ओड़िया भाषा में बाल साहित्य की परंपरा
- जगन्नाथ मेहर

इस सृजन कर्म में कविता, कहानी, उपन्यास, सम्मरण आदि विधाओं के साथ स्त्री, वृद्ध, किसान तथा बच्चे आदि सामाजिक रूप से संवेदनशील पक्ष को उजागर किया गया है। आज बढ़ती आधुनिकता के चलते बच्चों से उनका बचपन छिना जा रहा है, उन्हें जल्द से जल्द किसी प्रतिष्टित जीवन में खपाने के लिए माँ वाप हर दम लगे हुए हैं। बच्चों के बचपन को कैद करना और और उस बचपन का गोला घोटना आज के परिदृश्य में अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रक्ष है, इस पक्ष को लेकर भारत के हर भाषा और साहित्य में कुछ न कुछ लिखा गया और लिखा जा रहा है। उसी प्रकार ओड़िआ भाषा और साहित्य में भी बच्चों के बालपन को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है उसे यहाँ हम कुछ बिन्दुओं में अनुशीलन करते हैं।
प्रथम पर्याय–(1890-1900ई.) -
अन्य भारतीय भाषाओँ के जैसे ही ओड़िआ भाषा में भी बाल साहित्य का प्रारम्भ आधुनिक काल में ही हुआ। ओड़िआ की प्रथम कहानी ‘रेवती’ से इसका आरम्भ मान सकते हैं जो कि फकीर मोहन सेनापति द्वारा 1897ई मे लिखा गया। इस कहानी का मुख्य पात्र रेवती एक छोटी सी कन्या है जो स्कुल जाना और पढाई करना चाहती है, परन्तु उस समय का रुढ़िवादी समाज महिलाओं के पढ़ने के खिलाफ था। लेकिन रेवती समाज और परिवार के विरोध के स्वत्ते पढाई की। पूरी कहानी रेवती बच्ची के और उसके मानसिक चिंतन के आसपास घुमती है। फिर इसाई मिशनरियों के भारत आगमन से भारत में छोटे स्तर या छोटे विद्यालय के स्तर पर ये लोग अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए विभिन्न प्रकार की पुस्तक निर्माण करने लगे। 1880 ईस्वी में एक पुस्तक की रचना हुई थी ‘पीला मानंकर धर्मगत’(बच्चों की धर्म पुस्तक)। इस पुस्तक का मूल उद्देश्य यह था कि बच्चें इसाई धर्म की और कैसे आकृष्ट होंगे।1 ओड़िआ और मिशनरियों का आरम्भ में हमें प्राय जो बाल साहित्य मिला उस मे धर्म को ज्यादा ही महत्व दिया गया था, लेकिन द्वितीय पर्याय में बच्चों को पुस्तक के साथ मनोरंजन के माध्यम से भी बांधना उद्देश्य रहा।
द्वितीय पर्याय –( 1910-1930 ई. ) -
20वी सदी के आरम्भ में ओड़िआ बाल साहित्य एक अलग सा मूड अपनाया भाषा और व्याकरण को जोर देने लगा। हिंदी में द्विवेदी युग की तरह इस समय पुरातन रूढ़िवाद से भाषा और व्याकरण को किस तरह से मुक्त कर उसको एक सरल भाव दिया जा सकता है इस पर बल दिया गया। इस समय ओड़िआ भाषा को ओड़िशा के प्रत्येक बच्चों के मन में जगह बनाया था(वर्णबोध)जो कि ओड़िआ साहित्य के प्रमुख लेखक या कवि मधुसूदन राव के द्वारा लिखी गई पुस्तक थी। इस ‘वर्णबोध’ पुस्तक का अर्थ यह था कि बच्चों को मनोरंजन तरीके से वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर के साथ जोड़ना। इस छोटी सी पुस्तक में नैतिकता, अछे गुण, दिनचर्या से लेकर महीने और वर्ष को भी भाषागत ढंग से समझाया गया है।
ओडिशा के सत्यवादी वनविद्यालय के प्रतिष्ठापक गोपबंधू दास और उनके साथी नीलकंठ दास बालसाहित्य में आत्मनिर्भरता का प्रवेश किया और उनके लेखनी का माध्यम से बच्चों को भविष्यत्त में अच्छे नागरिक बनने की प्रेरणा मिले यही उनका उद्देश्य था। उत्कल मणि गोपबंधु दास जी कि रचना ‘धर्मपद’ बच्चों के लिए प्रेरणा दायक कविता बन गयी। कारण धर्मपद जो था वह कोणार्क मंदिर बनवाते समय अपने कारीगर वंश की रक्षा करने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दिया। इसको पढ़कर बच्चे जो थे वह इस कविता के प्रति आकर्षित होते हैं। इस पर्याय में बच्चों को विभिन्न प्रकार के औद्योगिक सामग्री के साथ परिचय करवाने का प्रयास किया गया था। जैसी गाड़ी, विद्युत, रेल-गाडी, दूरदर्शन और विभिन्न प्रकार के विद्युत संचालित वस्तु उसके ऊपर ध्यानाकर्षण करने का पूरा ज़ोर दिया गया। कवि उपेंद्र त्रिपाठी जी की कविता ‘रेलगाडी’ इस कड़ी में महत्वपूर्ण है। इस कविता में बच्चों को रेल गाडी के साथ परिचय करवाने का भर पूर प्रयास किया गया था।2
इस भाग में बच्चों को उपदेशात्मक भाव के साथ साथ भाषा को भी ध्यान में रखा गया था। रवि शेखर महान्ति का ‘शिशु धर्मनीति’ प्रमुख था। गोदाबरीश मिश्र की कविता ‘आम जन्मभूमि’(मेरी मातृभूमि) अत्यंत देशभक्ति बोधक गीत है।
“ करीबा सकल देशर सेवा
लोड़ा हेले मुंड आनंदे देवा”3
(सब मिलकर देश का सेवा करेंगे अगर ज़रुँरत पड़ने पर सर भी देश के लिए दे देंगे।)
इस समय बच्चों के गीत या कविता परजाति - पातींतथा छुआछूत को दूर करने का भी प्रयास कविता के माध्यम सेकरनेकाउचितकदमउठायागया था। इस समय आत्मनिर्भरता को भी कविता में लाने का प्रयास किया गया। रघुनाथ पाणिग्रही जी के द्वारा रचित कविता ‘मो देश बढ़ेई पुअ’(मेरे देश के कारीगरी बच्चे) अर्थात बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्होंने जीतने कारीगर हैं इस देश में सभी को अपने पुत्र के समान माना है। बच्चों को प्रकृति के साथ मिलाने और उसकी ओर ले जाने के लिए अनके कवियों ने प्रकृति को किसी न किसी रूप से अपने संपर्क स्थापित करने के लिए बच्चों को प्रेरित किए । जैसे चंदा को मामा, बाघ को मामू और भालू को चाचा के साथ तुलना करके अनेक बाल गीत लिखे हैं, जैसे - ‘भालू चाचा’, ‘चंदा मामा’ आदि लोक प्रचलित हैं।
तृतीय पर्याय– (1930-अबतक ) -
इस समय तक आते-आते ओड़िआ बाल साहित्य केवल कविता का माध्यम न रहकर कहानी तक आ गया था और बालसाहित्य केवल साहित्यक भाषा न रहकर लोक साहित्य तक आगया था।
इस समय ज्यादातर कहानी, कविता बच्चों के ऊपर एक खेल के माध्यम से सिखाने का प्रयास कियागया था। कवि नंदकिशोर के द्वारा रचित ‘नानावाया गीत’ जिसको ओड़िआ बाल साहित्य का धर्मग्रंथ कहे तो भूल नहीं होगी। इस नानावाया गीत का अर्थ अंग्रेजी में(Nursery rhythm) शिशु जब कोई भी विषयवस्तु को आत्मप्रकाश करता है उसके मन में एक प्रकार का आत्मिय भाव जाग उठता है। तो वह भाषा और व्याकरण को भूलकर उसमें नीहित भावों को उसके प्रति आकर्षित होते है। इस समय को ओड़िआ साहित्य में शिशु साहित्य (बालसाहित्य) का स्वर्णयुग कहाजाता है। 4
१९३६ईस्वी अप्रैल में जब ओडिशा को एक स्वतंत्र राज्य के रुप में घोषित किया गया तब उपेंद्र त्रिपाठी का ‘नुआ ओड़िशा’ बच्चों को बहुत पसंद आया था। इस कविता में बच्चों को ओडिशा राज्य के विभिन्न स्थानों के बारे में, उसके खान-पान और रीति-रिवाज के बारे में बताया गया है। इस समय देश स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रही थी, कवियों के विभिन्न प्रकार देशभक्ति कविता बच्चों के मन में असर डाला। १९४७ अगस्त १५ को जब देश आज़ाद हुआ इसी को लेकर ओडिआ कवि पंडित उपेंद्र त्रिपाठी ने ‘जातीय पताका’(देश का झंडा) नाम से एक कविता लिखी। जिसकी हर पंक्ति आज भी बच्चों के मुहँ पर है-
“ आम जातिर पताका यहीरे
आमें रखीबू जीवन देई रे” 5
(अर्थात- यह हमारे देश का प्रतीक या हमारा सम्मान है, इस झंडे की रक्षा हम अपने प्राण देकर भी करेंगे।)
यह बाल साहित्य की परंपरा ओड़िआ भाषा में अब भी चल रही है, हम ओड़िआ भाषा में रचित कुछ प्रमुख बाल गीत और उनके प्रकार को भी देख सकते हैं।-
ओड़िआ भाषा में विविध प्रकार के बालगीत -
नानाबाया गीत ( Nursery rhymes) -
मौखिक गीतों की ओर बच्चे ज़्यादा आकर्षित होते हैं। चाहे वह साहित्यिक भाषा हो या लोग में प्रचलित बोली में हो। इस गीत संग्रह में बच्चों के क्रिया से सम्बंधित विभिन्न प्रकार के गीत दिया गया है। इस प्रकार के गीत को हिंदी में ‘लोरी’ कहा जाता है और वे गीत ओड़िआ में ‘नानाबाया गीत’ नाम से प्रचलित हैं।
जैसे- यह एक गीत है,जब मां अपने बच्चों को सुलाती है तब गाती है-
“ झूलरे हाती झूल
बाआपाणी खाई फूल ” 6
( माँ अपने बच्चे को हाथी के जैसे गोल मोटल और स्वस्थ बने रहें यही बात सुलाते समय बच्चे को हाथी के साथ तुलना करती है।)
बोली के माध्यम से भी विभिन्न प्रकार के लोकगीत बच्चों को किसी न किसी रूप से कुछ ना कुछ सिखाती है- जैसे यह एक लोक में गढ़ी गयी ‘ढग-ढमाली’यानी तुक भिडाकर बातों एक लयबद्ध गीत रूप में प्रस्तुत करना।
“आसरे पीले कहेमी कथा,
कांए कथा ? बैंग लथा
कांए बैंग ? ढूडा बैंग
कांए ढूडा? बाभन बूढ़ा
कांए बाभन ? सूत बाभन
कांए सूत? पीठा लूद
कांए पीठा ? ताल गईठा” 7
यह एक लोक गीत है जो दादी बच्चों को कहानी आरंभ करने से पहले इसको ध्यान आकर्षण या रोचकता बढाने के लिए सुनाती है।
वर्ण बोध -
वर्ण बोध। मधुसुदान राओ के द्वारा रचित एक प्रकार का व्याकारणिक पुस्तक है। जिसमें बच्चों को मनोरंजन तरीके से ओड़िआ वर्ण माला सिखाया जाता है। इस पुस्तक में बच्चों को गीत की माध्यम से नैतिकता, दिनचर्या, अछे गुण आदि बताया गया है। और यह गीत बच्चों को काफी पसंद भी आते हैं।
सप्ताह का गीत -
दिन गति एक दिवस हुए
सात दिवसकु एकसप्ताह बुलाई।
प्रति दिवस कु बार कुहा जये जाण
सात बाररे सात टी नाम एबे शूण 8
ऊपर में एक सप्ताह कैसे आता है और कितने दिन होते हैं यह कहा गया है ।
बारा महीने का वर्णन -
दुई पक्ष रे हुए एक मास
बारमास रेहुए एकबर्ष
बैशाख, जेष्ठ, आषाढ़, श्रवण
तापरे आसे भद्रव, अश्विन। 9
ऊपर में लिखा गया कविता वर्ष के बारे में दिया गया है। दो पक्ष में एक महीन फिर बारह महीने को एक वर्ष फिर महिनों का नाम दिया गया है।
गणित का अध्ययन -
एक – जन्ह मामू देख
दूई– काठ खण्ड बुही
तीनी– ताका धीनि धीनि
चरि– बस चका मारी10
संख्या गणना में बच्चों के लिए गीत का प्रयोग किया है।
निष्कर्ष- में इतना कहा जा सकता है कि ओड़िआ भाषा में बाल साहित्य का खजाना है आपको प्राय रचनाकार बालसाहित्य को आधार बनाकर अपना रचना किए है। चाहे प्रकृति को आधार बनाए या कहीं चंदा मामा तो कहीं पशु समूह को भी अपने साथ संपर्क स्थापित कर दिए हैं। माना जाता है कि बच्चों का प्रथम गुरु मां है और ओड़िआ साहित्य में जितने भी बालगीत हैं या जितने भी बालसाहित्य हैं उनसब का प्रथम आधार मां को बनाया गया है।
संदर्भ :
- डॉ. मणीन्द्र, महांती, ओड़िया शिशु साहित्य उन्मेष ओ विकाश, माणिक– विश्वनाथ धातव्य स्मृतिन्यास, भुवनेश्वर, प्रथम प्रकाशन, पृष्ठ संख्या- 89
- नीलकंठ, दास,ओड़िया भाषा और साहित्य,न्यू स्टूडेंट्स स्टोर्स, कटक, द्वितीय संस्करण–1948, पृष्ठ संख्या- 67
- रामकृष्ण, नंद, ओड़िया साहित्य र क्रम विकाश, उत्कल साहित्य समाज र हीरक जयंती स्मरणिका, 1972, पृष्ठ संख्या- 45
- नंदकिशोर, बल, नानाबायागीत, कटक स्टूडेंट्सस्टोर,( बालू बाजार, कटक) प्रथम प्रकाशन, 1934, पुष्ठ संख्या-73.
- पंडित, उपेंद्र ग्रन्थावली ,जे.महापात्र एंड को, प्रथम प्रकाशन, 1969, पृष्ठ संख्या- 84
- नंदकिशोर, बल, नानाबाया गीत, कटक स्टूडेंट्स स्टोर, (बालू बाजार, कटक) प्रथम प्रकाशन 1934, पुष्ठ संख्या-74.
- बिनोद, चंद्र, पिलंकर मन, ओड़िया साहित्य ओड़िया गवेषण विभाग विश्व भारती, 1958, पृष्ठ संख्या-67,69,112,
- मधुसूदन, राओ, बर्णबोध, प्रथम संस्करण लंडन, नवीन संस्करण 2014 ओड़िया भाषा प्रतिष्ठान, प्रकाशन 1895, पृष्ठ संख्या-27..
- वही, पृष्ठ संख्या-28.
- वही, पृष्ठ संख्या-30.
जगन्नाथ मेहेर
अध्यापक, नैशनल कॉलेज, नुआपड़ा, ओड़िशा।
jagannathmeher67@gmail.com, 8456814076
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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