रवीन्द्रनाथ टैगोर की बाल कविताओं में चित्रित भाव सौन्दर्य
- मोती लाल

बीज शब्द : भाव-सौंदर्य, ज्ञान-सौंदर्य, पाठ्य-पुस्तक, बाल-साहित्य, धार्मिकता और देशभक्ति, रूप-सौंदर्य, प्रकृति-सौंदर्य, भारतीय शिक्षा व्यवस्था, नैतिकता और वैज्ञानिकता, चरित्र-निर्माण
मूल आलेख : मानव हृदय, भावनाओं का सागर है।भाव-सौन्दर्य का उद्गमस्थल है। इस सागर में भावनाओं की अनंत लहरें सदैव उठा और गिरा करती हैं। इन लहरों में मनुष्य सदैव गोते लगाता रहता है, जिससे उसका हृदय विस्तार और आनंद दोनों पाता है। ये आनंददाई लहरें सबसे अधिक बचपन में ही पैदा होती हैं क्योंकि इन आनंददाई लहरों के पैदा होने के लिए सबसे अनुकूल परिस्थिति बचपन में ही होती है। मां की गोदी में खेलने से लेकर लगभग कक्षा आठ तक पढ़ने को प्रायः बचपन कहा जाता है। बचपन, मानव जीवन की सबसे अनोखी उम्र है। जिसमें मनुष्य के हृदय में भारी मात्रा में संवेग पैदा होते हैं। इनके कारण भावनाएं और कल्पनाएं आपस में मिलकर बचपन को अनोखा भाव--सौंदर्य प्रदान करती हैं।
पाठ-विश्लेषण -
इन भावनाओं और कल्पनाओं के निर्माण में स्कूलों के पाठ्यक्रम में लगी पुस्तकों का बड़ा योगदान होता है। साहित्य की ये पुस्तकें मनुष्य मन को कल्पनाओं और ज्ञान से भर देती हैं और बच्चों की मानसिक दुनिया एक सुंदर फुलवारी में तब्दील हो जाती है।उनमें भाव-सौन्दर्य और ज्ञान-सौंदर्य साथ-साथ पलने लगता है।दिन-रात इस फुलवारी में ही खेलकर वह बड़ा होता है। इस फुलवारी के एक-एक फूल उसके बचपन को अविस्मरणीय बनाते हैं।भारत में हिंदी पाठ्य पुस्तकों का शुरुआती प्रयास सन 1800 ई. में स्थापित फोर्ट विलियम कॉलेज, कोलकाता ने किया। जिसमें मुंशी लल्लूजी लाल और सदल मिश्र को पाठ्य पुस्तकों के निर्माण की जिम्मेदारी गिल क्राइस्ट ने दी। इस संदर्भ में डॉ. श्री प्रसाद ने आशा गंगोपाध्याय के हवाले से लिखा है- "जिस प्रकार अंग्रेज मिशनरियों ने हिन्दी बाल साहित्य के निर्माण में योग दिया और आगरा बुक सोसाइटी स्थापित की, वैसे ही कलकत्ते में भी सन् 1817 ई. में 'कलकत्ता स्कूल बुक सोसाइटी' की स्थापना की थी। इस संस्था ने भी बंगला में तारिणी चरण मित्र कृत 'नीति कथा' ईसप की कहानियाँ एवं ताराचांददत्त कृत्त 'मनोरंजनेतिहास' जैसी महत्त्वपूर्ण बालकृतियाँ प्रस्तुत कीं।"1(पृ105) तत्पश्चात धीरे-धीरे भारत में पाठ पुस्तकों के निर्माण की प्रक्रिया बढ़ती गई और बंगाल में बच्चों के लिए बहुत सारी पुस्तकें प्रकाशित की गईं। इन बच्चों के मन-मस्तिष्क के निर्माण में रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं का भी महत्वपूर्ण योगदान है। ज्ञान-सौंदर्य इसकी एक बड़ी देन है। जिसका अध्ययन और विश्लेषण किया जाना आवश्यक है।
शुरुआती बाल-साहित्य की पुस्तकें और कविताएं प्रायः धर्म से प्रभावित रही हैं। धार्मिक उपदेश इन कविताओं के मूल आधार रहे हैं। बालमन को समाज के सहयोग हेतु तैयार करने के लिए धार्मिक कविताएं और कथाएं सुनाई जाती थीं, जिससे उनके मन में मनुष्यता का भाव आकार ले सके। रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं में भी इसके तत्व मौजद हैं। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के जमाने तक बाल-साहित्य संबंधी आधुनिककालीन अवधारणा अपने शुरुआती चरण में थी। जिसके कारण उसमें दोनों कालों - मध्यकाल और आधुनिक काल - के तत्व साथ-सथ दिखाई देते हैं। जैसे-जैसे बाल-साहित्य की अवधारणा का विकास हुआ, वैसे-वैसे बाल-साहित्य को लेकर विद्वानों के विकसित विचार आने लगे। ऐसा ही विचार बाल- साहित्यकार और विचारक दिविक रमेश का भी है। वे लिखते हैं-."मेरी दृष्टि में बाल साहित्य से तात्पर्य ऐसे साहित्य से है, जो बालोपयोगी साहित्य से भिन्न रचनात्मक साहित्य होता है अर्थात जो विषय निर्धारण करके शिक्षार्थ लिखा हुआ न होकर बालकों के बीच का अनुभव आधारित रचा गया बाल साहित्य होता है। ...... वह विषय नहीं बल्कि विषय के अनुभव की कलात्मक अभिव्यक्ति होती है।"2( पृ 66) चूंकि रवींद्रनाथ टैगोर का युग रीतिकाल के तुरंत बाद अवतरित हुआ, जिसके कारण उनकी बाल कविताओं में धार्मिकता और देशभक्ति का मणिकांचन सहयोग दिखाई देता है। देशभक्ति, उनके यहां विस्तारपूर्वक स्थान पा सकी है। ज्यादातर बाल कविताएं देशभक्ति की भावना को जगाने वाली हैं। ऐसी ही एक बाल-कविता 'ओ मेरे देश की मिट्टी' में वे लिखते हैं- "ओ मेरे देश की मिट्टी/ओ मेरे , देश की मिट्टी, तुझ पर सिर टेकता मैं /तुझी पर, विश्वमयी का/तुझीपर, विश्व-माँ का आँचल बिछा देखता मैं।।3(पृष्ठ 23) टैगोर की इन पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि कवि, बालमन में देश की मिट्टी के प्रति गहरा भाव पैदा करने की कामना रखता है। ताकि बड़ा होकर जब वह पने देश का नागरिक बने, तो उसे अपने देश की धरती और समाज से गहरा जुड़ाव पैदा हो सके। कवि की कामना है कि जिस देश की धरती ने मेरे मुंह में कौर दिया है, शीतल जल दिया है, मुझे भूख से तृप्त किया है, उस धरती के प्रति मैं सिर टेकता हूं।उसे प्रणाम करता हूं। उसे ही विश्व-मां का आंचल समझता हूं।
रवींद्रनाथ टैगोर की बाल कविताओं में कुछ ऐसी कविताएं भी हैं, जिनका संबंध देश के झरनों, पहाड़ों और प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ यहां के किसान और मजदूर से भी है। उनका कहना है कि हमारे देश में मोती झील का जल है, उसमें तैरने वाले हंसों का कोलाहल है, कहीं कीचड़ में टकटकी बांधे बकुल हैं, तो कहीं उड़ती चील है। जहां-तहां घास भरे मैदान हैं। उनके बीच में तिरछी-आड़ी बहती नदियां हैं। धान भरे खेत हैं। इन खेतों पर पढ़ने वाली धूप के रूप सौंदर्य का क्या कहना! उनकी खूबी बताते नहीं बनती! इस अद्भुत सौंदर्य पर कवि लहालोट है। डोंगी पर बैठे किसान अपनी धान की फसलों को काटकर संध्या पहर जब घर लौटते हैं, तो उनका गान सुनकर कवि-मन मुग्ध हो जाता है। ऐसे देश और समाज का चित्र खींचकर कवि टैगोर बच्चों के मन में अपने देश के प्रति अद्भुत लगाव पैदा करना चाहते हैं। जिससे वे देशभक्त नागरिक बन सकें और देश की जनता से प्यार कर सके। वे जाति, धर्म और लिंग से बाहर निकलकर मनुष्यता की दुनिया रच सकें। अपनी कविता 'नाम उसका मोती झील' में वे लिखते हैं- ."नाम उसका मोती झील/डोंगी पर आयें किसान, काटें पके धान/ साँझ पहर लौटें घर, गाते 'सारी'-गान।"4 (पृ.37) कवि अपनी इन पंक्तियों के माध्यम से भारत देश की एक ऐसी तस्वीर बच्चों के मन में खींच देता है, जिसमें किसान है, उसका खेत है और खेत पर काम करने वाले मजदूर हैं। इन सबसे मिलकर बनी प्रकृति-सौंदर्य बच्चों के मन को मोह लेती है और उसके मन में अपने देश के प्रति अपार लगाव पैदा हो जाता है।
कविताएं, कवि की भावनाओं का संचित प्रतिबिंब होती हैं। बाल साहित्य की रचना करते समय यही संचित प्रतिबिंब साहित्य में उतरता चला जाता है। टैगोर का बचपन हंसी खुशी के साथ महलों में बीता था।दादा से रामकथा सुनी थी।राम-लक्ष्मण का प्रेम कल्पित हुआ था। यह भाव उनकी बाल-कविता 'वनवास' में साफ-साफ उतरा है।एक बिंब देखिए- माँ, मुझको छोटा-सा भाई, दे दे यदि तू एक/ दोनों मिलजुल खूब निभायें, वन बसने की टेक / सिखलायगी मुझे राम की, लीला के सब गान ? / जटा बाँध देगी, हाथों में देगी तीर कमान?/ चित्रकूट पर बीतेंगी ये, बरसातें अभिराम;/ यदि भाई लक्ष्मण सँग-सँग हो, तो वन भी हो धाम।5(पृ 51) रामकथा पर आधारित यह कविता कवि टैगोर के बालमन में बनने वाले बिंब को दर्शाती है। जिसमें राम की जटा,उनके हाथों में तीर कमान और चित्रकूट का अभिराम सौंदर्य सब बसा हुआ है। यही भाव-सौंदर्य उनकी कविता को मार्मिक बनाता है। जिसके लिए उनकी कविता बहुत पढ़ी जाती है। प्रायः बचपन की यादें मनुष्य को जिंदगी भर याद आती रहती हैं। ये बाल-कथाएं, जो दादा-दादी, नाना- नानी से सुनी गई होती हैं, बड़े होकर हमारी स्मृतियों का हिस्सा बन जाती हैं।यही कारण है कि बाल-साहित्य उम्रदराज लोगों द्वारा खूब पढ़ा जाता है और आदर भी पाता है।
कवि टैगोर बचपन में पढ़ने के लिए स्कूल जाना पसंद नहीं करते थे। वे जब भी घर से स्कूल के लिए निकलते थे तो उन्हें रास्ते में एक फेरी-वाला मिल जाया करता था। वह अपने झोले में तमाम प्रकार की मीठी चीजें लिए फिरता था। टैगोर को उसकी आजादी बहुत पसंद आती थी। यही फेरी-वाला उनकी कविता 'अनोखी चाह' में एक चरित्र बनकर उतरता है। कवि टैगोर की अनोखी चाह है कि यदि उनको भी इस फेरी-वाले का काम मिल जाता तो वे भी चूड़ियां और बुत लेकर बेचते। घूमते फिरते। समय पर खाना खाने और स्कूल जाने का प्रतिबंध भी न होता। निश्चित समय पर स्कूल आना-जाना उन्हें बहुत कष्टदाई लगता था। जिसके कारण उन्होंने स्कूली शिक्षा त्याग दी थी और संपूर्ण जीवन घर पर ही रहकर अध्ययन किया था। इसकी छाप उनकी कविता 'अनोखी चाह' में दिखाई देती है- "अपने घर वाली गली से होकर दस बजे जब जाता हूँ मैं शाला/ रोज देखता हूँ मैं : झोला सिर पर लेकर फेरी करता फेरी-वाला/ चिल्लाता है : 'चू-ड़ियाँ ले, बुत ले !' थैली में होते चीनी के पुतले/ फिरता रहता मनमानी राहों पर, जब चाहा घर जा खाना खा डाला / दस बजे या साढ़े दस या ग्यारह, जल्दी 'कभी न होती अथवा देरी / मन करता है बस्ता-स्लेट पटककर इसी तरह से भटकूं करता फेरी।"6( पृ61) भारत विभिन्नताओं का देश है और उसमें विभिन्न समाज और समुदाय के लोग निवास करते हैं। कोई किसान है, कोई मजदूर है। कोई शहर में रहता है, तो कोई गांव में रहता है। कोई आदिवासी है, तो कोई दलित है। बाल साहित्य के रचनाकारों की यह जिम्मेदारी है कि वे हर तरह के हर समाज के बच्चों के लिए बाल साहित्य रचे। बाल साहित्य के मर्मज्ञ दिविक रमेश का कहना उचित है-"आज के कुछ साहित्यकारों का उस ओर ध्यान है लेकिन कल लिखे जाने वाले साहित्य में और ध्यान दिया जाना अपेक्षित है। अपने-अपने अनुभव के दायरे के बच्चों के बालमन को समझते हुए रचना होगा। ग्रामीण परिवेश के बच्चों के साथ-साथ आदिवासी बच्चों तक ठीक से पहुंचना होगा। अभी यह चुनौती है।"7(पृ68) ऐसी परिस्थिति में समकालीन बाल-साहित्यकारों की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि वे अपनी रचनाओं में अंधविश्वास की जगह पर वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दें। दिविक रमेश ने लिखा है-" आज के बालक को कल्पना विश्वसनीयता की बुनियाद पर खड़ी चाहिए अर्थात वह 'ऐसा भी हो सकता है' अथवा 'ऐसा भी हुआ होगा' के दायरे में होनी चाहिए। "8(पृ66) सारांश यह है कि 19वीं शताब्दी के अंत में और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में कवि टैगोर अपनी बाल-कविताओं के सहारे जिन मुद्दों और सवालों की ओर ध्यान खींच रहे थे, उनमें शिक्षा संबंधी सवाल भी आते थे।जो बच्चों में वैज्ञानिक सोच ला रहे थे। शिक्षा के माध्यम से ही समाज में नैतिकता और वैज्ञानिकता भी आ सकती है, यही बात आगे चलकर दिविक रमेश भी कह रहे हैं। इससे स्पष्ट होता है कि बाल-साहित्य बच्चों में भाव-सौन्दर्य के साथ- साथ जागरूकता भी पैदा करता है।
कवि रवींद्रनाथ टैगोर रटंत विद्या के घोर विरोधी थे। उन्हें लगता था कि स्कूल आना जाना बेकार है, क्योंकि बच्चों की इच्छा के विरुद्ध वहां उन्हें दंडपूर्वक रोक कर रखा जाता है।उन्हें शिक्षा के नाम पर प्रताड़ित किया जाता है। उनका मानना था कि शिक्षा वही उचित है, जिसे बच्चे सहज रूप से स्वीकार करें। वे अपनी कविता 'मास्टर साहब' के माध्यम से तत्कालीन शिक्षा-प्रणाली के दोष बता रहे हैं- "आज तो मैं हूँ कन्हैया मास्टर चटिया मेरा है बिल्ली का छौना ! /इस पर थोड़े ही पड़ती है बेंत, माँ, डंडा तो है यों ही एक डरौना।/आने में देरी करता है रोज यह,पढ़ने में जी देता नहीं दिखाई।/बक-बक मरता मैं, पर यह तो केवल दायाँ पाँव उठाकर भरे जम्हाई।/ रात-दिन बस खेल खेल खेल, पढ़ने-लिखने मैं है बिलकुल बैल; /मैं कहता, 'पढ़ च छ ज झ ञ', वह कहता बस, 'म्याऊँ म्याऊँ म्यंऽ !'9 (पृ-70)दरअसल बाल साहित्यकार पशु-पक्षियों के बहाने बच्चों के मन की बात को उठाते हैं और मौजूदा व्यवस्था में पाई जाने वाली कमजोरियों को चिन्हित करते हुए उन्हें दर्शाते हैं। यही बात कवि रवींद्रनाथ टैगोर की इस कविता में दिखाई देती है। दिविक रमेश इसी बात को समझाते हुए लिखते हैं- "" वस्तुत आज वैज्ञानिक सोच या दृष्टि पर बल दिया जाता है और वह आज के हिंदी के उत्कृष्ट बाल साहित्य में बराबर मिलती है। भले ही वह राजा-रानी, परियों, पशु-पक्षियों आज किन्हीं से भी जुड़े अनुभवों से प्रेरित क्यों न हो। आज का श्रेष्ठ बालसाहित्यकार पहले की सोच के अनेक बालसाहित्यकारों से इस दृष्टि से भी भिन्न है"10(पृ 66) आलोचक और लेखक दिविक रमेश का विचार है कि बाल-साहित्य में राजा-रानी, पशु-पक्षी का आना बुरा नहीं है बल्कि उनके माध्यम से अंधविश्वासों को स्थापित किया जाना गलत बात है। इससे बाल-साहित्य कमजोर होता है। उनका मत है कि बाल-साहित्य, राजा-रानी, पशु-पक्षी आदि के माध्यम से समाज में वैज्ञानिक समझ विकसित करता है। जिस साहित्य में यह गुण समाहित होता है, वह उत्तम बाल-सहित्य माना जाता है। कवि रवींद्रनाथ टैगोर की कविता 'मास्टर साहब' बिल्ली के माध्यम से शिक्षा-प्रणाली पर सवाल उठा रही है और हमें अपनी शिक्षा-व्यवस्था में सुधार करने को प्रेरित भी कर रही है। इतना ही नहीं, बाल साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से बच्चों में नैतिक दिशा भी पैदा करता है। लेकिन केवल नैतिक शिक्षा का उपदेश देने के लिए लिखा गया साहित्य, बाल साहित्य की श्रेणी में नहीं आता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाटक 'सत्य हरिश्चंद्र' अपने जमाने में बच्चों में बहुत लोकप्रिय हुआ, क्योंकि उसने बच्चों में सत्य के प्रति गहरा लगाव पैदा किया। इसे चिन्हित करते हुए डॉ. श्रीप्रसाद ने भारतेन्दु हरिश्चंद्र के हवाले से लिखा है- "बालकों के मन में सत्य की प्रतिष्ठा ही प्रस्तुत रूपक का उद्देश्य है। बाल साहित्य का बहुत सा अंश मुख्यतः प्राचीन बाल जीवन का दिशा निदेशक है। ऐसे साहित्य की रचना के पीछे यह मनोवृत्ति काम करती है कि बाल्यावस्था के प्रारम्भिक वर्ष निर्माण और संस्कार ग्रहण के वर्ष हैं। उस समय उनके व्यक्तित्त्व का जिस भूमि पर निर्माण होता है, वह भविष्य में सदा बनी रहती है। यह धारणा दुधारी तलवार है, क्योंकि ऐसा मान लेने पर रूखे, नीरस और उपदेशवादी साहित्य के निर्माण की सम्भावना बढ़ जाती है। हिन्दी में आज बाल साहित्य के नाम पर एक वर्ग द्वारा ऐसा घिसा-पिटा साहित्य काफी दिया जा रहा है। संसार का प्रारम्भिक बाल साहित्य सुधार और निर्माणवादी है।"11(पृ110) संक्षेप में कहें तो यह कि बाल साहित्य मनुष्य के चरित्र निर्माण का साहित्य है। इसलिए इसमें सदैव सुधार की आवश्यकता बनी रहती है।
नाटकों की रचना की दृष्टि से विचार करें तो पाते हैं कि रवींद्रनाथ टैगोर ने भी बच्चों हेतु बाल नाटक लिखे हैं। उन्हें में से एक नाटक 'लक्ष्मी की परीक्षा'। जिसमें एक नौकरानी और उसकी मालकिन तथा कुछ दासियों का चरित्र-चित्रण है। बचत न करने के कारण नाटक के दूसरे हिस्से में नौकरानी, मालकिन बन जाती है और मालकिन, नौकरानी बन जाती है। नाटक का संदेश यह है कि मनुष्य को सदैव बचत करके चलना चाहिए। बच्चों में बचत की आदत पैदा करने के लिए लिखा यह नाटक बहुत अच्छा संदेश देता है। इसकी 'क्षीरो' नामक नौकरानी पात्र कहती है - "भोजन भूख-अधीन नहीं हैं काशीजी ! /लाखों भुक्खड़ फिरते हैं मारे-मारे/क्यों न अन्न उनके मुँह में आ जाता रे ? / दुखियों, कंगालों और उठाईगीरों को/ खेतिहरों, मोटियों, अनाथ फ़क़ीरों को / कभी भूख की कमी हुई हो, नामुमकिन ! /चन्द्रपूड़ियाँ उन्हें नसीब नहीं लेकिन !/ गाँठ बाँध ले किस पदार्थ की क्या दर है ! /12(पृ 128) घर की नौकरानी क्षीरो घर के बच्चों को समझा रही है कि तुम लोग भी बचत करना सीखो। नहीं तो, एक दिन ऐसा भी जीवन में आ जाएगा कि तुम एक-एक समान के लिए तरसोगे। मां-बाप का अनुभव बहुत होता है लेकिन उनके बाल बच्चे उनके इस अनुभव का लाभ नहीं लेना चाहते हैं। यह आज के समाज की एक बड़ी समस्या है। रवींद्रनाथ टैगोर का यह बाल-नाटक इस बात का संदेश देता है कि हमें अपने बड़े बुजुर्गों के अनुभव का लाभ लेना चाहिए। बड़े बुजुर्ग यह बता रहे हैं कि बचत करके चलने में ही भविष्य सुरक्षित रहता है। सिर्फ इतना ही नहीं, बदलते समाज के अनुसार बड़े बुजुर्गों को भी अपना विचार बदलना पड़ेगा। एक बार फिर बाल साहित्यकार दिविक रमेश लिखते हैं - "मैं समझता हूं कि आज जरूरत बच्चों को ही शिक्षित करने की नहीं है, बड़ों को भी शिक्षित करने की है। इसलिए बाल साहित्यकार के समक्ष यह भी एक बड़ी और दोहरी चुनौती है। वस्तुतः सजग लोगों के सामने मूल चिंता यह भी रही है कि कैसे रूढ़ियों में जकड़े मां-बाप और बुजुर्गों की मानसिकता से आज के बच्चे को मुक्त कराके समयानुकूल बनाया जाए।"13(69) सारांश यह है कि बदलते हुए समाज के अनुसार बाल साहित्य की रचना करना ही उचित है क्योंकि बच्चों के हृदय पर पड़ने वाला प्रभाव आजीवन बना रहता है। ऐसे में उनके हृदय में उठने वाली भावनाएं बहुत कुछ उनके जीवन की दिशा को तय करती हैं।
निष्कर्ष : रवींद्रनाथ टैगोर के बाल-साहित्य के अध्ययन-विश्लेषण से पता चलता हैं कि बच्चों का हृदय अधिक संवेदनशील होता है। इसलिए बाल-साहित्य रचते समय साहित्यकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसमें भाव-सौंदर्य के साथ-साथ ज्ञान-सौंदर्य भी निहित हो। जब तक ज्ञान, सौंदर्यपूर्ण तरीके से प्रस्तुत नहीं किया जाएगा, वह बच्चों पर प्रभावी नहीं होगा। टैगोर की कविताएं भाव-सौंदर्य के साथ-साथ ज्ञान-सौंदर्य से परिपूर्ण है, इसीलिए इतनी प्रभावी हैं कि आज भी बच्चों में लोकप्रिय बनी हुई हैं।
संदर्भ :
1. हिंदी बाल साहित्य की रूपरेखा, लेखक- डॉ. श्रीप्रसाद, लोक भारती प्रकाशन, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, संस्करण 1985, पृष्ठ- 105
2.बाल साहित्य: नया चिंतन, नया प्रतिमान,लेखक- दिविक रमेश, इंद्रप्रस्थ भारती (बाल साहित्य विशेषांक), नवंबर-दिसंबर 2023, संपादक- संजय कुमार गर्ग, हिंदी अकादमी, किशनगंज, दिल्ली, पृष्ठ- 66
3. रवीन्द्रनाथ का बाल साहित्य( भाग 1), संपादक- लीला मजुमदार, क्षितीश राय, अनुवादक युगजीत नवल पुरी, साहित्य अकादमी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1997, पृष्ठ-23
4.रवीन्द्रनाथ का बाल साहित्य( भाग 1), संपादक- लीला मजुमदार, क्षितीश राय, अनुवादक युगजीत नवल पुरी, साहित्य अकादमी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1997, पृष्ठ-37
5.रवीन्द्रनाथ का बाल साहित्य( भाग 1), संपादक- लीला मजुमदार, क्षितीश राय, अनुवादक युगजीत नवल पुरी, साहित्य अकादमी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1997, पृष्ठ-51
6.रवीन्द्रनाथ का बाल साहित्य( भाग 1), संपादक- लीला मजुमदार, क्षितीश राय, अनुवादक युगजीत नवल पुरी, साहित्य अकादमी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1997, पृष्ठ-61
7.बाल साहित्य: नया चिंतन, नया प्रतिमान,लेखक- दिविक रमेश, इंद्रप्रस्थ भारती (बाल साहित्य विशेषांक), नवंबर-दिसंबर 2023, संपादक- संजय कुमार गर्ग, हिंदी अकादमी, किशनगंज, दिल्ली, पृष्ठ- 68
8.बाल साहित्य: नया चिंतन, नया प्रतिमान,लेखक- दिविक रमेश, इंद्रप्रस्थ भारती (बाल साहित्य विशेषांक), नवंबर-दिसंबर 2023, संपादक- संजय कुमार गर्ग, हिंदी अकादमी, किशनगंज, दिल्ली, पृष्ठ- 66
9.रवीन्द्रनाथ का बाल साहित्य( भाग 1), संपादक- लीला मजुमदार, क्षितीश राय, अनुवादक युगजीत नवल पुरी, साहित्य अकादमी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1997, पृष्ठ-70
10.बाल साहित्य: नया चिंतन, नया प्रतिमान,लेखक- दिविक रमेश, इंद्रप्रस्थ भारती (बाल साहित्य विशेषांक), नवंबर-दिसंबर 2023, संपादक- संजय कुमार गर्ग, हिंदी अकादमी, किशनगंज, दिल्ली, पृष्ठ- 66
11.हिंदी बाल साहित्य की रूपरेखा, लेखक- डॉ. श्रीप्रसाद, लोक भारती प्रकाशन, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, संस्करण 1985, पृष्ठ-110
12.रवीन्द्रनाथ का बाल साहित्य( भाग 1), संपादक- लीला मजुमदार, क्षितीश राय, अनुवादक युगजीत नवल पुरी, साहित्य अकादमी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1997, पृष्ठ-128
13.बाल साहित्य: नया चिंतन, नया प्रतिमान,लेखक- दिविक रमेश, इंद्रप्रस्थ भारती (बाल साहित्य विशेषांक), नवंबर-दिसंबर 2023, संपादक- संजय कुमार गर्ग, हिंदी अकादमी, किशनगंज, दिल्ली, पृष्ठ- 69
मोती लाल
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, राजीव गांधी विश्वविद्यालय।
moti.lal@rgu.ac.in 8318267725
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
एक टिप्पणी भेजें