संस्मरण : टीरी लब्बु टीरी लब्बु करता हूँ / हेमंत कुमार

टीरी लब्बु टीरी लब्बु करता हूँ
- हेमंत कुमार

इलाके में मोटर कब से चली मुझे याद नहीं। जिस उम्र से मुझे चीजें याद रहनी शुरू हुईं उसके पहले से ही मोटर चलती थीं। छुटपने से ही मोटर का आकर्षण मन को बाँधे रखता था। मोटर में जलनेवाले इंधन की गंध नथूनों को बेजां (बहुत) सुहाती। जिस गंध से औरतों के माथे में 'गै' चढ़ जाती थी, सिर दुखने लगता था, उसी गंध को हम लम्बी साँस खींचकर फेफड़ों में भर लिया करते। वह घासलेटी बिरादरी की होकर भी कुछ अनूठी थी, जली डीजलिया गंध! जिंदगी का दूसरा इत्र वही थी, पहला इत्र माँ की गोद- गंध थी जिसे गूँगी जिंदगी के दौर में भी पहचान कर रोता बचपन मौन हो जाता था। अब वह गोद-गंध भी याद नहीं और डीजलिया गंध तो बास (बदबू) में बदल चुकी है। मोटर के आकर्षण ने खिलौना मोटरें बनवाईं। कूल्डियों (कूड़े के ढेर) से कच्चा माल बरामद करते। टूटी चप्पलों को सँठवा-गठवाकर पहनते-पहनते भी किसी चप्पल का निसल्डा (निर्लज्ज) तला साबुत बच जाता तो उसके बीच के हिस्से को टायर के आकार में काटकर , सरकंडे या दूसरी सीधी और पतली लकड़ी को जोड़-जाड़कर मोटर बनती।  इंजन, हॉर्न , गियर वगैरह सब ड्राइवर को ही बनना पड़ता।  कभी-कभी पूरी मोटर ही अदृश्य और काल्पनिक होती। केवल ड्राइवर हवा में अदृश्य गियर डालता - घच्च..भच्चघच्च। हाथों से अदृश्य स्टेयरिंग को घुमाते हुए हॉर्न देता- टिटिटिं…..….पिंपिंपिंईंईं….. गाड़ी स्टार्ट होती - ठ्रुम..ठ्रुम..ठ्रुमभूँऊँ..ऊँपिपिईईईई..प।  गाड़ी चलाने सा ही मजा 'चक्कर चलाने' का भी था। लोहे की चक्राकार पाती को लकड़ी से बँधे मुड़े मजबूत तार के सहारे दौड़ते हुए ठेलने का अनिर्वच आनंद था। लेकिन ये चक्कर तो दूसरा ही था जिसमें मोटर की भूमिका संदिग्ध थी।

            मोटरों के नाम भी तो थे। वह सफेद मोटर जिसका जीप की तरह बाहर निकला अधपके नींबू के रंग का बोनट था उसका नाम 'नीमू रंगाळी' था। वह भी हम बच्चों के लिए वर्ना बड़े तो उसे 'साऽताळी' कहकर बुलाते थे,वह सबेरे सात बजे जो आती थी। एक मोटर का नाम खुद मोटर पर लिखा था- 'गोमती।' एक मोटर का नाम लक्ष्मणगढ़ जाने के कारण 'लिछमगढाळी' या 'गढाळी' था। मोटर तीन लोग मिलकर चलाते-ड्राइवर, खलासी और 'गेला सुआँ करनेवाला।' ड्राइवर, खलासी हमारे आकर्षण का केंद्र थे। ड्राइवर के हाथ में होता स्टेयरिंग , खलासी के कंधे पर पैसों का थैला और 'गेला सुआँ करनेवाले' के पास फावड़ा जिससे वह मोटर की रेतीली राह में खींप, खसणा जैसी घासें बिछा-बिछाकर उसका 'गायँत्रा (गंतव्य)' तय करता। खींप के बावजूद मोटर फँस जाती तो मोटर के मँगरों (पीठ) से लोहे की जाळी उतार कर कदमों में बिछा दी जाती, जिससे होकर मोटर आगे बढ़ती। 'गेला सुआँ करनेवाला' भागकर जाळी खलासी को पकड़ा देता। बदले में खलासी चलती मोटर से पैसे फैंक देता या बिन भाड़े गाँव तक छोड़ देता। मोटरों से गाँव पहुँचते और रवाना होते हुए 'होरण' बजता -पोंओंओंओंऽऽऽ। जब होरण बजता तो समूची मोटर बजती -खड़खड़....खड़खड़….

उन्हीं बूढी-ठेरी मोटरों के बीच एक मोट्यार -जवान मोटर आई -लालपरी। जैसे देहात में शहर की पढ़ी-लिखी आधुनिक वधू आई हो लाल जोड़े में। बूढ़ी मोटरों का मुँह तूतिया सा बाहर निकला होता, बोनट के घूँघट से ढका। लेकिन लालपरी का मुँह ऐसा बेडोळा था। मुँह क्या वह तो समूची ही सरूप थी। बोनट क्या था जैसे लालपरी का दिल था, ड्राइवर की सीट से इतना सटा हुआ कि वह उसकी गिरमास (ऊष्मा) और थिरकन दोनों महसूस कर सके। केबिन में सामने के काँच पर लिखा था - 'बजरंग तेरा आसरा- जय सालासर दरबार।' काँच के आधार पर बीचोंबीच महादेव जी की मूर्ति। सीटों की बगल में खिड़कियों से तनिक ऊपर क्या लिखा होगा - तीन साल से सात साल तक के बच्चे का आधा टिकट लगेगा या चलती गाड़ी में शरीर का कोई अंग बाहर ना निकालें वगैरह? नहीं। वहाँ मुहब्बत की शायरी के स्टीकर  चिपके थे। मसलन -

"खीर चम्मच से खाई जाती है हाथों से नहीं।
प्यार एक से किया जाता है हजारों से नहीं। "

            लालपरी नई अटाण (एकदम नई) थी। सीटें , खिड़कियाँ, यहाँ तक कि पीछे रखा उसका पाँचवाँ टायर जिस पर गवारनी- बिसातियों की पोटलियाँ, पीहर-ससुराल जानेवालियों की बेस भरी पेटियाँ धरी जातीं, वह भी नया। बाहर लालरंग पर सुंदर गुलाबी आखरों में लिखा नाम -लालपरी। उसके सुरीले होरण की आवाज़ कितनी प्यारी थी - तूत-तुतु..तूतूतूपैंप..पैंपै..पैंपैंपँ जो भीतर बैठता उसके आनंद की तो कोई सीमा ही रहती। लालपरी गाने सुनाते हुए शहर ले जाती और गाने सुनाते हुए ही शहर से गाँव ले आती। गीतों में मग्न सवारियों को उतारने के लिए खलासी को गाँव का नाम लेकर आवाज़ लगानी पड़ती - पाड़दाळा ज्याओ भाई! पाड़दाळा ज्याओ! पाड़दा माने मेरे गाँव का पड़ौसी पाटोदा गाँव। लालपरी ने मोटरों का नाम बदल दिया। लोग मोटर को बस कहने लगे। खलासी 'कनेक-टर' कहलाने लगा। यहाँ तक कि भाड़ा भी अब किराया कहा जाने लगा। लेकिन लालपरी ने एक काम वह किया जो अब तक गाँव के इतिहास में पहले कभी हुआ था। उन्हीं दिनों मोटर मालिकों की यूनियन बनी थी। गाँवों से आते वक्त तो कनेकटर नकद किराया ले लेता लेकिन लौटते भगत (वक्त) टिकट लेना होता था। सीकर शहर के नेहरू पार्क के पास गोपीनाथ गौशाला के सामने सड़के के परली पार दरख्तों के नीचे बसें लगतीं। वहीं एक साउथ सिनेमा के विलेन सा नजर आता भीमकाय आदमी टिकट काटता था- राजू। उतने विशालकाय आदमी को राजू कहा जाना ऐसा ही लगता जैसा तरबूज को काजू कहा जाने पर लगता।

            तो असल में क्या हुआ यह तो किसने देखा मगर मन की अनुमानिया आँख से जो दिखता है वह शायद यह है। गाँव की एक बाई (लड़की) की  टिकटिया पहलवान से टिकट लेने की हिम्मत हुईं तो बस की खिड़की से झाँकते युवक ने नीचे उतर कर टिकट लेकर दी। बाई को खिड़की के पास की सीट पर बिठाकर खुद बगल की सीट पर बैठा। बस गीतेरण (गीत गानेवाली) लालपरी थी। कनेकटर ने टिग्गट माँगा तो गीत चल रहा था - 'गोरी है कलाइयाँ, पहनादे मुझे हरी-हरी चुड़ियाँ…..' दो बार माँगे जाने पर बाई ने टिग्गट दिखाने को हाथ बढ़ाया। कनेकटर ने टिग्गट देखा और युवक ने हाथ। टिग्गट को अँगूठे के नाखून से दबाकर फाड़ा और  'बाई' को थमाकर कनेकटर दूसरी सवारियों के टिग्गट देखने लगा। पीछे की सवारियों के टिग्गट चेक कर कनेकटर जब पास से गुजरा तब तक गाना बदल चुका था - 'तुझे हाथों में पहनाके चुड़ियाँ हो चुड़ियाँ ..हाथों में पहनाके चुड़ियाँ ..के मौज बनजारा ले गया हाएयुवक को लगा कि गीत का बनजारा कोई और नहीं यही 'बेटा कनेकटर' है। तो फिर वह खुद क्या है? मन ने कहा तुड़ीमुड़ी टिग्गट! कनखियों से झाँका तो बाई की कलाइयों में पड़े पाटले (कड़े) नजर आए जो हरे होकर लाल थे। उसे लगा कि वह तो हरी चुड़ियाँ पहनना चाहती थीं मगर ये 'बेटा बनजारा कनेकटर्या' जबरन लाल चूड़ियाँ पहना गया और टिग्गट नहीं बल्कि उसका दिल ही तोड़मरोड़ कर दे गया हो जो अब भी बाई की मुट्ठी में दबा है लेकिन बाई भी उसका दिल वापस दे नहीं रही है - 'तुझे दिल कैसे दे दूँ मैं साजना .. साजनादिल कैसे दे दूँ मैं साजनाके सारा जग बैरी हो जाए ….हाय….'

उसे लगा वह 'बाई' को बाई क्यों कह रहा है? कह कहाँ रहा है, सोच रहा है। लेकिन उसे 'बाई' क्यों सोच रहा है। किसी और रूप में नहीं सोच सकता? क्या करे? उसने आगे की सीट पर लगे लोहे के पाइप पर टिककर सोने की कोशिश की लेकिन 'नींद आए मुझे चैन आए कोई जाए-जाए ढूँढ के लाए, जाने कहाँ दिल खो गया।' थोड़ी देर बाद अनमना होकर वह सीधा हुआ तो गाना बदल चुका था - 'बिंदिया चमकेगी….चूड़ी खनकेगीतेरी.. नींद ..उड़े तो उड़ जाए' तभी ड्राइवर ने अचानक ब्रेक लगाए। लालपरी रुकी। सवारियाँ-सवारियों से सट गईं। 'बाई' ने कोई प्रतिकार किया। उसे लगा ड्राइवर देवता आदमी है। ठीक-ठीक ये ही गाने बजे या दूसरे। कौन जानेमैं महाभारत का संजय तो हूँ नहीं कि दिव्य दृष्टि से सब कुछ देख-सुन रहा था और आप भी धृतराष्ट्र थोड़े ही हैं महाराज! अगर ये ही गाने बजते और ऐसे ही बजते तो भी क्या गिरांटी (गारंटी) है कि सुने भी ऐसे ही जाते मोटर के घर्राट में!           लालपरी गाँव पहुँची और बात आई-गई हो गई। फिर गई हुई बात ओठी (वापस) आई तो घर-घर में चर्चा का विषय हो गई। गाँव से लगते बाड़े-खेड़े(बस्ती के पास के खेत) गाँव के सार्वजनिक शोचालय थे। जिधर स्त्रियाँ जातीं उधर पुरुष जाते। जिधर पुरुष जाते उधर स्त्रियाँ जातीं। खेड़ों से लगे ही खेत होते। कोई-कोई आदमी खेड़ों को पार कर खेतों की ओर भी निकल जाता। सबेरे-सबेरे सब जाते लेकिन कळकावळ ( पेट में गड़बड़) होने पर संझ्या (शाम) या रात-बेरात भी जाना पड़ जाता। लेकिन एक घर की एक बाई ने रोज ही साँझ का सरा (बारी) बाँध लिया। शुरू-शुरू में किसी ने ध्यान दिया। धीरे-धीरे उसे समय भी ज्यादा लगने लगा। लेकिन दाई से पेट कब तक छुपता। गाँव में किसी ने देखा कि 'किसी की बाई' किसी आवारा टिंगर (लड़के) के साथ खेत में सिर से सिर जोड़े बैठी है। लफंगा गाना गा रहा है -

"अदाओं फदाओं  पें  ऊँ….ऊँ….ऊँ
टीरी लब्बु टीरी लब्बु करता हूँ…."

किसी ने कहा टिंगर लोफर है। किसी ने कहा छोरी ही बोछल्डी (बदमाश) है। लड़की का घर आते ही घरवालों द्वारा बंद कमरे में झेझरकूटा (मारपीट) संस्कार किया गया। सूजे होठों, नुचे बालों, अँगुलियों छपे गालों के साथ लड़की ने किस्तों में जो किस्सा बयान किया उसकी सूत्रधार 'लालपरी' पाई गई। लड़के का सम्मान समारोह  सार्वजनिक रूप से सम्पन्न हुआ जिसमें पहले लड़की पक्ष ने भाग लिया फिर घर पहुँचने पर लड़के वालों ने भी अपनी तरफ से विधिवत स्वागत किया। 'अदाओ फदाओं ..' का मूल स्रोत खोजा गया तो पता चला जब महीने डेढ़ महीने पहले पिच्चर (पिक्चर-फिल्म) देखने के लिए जब गाँव में किराए पर विस्यार (वी. सी. आर.) लाया गया था। उसमें दो पिच्चर तो 'राड़ आळी (मारधाड़ वाली) थीं। एक जो पिच्चर 'प्यार की इस्टोरी वाली' थी। उसी में यह गाना था -

"तेरी अदाओं पे मरता हूँ
लव तुझे लव मैं करता हूँ"

 अदाओं में 'फदाओं ' कैसे जुड़ा पता नहीं। जो याद रहा उसकी पूर्ति 'ऊँ ..ऊँऊँ…' से कर ली गई। 'लव तुझे लव' पता नहीं कैसे 'टीरी लब्बु टीरी लब्बु' बन गया। अब कोई एक ही बार में सुनके कितनाऽक याद रखे। लड़की ब्याह दी गई। कुछ बरसों बाद लड़का भी ब्याह दिया गया। अब तो उनके बच्चे भी ' टीरी लब्बु टीरी लब्बु' करने वाली उम्र में पहुँच रहे हैं। गाँव में टीवी, मोबाइल, लेपटॉप पहुँच रहा है। जन्मदिन पर के कटने लगा है। बाइक और निजी गाड़ियों के चलते मोटर-बस सवारियों को तरस रही हैं। आधुनिकता के एक पक्ष को अंगीकारता गाँव प्रेम की पौध को विकसने का अवसर देने को अब भी तैयार नहीं है। गाँव में केवल एक 'टीरी लब्बु' का केस सक्सेज हुआ। केरलवासी कोई नर्स अपने क्वार्टर के सामने रहनेवाले फकीरों के एक युवक को नहला-धुलाकर और बहला-फुसलाकर अपने देस चली गई। गाँव की कोई कुलच्छनी कन्या यदि 'टीरी लब्बु' के चलते चम्पत हुई भी तो उससे परिवार-रिश्तेदारों की कटी हुई नाक अब तक नहीं जुड़ी। गाँव में ब्याह मुश्किल हुए हैं। खासकर लड़कों के। दर्जन भर बहुएँ मोल मुलाकर बिहार-बंगाल से आयात की गई हैं। एक आध तो आजीवन सब्सक्रिप्शन का पैसा लेकर भी केवल ट्रायल देकर चलती बनी हैं। दूसरे विकल्प के रूप में बेटी का भुगतान कर आटे - साटे में बहू खरीदी जा रही है। जहाँ यह भी नहीं बैठ रहा वहाँ तीन तेगड़ मिलाई जा रही हैं। जिसमें तीन घरों की बेटियाँ तीन वरों का घर बसा रही हैं। तीन रस्सियों में बँधी जिंदगी तीन विपरीत दिशाओं में खींची जा रही है। इसके चलते उम्र, योग्यता, स्वभाव, सपनों का कहीं-कहीं इतना बेमेल मेल है कि कुछ भी कहना व्यर्थ है। लगता है जैसे किसी नर पशु के बाड़े में डर से धूजती निरीह अल्पवय मादा ( ?) को रस्सियों से कसकर छोड़ दिया गया है -पूतो फलो, दूधो नहाओ का आशीष देकर। जिसकी भय से विस्फारित आँखों में 'टीरी लब्बु -टीरी लब्बु' के ख्वाब का कोई तिनका अटककर रह गया है ताजिंदगी कसकने के लिए।


हेमंत कुमार
सहायक आचार्य, श्री कल्याण राजकीय कन्या महाविद्यालय, सीकर (राजस्थान)
hemantk058@gmail.com, 9414483959

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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