हिंदी की दलित आत्मकथाओं में बचपन के दंश
- माणिक
शोध सार : इतिहास और साहित्य स्मृतियों से भरा पड़ा है । स्मृतियाँ जब दुखों का पहाड़ हो तो उन्हें याद करते हुए यात्रा फिर से पीड़ा भोगने के मानिंद अनुभव होती है। हिंदी की जिन दलित आत्मकथाओं से मेरा गुजरना हुआ वहां यहीं कुछ महसूस हुआ। आज़ादी के पचहत्तर साल बाद का दृश्य बहुत कुछ बदला ज़रूर है मगर अभी काफी काम शेष है।आलेख में आए विवरण डराते हैं कि कैसे इन लेखकों ने असुविधाजनक जीवन काटा है।आर्थिक गैर-बराबरी से लेकर लैंगिंग भेदभाव सब इन्हें छिलते हुए लगे। लिखने-पढ़ने की जितनी शालाओं के वर्णन हैं संकट के संकेत देते हैं। कड़वाहट की बारहखड़ी हैं यहाँ सबकुछ।जातिसूचक नामों के साथ व्यवहार भीतर तक हीला देता है। अब ऐसी यातनाएं कम ज़रूर हुई है मगर पुख्ता तभी कहा जा सकेगा जब कोई इक्कीसवीं सदी में जन्मा दलित लेखक अपनी आत्मकथा लिखे। बालश्रम जैसी समस्या से भी यहाँ सामना हुआ है। यह आलेख आपको कुछ सत्य से परिचय देगा जो किसी तरह के भावार्थ की अपेक्षा नहीं रखते हैं। विवरण ही अपनेआप में प्रश्न हैं।
बीज शब्द : गैर बराबरी, दलित आत्मकथा, बचपन, लैंगिंग भेदभाव।
मूल आलेख : अक्सर पढ़ने को मिलता है कि दलितों के साथ देश की आजादी के बाद भी अच्छा और सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाता है खासकर तब जब स्कूली शिक्षा में भेदभाव होता है तो मानसिक पीड़ा ज्यादा होती है। श्यौराज सिंह बेचैन के सन्दर्भ में लिखा गया है कि “लेखक ने बचपन में जूते पॉलिश करते, कोल्हू हाँकने, बैल हाँकने, मजदूरी करने, हल चलाने, खेत जोतने, होटल में बैरे का काम करने, फर्श घिसने का काम करने, गली-गली में नींबू, अंडे बेचने के लिए चक्कर लगाने जैसे कार्यों सहित मवेशी उठाने, खाल निकालने के कार्य किए हैं। उन्हें रोटी के लाले पड़े थे। वे भट्टों पर ईंट पाथने के काम में लगा लिए जाते तो कभी फसल कटाई और अनाज निकालने के लिए। मास्टर जी के यहाँ घरेलू काम के लिए खटना तो जैसे उनके लिए एक नित्य क्रिया ही थी।”[1] अब बचपन की इस तरह निर्मम हत्या होती रहे तो इसे दंश ही कहा जाएगा। मेहनत-मजदूरी करने में लेखक को किसी बात की शर्म की अनुभूति नहीं है। भेदभाव की चोट गहरी है।
लेखक पढ़ना चाहता है मगर कुछ शक्तियाँ इसे पचा नहीं पा रही हैं। “छर्रा वाले पादरी बाबूलाल मसीह ने हमारे गाँव के (सवर्णों) की लाठियों की मार न जाने कितनी बार सही। तीन कोस की दूरी तय करके साइकिल पर आते थे वह हमारे गाँव। अक्सर गाँव के तथाकथित सवर्ण उनकी साइकिल के पहियों की हवा तक निकाल देते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक दिन (....) उनकी साइकिल छीन कर गाँव की पोखर में फैंक दी थी। गाँव के अधिकतर बसीट यही सोचते थे कि यह पादरी गाँव के चूहड़े-चमारों को ईसाई बनाने आता है। यह बात तो ठीक थी कि बाबूलाल मसीह छर्रा कस्बे के आस-पास के गांवो में जाकर दलित-बस्तियों में ईसाई-धर्म का प्रचार-प्रसार करते थे, लेकिन इसके साथ-साथ वह दलितों को शिक्षा का महत्त्व भी समझाया करते थे। आज उनके ही अथक प्रयासों से छर्रा के आस-पास के गाँवों के दलितों में थोड़ी-बहुत शिक्षा दिखाई पड़ रही है। उनके इस योगदान को नजर-अंदाज नहीं किया जा सकता।’’[2] बचपन की स्मृतियाँ ज्यादा संवेदनापूर्ण होती हैं। प्रो. बेचैन लिखते हैं कि “मैं करीब सात वर्ष का रहा होऊंगा और बड़ी बहन माया मुझसे दो-तीन वर्ष बड़ी थी। भिकारी ने अम्माँ से बिना सलाह किए भट्टे के एक ठेकेदार से पेशगी यानी एडवांस रुपया लेकर हम दोनों बहन-भाइयों को भट्टे पर भेजना तय कर दिया था। अम्माँ इस फैसले से बहुत परेशान थी। वह चाहती थी कि या तो सारा परिवार भट्टे पर जाए या बच्चे परिवार के साथ रहें, पर भिकारी चाहता था कि हमारी माँ और उसके सगे बेटे रूपसिंह, तेजसिंह और भूरे लाल तो घर रहें और हम सौतेले बच्चे माया-सौराज भट्टा पर जाकर मिट्टी काटें और पैसा कमाकर उसे दें।”[3] भिकारी श्यौराज सिंह बेचैन के सौतेले पिता हैं। बचपन में रिश्तों में सौतेलेपन के कारण जो भेदभाव झेलना पड़ता है वह मानस में चिरस्थाई हो जाता है। लेखक और उनकी बहिन की पीड़ा शब्दों में बयान करना संभव नहीं है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के अनुसार “अध्यापकों का आदर्श रूप जो मैंने देखा वह अभी तक मेरी स्मृति से मिटा नहीं है। जब भी कोई आदर्श गुरु की बात करता है तो मुझे वे तमाम शिक्षक याद आ जाते हैं जो माँ-बहन की गालियाँ देते थे। सुंदर लड़कों के गाल सहलाते थे और उन्हें अपने घर बुलाकर उनसे वाहियातपन करते थे।”[4] यहाँ संकेत एकदम सटीक और तीर की तरह है। शिक्षा जगत में गुरु-शिष्य संबंधों को लेकर कई चित्र मौजूद हैं। हमेशा तस्वीर ऐसी भी नहीं होती है जैसी लेखक ने बयान की है। लेकिन लेखक का सच भी इसी परिवेश की एक घटना है। विद्यार्थियों के बीच विभिन्न आधार पर अंतर करते हुए भेदभाव करना नकारात्मक मानसिकता का द्योतक है।
वंचित वर्ग के परिवारों में सामान्यतया देखा जाता है कि छोटे-छोटे बच्चों को वर्षभर के हिसाब से पैसे लेकर कहीं काम पर रख दिया जाता है। बंधुआ मजदूर का जीवन जीता हुआ दलित बालक या बालिका के मन को पढ़ना सरल नहीं है। “बालश्रम मेरे होश संभालते ही पिता की मौत के बात मेरे पीछे बीमारी की तरह लग गया था। मेरे श्रम और शोषण का लाभ गैर-दलितों खासकर यादवों ने तो उठाया ही, थोड़े समर्थ जाटवों और मुसलमानों ने भी कसर नहीं छोड़ी। फर्क इतना था कि जाटव काम के साथ वैसी छूत-छात नहीं बरतते थे जैसी यादव और मुसलमान बरता करते थे।”[5] बचपन के घाव उम्रभर हरे रहते हैं।
अजमेर सिंह काजल लिखते हैं कि “घर से दूर जाकर शिक्षा प्राप्त करना महँगा होने के साथ-साथ विद्यार्थियो के लिए कई तरह की वास्तविक दिक्कत लेकर आता है और यदि छात्र अभावग्रस्त दलित समाज से होतो समस्या कई गुना बढ़ जाती है। रिहायश की समस्या उनका रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है। लोगों की निगाहें सामने वाले की प्रतिभा पर कम उसकी जातीय पड़ताल पर अधिक रहती है। मणिकर्णिका दलित छात्रों की इस विकट समस्या पर प्रकाश डालती है कि किस तरह कामकाजी परिवेश के विद्यार्थी बार-बार कमरे बदलने को विवश हैं।”[6] स्कूल या कॉलेज की पढ़ाई के दौरान किराए के कमरे मिलना बेहद मुश्किल काम था। इस शोध हेतु चुनी हुई सभी आधार पुस्तकों में इस बात के ठोस सबूत हैं कि बिना जाति पूछे कमरा या मकान किराए पर नहीं मिलता है। किसी ने जाति छिपाकर मकान लिया तो कोई जाति नहीं छिपाने पर दर-दर भटकने को मजबूर हुआ।
मोहनदास नैमिशराय के हवाले से जाने तो “ब्याह से पहले लड़कियों का बाहर निकलना अच्छा न माना जाता था। यही नहीं उनके प्रति कड़ाई भी बरती जाती थी। वैसे भी बस्ती में औरतों, लड़कियों की संख्या पुरुषों से कम थी। उनमें भी दादियों, माँओं, भाभियों और चाचियों की संख्या अधिक थी। बेटियों का प्रतिशत बस्ती में कम था। जिस घर में बेटी पैदा हो जाती, उसका बाप अपना माथा पकड़कर बैठ जाता था और माँ गुमसुम-सी होकर रह जाती थी। लड़कियाँ दुःख, कलह, अभाव, लड़ाई-झगड़ों का प्रतीक मानी जाती थीं।”[7] बचपन में ही लैंगिक भेदभाव का दंश झेलती बालिकाएँ लगातार प्रताड़ित होती हैं। अशिक्षित और गरीब परिवारों में जेंडर की समझ होने की आस पालना बेमानी है। हालाँकि देहाती और आदिवासी जनसंख्या में तो लिंगानुपात स्त्रियों के पक्ष का रहता है मगर लेखक के अनुसार बालिकाओं के साथ जन्म से ही भेदभाव आरम्भ हो जाता है, यह खतरनाक संकेत है।
प्रो. बेचैन लिखते हैं कि “चाय वाले ने चाय की दुकान पर काम करने की सलाह दी। जूते वालों ने बूट पॉलिश करने की और किसी दूसरे ने होटल पर बर्तन धोने का काम दिला देने का आश्वासन दिया। जो जैसा काम करता था, मेरे कॅरियर का स्कोप वह अपने दायरे में ही बताता था। मैंने दिल्ली में ऐसे सभी काम किए जो मेरी उम्र और सामर्थ्य से संभव थे। वैसे उस दिन भी मौसा जी मेरे लिए होटल में बर्तन साफ करने के काम को प्राथमिकता दे रहे थे, क्योंकि वहाँ मेरे दो वक्त रोटी की समस्या का हल दिख रहा था।”[8] छुटपन में पढ़ाई-लिखाई के बजाय बालश्रम की ओर धकेल दिए जाने से सामाजिक-आर्थिक विषमता के साथ मानसिक बोध पर भी असर पड़ता है।
स्कूली जीवन में टीके लगाने और फिर टीके वाली जगह पर दिनों तक की सूजन का डर हर विद्यार्थी के बचपन के शिलापट्ट पर अंकित वाकया है। “उन दिनों प्राइमरी स्कूल में पढ़ते समय ‘सिरगोदवा बाबा’ का बड़ा आतंक था। कई बार स्कूल में अफवाह उड़ गई कि ‘सिरगोदवा बाबा’ आने वाले हैं। इतना सुनते ही सैकड़ों बच्चे स्कूल से भागकर दूर-दूर फैले गन्ने के खेतों में जाकर दिन भर के लिए छिप जाते। शाम होने पर सभी डरते हुए घर जाते। कई बार मैं भी गन्नों के खेतों में छिपा रहा। वास्तव में यह सिरगोदवा बाबा कोई और नहीं बल्कि स्कूलों में सरकार द्वारा भेजे गए चेचक का टीका लगाने वाले कंपाउंडर होते थे जिन्हे मेरे पिता जी कंपोटर बाबू कहते थे।”[9] तुलसीराम ने ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता की कमी की तरफ इशारा किया है। साथ ही विद्यार्थी जीवन के किस्सों का दस्तावेजीकरण भी संभव हो सका है।
विद्यालय का परिवेश भी विद्यार्थी जीवन को प्रभावित करता है। “मिट्टी की दीवारों वाले चार कमरों के स्कूल में सभी विद्यार्थियों में बैठने की व्यवस्था नहीं थी, इसलिए छायादार पेड़ों के नीचे बैठने के लिए विद्यार्थी आपस में लड़ते रहते। स्कूल के अंदर दोपहर को पाँचों अध्यापकों का भोजन तैयार करने से धुआँ फ़ैल जाता और पढ़ाई के कार्य में बाधा होती, लेकिन इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। विद्यार्थियों के लिए पानी का प्रबंध कुएँ पर था जिस पर दलित विद्यार्थी चढ़ नहीं सकते थे और छू नहीं सकते थे।”[10] यह मूलभूत भेदभाव है जो बच्चों के मानस पर बुरा असर डालता है।
कुछ यादें जीवन में कभी पीछा नहीं छोड़ती हैं। सालों बाद अपने बीते में झाँकने का साहस जुटाने वाले दलित लेखक जब अपनी आत्मकथा लिख रहे हैं तो वह पीड़ा पुनर्जीवित हो रही है। सारे दृश्य फिल्म की तरह फिर से सामने आ धमके हैं। चिढ़ा रहे हैं। विवरण में आई शब्दावली इस बात के सबूत देती है कि यहाँ लेखक का मन आक्रोशित है। “हमारे स्कूल को बाहर के लोग अक्सर चमारों का स्कूल कहते थे। जैसे चमारों का कुआँ, चमारों का नल, चमारों का नीम, चमारों की गली, चमारों की पंचायत आदि-आदि, वैसे ही स्कूल के साथ जुड़ी थी हमारी जात। जात पहले आती थी, स्कूल बाद में। यही कारण था कि इस स्कूल में कभी भी गिनती के पूरे अध्यापक न हुए थे। दो-दो और कभी-कभी तीन-तीन कक्षाओं को एक-एक अध्यापक ही संभालता था। बच्चे भेड़-बकरियों की तरह कमरों में भरे होते थे। अध्यापक लम्बी छुट्टियों पर रहते थे या फिर दूसरे स्कूल में किसी न किसी तरह ट्रांसफर करवा लेते थे । सही बात तो यह थी कि हमारे स्कूल में सवर्ण जाति का अध्यापक आना ही नहीं चाहता था। इसके सीधे-सीधे दो कारण थे। पहला यह कि स्कूल चमारों की बस्ती में था। इसमें सभी चमारों के बच्चे पढ़ते थे। जो अध्यापक आ भी जाते थे वे नाक-भौंह सिकोड़ कर पढ़ाया करते थे। हमारी ही बस्ती में हमारे जात के नाम पर गालियाँ दे बैठते और हम सब सुनते थे।”[11] यह है दस्तावेजीकरण की यह एक झलक आत्मकथाकारों के अवदान को रेखांकित करती है।
बचपन के दंश में गालियों की अपनी उपस्थिति रहती हैं और दलित बचपन का दंश विशेष दशा को प्राप्त होता है। “देखि द्वय दिन तैं भंगिया को नास पीटो नाँय आयौ है। घर में बदबू फैल रही है। बालकन की टट्टी जमा है रही है। तू बुरौ मत मानिये मैंने सुनो है भंगी-चमार सब काम कर देत हैं। घेर के बाहर तसला धरौ है, बाहर खुरपी पड़ी है। राख-मट्टी मैं दे दूँगी तू नैंक जाइ गंदगी कूँ उठाई के खेत में फैंक आ। मैं अबही लल्ली से रोटी बनवाई दूँगी। खाइ के तू स्कूल चलो जइयौ। देर होगी तो लल्ला तेरे गुरु जी से कह के तेरी हाजिरी लगवाय देगौ।”[12] इस दृश्य में लेखक मजबूर हैं और आदेश देने वाले के बच्चे का स्कूल जाना देख स्वयं के साथ हो रहे भेदभाव से पीड़ित हैं। दिवंगत पिताजी को याद करते हुए संतप्त प्रो. बेचैन की कथा में यही असंतोष है।
विद्यालय जैसी शैक्षणिक संस्था में विद्यार्थियों का शोषण असामान्य घटना होती है। “डिप्टी साहब की कड़ी में, एक दिन जब मैं पाँचवीं कक्षा में पढ़ रहा था, अचानक असली डिप्टी साहब स्कूल का मुआयना करने आ गए। उस दिन हेडमास्टर परशुराम सिंह पाँचवीं कक्षा के सारे विद्यार्थियों को अपने गाँव जिगरसंडी ले गए थे, जहाँ उनसे कई गाड़ी गन्ना छिलवाया गया था। कारण यह था कि हेडमास्टर साहब इस क्षेत्र के सबसे बड़े जमींदार थे, जिनके घर बाईस जोड़ी बैलों की खेती होती थी। जाड़े के दिनों में उनका गन्ना चिरैयाकोट थाना स्थित चीनी मिल में बैलगाड़ियाँ पर लदकर जाता था। अतः एक दिन जल्दी-जल्दी गन्ना छीलकर गाड़ियों में लादने के लिए वे छात्रों को अपने गाँव ले गए।”[13] गुरु और शिष्य के मध्य संबंधों की यह विसंगति सामाजिक व्यवहार का दर्पण है। अध्यापन के नाम पर हुए इस शोषण को लेखक की स्मृति से मिटाना असंभव है।
गरीबी के साथ भूख का रिश्ता जुड़ा हुआ हे होता है। “भूख पीड़ित समाज के बच्चों के साथ बचपन में ही कैसे-कैसे दुर्दांत आचरण होते है। वे भूख से मुक्ति चाहते हैं। मगर सामने वाला उनकी मुक्ति से पूर्व अपनी पिपासा शांत करवाने के तरीके तलाशता है। जहाँ बचपन सुरक्षित न हो, वहाँ बालक ताउम्र बचपन के अभावों और घावों को समाज की मानसिकता को सार्वजानिक करता रहता है। लेखक द्वारा भोगे गए दुखों का एक बड़ा कारण बचपन में उनकी माँ का निधन होना था। समाज में कितनी शिष्टता, सभ्यता और करुणा है यह तो बालक के मनोरम मन को मसलने वाले प्रकरण से साबित हो ही रहा है।”[14] उक्त सन्दर्भ दलित लेखक सूरजपाल चौहान से सम्बद्ध है। माँ के वात्सल्य से वंचित जीवन भी अभिशाप के मानिंद होता है। अभाव भी एक प्रकार की दशा है जिसका स्मृति पर स्थायी असर चढ़ता है।
अभाव की एक स्थिति यह भी है कि लेखिका को उस नृत्य-समूह का हिस्सा बनने से वंचित कर दिया गया जिसमें निन्यानवे फीसदी सवर्ण बालिकाएँ थीं। “शांति बहनजी हमें पढ़ाई के साथ-साथ सिलाई, कढ़ाई, बुनाई भी सिखाती थीं। स्कूल गैदरिंग के समय नाच-गाना भी सिखाती थीं। उन्होंने हमारी चौथी कक्षा की उच्च वर्ण, सुंदर सम्पन्न लड़कियों को छांटकर उन्हें नृत्य के साथ गाना सिखाया-“वृन्दावन का कृष्ण कन्हैया, सबकी आँखों का तारा... मन ही मन क्यों जले राधिका, मोहन तो है सबका प्यारा…” लड़कियों के पैरों की थाप देकर और हाथों से मुरली बजाते हुए, गाना गाती हुई नाचती थीं। मुझे इस ग्रुप में नहीं लिया गया था।”[15] सुशीला टाकभौरे के मन-मस्तिष्क में यह बात उम्रभर टीस की तरह चुभती रही।
श्यौराज सिंह बेचैन ने लिखा है कि “मैं अपने अब तक के परिणाम को लेकर भी ज्यादा खुश नहीं था। अभ्यास से सब ठीक हो सकता था, पर जो लड़के हमेशा स्कूल जाते रहे हैं, उनकी बराबरी मैं कैसे कर सकता था? हालाँकि पढ़ने-लिखने से मेरी लिखावट भी सुधर रही थी, शब्दकोश बढ़ रहा था और भाषा बदल रही थी, पर मुकाबिला तो उन सब से था, जिन्हें शिक्षा ग्रहण करने के अवसर और पारिवारिक सहायता प्राप्त थी। मेरे यहाँ तो पूर्वजों की किसी भी ज्ञात पीढ़ी में कोई साक्षर तक नहीं हुआ था।”[16] प्रतियोगिता के वर्तमान युग में लेखक का दुःख जुदा किस्म का है। संसाधनों के असमान वितरण से उपजी समस्या और लेखक के साथ की गैर बराबरी उन्हें आगे बढ़ने से सतत रोक रही हैं। इधर श्यौराज सिंह की माँ का बेचैन से एक संवाद ही स्थिति को स्पष्ट कर देता है कि बिन पिता के जीवन किस कदर अनाथ हो जाता है। “सुन सौराज, कान खोल के सुन! तेरो बाप मरि चुको है। वो तेरी सुनन कूँ अब कबऊ लौटिके नाँय आवैगो समझे। मैं तेरी कोई जिद पूरी नाँय कर पाऊँगी। अब तोइ अपनी जिन्दगी अपनी कमाई में गुजारनी है। जिद्द छोड़, कछु काम सीख ले। कछु नाँय तो साइकिल में पिंचर जोड़नों ही सीख ले।”[17] इस तरह मजबूर हो अध्ययन के साथ कई तरह की बेगार करना दलित बच्चों के भाग्य का हिस्सा मान लिया जाता है।
“जिस समाज को शिक्षा का महत्त्व ज्ञात न हो, वह परंपरा से चली आ रही काम-काज करने की मानसिकता को ही बेहतर मानता है। यही कारण है कि तीस परिवारों की भंगी बस्ती में से केवल तीन बच्चे ही स्कूल जा रहे थे। बस्ती के लोग स्वयं लेखक के पिताजी को कहते हैं “ क्यों लड़के को पढ़ा लिखाकर निक्कमा बना रहे हो। ना घर का रहेगा ना बाहर का। पढ़े लिखे तो वैसे भी बेवकूफ होते हैं। यह समझने की बात है कि अज्ञानी समाज जब तक ज्ञान के दरवाज़े पर नहीं जाएगा, वह उसे ही बहुत कुछ मानता रहेगा जो उसके पास है इसलिए जरूरत है कि ज्ञान के रास्ते खुले हो और चेतना का निर्माण हो।”[18] शिक्षा जैसे आवश्यक साधन को आधार बनाकर ही गरीबी जैसे संकट से बाहर आना संभव है। इस सूत्र को समझने और प्रयोग करने में कई पीढ़ियाँ गुजर गईं।
सुशीला टाकभौरे लिखती हैं कि “बारिश के समय टूटे कबेलुओं से गिरती एक-एक धार के नीचे हम गिलास, लोटा, थाल, थाली, हांडी, गागर रखते। बर्तन भर जाने मैं पानी फेंककर फिर से रखती। रातभर पानी बरसता तब पानी घर में बहता रहता। दीवारें और जमीन सब गीले हो जाते। सब तरफ गीला-गीला लगता। ओढ़ने-बिछाने के, पहनने के सब कपड़े गीले हो जाते। जलाने की लकड़ियाँ गीली हो जातीं। मिट्टी की दीवारें पानी में लगातार भीगने पर फसक कर टूटने लगतीं मकान गिरने का भय लगता।”[19] दलित बच्चों के बचपन में अपने अभिभावकों की विपन्नता का बड़ा कड़वा असर रहा है। यथार्थ की पीड़ा में बच्चे भी उतने ही भागीदार होते हैं जितने उनके अग्रज। विकट स्थितियाँ उन्हें इस तरह जीवन का पाठ सिखाती हैं।
जीवन में उच्च शिक्षा का अपना महत्त्व है। “उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों के प्रति ऐसे व्यवहार उन्हें जीवनभर असहज रखेंगें और वे ऐसे उत्पीड़न को कभी नहीं भूल पाएँगे जिन्होंने पहचान, अस्मिता और गरिमा को लहूलुहान कर दिया है। कॉलेज में किताब-कापियाँ, ड्रेस, जूते और लेखन सामग्री के अभाव में शिक्षकों को डांट और पिटाई झेलनी पड़ती थी और अध्यापक माँ-बाप और जातियों को कोसते थे, उहें पढ़ाई छोड़कर जूते चप्पल बनाकर दो पैसे कमाने की सलाह देते। कसूरवार दलित विद्यार्थी नहीं बल्कि व्यवस्था थी जिसमें हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद बच्चों को जरूरी शिक्षा नहीं मिल पा रही थी।”[20] अभिभावकों का अपना सत्य था और बच्चों के अपने सपने। दोनों में समन्वय मुश्किल काम था। एक समझ लोगों को अपने जातिगत पेशे नहीं छोड़ने को सही ठहराती थी वहीं दूसरी तरह दलित युवा पढ़-लिखकर उस अन्धकार से बाहर आने की आकांक्षा रखते थे।
“शरद बेटे का एडमिशन गाँधीबाग के ‘लिटिल फ्लॉवर’ कान्वेंट स्कूल में कर दिया था। बेटे की उम्र कम थी। उसे 11 बजे कान्वेंट में छोड़ देते। बच्चा कभी रोता, कभी सोते रहता। तीन बजे हमारे स्कूल में ले आते थे। पिंकी को कभी सोलंकी जी के घर, कभी रिश्तेदार के घर छोड़ते, शाम 5 बजे गुमसुम, उदास दोनों बच्चों को लेकर घर आते थे।”[21] इस तरह की जीवन शैली उन लोगों की तो होती ही है जिनमें माता और पिता दोनों नौकरी में हैं। इस तरह बच्चे मुश्किल दौर के हवाले छोड़ दिए जाते हैं। चाहकर भी अभिभावक निरुपाय नजर आते हैं।
एक जमाने में चमड़े से जुड़ा काम करने वाले श्यौराज सिंह बेचैन लिखते हैं कि “मुर्दा पशु उठाने का काम मेरे लिए नया नहीं था। मैं जबसे समर्थ हुआ था न जाने कितने कटरे-कटरियाँ, गाय-बैल और भैंसें उठाने में शामिल रहा था। उन सब की खाल उतारना मैं आज भी भूला नहीं हूँ। धुर्रा में भी मेरी कमाई का एक यही जरिया था कि मैं गंगावासी की रंगाई-फहराई के काम में शामिल होता था। किन्तु वहाँ यह सब बहुत ही छिप-छिपा कर करना पड़ता था। अन्यथा गाँव में जाति-विजाति के लड़के स्कूल में मेरी क्या हालत करते; कल्पनातीत था।”[22] यह पीड़ा कौन समझेगा कि लेखक अपने सहपाठियों के साथ अपना परम्परागत जातिगत पेशा तक नहीं बता सकता है। समाज में ऐसे पेशों को अस्वच्छ करार देने के बाद हिकारत भरी नजर से देखने का माहौल बना दिया था।
वे एक अन्य जगह लिखते हैं “प्राय: छोटी-छोटी बातों पर हम काम करने वालों के बीच आपस में झगड़े हो जाया करते थे। ईख काटते-काटते एक बार फूलचंद ने मुझे ‘लवारा’ कह कर चिढ़ाया। लवारा कहने से उसका मतलब था कि मैं सौतेले बाप के घर आने के कारण इंसान की औलाद नहीं रह गया हूँ। मेरा शुमार पशुओं में है। मैं भैंस का ऐसा बच्चा हूँ जो उसके साथ आया हूँ। अब सोचता हूँ सौतेले की यह हालत थी तो अवैध बच्चों का क्या हाल होता होगा। समाज की मार के चलते उन पर क्या गुजरती होगी।”[23] दलित आत्मकथाओं में ऐसे कई किरदार आए हैं जिनके रिश्तेदार सौतेले थे। खासकर जब माँ और पिता ही सौतेले हों तो जीवन की राह टेढ़ी हो जाती है। परिवेश में अनर्गल शब्दों में निहित अर्थ की मार बरसों तक मानस पर असर करती है। बेगार और फिर ऊपर से गालियाँ। कोढ़ में खाज हो जाना है।
एक अन्य उदाहरण “एक घटना यह भी घटी, शरद आठवीं में था, जुलाई महीने की बात है। एक दिन शरद ने स्कूल से आकर मुझसे पूछा-“मम्मी अपनी जाति क्या है?” मैंने कहा “क्यों पूछ रहे हो?” बेटे ने बताया-“आज क्लास में टीचर ने मुझसे पूछा था। शरद की जाति बाल्मीकि लिखाई थी। नयी टीचर ने इसका गूढ़ अर्थ पूछा था। मैंने कहा मुझे नहीं मालूम, तब टीचर हँसे थे।”[24]शैक्षिक संस्थानों में इस तरह का हास्य-व्यंग्य वहाँ कार्यरत कार्मिकों के वैचारिक सोच को इंगित करता[1] है। कुल जमा शोध में पाया गया कि लगभग सभी दलित रचनाकारों ने अपने बचपन में कई दंश झेले हैं जो संविधान और मानव अधिकारों के प्रभावी व्यवहार का यथार्थ सामने लाते हैं। स्थितियां विषम हैं। मगर ख्यात कवि नन्द चतुर्वेदी की भाषा में कहते हैं कि आशा बलवती है राजन। हालात वक़्त के साथ बदलेंगे और हमारे समाज में प्रत्येक वर्ग के साथ मानवोचित व्यवहार होगा। चार दशक पहले के जीवन को उकेरती हुई दलित आत्मकथाओं का सच आज के यथार्थ से कई गुना कड़वा रहा है मगर अब स्थितियां परिवर्तन की तरफ मुंह करके खड़ी हैं। ऊपर आए विवरण पढ़ने मात्र से दुःख उपजता है तो फिर भोगना तो बेहद पीड़ाजनक रहा होगा।
संदर्भ :
[1] अजमेर सिंह काजल :दलित आत्मकथाएँ : वेदना, विद्रोह और सांस्कृतिक रूपान्तरण, पृ. 180
[2] सूरजपाल चौहान : तिरस्कृत, अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, 2002,पृ. 28
[3] श्यौराज सिंह बेचैन :मेरा बचपन मेरे कन्धों पर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, तृतीय संस्करण, 2018, पृ. 69
[4] ओमप्रकाश वाल्मीकि :जूठन (भाग-एक), राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, बारहवाँ संस्करण, 2017, पृ. 14
[5] श्यौराज सिंह बेचैन :मेरा बचपन मेरे कन्धों पर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, तृतीय संस्करण, 2018, पृ. 163
[6] अजमेर सिंह काजल :दलित आत्मकथाएँ : वेदना, विद्रोह और सांस्कृतिक रूपान्तरण, पृ. 236
[7] मोहनदास नैमिशराय : अपने-अपने पिंजरे (भाग-एक), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृत्ति 2013, पृ. 37
[8] श्यौराज सिंह बेचैन :मेरा बचपन मेरे कन्धों पर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, तृतीय संस्करण, 2018, पृ. 211
[9] तुलसीराम :मुर्दहिया, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पंचम संस्करण, 2016, पृ. 56
[10] अजमेर सिंह काजल :दलित आत्मकथाएँ : वेदना, विद्रोह और सांस्कृतिक रूपान्तरण, पृ. 219
[11] मोहनदास नैमिशराय : अपने-अपने पिंजरे (भाग-एक), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृत्ति 2013, पृ. 33
[12] श्यौराज सिंह बेचैन : मेरा बचपन मेरे कन्धों पर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, तृतीय संस्करण, 2018, पृ. 333
[13] तुलसीराम : मुर्दहिया, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पंचम संस्करण, 2016, पृ. 61
[14] अजमेर सिंह काजल : दलित आत्मकथाएँ : वेदना, विद्रोह और सांस्कृतिक रूपान्तरण, पृ. 120
[15] सुशीला टाकभौरे : शिकंजे का दर्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृत्ति 2014, पृ. 45
[16] श्यौराज सिंह बेचैन : मेरा बचपन मेरे कन्धों पर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, तृतीय संस्करण, 2018, पृ. 361
[17] वही, पृ. 41
[18] अजमेर सिंह काजल :दलित आत्मकथाएँ : वेदना, विद्रोह और सांस्कृतिक रूपान्तरण, पृ. 70
[19] सुशीला टाकभौरे : शिकंजे का दर्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृत्ति 2014, पृ. 82
[20] अजमेर सिंह काजल : दलित आत्मकथाएँ : वेदना, विद्रोह और सांस्कृतिक रूपान्तरण, पृ. 48
[21] सुशीला टाकभौरे : शिकंजे का दर्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृत्ति 2014, पृ. 178
[22] श्यौराज सिंह बेचैन : मेरा बचपन मेरे कन्धों पर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, तृतीय संस्करण, 2018, पृ. 369
[23] वही, पृ. 39
[24] सुशीला टाकभौरे : शिकंजे का दर्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृत्ति 2014, पृ. 232
माणिक
व्याख्याता, हिंदी साहित्य, स्कूल शिक्षा, राजस्थान सरकार
manik@spicmacay.com, 9460711896
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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