आलेख : लोक में बच्चों के गीत / प्रभात

लोक में बच्चों के गीत 
- प्रभात

बचपन में हम आँधियों में भागते हुए एक गीत गाते थे-

‘आँधी आई, म्हेव आयौ, गगन घटा
भूरी बिल्याई कै छोरौ होयौ घूघरी बँटा।’’

तब इन पंक्तियों को दोहराने का ही आनंद था। झुण्ड में गाने से ‘गगन घटा’ और ‘घूघरी बँटा’ की जो नगाड़े सी ध्वनि गूँजती थी, उसमें हम बच्चों की टोली को बड़ा रस आता था। तब अर्थ की उतनी टोह नहीं थी। दृष्य से ही इतना घिरे होते थे कि भाषायी अर्थ में जाने की जरूरत महसूस नहीं होती थी। लेकिन आज याद करने पर महसूस होता है कि कैसी सुंदर, कैसी अनोखी कविता थी वह कि ‘गगन में घटाएँ गहरा रही हैं। काली-पीली आँधी उठ रही है। दिन में रात सी हो गई है। हवाएँ पेड़ों को झकझोर रही है, बूँदें टपकने ही वाली हैं। ऐसे तूफानी माहौल में भूरी बिल्ली ने आँधी जैसे ही रंग के, काले-भूरे बच्चे दिए हैं। भूरी बिल्ली के घर में नवजात आने की खुषी में घूघरी यानी उबले हुए गेहूँ और बरिया यानी अंकुरित चने बाँटे जाने चाहिए। कैसा संसार था, प्रकृति से कैसा साहचर्य था! पषु-पक्षियों के जीवन में आने वाली खुषी से इंसानों के मन पुलक उठते थे।

बच्चों के खेलों में भी कविता की जीवंत उपस्थित रहा करती थी। एक खेल था जिसमें घोड़ी बेचने और खरीदने को लेकर सवाल जवाब होते थे। बच्चों की एक टोली सवाल करती थी, दूसरी टोली जवाब देती थी। उस तुकबंदी का पुनर्लिखित-भावानुवाद कुछ इस तरह से है-

कह रे कुम्हार भाई
बोल रे सौदागर भाई

तेरी घोड़ी क्या चरे
खस-खस के पूड़े

पीए क्या
कुँए का पानी

चाल में कैसी?
टक टकाटक

दौड़ती कैसा?
बेषुमार

नाचती कैसा
पूछ मत यार!

ऐसी अनेक तुकबंदियाँ हम अपनी फटी जेबों में लिए डोलते थे।

ये पूर्वी राजस्थान के माड़ अंचल के गीत हैं। राजस्थान में कोई तीस के लगभग स्थानीय भाषाएँ हैं। हरेक भाषा के खजाने में ऐसे अनेक ही गीत हैं। ब्रज भाषा का यह गीत देखें जिसमें झूठों के मकान बनाए गए हैं-

झूठन के बने मकान
झूठ हम नाय बोलैं
नाय मानौ चलौ दिखाय लावैं।

छज्जे पर मक्का बोय दई
कमरे में बोय दई ईख
झूठ हम नाय बोलैं
नाय मानौ चलौ दिखाय लावैं।

इक कुत्ता कपड़ा धोय रयौ
वाकौ पिल्ला करै पिरेस
झूठ हम नाय बोलैं
नाय मानौ चलौ दिखाय लावैं।

इसी तरह यह ढूँढाड़ी गीत भी मजेदार है जिसमें एक बगुला उयांय उयांय रो रहा है-

बुगला रै
कोड़ै चाल्यौ
नानी कै
काँई लेबा
गुड़-धाणी लेबा
काँई देख्यौ
टाबरियो
कैंया रोयो
उआँय-उआँय

पष्चिमी राजस्थान के मेरवाड़ा अंचल के बच्चों के लिए स्थानीय भाषा में पाठ तैयार करने के लिए सुष्मिता बनर्जी ने लोक साहित्य संकलन का काम किया था। उसमें कुछ मजेदार कविताएँ निकलकर सामने आई थीं। उनमें एक कविता थी जिसमें बच्चे का दूध बिल्ली के पी जाने पर घर में कैसा हो-हल्ला मचता है, इसका जीवंत वर्णन है-

काडी-बाँडी गायाँ रो,
दूद्यो मीटो लागै सा।
दूद्यों पीग्या मनक्या,
भौजायाँ पाछी भागै सा।
बाई लियौ ऊपड़ो,
भौजाई ली दी ईस रै
घर म लाग्यौं दाँका-दीकौ
बारै मोर्या बोलै
क्यूँ रै मोरिया क्यूँ बोलै
आ ही म्हाँकी रीति जी।

किसी ने उपला लेकर, किसी ने चारपाई का सिरा लेकर षोर मचाते हुए बिल्ली को ऐसा हड़काया कि मोर बोलने लगे। सब लोग बिल्ली को छोड़कर मोर से पूछने लगे-‘क्यों रे मोर तू क्यों बोल रहा है? मोर ने जवाब किया-हमारी तो ऐसे ही बोलने की रीत है।

मध्यप्रदेष के मंडला और ढिंढोरी जिलों में बैगा आदिवासी रहते हैं। उनका एक यह गीत है, जिसमें एक बैगा माँ बच्चों के साथ हाट में गई है। हाट में उस परिवार को कैसा महसूस हो रहा है, उसी का वर्णन इस गीत में है। पंक्तियाँ इस तरह से हैं कि-

डुमर तरी लगी है बजारे
कारा नागिन लूरे।

कहाँ हवयँ दाई
कहाँ हवयँ भाई
कहाँ हवयँ लोक परिवार
कारा नागिन लूरे।

संगे माय भाई
संगे मा दाई
संगे मा भाई
संगे मा लोक परिवार
कारा नागिन लूरे।

बाजार काली नागिन की तरह लहरा रहा है। असल में ऐसा कहा जाना बैगाओं के सिवा किसी से संभव ही न होता। यह देखना धुर जंगल में बसे एक बैगा का अकस्मात हाट में पहुँच जाने पर का देखना है। जिसने जीवन में बाजार कभी देखा ही न हो और जो दिनरात जंगली जीव-जन्तुओं के साथ रहता हो, उसे एकाएक इतने लोगों से भरा बाजार नागिन की तरह लहराता ही दिखेगा।

इसी तरह के ढेर उदाहरण बज्जिका, संथाली, गुजराती, आदि भाषाओं से दिए जा सकते हैं। आखिर इन कविताओं की खूबी क्या है? इन कविताओं में आपको प्रकृति के सौंदर्य भरे दृष्य मिलते हैं, इंसान का उन्हें देखना मिलता है। दूसरी चीज यह कि बच्चे इन्हें बड़े चाव से गाते हैं, इन्हें याद रखते हैं, इनमें अपनी तरफ से चीजें जोड़ते हैं। वे इतना सब इन कविताओं के साथ कर पाते हैं तो उसकी वजह इन कविताओं में ही निहित है। ये इतनी सरल हैं कि खेलते-कूदते जबान पर चढ़ जाती हैं। इनमें ऐसी लय है कि गाए जाने के लिए आमंत्रित करती है।

लोक साहित्य में कोई रचना भरती की, बनावटी या कृत्रिम नहीं मिलती है लेकिन जब आप खड़ी बोली हिन्दी का आधुनिक बाल साहित्य उलटते पलटते हैं तो आपको नकली, बनावटी, कृत्रिम रचनाओं का अम्बार मिलता है। ऐसा क्यों ? षायद इसलिए कि जहाँ लोक में बाल साहित्य इंसानी रचनात्मक जरूरत से निकला है वहीं खड़ी बोली हिन्दी के काफी सारे बाल साहित्य का प्रयोजन कुछ और है और वह है-कमाई और घूस आधारित खरीद फरोख्त।

मौखिक काव्य की रचनाओं में बहुत कुछ ऐसा भी होता है जो नए देष काल के लिए गैर-जरूरी हो गया है। कई ऐसे पहलू जो अब सकारात्मक नहीं रह गए हैं। तब लगता है ऐसी रचनाओं पर विचार करने की जरूरत ही क्या है? लेकिन नहीं उन पर विचार करने की जरूरत है। ऐसी बातों के बाद भी इनमें मानवीय जिजिविषा और मूल्यों की दुर्लभ बानगियाँ देखने को मिलती हैं। गीतों में ऐसी धुनें मिलती है जो सैकड़ों सालों तक मनुष्य के मन को रोमांचित करती रहीं। भाषा का जादू इस साहित्य का अमर आकर्षण है।

लोक कविताओं के इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि आज भी भारत के गाँवों में विपुल बाल साहित्य मौजूद है। लेकिन गाँवों का दृष्य तेजी से बदल भी रहा है। वहाँ सामूहिक रूप से उठने-बैठने, खेलने-कूदने की जगह तेजी से खत्म हुई है। विषाल पैमाने पर पलायन हुआ है जिसकी छाया बचपन पर भी पड़ी है। बच्चों के लिए साहित्य का रचनात्मक अवकाष छिन गया है। दूसरी ओर षहरों में भी टीवी, इंटरनेट और लगभग बंद रिहाइषों वाली जीवन षैली ने यह रचनात्मक अवकाष छीन लिया है।

प्रभात
205, जनकपुरी, नीमली रोड, सवाईमाधोपुर, राजस्थान 32201

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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