हिंदी बाल कविता में नए मूल्यों का अन्वेषण
- नितेश उपाध्याय

इसके साथ ही बच्चों में एक नवीन वैज्ञानिक सोच भी पैदा की कर सकती है। जिससे बच्चे समाज के विकास में अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं। कुछ बच्चे इन नई तकनीकों से थोड़ा भय का भी अनुभव करते हैं। कविता की जिम्मेदारी यहाँ पर आकर बढ़ जाती है। कवि का यह दायित्व है कि वह अपनी कविता के माध्यम से उत्कृष्ट जानकारी बच्चों तक पहुँचाये जिससे उनके अन्तर्मन के भय को दूर किया जा सके। तभी देश में एक जिम्मेदार नागरिक पैदा हो सकेगा जिसके अंदर भारतबोध का भाव मौजूद होगा तथा वह अपने दायित्वों का सही ढंग से निर्वहन कर सकेगा।
बीज शब्द : मूल्य-चेतना, भारतबोध, परम्परा, आधुनिकता, मान्यता, यथार्थवाद, कविता, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्य आदि।
मूल आलेख : हिन्दी बाल कविता का बाल परिवेश उस धारणा से जुड़ा हुआ है जिसमें हम बच्चों के लिए एक प्रकार से मूल्यपरक कविताओं का सृजन करते हैं। जिनसे बच्चे अच्छे संस्कार ग्रहण करते हुए, अपने आस-पास की स्थितियों को भी ठीक तरह से समझ सकें। उनके अनुरूप अपने आपको ढाल सकें। इसमें सबसे महत्तर भूमिका उन कवियों व लेखकों की होती है जो बच्चों के मनोविज्ञान को समझकर उसके अनुरूप कविता लेखन का गुरुतर कार्य कर सकें। सच बात तो यह है कि हमारे घर-परिवार का जो माहौल होता है, बच्चों के अन्दर के भाव-विचार भी वैसे ही बनते जाते हैं। हमारे घर के अन्दर जितनी अधिक किताबें होंगी, बच्चे उन किताबों को उतना ही अधिक पढ़ेगें, उनके बारे में जानने का प्रयास करेंगे और वो आगामी परीक्षा में उतने ही अच्छे अंक प्राप्त कर सकेंगे। बच्चा अच्छी किताबों को पढ़कर अच्छे संस्कार विकसित करेगा तथा वह उस संस्कार को ग्रहण करेगा जो शिक्षाप्रद हैं। उस वातावरण का वह पूरा सदुपयोग कर सकेगा। जिससे बालकों का शारीरिक, मानसिक व चारित्रिक उन्नयन भी होगा क्योंकि हमारे आस-पास का परिवेश ही बच्चों को पूरी तरह से प्रभावित करता है। यह परिवेश ही बच्चों के सुंदर भविष्य के निर्माण में सहायक होता है।
इसके साथ ही बच्चे के माता-पिता तथा स्कूल का वातावरण भी बच्चे के उच्च चारित्रिक विकास को प्रभावित करते हैं। जहाँ का जैसा परिवेश होगा, बच्चा भी धीरे-धीरे वैसा ही बनता जाता है। यहाँ का परिवेश बालक के चारित्रिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। दूसरा सबसे बड़ा पक्ष यह है कि उस बालक के ऊपर सबसे बड़ा प्रभाव वह साहित्य छोड़ता है क्योंकि बच्चा अपने इच्छानुरूप साहित्य का ही अध्ययन करेगा। वह उसी से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेगा। उसमें उसे प्रसन्नता होगी। बच्चे अपनी आकांक्षा के अनुसार ही अपनी अनुभूति के साथ-साथ अपनी अभिव्यक्ति को स्थापित कर पाते हैं। जिससे वे निरन्तर आगे बढ़ते जाते हैं। इस सम्बन्ध में हरिकृष्ण देवसरे ने लिखा हैं- “बच्चों की विकास की दिशाओं में आज जो बाधाएँ हैं, उनमें निश्चित रूप से शिक्षा नीति का अभाव तो है ही इसके साथ-साथ बच्चों के आस-पास का सामाजिक परिवेश और उनके लिए लिखा गया साहित्य भी उतना ही जिम्मेदार है। आज बच्चे जिस सामाजिक और पारिवारिक वातावरण में जीते हैं, वह इतना विविधतापूर्ण और समस्याग्रस्त है कि बच्चों की भावनाएँ और उनके विचार या तो विकृत हो जाते हैं या कुण्ठा ग्रस्त हो जाते हैं। परिणाम यह होता है कि जो भी शिक्षा नीति लागू होती है, उसका प्रभाव अपने वांछित रूप में नहीं पड़ पाता।”1
हिन्दी बाल कविता में अगर हम प्राचीन काल का अवलोकन करेंगे तब हमें पता चलता है कि उस समय लिखी जाने वाली कविताओं व कहानियों में उस समय की तात्कालिक व्यवस्था के भी दर्शन होते हैं। जिसमें ठगों, डाकुओं, परियों की कहानियाँ या कविताओं को सम्मिलित किया जाता था। खास तौर पर वन्य जीवन पर आधारित ही जीवों को कविताओं का विषय बनाया जाता है। जिनमें कुछ ही पशु-पक्षियों को सम्मिलित किया जाता था। इन कविताओं के सहारे बच्चों में नैतिक विचारों व मूल्यों की स्थापना की जा सकती थी। ये कविताएँ पूर्णरूपेण पितृ भक्ति, मातृ भक्ति व गुरु भक्ति की भावना से ओतप्रोत रहती थी। इनके साथ ही इनमें नैतिक मूल्यों के चित्रों को मुखर किया जाता था। जो इस विषय से सम्बन्धित कविताएँ व कहानियों लिखी गईं, उनका खूब प्रचार-प्रसार हुआ। इन कविताओं व कहानियों में बच्चों के अन्दर मानवीय नीति व ज्ञान से सम्बन्धित कविताओं का ख़ूब विकास किया गया। इन स्थापनाओं व परिपाटियों की काफी लम्बे समय तक हमारे बाल साहित्य जगत में चर्चा होती रही। इससे नए मूल्यों की स्थापना में काफी मदद मिली। जिससे बाद के कवि कई दशकों तक इसी परिपाटी पर आगे अग्रसर होते रहेंगे। इसके साथ ही साथ हमारे बाल काव्य में परम्परागत मान्यताएँ, धार्मिक मान्यताएँ व पौराणिक आदेशों पर भी कविताओं का बख़ूबी सृजन किया गया। इस कारण से हमारे भारतीय परिवेश में आर्दशपरक मूल्यों की स्थापना हो सकी-
“पढ़ों बालकों कथा राम की
उन सत चित आनन्द धाम की।
नव-रस-मय पवित्र गुण शीला,
महापुरुष की मानव लीला।
इसे तुम्हारे हित गाता हूँ,
थोड़े में कह दरसाता हूँ।
भारत खण्ड की गौरव गाथा,
पढ़ों तात ऊँचा हो माथा।”2
इसके बाद ही युग परिवर्तन के साथ ही साथ एक अलग प्रकार की परिपाटी का विकास हुआ जिसमें युगीन परिवर्तन के साथ-साथ कवियों व हमारे बाल लेखकों की एक समृद्ध परंपरा विकसित हुई। इन कवियों की कविताओं के माध्यम से बच्चों के अन्दर उच्च आदर्शों की स्थापना हुई। ये कविताएँ नैतिक मूल्यों से युक्त थीं। परशुराम शुक्ल अपनी कविताओं में बच्चों को नैतिक मूल्यों का संदेश देते हुए लिखते हैं-
“मिट्टी का छोटा सा दीपक,
अन्धकार से कभी न डरता।
भरकर नेह हृदय में अपने,
सारा जग आलोकित करता।
हिम्मत, साहस और लगन से,
सारा जग आलोकित करता।
तूफानों से जा टकराता ।
आयें कितनी भी बाधाएँ,
दीपक कभी नहीं घबराता।”3
इससे स्पष्ट होता है कि बच्चों के लिए नैतिक शिक्षा कितनी जरूरी होती है। बिना नैतिक मूल्यों की स्थापना किए बच्चों का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है। समय के साथ-साथ हमारा नज़रिया भी बदलता रहता है। नैतिक मूल्य वही रहते हैं लेकिन हम दूसरे दृष्टिकोण से सोचने लगते हैं। परिवर्तन संसार का नियम है। युगों से चली आ रही परिपाटी अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकती है। उसे भी समय व वातावरण के अनुरूप अपने आपको बदलना पड़ता है। ठीक वैसे ही हमारे काव्य जगत ने भी पुराने मूल्यों को बदलते हुए, नवीन मूल्यों की स्थापना की। यह सत्य है कि एक परिपाटी से निकलकर कोई नवीन धारणा की स्थापना करना कोई सरल कार्य नहीं होता है, जबकि कुछ कवियों ने अपनी काव्य मेधा के बल पर इस धारणा को बदला या बदलने के लिए प्रयासरत रहे। इस सम्बन्ध में हरिकृष्ण देवसरे ने लिखा है कि- “बच्चों के लिए नया कथा साहित्य लिखने की दशा में जो प्रयास हो रहे हैं उनका औचित्य आज निर्विवाद है। अनेक कथाकार जैसे विष्णु प्रभाकर, मस्तराम शंकर, हरिकृष्ण देवसरे मनोहर वर्मा, अवतार सिंह, शीला इन्द्र आदि ने पुरानी मान्यताओं को तोड़कर नए बाल कथा साहित्य की रचना की है। भूतों, परियों व राक्षसों आदि की परम्परागत परिभाषाओं को बदलकर उन्हें आधुनिक और यथार्थवादी पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ऐसी कथाओं को बच्चों ने बड़े उत्साह से स्वीकार किया है। जिन कथाओं में बच्चों की समस्याओं को, उनके परिवेश को जोड़ा गया है, उन्हें बाद में सराहा भी गया।”4 इससे स्पष्ट होता है कि किसी भी एक युग से बाहर निकलने में थोड़ा वक्त तो लगता ही है। पुरानी परिपाटी से बाहर निकलने में कुछ लेखकों के द्वारा सराहनीय प्रयास भी किये गये और वे इस प्रयास में सफल भी रहे। इन कवियों ने बच्चों को नवीन मूल्य चेतना से संपृक्त किया। इस प्रक्रिया में कवियों को प्रायः तमाम सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक व सांस्कृतिक समस्याओं का सामना करना पड़ा। अधिकांश कवि इन समस्याओं के प्रति जागरूक होते हुए उसके समाधान का रास्ता निकालने के लिए तत्पर रहते हैं। बच्चे अक्सर ऐसी चीजों का ध्यान नहीं रखते हैं। वो समय पर कार्य को नहीं करना चाहते हैं। समय दुनिया का सबसे मूल्यवान चीज है। बच्चों को समय की कीमत समझना चाहिए। बच्चों को चाहिए कि वो खेलने के समय खेलें और पढ़ने के समय पढ़ाई करें। कवि पी. दयाल श्रीवास्तव ने अपनी कविता के माध्यम से बच्चों को समय के महत्व के बारे में समझाने का प्रयास किया है-
“समय बड़ा अनमोल है।
समझों इसका मोल।
व्यर्थ गवाना किस तरह,
देखो हृदय टटोल।
दो घण्टे दिन में यदि,
सोते हो हर रोज।
व्यर्थ किए दस साल में,
दिन कितने ये खोज।”5
कवि कविता के माध्यम से बच्चों को समय की महत्ता के बारे में बताना चाहता है कि समय कितना महत्वपूर्ण होता है। कवि कहता है कि समय हमें किसी भी कीमत पर बर्बाद नहीं करना चाहिए क्योंकि बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता है। कुछ इसी प्रकार से परशुराम शुक्ल ने ‘एकता की शक्ति’ कविता के माध्यम से बच्चों को एकता व सौहार्द का पाठ पढ़ाया है। ‘संगठन में शक्ति’ होती है इसका भी पाठ उन्होंने बच्चों को पढ़ाया। सहभाव से हम बड़ी-सी-बड़ी समस्या से निपट सकते हैं-
“बच्चों मेरा कहना मानों,
शक्ति एकता की पहचानों।
भूल परस्पर भेद-भाव सब,
गले मिले इक दूजे के अब।
लड़ा सके न तुमको कोई,
ऐसा नेह बहाना अब ।
एक बनेंगे, नेक बनेंगे,
अपने-अपने मन में ठानों ।
शक्ति एकता की पहचानों,
शक्ति एकता…”6
इन कविताओं को पढ़कर स्पष्ट होता है कि अब उन प्राचीन मूल्यों के स्थान पर हमें बच्चों को कुछ नई चीजें भी सिखानी हैं। जिससे बच्चे आने वाले समय के अनुसार अपने आपको बदल सकें और उस बदलाव में अपने आपको पूर्ण रूप से स्थापित कर सकें। फिर यह न हो कि समय पूरा निकल गया और हम बदले ही नहीं। फिर तो ये बच्चे न यहाँ के रहेंगे और न वहाँ के। इससे बेहतर यही है कि हमें आवश्यकता अनुसार अपने आपको बदल लेना चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में हरिकृष्ण देवसरे ने लिखा है कि- “आज बाल साहित्य रचना बहुत कुछ सोद्देश्य भी हो सकता है। यह युग की माँग है। इससे अलग रहकर बच्चों का विकास सम्भव नहीं होगा और तब वे निश्चित ही ऐसा भविष्य निर्मित करने में असमर्थ होंगे जिसकी उन्हें वास्तव में आवश्यकता होगी, इस सत्य को ध्यान में रखकर ही बाल साहित्य रचना सार्थक होगी।”7
इस प्रकार से कहा जा सकता हैं कि हमें बच्चों के लिए युगीन परिवेश को ध्यान में रखकर साहित्य सृजन करना चाहिए। तभी हम बच्चों को कुछ बेहतर सामाजिक सामंजस्यों के साथ मिलकर चलना सिखा सकते हैं। जिससे एक जिम्मेदार नागरिक के साथ-साथ समाज व देश को सर्वोत्कृष्ट बनाने वाले युगपुरुषों का सृजन किया जा सकता है। परिणामस्वरूप हमारे यहाँ आने वाली पीढ़ी गुणी, उत्साहित व सर्वगुण सम्पन्न हो सकेगी। उसके अंदर दुनिया में कुछ कर गुजरने का ज़ज्बा होगा। यह हमारे वर्तमान समाज के लिए वरदान साबित होगा।
निष्कर्ष : बाल कविता आज हाशिए से बाहर का विषय नहीं रहा है। उसके महत्व को स्वीकार किया जा चुका है। यह भी माना जाने लगा है कि बाल साहित्य का लेखन आसान नहीं है। अनेक दिग्गज साहित्यकार बाल कविता के क्षेत्र में आकर, अपनी कलम का जोर आज़माकर, वापिस लौट चुके हैं। पर बाल साहित्य को लेकर एक विरोधाभास की स्थिति लगातार बनी हुई है। एक ओर यह उत्तुंगगिरि-शिखर की भाँति अच्छे-अच्छों के लिए कलम से थाह पाने में दुःसाध्य है, दूसरी ओर नौसिखियों की भीड़ इसे खुला मैदान मानकर अपनी जोर-आज़माइश में जुटी हुई है। बड़ों के साहित्य का हवा-पानी ग्रहण कर, माहौल की टोह लेकर, पाँव जमाने में असफल होकर लौटे हुए लोग जब यहाँ अखाड़ेबाजी करते नज़र आते हैं, तब वास्तव में देखकर दुःख होता है। यदि आप सच्चे बाल-साहित्यकार नहीं हैं, आपको ‘बाल हृदय’ नहीं मिला है, तो सिर्फ़ ‘शगल’ के लिए यहाँ आने की क्या जरूरत है? ‘सीस उतारे भुँइ धरें, तब पैठें घर मांहि’ वाली उक्ति के अनुसार इस भूमि पर पदार्पण के लिए बाल मन में पैठने की सिद्धि प्राप्त होनी जरूरी है। और फिर, आज का बालक बहुत जागरूक, गंभीर और समझदार है। ‘खिलंदड़ापन’ के नाम पर सतही उछल-कूद देखकर उसके अधरों पर स्मित रेखा नहीं आती। वह संतुलन चाहता है। खेल और पढ़ाई में संतुलन, कल्पना और यथार्थ में संतुलन, आदर्श और व्यवहार में संतुलन। प्रेम और घृणा, दया और हिंसा, उदारता और स्वार्थपरता जैसे अंतर्विरोधों के बीच हर पल जीनेवाला बचपन सिर्फ़ ‘खिलंदड़ेपन’ से कैसे बहलेगा? एक ओर अभावों के बीच जीता हुआ बच्चा है, दूसरी ओर पैसों की बरसात के बीच माता-पिता के प्यार के दो पलों के लिए तरसता हुआ बच्चा है और इनके बीच में भी बच्चों की ऐसी कोई ‘दुनिया’ नहीं है, जो आज निश्चित-खुशहाल बचपन जी पा रही हो। यही आधुनिकता के वे ‘खतरे’ हैं, जो प्रतिपल आज के ‘बचपन’ पर मँडरा रहे हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता, भौतिकता और परिवर्तन की लहर ने आज बच्चों को माता-पिता पर हावी होने की आज़ादी, खिलौनों-कपड़ों से भरी अलमारियों व कंप्यूटर-सी.डी. का जादू तथा जीवन-मूल्यों को पुराने वस्त्र की भाँति उतारकर फेंक देने की अक्ल तो दे दी है, पर आगामी कल का भारत इन उपादानों से नहीं गढ़ा जा सकेगा। उसके लिए आधुनिकता एवं परंपरा में संतुलन जरूरी है। अपनी आज़ादी को दूसरों की सुख-सुविधा से जोड़ना, उपभोग की वृत्ति को त्याग की भावना से जोड़ना और विज्ञान को अध्यात्म से जोड़ना आज के पतनशील परिवेश की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति में बाल कविता के सृजन की दिशाओं का और अधिक स्पष्ट होना जरूरी है। बाल साहित्यकारों का भी अपने दायित्व बोध को और ज्यादा समझना ज़रूरी है। पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से जो रचनाएँ बच्चों को दी जाएँ, उनसे उनको अपना जीवन गढ़ने में मदद मिले। रहस्य-रोमांच और कौतुक भरी रचनाएँ दिए बिना काम नहीं चलेगा। बाल मन की नब्ज़ की जानकारी रखनेवाले इस बात को जानते हैं। परियों की कथाएँ भी छोटे बच्चों को कल्पनाशील बनाने के लिए जरूरी हैं। राष्ट्रीयता से भरी हुई प्रेरक रचनाएँ ही बच्चों को अपने देश के प्रति सर्वस्व समर्पण के भाव से भरेंगी, अतएव बाल कविता में उनका सन्निवेश अत्यंत आवश्यक है। विज्ञान आज की माँग है, इक्कीसवीं सदी में पाँव धर चुके बच्चों को अंतरिक्ष की ऊँचाई तक पहुँचाने का साधन है, अतएव उसे बाल कविता में होना ही चाहिए। पर इन सबके बीच एक और दिशा भी है, जिसे हमको किसी भी दशा में भूलना नहीं चाहिए। वह है- चरित्र-निर्माण की दिशा, जीवन-मूल्यों से जुड़ाव की दशा। दशा और दिशा के इस संतुलन में ही हिन्दी बाल कविता की जय-यात्रा अग्रसर हो, यही बाल-कविता का संकल्प और लक्ष्य होना चाहिए।
सन्दर्भ :
- हरिकृष्ण, देवसरे, बाल साहित्य : मेरा चिंतन, पृ.-86
- मुंशी अजमेरी, बाल रामायण, पृ.-17
- परशुराम, शुक्ल, आओ गुनगुनाओ, पृ.-3
- हरिकृष्ण, देवसरे, बाल साहित्य : मेरा चिंतन, पृ.-50
- पी. दयाल श्रीवास्तव, समय बड़ा अनमोल, पृ.-18
- परशुराम शुक्ल, एकता का शक्ति, पृ.-3
- हरिकृष्ण, देवसरे, बाल साहित्य : मेरा चिंतन, पृ.-5
नितेश उपाध्याय
शोधार्थी, भारतीय भाषा केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110067
nupadhyay200@gmail.com, 7991568239
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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