- दीक्षा मौर्या
शोध सार : बाल साहित्य बच्चों के मनोविकास के लिए मील का पत्थर है। जो उनमें पढ़ने, विचारने, समझने की प्रकृति को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। चूँकि बच्चे ही देश का भविष्य एवं भावी निर्माता होते हैं। बाल साहित्य लिखने के लिए अप्रतिम प्रतिभा की आवश्यकता होती है। जिसके लिए लेखक को स्वयं बच्चा बनना पड़ता है। हिंदी बाल साहित्य का आधार बनाने में संस्कृत की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। हिन्दी बाल साहित्य की पृष्ठभूमि तैयार करने में हम संस्कृत का श्रेय देख सकते हैं। संस्कृत बाल साहित्य की पुस्तकों में ‘पंचतंत्र’ और ‘हितोपदेश’ के साथ ही जातक कथाओं का भी प्रमुख स्थान था। ‘पंचतंत्र’ ने तो दुनिया भर में बाल साहित्य को प्रसिद्धि दिलायी। पंचतंत्र ने बच्चों को मनोरंजन के माध्यम से नैतिक शिक्षा देने का काम किया। इसके अलावा रूडयार्ड किपलिंग की बाल साहिया पुस्तक ‘जंगल बुक्स’ ने भी बाल साहित्य को बड़े स्तर पर स्थापित करने का काम किया और देखते-ही-देखते जंगल बुक्स का मोगली सबका चहेता बन गया। जिससे हम कह सकते हैं कि बाल साहित्य बच्चों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ती है। यह बच्चों को एक नई दिशा की ओर ले जाती है। जिससे वे अपने जीवन में छोटी- छोटी सामाजिक नैतिक मूल्यों को ग्रहण करते हैं। बच्चों के मन में किसी भी घटना या वस्तु के विषय में जानने की उत्सुकता होती है। बचपन से ही वे जिज्ञासु स्वभाव के होते हैं। किसी भी वस्तु या घटना को लेकर हजारों सवाल करना उनका स्वभाव होता है। उनकी इसी जिज्ञासा को सही मार्ग देने के लिए भारतीय साहित्य में प्राचीन काल से ही विधान था। ‘पंचतंत्र’, ‘हितोपदेश’, ‘कथासरित्सागर’ और ‘सिंहासन बत्तीसी’ के रचनाकारों ने निश्चित रूप से बाल मनोविकास को ध्यान में रखा होगा। तभी ये पुस्तकें बाल साहित्य के रूप में आज भी प्रासंगिक हैं। बाल साहित्य बच्चों के संपूर्ण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह उनके मस्तिष्क को परिष्कृत एवं परिमार्जित करता है। बाल साहित्य बच्चों को जीवन के विभिन्न पहलुओं से परिचित कराता है, जैसे कि माता-पिता की सेवा करना, बड़ों का आदर करना, झूठ नहीं बोलना, दोस्ती निभाना, साहस से किसी भी काम को करना, सभी को प्रेम करना और कठिनाइयों से निपटने के तरीके इसके अलावा बाल साहित्य बच्चों को विभिन्न संस्कृतियों, परंपराओं और मूल्यों के बारे में सिखाता है। इस प्रकार बाल साहित्य का उद्देश्य केवल बच्चों का मनोरंजन करना नहीं, बल्कि उन्हें जीवन को सही तरीके से जीने के लिए तैयार करना भी होता है।
बीज शब्द : बाल मनोविकास, जिज्ञासा, परिष्कृत, परिमार्जित, अपरिवर्तनीय, पुरातन, संस्कृति, संवेदनशील, मनोरंजन, सरल, नैतिक शिक्षा।
मूल आलेख : बाल साहित्य का रूप सामान्य साहित्य के स्वरूप से अलग दिखाई पड़ता है। बाल साहित्य एक स्वतंत्र विधा है। जिसके अंतर्गत कविता, बालकथा, बाल-उपन्यास, नाटक, एकांकी, जीवनी, पहेलियाँ आदि प्रमुख विधाएं होती हैं। अन्य साहित्य की भाँति बाल साहित्य की रचना करना आसान नहीं होता। इसके सृजन हेतु रचनाकार को स्वयं भी बच्चा बनना पड़ता है। जो बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर ही साहित्य रचते हैं। इसमें मनोरंजन के साथ नैतिक शिक्षा भी निहित होती है। जो उनके मनोविकास के लिए सहायक हैं। बाल साहित्य एवं बाल साहित्यकार के संबंध में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए रमेश तैलंग कहते हैं- “बाल साहित्यकार का काम केवल बाल साहित्य रचना ही नहीं है बल्कि उसे बच्चों को पूरे संसार के प्रति संवेदनशील और जिम्मेदार बनाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।”1
बाल साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध कवि सोहनलाल द्विवेदी बाल साहित्य का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं- “सफल बाल साहित्य वही है जिसे बच्चे सरलता से अपना सकें और भाव ऐसे हों, जो बच्चों के मन को भाए। यों तो अनेक साहित्यकार बालकों के लिए लिखते रहते हैं, किंतु सचमुच जो बालकों के मन की बात बालकों की भाषा में लिख दे, वही सफल बाल साहित्य लेखक है।”2
बाल साहित्य की दुनिया में अग्रणी बाल साहित्यकार जयप्रकाश भारती ने अपना संपूर्ण जीवन बाल साहित्य के प्रति समर्पित कर दिया। इनका मानना है कि एक आदर्श बाल साहित्यकार का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह स्वयं बालक बना रहे, लेखक में जब बच्चों जैसा भोलापन एवं सरलता होगी तभी वह बाल साहित्य लिख सकेगा। किसी भी लेखक के लिए बच्चा बनना आसान नहीं होता क्योंकि बच्चों के मन में हमेशा तरह-तरह की बातें चलती है जिसे समझना कठिन है। बाल साहित्य कैसा हो? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए बाल साहित्यकार डॉ. नागेश पांडेय कहते हैं- “बाल साहित्य कैसा हो। यदि इस प्रश्न का उत्तर मुझे एक बार में देना हो तो मैं कहूंगा कि उसे बच्चे की तरह होना चाहिए। बच्चे बड़े सहज, सरल, कौतूहल से पूर्ण और उमंगों से रचे-पगे होते हैं, ये सब एक बच्चे की मूलभूत विशेषताएं हैं और ये ही विशेषताएं बाल साहित्य में भी होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में बच्चे उस बाल साहित्य को तुरंत स्वीकार करेंगे।”3
प्रख्यात बाल साहित्यकार हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य को बालकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं। वे कहते हैं- “बाल साहित्य की तुलना माँ के दूध से की जा सकती है।
जैसे बच्चा अपना पहला आहार माँ के दूध के रूप में लेता है वैसे ही उनका पहला बौद्धिक
आहार माँ के मुँह से सुनी लोरी के रूप में बाल साहित्य होता है। जैसे बच्चे के स्वस्थ शारीरिक विकास के लिए माँ का दूध आवश्यक होता है वैसे ही उसके स्वस्थ मानसिक विकास के लिये बाल साहित्य।”4
यहाँ लेखक माँ के दूध को बच्चे के शारीरिक विकास तथा माँ की लोरी को बौद्धिक विकास के रूप में देखता है। माँ की लोरी सचमुच बच्चों के मन को भाती है। चंदनिया छुप जाना रे, छन भर को लुक जाना रे, निंदिया आँखों में आई, बिटिया मेरी सो जाए...चंदा मामा दूर के...,सो जा मेरे मुन्ने...जैसी कितनी ही लोरियाँ सुनकर बच्चा बड़ा होता है जो उसके हृदय में हमेशा याद बनकर रह जाती हैं। सबसे पहली शिक्षा तो बच्चा अपनी माँ की लोरियों से ही सीखता है। माँ की लोरी को बाल साहित्य की संज्ञा देने का काम केवल एक सुकोमल हृदय वाला लेखक ही कर सकता है।
बाल साहित्य की मुख्य विशेषता के रूप में मनोरंजन को लिया जा सकता है। जिस प्रकार जीवन के लिये हवा, पानी एवं भोजन अनिवार्य है, उसी प्रकार बच्चों के मन की तृप्ति हेतु मनोरंजन अनिवार्य है। बालक और मनोरंजन परस्पर मित्र माने जा सकते हैं। मनोरंजन ही एक ऐसा साधन है जिसके माध्यम से हम बच्चों को बड़ी-से-बड़ी एवं गंभीर बात को भी सहजता से सिखा सकते हैं। बाल साहित्य बच्चों के मनोरंजन का अच्छा साधन है। जिससे उनके मन को प्रसन्नता, खुशी एवं आनंद की प्राप्ति होती है। मनोरंजन को बाल साहित्य के लिए अनिवार्य तत्व मानते हुए डॉ. हरिकृष्ण देवसरे कहते हैं- “बच्चो का मनोरंजन करना और उनकी बातों को अभिव्यक्ति प्रदान करना बाल साहित्य की किसी भी रचना की पहली पहचान है।”5
बाल साहित्य की पुस्तकों को पढ़कर ही बच्चा दूसरों की मदद करना सीखता है। खेल खेल में ही वह समाज की व्यवस्थाओं को समझने लगता है। सही और गलत के बीच का फर्क करके सही रास्ता चुनना ये सारे गुण वह बाल साहित्य को पढ़ते हुए ही सीख जाता है। जो बच्चों के विकास में सहायक होते हैं।
चूँकि बाल साहित्य की रचना बड़ों द्वारा की जाती है इसलिए उनका बच्चों की कल्पना एवं भावना को पूर्णतः ध्यान में रखकर लिखना जरूरी हो जाता है। उनकी सरलता, उत्सुकता, आश्चर्य एवं भोलेपन को देखकर ही बाल साहित्य रचा जा सकता है। बाल साहित्य केवल क्षणिक मन के बहलाव का जरिया नहीं बल्कि नैतिक मूल्यों को भी साथ लेकर चलने वाला साहित्य है। समाज के यथार्थ एवं नैतिक मूल्यों को बाल साहित्य में दिखाना ही इसका लक्ष्य है। इस संदर्भ में बाल साहित्यकार शंकर सुल्तानपुरी लिखते हैं- “आज जब मानव मूल्यों का विघटन हो रहा है, नैतिक मूल्य गिर रहे हैं। स्वार्थ, भ्रष्टाचार, अनैतिकता का बोलबाला है और भारतीय संस्कृति की गरिमा धूमिल हो रही है। ऐसे समय में बाल साहित्यकारों की भूमिका बड़ी अहम है। उन्हें ऐसे बाल साहित्य सृजन की ओर उन्मुख होना है जो क्षणिक मन बहलाव का न होकर स्थायी रूप से बच्चों के चरित्र विकास में उनका मनोबल ऊंचा करने में प्रेरक सिद्ध हो।”6
वर्तमान में बदलते समाज के साथ बाल साहित्य के रूप में भी परिवर्तन की आवश्यकता महसूस होती है। विश्व फलक पर लिखे गए बाल साहित्य जैसे जे. के. रोलिंग का सात भागों में लिखा ‘हैरी पॉटर’ रुडयार्ड किपलिंग का ‘जंगल बुक्स’ बच्चों को काफी पसंद आया। जंगल बुक के मोगली को कौन बच्चा नहीं जानता। बच्चों से लेकर बड़ों तक ने मोगली के चरित्र को अपनाया है। जंगल बुक्स के पात्र बल्लू, बघीरा, शेर खान आदि ने सभी के मन को मोह लिया और मोगली की कहानी के माध्यम से नैतिक शिक्षा देने का प्रयास किया गया है।
इसके अलावा ‘पंचतंत्र’ जो विष्णु शर्मा द्वारा रचित है। बाल साहित्य में काफी लोकप्रिय हुआ। ये रचनाए बाल साहित्य की दुनिया में अमर है। जिसका कारण यह है कि रचनाकार ने अपने सृजनेच्छा एवं आत्माभिव्यक्ति से प्रेरित होकर इसकी रचना की है। महादेवी वर्मा कहती हैं कि बाल साहित्य का सृजन सहज नहीं होता इसलिए इसको लिख पाने में कुछ लोग ही सक्षम हो पाते हैं। इसके बावजूद प्रत्येक देश में बाल साहित्य लिखा गया जिन्हें वही लिख पाए जो बच्चों सा कोमल हृदय रखते हैं।
21 वीं सदी के इस दौर में सामाजिक व्यवस्थाओं, रीति-रिवाज, रहन-सहन, मशीनीकरण एवं यांत्रिक अविष्कारों की बदलती शैली से बाल मन भी प्रभावित हुआ है, अतः बाल साहित्य भी उसी के अनुसार होना आवश्यक है। बाल मनोविज्ञान को बिना समझे लिखना वैसे ही है, जैसे बिना नींव की दीवार। बच्चों का मन गीली मिट्टी के समान होता है। जिस पर जैसा प्रभाव डाला जाए उसी रूप को वह ग्रहण कर लेगा। बाल मनोविज्ञान के बिना लिखा गया बाल साहित्य अधूरा है। डॉ. ज्योति स्वरूप के अनुसार- “बालक किसी राष्ट्र की सर्वोच्च संपत्ति है, क्योंकि वह भावी राष्ट्र निर्माता है। यदि उसका प्रारंभ से मार्गदर्शन हो गया तो समाज का कल्याण होना निश्चित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश में बालकों को उचित मार्ग पर लगने के लिए लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है। बालक को मार्गदर्शन के अलग उपायों में से साहित्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि साहित्य के द्वारा अनायास ही बाल मनोवृत्तियों का परिष्कार किया जाता है।”7
बाल साहित्य में प्रयोग की जाने वाली भाषा की बात करें तो वह सरल एवं सहज होनी चाहिए। जिसे बच्चे आसानी से समझ सकें बाल साहित्य की भाषा के संदर्भ में वे पुस्तकें या पत्रिकाएं जिनमें खूब रंग बिरंगे चित्र हों, चित्रकथाएँ, कार्टून, पजल्स, ‘रास्ता खोजो’, ‘अंतर बताओ’, बाल-पहेलियाँ, चुटकुले, रंग भरो प्रतियोगिता, नैतिक शिक्षा की छोटी रोचक कहानियाँ आदि हों तो ऐसी किताबें बाल मनोविकास को समृद्ध करने में अपनी सहायता करती है। जिसके माध्यम से बालक रंगों की पहचान छोटे-छोटे दिमागी खेल खेलकर अपना बौद्धिक विकास करता है। इस संदर्भ में बाल साहित्यकार श्रीनाथ सहाय कहते हैं- “बालक देश की आधारशिला है। इसकी समुचित शिक्षा, संवेगमय बौद्धिक विकास पर ही देश का विकास संभव है। प्रारंभ से ही इन्हें राष्ट्रीय, जनतांत्रिक मूल्य आधारित शिक्षा देने की आवश्यकता पड़ती है, जिससे एक जागरूक नागरिक के रूप में इनका उत्तरोत्तर विकास हो। इस दिशा में बाल-साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसके द्वारा बालकों में स्वस्थ संस्कार प्रतिस्थापित हो सके। अनुशासन, मर्यादा, व्यवस्था की नींव बचपन में ही उचित बाल साहित्य द्वारा निर्मित की जा सकती है।”8
बाल साहित्य तो अनेक विधाओं में रचा गया है लेकिन उसमें बाल काव्य बालकों की प्रिय विधा रही है। जब बाल साहित्य की रचना किताबों में न होकर दादी-नानी की मौखिक परंपरा में हुआ करती थी। तब से बाल कविताएँ बालकों को अत्यंत प्रिय रही हैं। ‘हरा समंदर गोपी चंदन बोल मेरी मछली कितना पानी...’
एवं ‘अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो, अस्सी नब्बे पूरे सौ...’
के रूप में कविता बच्चों से जन्म जन्मांतर का नाता बनाए हुए है। प्रत्यक्ष रूप से बाल काव्य का उद्देश्य मनोरंजन होता है, किंतु अप्रत्यक्ष रूप से वह बालकों के कोमल मन पर अपनी गहरी छाप छोड़ कर उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ाता है। बाल काव्य के प्रमुख रूप से बालगीत, बाल-कविता, बाल-गज़ल, बाल-पहेलियाँ आदि हैं। डॉ नागेश पांडेय के अनुसार- “बाल कविता अर्थात बालकों के लिए काव्य। जिस काव्य में बालकों की भाषा में उनकी अपनी दृष्टि, अपना चिंतन और अपनी कल्पनाएं अभिव्यक्त हों सही अर्थों में वही बाल काव्य है। सच्ची बाल कविता वह है जिसमें बच्चों के होंठों से दोस्ती करने की ताकत हो।”9
ये बाल कविताएँ बच्चों को सबका सम्मान करना एवं देश के प्रति प्रेम भावना जागृत करने का भी काम करती हैं। जैसे -
“धरती का सम्मान करो, दुश्मन को भी प्यार करो।
बैर भाव कायरता छोड़ो, दीन दुखी को प्यार करो।”10
इसी प्रकार बच्चे देश का भविष्य हैं। वे सुंदर एवं मनमोहक फूल के समान हैं जो एक दिन देश को अपनी खुशबू सए महकाएंगे-
“घर आँगन में महक रहे हैं फुलवारी के फूल।
काँटों में रहकर हँसते हैं, सुंदर सुंदर फूल।”11
बाल कहानियों ने भी बालकों के मन को अत्यंत मोहित किया है। कहानी सुनने के लिए बालक हमेशा उत्सुक दिखाई पड़ता है जिसे सुनकर वह आनंद की प्राप्ति करता है। बच्चे कहानी सुनने के लिए काम करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं और झट माता-पिता या बड़ों की बात मान लेते हैं। परी-कथाएँ, राजा-रानी कथा, देवी-देवता एवं जादुई कहानियों के प्रति ये विशेष रूप से आकृष्ट होते हैं। जो न सिर्फ इनका मनोरंजन करती हैं अपितु इनमें सुसंस्कारों एवं नैतिकता का बीजारोपण करती हैं। बाल कहानियों के संदर्भ में डॉ नागेश पांडेय कहते हैं- “कहानियाँ ऐसा माध्यम हैं कि वह बच्चों को कल्पना शक्ति के विकास में सर्वाधिक योगदान करती हैं। बाल साहित्य में कथा साहित्य बालकों के लिए अत्यंत उपयोगी है, इससे बालक अपनी कल्पना द्वारा उन सद्पात्रों से तादत्म्य स्थापित करता है और उनसे सद्गुणों की प्रेरणा लेता है।”12
डॉ. नागेश कहानियों को बालकों के व्यक्तित्व विकास में अत्यंत उपयोगी मानते हैं। जो काल्पनिक भी हो सकती हैं और यथार्थवादी भी। बालकों के सर्वत्रोन्मुखी विकास के लिये कहानियों की भूमिका महत्वपूर्ण है।
किसी भी रचना का महत्त्व तब होता है जब वह सामाजिक दृष्टि से उपयोगी हो। इस दृष्टि से बाल साहित्य अत्यंत उपयोगी है। बालक समाज का भविष्य होते हैं इसलिए बालकों को नैतिकता का पाठ पढ़ाना बहुत जरूरी है। जिससे वे एक सुंदर एवं संवेदनशील समाज का निर्माण कर सकें। बाल साहित्यकार डॉ नागेश पांडेय लिखते हैं- “बच्चों को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने की दिशा में बाल साहित्य की अवर्णनीय भूमिका है। आज जब विश्व के समग्र राष्ट्रों में एक प्रतियोगिता का वातावरण है और विकास की आपाधापी में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, ऐसे में बालक को एक सफल नागरिक के रूप में तैयार करने हेतु बाल साहित्य की आवश्यकता विशेष रूप से बढ़ गयी है।”13
बाल मनोविकास को बढ़ावा देने में बाल साहित्य अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है। यह बालकों के लिए तमाम अभावों की पूर्ति का साधन है। प्रत्येक बच्चे को अच्छा स्कूल या अच्छे शिक्षक नहीं मिलते किंतु उसे साहित्य जैसा सच्चा साथी तो मिल ही सकता है।
शिक्षा या स्कूल का स्थान पुस्तकें नहीं ले सकती लेकिन पुस्तकों का स्थान भी कोई नहीं ले सकता। वास्तव में बाल साहित्य स्कूल में पढ़ाई जा रही पुस्तकों से भिन्न होता है। डॉ. लक्ष्मीनारायण दुबे बाल साहित्य के लिए कहते हैं- “बच्चों की दुनिया सर्वथा पृथक होती है।
उनका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है। वे संस्कृति, साहित्य तथा समाज के लिये नए होते हैं। स्कूली साहित्य बाल साहित्य नहीं है। अपितु बच्चों के जीवन तथा मनोभावों को जीवन के सत्य एवं मूल्यों की पहचानने की स्थिति से जोड़कर जो साहित्य उनको सरल एवं उनकी अपनी भाषा में लिखा जाता और जो बच्चों के मन को भाता है, वहीं बाल साहित्य है।”14
वर्तमान समाज स्वार्थपरक हो चुका है। भौतिकवाद ने समाज को संवेदनहीन कर दिया है। लोग यंत्रवत कार्य कर रहे हैं। मनुष्य का ही दुश्मन बन बैठा है। जिसे दूर करने के लिए हमें बाल मन को समझते हुए उन्हें संवेदनशीलता तथा नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ाना होगा।
जिससे एक बेहतर समाज का निर्माण हो सके। इस बाजारवादी समय में बाल साहित्य भी बाजार का हिस्सा है जो उसके विस्तार में सहायक है। आजकल बाल साहित्य नए-नए विषयों की ओर उन्मुख हो रहा है। मोबाईल, इंटरनेट के माध्यम से अनेक बाल कहानियाँ एवं कविताएं सुनाई जा रही हैं। ‘नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए...’,
‘लकड़ी की काठी...काठी का घोड़ा...,
मैं तोता, मैं तोता हरे रंग का हूँ दिखता... जैसी कविताएं बच्चों को मनमोहक लगती हैं साथ ही उनका मनोविकास भी करती हैं। प्रायः बालमन कल्पना की दुनिया में विचरण करता है। जिसमें वह अपने विचार करने की क्षमता को बढ़ाता है। बालमन एक खोजी अन्वेषक की भाँति सदैव कुछ नया खोजने के लिए सचेत रहता है। अपने बाल्यकाल की स्मृतियों को ताजा करते हुए विलियम वर्डसवर्थ कहते हैं- “प्रत्येक बालक के पास कल्पना के पंख होते हैं, अपने जिज्ञासु मन द्वारा वे सोचने के नए ढंग संजोते हैं। किंतु उड़ने के पहले ही उनके पंख कुचल दिए जाते हैं, सृजनशीलता के बीज अंकुरित होने के पहले मसल दिए जाते हैं।”15
बच्चे बचपन में अत्यंत कोमल होते हैं जिसे जैसा सिखाया जाए सीख जाते हैं।
इसलिए आज आदूनिकता के इस दौर में बच्चों का बचपन बचाना बहुत जरूरी हो गया है। नीड़ फाजली ने भी बच्चों को खुशी देने को ईश्वर की इबादत के समान माना है। वे कहते हैं-
“घर से मस्जिद बहुत दूर चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।”16
सृजनशीलता की इसी प्रतिभा को निखारने में बाल साहित्य सहायता करता है। बाल साहित्य बच्चों की कल्पनाशक्ति को बढ़ाता है, और उन्हें नए-नए सृजन हेतु प्रेरित करता है। यह बच्चों को व्यावहारिक शिक्षा देने का काम करता है जिससे बच्चे जिज्ञासु एवं सुसंस्कारित होते हैं। अन्य शब्दों में कह सकते हैं कि बाल साहित्य मनुष्य को मनुष्य बनाने में सहायक होता है। जो नई कोपलों में संवेदना जगाकर जीवन को नई आधारशिला देता है।
निष्कर्ष : निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि बाल साहित्य की पहचान सामान्य साहित्य से पूरी तरह भिन्न होती है। यह एक स्वतंत्र विषय है जिसके अंतर्गत बाल-काव्य, बाल-नाटक, बाल-कथाएं, एकांकी, जीवनी, पहेलियाँ, चुटकुले आदि प्रमुख विधाएं आती हैं। इसके सृज़न में रचनाकार बाल मनोविकास या बाल मनोविज्ञान का मुख्य रूप से ध्यान रखते है क्योंकि बाल साहित्य का सृजन बच्चों के लिए ही किया जाता है। यह सृजन न सिर्फ उनके मनोरंजन के लिए अपितु नैतिक मूल्यों का समावेश करने के लिए भी किया जाता है। जिससे ये नैतिक मूल्यों को सीख सकें और एक सुंदर समाज के निर्माता बन सकें। वर्तमान में वैज्ञानिकी, यांत्रिकी करण, मशीनीकरण, समाज की बदलती व्यवस्था, रहन-सहन आदि से बालमन काफी प्रभावित है। अतः बाल साहित्य को भी परिष्कृत एवं परिमार्जित करके बालकों की विशेष रुचि, योग्यता एवं प्रतिभा को ध्यान में रखते हुए लिखा जाना चाहिए। बाल साहित्य हमारे
देश की राष्ट्रीयता, समाज की सभ्यता एवं संस्कृति, भाईचारा आदि का पाठ पढ़ाते हुए
बाल मनोविकास की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। जरूरत है तो केवल इतनी कि समाज निर्माण महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बाल साहित्य को हम बड़े भी समझें और इसके समुचित विकास एवं प्रचार-प्रसार पर ध्यान दें। बाल साहित्य बच्चों में आत्मविश्वास को बढ़ाता है।
और उन्हें समाज की आधुनिक चुनौतियों का सामना करना सिखाता है।
संदर्भ :
- सं. परवीन,
फरहत,
आजकल
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- देवसरे,
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: मेरा
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बुक्स,
नई
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- विक्रम,
सुरेन्द्र,
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- पाण्डेय,
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नागेश,
बाल
साहित्य
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पृष्ठ-
15
- सिंह, डॉ.पद्म,
फूलवारी
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फूल,
पृष्ठ-
09
- वहीं, पृष्ठ-09
- पाण्डेय,
डॉ.
नागेश,
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साहित्य
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- पाण्डेय,
डॉ.
नागेश,
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साहित्य
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- पाण्डेय,
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साहित्य
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2014, पृष्ठ-08
- https://www.amarujala.com/kavya/irshaad/nida-fazli-on-humanity
दीक्षा मौर्या
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