शोध सार : प्रवासी भारतीयों के ऐतिहासिक विकास में भारत को दुनिया भर में सबसे बड़ी प्रवासी जनसंख्या का संरक्षण करने वाले देशों में से एक के रूप में जाना जाता है। भारतीय प्रवासियों के ऐतिहासिक विकास में दुनिया के विभिन्न देशों-विशेषकर मध्य एशिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप, दक्षिण अफ्रीका और रूस में प्रवास का एक लंबा रिकॉर्ड है। भारत में प्रवास का ऐसा इतिहास ईसा की पहली शताब्दी के आसपास सम्राट कनिष्क के शासन काल के शुरुवात से ही प्रारंभ बताया जाता है। उस समय उन्हें "जिप्सी" के रूप में जाना जाता था और उनमें से अधिकांश भारत में, जिसे आज राजस्थान कहा जाता है, वहां जाकर बस गए। वे बेहतरी की उम्मीद में यूरोप के उत्तर और पश्चिम में चले गए और वहीं बस गए। इस तरह का एक और प्रवास चोलों के शासनकाल में दर्ज किया गया है; जो लगभग 500 ई. में दक्षिण पूर्व एशिया में शुरू हुआ था, जिसे आज इंडोनेशिया एवं मलेशिया के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार के प्रवास का प्रभाव दक्षिण पूर्व एशिया में मजबूती से देखा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक भारत प्रवासियों और अप्रवासी समुदायों के लिए जन्म देने वाला सबसे बड़ा देश है।
बीज शब्द : भारतीय, प्रवासी, अप्रवासी, डायस्पोरा, समुदाय, इतिहास, यात्रा एवं महत्व।
मूल आलेख : उल्लेखनीय है कि भारत छोड़कर विश्व के दूसरे देशों में जो लोग जाकर बस गए, उन्हें प्रवासी भारतीय कहते हैं। यहाँ भारतीय “डायस्पोरा” का अर्थ समझ लेना आवश्यक है। मूल रूप से 'डायस्पोरा' शब्द ग्रीक मूल का है (इसका अर्थ है - बीजों का बिखराव) और इसका उपयोग मातृभूमि से दूर यहूदियों के सामूहिक आंदोलन को संदर्भित करने के लिए किया जाता था। समकालीन समय में डायस्पोरा का तात्पर्य विभिन्न कारणों से अपनी मातृभूमि से दूर रहने वाले लोगों से है(Cohen & Cohen, 1997)। अत: भारतीय प्रवासी का अर्थ उन लोगों का समूह है जो वर्तमान में भारत से बाहर (अस्थायी या स्थायी) रह रहे हैं तथा जो अपनी उत्पत्ति को भारत में खोज सकते हैं। ये वर्तमान में विश्व के कई देशों में निवास करते हैं।
भारतीय डायस्पोरा को तीन वर्गों में बांटा गया था
-
1.नॉन रेजिडेंट इंडियन (NRI) : ऐसे भारतीय नागरिक जो रोजगार अथवा शिक्षा के लिए अस्थायी रूप से 6 महीने के लिए दूसरे देश में चले गए गए हों। इनमें से कुछ भारतीय नागरिक विदेश में ही बस जाते है और उस देश की नागरिकता प्राप्त कर लेते है, ऐसे लोगो को NRI(नॉन रेजिडेंशियल इंडियन) कहा जाता है(Dalal, 1993)।
2. पर्सन ऑफ इंडियन ओरिजिन (PIO) : एक ऐसा व्यक्ति जो जन्म से अथवा वंश से तो भारतीय है, किन्तु वह भारत में रहता नहीं है(Naujoks, 2013)।
3. ओवरसीज सिटीजन ऑफ इंडिया (OCI) : ऐसे व्यक्ति जो 26 जनवरी 1950 को अथवा उसके बाद भारत के नागरिक थे या उस तिथि पर भारत का नागरिक बनने योग्य थे या 15 अगस्त, 1947 के बाद भारत का हिस्सा बने किसी क्षेत्र से संबंधित थे अथवा ऐसे व्यक्ति का बच्चा या पोता, जो अन्य मानदंड पूरे करता हो। भारतीय उत्त्पत्ति के विदेशी नागरिकों के लिए पहली बार वर्ष 2002 में PIO कार्ड को लॉन्च किया गया था। इसका उद्देश्य विदेशों में रह रहे भारतीयों को उनकी तीसरी पीढी से जोड़ना था। OCI कार्ड को 2005 में लागू किया गया था। इसमें PIO कार्ड की तुलना में ज्यादा लाभ दिए गए थे। यह कार्ड जीवनभर के लिए मान्य था। 2015 में PIO कार्ड स्कीम को भारत सरकार ने वापस ले लिया और इसे OCI में मिला दिया। विदित है कि अप्रैल 2022 में लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने बताया था कि 1 जनवरी 2015 से 30 सितंबर 2021 के बीच करीब 9 लाख लोगों ने भारतीय नागरिकता छोड़ दी है। यानी हर रोज करीब 350 भारतीय देश की नागरिकता छोड़ रहे हैं(Maharaj & Mahase, 2021)।
प्रवासी भारतीय लगभग विश्व के 48 देशों में रहते है। इनकी जनसँख्या लगभग 4.7 करोड़ से अधिक होने का अनुमान हैं, इनमें से कई देशों (संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त अरब अमीरात, श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीका, सऊदी अरब, म्यांमार, मलेशिया, कुवैत और कनाडा) में लगभग 10 लाख से अधिक प्रवासी भारतीय वहाँ की औसतन जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा वहाँ के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। वस्तुतः ये लोग वहाँ की आर्थिक व राजनीतिक दशा तथा दिशा को काफ़ी हद तक प्रभावित करते हैं। इन देशों में उनकी आर्थिक, शैक्षणिक तथा व्यावसायिक निपुणता का आधारभूत ढांचा काफी मजबूत है। वे विभिन्न देशों में रहते हैं, अलग भाषा बोलते हैं परन्तु वहां के विभिन्न आर्थिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक क्रियाकलापों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रवासी भारतीयों को अपनी सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने के कारण ही एक साझा पहचान मिली है तथा यही कारण है जो उन्हें अपनी उत्त्पत्ति स्थल से गहरे से जोड़ता है। जहां-जहां प्रवासी भारतीय बसे, वहाँ उन्होंने आर्थिक तंत्र को दृढ़ता प्रदान की और बहुत कम समय में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। वे मजदूर, व्यापारी, शिक्षक अनुसंधानकर्ता, खोजकर्ता, डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, प्रबंधक, प्रशासक आदि के रूप में दुनियाभर में स्वीकार किए गए हैं। प्रवासियों की सफलता का श्रेय उनकी निष्ठा, परंपरागत सोच, सांस्कृतिक मूल्यों और शैक्षणिक योग्यता एवं दक्षता को दिया जा सकता है। कई देशों में वहाँ के मूल निवासियों से अपेक्षाकृत भारतवंशियों की प्रति व्यक्ति आय अधिक है। विश्व स्तर पर सूचना तकनीक के क्षेत्र में क्रांति में इनकी महती भूमिका रही है, जिस कारण भारत की विदेशों में छवि मजबूत हुई है। प्रवासी भारतीयों के योगदानों एवं सफलता के कारण भी आज भारत विश्व में आर्थिक महाशक्ति के रूप में मजबूती से उभर रहा है(Sahoo & Kadekar, 2012)।
इतिहास यात्रा :
भारतीय प्रवासी एक वैविध्यपूर्ण, विषम और उदार अंतर्राष्ट्रीय समुदाय है, जो विभिन्न प्रकारों,स्वरूपों, भूगोलों और निर्माण अवधियों का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए उन्हें शामिल करने तथा भारत के साथ जुड़ने के लिए विविध और विशिष्ट दृष्टिकोण की आवश्यकता है। जो सामान्य धागा उन्हें एक सूत्र में बांधता है ,वह भारत का विचार (आइडिया ऑफ़ इंडिया) और उसके आंतरिक मूल्य हैं। प्रवासी भारतीयों ने, जिसमें सभी महासागरों और महाद्वीपों में फैले भारतीय मूल के लोग और अनिवासी भारतीय शामिल हैं, अपने निवास के देशों में महत्वपूर्ण योगदान देकर विश्व भर में ज्ञान, नवाचार और विकास के क्षेत्र में अपना लोहा मनवाया है(Safran et al., 2013)।
ऐतिहासिक दृष्टि से भारत से लोगों का प्रसार और भारतीय प्रवासी समुदायों का गठन विभिन्न कारणों से सैकड़ों वर्षों में प्रवास की विभिन्न लहरों की परिणति है। व्यापारिकता के तहत गुलामी, उपनिवेशवाद के तहत अनुबंधित श्रम तथा उपनिवेशवाद के बाद अतिथि कार्यक्रम तथा वैश्वीकरण की प्रक्रियाओं पर सवार लोगों की इस अंतरराष्ट्रीय भागीदारी को परिवारों, दोस्तों और व्यवसायों के वैश्विक नेटवर्क के माध्यम से मजबूत किया है तथा सामाजिक ,आर्थिक,सांस्कृतिक हितों के साझा विचारों को सक्षमता प्रदान की है। यदि सूदूर इतिहास में पीछे मुड़कर देखें तो भारतीय डायस्पोरा का गठन परीक्षणों, कठिनाइयों, दृढ़ संकल्प तथा कठिन परिश्रम की एक आकर्षक वीर गाथा बनाता है। यह सभी भारतीयों को गौरवान्वित करता है जब प्रवासी भारतीय समुदाय को उसकी कार्य संस्कृति, अनुशासन और स्थानीय समुदाय के साथ सफल एकीकरण के लिए उतना ही सम्मान एवं महत्व दिया जाता है जितना कि उनके निवास के देशों में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए दिया जाता है(Jayaram & Atal, 2004)। काफी हद तक प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने वाला यह समुदाय मेजबान देशों में एक बेहद सफल एवं समृद्ध प्रवासियों का प्रतिनिधित्व करता है, जिसके कई प्रतिनिधि वहां के शीर्ष पदों पर हैं।यही कारण है कि हम उन्हें भारत के लिए एक महत्वपूर्ण रणनीतिक संसाधन के रूप में देखते हैं।
भारत से समकालीन प्रवाह दो प्रकार के हैं -
• पहला, तृतीयक क्षेत्र और उच्च शैक्षिक योग्यता वाले अत्यधिक कुशल पेशेवरों, श्रमिकों और छात्रों का सर्वाधिक उन्नत ओईसीडी देशों, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में प्रवास है। बेहतर करियर संभावनाओं तथा जीवनयापन की तलाश में यह प्रवाह भारतीय स्वतंत्रता के बाद शुरू हुआ और 1990 के दशक में आईटी पेशेवरों के प्रवास के साथ गति पकड़ लिया(Kuptsch et al., 2006)।
• दूसरा, अकुशल और अर्ध-कुशल श्रमिकों का प्रवाह था जो ज्यादातर खाड़ी देशों और मलेशिया में जा रहे थे जो खाड़ी देशों में तेल के मूल्यों में उछाल के बाद, मुख्य रूप से प्रवाह केरल और अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों से था। हाल ही में, भारत में उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे उत्तरी राज्य अग्रणी राज्यों के रूप में उभरे हैं(Rajan, 2016)।
भारतीय सदियों से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में प्रवास करते रहे हैं और भारतीय साम्राज्य प्राचीन काल से ही समुद्र पार तक फैले हुए थे। भारतीयों के कुछ शुरुआती प्रवासन का पता व्यापार एवं धार्मिक संपर्कों के लिए ग्रीक जैसी सभ्यताओं से लगाया जा सकता है,
"बंगाल के पाल इंडोनेशिया के शैलेन्द्र राजाओं के संपर्क में थे। मध्य युग में, भारतीय प्रवासियों ने सबसे पहले अकुशल श्रम की शुरुआत की। भारतीय व्यापारी कॉलोनी की स्थापना 1610 में रूस का वोल्गा-ज़ारडोम नामक स्थान पर की गई थी”(Dwivedi, 2022)। रूसी इतिहासकारों ने 18वीं शताब्दी में मॉस्को और सेंट पीटर्सबर्ग में हिंदू व्यापारियों की उपस्थिति की सूचना दी थी।
औपनिवेशिक काल : 1830 से 1930 के दशक तक ब्रिटिश शासन और इसका प्रभाव भारत में आर्थिक पिछड़ेपन के रूप में उभरा, जिसके परिणामस्वरूप बेरोजगारी फैली। 1830 के दशक में अंग्रेजों द्वारा गुलामी पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जिससे ब्रिटिश और यूरोपीय उपनिवेशों के चीनी बागानों में श्रमिकों की गंभीर कमी पैदा हो गई। फलस्वरूप भारत और एशिया के अन्य हिस्सों से श्रम के अनुबंध रूप को जन्म मिला।
फिर इंडेंट्योर(Indenture) प्रणाली शुरू की गई, जहां एक श्रमिक को 5 साल के लिए राज्य विनियमित श्रम का लेबल दिया जाता था। जिसमें नियोक्ता को नियोक्ता अथवा रोजगार, निश्चित मजदूरी आदि को बदलने से इनकार करने का अधिकार होता था। औपनिवेशिक काल में गिरमिटिया श्रम के अलावा, ऐसे प्रवासी भी थे जो अपने स्वयं के खर्चों का भुगतान करते थे तथा छात्रों, व्यापारियों और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण व्यक्तियों की तरह बाहर चले जाते थे। उन्नीसवीं सदी में, भारतीय गिरमिटिया मजदूरों को दुनिया के विभिन्न हिस्सों में ब्रिटिश उपनिवेशों में ले जाया गया था(Dunning, 1989)। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के समावेश को पूरी दुनिया में आधुनिक भारतीय प्रवासी के अस्तित्व के साथ जोड़ा जा सकता है। 20वीं सदी की शुरुआत में कई गुजराती व्यापारी बड़ी संख्या में पूर्वी अफ्रीका चले गए जैसे कि यह उनके पूर्वजों का अनुकरण हो। फिजी, मॉरीशस, गुयाना, त्रिनिदाद, सूरीनाम, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका, न्यूजीलैंड जैसी जगहें अनूठे तरीके से छोड़े गए भारतीय आप्रवासन के पदचिन्ह हैं। बोअर युद्ध, दो विश्व युद्धों सहित विदेशों में लड़े गए कई युद्धों में 20 लाख से अधिक भारतीय लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्य की ओर से लड़ाई लड़ी तथा कुछ उस भूमि पर दावा करने के लिए वहीं रह गए, जिस पर उन्होंने लड़ाई लड़ी थी।
भारतीय प्रवासियों का महत्त्व
/ योगदान -
भारत की सॉफ्ट पावर में वृद्धि : भारतीय डायस्पोरा (Indian Diaspora) कई विकसित देशों में सबसे समृद्ध अल्पसंख्यकों में से एक हैं। "प्रवासी कूटनीति" में इन प्रवासियों की प्रभावी भूमिका का महत्त्व स्पष्ट है जिसके तहत वे भारत और अपने प्रवास के देशों के बीच संबंधों को मज़बूत करने में एक पुल के रूप में कार्य करते हैं। भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौता इसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों द्वारा इस परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिये सफलतापूर्वक तरफदारी की गई। इसके अलावा भारतीय प्रवासी केवल भारत की सॉफ्ट पावर का हिस्सा ही नहीं हैं, बल्कि पूरी तरह से हस्तांतरणीय राजनीतिक वोट बैंक भी हैं। साथ ही भारतीय मूल के बहुत से लोग अनेक देशों में शीर्ष राजनीतिक पदों पर कार्यरत हैं, जो संयुक्त राष्ट्र जैसे बहुपक्षीय संस्थानों में भारत के राजनीतिक एवं कूटनीतिक प्रभुत्व को बढ़ाता है(Jayaram & Atal, 2004)।
आर्थिक सहयोग : भारतीय प्रवासियों द्वारा भेजे गए धन का भुगतान संतुलन (Balance of Payment) पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जो व्यापार घाटे को कम करने में सहयोग करता है। विश्व में भारत प्रवासियों द्वारा सर्वाधिक प्रेषित धन प्राप्त करने वाला देश है। अकुशल श्रमिकों के प्रवासन (विशेषकर पश्चिम एशिया की तरफ) ने भारत में प्रच्छन्न बेरोज़गारी को कम करने में सहायता की है। इसके अलावा प्रवासी श्रमिकों ने भारत में परोक्ष सूचनाओं, वाणिज्यिक, व्यावसायिक विचारों, नवाचारों एवं प्रौद्योगिकियों के प्रवाह को सरल बनाया है।साथ ही प्रवासी मेजबान देश को भी लाभ पहुंचाते है। किसी भी देश अथवा राज्य में प्रवासी श्रम बल के रूप में नियोजित होते हैं। प्रवासी लोग अपने आर्थिक योगदान से किसी देश और क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने हेतु अपनी महती भूमिका निभाते हैं। इसके साथ ही वह कुछ क्षेत्र विशेष में वस्तुओं, सेवाओं इत्यादि की मांग को भी बढ़ावा देते हैं जिसका लाभ प्रवासियों के मूल देश को भी प्राप्त होता है। ध्यातव्य है कि प्रवासी लोगों के श्रम बल में नियोजन निम्न कौशल के क्षेत्र से उच्च कौशल के क्षेत्र तक में होते हैं(Migration, 2008)।
सांस्कृतिक योगदान : वैश्वीकरण के इस दौर में प्रवासी लोगों के माध्यम से सांस्कृतिक आदान-प्रदान के द्वारा वैश्वीकरण के तत्वों को लगातार बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे सांस्कृतिक सामंजस्य स्थापित होता है तथा दो विभिन्न समाज एक-दूसरे के करीब आते हैं। प्रवासन का कार्य मात्र भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं है बल्कि यह एक सांस्कृतिक विस्तार भी है। सिख समुदाय भारत के सबसे बड़े प्रवासियों में से एक है। ये यू.के., कनाडा और अन्य कई देशों में निवास कर रहे हैं एवं भारतीय संस्कृति से पूरे विश्व को परिचित करा रहे हैं(Tatla, 2005)।
वैश्विक कद में वृद्धि : प्रवासी भारतीयों के समर्थन से तथा भविष्य में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता एक वास्तविकता बन सकती है। भारत ने 2017 में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी की पुनः नियुक्ति के लिये संयुक्त राष्ट्र में दो-तिहाई मत हासिल कर अपने राजनयिक प्रभाव का बेहतरीन प्रदर्शन किया था । राजनीतिक दबाव, मंत्रिस्तरीय और राजनयिक स्तर की पैरवी के अलावा भारत सुरक्षा परिषद की सदस्यता का समर्थन करने के लिये विभिन्न देशों में मौजूद अपने प्रवासी भारतीय समुदाय का लाभ उठा सकता है(Liu & Racherla, 2019)।
प्रवासी भारतीय समुदाय को जोड़ने में सरकार की भूमिका :
भारत सरकार ने दुनिया भर में भारतीय प्रवासियों को शामिल करने के लिए कई पहल की है। प्रमुख पहल प्रवासी भारतीय दिवस है, जो दुनिया में सबसे बड़े प्रवासी कार्यक्रमों में से एक है। ओआईए मंत्रालय क्षेत्र, जाति या धर्म के आधार पर कार्यक्रम आयोजित नहीं करता है। प्रवासी भारतीय दिवस के अलावा, यह मंत्रालय क्षेत्रीय प्रवासी भारतीय दिवस, भारत को जानो कार्यक्रम, भारत अध्ययन कार्यक्रम, प्रवासी बच्चों के लिए छात्रवृत्ति कार्यक्रम, जड़ों का पता लगाने जैसे कई अन्य कार्यक्रमों का आयोजन करता है और पात्र आवेदकों के लिए भारत के प्रवासी नागरिक (ओसीआई) कार्ड जारी करता है। विदेश में भारतीय प्रवासी चाहे किसी भी क्षेत्र, जाति या पंथ के हों। इसके अलावा विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्टता के लिए प्रतिष्ठित एनआरआई/पीआईओ को प्रवासी भारतीय सम्मान पुरस्कार भी दिए जाते हैं। साल 2004 में प्रवासी भारतीय समुदाय की समस्याओं का समाधान करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने ‘प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्रालय’ की स्थापना की है (Rajan, 2016)। प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही प्रमुख योजनाएँ और उनकी विशेषताएँ निम्नलिखित है-
प्रवासी भारतीयों की चुनौतियाँ और अन्य मुद्दे
:
प्रवासी भारतीय एक गैर-सजातीय समूह के रूप में हैं तथा भारत सरकार से की जाने वाली इनकी मांगें भी भिन्न-भिन्न हैं। यही कारण है कि इन मांगों एवं भारत सरकार की नीतियों में अंतर्विरोध देखने को मिलता है। इसे हाल ही में किसानों के प्रदर्शनों को कुछ प्रवासी समूहों द्वारा प्राप्त समर्थन के रूप में देखा जा सकता है। पूर्व में भारतीय प्रवासियों के कई समूहों ने बहुत से कानूनों या कानूनी संशोधनों को रद्द करने की मांग की थी; जिनमें कश्मीर में अनुच्छेद 370,
नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) आदि शामिल हैं। COVID-19 महामारी एवं इससे पैदा हुई चुनौतियों ने एक वैश्वीकरण विरोधी लहर को जन्म दिया है, जिसके कारण कई प्रवासी श्रमिकों को भारत लौटना पड़ा तथा अब उन्हें उत्प्रवास के संबंध में प्रतिबंधों का सामना करना पड़ रहा है(Chakraborty, 2020)। इसने भारतीय प्रवासी समुदायों और भारतीय अर्थव्यवस्था दोनों के लिये आर्थिक चुनौतियों में वृद्धि की है। इज़राइल और चार अरब देशों (यूएई, बहरीन, मोरक्को तथा सूडान) के बीच शांति समझौते (अब्राहम एकार्ड) को लेकर उत्साह के बावजूद सऊदी अरब तथा ईरान के बीच तनाव के कारण पश्चिम एशिया की स्थिति अभी भी संवेदनशील बनी हुई हैं। इस क्षेत्र में किसी भी युद्ध की स्थिति में पश्चिम एशियाई देशों से भारी संख्या में भारतीय नागरिकों की वापसी होगी, जिसके कारण रेमिटेंस में कटौती के साथ स्थानीय स्तर पर रोज़गार एवं बाज़ार पर भी दबाव बढ़ेगा। वर्तमान समय में प्रवासी भारतीयों के लिये भारत के साथ सहयोग अथवा देश में निवेश करने के संदर्भ में भारतीय प्रणाली में कई खामियां हैं। उदाहरण के लिये लालफीताशाही, मंज़ूरी मिलने में देरी, सरकार के प्रति अविश्वास आदि भारतीय प्रवासियों को अवसरों का लाभ प्राप्त करने में अवरोध उत्पन्न करने का काम करते हैं। विदेशों में नस्लवाद के कारण स्थानीय लोगों द्वारा भारतीयों के साथ अभद्र भाषा का प्रयोग कर मार-पीट की घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है(Abraham, 2005)। कई देशों में अति राष्ट्रवादी सरकारों के सत्ता में आने से सांप्रदायिकता की घटनाओं में भी भारी वृद्धि हुई है।
निष्कर्ष : भारतीय डायस्पोरा का दुनिया भर में प्रसार का इतिहास बहुत पुराना है जो कई चरणों से होकर गुजरा है। प्रवासियों के ऐतिहासिक विकास में भारत को दुनिया भर में सबसे बड़ी प्रवासी जनसंख्या का संरक्षण करने वाले देशों में से एक के रूप में जाना जाता है।दुनिया भर में फैली प्रवासी भारतीयों की आबद्ध जनसंख्या पूरे विश्व में मजबूत पहचान दिलाने में सफल रही है। उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रवासी भारतीय न केवल मेजबान देशों के विकास में महती भूमिका अदा कर रहे हैं बल्कि भारत की अर्थव्यवस्था को भी सुदृढ़ बना रहे हैं। वर्ष 2022 में जारी वर्ल्ड बैंक माइग्रेशन एंड डायग्राम ब्रीफ के अनुसार, पहली बार भारत ने वार्षिक प्रेषण के माध्यम से 100 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक प्राप्त किया है। इस प्रकार भारत सरकार को प्रवासियों के महत्व को समझते हुए अपना ध्यान प्रवासी भारतीयों पर केंद्रित करना चाहिये क्योंकि वे भारत के लिये एक रणनीतिक संपत्ति हैं। प्रवासी भारतीय न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी अपना योगदान दे रहें हैं(Maimbo & Ratha, 2005)।
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पी-एच.डी. शोधार्थी, समाजशास्त्र विभाग, सामाजिक विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
आरती सिंह
सहायक प्राध्यापिका, भूगोल विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
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