शोध आलेख : भारतीय भाषाओँ में रचित विविध बाल कविताएँ / चंद्रकांत सिंह

भारतीय भाषाओँ में रचित विविध बाल कविताएँ
- चंद्रकांत सिंह

शोध सार : कवितायें लय एवं तुक के साथ कोमल अनुभूतियों के लिए जानी जाती हैं, जो पाठकों को सहज ही झंकृत करती हैं। बात यदि बाल-कविताओं की करें तो इनमें मनोरंजन,शिक्षा, उपदेश आदि के साथ सुन्दर-सुन्दर कल्पनाएँ दिखाई पड़ती हैं। इनके पाठ से बच्चों का सम्यक विकास तो होता ही है साथ ही बड़ों को भी दीठि मिलती है कि वे बच्चों एवं किशोरों का पालन कैसे करें? प्रस्तुत आलेख के द्वारा विविध भारतीय भाषाओं यथा- हिमाचली, सिंधी, गुजराती, बांग्ला, मराठी, भोजपुरी, मलयालम आदि में लिखे जा रहे बाल-कविताओं का परिचयात्मक अध्ययन का प्रयास किया गया है। यूँ तो भारतीय भाषाओं में विपुल बाल-साहित्य सृजित है। जिसका बड़ा कारण यह है कि भारत में योग्य एवं प्रखर नागरिकों के निर्माण को सर्वथा महत्वपूर्ण समझा जाता रहा है। प्रस्तुत शोध-आलेख में भारत की विविध भाषाओं में बाल-कविताओं को लेकर किये जा रहे कार्यों के बहाने विविध भाषाओं की बाल-कविताओं का अध्ययन किया गया है। पर्यावरण, कौशल-अधिगम के साथ नीति,सूक्ति, पर्व-उत्सव आदि कैसे बच्चों में गुरुतर दायित्व-बोध के साथ उनके शैशव की कोमलता की रक्षा करते हैं। प्रस्तुत शोध-आलेख में इसे देखने-समझने का कार्य किया गया है।

बीज शब्द : सृजनात्मक-शक्ति, बाल-मन, लोकाचार, लोक-अनुष्ठान, संस्कृति, सामूहिकता, मातृभाषा, कल्पना-शक्ति, वैज्ञानिक-चिन्तन।

मूल आलेख : बात यदि बालक ध्रुव, नचिकेता, सत्यव्रत आदि की करें तो इन्होंने बाल्यकाल से अपनी मेधा एवं शक्ति का परिचय देते हुए समूचे भारत में विशेष पहचान बनायी है। यही नहीं बालक भरत जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा, उनके विषय में कहा जाता रहा है कि वह सिंह के दांत गिना करते थे। कहने का आशय यह है कि भारत दिव्य विभूतियों एवं शूरवीरों की धरती है, इस धरती पर अनगिनत वीर हुए जिन्होंने अपना लोहा ज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि साहस,त्याग एवं आत्मबल के क्षेत्र में मनवाया। इन सदाशयी महापुरुषों के निर्माण में पूर्व से चली आ रही कथाओं और गीतों की बड़ी भूमिका है। बात यदि वीर अभिमन्यु, छत्रपति शिवाजी एवं महाराणा प्रताप की करें तो इनका बाल्यकाल दूसरों के लिए प्रेरणास्पद हो सकता है। इन्होंने अपने पराक्रम एवं नैतिक गुणों के द्वारा एक नया इतिहास रचने का कार्य किया। बाल-साहित्य मनोरंजन भर नहीं करता प्रत्युत योग्य, कुशाग्र पीढ़ी का निर्माण भी करता है। भारतीय भाषाओं में प्राचीन काल से अभूतपूर्व बाल साहित्य रचे गये, जिन्हें पढ़कर योग्य,कुशल एवं प्रतिभासम्पन्न व्यक्तियों का निर्माण हुआ। लगभग सभी भारतीय भाषाओं में बाल-साहित्य रचेगए जिन्हें पढ़ने से बच्चों को मनोरंजन के साथ नीति, ज्ञान एवं धर्मपरक आचरण की शिक्षा मिलती रही है। बाल-मन अत्यंत कोमल है जिसके सहारे बच्चे न केवल विविध कल्पना करते हैं बल्कि जीवन को पूरी तन्मयता एवं भाव से जीते हैं। यदि बच्चों के कोमल मन को उचित खाद-पानी मिले तो निश्चय ही विशदएवं महनीय कार्य किया जा सकता है। सही अर्थों में बच्चे चित्रकार हैं जो अपनी कल्पना, सृजनात्मक शक्ति एवं प्रतिभा के द्वारा रचनात्मक कार्य करते हैं। यदि उनका पोषण सही ढंग से हो तो एक अच्छे नागरिक जीवन की आधारशिला निर्मित होती है। इस दृष्टि से न केवल बच्चों को उचित शिक्षा, स्वास्थ्य एवं पोषण देने की महती आवश्यकता है बल्कि उनकी मनोभूमि के परिष्कार हेतु समय-समय पर उत्तम साहित्य तैयार करने की जिम्मेदारी भी समाज पर है ताकि उनका सर्वांगीण विकास हो सके। भारत में आरंभ से ही बाल-साहित्य को महत्वपूर्ण समझा जाता रहा है ताकि उनके भावुक मन को संवेदनात्मक बल मिल सके। भारत की विविध भाषाओं में अनगिनत साहित्य रचे गये हैं जिनके सही पाठ एवं शिक्षण से निश्चय ही मेधावी पीढ़ी का निर्माण हो सकता है। बात यदि हिमाचल प्रदेश की करें तो यहाँ बाल-साहित्य के निर्माण में लोक-साहित्य की अहम् भूमिका है। हिमाचल के विविध साहित्यकारों ने लोक-साहित्य एवं संस्कृति को आधार बनाकर सुन्दर एवं मनोरम बाल-साहित्य निर्मित किए हैं। श्री किशोरी लाल वैद्य कृत ‘हिमालय की लोककथाएँ’, डॉ. पद्म चंद काश्यप कृत ‘कुल्लुई लोकसाहित्य’. डॉ. गौतम शर्मा व्यथित कृत ‘कांगड़ी लोकगीत’, देवराज शर्मा कृत ‘हिमाचल प्रदेश : एक झलक’, स्वर्गीय लालचंद प्रार्थी कृत ‘कुल्लू त देश की कहानी’, डॉ. कांशीराम आत्रेय कृत ‘मंड्याली लोकगीत तथा हिमाचली पहेलियाँ’, चंद्ररेखा ढडवाल कृत ‘लोकभाव स्वरांजलि भाग-1, ‘लोकभाव स्वरांजलि भाग-2 एवं ‘लोकभाव स्वरांजलि भाग-3 महत्वपूर्ण रचनाएँ जिनमें हिमाचली लोकगीतों के साथ बाल-गीत एवं बाल-साहित्य का सुन्दर पक्ष दिखाई पड़ता है।हिमाचल की विविध बोलियों चम्बियाली, बघाटी, सिरमौरी, मंडियाली आदि में शिशु के अबोधपन को भगवान् कृष्ण से जोड़कर देखा गया है। इन पहाड़ी गीतों की विशेषता यह है कि लगभग सभी गीतों में बच्चे के जन्म के बाद उल्लास का वातावरण दिखाई पड़ता है साथ ही बालक को ईश्वर रूप में प्रतीकित कर गाय दान देने एवं ब्राह्मणों द्वारा पूजन विधान आदि के रूप में दिखाई पड़ता है। ‘घर वसुदेवे दे जन्मेया पुत्तर’ प्रचलित कांगड़ी गीत में शिशु के जन्मोत्सव के बाद उत्सव मनाते हुए परिजनों को दिखाया गया है। उक्त गीत में बाल-चित्रण की दिव्य छँटा देखते बनती है-

घर वसुदेवे दे जन्मेया पुत्तर
जसोदा पलंगै चढ़ी ए S SS।
नन्द करदा गऊआं दे दान
सोयने दे सिंग मढ़ी ए S SS।
भट्ट ब्राह्मण दिन्दे न सीसां
जीये स्हाढ़ा कृष्ण हरि ए S SS।
आई तां गेइआं वृज दियां नारां,
सोलह सिंगार करी ए S SS।[1]

शिशु के जन्म के बाद इस शुभ समाचार को दादा, ताया, मामा आदि से साझा किया जाता है, यही नहीं परिजनों के अतिरिक्त गाँव के पुरोहित एवं भट्ट समूह से भी यह सूचना साझा की जाती है ताकि सभी सामूहिक लोकाचार के साक्षी हो सकें। कांगड़ा के बाल जन्मगीतों की विशिष्टता है कि सभी बाल-गीत सामूहिक उछाह एवं प्रसन्नता को दर्शाते हैं। इस तरह के उत्सवपूर्ण गीतों में हिमाचली जन-जीवन का वास्तविक सौन्दर्य उभरता है। देवराज शर्मा की रचना ‘गुग्गा जाहरपीर’, डॉ. गौतम शर्मा व्यथित की रचना ‘चेते’, ‘पुंगरासां’ (पहाड़ी काव्य-संग्रह) ‘पहाड़ा दे अत्थरू’ आदि में भी बाल-मन का विस्तार दिखता है। इसके अतिरिक्त हिमाचल में प्रत्यूष गुलेरी, पीयूष गुलेरी, डॉ. मनोहर लाल, जयदेव किरण, सागर पालमपुरी, अदिति गुलेरी, पवन चौहान, राजीव त्रिगर्ती आदि कवियों ने पहाड़ी के साथ हिंदी में गंभीर लेखन किया है।हिमाचल के कवियों में शक्ति चंद राणा जी प्रखरहस्ताक्षर हैं। आपके द्वारा लिखित‘बच्चों का संसार’ कविताअत्यंत मनोरम है। इस कविता में कवि ने ईश्वर की अनुपम निधि शिशु के सुन्दर जीवन को चित्रित किया है। इस कविता में वह बच्चों की नन्हीं दुनिया को कुशलता से चित्रित करते हैं-

सुन्दर सा ये देखो इक संसार बड़ा है बच्चों का।
अद्भुत भी अनुपम भी, ये प्यार बड़ा है बच्चों का।।
खेलें,कूदें, झूमें, नाचें, मिलकर मौज मनाएँ।
बढ़ते जाना आगे ये अधिकार बड़ा है बच्चों का।।
दुनिया सारी सुन्दर सुन्दर, महके अनगिनत फूलों से।
ईश्वर की इस बगिया का, उपहार बड़ा है बच्चों का।।[2]

हिमाचल के महत्वपूर्ण साहित्यकारों में गौतम शर्मा ‘व्यथित’ जी अग्रगण्य हैं। हिमाचल के लोक-साहित्य में अतुल्य योगदान देने एवं हिमाचली लोकनृत्य ‘झमाकड़ा’ के मंचन एवं प्रदर्शन के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित भी किया गया है।

उनकी बाल-कविताओं में नैतिक शिक्षा के द्वारा व्यक्तित्व-निर्माण की सहज वृत्ति दिखती है। उनकी कविता 'आओ! सैर करें' प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ बच्चों में सद्भाव,प्रेम एवं साहचर्य का निर्माण करती है। प्रस्तुत कविता सामूहिकता, मैत्री एवं नेह का अपूर्व चित्रांकन कही जा सकती है, कवि व्यथित जी लिखते हैं-

प्रेम दया सभी को बाँटें
ना कभी, किसी से बैर करें।
आओ सैर करें।।
चुन्नू मुन्नू अपने भाई,
करें न इनसे कभी लड़ाई।
हँस कर बोलें, नाचें खेलें,
भूल से करें न, कभी बुराई।
सभी को समझें, अपना भाई,
धरती अपनी, नहीं पराई।
इस माटी से, तिलक करो।
साहसी और निडर बनो।
जिस घर में हो, बैर-विरोध,
उसमें, न पैर धरें।
आओ सैर करें।।[3]

आज मानवीय संसाधनों के अत्यंत विकास के कारण, सुविधाओं के लोभ के कारण पर्यावरणीय क्षरण हर जगह दिखता है। सड़कें चौड़ी हो रही हैं, अंधाधुंध भवनों का निर्माण भी हो रहा है और आदमी संकुचित होकर अपने में सिमट रहा है। अप्रत्याशित लिप्सा एवं कुंठाओं के कारण जल-जंगल और ज़मीन का विनाश जगजाहिर है। बाल-कविताओं में कवि पेड़ लगाने एवं मिलजुलकर आगे बढ़ने की सामूहिक भावना का विकास करते हुए दिखते हैं-

आओ! हाथ बटाओ साथी,
मिलकर पेड़ लगाओ साथी।

धारा वृक्ष से रहे न खाली,
चारों ओर बढ़े हरियाली।
पग-पग पर जीना मुस्काए,
खुशियों का सावन घिर आए।
चौतरफा लहराएँ जंगल
हर्षोल्लास बढ़ाओ साथी ।
मिलकर पेड़ लगाओ साथी,
आओ! हाथ बटाओ साथी।[4]

हिमाचली कविता के युवतम कवि राजीव त्रिगर्ती ने हिंदी में ‘ज़मीन पर होने की खुशी’ एवं ‘प्रेम में होना’ शीर्षक से महत्वपूर्ण काव्य-संग्रहों की रचना की है। उन्होंने हिंदी में बाल-कवितायें भी खूब लिखी हैं जो हिमाचल की प्रतिनिधि पत्रिका ‘हिमप्रस्थ’ में प्रायः छपती रही हैं। इसी कड़ी में उनकी‘बादल’ शीर्षक कविता को देखा जा सकता है-

देखो बादल उड़े जा रहे,
पानी भरकर लिए जा रहे।
अम्बर पर छतरी सा तनकर
उमड़-घुमड़ हैं खूब मचाते,
काले-काले बड़े निराले
आपस में ही भिड़-भिड़ जाते,
गड़बड़-गड़बड़ किए जा रहे
देखो बादल उड़े जा रहे।[5]

सिंधी में किशनचंद बेवस पहले कवि थे जिन्होंने बच्चों की बाल-कल्पनाओं को ध्यान में रखकर सुघड़ कवितायें लिखी हैं। उनकी कवितायेँ तत्कालीन सिंधी भाषा में निकलने वाली पत्रिकाओं ‘गुलिस्तान’ एवं ‘गुलफुम’ में छपती थीं। सिंधी में जो बाल-कवितायें लिखी जाती थीं,उनका उद्देश्य शैक्षिक वातावरण तैयार करने के साथ बच्चों को शिक्षा एवं समाज के प्रति प्रेरित करना भी था। इसका जीवंत उदाहरण एक बाल-गीत में देखसकते हैं -

सवेल सुम्हिजे, सवेल उथिजे,
अवल घणीअ जो नालो गिन्हिजे,
कूड़ न चइजे, डिजे न गारि,
शै चोराए, थिजे न ख्वार,
हिन नसीहत ते जेको हलंदो,
माउ ऐं पीउ खे सोई वणंदो।[6]

उपर्युक्त पंक्तियों में समय पर सोने-उठने एवं प्रभु स्मरण करने की बात कही गयी है। इस तरह यदि देखें तो सिंधी में विरचित साहित्य बच्चों के शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास पर बल देता है। मिर्ज़ा कलीच बेग ने ‘बाराणा शइर’, ‘बारन जे लाइ विदुरं या पिरोलियूं’ नामक बाल-साहित्य रचकर सिंधी में अतुल्य योगदान दिया। कौड़ोमल चंदनमल में बच्चों के लिए ‘टहिक ई टहिक’ लिखकर सिंधी में हास्यपरक बाल-साहित्य की शुरुआत की।

गिरिजाशंकर भगवान जी बघेका जिन्हें गिजू भाई के नाम से जाना जाता है। उन्होंने गुजराती भाषा में बाल-कहानियों के साथ देश-प्रेम आधारित कविताओं की रचना की है। इसके अतिरिक्त नानाभाई भट्ट, हरभाई त्रिवेदी आदि ने भी गुजराती भाषा में बच्चों के कोमल मन को चित्रित किया है। जिससे न केवल गुजराती भाषा समृद्धतम हुई है बल्कि बच्चों को नैतिक रूप से शिक्षित करने में भी अभूतपूर्व सहायता मिली है।

बच्चे किसी भी चीज़ से जल्दी उकता जाते हैं, किसी एक पैटर्न का अनुगमन करने की बजाय बच्चे प्रायः यथोचित परिवर्तन चाहते हैं फिर भले ही छुट्टी ही क्यों न हो ? अक्सर समझा जाता रहा है कि बच्चों को खेल प्रिय है और इसके लिए वह अपनी पढ़ाई-लिखाई तक को दांव पर लगा देते हैं,यह सच भी है। किन्तु हर स्थिति में नहीं। बच्चे मनोवेग से चलते हैं कभी उनका पढ़ने का मन होता है और कभी खेलने का। कोई भी एक मानक उन पर हमेशा नहीं लागू होता। मराठी भाषा में लिखित एक बाल-गीत रोचक है जिसमें बच्चे छुट्टी से ऊब जाते हैं, उनकी एक ही इच्छा है कि जल्दी छुट्टियाँ समाप्त हों और स्कूल खुले ताकि वे पढ़ाई का आनंद ले सकें-

सुट्टीचा आलाय कंटाला
उघडणार तरी कधी शाला ?
गावी गेल्या दोस्तांची याद
काढून काढून झालो वाद
कुणाला सांगू गमती जमती
सुट्टीत आम्ही केल्या किती गमती ![7]

विंदा करंदीकर को वर्ष 2006 का भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। आपने मराठी भाषा में विपुल बाल-साहित्य लिखा है। आपके द्वारा लिखे गये बाल-गीतों में मराठी भाषा का वाग्वैदग्ध्य देखते बनता है। बारिश होने पर जिस तरह मौसम बदलता है और चित्त आर्द्र हो जाता है, उसकी जीवंत प्रस्तुति आपके द्वारा लिखे गीत में दिखती है। बच्चे केवल बारिश देखते ही नहीं बल्कि स्वप्न में भी बारिश को स्मरण कर भींग उठते हैं। विंदा जी ने अपने मराठी गीत में बाल-मान को बखूबी दिखाया है-

स्वप्नामध्ये पडला पाऊस
पावसामध्ये पडल्या गारा
आई म्हणाली, ‘माइया दस’
बाबा म्हणाले, ‘माइया बारा’
आजोबाही लावून दात

पावसामध्ये लागले धावू
आजी बोलली खाटेवरुन
‘आपण दोघे कुट्टन खाऊ।
मला वाटली भीती फार
पडसे विडसे आले तर
म्हटले ओरडून ‘याद राखा’[8]

बच्चों की कल्पना में रेलगाड़ी,मोटर, ईंजन, डिब्बे आदि की कल्पना सहज ढंग से सामने आती है। बच्चे खेल खेलते समय भाँति-भाँति की युक्ति करते हैं, कभी वे इंजन बनते हैं और कभी वे डिब्बे बनते हैं। ‘मुलांचे कवि’ के नाम से चर्चित कवि वा. गो पायदेव की रचना देखने योग्य है जिसमें बच्चे मोटरवाला, इंजन, चोर, भट, मास्टर आदि बनते हैं-

चला सुट्टी झाली
आता खूप खूप खेलायाचे
मी मोटारवाला ! तुम्हीं गाव चला
मी पैसे घेऊन बसवायचे
मी पों पों करीत पोचवायचे।
मी बनेन इंजिन। शिटी जोरात फुंकीन [9]

बाल-काव्य की दृष्टि से राजस्थान भी खूब समृद्ध है। बात यदि मेवाड़ी भाषा की करें तो वहाँ पर्व-त्यौहार आदि से जोड़कर बाल-कविता को देखा जाता रहा है। मेवाड़ क्षेत्र में लड़कियाँ सिर पर मिट्टी के घड़े रखकर घुमाती हैं, इस तरह बहुत सारे बाल-गीत घड़ल्ये को संबोधित हैं। जहाँ बच्चियाँ सिर पर घड़ा नचाती हैं, यही नहीं वह जब-तब घड़ल्ये से बतियाती भी हैं। इस तरह इन गीतों के माध्यम से न केवल राजस्थान की लोक-परम्परा को संजोने का कार्य दिखता है,बल्कि लोकाचार, लोक-अनुष्ठान आदि से जुड़ने की परम्परा भी दिखती है। इस दृष्टि से देखने योग्य है दीपावली की रात्रि में गाया जाने वाला एक चर्चित लोक-गीत जहाँ बच्चियाँ सिर पर घड़ा नचाती हुईं उससे पूछती हैं कि तुम कहाँ जा रहे हो ? तुम्हारा मूल्य क्या है ? घड़ा पूछे गए सभी प्रश्नों का जवाब देता है, स्त्री खुश होकर घड़ल्ये को अपना लाडला कहती है-

घडल्या रे घडल्या कठे चालयो
चाल्यो इ बाई पीली रे खाने
खोदी खोदी ने गुणा में नाली
लींपी चूंपी ने चाकर चणायों
रमझम करती वण्यारी आई
केवे वण्यारी घडल्या रो मोल
सात सुपारी रिपियों रोक
दाव पडे तो दे बाई
नी तर उत्तर दे बाई
थारो बेटो परण पधान्यो
लाख रिप्यारी लाडी लायों
लाड़ी करे सिणगारों
घडल्यो म्हारों लाडलो[10]

बाल-साहित्य की दृष्टि से बांग्ला भाषा अत्यंत समृद्ध है। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर एवं दक्षिणा रंजन मित्र एवं सुकुमार राय आदि ने बाल साहित्य के क्षेत्र में विशेष कार्य किया है। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने ‘बोधोदय’ एवं ‘कथामाला’ नामक पुस्तक लिखकर बाल-साहित्य को समृद्ध किया। बात यदि बाल-काव्य की करें तो योगेन्द्रनाथ की ‘हासिखुशि’, दक्षिणारंजन मित्र की ‘ठाकुमार झुलि’, सुकुमार राय की ‘अबोल ताबोल’ आदि रचनाओं ने बांग्ला भाषा में बाल-काव्य को उच्चतम स्थान दिया है।

भोजपुरी लोक-भाषा में भी विविध बाल-गीत मिलते हैं जिन्हें आगे बढ़ाने में कई कवियों एवं आलोचकों का योगदान रहा है। भोजपुरी पर कार्य करने वाले प्रमुख विद्वान डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने अपनी आलोचनात्मक पुस्तकों द्वारा भोजपुरी भाषा एवं साहित्य का वर्गीकरण तो किया ही है साथ ही मौखिक परम्परा में गाये जाने वाले गीतों का संकलन एवं व्याख्या भी की है जिसे पढ़े जाने की आवश्यकता है ताकि पाठकों को भोजपुरी समाज के बारे में उपयुक्त जानकारी मिल सके। सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली द्वारा वर्ष 2021 में डॉ. स्वर्णलता जी का प्रकाशित शोध-प्रबंध ‘भोजपुरी बालगीत : एक सांस्कृतिक मूल्यांकन’ कई मायनों में विशेष है। यह ग्रन्थ भोजपुरी भाषा में लिखा गया है। इसमें बाल-साहित्य के वर्गीकरण, विवेचन के साथ समग्रता में भोजपुरी क्षेत्र में प्रचलित बाल-सन्दर्भों को काव्य रूप में देखा-समझा गया है जो अन्यतम है। यूँ तो भोजपुरी में कई रचनाकार कार्य कर रहे हैं किन्तु यहाँ हीरा प्रसाद ठाकुर का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है, उन्होंने भोजपुरी में कतिपय रचनाएँ लिखी हैं जो पाठकों के बीच चर्चित रही हैं। भोजपुरी में उनके द्वारा किए जा रहे कार्य की तुलना प्रेमचंद, दिनकर आदि से की जाती रही है। उनके सन्दर्भ में प्रखर भोजपुरी आलोचक शिवदास सिंह जी लिखते हैं कि- “साहित्यकार, लेखक एवं कवि हीरा ठाकुर जी हमारे आधुनिक समाज के भोजपुरी एवं हिंदी साहित्य भाषा के उच्चतम रचयिता हैं। हीरा ठाकुर का दिमाग आज के युग के कंप्यूटर जैसा है। चलते- फिरते, बैठते-सोते, किताबों की रचना कर लेते हैं। आप बाल कवि भी हैं। समाज के सभी बिंदुओं की ओर अपनी रचनाओं के माध्यम से सभी का ध्यान आकर्षित करते हैं।“[11]

हीरा प्रसाद ठाकुर द्वारा विरचित कविता 'रसगुल्ला' कई मायनों में विशेष है। भाव-भाषा एवं शब्द-संवेदना की दृष्टि से यह कविता जहाँ एक और भोजपुरी भाषा की शक्ति को दिखाती है। वहीं इस कविता में भोजपुरी के कवि का नीमन सौन्दर्य-बोध भी बरबस लोक-भाषा के प्रति सहज खिंचाव पैदा करता है-

लाल- लाल रसगुल्ला होखे
गुल-गुल लागे पुल-पुल ढूके।
ढूकते मुँह में गब-गब जाला
रसगर लागे मजा भेंटाला
चमड़ी ओकर रहेला पातर
रहे मोलायम ओकर गातर।
धरते हाथ में पल-पल लागे
जीभ के पहिला रोंवा जागे।[12]

भोजपुरी क्षेत्र में पढ़ाई-लिखाई की महत्ता एवं नौकरी में कलेक्टरी की सार्वग्राहिता जगजाहिर है। कवि हीरा प्रसाद ठाकुर अपने काव्य-संग्रह 'सवदगर सिंघाड़ा' में बच्चों के खेल-कौशल के साथ-साथ खेल-खेल में विद्या अध्ययन को भी चिन्हित करते हैं। वह लिखते हैं-

क के पहाड़ा पढ़ीहs हो बबुआ
कलटर बन के अइबs
च से चमचम खइहs हो बबुआ
ब से बरारी खईबs
ह से हलुआ भेंटाई हो बबुआ
अ से अमरुद खईहs
रा से रामायन पढ़ीहs हो बबुआ
ड से डमरू बजईह [13]

भोजपुरी क्षेत्र श्रम की संस्कृति के लिए जाना जाता है। कवि एवं नाट्यकार भिखारी ठाकुर की तरह कवि हीरा प्रसाद ठाकुर अपनी कविताओं में बच्चों को किसानी-संवेदना से परिचित कराते हैं। उनका मानना है कि बच्चों में खेत-खलिहान के प्रति जुड़ाव पैदा करना बाल-काव्य का विशेष उद्देश्य होना चाहिए ताकि बच्चों को ज़मीन से जोड़ा जा सके, साथ ही उनके मन में गाँव-जवार के प्रति आदर की भावना का विकास किया जा सके। बच्चों को सीख देते हुए अपने कविता संग्रह ‘रसगर बुनिया’ में वह लिखते हैं-

बबुआ बनि जइहs
बरगद के छांव
बिहान होई गांव-गांव में

बलुहट पर हरियर
तू दुबिया उगइहs
रेहियो पर करीहs गुमान
बिहान होई गांव गांव में

गांव के किसनवा
पीसनवा ना हउवन
किसनवा के करीह बढ़ाव
बिहान होई गांव गांव में[14]

प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने वाले ख्यातिलब्ध साहित्यकार जी. शंकर कुरूप जी ने मलयालम भाषा में बाल साहित्य रचकर अपनी विशेष पहचान बनायी है।‘ओलप्पीप्पि’ और ‘इलंचुण्टुकल’ जी.शंकर कुरूप जी की बाल-कविताओं के संग्रह हैं, जिनका मधुर स्वर पाठकों के हृदय को झंकृत कर देता है। यही नहीं मलयालम में पी. कुंजिरामन नायर, अक्कितम आदि रचनाकारों की विशेष साधना का परिणाम है कि मलयालम भाषा में रचित बाल-साहित्य ने न केवल भाव, भाषा एवं कल्पनाशीलता के आधार पर विशेष स्थान प्राप्त किया बल्कि बच्चों को विज्ञान, गणित आदि जटिल विषयों की जानकारी भी सरल भाषा में उपलब्ध कराया ताकि भाव एवं संवेदना के साथ ही साथ उनका वैज्ञानिक चिंतन व्यवस्थित हो सके। सुप्रसिद्ध कवि पाला नारायणन नायर ने ‘अभिनय गानंगल’, ‘अंशु’, ‘मालि’ आदि बाल-काव्यों की रचना की है। बहुत सरल और गीतात्मक शैली में उन्होंने कवितायें लिखी हैं जिनमें बच्चों का मनोहर लोक उद्भासित होता है। मलयालम भाषा के चर्चित साहित्यकार एम. पी. अप्पन ने मलयालम भाषा में अत्यंत कोमल एवं भावपरक गीतों की रचना की है जिन्हें पढ़कर मन रससिक्त हो जाता है। ‘किलिक्कोंचल’ नामक बाल-गीत संग्रह की रचना उन्होंने पक्षियों के कलरव और उस पर आधृत नीति को लेकर की है। श्री के.जी. सेतुनाथ की ‘मषविल्लु’, कनकच्चिनंका’, ‘तलिप्पोलि’ आदि रचनाएँ बच्चों के बीच खूब लोकप्रिय रही हैं। सुकुमारन, नीलंपरूर रामकृष्ण नायर, मात्यूलूक, वी. बालकृष्णन के.एम. चाक्को, ओ.पी. नम्बूदरी पाद, केशवन नंबूदिरि आदि मलयालम भाषा में कार्य करने वाले प्रमुख साहित्यकार हैं। इन्होंने देश-प्रेम, अध्यात्म, परीकथाओं आदि पर खूब काम किया है।

इस तरह भारतीय भाषाओं की बात करें तो भारत की सभी मातृभाषाओं में उम्दा बाल-काव्य लिखा गया है जिसे पढ़कर बच्चों को अपनी मातृभाषा से लगाव तो होता ही है साथ ही बाल-साहित्य के कारण उनके मन-मस्तिष्क एवं आत्मा का सही ढंग से पोषण होता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की सिफारिशों में भी सरकार की ओर से भाषा,कौशल एवं उद्यम पर खूब बात की गयी है। आशा है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के सही ढंग से क्रियान्वयन के बाद विविध क्षेत्रों के साथ बाल-साहित्य में भी खूब सृजन होगा जिससे कि भाषा एवं साहित्य के व्यावहारिक अभिकरणों पर सार्थक कार्य हो सके।

सन्दर्भ :
[1]चन्द्ररेखा ढडवाल,जनमेजय सिंह गुलेरिया, ‘लोकभाव स्वरांजली’, भाग-एक,पृष्ठ संख्या-23
[2]युद्धवीर टंडन (सम्पादक), ‘ज्ञान सरिता’, निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स आगरा, पृष्ठ संख्या-20
[3] गौतम शर्मा 'व्यथित', 'चिड़िया ! कहाँ खो गई तू', पृष्ठ संख्या-24
[4] गौतम शर्मा 'व्यथित', 'चिड़िया ! कहाँ खो गई तू', पृष्ठ संख्या-31
[5]डॉ. एम. पी. सूद(प्रधानसंपादक), हिमप्रस्थ’ पत्रिका, जनवरी-फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या-122
[6]डॉ. सुरेश गौतम मीमांसक एवं सम्पादक), ‘बाल साहित्य कोश’, खण्ड-08, दिव्यम प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ संख्या- 3897
[7]डॉ. सुरेश गौतम मीमांसक एवं सम्पादक), ‘बाल साहित्य कोश’, खण्ड-08, दिव्यम प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ संख्या- 3714
[8]डॉ. सुरेश गौतम मीमांसक एवं सम्पादक), ‘बाल साहित्य कोश’, खण्ड-08, दिव्यम प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ संख्या- 3704
[9]डॉ. सुरेश गौतम मीमांसक एवं सम्पादक), ‘बाल साहित्य कोश’, खण्ड-08, दिव्यम प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ संख्या- 3703
[10]सुरेश गौतम (संपादक), ‘भारतीय बाल साहित्य कोश’, खण्ड-08, दिव्यम प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण : 2014, पृष्ठ संख्या-3951
[11]हीरा प्रसाद ठाकुर, 'बवंडर', भूमिका से
[12]हीरा प्रसाद ठाकुर, 'बवंडर', पृष्ठ संख्या-101
[13]हीरा प्रसाद ठाकुर, 'सवदगर सिंघाड़ा', पृष्ठ संख्या-15-16
[14]हीरा प्रसाद ठाकुर, 'रसगर बुनिया', पृष्ठ संख्या-11-12

चंद्रकांत सिंह
प्रोफेसर(हिंदी विभाग), हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय, धौलाधार परिसर-एक, जिला-कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश-176215

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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