शोध आलेख : 21वीं सदी की हिंदी बाल कविताओं में संवेदना के विविध रूप / रेणु

21वीं सदी की हिंदी बाल कविताओं में संवेदना के विविध रूप
- रेणु


ईश्वर द्वारा निर्मित सभी कृतियों में से मनुष्य सबसे सुंदर कृति है जो एक नन्हें बालक के रूप में जन्म लेता है। एक बालक मानव जीवन की मिठास, संगीत-सुरभी, मनोरंजन और चंचलताओं के साथ ही मूल्यों तथा परम्पराओं को भी संरक्षित रखता है। निःसंदेह बच्चे इस सृष्टि की धूरी हैं। उनके बिना यह सम्पूर्ण संसार सूना व अधूरा है। बच्चों से ही जीवन में रंगीनियाँ हैं, रौनक है। शंभुनाथ तिवारी ने सच ही कहा है-

“अगर बच्चे नहीं होते तो,
घर-घर में विरानी होती।
सबका दिल छू लेने वाली,
कहाँ तोतली बानी होती।
गली गली में खेल खिलौनों,
का भी कारोबार न होता।
गर दुनिया में इतना प्यारा,
बच्चों का संसार ना होता।”1

बच्चों की इन्हीं इन्द्रधनुषी रंगों से भरी उनकी दुनिया का विवरण, विवेचन और प्रस्तुति बाल साहित्य करता है। बाल साहित्य बाल जीवन की एक ऐसी सजीव चित्र वृत्ति है, जो अद्भुत, अनोखी, रसयुक्त और सुखमय है, जिसमें बचपन की सभी अनेक भंगिमाओं, चेष्टाओं, कार्यकलापों और संभावनाओं का समावेश होता है। वैसे तो बाल साहित्य अपने आप में पूर्ण एवं एक विस्तृत साहित्य है, जिसे किसी परिपाटी या परिभाषाओं में नहीं बाँधा जा सकता। इस संबंध में श्री निरंकार देव सेवक का विचार है कि “बच्चों का मन इतना चंचल और कल्पनाएँ इतनी तेज होती है कि किन्हीं निश्चित नियमों से बँधा हुआ साहित्य उनके लिए लिखा ही नहीं जा सकता। बड़ों के लिए जो सर्वथा असंगत और अर्थहीन होता है, वह बच्चों के लिए युक्तिसंगत और अर्थपूर्ण हो सकता है। इस दृष्टि से बड़ों द्वारा बच्चों के लिए लिखा सारा साहित्य बच्चों के लिए दूसरी दुनिया द्वारा दिया गया साहित्य होता है अतएव बच्चों का साहित्य लिखने में वही सफल हो सकता है जो बड़प्पन के भार को रत्ती - रत्ती कम कर बच्चों की सरलता, कौतूहल और जिज्ञासा को स्वाभाविक रूप से अपने मन में धारण कर लें। इसके लिए निरन्तर अभ्यास और सतत् साधना की आवश्यकता है, इसलिए इस कार्य में बड़ों के समाज की बड़ी-बड़ी उलझी समस्याओं में फँसे हुए मन वाले लोग तो कम ही सफल हो पाते हैं।”2

हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह एक उत्कृष्ट बाल साहित्य उसे मानते हैं जिसमें संसार, प्रकृति और समाज को बच्चों की दृष्टि से देखा जाए। यथा - “बच्चों की दृष्टि से देखी गई दुनिया, प्रकृति और समाज का चित्रण हो, वही बाल साहित्य है।”3

जब तक एक लेखक बाल – मन को पूर्ण रूप से न समझ सके, तब तक वह एक सफ़ल बाल साहित्यकार नहीं हो सकता। बाल साहित्य के इस विषय पर विचार करते हुए डॉ. सुरेन्द्र विक्रम तथा जवाहर इंदु ने कहा है “बाल मनोविज्ञान बाल साहित्य लेखन की एक कसौटी है। बाल मनोविज्ञान का अध्ययन किए बिना कोई भी रचनाकार स्वस्थ एवं सार्थक बाल साहित्य का सृजन नहीं कर सकता है। यह बिल्कुल निर्विवाद सत्य है कि बच्चों के लिए लिखना सबके वश की बात नहीं है। बच्चों का साहित्य लिखने के लिए रचनाकार को स्वयं बच्चा बन जाना पड़ता है। यह स्थिति तो बिल्कुल परकाया प्रवेश वाली है।”4

बाल विमर्श पर कार्य तथा बाल साहित्य की रचना चूँकि वयस्क ही करते हैं, इसीलिए उन्हें बाकी साहित्यकारों से ज़्यादा सचेत रहने की आवश्यकता होती है। यह सत्य है कि हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं के माध्यम से बच्चों की भावना, कल्पना,आकांक्षा, जिज्ञासा, सोच – विचार, रहन – सहन तथा जीवनचर्या को व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है। कहानी, नाटक, उपन्यास आदि के अलावा बाल कविताएँ भी लिखी गई हैं। जितना सुरम्य और आकर्षक बच्चों की दुनिया है, उतनी ही सुरम्य और सुखद हिन्दी बाल कविता है।

बाल कविता बच्चों की सबसे प्रिय विधा है क्योंकि वह कविताओं को सुनते, गाते, गुनगुनाते, झूमते और नाचते हुए, उसके साथ एक सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। वह उनके जीवन के हर हाव-भाव का अंग बन जाता है। लयात्मकता, गीतात्मकता, रागात्मकता काव्य की सब से बड़ी विशिष्टताएँ मानी गई हैं। बच्चों की प्रत्येक प्रतिक्रिया लय से परिपूर्ण होती है। वह रोता, हँसता, रूठता, चहचहाता आदि सभी क्रियाएँ लयबद्ध तरीके से करता है। उसका पूरा अंग संचालन ही लय में होता है। अतः बाल कविता भी बच्चों की ही भांति भोली भाली, निष्कपट, मासूम, निश्चल, कोमल, हंसती-खिलखिलाती, मनोरंजक और स्वतंत्र होने के साथ ही संवेदनात्मक भी होती है।

डॉ. नागेश पाण्डेय के अनुसार - “बाल कविता’ अर्थात् बालकों के लिए काव्य। जिस काव्य में बालकों की भाषा में, उनकी अपनी दृष्टि, अपना चिंतन और अपनी कल्पनाएँ, अभिव्यक्त होती हों सही अर्थ में वही बाल काव्य है। सच्ची बाल कविता वह है जिसमें बच्चों के होठों से दोस्ती करने की ताकत हो। कभी हरा समन्दर गोपी चन्दर .... अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बो..... अस्सी नब्बे पूरे सौ.... के रूप में कविता बच्चे से जन्म जन्मान्तरों का नाता बनाये हुए हैं। बाल काव्य का प्रत्यक्ष उद्देश्य तो मनोरंजन होता है किन्तु परोक्षत वह बालकों के मन में संवेदना के अंकुरण उपजाकर उन्हें राष्ट्र के सुयोग्य नागरिक के रूप में तैयार भी करता है। बालकों में अर्थग्रहण और सौन्दर्यबोध की क्षमता प्रदान करने की दृष्टि से भी बाल काव्य की अपनी विशिष्ट भूमिका है।”5

हिन्दी बाल कविता में संवेदना के विविध रूपों को समावेश किया गया है। जैसे - मनोरंजन एवं हास्य के अतिरिक्त बाल मनोविज्ञान के अनेक रूप, सामाजिक, सांस्कृतिक, मानवीय मूल्य आदि पक्षों को भी स्थान दिया गया है। मनुष्य और संवेदना का अटूट रिश्ता है। बालमन भी संवेदना की गठरी है। आज के तकनीकी युग में मानव संवेदनहीन हो गया है, लेकिन बच्चों के भीतर अभी भी संवेदना जगी हुई है। 21वीं सदी के बाल कवियों ने बालमन की कल्पनाशक्ति, नाराजगी, प्रसन्नचित्तता, जिज्ञासा, कौतुहल, शरारतीपन, जिद करना, ईर्ष्या तथा प्रतिद्वंद्विता की भावना, अनुकरण की वृत्ति आदि विविध रूपों की झांकी प्रस्तुत की है।

बचपन में कितनें भी अभाव हो, बालक हमेशा, हर परिस्थिति में मुस्कुराता रहता है। सच ही कहते हैं बचपन तो बचपन होता है। बच्चे अपनी कमजोरी या हीन भावना को कभी छुपाते नहीं। जो मन में आए बोल देते हैं। झट से रूठते और कुछ ही देर में खुश भी हो जाते हैं। दिल से बिलकुल साफ़ यही तो बचपन है। सुरेशचन्द्र सर्वहारा इसी भाव को व्यक्त करते हैं-

“कष्ट अभावों में पलकर भी
बचपन तो हर पल मुस्काता।
नहीं जानता दुःख क्या होता
हरदम गीत खुशी के गाता
औरों की होड़ा-होड़ी में
चैन हृदय का नहीं गंवाता।
जो मिल जाए रूखा-सुखा
बड़े मजे से उसको खाता।”6

बचपन स्वतंत्र और स्वच्छंद खिलखिलाहट, मीठी मुस्कान और खुशियों का पिटारा होता है। छोटी – छोटी बातें बच्चों को प्रसन्न कर देती हैं। कभी चन्दा मामा होते हैं तो कभी बंदर मामा। बालकों की इन्हीं छोटी – बड़ी खुशियों को ध्यान में रखते हुए हमारे बाल कवियों ने मनोरंजक एवं हास्यपूर्ण बाल कविताओं का सृजन किया है जो बाल हृदय को खुशियों से भर देती है। संतोष कुंअर की कविता ‘बंदर मामा’ बालमन की गहरी पेंठ है जिससे बच्चे बिना हँसे रह नहीं सकते हैं। यथा -

“बंदर मामा बी.ए. पास
दुलहिन लाए एम. ए पास।
मामा बोले घूँघट कर
मामी बोली मुझ से डर
मैं लड़की हूँ एम ए पास
मैंने खोदी नहीं है घास।
फिल्म देखने जाऊँगी।”7

बाल कविता का मुख्य उद्देश्य बच्चों को स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करना है। परंतु निरह मनोरंजन ही नहीं अपितु सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों का संदेश देना भी है। घर के बड़े – बुजुर्गों की जिम्मेदारी है कि वे बालकों में मानवीय मूल्यों का बीजारोपण करें। बाल साहित्य के प्रचलित कवि प्रकाश मनु बच्चों को एक मनोरंजक, स्वस्थ व संवेदनाओं से युक्त बाल साहित्य देने के पक्षधर हैं- “बच्चों को स्वस्थ मनोरंजन देने की सामाजिक जिम्मेदारी में हमने एक तरह की अक्षम्य लापरवाही बरती है। हमने उन्हें ऐसे सीरियलों के भरोसे छोड़ रखा है, जिनमें हिंसा, मारकाट और लुच्चई है। यहाँ तक कि अश्लील धारावाहिकों को देखते पाये जाते हैं, उनका असर उन पर कैसा पड़ रहा होगा और बड़े होने पर उनमें किस तरह की कुंठाएँ और विकृतियाँ सामने आ सकती हैं, इसकी कल्पना से हृदय काँपने लगता है। इसी तरह बच्चों की स्वस्थ और रोचक फिल्में बनाने की दिशा में हमारे यहाँ किसने सोचा है ? इस लिहाज से बच्चे के स्वस्थ और निर्मल मनोरंजन की बाल साहित्य की जिम्मेदारी कुछ और बढ़ जाती है।”8

किसी भी बालक के लिए अनुभव और संस्कार की पहली पाठशाला उसका परिवार और उसके आसपास का समाज होता है। अपने आस-पास के वातावरण और परिवेश में वह जो कुछ भी देखता, सुनता और अनुभव करता है, वही सीखता और उसी का अनुकरण भी करता है। जैसे एक छोटी लड़की माँ को साड़ी पहनते, सजते – सँवरते देखती है तो वही करती है। बेटा यदि पिता को घर की जिम्मेदारी उठाते देखता है तो वही करने की इच्छा भी रखता है। माँ – बाप को घर के बुजुर्गों के प्रति तथा समाज के लोगों के साथ जैसी रवैया को बालक देखता है उसी का अनुसरण भी करता है। परिवार तथा समाज का उत्तरदायित्व है कि बाल मन में अच्छी बातों का बीजारोपण करें। माता-पिता एवं बड़े-बुजुर्गों के प्रति सम्मान, आस्था और विश्वास का अनूठा उदाहरण कवि श्यामसुन्दर कोमल ने इन पंक्तियों में भर दिया है -

“माता पिता है सबसे बढ़कर
हम गाये इनके गुणगान।
इनके चरणों में ही होता।
सारे जग का तीर्थ महान।
यही सोच कर सुत गणेश ने
की परिक्रमा गुन गाते।
इसीलिए तो जग में सबसे
पहले पूजे जाते।’’9

21वीं सदी के विकसित परिवेश में भी सामाजिक वैमनस्य, विसंगतियाँ, जातिवाद, रंग-वर्ण-वर्ग भेद और छुआछुत जैसी समस्या से यह समाज अभी भी मुक्त नहीं हो पाया है। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब की इस खाई का दुष्परिणाम बाल जीवन पर भी पड़ता है। ऐसे कितने बच्चे हैं जो पढ़ना चाहते हैं लेकिन अपनी आर्थिक परिस्थिति तथा सामाजिक बनावट के कारण नहीं पढ़ पाते हैं। ऐसी ही विभिन्न प्रकार की सामाजिक विसंगतियों का चित्रण हिन्दी बाल कविता में हुआ है क्योंकि वास्तव में बाल साहित्य ऐसा होना ही चाहिए जो ऊँच – नीच, धर्म, जाति, वर्ग आदि के भेदभाव को भुलाकर परिवार, समाज तथा राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरो सके। इस विषय में बाल साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर विष्णु पाण्डेय का मानना है कि “बाल साहित्य ऐसा हो जो बच्चों की जिज्ञासाएँ शांत करे, रुचियों में परिष्कार लाये और बच्चों में अच्छे संस्कार भरे। बाल साहित्य में विविधता अनिवार्य है क्योंकि बालरुचियाँ भी विभिन्नताओं से परिपूर्ण हैं। नीतिपरक ज्ञान लादने वाला आदर्श बघारने वाला, उपदेशों से परिपूर्ण साहित्य बालरुचियों के प्रतिकूल पड़ता है। बच्चों के स्वस्थ मनोरंजन के साथ उनके भावी जीवन के लिए उन्हें स्वयं तैयार कर देने की परोक्ष उत्प्रेरणाएँ देने वाला साहित्य ही सच्चा बाल साहित्य है।”10

21वीं सदी की बाल कविताएँ पूर्ण रूप से समाज से जुड़ी हुई हैं। समाज में चारों ओर फैले बिखराव, ईर्ष्या, लोभ, वैमनस्य, महंगाई, गरीबी, विषमता, बाजारवाद, उपभोक्तावाद, जीवन मूल्यों के अवमूल्यन, टूटते रिश्ते, एकाकीपन आदि को बाल कविताएँ प्रस्तुत करती हैं ताकि बच्चे समाज की सभी गतिविधियों से अवगत होने के साथ ही उसके उत्थान के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित भी हो सकें। बाल कवि शिवचरण चौहान पॉलिश करने वाले एक बालक की मार्मिक स्थिति का वर्णन करते हैं जिसे अपनी पढ़ाई छोड़कर घर चलाने के लिए मोची का काम भी करना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर अमीर बच्चे आराम से जीवनयापन करते हैं। अपनी बेबसी को अभिव्यक्त करते हुए बालक कहता है-

मैं पॉलिश करने वाला
तुम सा बच्चा हूँ।
तुम महलों में रहते हो
मैं फुटपाथों पर
तुम औरों पर आश्रित
मैं अपने हाथों पर
मैं मेहनत करने वाला
मन का सच्चा हूँ।”11

मानवीय मूल्यों का बीजारोपण बचपन में ही आवश्यक है क्योंकि वही तो कल का भविष्य है। उनके मन में किसी भी प्रकार का अपना-पराया, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, जाति-धर्म-वर्ग-वर्ण आदि की समझ नहीं होती है। इस विडम्बना से अनजान वह तो कोरे कागज के समान होते हैं। इसीलिए कहा जाता है बच्चे गीली मिट्टी के समान होते हैं हम जो भी सिखायेंगे वह वैसा ही सीखेंगे। यह बड़ों की जिम्मेदारी है कि हम उन्हें हर मानव और जीव से प्रेम, दया, निस्वार्थ सेवा, उपकार तथा मानवता का पाठ पढ़ाएँ। समाज में पनपती बुराइयों के उन्मूलन का सबसे बड़ा उपाय शिक्षा है। शिक्षा ही वह तलवार है जो जनता में चेतना भरकर, उन्हें अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत करके समाज में बनती खाई को काट सकता है। आज बालकों को केवल किताबी शिक्षा नहीं अपितु नैतिक मूल्यों और आदर्शों से परिपूर्ण शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है। समकालीन बाल कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से नैतिक मूल्यों में ही शिक्षा पद्धति का समर्थन किया है।

पारंपरिक रहन-सहन, धार्मिक तीज – त्योहार, लोक पर्व आदि भारतीय समाज और संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। विविधताओं से परिपूर्ण हमारे भारत देश में अनेक लोक संस्कृतियाँ है जिन्हें मिलाकर एक भारतीय संस्कृति का निर्माण होता है। 21वीं सदी के बाल कवियों ने संस्कृति बोधयुक्त बाल कविताओं की रचना करके बालकों में अपनी संस्कृति से सरोकार बनाकर चलने तथा एक सभ्य समाज के निर्माण की प्रेरणा देते हैं। आज के बच्चे ही तो राष्ट्र के भावी नागरिक हैं। जिस संस्कृति से हम बालमन को परिचित कराएंगे आगामी वर्षों में वैसा ही देश होगा, वैसी ही संस्कृति होगी। हिन्दी के बाल कवि देशभक्ति बाल कविताओं की रचना द्वारा 26 जनवरी के गणतंत्र दिवस, 15 अगस्त के स्वतंत्रता दिवस का महत्व समझाते हुए देश के प्रति कर्तव्यपरायणता, उसकी आन-बान-शान बनाये रखने तथा राष्ट्र के लिए बलिदान की प्रेरणा देते हैं। साथ ही होली, रक्षाबंधन, दशहरा, दीवाली, क्रिसमस, ईद आदि त्योहारों से संबंधित अच्छाई की बुराई पर जीत, धार्मिक सहिष्णुता, रिश्तों का महत्व तथा राष्ट्रीय एकता का संदेश देते हैं। कवि संजीव ठाकुर अपनी कविता ‘यह दिवाली’ के माध्यम से आपसी झगड़ा,मनमुटाव, बैर दूर मिटाने का संदेश देते हैं -

“अंधियारे को दूर भगाने
घर-घर में खुशियाँ बरसाने
यह दिवाली आई है।
उछलो, कूदो, दौड़ो, भागो
छोड़ो झगड़ा, गले लगाओ
सबके मन का वैर मिटाने
यह दिवाली आई है।”12

यह विभिन्न त्यौहार और पर्व बच्चों को हर्ष व उल्लास से भर देते हैं। रंगों से खेलना, पिचकारी मारना, सांता से उपहार लेना, नए कपड़े पहनना, मिठाईयाँ और पकवान खाना, पतंग उड़ाना, दीप जलाना आदि बच्चों में उत्साह और उमंग भर देता है।

वर्तमान समय में उपभोक्तावाद, बाजारवाद, तकनीकी एवं मशीन ने व्यक्ति को स्वार्थी और लोभी के साथ ही अपाहिज भी बना दिया है। मानव स्व केंद्रित हो गया है। कामकाजी व्यक्ति अपनी दिनचर्या में व्यस्त और घर के पराश्रित सदस्य, जैसे बुजुर्ग और बच्चे, पीछे छूटते जा रहे हैं तथा अकेलेपन के दंश से जूझते प्रतीत हो रहे हैं। संयुक्त परिवार से एकल परिवार में तब्दील होती परिवार प्रणाली कुछ वर्षों में व्यक्ति विशेष में परिवर्तित हो जाएगी, जहाँ सिर्फ़ ‘मैं’ रह जाएगा। आज तकनीक के बढ़ते दौर में मोबाइल ने व्यक्ति को परिवार से अलग कर खुद तक सीमित कर दिया है। कवि अश्वघोष अपनी मोबाइल फोन कविता में इसी संवेदना को अभिव्यक्त करते हैं। पापा हमेशा फोन में व्यस्त रहते हैं और बेटी इस बात से परेशान है। वह उसे समय ही नहीं देते इसीलिए वह चाहती है कि पापा फोन फेंक दें -

“जब आया मोबाइल फोन
पापा जी की बदली टोन
चाहे दिन हो चाहे रात
हरदम करते रहते बात
जब देखो तब टालमटोल
नहीं प्यार के है दो बोल
चेहरे पर सूखी मुस्कान।”13

यह सत्य है कि आधुनिक पीढ़ी ‘टेक सेवी’ है। उनके लिए नित नए आधुनिक इलेक्ट्रोनिकल साधन उपलब्ध है। फिर भी वह अपने माता – पिता के साथ समय व्यतीत करना चाहते हैं। आधुनिक विकास के कारण पहले की भाँति बच्चों के खेलने के लिए हरियाली, खुले मैदान और विभिन्न प्राकृतिक क्षेत्रों की कमी होती जा रही है। इनकी जगह बड़े-बड़े मॉल और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स तैयार हो रहे हैं। विकास अच्छा है परंतु यह बच्चों के शरीर के साथ ही उनके बौद्धिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास भी प्रभावित कर रहा है। क्योंकि वह समाज, संस्कृति और प्रकृति से दूर चार दिवारी में सिमटते जा रहे हैं।

निष्कर्ष : यह स्पष्ट है कि बाल कवितायें बच्चों के लिए सच्चे साथी, मार्गदर्शक और प्रेरक का कार्य करती हैं। बच्चों के जीवन तथा मनोभाव को स्पष्ट, सरल एवं उनकी भाषा में ही प्रस्तुत करना बाल कविता को विशिष्ट बनाता है। 21वीं सदी की बाल कविताएँ बच्चों को मनोरंजित करती हैं, उनकी अनुभूतियों, कल्पनाओं और सपनों को साकार करती हैं, उनमें कौतुहल एवं जिज्ञासा जाग्रत करती है। बच्चों को आनन्द प्रदान करने के साथ ही उन्हें शिक्षित करने का भी कार्य करती हैं। इस बात की पुष्टि करते हुए उषा यादव एवं राजकिशोर सिंह लिखते हैं कि “हिन्दी बाल कविता बच्चों के लिखी जाने वाली कविता जरूर है पर बचकानी नहीं है। इसमें गाम्भीर्य है, युगीन संदर्भ है और युग के निर्माण के लिए दिशा दृष्टि भी है। इसने बाल-मन, बाल-जीवन, बाल-संसार और बालक की अस्मिता के बहुआयामी क्षितिज को हुआ है।”14

संदर्भ :
  1. बच्चों का संसार. कविता कोश, www.kavitakosh.org.
  2. ‘हिन्दी बाल गीतों का एक संकलन.’ शिक्षा त्रैमासिक, जनवरी 1961, पृष्ठ 10.
  3. सिंह, नामवर. ‘बाल साहित्य भविष्य की नींव है.’ कथा: बाल साहित्य आलोचना विशेषांक, अक्टूबर 2014,पृष्ठ 9.
  4. बक्षी, आनन्द. हिन्दी बाल साहित्य का अनुशीलन. आराधना ब्रदर्स, कानपुर उ प्र. 2016, पृष्ठ 13.
  5. पाण्डेय, नागेश 'संजय'. बाल साहित्य के प्रतिमान. बुनियादी प्रकाशन, लखनऊ. 2012, पृष्ठ 82-83.
  6. सर्वहारा, सुरेशचन्द्र. बाल गीत निर्झर. अरावली प्रकाशन,जयपुर. 2015, पृष्ठ 14.
  7. सलभ, कृष्ण. बचपन का समंदर. नीरजा स्मृति बाल साहित्य न्यास, सहारनपुर, उ प्र. 2009, पृष्ठ 585.
  8. मनु, प्रकाश. हिन्दी बाल साहित्य: नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ. कृतिका बुक्स, दिल्ली. 2014. पृष्ठ 15-16.
  9. श्रीवास्तव, श्याम सुन्दर. आलोक शिशु गीत भाग-2. कोमल श्याम प्रकाशन, कानपुर उ प्र. पृष्ठ 03.
  10. पाण्डेय, विष्णुकांत. बाल साहित्य विवेचन. राष्ट्र भाषा बिहार से पुरस्कृत पाण्डुलिपि, पृष्ठ 20.
  11. मनु, प्रकाश. हिन्दी बाल कविता का इतिहास. मेधा प्रकाशन, दिल्ली. 2013, पृष्ठ 201-202.
  12. ठाकुर, संजीव. मैं भी गीत लिखूँगा. वैभवशाली, नवीन शाहदरा, दिल्ली. 2011, पृष्ठ 23.
  13. अश्वघोष. ताक धिना धिन. वैभवशाली, नवीन शाहदरा, दिल्ली, 2012. पृष्ठ 17.
  14. यादव, उषा. सिंह, राजकिशोर. हिन्दी बाल साहित्य और बाल विमर्श. सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली. 2014, पृष्ठ 101.
रेणु
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, जीसस एंड मेरी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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