शोध आलेख : छायावाद एवं छायावादोत्तर बाल कविताओं में प्रकृति प्रेम / सागर चौधरी

छायावाद एवं छायावादोत्तर बाल कविताओं में प्रकृति प्रेम
- सागर चौधरी

शोध सार : हिंदी बाल कविता में भारतीयता का दृढ़ एवं निस्सीम चित्रण है। भारतीय जीवन की सहज सादगी, प्रेम, अपनत्व और संबंधों की प्रगाढ़ता की एक गहरी छाया वहाँ देखी जा सकती है। हिंदी की बाल कविताओं में हिंदीबाल साहित्य का महत्व समझते हुए अनेक बाल साहित्यकारों ने बाल साहित्य का सृजन किया है। बाल साहित्य की कविता विधा में छायावाद का अनमोल योगदान रहा है। प्रस्तुत शोध पत्र में निराला, सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद तथा महादेवी वर्मा की कविताओं की उपयोगिता को स्पष्ट किया गया है। इसी के साथ छायावादोत्तर काल के कुछ कवि जैसे- हरिवंशराय बच्चन, आरसी प्रसाद तथा दिनकर की शिक्षा प्रदान एवं मनोविज्ञानिक कविताओं का अवलोकन किया गया है। इन सभी कवियों की कविताओं में स्थापित प्रकृति प्रेम तथा मनोविज्ञानिक दृष्टि को समझना होगा। यह सभी की कविताएँ विकासशील और प्रयोगधर्मी नजर आती है साथ ही नितांत, निराली और मौलिक भी है। यही मौलिकता एवं प्रयोगधर्मीता छायावाद काल की बाल कविताओं की देन है।

बीज शब्द : बाल कविता, बाल्यावस्था, छायावाद, छायावादोत्तर, संवेदना, उपादेयता, कल्पना, प्रकृति, पर्यावरण, मनोविज्ञान, भावना, मनोभाव।

मूल आलेख : कविता बाल साहित्य में सर्वाधिक प्रचलित विधा हैक्योंकि कविता बच्चों को सहज रूप से प्रभावित कर उनके दिलों-दिमाग में उतर जाती है। विभिन्न आयु वर्गों की मानसिकता की दृष्टि से बाल कविताएँ लिखी जाती रही है। 5 वर्ष तक के बच्चों के लिए लिखी गई कविता में तुकबंदी लयात्मकता पर जोर दिया जाता है। 5 से 12 वर्ष तक के बच्चों के लिए लिखी गई कविताओं में उनके परिवेश वातावरण का सामान्य ज्ञान होता है। जबकि 12 से 16 वर्ष तक के बच्चों के लिए लिखी गई बाल कविताओं में उनकी आशाओं, आकांक्षाओं और उमंगों को प्रेरित किया जाता है। निरंकार देव सेवक की शिशु कविता की पंक्तियाँ देखें – “रोती बिटिया चली घूमने/ दिल्ली से आगे बढ़/ चलते चलते चलते चलते/ पहुँच गई चंडीगढ़ में/ और फिर सारे भारत में।1तथा दिविक रमेश की किशोर कविता का अंश देखें - “बेशक अच्छा बनना डॉक्टर/ मजदूर और भी बेहतर/ श्रमिक खुशी से मैं बन जाऊं/ सीख अगर यह धंधा पाऊं/ मिलकर वह सब कर डालो/ एक पाए जिस पर पार/ हम कैची से लोहा काटें/ काम भी आओं आपस में प्यार बांटे।"2कविता करना और बाल मनोवृत्तियों को केंद्र में रखकर कविता कहना नितांत, अंत भिन्न है। एक सहज और साध्य है, दूसरा असहज और असाध्य। कारण यह है कि रचनाकार को बाल-साहित्य पर लिखने हेतु, अपने बचपन की ओर केवल मुड़ना पड़ता है अपितु इसकी गहराई में डूब जाना पड़ता है। बाल-मस्तिष्क निर्विकार होते हुए भी, अतिशय चंचलता एवं अतिशय सहजता में डूबा होता है। बाल कविताओं का प्रारंभ खासकर बीसवी सदी की शुरुआत से हुआ है। बीसवी सदी के पहले दशक में मैथिलीशरण गुप्त कीओला' नामक कविता प्रसिद्ध पत्रिका 'सरस्वती' में प्रकाशित हुई थी। इसके पश्चात् श्रीधर पाठक, हरिऔंध, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, दिनकर, निराला, अज्ञेय आदि सभी कवियों ने बच्चों के लिए कवितायें लिखी है। सुंदर पद्धति से कविताओं को परिवेश से जोड़ना यह प्रतिभा ही नहीं कलाकारी भी है। बाल कविता तथा लोरियों में बिल्ली मौसी, बंदर मामा, भालू चाचा, चिड़िया रानी, चंदा मामा आदि समविष्ट होते हैं। प्रत्येक अंश में हंसी मजाक शैली तथा आदर भाव उत्पन्न करना कौशल का काम है। इसी के साथ किशोर कविताओं में सकारात्मक दृष्टि का विकास किया जाता है।

            छायावाद की कवयित्री महादेवी वर्मा बाल साहित्य लेखन की कला को पहचानती थी। महादेवी वर्मा ने बच्चों के लिए कई सुंदर, भावपूर्ण कविताएँ लिखी हैं। आश्चर्य है, महादेवीजी की इतनी अद्भुत बाल कविताओं की ओर भी लोगों का ध्यान नहीं गया। ये ऐसी कविताएँ हैं, जिनमें बच्चों का मन, सपने, इच्छाएँ और भावनाएँ सीधे-सादे और भोले शब्दों में पिरो दी गई हैं।ठाकुरजी भोले हैं' संग्रह में महादेवीजी की ऐसी ही नौ बाल कविताएँ शामिल हैं।ठाकुरजीभोले है' कुल पाँच पंक्तियों की कविता है, लेकिन बच्चों के लिए लिखी गई यादगार कविताओं में इसकी गिनती होनी चाहिए। ठंडे पानी से नहला के/ ठंडा चंदन इन्हें लगाती/ इनका भोग हमें दे जातीं/ फिर भी कभी नहीं बोले हैं/ माँ के ठाकुरजी भोले हैं।3महादेवी जी ने यह कविता मात्र छः वर्ष की अवस्था में प्रस्तुत की थी। आपका घर माँ की लोरी-प्रभाती में मुखरित, धूप-धूम से सुवासित, आरती से आलोकित रहता था और बाहर बया के घोंसलों से सज्जित पेड़-पौधे, झाडियाँ। महादेवी वर्मा जी की माताजी कृष्ण भगवान को मानती थी। व्रत करती थी। माँ शीतकाल में भी पाँच बजे सवेरे ठंडे पानी से स्वयं स्नान कर और उन्हें भी नहलाकर पूजा के लिए बैठ जाती थीं। उन्हें कष्ट होता था और उनकी बाल बुद्धि ने अनुमान लगा लिया था कि उनके बेचारे ठाकुर जी को भी कष्ट होता होगा। वे सोचती थीं कि यदि ठाकुर जी कुछ बोलें तो हम दोनों के कष्ट दूर हो सकते हैं। पर वे कुछ बोलते ही नहीं थे। इतनी सशक्त संवेदना भरी कविताओं में प्रकृति प्रेम भी दिखाई दिया जो छायावाद का प्रमुख लक्षण है।कोयलकविता की पंक्तियाँ देखें- “डाल हिलाकर आम बुलाता/ तब कोयल आती है/ नहीं चाहिए इसको तबला/ नहीं चाहिए हारमोनियम/ छिप-छिपकर पत्तों में यह तो गीत नया गाती है/ चिक्-चिक् मत करना रे निक्की/ भौंक रोजी रानी/ गाता एक, सुना करते हैं/ सब तो उसकी बानी/ आम लगेंगे इसीलिए यह/ गाती मंगल गाना/ आम मिलेंगे सबको, इसको/ नहीं एक भी खाना4कवयित्री कोयल को पुकारती है। आम कोयल को बुला रहा है। यह जो कोयल का गीत है। इस गीत-संगीत के लिए किसी वाद्य की आवश्यकता नहीं। प्रस्तुत पंक्तियों में पालतूनक्कीनामक नेवला तथारोजीकुतियाँ का उल्लेख है। महादेवी जी उन्हें शांत रहने को कह रही है। ताकि कोयल का गीत स्पष्ट रूप से सुन सके। इनको प्राणियों से विशेष लगाव था।भूतदयावाले तत्व को माननेवाली महादेवी वर्मा ने अपने मौलिक संस्करण - ‘मेरा परिवारमें अपने सभीपालतू प्राणियों के प्रति प्रेम व्यक्त किया है। इनमें विशेषत: 1. नीलकंठ- मोर,  2. गिल्लु- गिलहरी, 3. सोना- हिरणी, 4. दुर्मुख-ख़रगोश, 5. गौरा- गाय, 6. नीलू- कुत्ता, 7. निक्की, रोज़ी और रानी (निक्की- नेवला, रोज़ी- कुत्ती, रानी- घोड़ी) का समावेश है। कहाँ रहेगी चिड़ियाकविता की पंक्तियाँ देखें-“चिडिया कैसे जी पाएगी? कहाँ रहेगी चिड़िया?/ आंधी आई जोर-शोर से / डाली टूटी है झकोर से, उड़ा घोंसला बेचारी का/ किससे अपनी बात कहेगी?/ अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी?/ घर में पेड़ कहाँ से लाएँ?/ कैसे यह घोंसला बनाएँ?/ कैसे फूटे अंडे जोड़ें?/ किससे यह सब बात कहेगी/ अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी5 स्पष्ट है कि बाल्यावस्था काल में जीवों एवं पर्यावरण के प्रति प्रेम स्वाभाविक रूप से होता हैं, उसे अधिक शक्तिशाली बनाना आवश्यक बन गया है।

             सुमित्रानंदन पंत जी ने भी अनेक बाल कविताएँ लिखी है। चींटी के लिए बच्चों के मन में गहरी उत्सुकता होती हैं। प्रस्तुत पंक्ति देखें – “चींटी को देखा, यह सरल-विरल काली रेखा!6 पंतजी की यह कविता भी कभी बच्चों की जुबान पर बहुत चढ़ी थी। हम सब इस सृष्टि के उपकारी है। इस संदर्भ में पंत जी की बाल कविता की पत्तियाँ देखें – “पंत यह धरती कितना देती है/ यह धरती कितना देती है! धरती माता/ कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को/ नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को/ बचपन में स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर/ रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ/ इसमें सच्ची समता के दाने बोने है/ इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है/ इसमें मानव-ममता के दाने बोने है/ जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें/ मानवता की,- जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ/ हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।7 यह किशोर कविता है। इस प्रकार पंत जी भी बाल कविताएँ लिखने में कम नहीं थे।  

            प्रस्तुत कविताओं की उपादेयता यह है कि आज जंगलों के कटने से वन्य जीवों की सुरक्षा खतरे में पड़ गई है, वर्षा में दिनानुदिन कमी रही है। वायु-चक्र में परिवर्तन दृष्टिगत हो रहा है। भूमि-क्षरण की अधिकता और बाढ़ और सूखे की परिस्थितियाँ उत्पन्न हो रही हैं। ऑक्सीजन की कमी से जन-जीवन भी खतरे में है। कार्बनडाई ऑक्साईड की बढ़ती मात्रा से 'ग्रीन-प्रभाव' में निरंतर वृद्धि हो रही है। वाहनों के अधिकाधिक एवं अनावश्यक प्रयोग से संचित कोष कम हो रहे हैं। पेट्रोल-डीजल की मंहगाई से आम जन-जीवन भी प्रभावित है। दूसरी वस्तुओं का महँगा होना भी स्वाभाविक है। जल, वायु, मृदा, ध्वनि, रेडियोधर्मी प्रदूषणों के फलस्वरूप ढेरों बीमारियाँ पनप रही हैं। चर्म रोग, अस्थमा, कैंसर, दृष्टिदोष, बुखार, सिरदर्द का बोलबाला है। चिड़चिड़ापन, अवसाद, निराशा, चिंता, कुंठा, मनोविकार भी नैतिक, राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक पर्यावरण में आई विसंगतियों के फलस्वरूप उत्पन्न हो रहे हैं। ऐसी बहुतेरी विसंगतियाँ हैं, जिनके बारे में केवल चिंता ही नहीं, वरन् चिंतन-सार्थक चिंतन और पहल करने की आवश्यकता है। यह बाल कविताओं के माध्यम से सहज संभव है। राष्ट्र के भावी नागरिकों को सजग-सचेत करने की दृष्टि से बाल कहानियाँ उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह भी कर रही हैं। बाल्यावस्था में ही बच्चों को यह स्पष्ट कर देना उचित रहेगा। इस प्रकार की कविताएँ सुनने को मिलेगी तो निश्चित रूप से मानव एवं प्रकृति का कल्याण होगा।

            जयशंकर प्रसाद की बाल कविताएँ प्रकृति प्रेम की दृष्टि से अपने आप में सशक्त एवं समृद्ध है। 'बाल किड़ाकविता की पंत्तियाँ देखें– “उपवन के फल-फूल तुम्हारा मार्ग देखते/ काँटे ऊँवे नहीं तुम्हें हैं एक लेखते/ मिलने को उनसे तुम दौड़े ही जाते हो/ इसमें कुछ आनन्द अनोखा पा जाते हो8 तथा नया हृदय है/ नया समय है/ नया कुंज है/ नये कमल-दल-बीच गया किंजल्क-पुंज है/ नया तुम्हारा राग मनोहर श्रुति सुखकारी/ नया कण्ठ कमनीय, वाणि वीणा-अनुकारी9 जयशंकर प्रसाद ने प्रकृति का मानव सापेक्ष चित्रांकन किया है। उनकी कोई भी कृति ऐसी नहीं है, जिसमें प्राकृतिक वर्णन का उदात्त रूप मिले। प्रसाद जी ने प्रकृति के माध्यम से अपने अंतर्मन  की समस्त भावनाओं को शब्दों में व्यक्त किया है। छायावादी कवि होने के कारण प्रकृति से घनिष्ठ संबंध होना सहज है। प्रकृति के श्रृंगारमय, विलासमय तथा प्रकृति के भयंकरता के स्वरूप के भी दर्शन किये हैं। यह सब ठीक है किंतु उच्च कोटि की भाषा के कारण प्रसाद जी की बाल कविताएँ किशोर कविताएँ लगती है।

            हरिवंशराय बच्चन ने भी बाल कविताएँ लिखी थी। 'चिड़िया और चुरूंगुन' कविता का अंश देखें-“छोड़ घोंसला बाहर आया/ देखी डालें, देखे पात/ और सुनी जो पत्ते हिलमिल/ करते हैं आपस में बात/ माँ, क्या मुझको उड़ना आया?/'नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया/ डाली से डाली पर पहुँचा/ देखी कलियाँ, देखे फूल, ऊपर उठकर फुनगी जानी/ नीचे झूककर जाना मूल/ माँ, क्या मुझको उड़ना आया?”10 हरिवंशराय बच्चन की प्रस्तुत कविता में चुरंगुन चिड़िया के बच्चे का नाम है। बच्चन जी ने कितनी सुंदर मनोहारी बाल मन की कल्पना है।

            महाप्राण निराला जी ने कुल चार बाल कविताएँ लिखी है उनमें से 'गर्म पकौड़ी' कविता की पंक्तियाँ देखें - “ गर्म पकौड़ी/ तेल की भुनी/ नमक मिर्च की मिली/ गर्म पकौड़ी!/ मेरी जीभ जल गयी/ सिसकियां निकल रहीं/ लार की बूंदें कितनी टपकीं/ पर दाढ़ तले दबा ही रक्खा मैंने/ कंजूस ने ज्यों कौड़ी/ पहले तूने मुझको खींचा/ दिल ले कर फिर कपड़े-सा फींचा/ अरी, तेरे लिए छोड़ी/ बम्हन की पकाई/ मैंने घी की कचौड़ी।11बात बाल साहित्य की है और मनोविज्ञान से उसका सबंध ना हो ऐसा कभी नहीं हो सकता। मनोविज्ञानिक संवेग- भूक, प्यास, क्रोध, डर, आनंद, नींद तथ निराशा व्यक्तिगत प्रकृति हैं। इनको नियंत्रित रखना आवश्यक होता है। बाल कविताओं के माध्यम से यह कार्य किया जा सकता है। इस प्रकार की कविता आरसी प्रसाद सिंह ने भी लिखी है– “हम वर्षा में झम-झम आए बर्फी, पेड़े, चमचम लाए!12 आरसी प्रसाद सिंह जी ने बाल साहित्य के क्षेत्र में गहरा योगदान दिया है। ऐसी कविताओं के माध्यम से अनावश्यक कल्पनाएँ सीमित हो पाती है। यह व्यक्तिगत प्रकृति का हिस्सा है। बाल साहित्य लेखन में मनोविज्ञान का योग ठीक इस प्रकार है जैसे भाषा की रचना में क्रिया का एवं शरीर की रचना में रीढ़ का। कविता करना और बाल मनोवृत्तियों को केंद्र में रखकर कविता कहना नितांत भिन्न है। एक सहज और साध्य है, दूसरा असहज और असाध्य। कारण यह है कि रचनाकार को बाल-साहित्य पर लिखने हेतु, अपने बचपन की ओर केवल मुड़ना पड़ता है अपितु इसकी गहराई में डूब जाना पड़ता है। बाल-मस्तिष्क निर्विकार होते हुए भी, अतिशय चंचलता एवं अतिशय सहजता में डूबा होता है। रचनाकार जब तक अपनी वर्तमान परिपक्व आयु को पूर्णतया विस्मृत करके, स्वयं को बालपन में नहीं लौटाता, तब तक उसके लिए बच्चों की संवेदनाओं से स्वयं को सहज रूप में जोड़कर एकाकार हो पाना कठिन होता है। आरसी जी की पंक्तियाँ देखें - “सूरज का दरबार लगा/ चिड़ियों का बाजार लगा!/सब पंछी चहचहा रहे/ अपनी बोली सुना रहे/ सूरज बोला-रहने दो/ मुझको भी कुछ कहने दो!/ सबसे पहले जो जाग चुके वह मेरे आगे!/ स्वयं जागकर चुप रहे/ औरों को भी उठोकहे/ राज मुकुट वह पहनेगा/ राजा की पदवी लेगा!13बच्चों में पाया जाने वाला सूरज, चाँद, तारों के संबंधी कल्पना तत्व बच्चों को मनोरंजन की ओर बढ़ाता है। यही प्रयोग दिनकर की बाल कविता 'चाँद का कुर्ता' में भी हुआ है। पंक्तियाँ देखें – “हठ कर बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला/ सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला/ सन सन करती हवा रात भर जाड़े में मरता हूँ/ ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ/ आसमान का सफ़र और यह मौसम है जाड़े का/ हो अगर तो ला दो मुझको कुर्ता ही भाड़े का।14 तथा बड़ा किसी दिन हो जाता है/ और किसी दिन छोटा/ घटता बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है/ नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है/ अब तू यही बता नाप तेरा किस रोज लिवायें?15 इस कल्पना की समझ पाठक के लिए बड़ी बात नहीं होगी। बच्चे सदैव चाँद की कल्पना करते हैं। दिनकर के बारे में प्रकाश मनु ने लिखा है कि – “बाल कविता सृजन की समझ दिनकर में थी।16 बात पुनः उसी कठिनाई की ओर इंगित करती है अर्थात बाल-मनोविज्ञान का ज्ञान होना जो रचनाकार के लिए दुरूह कार्य है। प्रारंभिक अवस्था में शिशु मात्र कुछ मूल प्रवृत्तियों के साथ प्राकृतिक रूप से संबंध होता है जैसे-'भूख लगने पर रोना।अन्य अभिव्यक्तियाँ उसके लिए कठिन हैं। बाल साहित्यकारों के समक्ष हमेशा एक प्रश्न पूरी ईमानदारी से उपस्थित रहता है कि उनकी रचनाओं के पाठकों का वह मन है जो व्याकरण समझता है। एक ही भाषा की अन्यान्य रचनाओं को, वह वर्ग, मात्र वह समझता है जो उसे अपने सहज अनुभव में देखने को मिलता है। इसी कारण, बालसाहित्य की रचनाओं में वर्ण केंद्र में रहता है एवं उसकी ऊपर-नीचे की मात्राएँ परिधि में। वर्ण तो बालक के बोध का माध्यम बन जाता है किंतु मात्राएँ उसे उलझाकर बोध में बाधा उत्पन्न करती है। बाल साहित्यकार स्वयं को सहजता से बाल मन के इतना करीब ले जाते हैं कि एकाकार हो जाते हैं। यही नहीं वे बाल-काव्य का एक पैमाना, एक साँचा, एक लय, एक अन्विति एवं एक सी भाषा लेकर चलते हैं। यही मुख्य कारण है कि उनकी बाल-कविताओं से संवाद कर पाना सहज एवं सुखद होता है। पढ़ने पर यह अवश्य लगता है कि यह असहज एवं दुरूह है किंतु अनुभूति के स्तर पर जो सहजता मिलती है, वह बालमन की समस्त संवेदनाओं को एक-एक करके उपस्थित कर देती है। यहाँ इस संदर्भ में, पुनः यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि बच्चों पर कविता लिखना एवं बच्चों के लिए कविता लिखना भिन्न है। बच्चों पर लिखी कविता के पाठक अन्य व्यक्ति भी हो सकते हैं किंतु बच्चों के लिए लिखी गई कविता के पाठक अधिकांशतः बच्चे ही होते हैं। तात्पर्य है कि आरसी प्रसाद सिंह, निराला तथा दिनकर की कविताओं में बाल मनोविज्ञान का सुंदर प्रयोग हुआ है।

निष्कर्ष : हिंदी बाल कविता के विकास में छायावाद तथा छायावादोत्तर काल का महत्वपूर्ण स्थान है महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद, निराला की बाल कविताओं में प्रकृति प्रेम, जीवों की रक्षा तथा पर्यावरण रक्षा का मिश्रण द्रष्टव्य होता है। स्वाभाविक है कि छायावादी कवियों की प्रवृत्ति प्रकृति प्रेम की थी। जयशंकर प्रसाद की उच्च कोटि की थी इसी कारणवश यह प्रभाव उनकी बाल कविता सर्जना पर भी दृष्टिगत होता है। जयशंकर प्रसाद की कविताएँ बाल कविताएँ ना होकर किशोर कविताएँ है। बाल साहित्य के विस्तार एवं दिशा हेतु बाल साहित्य तथा किशोर साहित्य को पृथक्क करने की आवश्यकता है। यह कार्य सरल नहीं किंतु कठिन भी नहीं। हरिवंशराय बच्चन की बाल कविताएँ भी प्रकृति सौदर्यं को स्पर्श करती है। निराला, दिनकर तथा आरसी प्रसाद सिंह की बाल कविताओं में प्रकृति प्रेम भी है और मनोविज्ञान का पुट भी है। बाल साहित्यकार को मनोविज्ञान का ज्ञान, बच्चों का कल्पना विश्र्व तथा बाल संवेदनाओं की समझ होना अत्यंत आवश्यक है।

संदर्भ :

  1. मनोहर, छागला, बाल साहित्य के विविध आयाम, नयन पब्लिशिंग दिल्ली, 2009, पृष्ठ 12
  2. वहीं, पृष्ठ 13
  3. सुजीत, कुमार, महादेवी वर्मा की कविताएँ, विनायक प्रकाशन मुंबई, 2011, पृष्ठ 126
  4. वहीं, पृष्ठ 127
  5. वहीं, पृष्ठ 128
  6. विद्या,जोशी, सुमित्रानंदन और छायावाद, कृतिका प्रकाशन मुंबई, 1998, पृष्ठ 87
  7. वहीं, पृष्ठ 87
  8. पवन, चतुर्वेदी, साहित्य सर्जना (मासिक), दिल्ली, जून 2022, पृष्ठ 41
  9. वहीं, पृष्ठ 42
  10.  माया, साही, बच्चन रचनावली, आर. के पब्लिशर्स, जयपुर, 1999, पृष्ठ 211
  11. सत्यदेव, सत्य, कविता के महाप्राण, आर. के पब्लिशर्स, जयपुर, 2001, पृष्ठ 126
  12.  देवेंद्र, झा, नंदन (बाल पत्रिका), बाल समीक्षा विशेषांक, दिल्ली, जनवरी 1996, पृष्ठ 82
  13.  वहीं, पृष्ठ 83
  14.  वहीं, पृष्ठ 84-85
  15.  वहीं, पृष्ठ 84-85
  16.  वहीं, पृष्ठ 33

 

सागर चौधरी
असिस्टेंट प्रोफेसर, गोखले एज्युकेशन सोसायटी द्वारा स्थापित, बिटको महाविद्यालय, नासिक, (महाराष्ट्र)- 422006
 

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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