- अनामिका यादव
शोध सार : प्रस्तुत आलेख के केंद्र में मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई बाल-कहानी ‘प्रेरणा’ है, जिसका प्रकाशन दैनिक ‘विशाल भारत’ में 1931 में हुआ था । इस आलेख में ‘प्रेरणा’ कहानी में कहानीकार द्वारा हमारी विद्यालयी व्यवस्था में बालक की उपस्थिति के बारे उठाये गये कुछ गम्भीर और महत्वपूर्ण सवालों की पड़ताल करने की कोशिश की गई है।
भूमिका : प्रेमचंद की पहचान एक बाल-साहित्यकार के रुप में बिल्कुल नहीं रही है। लेकिन उनकी कुछ कहानियों मसलन – ईदगाह, दो बैलों की कथा, गुल्ली-डंडा, विमाता, कज़ाकी आदि को बाल-कहानियों की श्रेणी में रखा जाता है। जिनके केंद्र में बचपन की वे मधुर स्मृतियाँ और जीवन का वह सहजबोध अन्तर्निहित है, जो किसी व्यक्ति को जीवन पर्यंत प्रेरणा देता रहता है। ‘प्रेरणा’ ‘मैं’ शैली में लिखी प्रेमचंद की एक ऐसी ही कहानी है, जिसमें कहानी के प्रमुख पात्र सूर्यप्रकाश और कथावाहक - जो कि उसका शिक्षक है - के बहाने हमारी विद्यालयी व्यवस्था में बचपन की मौजूदगी को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। यह कहानी हमारी विद्यालयी व्यवस्था की आत्मालोचना की आवश्यकता को अत्यंत सशक्त और सहजतापूर्ण ढंग से हमारे सामने लाती है।
शिक्षा-व्यवस्था और समस्यात्मक बालकों का भूत :
हमारी शिक्षा-व्यवस्था में अनुशासन के नाम पर अध्यापकीय और विद्यालयी तंत्र के शासन का जो रुप दिखायी देता है वह कुछ और नहीं, बल्कि कृष्ण कुमार के शब्दों में कहें तो, “अनुशासन का सैन्यीकरण”1 है। सभी को एक तयशुदा खाँचे में ढालना, जहाँ बालक के ‘स्व’ को बिल्कुल हाशिये पर धकेल दिया जाता है; जहाँ, बालक के ‘स्व’ को न के बराबर या उतना ही स्थान मिलता है, जितना कि शिक्षा-व्यवस्था के संचालन के लिए आवश्यक हो; और जो कि अक्सर बालक के ‘स्व’ की अवहेलना करता हुआ या उसे तोड़-मरोड़कर अपने अनुकूल बनाता हुआ दिखाई देता है। जो भी बालक अनुशासन के इस खाँचे के अनुकूल नहीं होता उसे हमारी शिक्षा-व्यवस्था ‘समस्यात्मक बालक’ का नाम दे डालती है। ‘प्रेरणा’ कहानी बारह तेरह साल के गिरोहबन्दी में अभ्यस्त और ऊधमी प्रकृति वाले एक ऐसे ही बालक सूर्यप्रकाश के जिम्मेदार और कर्तव्यनिष्ठ बालक के रुप में रुपांतरण की कहानी है, जो शाला में आतंक का पर्याय बना हुआ था। “अध्यापकों को बनाने और चिढ़ाने, उद्योगी बालकों को छेड़ने और रुलाने में ही उसे आनंद आता था”2। शाला में उसके आतंक का वर्णन कथावाहक ‘मैं’ इस प्रकार करता है – “मुख्य अधिष्ठाता की आज्ञा टल जाय, मगर क्या मज़ाल कि कोई उसके हुक्म की अवज्ञा कर सके”3; और चूँकि कथावाहक उसी कक्षा का कक्षाध्यापक था, ऐसे में उसकी चुनौती अन्यों से अलग थी। वह कहता है - “मेरी कक्षा में सूर्यप्रकाश से ज्यादा ऊधमी कोई लड़का न था, बल्कि यों कहें कि अध्यापन काल के दस वर्षों में मुझे ऐसी विषम प्रकति के शिष्य से साबका न पड़ा था”4।
शिक्षणशास्त्रीय सिद्धांतों का व्यवहारिक द्वन्द्व :
प्रेमचंद इस कहानी के जरिये विद्यालयी व्यवस्था के संचालन में शामिल लोगों और अध्यापकीय जीवन के कुछ बुनियादी अन्तर्द्वन्द्वों को सामने लाने का प्रयास करते हैं। शिक्षा का सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य जहाँ विद्यालयी परिवेश को बच्चों के प्रति द़ोस्ताना (welcoming) और उनके अनोखेपन (uniqueness) को स्वीकार करने योग्य बनाने पर बल देता है, वहीं इसका व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य इससे बिल्कुल भिन्न दिखाई देता है। सिद्धांत और व्यवहार का यह फ़र्क इस कहानी में भी दिखाई देता है, जहाँ शैक्षिक प्रशासन में पारंगत अध्यापक भी ऊधमी बालक सूर्यप्रकाश को दुश्मन की तरह देखते हैं और उसकी शरारतों को आत्मीयतापूर्वक गढ़ने की जगह, उसका सामना करने से भागते हैं। अध्यापकों की तमाम बैठकों के बाद भी यह गुत्थी सुलझाई न जा सकी। कथावाहक आधुनिक शिक्षा विधियों से परिचित होने के कारण विद्यार्थियों को दण्ड देने के पक्ष में न था, लेकिन यहाँ इस ऊधमी बालक को दण्ड देने से बचने का कारण कुछ और था, और वह यह था कि, “कहीं उपचार से भी रोग असाध्य न हो जाय”5। कथावाहक आगे कहता है कि “सूर्यप्रकाश को स्कूल से निकाल देने का प्रस्ताव भी किया गया, पर इसे अपनी योग्यता का प्रामाण समझकर हम इस नीति का व्यवहार करने का साहस न कर सके”6।
सूर्यप्रकाश का बर्ताव विद्यालय के संचालन कार्य में लगे तमाम लोगों विशेषतौर पर शिक्षकों के अहं को चुनौती देने वाला था। प्रेमचंद लिखते हैं - “बीस-बाईस अनुभवी और शिक्षाशास्त्र के आचार्य एक बारह-तेरह साल के उदण्ड बालक का सुधार न कर सकें, यह विचार बहुत ही निराशाजनक था”7। लेकिन उसका यह व्यवहार स्वयं कथावाहक के लिए सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि वह उसकी कक्षा का कक्षाध्यापक भी था। कथावाहक के हवाले से प्रेमचंद लिखते हैं - “यों तो सारा स्कूल उससे त्राहि-त्राहि करता था, मगर सबसे ज्यादा संकट में मैं था, क्योंकि वह मेरी कक्षा का छात्र था”8। कथावाहक को अपनी संचालन क्षमता पर गर्व था, और ऐसे में उसी की कक्षा के एक छात्र पर उसका नियंत्रण न होना उसे विद्यालयी समाज में अपमानजनक लगता था। शिक्षणशास्त्र कहता है कि उसे सूर्यप्रकाश के साथ अन्य अध्यापकों जैसा पेश नहीं आना चाहिए, लेकिन उसकी उदण्डता और शरारतों के आगे वह खुद को निरुपाय पाता है। उसका यह कथन कि “मुझे अपनी संचालन-विधि पर गर्व था। ट्रेनिंग कालेज में इस विषय में मैंने ख्याति प्राप्त की थी, मगर यहाँ मेरा सारा संचालन कौशल जैसे मोर्चा खा गया था”9, इस बात का स्पष्ट संकेत देता है। कथावाहक के भीतर चलने वाली यह कश्मकश उसका पीछा नहीं छोड़ती - “एक दिन मैंने अपनी मेज की दराज़ खोली, तो उसमें से एक बड़ा सा मेढक निकल पड़ा। .... सारा घंटा उपदेश में बीत गया और वह पठ्ठा सिर झुकाये नीचे मुस्करा रहा था”10।
प्रेमचंद इस कहानी में उन सवालों से जूझते दिखाई देते हैं जिन सवालों पर उनके बहुत बाद तेत्सुका कुरोयानागी अपनी पुस्तक ‘तोत्तो-चान : खिड़की में खड़ी नन्ही लड़की’ में सोसुको कोबायासी द्वारा स्थापित अनोखे स्कूल के बहाने बात करते हैं। तोत्तो-चान एक ऊधमी और चंचल लड़की थी। कोबायासी उसके गुरु थे। कुरोयानागी की उपरोक्त पुस्तक के हवाले से शिवरतन थानवी लिखते हैं – “तोत्तो-चान एक सात बरस की लड़की थी। चंचल लड़की। सवालों से भरी लड़की। ... ऊधम बहुत करती। जिस स्कूल में जाती, उस स्कूल के गुरुजी नाराज हो जाते। स्कूल से निकाल देते”11। सूर्यप्रकाश और तोत्तो-चान दोनों ऊधमी हैं, लेकिन दोनों के स्कूल अलग हैं, दोनों के शिक्षक अलग हैं। थानवी लिखते हैं - “सोसुको कोबायासी ने उसको नहीं निकाला। सोसुको कोबायासी ने उसकी कोई शिकायत उसके माँ-बाप से नहीं की”12। थानवी अन्य स्कूलों के साथ इस स्कूल की तुलना करते हुए आगे लिखते हैं – “तोत्तो-चान के माँ-बाप कोबायासी से बहुत खुश थे। उनकी लड़की दूसरे स्कूलों में जाती तब रोती हुई जाती थी और वापस आती तब हँसती हुई आती थी। कोबायासी के स्कूल में वह हँसती हुई जाती थी और वापस आती तब हँसती हुई वापस आती थी”13। बच्चों को देखने का यही वह नज़रिया था, जिसकी ओर प्रेमचंद कुरोयानागी से बहुत पहले संकेत कर रहे थे।
परीक्षा व्यवस्था के हाथ का अमोघ अस्त्र :
परीक्षा हमारी शिक्षा व्यवस्था के हाथ का वह अमोघ अस्त्र है, जिसके जरिये वह बालक के ऊपर अपना नियंत्रण निर्णायकतौर पर कायम रखती है। ‘प्रेरणा’ कहानी में भी परीक्षा के इस हथियार का इस्तेमाल सूर्यप्रकाश पर नियंत्रण कायम करने के लिये किया जाता है। कथावाहक के हवाले से प्रेमचंद लिखते हैं, “तुम इस कक्षा में उम्र भर पास नहीं हो सकते”14, लेकिन परिणाम इसके उलट आता है। कथावाहक कहता है - “जब सूर्यप्रकाश का उत्तर-पत्र देखा, तो मेरे विस्मय की सीमा न रही। मेरे दो पर्चे थे, दोनों ही में उसके नम्बर कक्षा में सबसे अधिक थे”15; और यह सत्य उद्ण्ड और शरारती बालकों के बारे में प्रचलित इस मान्यता को खारिज कर रहा था कि परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन वहीं बच्चे कर सकते हैं जो कि विनम्रता और अनुशासन की प्रतिमूर्ति हों। प्रेमचंद यहाँ मनोविज्ञान की बालक के बौद्धिक विकास सम्बन्धी तमाम परम्परागत बहसों का समाहार प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं, जो अनुशासन और व्यवहारजन्य विनम्रता को बालक के बौद्धिक विकास के पर्याय के रुप में देखती हैं। वे इस बात की स्पष्ट वकालत करते हैं कि बालक का अनुशासित व्यवहार और उसकी बौद्धिक क्षमता सर्वथा भिन्न बातें हैं।
बालक को समझने की आवश्यकता पर बल :
कथावाहक ‘मैं’ पुराने ढर्रे पर चलने वाला अध्यापक नहीं है, बल्कि वह एक शिक्षणशास्त्र और कक्षा-संचालन की आधुनिक प्रविधियों में कुशल अध्यापक है। वह सूर्यप्रकाश के रुप में विद्यालयी व्यवस्था के समक्ष मौजूद इस समस्या की परतों को समझने की कोशिश करता है, और इस बात को लेकर वह लगातार चिंतित रहता है। प्रेमचंद लिखते हैं – “अन्य अध्यापकों को मैं सूर्यप्रकाश के विषय में जरा भी चिंतित न पाता था। मानों ऐसे लड़कों का स्कूल में आना कोई नयी बात नहीं, मगर मेरे लिये यह विकट रहस्य था”16। वह इस विकट रहस्य की गुत्थी को समझने और उसे सुलझाने के प्रति हमेशा चिंतित रहता था। उसकी चिंता अपने सामने दिन-प्रतिदिन आने वाली समस्याओं तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह अपने इस ऊधमी छात्र के भविष्य को लेकर भी चिंतित दिखाई देता है। उसका यह भय मिश्रित विक्षोभ कि “अगर यहीं ढंग रहे तो एक दिन या तो जेल में होगा, या पागलखाने में”17, इस बात को जाहिर करता है। सूर्यप्रकाश के व्यवहार को वह अन्य अध्यापकों की तरह एक सामान्य परिघटना मान कर उसे नज़रअंदाज़ नहीं करता, बल्कि उनके पीछे निहित कारणों को जानना चाहता है, वह उन कारणों से दो-चार होते हुए उसके व्यवहार का परिष्कार करना चाहता है; और ऐसा कर पाने में ख़ुद की असफलता उसे हमेशा कचोटती है।
संवेदना जो कहीं भीतर दबी पड़ी है :
इन तमाम उदण्डताओं के बावजूद सूर्यप्रकाश के भीतर संवेदना का वह रुप जिसे लज्जा या आत्मग्लानि कहते हैं, अवश्य मौजूद थी। प्रकट व्यवहार में उसका अहं ही दिखाई देता था, बहुत अन्दर कहीं उसके वजूद की गहराईयों में सामाजिक नैतिकता के भान की मौजूदगी का अहसास जरूर होता है, जिसका स्पष्ट संकेत कथावाहक ‘मैं’ के स्थानान्तरण के पश्चात उसकी विदाई के समय दिखाई देता है। कथावाहक के हवाले से प्रेमचंद लिखते हैं – “उस वक्त सभी लड़के आँखों में आँसू भरे हुए थे। मैं भी अपने आँसूओं को न रोक सका। सहसा मेरी निगाह सूर्यप्रकाश पर पड़ी, जो सबसे पीछे लज्जित खड़ा था”18। उसकी यह लज्जा कथावाहक को - जो कि उसकी उदण्डता से परेशान होने के बावजूद उसके प्रति हमदर्दी रखता है - द्रवित कर देती है। वह चाहता है कि उससे दो-चार बातें कर ले, शायद इस दशा में की गयी दो-चार बातें उसके दिल पर असर कर जातीं, लेकिन दुविधावश वह ऐसा कर नहीं पाता, और उसके मन में बहुत दिनों तक इसका मलाल बना रहता है।
गाड़ी चल पड़ती है। गाड़ी चलने के समय बच्चों के कोमल मन की अभिव्यक्ति को कथावाहक के बहाने प्रेमचंद इन शब्दों में बयान करते हैं – “कुछ देर मुझे उनके हिलते हुए रुमाल नजर आये। फिर वे रेखाएँ आकाश में विलीन हो गयीं, मगर एक अल्पकाय मूर्ति अब भी प्लेटफार्म पर खड़ी थी”19। प्लेटफार्म पर खड़ी यह अल्पकाय मूर्ति कोई और नहीं, सूर्यप्रकाश ही था।
अध्यापकीय जीवन : मध्यवर्गीय स्वप्नलोक और उसकी दुविधा :
कहानी का कथावाहक ‘मैं’ पेशे से अध्यापक है और इस प्रकार अपनी सामाजिक हैसियत में वह एक मध्यवर्गीय चरित्र है। कहानी में उसके इन दो रुपों – अध्यापकीय जीवन के आदर्शलोक और मध्यवर्गीय जीवन की महत्वाकाँक्षाओं के बीच एक स्पष्ट द्वन्द्व दिखायी देता है। एक तरफ जहाँ वह अपने पेशे के उच्च आदर्शों से जुड़ा दिखायी देता है, वहीं मध्यवर्गीय महत्वाकाँक्षाओं की असीमता भी उसके व्यवहार में साफ दिखती है। तीन वर्ष तक इंगलैण्ड में ‘विद्याभ्यास’ के बाद लौटने पर उसे एक कालेज में प्रिंसीपल बना दिया जाता है। यह सफलता उसके लिए कल्पनातीत थी। कथावाहक के हवाले से प्रेमचंद लिखते हैं – “मेरी भावना स्वप्न में भी इतनी दूर न उड़ी थी; किन्तु पदलिप्सा किसी और ऊँची डाली पर आश्रय लेना चाहती थी”20। शिक्षामंत्री के साथ निकटता बढ़ायी और मंत्री जी के कृपा-पात्र बन गये। इनके बहाने से प्रेमचंद मध्यवर्ग की वैचारिक दकियानूसी पर तीक्ष्ण व्यंग्य करते हैं। कथानायक का यह कथन कि “मैं सिद्धांत रुप से अनिवार्य शिक्षा का विरोधी हूँ। ... यूरोप में अनिवार्य शिक्षा की जरुरत है, भारत में नहीं”21, तत्कालीन मध्यवर्ग की वैचारिक पक्षधरता को सामने लाता है। जिसकी नजर में भारत में शिक्षा की अहमियत को इस रुप में देखा जा सकता है - “दरिद्र से दरिद्र हिन्दुस्तानी मजदूर भी शिक्षा के उपकारों का कायल है। उसके मन में यह अभिलाषा होती है कि मेरा बच्चा चार अक्षर पढ़ जाए। इसलिए नहीं कि उसे कोई अधिकार मिलेगा; बल्कि इसलिए कि विद्या मानवी शील का एक श्रृँगार है”22। प्रेमचंद इस बहाने से आम भारतीय जनमानस में चलने वाली उन तमाम रुढ़िवादी बहसों की अर्थहीनता पर टिप्पणी करते हैं, जो शिक्षा को साक्षरता तक सीमित करती हैं, और उसे व्यक्ति के बौद्धिक तथा तर्कशील मानस के विकास का निमित्त मानने की बजाय महज मानवी शील के श्रृँगार के उपादान के रुप में मान्यता देती हैं। कथानायक को अपने इन रुढ़िवादी विचारों के कारण विपक्षी राजनीतिक दलों का निशाना बनना पड़ता है। राजनीतिक संतुलन बरकरार रखने के क्रम में सत्ता भी उसका साथ छोड़ देती है और उसे त्यागपत्र देना पड़ता है। उसे न केवल त्यागपत्र देना पड़ता है बल्कि जीवन के प्रति उसकी लगन भी गायब हो जाती है और वह संसार से विरक्त हो कर एकांतवास करने एक गाँव में चला जाता है। उस छोटे से गाँव में अपना समय काटने के लिये एक छोटी सी पाठशाला खोल लेता है, जहाँ आस-पास के गाँवों के बच्चे पढ़ने आते थे।
इसी पाठशाला में बारह-तेरह साल बाद एक दिन डिप्टी कमीश्नर के रुप में सूर्यप्रकाश उससे मिलने, उसे खोजते हुए पहुँचता है। थोड़ी दुविधा के साथ कथावाहक सूर्यप्रकाश को पहचान भी लेता है। प्रेमचंद सूर्यप्रकाश के बहाने विद्यार्थी के मन में अपने अध्यापक के प्रति निहित श्रद्धा-भाव का उल्लेख कुछ इस प्रकार करते हैं – “अध्यापक लड़कों को भूल जाते हैं, पर लड़के उन्हें हमेशा याद रखते हैं”23।
हृदय परिवर्तन, जो प्रेमचंद के समय का एक प्रमुख गाँधीवादी मुहावरा था, उनके साहित्य में साफतौर पर परिलक्षित होता है। ‘प्रेरणा’ कहानी में भी इसे देखा जा सकता है। कथावाहक अपनी बर्ख़ास्तगी को अपने किये अर्थात् अपनी पदलिप्सा और दुचिताओं के दण्ड के बतौर व्याख्यायित करता है। वह उसे बर्खास्त करने वाले लोगों और परिस्थितियों को इसके लिये दोषी मानने की जगह, उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता है। प्रेमचंद कथावाहक के हवाले से लिखते हैं, “भाई, उनका दोष नहीं। सम्भव है, इस दशा में मैं भी वही करता, जो उन्होंने किया। मुझे अपनी स्वार्थलिप्सा की सजा मिल गयी, और उसके लिये मैं उनका ऋणी हूँ”24।
सूर्यप्रकाश का रुपांतरण : कथावाहक की बर्खास्तगी और उसका स्वीकारोक्तिनुमा प्रायश्चित सूर्यप्रकाश के मन में उसके प्रति श्रद्धाभाव को और बढ़ा देती है। उसकी बातें सुनकर सूर्यप्रकाश के चेहरे पर “कपटपूर्ण मुस्कान की जगह ग्लानि का रंग”25 दिखायी देता है। कथावाहक का उसके कपटपूर्ण व्यवहार से तो परिचय था, लेकिन अपने जीवन में आश्चर्यजनक सफलता हासिल करने वाले सूर्यप्रकाश के अन्दर अपने शिक्षक की मौजूदा हालात पर तरस खाने की जगह अपने अतीत के बर्ताव को लेकर आत्मग्लानि का भाव इस कदर होगा, इसकी उसे कत्तई उम्मीद न थी। वह ऊधमी और शरारती सूर्यप्रकाश के कायापलट के पीछे की कहानी जानना चाहता है।
दरअसल, कथावाहक के स्थानान्तरण के बाद ग्लानि और शर्मिंदगी का जो भाव उसके भीतर कहीं बहुत गहराई में दबा पड़ा था, उसे पुष्पित-पल्लवित होने का आधार मिला उसके आठ-नौ साल के ममेरे भाई मोहन के उसके जीवन में आगमन से। मोहन के रहने की व्यवस्था कहीं और न होने पर वह प्रिंसीपल से उसे हास्टल के अपने कमरे में रखने की इजाजत माँगता है, और प्रिंसीपल द्वारा इसे नियम विरुद्ध बताये जाने पर वह नाराजगी के साथ हास्टल छोड़ देता है और मोहन के साथ किराये के कमरे में रहने लगता है। मोहन की माँ की मृत्यु हो चुकी थी। उसकी कारुणिक दशा को बयान करते हुए सूर्यप्रकाश कहता है – “उसकी माँ कई साल पहले मर चुकी थी। इतना दुबला-पतला, कमजोर और गरीब लड़का था कि पहले ही दिन से मुझे उस पर दया आने लगी”26। आश्रयहीन मोहन की दारुण दशा और सूर्यप्रकाश पर उसकी निर्भरता ने उसके भीतर दबी संवेदना को झकझोर दिया। वह कहता है, वह “मेरे गले से लिपटकर सोता। मुझे उस पर कभी क्रोध न आता। कह नहीं सकता क्यों, मुझे उससे प्रेम हो गया”27। उसे अपने जीवन में मोहन के आगमन के साथ अपनी जिम्मेदारी का अहसास हुआ। वह कहता है – “मैं जहाँ पहले नौ बजे सो कर उठता था, अब तड़के उठ बैठता और उसके लिये दूध गरम करता। फिर उसे उठाकर हाथ-मुँह धुलाता और नाश्ता कराता। ... मैं जो कभी किताब लेकर न बैठता था, उसे घंटों पढ़ाया करता”28।
उसके व्यक्तित्व में इतना अप्रत्याशित रुपान्तरण हुआ कि जिसके आतंक से पूरी शाला काँपती थी, उसे उसके साथी “बूढ़ी दाई”29 कहकर चिढ़ाने लगे। उसका सोना-जागना, घूमना-फिरना, खाना-पीना सबकुछ मोहन की इच्छा-अनिच्छा से संचालित होने लगा। उसे हमेशा इस बात की चिंता लगी रहती कि “कहीं उसकी देखा-देखी यह भी खराब न हो जाय”30। और इस क्रम में उसका “नौ बजे सो कर उठना, बारह बजे तक मटरगश्ती करना, नई-नई शरारतों के मंशूबे बाँधना और अध्यापकों की आँख बचाकर स्कूल से उड़ जाना, सब आप ही आप जाता रहा”31।
विद्यालयी अनुशासन के लिए चुनौती सूर्यप्रकाश मोहन के प्रति अपने अनुराग के कारण स्वतः अनुशासित होता चला गया। प्रेमचंद लिखते हैं – “स्वास्थ्य और चरित्र-पालन के सिद्धांतों का शत्रु उनका परम रक्षक बन गया। जो अब तक ईश्वर का उपहास किया करता था, वह अब पक्का आस्तिक हो गया था”32। मोहन के साथ सूर्यप्रकाश के सम्बन्धों के वैचारिक तन्तुओं को प्रेमचंद कुछ यों बयान करते हैं – “वह (मोहन) बड़े सरल भाव से पूछता, परमात्मा सब जगह रहते हैं, तो मेरे पास भी होंगे। मैं (सूर्यप्रकाश) कहता – हाँ, परमात्मा तुम्हारे और हमारे सबके पास रहते हैं और हमारी रक्षा करते हैं। आश्वासन पाकर उसका चेहरा आनंद से खिल उठता था, कदाचित वह परमात्मा की सत्ता का अनुभव करने लगता था”32।
मोहन की अकस्मात मृत्यु हो जाती है। सूर्यप्रकाश उसे याद करते हुए अपने जीवन के लिए उसकी अहमियत को यों बयान करता है, “आह! वह संसार में नहीं है। मगर मेरे लिये वह अब भी उसी तरह जीता-जागता है। मैं जो कुछ हूँ, उसी का बनाया हुआ। अगर वह दैवी विधान की भाँति मेरा पथ-प्रदर्शक न बन जाता, तो शायद आज मैं किसी जेल में पड़ा होता”33। ठीक ऐसी ही सोच उसकी उदण्डताओं और शरारतों से परेशान कथावाहक की भी भयजनित चिंताओं में उपजती थी – “अगर यही ढंग रहे तो एक दिन या तो जेल में होगा या पागलखाने में”34।
मोहन भी सूर्यप्रकाश के प्यार का आकांक्षी था। सूर्यप्रकाश कहता है कि “एक दिन मैं कई मित्रों के साथ थियेटर देखने चला गया। ... तीन बजे रात को लौटा, तो देखा कि वह बैठा हुआ है”35। बालक के जीवन के लिए प्रेम की अहमियत को बयान करते हुए प्रेमचंद कहते हैं, “बच्चों में प्यार की जो एक भूख होती है – दूध, मिठाई और खिलौनों से भी ज्यादा मादक – जो माँ की गोंद के सामने संसार की निधि की भी परवाह नहीं करती, मोहन की वह भूख कभी संतुष्ट न होती थी”36। इस बात का एहसास सूर्यप्रकाश को भी था कि मोहन को उसके प्यार की जरुरत है, और यही वह बात थी, जो उसके जीवन को अनुशासन और प्रोत्साहन देती चली गयी।
मोहन और सूर्यप्रकाश के इस अनुरागपूर्ण सम्बन्ध के बहाने प्रेमचंद बाल-मन के उस कोमल स्वरुप का चित्रण करते हैं, जिसे उसके आधार से विलग करने का अर्थ है, उसे छिन्न-भिन्न कर देना। सूर्यप्रकाश के हवाले से वे लिखते हैं, “वह मुझसे ऐसा चिपट गया था कि पृथक किया जाता तो उसकी कोमल बेल के टुकड़े-टुकड़े हो जाते”37।
तमाम प्रयासों के बावजूद सूर्यप्रकाश मोहन को टाइफायड से बचा न सका, लेकिन अल्पकालिक संसर्ग की यादों ने उसे उसके कर्तव्यपथ की ओर प्रेरित करना जारी रखा। वह कहता है, “उसके जीवन के स्वप्न मेरे लिए किसी ऋषि के आशीर्वाद बन कर मुझे प्रोत्साहित करने लगे”38।
निष्कर्ष :
वैसे भी, कहानियाँ हमेशा से बच्चों की शिक्षा का एक सशक्त माध्यम रही हैं। कहानियों के शैक्षणिक सामर्थ्य को स्वीकार करते हुए कहानी-विधि को शिक्षण प्रक्रिया, विशेषकर बच्चों की शिक्षा की एक महत्वपूर्ण विधि के रुप में अपनाया जाता रहा है। स्पष्ट है प्रेमचंद भी कहानी-विधि की उस सामर्थ्य का इस्तेमाल अपनी बात कहने के लिए करते हैं। यह कहानी जितना बच्चों के शिक्षण से जुड़ी है उससे कहीं ज्यादा बच्चों की शिक्षा के लिए जिम्मेदार हमारी विद्यालयी-व्यवस्था और अध्यापकों से जुड़ी है। ध्यातव्य हो कि प्रेमचंद ख़ालिश एक लेखक ही नहीं थे। वे एक अध्यापक भी थे। उन्होंने लम्बे समय तक शिक्षण कार्य भी किया था। और ऐसे में वे किसी बाहरी प्रेक्षक की तरह नहीं, बल्कि हमारे शिक्षाई-तंत्र के एक सहभागी सदस्य के रुप में हमारी शिक्षा व्यवस्था में मौजूद अन्तर्द्वन्द्वों को सामने लाने का प्रयास करते हैं। वे अपनी इस कहानी में स्कूली-व्यवस्था में बच्चों की उपस्थिति से जुड़े उन तमाम मुद्दों को सम्बोधित करते दिखाई देते हैं, जिनके ऊपर शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले और बच्चों को शिक्षा-व्यवस्था में केंद्रीय महत्व देने की वकालत करने वाले प्रकृतिवादी दार्शनिक मसलन रुसो, टैगोर आदि गम्भीर बहस कर रहे थे।
1. कृष्ण कुमार, राज,समाज और शिक्षा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,1990, पृष्ठ-20।
2. प्रेमचंद, मानसरोवर भाग 4, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, 2001, पृष्ठ-5।
3. वही।
4. वही।
5. वही।
6. वही।
7. वही, पृष्ठ-6।
8. वही।
9. वही, पृष्ठ-5।
10. वही, पृष्ठ-6।
11. राजकिशोर (सं.), बच्चे और हम, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2005
पृष्ठ-102।
12. वही।
13. वही, पृष्ठ-103।
14. प्रेमचंद, मानसरोवर भाग 4, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, 2001, पृष्ठ-6।
15. वही।
16. वही।
17. वही।
18. वही, पृष्ठ-7।
19. वही।
20. वही।
21. वही, पृष्ठ-8।
22. वही।
23. वही, पृष्ठ-10।
24. वही, पृष्ठ-11।
25. वही।
26. वही, पृष्ठ-12।
27. वही।
28. वही।
29. वही।
30. वही।
31. वही, पृष्ठ-13।
32. वही।
33. वही।
34. वही, पृष्ठ-6।
35. वही, पृष्ठ-13।
36. वही, पृष्ठ-14।
37. वही।
38. वही, पृष्ठ-15।
सहायक प्रोफेसर, शिक्षाशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज – 211002
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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