 ईसा पूर्व निर्धारित किया जा रहा है।(16) इस स्तर से मिलने वाली अस्थि तथा धातु की शलाकाओं के आधार पर भूर्जपत्रों के प्रचलन का अनुमान लगभग आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक लगाया जा रहा है। अभी हाल ही में सैन्धव लिपि के चिन्हों से अंकित एक भूर्जपत्र की खोज हुई है, जो वर्तमान में सुल्तानी संग्रहालय, अफगानिस्तान में सुरक्षित है।(17) हालाँकि अभी तक न तो इसकी रेडियोकार्बन तिथि निकल पायी है और न ही इसकी प्रमाणिकता सिद्ध हो पायी है।
साहित्यिक सन्दर्भों में भूर्जपत्र : लेखन सामग्री के रूप में भूर्जपत्रों के प्रयोग के अनेक सन्दर्भ भारतीय साहित्य में यत्र-तत्र प्रचुर मात्रा में बिखरे पड़े हैं, जिससे तत्कालीन समाज में इसके व्यापक प्रचलन व लोकप्रियता का सहज अनुमान किया जा सकता है। ‘भूर्ज’ शब्द का सबसे प्राचीनतम उल्लेख हमें यजुर्वेद की काठक संहिता में प्राप्त होता है, किन्तु यहाँ इसका प्रयोग लेखन सामग्री के रूप में ही किया गया है, यह स्पष्ट नही होता।(18) इतना अवश्य है की वैदिक संस्कृति के लोग इस वृक्ष से परिचित थे। जिस भौगोलिक क्षेत्र में आर्य निवास करते थे, वहाँ भूर्ज के वृक्ष बहुलता से उगते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इसका उल्लेख ताली व ताड़ के साथ कुप्य (जंगली) वर्ग में मिलता है, जहाँ इनको संग्रह योग्य बतलाया गया है, (तालीतालभूर्जानां पत्रम्।)।(19) ताली, ताड़ व भूर्जपत्र तीनों ही लेखन सामग्री के ही प्रकार हैं अत: ऐसा लगता है कि मौर्य काल में राजा के आदेशों को लिखने व पत्राचार आदि के लिए राजकीय कार्यालय में इनका प्रयोग किया जाता रहा होगा अत: कुप्याध्यक्ष (जंगली पदार्थों का अध्यक्ष) को इन वस्तुओं के संग्रह की सलाह दी गयी है।
भूर्जपत्रों का लेखन सामग्री के रूप स्पष्ट उल्लेख सर्वप्रथम महाकवि कालिदास के ग्रन्थों में मिलता है। इनकी रचनाओं में हम भूर्जपत्र व उन पर लिखे हुए पत्रों का प्रचुरता से उल्लेख पाते हैं। रघुवंश में कम्बोज विजय के पश्चात रघु द्वारा हिमालय पर्वत पर चढ़ने के दौरान वहाँ के वातावरण का सूक्ष्म वर्णन करते हुए कालिदास ने भूर्जपत्रों का भी उल्लेख किया है।(20) कुमारसम्भवम् के प्रथम सर्ग में भी वह हिमालय का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस पर्वत पर उत्पन्न होने वाले जिन भोजपत्रों पर धातुरस से लिखे हुए अक्षर हाथियों के सुँड पर बनी हुयी लाल बुंदियों जैसे दिखाई पड़ते हैं, विद्याधर सुन्दरियाँ अपने प्रेमपत्र लिखने के लिए काम में लाया करती हैं (न्यास्ताक्षरा धातुरसेन यत्र भूर्जत्वचः कुड्बिन्दूशोणा। व्रजन्ति विद्याधरसुन्दरीणामनबलेखक्रियायोपयोगम्।।)।(21) इसी प्रकार विक्रमोर्वशीय नाटक के द्वितीय अंक में देवांगना उर्वशी द्वारा राजा पुरुरवा को भूर्जपत्र पर प्रेमपत्र लिखने का प्रसंग मिलता है तथा विदूषक द्वारा इसे साँप की केचुली के समान बताया गया है।(22)
प्रेमपत्र लिखने के लिए भूर्जपत्र का प्रयोग बाद के ग्रन्थों में भी देखा जा सकता है। आठवीं शताब्दी के उद्योतनसूरि कृत कुवलयमाला से ज्ञात होता है कि कुवलयमाला ने कुमार कुवलयचन्द्र को अपने प्रेमोद्गार भूर्जपत्र पर अंकित करके भेजे थे।(23) बाणभट्ट ने हर्षचरित में भूर्जपत्र का कई स्थलों पर उल्लेख तो किया है,(24)
किन्तु लेखन सामग्री के रूप में नहीं। दूसरी तरफ इसी ग्रन्थ के सप्तम् उच्छवास में कामरूप के शासक भास्करवर्मा द्वारा हर्ष के दरबार में भेजे गये उपहारों में अगरु वृक्ष की छाल पर लिखित सुभाषित ग्रन्थों का भी उल्लेख मिलता है।(25) इससे ज्ञात होता है कि प्राचीन असम में भूर्जपत्रों के ही समान अगरु वृक्ष की छाल ग्रन्थ लेखन के लिए प्रयुक्त की जाती थी। ग्यारहवीं शती के लेखक धनपाल के तिलक मंजरी नाटक में कामरूप देश की लौहित्य नदी के किनारे स्थित विजयस्कन्धावार से कमलगुप्त द्वारा हरिवाहन को भोजपत्र पर पत्र लिखने का सन्दर्भ प्राप्त होता है।(26) इस विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि सम्भवत: इस समय तक असम प्रदेश में भी न्यूनाधिक रूप से भूर्जपत्र प्रचलन में आ गया हो।
पूर्व मध्यकालीन कवि राजशेखर ने तत्कालीन कवियों की लेखन सामग्री का विवरण अपने ग्रन्थ काव्यमीमांसा के दसवें अध्याय में दिया है। जहाँ उन्होंने इसमें लेखनी, स्याही, ताड़पत्र आदि के साथ भूर्जपत्र की भी गणना की है (सलेखनीकमषीभाजनानि ताडिपत्राणि भूर्जत्वचो वा।)।(27) इसी प्रकार आठवीं शती के टीकाकार असहाय ने भी नारदस्मृति पर टीका करते हुए न्यायालय में न्यायिक कार्यवाही को लिखने के लिए लेखन सामग्री के रूप में भूर्जपत्र के प्रयोग का उल्लेख किया है (तदेव फलकादिष्विति फलक-पत्र-भूर्ज-संपुटिका-कुड्येष्वपि यथासंभव तत्क्षणमेव लेखको लिखेदिति।)।(28)
ग्यारहवीं शताब्दी के कश्मीर लेखक क्षेमेन्द्र द्वारा रचित लोक प्रकाश के प्रथम प्रकाश में जहाँ लेखन सामग्री में भूर्जपत्र का उल्लेख हुआ है,(29) वहीं चतुर्थ प्रकाश में भूर्जपत्र पर लिखित पचास लेखों के संग्रह का प्रशस्ति के रूप में वर्णन किया गया है तथा कहा गया है कि पुराण, तर्क, मीमांसा, वेद आदि सभी शास्त्र भूर्जपत्र पर ही लिखे गये।(30) इसके साथ ही इसमें एक विक्रय पत्र का प्रारूप भी दिया गया है, जिसे वाक्य विक्रय भूर्ज कहा गया है।(31) इससे लगता इस पत्र को भूर्जपत्र पर ही लिखा गया होगा। जोनराजकृत राजतरंगिणी में एक मुकदमे के प्रसंग में भूर्जपत्र पर लिखे विक्रय पत्र का उल्लेख हुआ है।(32) इसी प्रकार श्रीहर्ष के नैषधीयचरित में भी लेखन सामग्री के रूप में भूर्जपत्र का सन्दर्भ मिलता है।(33) गुजरात की अर्थव्यवस्था पर आधारित लेखपद्धति नामक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें कई प्रकार के लेखों का प्रारूप संकलित है। इनमें भूर्जपत्रों पर लिखित राजकीय लेखो के कतिपय ऐसे प्रारूप दिये गये, जिन्हें ‘श्री भूर्जपत्त्तला’ की संज्ञा दी गयी है।(34) इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समय में राजकीय पत्राचार सम्भवत: भूर्जपत्रों के माध्यम से होता था।
उपरोक्त वर्णित उदाहरणों के अतिरिक्त कतिपय धार्मिक ग्रन्थों में भूर्जपत्र को पवित्र मानते हुए उस पर तन्त्र-मन्त्र आदि लिखने के सन्दर्भ भी प्राप्त होते हैं। इस श्रेणी में सर्वप्रथम अग्नि पुराण आता है, जिसमें भूर्जपत्रों पर देवताओं के यन्त्र लिखने के सन्दर्भ मिलते हैं (भूर्जेरोचनया..लिख्य एतद्वज्राकुलं पुरम्। क्रमस्थैर्मन्त्रबीजैस्तु रक्षां देहेषु कारयेत्।।)(35) वैष्णव सम्प्रदाय के पंचरात्र ग्रन्थ लक्ष्मी तन्त्र में भी कहा गया है कि देवी लक्ष्मी के मन्त्रों को रोचन से भूर्जपत्रों पर ही लिखा जाना चाहिए।(36) इसी प्रकार सोलहवीं शती के ग्रन्थ योगिनी तन्त्र में पुस्तकों को भूर्जपत्र पर लिखने का निर्देश मिलता है।(37) आज भी इसकी पवित्रता के कारण धार्मिक कार्यों तथा ज्योतिष सम्बन्धी गणना में इसे प्रयोग में लाया जाता है।
निष्कर्ष : उपरोक्त विवरण के आधार पर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्राचीन काल में भूर्जपत्र एक पवित्र व लोकप्रिय लेखन आधार था, जिसका प्रचलन दक्षिणी भारत को छोड़कर कश्मीर सहित भारत के विभिन्न भागों में था। लेखन हेतु भूर्जपत्र का उल्लेख कौटिल्य से लेकर कालिदास, राजशेखर, क्षेमेन्द्र, धनपाल, श्रीहर्ष आदि की रचनाओं में हुआ है, जो उत्तरी भारत में इसकी लोकप्रियता का ही सूचक है तथा भूर्जपत्र के व्यापक प्रचलन को भी प्रमाणित करता है। इन साहित्यिक सन्दर्भों से भूर्जपत्र पर हस्तलिखित ग्रन्थ, प्रेमपत्र, राजकीय पत्र आदि के साथ-साथ न्यायिक कार्यवाही व तन्त्र मन्त्र लिखने जैसे अनगिनत उदाहरण मिलते हैं। साथ ही लेखन के अतिरिक्त कतिपय ग्रन्थों में भूर्जपत्र का उल्लेख वनौषधि रूप में भी किया गया है, जो इसके महत्व व उपयोगिता में वृद्धि करता है। यद्यपि सल्तनत काल में मुसलमानों द्वारा कागज के व्यापक प्रयोग किये जाने से भूर्जपत्रों का प्रचलन सीमित हो गया, किन्तु कागज़ की लोकप्रियता के बीच अपनी सहज उपलब्धता एवं पवित्रता के कारण न्यूनाधिक रूप से धार्मिक क्रियाकलापों सहित जन्म कुण्डली आदि बनाने में भूर्जपत्रों का प्रयोग वर्तमान समय में भी देखा जा सकता है।
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सहायक आचार्य (गेस्ट फैकेल्टी), इतिहास विभाग, राजकीय कन्या महाविद्यालय खींवसर, नागौर 341025
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