साक्षात्कार : बाल साहित्य सिर्फ़ बच्चों के लिए ही नहीं बड़ों की भी अनिवार्य जरूरत (वरिष्ठ बाल साहित्यकार प्रकाश मनु से विकास दवे की बातचीत) / प्रकाश मनु

बाल साहित्य सिर्फ़ बच्चों के लिए ही नहीं बड़ों की भी अनिवार्य जरूरत – प्रकाश मनु
(वरिष्ठ बाल साहित्यकार प्रकाश मनु से विकास दवे की बातचीत)
 

मैं अपने जीवन की अंतिम साँसों तक लिखना-पढ़ना चाहता हूँ!” प्रकाश मनु

विकास दवे मनु जी, बाल साहित्य में आपका बड़ा काम है। आज के सर्वाधिक चर्चित साहित्यकारों में आपका नाम लिया जाता है। मैं चाहता हूँ कि आप अपने बचपन के बारे में बताएँ कि उसमें ऐसा क्या था, जो आपको लेखन की राह पर ले आया। थोड़ा अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में भी बताएँ।

प्रकाश मनु  ऐसा है विकास जी, मेरा बचपन और मेरे लेखक होने की कहानी एकदम सीधी-सादी सी है। कोई विशेष आकर्षण उसमें नहीं। पर हाँ, उसमें बीच-बीच में बड़े अजीब किस्म के मोड़ हैं। जगह-जगह छोटे-बड़े गड्ढे, कहीं-कहीं खाई-खंदक भी। हालाँकि अच्छी बात यह है कि इस सबके बावजूद कहानी कहीं रुकी नहीं। चलती रही। चलती ही रही। हर हाल में, हर मुश्किल और बाधाओं से लड़ती हुई आगे चलती रही। शायद इसलिए भी कि सौभाग्य से मुझे जीवन में हर मोड़ पर ऐसे लोग मिले, जिन्होंने मुझे टूटने, गिरने नहीं दिया। किसी ने कंधा थपथपाया। किसी ने ऐसे वक्त में हाथ बढ़ाकर सँभाल लिया, जब मैं डगमगाकर गिरने ही वाला था। किसी ने दुख-दर्द में बह आए मेरे आँसू पोंछे और हिम्मत बढ़ायी। किसी ने हाथों में हाथ लेकर कहा, तुम इतने परेशान क्यों हो भाई, हम तुम्हारे साथ हैं !

        यों मेरी कहानी रुकते-रुकते फिर आगे चल पड़ी। जैसे नदी राह में आने वाली बड़ी-बड़ी चट्टानों और झाड़-झंखाड़ों को पार करके आगे चलती ही जाती है। कभी-कभी लगता है, नदी की धारा रुकी। बस, अब रुक ही गयी। पर कोई चीज है, जो उसे रुकने नहीं देती। शायद मेरी कहानी में भी कोई चीज ऐसी हो, जो तमाम टूटन में भी रास्ता निकाल लेने की चुनौती मेरे अंदर भर देती है। तमाम तरह के विरोधों, उपेक्षा और अपमान को भी झेलकर, मन में चलने, बस, चलने की ही गुहार मचाती है। वह क्या है, मैं नहीं जानता। पर वह कुछ तो है। शायद वही मेरी प्राणशक्ति भी है। वही मुझे हारकर भी हारने नहीं देती। टूटकर भी टूटने नहीं देती।

        निराला ने कहा, दुख ही जीवन की कथा रही! क्या मैं भी वही कहूँ? पर फिर लगता है, दुख-सुख किसके जीवन में नहीं हैं। वे ही तो कहानी को कहानी बनाते हैं। वे हों तो कहानी का मजा भी क्या!तो चलिए, मैं अपनी कहानी ही सुना देता हूँ। 12 मई, 1950 को उत्तर प्रदेश के शिकोहाबाद शहर में एक मध्यवर्गीय परिवार में मेरा जन्म हुआ। हालाँकि मेरी कहानी इससे कुछ पहले शुरू होती है। खुशाब जिले के कुरड़-कट्ठा गाँव से, जो अब पाकिस्तान में है। हमारा परिवार इसी कुरड़-कट्ठा गाँव का है। पंजाबी में कट्ठाजल के सोते को कहते हैं। हमारे गाँव में भी मीठे और शीतल जल का सोता था, जिससे उस पूरे इलाके की जरूरतें पूरी होती थीं। फिर इस सोते का जल आगे चलकर एक सुंदर नदी का रूप ले लेता। यही खुशाब नदी थी, जिसके कारण उस इलाके का नाम खुशाब पड़ा।खुशाब का अर्थ है, मीठे जल वाली नदी। शायद इसी कारण इस नदी का नाम खुशाब पड़ा होगा।

        खुशाब नदी के किनारे बसेइसी कुरड़-कट्ठा गाँव से हमारा परिवार दाराशिकोह के बसाए शहर शिकोहाबाद के मीराँ कटरा मुहल्ले में आकर बसा। वहाँ आसपास बहुत से विस्थापित परिवार थे। वे सभी हमारी ही तरह उजड़कर उस मुल्क से आए थे, जो रातोंरात पराया बन गया था। एकाएक हृदय को झिंझोड़ देने वाली यह सच्चाई लोगों को पता चली कि अब हमारी जन्मभूमिहमारी मातृभूमि परायी हो चुकी है, और यहाँ से जितनी जल्दी हो सके, हमें निकल जाना चाहिए। वरना कुछ भी हो सकता है!कौन अपना है, कौन पराया? किस पर भरोसा करें, किस पर नहीं, सारे फ़र्क और फ़ासले गायब हो चुके थे। देखते ही देखते काँटेदार बाड़ की तरह कुछ नयी और बेहद कठोर हदबंदियाँ बन गयी थीं। भीतर भी, बाहर भी। और रह-रहकर हवा में गूँजते उन्मादी नारे दिलों में खौफ और दहशत पैदा करते थे। इतिहास नटी ने देखते ही देखते कालपटल पर एक रक्तरंजित महा नाटक रच दिया था, जिसका सूत्रधार कौन है, यह कोई नहीं जानता था।

        तब सरगोधा शहर बसाने वाले सर गोधाराम सरीखे बहुत सारे भले, उपकारी और प्रभावशाली लोगों ने जगह-जगह विशाल कैंप लगाकर, रातोंरात शरणार्थी बन गये हजारों लोगों के ठहरने, खाने-पीने और सुरक्षा का इंतजाम किया था। सब लोग अपने-अपने घरों, गलियों, मुहल्लों से निकलकर छिपते-छिपाते वहाँ रहे थे, आश्रय पाने के लिए। कल तक जिन गली-मुहल्लों में सिर उठाकर चलते थे, वहाँ से अब चोरों की तरह छिपकर डरते हुए निकलना पड़ रहा था। सिरों पर सामान की छोटी-बड़ी पोटलियाँ। गोदी में बच्चे, और हर पल आशंकित स्त्रियाँ, रातोंरात जिनके चेहरों की रंगत उड़ गयी थी। दिलों में विचित्र कँपकँपी और थरथराहट सी। कहीं ऐसा हो जाए, कहीं वैसा... !ऐसे में कैंप में आकर लगता, जैसे भगवान के घर गये हों। जीते-जी। सही-सलामत। काँपते हाथ ऊपर आसमान की ओर उठ जातेहे राम जी! और आँखों से गंगा-जमुना की धाराएँ बह उठतीं।फिर रेलगाड़ियों में बैठाकर किसी विशाल टोली को अंबाला, किसी को अमृतसर, कुरुक्षेत्र, करनाल, पानीपत या दिल्ली रवाना कर दिया जाता। और पूरे रास्ते में हवा में छन-छनकर कर आती रक्तरंजित खबरें!

        अलबत्ता, शिकोहाबाद में जब आसपास के घरों से कोई शख्स पिता जी से मिलने आता, तो पहला वाक्य जो आपसी परिचय में पूछा जाता था, वह यह कि तुस्सी पिच्छों किथाँ दे हो?”...यानी आप पीछे कहाँ से हैं? आपकी जड़ें कहाँ हैं, जहाँ से आप यहाँ आए हैं? आपका मूल गाँव?आपकी या आपके पुरखों की जन्मभूमि, जहाँ आपका सांस्कृतिक कोठार है। आपकी बोली-बानी, रहन-सहन, सांस्कृतिक प्रथाओं का पिटारा, यानी कुल मिलाकर आपके होने का उत्स, जो नदी के उद्गम सरीखा है! और इस सवाल का जवाब मिलते ही आपस में परिचय इतना गहरा हो जाता था और एक के बाद एक दास्तानें कुछ इस कदर चल पड़ती थीं कि पिता जी को समय का कुछ होश रहता और आगंतुक को। फिर चाय, लस्सी या खाने का इंतजाम होता और चलते-चलते वह शख्स हमारे लिए हमेशा-हमेशा के लिए चाचा जी, ताऊ जी, मामा जी या ऐसा ही कुछ और हो चुका होता। एक ऐसा संबंध जो बरसोंबरस चलना था। जीवन और मौत के पार भी।...

विकास दवेजी, बड़ी मार्मिक कहानी है आपके परिवार की। बहुतों को उस समय यह विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा था। एक बड़ी त्रासदी थी यह।

प्रकाश मनु हाँ, विकास जी। आपने पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पूछा तो थोड़ा सा और बताता हूँ। मैं अपने पिता की आठवीं संतान हूँ। हम नौ भाई-बहनों में मुझसे कोई दो बरस बड़ी कमलेश दीदी, मैं और मुझसे छोटा भाई सतहम तीनों का जन्म भारत में हुआ। बड़ी भैन जी और मुझसे बड़े पाँच भाई पाकिस्तान के कुरड़ गाँव में जनमे, जिसके बारे में मैंने आपको बताया है। उस समय परिवार को किन कठिनाइयों और करुण हालात से होकर गुजरना पड़ा, कैसे कठोर संघर्ष भरे वे दिन थे, इसके बारे में माँ, बड़ी भैन जी और कश्मीरी भाईसाहब से काफी कुछ सुना है। और सुनकर अवाक रह जाने वाली हालत हुई। एक अकथ कहानी है वह। उन दिनों पिता कंधे पर कपड़ों की भारी सी गठरी टाँगे गाँव-गाँव घूमते। यहाँ आने के बाद जब सारे सहारे छिन गये तो उन्हें फेरीवाला बनकर अपना और परिवार का गुजर-बसर करना पड़ा। जबकि कुरड़ गाँव में एक संपन्न और सम्मानित व्यापारी के रूप में उनकी साख थी। दूर-दूर तक नाम था।

        पिता ने सोचा था कि कुछ समय बाद जब यह हिंसा और उपद्रव शांत हो जाएँगे, तो फिर यहाँ लौट आएँगे। इसलिए बहुत कुछ उन्होंने वहीं छोड़ देना ठीक समझा। पर जो कुछ छूटा, वह हमेशा-हमेशा के लिए ही छूट गया। भारत आने के बाद पिछला सब कुछ भूलकर, उन्हें जीवन की फिर एक नये सिरे से शुरुआत करनी पड़ी। लेकिन वे बड़े दिलेर, बड़े हिम्मती थे। उन्होंने हार नहीं मानी। बड़े बेटों ने आगे बढ़कर उनका पूरा साथ दिया। घर में माँ, पिता, भाई-बहन सब इस दुख की भट्ठी से निकले, पर किसी के चेहरे पर शिकायत नहीं। इस दुख की घड़ी में सब एक मुट्ठी बनकर रहे। फिर धीरे-धीरे दिन फिरे। पिता कर्मठ थे। उन्होंने थोड़े ही समय में ही अपनी खोई साख कायम कर ली।

        इसी घर में आज़ादी के कोई तीन बरस बाद मेरा जन्म हुआ। मैं शुरू से बहुत भावुक था। किसी का छोटे से छोटा दुख भी मुझे उदास कर देता और मैं घंटों उसके बारे में सोचता रहता था। इसी तरह, किसी के मुख से कोई खुशी की, या अचरज भरी बात सुनता तो एकदम उल्लसित हो उठता।ज्यादा खुश होता तोओल्लैकहकर तालियाँ बजाता हुआ नाच उठता। मुझे कहानियाँ पसंद थीं। लगता, कोई दिन-रात कहानियाँ सुनाता रहे और मैं सुनता रहूँ। माँ और नानी से सुनी कहानियों ने मेरी कल्पना को नयी उड़ान दी। सुनते हुए लगता, जैसे मेरे पंख उग आए हैं और मैं अनंत आसमान में उड़ता चला जा रहा हूँ। खासकर अधकू की कहानी ने तो मुझ पर जादू सा कर दिया। एक हाथ, एक पैर वाला अधकू बड़ा चमत्कारी था। मुझे लगता, मैं भी तो अधकू ही हूँ और एक दिन दुनिया में बड़े कमाल करूँगा। सच पूछिए तो कहानियों में जो कल्पना की दुनिया थी, वह मुझे मोहती थी। इस बहुरंगी कल्पना की दुनिया में पंख पसारकर मैं एक बार उड़ना शुरू करता, तो बिल्कुल याद रहता कि मैं कहाँ बैठा हूँ और मेरे आसपास क्या है। असलियत से ज्यादा मैं कल्पना की दुनिया में ही रहता था और चुपचाप बहुत कुछ सोचा करता था।

        कमलेश दीदी मुझसे कोई दो-ढाई साल बड़ी थीं, पर वे भी खुशी-खुशी अपने खेलों में मुझे शामिल कर लेती थीं। वे गुट्टे खेलतीं तो मैं आँखें फाड़े भौचक्का-सा उनकी चुस्ती, फुर्ती और कमालदेखा करता था।इसी तरह गुड्डे-गुड़िया के ब्याह में वे अपनी सहेलियों से जाने कहाँ-कहाँ की बातें कर लेती थीं।बड़ी ही समझदारी से भरी बातें। मैं मुँह बाए सुनता रहता। सोचता, मैं तो बस बुद्धू हूँ, और जिंदगी भर बुद्धू बसंत ही रहूँगा। इस बात से मैं अंदर ही अंदर कुछ झेंपता सा रहता। पर कुछ अलग सी बात शायद मुझमें भी थी। मैं छोटा था, तभी से अक्षर मुझे खींचते थे। शब्द खींचते थे, छपे हुए पृष्ठ खींचते थे। हालत यह थी कि मैं रास्ता चलते दीवारों पर लिखे विज्ञापनों के शब्द अक्षर जोड़-जोड़कर पढ़ता। अखबारी खबरों के शीर्षक भी पढ़ने की कोशिश करता।

        फिर थोड़ा और बड़ा हुआ तो सुबह से शाम तक पढ़ना, पढ़ना और बस पढ़ना। कमलेश दीदी मुझसे बड़ी क्लास में थीं, पर वे भी कभी-कभार मेरी मदद ले लेतीं। एक बार उन्हेंहिन्दी का होमवर्क मिला। वहहमारे पूर्वजपुस्तक का भरत वाला पाठ था। पुस्तक मेरे आगे रखकर बोलीं, कुक्कू, इस पाठ का सार लिखना है। क्या तू बता सकता है...? मैं बोला, हाँ-हाँ, लिखो। कहानी मुझे पता ही थी। मैंने एक बार फिर से पाठ पढ़ा और सार लिखवा दिया। अगले दिन दीदी स्कूल से आयीं तो बहुत खुश थीं। बोलीं, वाह कुक्कू!आज मैडम ने बड़ी तारीफ की। पूरी क्लास को पढ़कर सुनाया, जो तूने कल कॉपी में लिखवाया था। कहते हुए दीदी का चेहरा चमक रहा था।सुनकर मेरा जी खुश हो गया। मुझे लगा, अरे, मेरे पास तो कितना अनमोल खजाना है। मुझे यह पता ही नहीं था।

        बस, उसी दिन से मैं पागल सा हो गया। अक्षर-पागल...! मन में पढ़ने-लिखने की ऐसी प्यास जाग गयी, जो आज तक नहीं बुझी। लगता, दुनिया का सबसे बड़ा खजाना तो मेरे पास है, जिसके आगे बड़ी से बड़ी दौलत भी कंकड़-मिट्टी है। फिर तो घर-बाहर जो भी पुस्तक मुझे मिलती, उसे पढ़े बिना चैन नहीं था। याद पड़ता है, प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ पुस्तक तो मैंने एकदम छुटपन में ही पढ़ ली थीं। शायद छठी कक्षा में। आठवीं तक आते-आते उनके उपन्यास निर्मला’,‘वरदान, गबन, कर्मभूमि’ भी पढ़ डाले। फिर साथ ही शरत और रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास। लगता, किताब में छपे अक्षरों से एक रोशनी मुझमें उतर रही है। इसी रोशनी के सहारे टटोलते हुए मैं इस सवाल का भी हल खोजता कि इस दुनिया में इतने ज्यादा दुख क्यों हैं?क्या हम ऐसा कुछ नहीं कर सकते कि दुनिया में इतने दुख हों?

        तब से आज कोई साठ बरस का लंबा अंतराल निकल गया, पर मेरे सवाल खत्म हुए और यह हैरानी भरी ऊहापोह कि, “हे राम जी, दुनिया में इतने दुख क्यों हैं? मैं ऐसा क्या कर सकता हूँ कि दुनिया के दुख-दर्द थोड़े कम हो जाएँ?”यही कारण है कि बाल साहित्य की दुनिया में मैं आया और बच्चों के लिए लिखने लगा, तो एक ही बात मन में आती थी कि मैं ऐसा कुछ लिखूँ जो बच्चों को आनंदित करे। खेल-खेल में उन्हें बहुत कुछ सिखा दे और हर मुश्किल में उनका साथ दे।

विकास दवेमनु जी, थोड़ा अपने माता-पिता और घरेलू वातावरण के बारे में भी बताएँ।

प्रकाश मनु भाई विकास जी, मैंने आपको बताया कि नौ भाई-बहनों में मैं आठवें नंबर का हूँ। यानी सात भाई-बहन बड़े। बस, एक छोटा भाई सत ही मुझसे छोटा है। इसलिए घर में माता-पिता के साथ ही बड़े भाई-बहनों का भी अनुशासन था। यों कहना चाहिए, बचपन से ही संयुक्त परिवार का सुख मैंने बहुत देखा। मेरे पिता का नाम है, चाननदास और माँ का नाम है भागसुधी। दोनों अनपढ़, लेकिन मन का विवेक बहुत था दोनों में। करुणा और सहृदयता भी बहुत थी। माँ एक बड़े जमींदार परिवार की हैं। मेरे नाना जी जाने-माने हकीम थे, दूर-दूर तक उनका नाम था। पर वे लोगों का मुफ्त इलाज करते थे। किसी से कभी एक पैसा भी लेते थे। यहाँ तक कि जिसके घर इलाज करने जाते, वहाँ पानी तक पीते। लोग उन्हें पूजते थे। नाना जी भी अपने से ज्यादा दूसरे लोगों की परवाह करते थे। किसी का दुख-दर्द पता चलता तो फौरन घोड़ा दौड़ाते हुए वहाँ पहुँच जाते और भरसक मदद करते थे।

        मेरी माँ में भी नाना जी के बहुत गुण आए। उनमें एक तरह की उदारता और बड़प्पन था। घर में कोई भी कुछ माँगने जाए, तो वह कभी खाली नहीं लौटता था। फिर अपने बच्चों पर तो उनका प्रेम हर क्षण निसार होता। मैं माँ का सबसे लाड़ला बेटा था। बचपन में बहुत दुबला-पतला और कमजोर सा था। थोड़ा चुप्पा और शांत भी। इसीलिए माँ हर पल दुलारती रहतीं। सच पूछिए तो माँ जैसे मेरे लिए ईश्वर ही हैं, या कहिए, ईश्वर का एक दूसरा रूप। मैं कई बार कहता हूँ कि ईश्वर को मैंने कभी नहीं देखा, इसलिए नहीं जानता कि वह है भी या नहीं। पर माँ को मैंने जरूर देखा है और इतनी ममता उनकी आँखों से छलकती देखी है कि मुझे लगता है कि ईश्वर भी ऐसा ही होता होगा। माँ ने शायद भूल से भी मुझे कभी डाँटा नहीं था। हमेशा पुत्तर-पुत्तरकहकर पुचकारती ही रहती थीं।

        माँ की तरह पिता भी बहुत प्रेम करते थे। उनके प्रेम में ऊपर की मृदुलता भले ही हो, भीतर-भीतर वे बहुत प्रेम और अपनी संतानों से करते थे। और हमें लेकर कुछ-कुछ गर्व का भाव भी उनमें था। खासकर जब हम क्लास में फर्स्ट आते तो गर्व से उनकी मूँछें फड़फड़ाने लगती थीं और चेहरे पर बड़ा आनंद का भाव उमड़ आता था। तब हमारे लिए वे ढेर सारी गरमागरम जलेबियाँ ले आते थे, ताकि पूरा परिवार इस खुशी में शामिल हो।पिता का अपना व्यवसाय था। पहले कपड़े का, फिर यह काम उन्होंने बड़े बेटों को सौंपा। खुद अनाज और तेल का व्यवसाय करने लगे। लोगों को यकीन था कि लाला चाननदास के यहाँ से लिया गया तेल एकदम सौ टका शुद्ध होगा। वे औरों से दो पैसे ज्यादा ले लेंगे, पर वहाँ मिलावट का कोई काम नहीं। पिता ने अपनी यह साख शुरू में ही बना ली थी, जो अंत तक कायम रही। इसलिए लोग मीलों दूर से तलाशते हुए आते। इससे व्यवसाय बड़ी तेजी से परवान चढ़ा। शुरू के कुछ वर्षों के दुख, तकलीफों और आर्थिक तंगी के बाद बहुत जल्दी उन्होंने अपनी पुरानी धज कायम कर ली।

विकास दवेआपके बचपन का कोई प्रसंग, जो आपको अब भी याद आता हो।

प्रकाश मनु दो ऐसे प्रसंग हैं विकास जी। एक तो मुझे याद है, मैं कोई पाँच-छह बरस का था, तब छत से गिर पड़ा था। हमारा घर तब नया-नया बना था। अभी छज्जे पर मुँडेर बनी थी। शाम के समय मैं छत पर टहल रहा था। अचानक बारिश आयी तो मैंने अपना कुरता उतारा और छज्जे से नीचे फेंकने के लिए लटकाया, ताकि बारिश में नहा सकूँ। पर कुरते के साथ मैं खुद भी नीचे गिरा। हालाँकि मुझे चोट बिल्कुल नहीं आयी। फौरन डाक्टर भटनागर को बुलवाया गया। उन्होंने जाँच करने के बाद दवा दी और कहा, कोई गुम चोट हो सकती है। इसलिए अभी दस-पंद्रह दिन इसे आराम करना होगा। ज्यादा हिले-डुले नहीं।लेकिन किसी बच्चे के लिए दिन भर चारपाई पर पड़े रहता भी एक मुसीबत है। बढ़िया फल खाने को मिलते। खूब सेवा हो रही थी। पर सब बच्चे स्कूल जाते तो मैं तरसता। कमलेश दीदी स्कूल जाने से पहले पूछती, कुक्कू, किसी चीज की जरूरत हो तो बता।मेरा घर पर पुकारने का नाम कुक्कू ही था। मैं कहता, तुम मेरी कहानी लिख दो कि एक दिन कुक्कू बारिश में नहा रहा था। उसने कुरता उतारकर नीचे फेंका तो खुद भी नीचे गया। उसे जरा भी चोट नहीं लगी।

        इतनी ऊँची छत से गिरने पर भी, कहीं जरा एक खरोंच भी पड़ना। यह कुछ हैरानी की बात तो थी ही। मेरे लिए बस, यही कहानी थी। मेरे कहने पर कमलेश दीदी झटपट मोटे-मोटे अक्षरों में एक कागज पर ये दो लाइनें लिख देतीं और कहतीं, कुक्कू, ला दो पैसे।मैं उसे दो पैसे देता और वह कागज सँभालकर अपने तकिए के नीचे रख लेता। इसलिए कि वह कागज अब कोई साधारण चीज तो था। उस पर कहानी जो लिखी गयी थी। कहानी जीवन में सबसे मूल्यवान चीज है, यह मैं शायद तब भी समझ चुका था।

        दूसरा प्रसंग मेरे स्कूल जाने का है। पर बड़ा अनोखा। स्कूल में मेरा वह पहला ही दिन था। मैं कमलेश दीदी के साथ स्कूल गया तो कच्ची वाली क्लास में जाकर बैठ गया। वहाँ बड़े मोटे काले फ्रेम का चश्मा पहने, बड़ी-बड़ी मूँछों वाले एक मास्टर जी पढ़ा रहे थे। उन्होंने बड़ेगौर से मेरी ओर देखा। फिर पास बुलाकर पूछा, तुम नये आए हो?...क्या नाम है तुम्हारा?” मैंने कहा, कुक्कू।इस पर उन्होंने अजीब सा मुँह बनाकर कहा, क्या घुग्घू? अरे भई, यह कैसा नाम है!”फिर बड़े जोर से हँसे। जब दो-तीन बार यही किस्सा हुआ तो मैं दौड़ा-दौड़ा कमलेश दीदी की क्लास में गया। बोला, जरा मास्टर जी को मेरा नाम बता दो।कमलेश दीदी बड़ी थीं। उन्हें पता था कि घर में चाहे सब कुक्कू कहते हों, पर मेरा स्कूल वाला नाम तो चंद्रप्रकाश है। उन्होंने मास्टर जी को बताया कि इसका नाम चंद्रप्रकाश है। इस पर मास्टर जी और भी जोर से हँसे। गजब का अट्टहास करते हुए बोले, क्या कहा, चंट परकास? पर भई, यह तो कहीं से भी चंट नहीं लगता।

        अब तो विचित्र दृश्य था। मास्टर जी के साथ-साथ पूरी क्लासठठाकर हँस रही थी। हम दोनों भाई-बहन भी खूब हँसे। आज इतने बरसों बाद समझ में आता है कि यह उन मास्टर जी की बड़ी प्यारी सी अदा थी मुझे रिझाने की। ताकि पढ़ाई को मैं बोझ समझूँ। इसलिए कि पढ़ाई-लिखाई तो आनंद लेने की चीज है, कोई डरने-डराने की नहीं। वे मास्टर जी सचमुच बड़े प्यारे थे और आज भी मुझे बहुत याद आते हैं। मैंने उन पर एक कहानी भी लिखी है, चश्मे वाले मास्टर जी, जिसे बच्चों ने बहुत पसंद किया है। हालाँकि उनका पूरा मनमौजीपन मैं कहाँ ला पाया!

विकास दवेमनु जी, आपके मन में लेखक होने का सपना कब पैदा हुआ। कुछ याद पड़ता है आपको?

प्रकाश मनु  मुझे लगता है, किताबें पढ़ने की धुन ही मुझे जाने-अनजाने लेखक बना रही थी। आपको एक छोटा सा प्रसंग सुनाऊँ। मेरी किशोरावस्था के दिनों का ही यह प्रसंग है। उन दिनोंचंदा मामापत्रिका की खासी धूम थी। कभी-कभी उसमें पूरा एक उपन्यास छपता, तब तो मजे ही जाते। मुझे याद है कि एक दफा चंदा मामामें छपा एक उपन्यास मैं पढ़ रहा था। तभी किसी काम से बाजार जाना पड़ा, तो मैंने पत्रिका निकर की जेब में डाली। सड़क पर आते ही मैंने पत्रिका खोली। फिर पूरे रास्ते मैं चंदा मामामें छपा वह रोचक उपन्यास पढ़ता गया और पढ़ता हुआ ही घर लौटा। रास्ते में इक्का, ताँगा, रिक्शे और बसों की पों-पों, पैं-पैं। खूब भीड़-भड़क्का। पर इस सबसे बेपरवाह मेरा मन और आँखें तो रास्ता चलते उपन्यास पढ़ने में लीन थीं। हर खतरे से बेफिक्र। आज बरसों बाद इस बारे में सोचता हूँ तो भीतर झुरझुरी सी होती है कि यों रास्ता चलते पढ़ते हुए कुछ हादसा हो जाता तो? लेकिन उन दिनों यह बात कौन सोचता था! पढ़ने का जुनून मुझमें किस हद था, इससे यह पता चल जाता है।

        ऐसे ही मुझे याद है, छठी कक्षा में श्याम भैया ने मुझे प्रेमचंद की कहानियों की पुस्तक लाकर दी, प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ मेरे लिए तो यह एक नायाब खजाना ही था। उसमें सचमुच एक से एक लाजवाब कहानियाँ थीं। उन्हें पढ़कर मैं किसी और ही दुनिया में पहुँच गया। पर जब बड़े भाईसाहबकहानी पढ़ी तो मैं एकदम हक्का-बक्का। मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। अरे बाप रे, यह तो मेरे श्याम भैया की ही कहानी है। एकदम सच्ची कहानी। पर भला यह प्रेमचंद को कैसे पता चल गयी? मेरे श्याम भैया भी प्रेमचंद के बड़े भाईसाहबकी तरह मुझ पर खूब रोब गाँठते। पढ़ाई के नित नए नियम-कायदे बनाते। खूब चुस्त-दुरुस्त टाइम टेबल, ताकि खूब कसकर पढ़ाई करें। पर आखिर नतीजा निकलता तो वही लुढ़क जाते। मैं अव्वल दरजे में पास होता। आश्चर्य, प्रेमचंद ने बरसों पहले यह कहानी कैसे लिख दी? तब समझ में आया कि यही तो कहानी का जादू है। कहानी की ताकत। बड़ी दिव्य, बड़ी अनोखी। इसी के चलते एक की कहानी सबकी कहानी हो जाती है।

        फिर जल्दी ही मैंने प्रेमचंद की ढेरों कहानियाँ ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़ डालीं। उनके निर्मला, वरदान, गबन, सेवासदन, कर्मभूमिजैसे उपन्यास भी। फिर शरत, रवींद्रनाथ ठाकुर, बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास पढ़ने का सिलसिला। हिंद पॉकेट बुक्स में एक या दो रुपये में बड़े से बड़े लेखकों की रचनाएँ मिल जातीं। उन्हें पढ़ने पर मन की नयी खिड़कियाँ खुल जातीं। मेरे बड़े भाई जगन साहब के घरेलू पुस्तकालय में ये सारी पुस्तकें थीं। मेरे लिए वे दुर्लभ खजाना बन गयीं। किताब पढ़ने का सुख क्या होता है, यह मैंने जान लिया था। फिर भला मैं उनसे दूर कैसे रह सकता था! अब तो जिंदगी भर मुझे इसी राह का पथिक बनना था।

        याद पड़ता है आठवीं तक आते-आते प्रेमचंद, शरत, रवींद्र के साहित्य से मैं अच्छा-खासा परच गया था। मन में उनके लेखन की अलग-अलग छवियाँ बन गयी थीं। उनकी कलम की ताकत और तासीर मैं जान गया था। याद है, एक हाथ में प्रेमचंद या शरत का उपन्यास लेकर पढ़ते हुए दूसरे से मैं अपने आँसू पोंछता रहता था और आगे के पन्ने पलटकर यह जान भी लेना चाहता था कि आगे क्या हुआ, आगे क्या हुआ...! कभी-कभी तो अकेले में ही हिचकियाँ बँध जातीं। दुख और वेदना का बाँध टूट पड़ता। व्याकुल होकर सोचताओह, दुनिया में कैसे-कैसे दुख हैं, और इन लेखकों ने कितनी मार्मिकता से इसे लिखा भी है। नहीं तो भला मैं उनसे कैसे परच पाता?

        तभी मन में कहीं कहीं लेखक बनने की छाप पड़ी। मुझे लगा, मैं भी ऐसा ही बनूँगा। मेरी लिखी किताबें भी लोग दूर-दूर तक पढ़ेंगे।हालाँकि मन में एक डर,एक झिझक सी भी थी। सोचता, क्या सचमुच ऐसा हो पाएगा? पर लेखक होने का सपना मैंने देखा था और उसका रोमांच क्या होता है, यह मैंने जान लिया था।हालाँकि साहित्य मेरे लिए कोरा साहित्य नहीं, कहीं कहीं जिंदगी का पर्याय था। साहित्य से ही मैंने जिंदगी के गूढ़ आखर जाने और उसे पूरे आनंद के साथ जीना सीखा। सच कहूँ तो जीवन को ठीक-ठीक समझने की शुरुआत मेरी यहीं से हुई थी। लिहाजा साहित्य मेरे लिए बड़ी चीज थी, बहुत बड़ी चीज, जिसके बिना मैं जीने के बारे में सोच भी नहीं सकता था।

विकास दवेयह लेखक होने का सपना आसानी से पूरा हुआ, या कुछ मुश्किलें भी आयीं?

प्रकाश मनु – मुश्किलें तो आयीं विकास जी, बहुत मुश्किलें आयीं। इसलिए कि इस सपने के साथ ही मेरे भीतर-बाहर भी बहुत से बदलाव हो रहे थे। शुरू से ही मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा। क्लास में काफी अच्छे नंबर आते थे और खासा होशियार भी मैं समझा जाता था। हाईस्कूल में गणित में सौ में पंचानबे नंबर आए, अंग्रेजी में डिस्टिंक्शन या विशेष योग्यता। हमारे कॉलेज, पालीवाल इंटर कॉलेज के इतिहास में अंग्रेजी में पहली बार किसी के इतने नंबर आए थे। इसलिए पूरे कॉलेज में सभी मुझे जानने लगे थे। इंटरमीडिएट में आकर मेरी झिझक थोड़ी खुली। अब मंच पर मैं जोशीले भाषण देने लगा था। स्वभाव में एक विद्रोही तेवर भी आया। उन दिनों पूरे देश में अंग्रेजी हटाओआंदोलन चला तो मैंने भी कुछ मित्रों के साथ मिलकर रात-रात भर सड़कों पर खड़िया और चूने से नारे लिखे। पोस्टर चिपकाए। परचे बाँटे, जिनमें हिन्दी अपनाने पर जोर था। मन में जैसे क्रांति का तूफान था। एक आदर्श, एक सपना था भीतर, जो मुझे विकल कर रहा था। और मैं बहुत कुछ बदल देना चाहता था। उन्हीं दिनों अपनी कुछ माँगों को लेकर कॉलेज में अनशन भी किया।

        उन दिनों मैं विवेकानंद को बहुत पढ़ता था। मेरे वे आदर्श थे, जिनका मन पर बहुत गहरा असर पड़ा। वे अंदर ही अंदर मुझे ललकार रहे थे। तो एक दिन मैं भी अपने ढंग का जीवन जीने के लिए घर छोड़कर निकल पड़ा। भिक्षा माँगकर खाना खाया। फिर एक दिन पेड़ के नीचे बैठा सुस्ता रहा था, तो अचानक माँ की गीली आँखें दिखायी दीं। लगा, माँ रोकर मुझे पुकार रही हैं।कह रही हैं,क्यों चंदर, क्या तू अपनी माँ से भी नाराज हो गया?”मेरी रुलाई छूट पड़ी। उसी दिन मैं घर लौट आया। लेकिन इस घटना की बड़ी गहरी छाप मन पर पड़ी। बरसों बाद मैंने बच्चों के लिए गोलू भागा घर सेउपन्यास लिखा, तो उसके पीछे यही केंद्रीयभाव था। उपन्यास में वह कुछ अलग ढंग से सामने आया। पर मूल भाव तो वही था। वह नहीं बदला।

        अलबत्ता, उस समय मेरे भीतर काफी उथल-पुथल सी मची हुई थी। इंटरमीडिएट के बाद इलाहाबाद के मोतीलाल नेहरू रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में मेरा सेलेक्शन हो गया। बस,मुझे वहाँ जाकर फीस जमा करनी थी। इस संस्थान का काफी बड़ा नाम और प्रतिष्ठा थी। पर तभी कहींअंदर से लगा कि यह मेरी राह नहीं है। मैंने कोई पोच सा बहाना बनाया और वहाँ नहीं गया। शिकोहाबाद में ही बी.एस-सी. में प्रवेश ले लिया। कुछ अरसे बाद, सन् 1973 में मैंने आगरा कॉलेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. की। पर यहाँ तक आते-आते इल्हाम हुआ कि मेरा पूरा जीवन तो साहित्य के लिए ही है। तो फिर कब तक मैं चक्की के दो पाटों के बीच पिसता रहूँगा?अब चीजें जैसे एकदम साफ नजर रही थीं। मैंने घर पर घोषणा कर दी कि अब मैं हिन्दी साहित्य में एम.. करूँगा, पी-एच.डी. करूँगा और अपना पूरा जीवन साहित्य को ही समर्पित करूँगा।

        घर में सभी ने इसे पागलपन समझा। पर मेरी भोली माँ जानती थीं कि मेरा बेटा, कोई गलत काम नहीं कर सकता। उन्होंने कहा, पुत्तर, तुझे जो ठीक लगता हो, कर। मैं तेरे साथ हूँ।फिर तो भाई विकास जी, मेरे जीवन का पूरा ताना-बाना ही बदल गया। मेरे जीवन की राहें बदल गयीं। भीतर-बाहर बहुत कुछ बदला। मैंने मन ही मन संकल्प किया कि अब मैं साहित्य की ही रोटी खाऊँगा। पूरी नहीं तो आधी-चौथाई सही। वह भी नहीं तो भूखा रहूँगा। पर जिऊँगा साहित्य के लिए, मरूँगा साहित्य के लिए। मुझे लगा, जैसे मेरा एक नया जन्म हुआ हो। अब तो दिन-रात साहित्य, साहित्य और साहित्य। यही मेरा ओढ़ना, यही बिछौना था। सन् 1975 में मैंने हिन्दी साहित्य में एम.. किया। फिर शोधकार्य के लिए कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में गया। सन् 1980 में यू.जी.सी. के फेलोशिप के तहत कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से छायावाद एवं परवर्ती काव्य में सौंदर्यानुभूतिविषय पर मेरा शोध पूरा हुआ। इस बीच लिखना-पढ़ना, पढ़ना-लिखना यही मेरा जीवन बन गया। और तब से यही सिलसिला चला आता है। आप कह सकते हैं विकास जी, कि कुरुक्षेत्र एक तरह से मेरे लिए बोधस्थली बन गया और मैं ठीक-ठीक समझ गया कि मुझे जीवन में क्या करना है।

विकास दवेआपने अपने लेखन में कई जगह कुरुक्षेत्र की चर्चा की है कि आपकी जीवन कथा का यह एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। कुरुक्षेत्र आकर आपको कैसा महसूस हुआ?

प्रकाश मनु  विकास जी, कुरुक्षेत्र बहुत सुंदर विश्वविद्यालय है। चारों ओर हरियाली और प्रकृति का निर्मल आनंद। बस, यहाँ आकर मेरी पढ़ने-लिखने की समाधि लग गयी। बहुत पढ़ा, बहुत लिखा। कुरुक्षेत्र में आकर ही मैं प्रकाश मनु हुआ। असल में मेरे नाम की भी एक विचित्र कहानी है। घर में मेरा पुकारने का नाम था कुक्कू। माँ शिवभक्त थीं। उन्होंने मेरा नाम रखा, शिवचंद्र प्रकाश। यानी शिव के मस्तक पर विराजने वाले चंद्रमा का प्रकाश। पर जब मेरे बड़े भाईसाहब स्कूल में नाम लिखवाने गए, तो हैडमास्टर तिवारी साहब चौंके। बोले, अरे, इतना लंबा नाम?” उन्होंने मेरे नाम के आगे से शिव हटाकर स्कूल में नाम लिखा, चंद्रप्रकाश।

        यों मेरा मूल नाम है, चंद्रप्रकाश विग। पर जब मैं साहित्य की दुनिया में आया और लिखने-पढ़ने की शुरुआत हुई, तो मुझे अपना नाम बदलना जरूरी लगा। चंद्रप्रकाश विग के बजाय मैं चंद्रप्रकाश रुद्र नाम से लिखने लगा। उन दिनों इसी नाम से मैं जाना जाता था। मेरी एक पुस्तक भी इस नाम से छपी। सन् 1975 में मैं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोध करने पहुँचा तो साहित्य की एक नयी दुनिया मेरे आगे खुली। बहुत कुछ पढ़ा। सोच बदली तो मुझे अपना नाम बदलना भी जरूरी लगा। जयशंकर प्रसाद की कामायनीमुझे प्रिय थी। कामायनीमें मनु और श्रद्धा की कथा है, जो मुझे खासा मोहती है। मुझे लगा, मैं भी तो आधुनिक जमाने का मनु ही हूँ। अपनी बहुत सी विशेषताओं और कुछ कमियों के साथ। तो मुझे अपने नाम के साथ मनु जोड़ना चाहिए। लिहाजा अब मैं प्रकाश मनु के नाम से लिखने लगा। तब से इसी नाम से साहित्य जगत में जाना जाता हूँ।

        यों कुरुक्षेत्र मेरे जीवन में एक ऐसा स्थान है, जहाँ आकर मेरा पुनर्जन्म हुआ। फिर कुरुक्षेत्र का एक और कारण से भी मेरे जीवन में महत्त्व है। यहीं सुनीता से मेरा विवाह हुआ। सुनीता और मैं साथ-साथ शोध कर रहे थे। तभी हमने तय किया कि हमें साथ-साथ जीवन बिताना चाहिए। बहुत सादा सा यह विवाह था, जिसमें कुल पंद्रह-बीस लोग शामिल थे। कोई ढोल-ढमक्का, घोड़ी, लाइटों की जगर-मगर, दावत। शादी जैसा कुछ भी नहीं। कोई एक-डेढ़ घंटे में विवाह संपन्न हुआ। बिल्कुल सादा ढंग के घरेलू से चाय-पान के साथ सबने विदा ली।हालाँकि विवाह के साथ ही काफी मुश्किलें भी शुरू हो गयीं। इस अंतर्जातीय विवाह से विभागाध्यक्ष नाराज हुए, और हमारी अकथनीय तकलीफों का सिलसिला चल पड़ा। कुछ समय बेरोजगारी की भेंट चढ़ा। फिर हरियाणा और पंजाब के कॉलेजों में कुछ बरसों तक प्राध्यापक रहा। बाद में पंजाब छोड़कर दिल्ली आना हुआ। यहाँ आकर मैं पत्रकारिता से जुड़ गया।

        यों पत्रकारिता में मेरा आना भी एक संयोग ही था। उन दिनों सरिता, मुक्ताजैसी पत्रिकाओं में मेरी काफी कविताएँ छपती थीं। इस सिलसिले में एक बार मैं सरिताके संपादक विश्वनाथ जी से मिलने आया तो उन्होंने पूछा, आप आजकल कहाँ हैं?” मैंने कहा, पंजाब में हूँ। पर वहाँ हालात अच्छे नहीं हैं। मैं पंजाब छोड़कर दिल्ली आना चाहता हूँ।इस पर उन्होंने कहा, आप चाहें तो हमारे यहाँ आज ही ज्वाइन कर लीजिए। हमें एक मेहनती आदमी की जरूरत है।

        पत्रकारिता का एक बड़ा ऊँचा आदर्श स्वप्न मेरे मन में था। मुझे लगा कि पत्रकारिता में आकर दुनिया को बदला जा सकता है। लिहाजा मैंने तुरंत हाँ कर दी। यों कोई ढाई-तीन बरस मैंने दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं में संपादन किया। फिर हिंदुस्तान टाइम्स की लोकप्रिय बाल पत्रिका नंदनके संपादकीय विभाग में गया। लगभग ढाई दशकों तक मैं नंदनके संपादन से जुड़ा रहा। इस दौरान नंदनके लिए कहानी, कविता और लेख लिखने का सिलसिला तो चला ही। साथ ही दैनिक हिंदुस्तानऔर विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गंभीर आलोचनात्मक लेख लिखे। हिन्दी के दिग्गज साहित्यकारों से खुली, अनौपचारिक बतकही सरीखे लंबे साक्षात्कार लिए, जिनकी खासी चर्चा हुई। बिल्कुल अपने अंदाज में संस्मरण, कहानी, कविताएँ और उपन्यास लिखकर अपनी एक अलग पहचान बनायी।

        बच्चों के लिए भी मैंने बहुत लिखा और बहुत मन से लिखा। पूरी तरह डूबकर। हर उम्र के बच्चों के लिए एक से एक रस और आनंदपूर्ण कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास हर विधा में कुछ कुछ नया लिखने की कोशिश की। बल्कि सच तो यह है कि बच्चों के लिए लिखते समय मुझे लगता है, जैसे मेरा मन और आत्मा कुछ और निर्मल हो गये हैं। मेरे भीतर कुछ उजास सा पैदा हो गया है। इतना ही नहीं, अकसर मुझे महसूस होता है कि जब हम बच्चों के लिए लिखते हैं तो ईश्वर के अधूरे काम को ही पूरा कर रहे होते हैं। एक बच्चे को सही दिशा मिलती है तो देश और समाज का भविष्य उज्ज्वल होता है। बच्चों के लिए लिखी गयी मेरी पुस्तकें सौ से अधिक हैं। पर फिर भी हर क्षण कुछ और लिखने का मन होता है।

विकास दवे – मनु जी, आपकी दृष्टि में अच्छा बाल साहित्य क्या हैवह बच्चों और खुद हमारे लिए क्यों जरूरी है?आपके विचार से किसी देश या समाज की बेहतरी में बाल साहित्य की क्या भूमिका है?

प्रकाश मनु भाई विकास जी, बाल साहित्य की अपनी कोई अर्ध सदी की लंबी यात्रा के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि कोई अच्छी बाल कविता, कहानी, नाटक या उपन्यास सबसे पहले तो बच्चे का दोस्त होता है। बाल साहित्य बच्चे का दोस्त साहित्यहै और अगर वह दोस्त नहीं है तो यकीन मानिए, वह बाल साहित्य ही नहीं है। इसलिए कि अच्छा बाल साहित्य बच्चे को भीतर से छूता है, उसे अधिक संवेदनशील और समझदार बनाता है। अधिक जिम्मेदार भी। साथ ही उसके भीतर कल्पना के नये-नये गवाक्ष खोलता है। इसे हम बच्चे का संपूर्ण विकास कह सकते हैं। यों अच्छा बाल साहित्य बचपन को सँवारता है, तो साथ ही किसी देश और समाज के भविष्य को भी।

        फिर एक बात और विकास जी। बाल साहित्य बच्चे को सहानुभूतिशील और भावप्रवण बनाता है, जिससे उसके मन में करुणा पैदा होती है। किसी के भी दुख से वह द्रवित होता है। ऐसा बच्चा भला किसी का बुरा कैसे चाह सकता है? वह हिंसक आचरण वाला कैसे हो सकता है? वह अपराध की राह पर क्यों जाएगा? इसलिए बाल साहित्य का हमारे समाज में प्रसार होगा, तो मेरा मानना है कि अपराध भी रुकेंगे। बुराइयाँ खत्म होंगी। यहाँ तक कि बच्चों के साथ-साथ बड़ों की दुनिया में भी बदलाव आएगा। हालाँकि अच्छा बाल साहित्य बच्चों तक पहुँचे, इसमें बेशक बड़ों की भी भूमिका है। वे खुद पढ़ेंगे नहीं तो बच्चों तक अच्छा साहित्य पहुँचाने की ललक उनमें कैसे पैदा होगी? इस मामले में माता-पिता, अभिभावक और अध्यापक सभी की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अगर वे जिम्मेदार बनें, तो हमारे देश का बचपन सँवर सकता है और यह दुनिया भी बदल सकती है।

विकास दवे आपने बिल्कुल ठीक कहा मनु जी। शायद आप बाल साहित्य की ओर आए, तब भी यही सपना आपके मन में होगा।पर आपने कब से बच्चों के लिए लिखना शुरू किया?

प्रकाश मनु भाई विकास जी, मेरी सृजन-यात्रा शायद औरों से कुछ अलग ढंग की रही। लिहाजा बच्चों और बड़ों के लिए लिखने की शुरुआत मैंने एक साथ ही की। मोटे तौर से आठवें दशक के प्रारंभिक वर्षों में मैं जब-तब बाल कविताएँ लिखने लगा था। शायद सन् 72-73 का समय रहा होगा। तब मैं तरुण था, पर मन बड़ों के लिए लिखी जाने वाली कविताओं के अलावा बाल कविताओं में भी खूब रमता था। मैंने बाल कविताओं में अपने बचपन को फिर-फिर जिया और आनंदित होता रहा। अब भी होता हूँ। एकदम शुरू-शुरू में काव्य-भाषा चाहे पूरी तरह सध पायी हो, पर अपनी बाल कविताओं को मैंने भरपूर आनंद लेते हुए लिखा था। यही कारण है कि अपनी बाल कविताओं की चर्चा करते ही मैं एकदम बचपन में पहुँच जाता हूँ।

        हालाँकि बच्चों के लिए मैं कब और कैसे लिखने लगा, मैं बिलकुल ठीक-ठीक तो नहीं कह सकता। अपनी पाठ्यपुस्तकों में मैंने दिनकर, हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, रामनरेश त्रिपाठी और सोहनलाल द्विवेदी जैसे बड़े कवियों की कविताएँ पढ़ी थीं, जिन्हें मैं बार-बार गाया-गुनगुनाया करता था। वे कविताएँ हर पल मेरे होंठों पर नाचती थीं और मैं उन्हें गुनगुनाए बिना रह नहीं पाता था। शायद उनका ही असर हो कि मैं इस राह पर चल पड़ा।

        एक और कारण यह भी हो सकता है कि किशोरावस्था मेंधर्मयुगपत्रिकाहमारे यहाँ आती थी। उसमें छपने वाला बच्चों का पन्ना मुझे बेजोड़ लगता था। उसमें छपने वाली कविताएँ मुझे इतनी अच्छी लगती थीं कि मैं उन्हें एक डायरी में उतारता जाता था। फिर अपने घर-परिवार और अड़ोस-पड़ोस के बच्चों को बड़े नाटकीय ढंग से सुनाया करता था। सुनकर बच्चे खुशी से उछल पड़ते। देखकर मुझे पता चला कि किसी अच्छी बाल कविता का जादू क्या होता है। शायद उसके कुछ ही समय बाद बच्चों के लिए कविताएँ लिखने का सिलसिला शुरू हुआ।

विकास दवेशुरू में किस तरह की कविताएँ आपने लिखीं? कुछ कविताएँ याद हों तो सुनाइए।

प्रकाश मनु - शुरू में विकास जी,देशरागकी कविताएँ अधिक लिखी गयीं। पर मेरी कोशिश यह थी कि कविताओं में कोई भारी-भरकम उपदेश हो, बल्कि कविताएँ पढ़कर बच्चों को आनंद आए। वे झूम-झूमकर उसे गाएँ। इनमें से एक कविता मुझे आज भी पसंद है। बच्चों ने भी इसे बहुत पसंद किया है। कविता की शुरुआती पंक्तियाँ हैं -

छोटे मुँह से कैसे कह दूँ, इस भारत की बात रे,

सोने जैसे दिन हैं इसके, चाँदी जैसी रात रे!

        कुछ अरसे बाद चाँद पर कविता लिखी गयी। इस कविता की खासियत यह है कि चाँद यहाँ चंदा मामानहीं है, बल्कि वह भी और बच्चों की तरह एक नन्हा-मुन्ना सा भोला बच्चा है। इसलिए बच्चों से बड़ी जल्दी उसकी दोस्ती हो जाती है। कविता की शुरुआत बड़े मजेदार ढंग से होती है, जल्दी आओ भैया चाँद, ले लो एक रुपैया चाँद!”कुछ इसी के आसपास चिड़िया पर भी कविता लिखी गयी, धीरे से मुसकाती चिड़िया यह ऐसी दोस्त चिड़िया है, जिससे मेरी दोस्ती आज तक वैसी ही अटूट है। कविता की ये पंक्तियाँ मुझे आज भी पसंद हैं, जब मैं खूब प्यार से हँसता, इससे मन की बातें कहतामम्मी, मुझको तब लगता है, धीरे से मुसकाती चिड़िया!”

        उस दौर की कविताओं में मुझे चिट्ठी का संदेशभी प्रिय है। सेवक जी ने अपने इतिहास-ग्रंथ बालगीत साहित्यमें मेरे परिचय के साथ इसी कविता को उद्धृत किया है। इस कविता में कुछ ऐसा है जो आज भी मुझे अच्छा लगता है। कविता की शुरुआती पंक्तियाँ हैं, चिट्ठी में है मन का प्यार, चिट्ठी है घर का अखबार।इसी तरह एक मटर का दाना,हमने भी देखा चिड़ियाघर,दही बड़े’, ‘हाथी दादा,एक बिल्ली सैलानी,पापा दीदी बहुत बुरी है, अपना घर भी है गुड़ियाघर,दादा जी और चिंटू, ये झोंपड़ियों के बच्चेमेरी पसंदीदा कविताएँ हैं। इन्हें पढ़ते हुए मैं खुद बच्चा बन जाता हूँ।

        इसी तरह पिछले कुछ वर्षों में लिखी गयी अपनी कविताओं में रोज कहानी, नाव अजब कुक्कू की, पेड़ नीम का, क्रिसमय की ये शाम, आना सांताक्लाज, परियों की शहजादीऔर होगी वर्षा झमझम होगीमुझे पसंद हैं। इनमें रोज कहानीकविता में कुक्कू कहानियों का शौकीन है और वह नानी से रोज नयी कहनी सुनना चाहता है। पर साथ ही उसकी शर्त यह भी है कि हर किस्से में कुक्कू हो और हर कहानी कुक्कू की ही हो। इस पर कुक्कू और नानी का संवाद बड़ा मजेदार है, जो कविता को थोड़े हास्य-विनोद के रंग में रंग देता है।

        पर शिशुगीतों की बात तो रह ही गयी!मेरे विचार से उनका दर्जा बाल कविताओं से कुछ ऊपर ही है। इसलिए कि शुरू में उन्हीं से बच्चों की दोस्ती होती है। खासकर नन्हे नटखट शिशुगीत उऩ्हें बहुत भाते हैं। अपना ऐसा ही एक शिशुगीत आपको सुनाता हूँ। इसमें बच्चे का मन है। बच्चा दुनिया की सारी चीजों में खुद को शामिल देखना चाहता है। चिट्ठीशिशुगीत में बच्चे की इच्छा है कि डाकिया उसकी भी नन्ही सी चिट्ठी लेकर जाए। पर उस चिट्ठी में है क्या और बच्चे ने यह लिखी किसे है, यह सब इस शिशुगीत में है

अरे डाकिए, चिट्ठी ले जा,

मेरी भी यह चिट्ठी ले जा।

चंदा मामा को यह चिट्ठी,

मैंने तो भेजी है मिट्ठी।

झटपट-झटपट वे आएँगे,

दूध-कटोरा पी जाएँगे।

        अपने शिशुगीतों में गुलगुला, गरम पराँठा, लंच बॉक्स, इतने शेर, कितने शेरऔर किताबेंमुझे पसंद हैं। ऐसे ही कुछ और शिशुगीत भी हैं, जिन्हें मैंने बहुत आनंद लेकर लिखा है। शायद इसीलिए छोटे बच्चे उन्हें बहुत आनंद लेकर गाते हैं। इसे लेकर जब-तब उनके मम्मी-पापा का फोन आता है, तो मुझे कितनी खुशी होती है, आपको बता पाना मुश्किल है।

विकास दवेमनु जी, आप अपनी बाल कहानियों के बारे में भी कुछ बताएँ। आप बच्चों के लिए कैसी कहानियाँ लिखना पसंद करते हैं, कल्पना प्रधान या यथार्थपरक?

प्रकाश मनु  भाई विकास जी, बाल कविताओं के बाद धीरे-धीरे मैं बाल कहानियों की ओर मुड़ा। अपनी बाल कहानियों में मैं कुछ नया करना चाहता था, जिससे वे बच्चों को अपनी, बिल्कुल अपनी कहानियाँ लगें। शायद यही वजह है कि मेरी बाल कहानियों में शुरू से ही बच्चे केंद्र में थे। बच्चों को कोरी कल्पना पसंद है और कोरा यथार्थ। इसलिए मैंने दोनों के बीच का रास्ता अपनाया। यानी मेरी कहानियों में कल्पना तो दादी-नानी की कहानियों जैसी हो, पर आज के बच्चे के जीवन, उसकी मुश्किलों और उलझनों को केंद्र में रखकर वे बुनी गयी हों, यह कोशिश मेरी रही। यह एक तरह से तलवार की धार पर धावनौ है। यानी एक मुश्किल रास्ता है। कल्पना और यथार्थ दोनों को एक साथ साधना कठिन, बहुत कठिन है। पर मुझे यही रास्ता भाया, ताकि बचपन में माँ और नानी की कहानियों से मुझे जो आनंद मिला था, वह मैं आज के बच्चों तक पहुँचाऊँ। साथ ही मैं मेरी कहानियाँ ऐसी हों, जो बच्चों की उलझनें सुलझाएँ और हर मुश्किल में उनके साथ खड़ी हों।

        इस लिहाज से अपनी पहली बाल कहानी मास्टर जीका जिक्र करना मुझे अच्छा लगता है। प्रशांत के जीवन में आदर्श या रोल मॉडल हैं मास्टर अयोध्यानाथ जी, जिन्होंने उसके भीतर कुछ नया करने का सपना जगा दिया है। हालाँकि जब मास्टर अयोध्यानाथ जी नये-नये आए थे तो प्रशांत ने अपने दूसरे साथियों के साथ मिलकर खद्दर मास्टर... खद्दर मास्टर...!’ कहकर उनकी खूब खिल्ली उड़ायी थी। पर बाद में अयोध्यानाथ मास्टर जी की बातों से वह बुरी तरह शर्मिंदा हुआ। अब वे ही मास्टर जी उसे अपने जीवनआदर्श और गाइड भी लगते हैं, जिनके पास वह दौड़-दौड़कर जाता है।

        कुछ आगे चलकर लिखी गयी कहानी जमुना दादीभी मुझे पसंद हैं। जमुना दादी अपने बड़े से आँगन वाले घर में अकेली रहती हैं। उनके अहाते में एक जामुन का पेड़ है। शुरू में बच्चों के कारण जमुना दादी बहुत खीझती थीं। पर बाद में ये बच्चे ही उनके दोस्त बन गये। दादी को चोट लग जाने पर वे उनकी खूब सेवा करते हैं। कहानी के अंत में जमुना दादी नहीं रहीं, पर बच्चे उन्हें प्यार से याद करते हुए जामुन के उस पेड़ के नीचे चबूतरे पर चुपचाप बैठे रहते हैं। यहाँ तक कि लगता है, वह जामुन का पेड़ भी जमुना दादी के चले जाने पर उदास हो गया है।इसी तरह मेरी एक कहानी है, आहा, रसगुल्ले इस कहानी के केंद्र में एक छोटा बच्चा ननकू है, जिसे रसगुल्ले पसंदहैं। उसके लिए कैसी-कैसी आफतें उसे झेलनी पड़ती हैं, कहानी में इसका बड़ा मजेदार वर्णन है।

        मेरी कुछ कहानियों में हास्य भी है, हालाँकि यह हास्य भी बच्चों के इर्द-गिर्द ही अपने प्रभाव को बढ़ाता है। ऐसी बाल कहानियों में झटपट सिंहऔर मिठाईलालमुझे पसंद हैं। इन कहानियों में खिलंदड़ापन है तो साथ ही हास्य के मजेदार छींटे भी जो पढ़ते हुए आनंदित करते हैं। इनमें झटपट सिंहकहानी के नायक निशीथ को हर काम झटपट कर डालने की आदत है। इस चक्कर में उसके काम बिगड़ते हैं और दोस्त झटपट सिंह कहकर उसका खूब मजाक उड़ाते हैं।इसी तरह मैंने बहुत रस लेकर कुछ नये ढंग की परीकथाएँ भी लिखीं। इनमें किस्सा एक मोटी परी कामुझे काफी पसंद है। इसमें एक मोटी परी है, जिसे परीलोक में सभी चिढ़ाते हैं। एक दिन दुखी होकर वह अकेली घूमने निकल पड़ती है। वह धरती पर एक अनोखे स्कूल में पहुँचती है जहाँ बच्चे मस्ती से खेल-कूद रहे हैं, कोई चित्र बना रहा है तो कोई खिलौने बना रहा है। कुछ बच्चे वेटलिफ्टिंग और व्यायाम कर रहे हैं। मोटी परी भी उनमें शामिल हो जाती है और खूब मजे में वेट लिफ्टटिंग करती है, दौड़-प्रतियोगिता में हिस्सा लेती है, सुंदर चित्र और खिलौने बनाती है, नाचती-कूदती, किलकती है। उसका व्यक्तित्व निखर जाता है। फिर तो हालत यह हुई कि परियाँ भी यह अनोखा स्कूल देखने धरती पर आती हैं, और बाबा देवगंधार से गुजारिश करती हैं कि वे परीलोक में भी ऐसा ही अनोखा स्कूल खोलें।

        यहीं विकास भाई, परीकथाओं के बारे में दो-एक बातें कहने का मन है। परीकथाओं के विरोध में आजकल बहुत कुछ कहा जाता है। बहुत से लोग यथार्थ के नाम पर फंतासी कथाओं को खारिज करने का आग्रह करते हैं। उन्हें लगता है, इससे बच्चों का सही विकास नहीं होता। पर परीकथाएँ और फंतासी कथाएँ तो बच्चों की स्वाभाविक दोस्त हैं। उन्हें छीनना बच्चों और बचपन के साथ अत्याचार ही है। हाँ, परीकथाएँ कुछ नये ढंग से लिखी जाएँ। उनमें ताजगी हो और नये समय की झाँकी भी। यह जरूरी है। मैंने अपनी परीकथाओं में यही कोशिश की है और बच्चों ने भी इनका खूब आनंद लिया। मेरे लिए यह बड़े सुख की बात है।

विकास दवेआपके बाल उपन्यास एक था ठुनठुनिया को साहित्य अकादेमी का पहला बाल साहित्य पुरस्कार मिला। आपके उपन्यासों की एक अलग रंगत है। पर उपन्यास लिखने के पीछे आपकी मुख्य प्रेरणा क्या थी?

प्रकाश मनु  भाई विकास जी, मैंने बड़ों के लिए यह जो दिल्ली है, कथा सर्कसऔर पापा के जाने के बादउपन्यास लिखे तो उनकी बहुत चर्चा हुई। साहित्य जगत में उन्हें बहुत सराहा गया। तभी मुझे लगा, बच्चों के लिए भी मुझे उपन्यास लिखने चाहिए। यों कहानियाँ लिखते-लिखते मैं उपन्यास की ओर आया। मेरा पहला बाल उपन्यास है, गोलू भागा घर से यह पूरी तरह तो नहीं, पर एक सीमा तक आत्मकथात्मक उपन्यास है। असल में बचपन में मैं किसी बात पर नाराज होकर घर छोड़कर चला गया था। उस समय मेरे मन में अपने ढंग से जीवन जीने का सपना था और वही मेरे पैरों को दूर उड़ाए लिए जा रहा था। पर दो-तीन दिनों में ही पता चल गया कि वे घर वाले जिनसे रूठकर मैं घर छोड़कर जा रहा हूँ, कितने अच्छे हैं और मुझसे कितनी बड़ी भूल हुई। हालाँकि उस समय मन में जो आँधी-अंधड़ चले, वे ही गोलू भागा घर सेउपन्यास की शक्ल में सामने आए।

        इसके बाद एक अलग ढंग का उपन्यास लिखा गया, खुक्कन दादा का बचपन इसका मिजाज गोलू भागा घर सेसे काफी जुदा है। इसलिए कि खुक्कन दादा का बचपनउपन्यास में एक तरह से किस्सागोई का रस और आनंद है। इसमें खुक्कन दादा मोहल्ले के बच्चों को अपने बचपन के एक से एक मजेदार किस्से सुनाते हैं। सुनकर बच्चे हँसते-हँसते लहालोट हो जाते हैं। और इतना ही नहीं, खुक्कन दादा के उन मजेदार किस्सों को सुनकर बच्चों को भी अपने जीवन के कई मिलते-जुलते से रोचक प्रसंग याद आते हैं। खुक्कन दादा खूब रस लेकर उन्हें सुनते हैं। इस तरह इसमें दो पीढ़ियों के बचपन की कहानियाँ एक-दूसरे से रूबरू होकर एक नया वितान गढ़ती हैं। उपन्यास में खुक्कन दादा और बच्चों की दोस्ती के भी बड़े जिंदादिली से भरे प्रसंग हैं, जिससे उपन्यास बड़ा रोचक बन गया हैं।

        मेरा एक था ठुनठुनियाउपन्यास साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत हुआ। यह भी कुछ अलग सा ही है। कह सकते हैं किएक था ठुनठुनियामस्ती की धुन में लिखा गया बाल उपन्यास है। यों भी ठुनठुनिया हर वक्त बड़ा मस्त रहने वाला पात्र है। हालाँकि उसके घर के हालात अच्छे नहीं हैं। पिता हैं नहीं। माँ बहुत गरीबी और तंगी की हालत में उसे पाल-पोस रही है। पर इन सब परेशानियों के बीच ठुनठुनिया उम्मीद का दामन और मस्ती नहीं छोड़ता। उसे किताबी पढ़ाई के बजाय जिंदगी के खुले स्कूल में पढ़ना ज्यादा रास आता है। इसीलिए वह कभी रग्घू चाचा के पास जाकर खिलौने बनाना सीखता है तो कभी कठपुतली वाले मानिकलाल की मंडली के साथ मिलकर कठपुतलियाँ नचाने का काम शुरू कर देता है। उपन्यास के अंत मेंठुनठुनिया कुछ बनकर दिखाता है। पर अपने पुराने साथियों को वह नहीं भूलता और उनके साथ मिलकर लोककलाओं का ऐसा संगम बनाता है, जहाँ सब हँसी-खुशी मिलकर काम करते हैं।

        इसके बाद चीनू का चिड़ियाघर, नन्ही गोगो के अजीब कारनामे, पंपू और पुनपुनतथा नटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामेउपन्यास लिखे गए। इनमें चीनू का चिड़ियाघरमें एक नन्ही बच्ची चीनू है, जो घूमने की शौकीन है। रास्ते में उसे कभी भालू, कभी मुटका हाथी, कभी जेबरा मिलता और सबसे उसकी पक्की दोस्ती हो जाती है। अंत में अपने पापा के फार्म हाउस में वह एक अनोखा चिड़ियाघर बनाती है, जिसे देखकर हर कोई हैरान है। नन्ही गोगो के अजीब कारनामेकी गोगो भी कुछ-कुछ चीनू जैसी ही खुशदिल बच्ची है। उसके नटखटपन के कारण घर में रोज नये-नये किस्से होते हैं। उपन्यास में वे ही बड़े हास्य-विनोद के साथ सामने आते हैं।

        इसी तरह पुंपू और पुनपुनमेंदो छोटे-छोटे बच्चों पुंपू और पुनपुन के मजेदार किस्से हैं। दोनों काफी नटखट और शरारती हैं। इसीलिए उनके किस्सों में भी नये-नये रंग सामने आते हैं, जो बाल पाठकों को खूब रिझाते हैं। मेरे उपन्यासनटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामेमें भी एक छोटा बच्चा है, कुप्पू। वह ज्यादातर कल्पना की दुनिया में रहता है और उसे बड़े अनोखे सपने आते हैं। उन्हीं के बीच एक से एक नये-निराले कौतुक होते हैं और उपन्यास बड़े मजेदार ढंग से आगे बढ़ता है। उपन्यास में थोड़ी सी मेरे बचपन की झलक भी मौजूद है।

        खजाने वाली चिड़ियामेरे बाल उपन्यासों से सबसे अलग है। इसमें चार दोस्त हैं, जिन्हें खजाने वाली चिड़िया का सपना आता है, जिसके मिल जाने से उनकी सारी मुश्किलें खत्म हो जाएँगी। फिर एक दिन घर वालों को बिना बताए वे उसकी तलाश में निकल पड़ते हैं। पहले वे जंगल में उसकी तलाश करते हैं, जहाँ उन्हें बड़े विचित्र अनुभव होते हैं। फिर चलते-चलते वे एक अजब देश में पहुँचते हैं जहाँ आलसी लोग बसते हैं। इसके बाद अलगोजापुर में पहुँचते हैं, जहाँ हवाओं में संगीत बिखरा हुआ है। वहाँ से लौटते समय शहर आकर वे एक आलीशान मगर खूनी कोठी तक जा पहुँचते हैं, जहाँ की सच्चाई बड़ी खौफनाक है।अंत में पुलिस कप्तान हरिहरनाथ से मिलकर वे अपराधियों को पकड़वाते हैं।सब ओर उनके नाम का डंका बजने लगता है। उपन्यास के अंत में ये चारों उत्साही दोस्त घर लौट रहे हैं। उन्हें खुशी है कि खजाने वाली चिड़िया भले ही नहीं मिली, पर अब उनके पास अपने अनुभवों का विशाल खजाना है, जो जिंदगी जीने में उनकी बड़ी मदद करेगा।

        मेरे नये उपन्यासों में अनोखा मेला सब्जीपुर काभी बड़ा रोचक उपन्यास है। इसके अलावा इधर अपेक्षाकृत कुछ छोटे उपन्यास भी लिखे गये हैं, जिन्हें बच्चों ने खूब सराहा है। कुछ और भी उपन्यास मन में हैं। देखिए, वे कब लिखे जाते हैं। पर विकास जी, बच्चों के लिए उपन्यास लिखने में मुझे बहुत आनंद आता है। उन्हें लिखते समय मैं खुद बच्चा बन जाता हूँ और नये से नये कौतुक मेरी आँखों के आगे आने लगते हैं। शायद इसीलिए बच्चों के लिए उपन्यास लिखना मुझे सबसे अधिक पसंद है।

विकास दवेआपने बच्चों के लिए नाटक भी बहुत लिखे हैं...

प्रकाश मनु  हाँ, विकास जी, बहुत लिखे हैं। बच्चों के लिए लिखे गये मेरे करीब अस्सी नाटक हैं। हालाँकि बाल साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में मेरा बच्चों के लिए नाटक लिखना कुछ देर से शुरू हुआ। पर एक दौर था, जब बच्चों के लिए बहुत नाटक लिखे गये। उन दिनों शायद रात-दिन मन नाटकों में ही रमा रहता था। बाल नाटकों की मेरी कोई डेढ़ दर्जन किताबें हैं। इनमें हास्य और विनोद पूर्ण बाल नाटक हैं तो ऐतिहासिक और समस्यामूलक बाल नाटक भी, जिनमें बाल-मन खूब रमता है और आगे क्या होगा, जानने के लिए मन में कौतूहल बना रहता है।

        यों बच्चों के लिए नाटक लिखने की मेरी शुरुआत रेडियो से हुई। जहाँ तक याद पड़ता है, नब्बे के दशक में रेडियो के लिए पाँच-छह नाटक लिखे गये। ये नाटक मुनमुन का छुट्टी क्लबनाम से छपे हैं। खुद मुझे इन नाटकों को लिखने में बहुत आनंद आया। खास बात यह है कि इन नाटकों के केंद्र में बच्चे हैं, जो लीक से हटकर कुछ करना चाहते हैं। मेरे शुरुआती बाल नाटकों में अजब छींक नंदू कीएकदम अलग सा बाल नाटक है, जिसमें हास्य-विनोद के छींटे हैं। नाटक का केंद्रीय पात्र है, नंदू। एक छोटा बच्चा, जिसे छींकें बहुत आती हैं और इसकी वजह से उसका मजाक भी बहुत बनता है। पर फिर यही छींक एक के बाद एक इतने कमाल करती है कि हर कोई हैरान है।यहाँ तक कि गाँव के अखाड़े में एक नामी पहलवान झब्बरमल आया, तो आखिर नंदू की छींक ने ही हराया। झब्बरमल बेचारा भौचक्का ही रह गया। पूरे गाँव में नंदू की जय-जयकार के साथ उसका जलूस निकलता है।मुनमुन का छुट्टी क्लबभी मेरा प्रिय बाल नाटक है, जिसमें बच्चे अपनी दुनिया से बाहर निकलते हैं और गरीब बच्चों को पढ़ाने की योजना बनाते हैं, ताकि वे भी पढ़-लिखकर आगे बढ़ें।

        मेरे बाल नाटक लेखन का दूसरा दौर जिसमें बहुत नाटक लिखे गये, कोई बीस बरस के अंतराल पर सन् 2010-11 में शुरू हुआ। उसके बाद मेरे जीवन के कोई दो साल पूरी तरह नाटकमय रहे। अपने कुछ बाल नाटक मुझे काफी प्रिय हैं। इनमें खासकर पप्पू बन गया दादा जी, खेल-खेल में नाटक,हमारा हीरो शेरू,जानकीपुर की रामलीला,यारो मैं करमकल्ला नहीं हूँ,निठल्लूपुर का राजा,कहानी नानी की, गोलू मोलू गप्पू खाँ, मीशा ने ढूँढ़े रसगुल्लेऔरमुन्नू का अजब नाटकमैंने खूब आनंद लेकर लिखे। छोटे बच्चों या शिशुओं के लिए नाटक हमारे यहाँ कम ही हैं। जब कि मेरे नाटकों में पप्पू बन गया दादा जी, खेल-खेल में नाटक, मुन्नू का अजब नाटक’, ‘कहानी नानी की, हमारा हीरो शेरूसमेत कई ऐसे मजेदार नाटक हैं, जो छोटे बच्चों को भी खूब आनंदित करते हैं।

विकास दवेबाल साहित्य की अन्य विधाओं में हमारे यहाँ लेखन कम हुआ है। क्या आपने उन पर कलम चलायी?

प्रकाश मनु  हाँ, विकास जी, खासकर बच्चों के लिए बनी-बनायी लीक से हटकर जीवनियाँ लिखने में भी मुझे आनंद आया। बच्चे भारत के महान स्वाधीनता सेनानियों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों और विद्वानों से परिचित हों, यह मुझे जरूरी लगा। उनके जीवन में ऐसी कौन सी बातें थीं, जो उन्हें लीक से हटकर कुछ करने के लिए प्रेरित कर रही थी, मैंने इस पर जोर दिया, ताकि बच्चों में भी कुछ करने, कुछ बनने का हौसला पैदा हो। शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँतथा जो खुद कसौटी बन गएपुस्तकों में ऐसी कई भावनात्मक जीवनियाँ हैं, जिन्हें बच्चे किस्से-कहानियों की तरह पढ़ते हैं और बहुत कुछ सीखते भी हैं।

        बच्चों के लिए ज्ञान-विज्ञान साहित्य भी मैंने बहुत लिखा। उन्हें विज्ञान के नये-नये आविष्कारों और अद्भुत चमत्कारों के बारे में बताया। इसी तरह मैंने बच्चों के लिए टेलीफोन की कहानी, रेडियो और टेलीविजन की कहानी, कंप्यूटर की कहानी, चॉकलेट की कहानी, आइसक्रीम की कहानी आदि को बड़े ही रोचक अंदाज में पेश किया। एकदम किस्से-कहानी वाले अंदाज में विज्ञान के महान आविष्कारों को बच्चोंतक पहुँचाना खुद मेरे लिए बड़ा रोमांचक था। इन पर पर बच्चों की बड़ी आनंदपूर्ण चिट्ठियाँ भी मुझे मिलीं। इसी तरह लो चला पेड़ आकाश मेंजैसी मेरी विज्ञान फंतासी कथाओं को बच्चों ने बहुत पसंद किया।

        विकास जी, एक बात मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि जहाँ तक लिखने का सवाल है, बच्चों या बड़ों के लिए लिखने में मुझे कोई फर्क नजर नहीं आता। दोनों के लिए भीतर एक जैसे ही रचनात्मक तनाव से गुजरना पड़ता है। ऐसा कभी नहीं लगा कि बच्चों की रचना है तो क्या है, जैसे मर्जी लिख दो।कोई रचना पूरी होने पर मैं खुद एक बच्चे के रूप में उसे पढ़ता हूँ और सबसे पहले अपने आप से ही पूछता हूँ कि पास हुआ या फेल...? इसके बाद ही वह रचना बच्चों के हाथ में आती है। इसी तरह एक बात तय है कि बच्चों और बचपन को पूरी निश्छलता के साथ प्यार किए बिना आप बच्चों के लिए कुछ भी लिख नहीं सकते। यह मेरा अपना अनुभव है। इसी से मुझे बच्चों के लिए लिखने की अपार ऊर्जा मिलती है और एक अनोखा आनंद भी।

विकास दवे मनु जी, आपने हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखा। यह एक बड़ा कालजयी काम था, जिसमें आपके जीवन के कोई बीस वर्ष लगे। यह एक पहाड़ उठा लेने जैसा काम था।इसके पीछे मूल प्रेरणा क्या थी?

प्रकाश मनु विकास जी, इसका श्रेय मैं नंदनके यशस्वी संपादक जयप्रकाश भारती जी को देना चाहता हूँ। वे मुझसे बहुत बार कहते थे कि मनु जी, जिस साहित्य में संदर्भ ग्रंथ हों, लोग उसका सम्मान नहीं करते। हिन्दी बाल साहित्य में संदर्भ ग्रंथों की बहुत जरूरत है। पर इसमें मेहनत बहुत है, इसलिए लोग इधर आना नहीं चाहते।तभी मैंने मन में तय कर लिया था कि मैं कुछ बड़े काम करके दिखाऊँगा, उसके लिए चाहे मुझे जितना भी श्रम करना पड़े। इस लिहाज से मेरा पहला बड़ा काम हिन्दी बाल कविता का इतिहासथा, जिसे बहुत सराहा गया। तभी मन में आया कि मैं समूचे हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखूँगा। भले ही यह काम कितना ही बड़ा क्यों हो।

        हालाँकि बाल साहित्य का इतिहास लिखने से बरसों पहले मैंने इतिहासपरक लेख लिखने का सिलसिला शुरू किया था। आजकलपत्रिका में तब योगेंद्रदत शर्मा थे। पहले संयुक्त संपादक, फिर संपादक। वे हर बरस नवंबर अंक में बाल साहित्य की किसी विधा पर मुझे लिखने के लिए आमंत्रित करते थे और बहुत विस्तार से छापते थे। उन दिनों कंप्यूटर मेरे पास था। तो हाथ से ही लिखता था और मेरा कोई लेख हाथ के लिखे पचास-साठ पृष्ठ से कम का नहीं होता था। कोई चार-पाँच महीने इस लेख को लिखने में लगते थे, कभी-कभी और भी ज्यादा। दो-तीन बार सुधारकर हाथ से ही फिर-फिर लिखना। बाद में फोटोस्टेट करवाकर, लेख को जगह-जगह काट-तराशकर, मैं काफी संक्षिप्त करके देता था, जिसे पत्रिका में छापने के लिए भाई योगेंद जी को कुछ और भी काट-छाँट करनी होती थी। लेकिन मूल लेखों को मैं सुरक्षित रखता था, जिनके पीछे महीनों का अपार श्रम था।

        उन दिनों का एक प्रसंग मुझे याद रहा है। आजकलके लिए कहानी की समूची विकास-यात्रा पर मुझे लिखना था और मैंने विभिन्न कालखंडों की कोई सौ-डेढ़ सौ से ज्यादा प्रतिनिधि किताबें जुटा ली थीं। लेकिन प्रकाशन विभाग की बहुत सी महत्त्वपूर्ण किताबें मेरे पास थीं। बलदेव सिंह मदान उन दिनों संपादक थे, हालाँकि पत्रिका का बहुत सारा काम योगेंद्र ही देखते थे। मैंने मदान जी से कहा कि मुझे इस लेख के लिए प्रकाशन विभाग की कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों की दरकार होगी। इस पर उन्होंने कहा, मनु जी, आप नीचे हमारी बुक शॉप में चले जाइए। वहाँ जो भी किताबें आपको पसंद हों, ले लीजिए। बाद में आप लेख लिखकर उन्हें वापस कर दीजिएगा।मैंने कहा, नहीं, मदान जी, यह तो असंभव है, क्योंकि किताबों पर निशान लगाए बगैर मैं पढ़ नहीं सकता। और फिर जिन किताबों पर निशान लग जाते हैं, वे मेरे लिए अनमोल वस्तु हैं। इसलिए कि उन पर एक नजर डालते ही बरसों बाद भी मुझे उस किताब में लिखा हुआ सारा कुछ याद जाता है।सुनकर मदान जी चकराए। बोले, तो आप मुझसे क्या चाहते हैं?” मेरा जवाब था कि मैं बस इतना चाहता हूँ कि उन पुस्तकों पर मुझे कुछ अतिरिक्त छूट मिल जाए। आप ऐसी व्यवस्था करवा दें।

फिर वैसा ही हुआ और लगभग पाँच-छह हजार रुपए की पुस्तकें वहाँ से लेकर मैं आजकलके दफ्तर में आया।मदान जी ने पुस्तकें देखकर कुछ हैरानी से कहा, मनु जी, हम तो पारिश्रमिक के रूप में आपको तीन हजार से अधिक नहीं दे सकते। पर आपने तो बहुत खर्च कर दिया।मैंने हँसते हुए कहा, मदान जी, यह सब सोचा होता तो मुझे ओखली में सिर देने की मुझे जरूरत ही क्या थी? बाल साहित्य का इतिहास लिखे बगैर भी मेरा काम चल सकता था। पर अपने इस पागलपन को क्या कहूँ?पास ही योगेंद्र बैठे थे, जो मुझे और मेरी इस विचित्र दीवानगी को जानते थे। वे चुपचाप मुसकरा दिए। कुछ समय बाद मैं इतिहास लिखने के काम में जुटा, तो बाल साहित्य की हर विधा पर लिखे गये वे लेख जो लगभग साठ पृष्ठों तक चले जाते थे, कभी-कभी और ज्यादा भीमेरे बहुत काम आए। फिर उनमें बरस-दर-बरस कितना जुड़ा, कितना कटा-छँटा, कैसी-कैसी तब्दीलियाँ हुईं, यह एक अलग ही कथा है। बाद में कंप्यूटर पर उनकी कंपोजिंग होने पर उसके एक के बाद एक कितने ड्राफ्ट बने, कितने प्रिंट लिए गए, यह सब भी एक अकथ कथा है। अवर्णनीय। इसलिए कि हर बार बीच-बीच में, कालक्रम से नयी किताबें शामिल करने के साथ ही फिर से काट-छाँट और संपादन के बाद एक नया ही प्रारूप सामने जाता था।

        आपको जानकर हैरानी होगी किइस इतिहास ग्रंथ के लिए कोई दो-ढाई लाख रुपये की किताबें खरीदी गयीं। हर बार दोनों हाथों में किताबों के भारी थैले पकड़े मैं हाँफता-काँपता घर आता, तो सुनीता जी मेरे हाथ से वे थैले ले लेतीं, पानी-वानी पिलातीं। फिर हम दोनों ही उन किताबों को पढ़ते, उन पर चर्चा करते। बाद में वे पुस्तकें विभिन्न अलमारियों में रख दी जातीं, जिनमें बाल साहित्य की पुस्तकें अलग-अलग विधाओं के अनुसार सजी होती थीं। इस चीज ने मुझे काफी मदद दी और बाल साहित्य की हजारों पुस्तकों में से मन की किताब निकाल लेना मेरे लिए बहुत मुश्किल नहीं होता था। बेशक बाल साहित्य का इतिहास लिखने में मुझे इससे बहुत मदद मिली। यों कोई बीस-बाईस वर्षों की तपस्या के बाद बाल साहित्य का इतिहास लिखा गया, तो मेरा ही नहीं, असंख्य बाल साहित्यकारों का सपना भी पूरा हुआ।

        भाई विकास जी, आप तो यह जानते ही हैं कि बाल साहित्य के इतिहास के प्रयोजन से खरीदी और बार-बार पढ़ी गयी उन पुस्तकों में से लगभग आधी पुस्तकें मैंने देवपुत्रके शोध संस्थान को भेंट कीं, जहाँ वे सुरक्षित हैं। अगर कोई चाहे तो उन्हें वहाँ आसानी से पढ़ सकता है। पर इधर मैंने बाल साहित्य पर ऐसे कुछ इतिहासपरक लेख देखे, जिसमें सारी सामग्री और संदर्भ मेरी पुस्तक से ही लिए गए। पर कहीं-कहीं थोड़ा फेरफार किया और ऊपर नाम अपना दे दिया। देखकर मुझे दुख हुआ। अगर वे सज्जन मेरे इतिहास से ही सारी सामग्री लेकरअपने नाम से छपवाने के के बजाय, देवपुत्रके विशाल पुस्तकालय में जाकर उन पुस्तकों को पढ़ लेते तो उनके लिखे में कुछ तो नया और मौलिक होता। केवल अनुकृति ही होती।

        इधर मैं देखता हूँ, विकास जी, बाल साहित्य में इतिहास लेखन के लिए हमारे लेखकों में एक विशेष उत्साह उमड़ पड़ा है। मैं इसे अच्छा मानता हूँ और इसका स्वागत करता हूँ। पर इतिहास लेखन की तमाम बुनियादी शर्तों के साथ-साथ इतना तो जरूर अपेक्षित है कि आप जिन पुस्तकों की चर्चा कर रहे हैं, उन्हें कम से कम पढ़ तो लीजिए। अगर हम इतना भी नहीं करते, तो जो कथित इतिहास लिखा जाएगा, उससे किसका भला होगा? कम से कम बाल साहित्य का तो नहीं।

विकास दवेमनु जी, बाल साहित्य को लेकर क्या आपकी कुछ और योजनाएँ भी हैं?

प्रकाश मनु  विकास भाई, पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी बाल साहित्य के इतिहास के साथ-साथ मैंने हिन्दी बाल साहित्य के शिखर व्यक्तित्वऔर हिन्दी बाल साहित्य के निर्मातापुस्तकें लिखी हैं।इन दोनों ही पुस्तकों में हिन्दी बाल साहित्य की नींव रखने वाले दिग्गज बाल साहित्यकारों की बहुत विस्तृत चर्चा है। मेरे निजी पुस्तकालय में इन सभी पर बहुत सामग्री थी। मुझे लगा, अगर सभी का उपयोग ऐसी कुछसंदर्भ पुस्तकों को लिखने में किया जाए तो कितना अच्छा हो,ताकि भविष्य के लिए बहुत कुछ सुरक्षित रह जाए। इसी क्रम में दो पुस्तकें अभी और लिखने का मन है, जिनमें बाद की पीढ़ी के सम्मानित बाल साहित्यकारों की चर्चा होगी, जिन्होंने बाल साहित्य को एक सार्थक मोड़ और दिशा दी।इसके अलावा हिन्दी बाल कविता, बाल कहानी, बाल नाटक और बाल उपन्यासों के सुंदर संचयन निकलें। यह सपना भी मेरे मन में है।

विकास दवेआपका कोई और सपना जो अभी अधूरा हो, और जिसे जाने से पहले आप जरूर पूरा कर जाना चाहते हों?

प्रकाश मनु  विकास भाई, इसका जवाब है, मेरी आत्मकथा, जो चार खंडों में सामने आएगी। इनमें एक खंड मैं मनु चुका है। बाकी तीन खंडों पर मैं काम कर रहा हूँ। अगर मैं उन्हें लिख सका तो मेरी आत्मकथा सिर्फ मेरी नहीं, मेरे साथ-साथ मेरे सहयात्रियों, बल्कि मेरे समय की आत्मकथा होगी। कुछ लोग अचरज से भरकर कहते हैं, अरे, इतनी बड़ी आत्मकथा! इस पर मेरा जवाब होता है कि मेरे दिल में हजारों लोग रहते हैं। मेरी आत्मकथा उन सबकी आत्मकथा होगी। उन सबका दुख-दर्द, सपने और जिजीविषाएँ भी उसमें आएँगी, ताकि लोग जानें कि वह कैसा समय था, जिसमें मैं और मेरे साथ के लोग जिए, और निरंतर लिखते रहे।

        सच तो यह है विकास जी, कि मेरे मन में लिखने का एक जुनून सा है। बदले में क्या मिला, क्या नहीं, यह मैंने कभी नहीं सोचा। इसी तरह पुरस्कारों की मुझे कभी लालसा नहीं रही, फिर भी कुछ पुरस्कार तो मिले ही। सन् 1995 में अपने कविता-संकलन छूटता हुआ घरपर मुझे प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार मिला। सन् 2006 में लंबी साहित्य साधना के लिए हिन्दी अकादमी का साहित्यकार सम्मानप्राप्त हुआ। सन् 2010 में बाल उपन्यास एक था ठुनठुनियापर साहित्य अकादेमी का पहला बाल साहित्य पुरस्कार मिला। सन् 2012 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के बाल साहित्य भारतीपुरस्कार से मुझे सम्मानित किया गया।

        सन् 2010 में नंदनके संपादन से अवकाश पाने के बाद फिर से जीवन की एक नयी डगर शुरू हुई। अब रोज सुबह से रात को दस बजे तक मैं अपनी मेज पर बैठकर काम करता हूँ। विद्यार्थी जीवन में मैं सारे-सारे दिन पढ़ा करता था। वही सिलसिला अब भी चल रहा है। सच पूछिए तो मैं अब भी अपने को विद्यार्थी ही मानता हूँ। इस लिहाज से हर किसी से सीखने की कोशिश करता हूँ। साथ ही मेहनत से मुँह नहीं मोड़ता। दुनिया के बहुत सारे आकर्षणों से अपने को मुक्त करके मैं खूब लिखता हूँ, पढ़ता हूँ और दिन भर अपने काम में लगा रहता हूँ। यही मेरा सुख है, यही मेरा सपना। यही मेरा जीवन भी है। और मेरा जुनून तो यह है ही। मैं अकसर लोगों से कहता हूँ कि जिस जगह बैठकर मैं लिखता, पढ़ता हूँ, वहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती तीनों नदियाँ बहती हैं और दुनिया की सबसे सुंदर, सबसे पवित्र जगह है वह।

        ईश्वर से बस एक ही चीज मैं माँगता हूँ कि अपने जीवन की अंतिम साँसों तक मैं लिखता-पढ़ता रहूँ। जब इस दुनिया से जाऊँ तब भी कलम और किताब मेरे हाथ में हो। काश, मेरा यह सपना सच हो पाए।


प्रकाश मनु
545 सेक्टर-29, फऱीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,
prakashmanu334@gmail.com, 09810602327
 
विकास दवे, निदेशक, मध्यप्रदेश साहित्य अकादेमी, भोपाल (.प्र.),
09425912336

 

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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