शोध सार : बौद्ध धर्म से सम्बद्ध पालि साहित्य वैदिक ग्रंथों के बाद सबसे प्राचीन साहित्यिक रचनाओं की कोटि में आता है, जिनकी विशेषता यह है कि इसमें उल्लिखित तथ्य, घटनाएँ एवं अवधारणाएँ यथासंभव निष्पक्ष प्रतीत होती हैं, जो तत्कालीन समाज में स्त्रियों की वास्तविक दशा को समझने में बहुत हद तक सहायक हैं। इस संदर्भ में थेरीगाथा, जिसमें मार्मिक कथाओं के माध्यम से प्रारम्भिक भिक्षुणियों ने अपने निर्वाण प्राप्ति हेतु किये गए संघर्षों एवं अनुभूतियों का वर्णन किया है, को विशेष स्थान प्राप्त है। थेरीगाथा काल के पहले भारतीय इतिहास में स्त्री द्वारा अपनी व्यथा को इतनी स्वतंत्रता के साथ प्रकट करते हुए नहीं देखा जा सकता। वास्तव में थेरीगाथा स्त्री स्वतंत्रता को प्रकट करने वाला प्रथम दस्तावेज है। इस ग्रन्थ के माध्यम से स्त्रियों ने स्वतंत्र मन से अपने जीवन के दुखों, वेदनाओं एवं पीड़ा के साथ-साथ अन्य विविध अनुभूतियों का प्रकटीकरण किया है। इस ग्रन्थ में वर्णित स्त्रियों के मार्मिक उद्गारों के अध्ययन से यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि भगवान तथागत की शरण में इन स्त्रियों ने अपने जीवन की उत्कृष्टता के लिए कितने क्रांतिकारी आंदोलन का सूत्रपात किया था। थेरीगाथा सुत्तपिटक के खुद्दक निकाय में वर्णित लघु पुस्तकों के संग्रहों में से एक है, जिसमें सोलह अध्याय एवं तिहत्तर बौद्ध भिक्षुणियों के उद्गार समाहित हैं, जो कविताओं के रूप में व्यवस्थित हैं। इसमें कुल पाँच सौ बाइस पाली गाथाएँ हैं।
मुख्य शब्द : बौद्ध धर्म, स्त्री, भिक्षुणी, गणिका, थेरीगाथा, गौतम बुद्ध, भिक्षुणी संघ, बौद्ध साहित्य, वैदिक साहित्य।
प्राचीन भारत में स्त्रियाँ - ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों का स्थान महत्वपूर्ण रहा है, स्त्रियों की दशा युग के अनुरूप परिवर्तित होती रही है। प्रारंभिक वैदिक साहित्य में परिलक्षित होता है कि प्राचीन भारतीय समाज में स्त्रियों को उच्च स्थान, सम्मान एवं अधिकार प्राप्त थे। ऋग्वेद में उषा, अदिति एवं आर्यानी जैसी देवियों तथा लोपामुद्रा, घोषा, विश्वावरा, शची, सप्रागी1 जैसी ऋग्वैदिक मंत्रों की रचयित्री विदुषी स्त्रियों का भी उल्लेख मिलता है। स्त्रियों का पुरुषों की तरह यज्ञोपवीत संस्कार होता था एवं वह गुरुकुल में पुरुषों के समान शिक्षा भी प्राप्त करती थीं। नवविवाहिता स्त्री पतिगृह की साम्राज्ञी होती थी।
ननांदरि साम्राज्ञी भव साम्राज्ञी अधिदेवेषु।।2
मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि-
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।3
किंतु जैसे-जैसे प्राचीन भारतीय समाज स्थायित्व की ओर अग्रसर हो रहा था, उसमें सामाजिक जटिलताएं प्रबल होती जा रही थीं। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों को उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया गया, जिससे उनकी शिक्षा अवरूद्ध हो गई। ऐतरेय ब्राह्मण में कन्या-जन्म की निंदा करते हुए उसे चिंता का कारण बताया गया है । मैत्रायणी संहिता में स्त्री को द्यूत तथा मदिरा की श्रेणी में रखा गया है। सूत्र काल में स्त्रियों पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबंध आरोपित किए जाने लगे । उन्हें बाल्यावस्था में पिता, यौवनावस्था में पति एवं वृद्धावस्था में पुत्रों के अधीन घोषित किया गया है।
बौद्ध धर्म का आविर्भाव तत्कालीन समाज के उन समस्त क्रियाकलापों का परिणाम था, जिनके माध्यम से प्राचीन भारतीय समाज शोषित हो रहा था। शोषण की इन प्रवृत्तियों को तत्कालीन समाज में व्याप्त ऊँच-नीच, छुआ-छूत, अस्पृश्यता, असमानता, पाखंड, कर्मकांड एवं स्त्रियों की हेय अवस्था में देखा जा सकता है। उस समय न तो मानवाधिकार का प्रश्न था और न ही स्त्री स्वतंत्रता का।
बौद्ध धर्म एवं स्त्रियाँ :
छठी शताब्दी ईसा पूर्व भारत की पवित्र तपोभूमि पर महात्मा बुद्ध जैसे तपस्वी ने अपने ज्ञान और तर्क के माध्यम से भारतीय समाज के समक्ष एक नया मार्ग प्रस्तुत किया। बौद्ध धर्म के अभ्युत्थान एवं बुद्ध के अमृत वचनों ने तत्कालीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था में नवीन चेतना एवं ऊर्जा का संचरण किया। स्त्री-पुरूष, युवा, बुजुर्ग, बच्चे समस्त बुद्ध के आकर्षक व्यक्तित्व, ओजस्वी एवं अलौकिक वाणी तथा उदारवादी विचारों से प्रभावित थे। तत्कालीन समय के शोषित वर्ग, विशेषकर दलितों और स्त्रियों ने इसमें विशेष रूचि प्रकट की।
बौद्ध धर्म से संबंधित साहित्यिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में जब महात्मा बुद्ध ने बौद्ध संघ की स्थापना की तब पुरुषों को संघ में प्रवेश की अनुमति थी, परंतु उस समय बुद्ध स्त्रियों को संघ में प्रवेश देने के इच्छुक नहीं थे। महाप्रजापति गौतमी द्वारा संघ में प्रवेश हेतु अनुमति मांगने पर तथागत ने स्पष्ट इंकार कर दिया था।4 पंचम वर्षावास के दौरान महात्मा बुद्ध जब वैशाली के कूटागारशाला में ठहरे हुए थे, तब महाप्रजापति गौतमी एवं उनकी अनुयायी अन्य शाक्य स्त्रियां अपने केश मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण करके, नंगे पैर ही पैदल चलकर वैशाली पहुँच गईं। प्रव्रज्याकांक्षिणी स्त्रियों के अनुरोध एवं आनन्द के तर्क पर बुद्ध ने स्त्रियों को प्रव्रज्या ग्रहण करने हेतु सशर्त अनुमति प्रदान कर दी। चुल्लवग्ग में 'अट्ठ गरुधर्मों' का विवरण प्राप्त होता है, जिनको स्वीकार करने के उपरान्त महाप्रजापति एवं अन्य शाक्य स्त्रियों को उपसम्पदा प्रदान की गई थी।5
बौद्ध संघ में नारी की उपस्थिति के परिणामों से आशंकित होकर तथागत ने आनन्द से कहा था, “आनन्द! यदि नारियां इस तथागत प्रवेदित धर्मसाधना में प्रव्रज्या का अधिकार न पातीं तो यह धर्मसाधना पद्धति अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होती। तब यह धर्म एक हजार वर्ष तक स्थिर रहता। क्योंकि, आनन्द! अब नारियों को भी इस धर्म में प्रव्रज्या का अधिकार प्रदान कर दिया गया है तो अब यह धर्म चिर स्थायी नहीं होगा। अब यह केवल पांच सौ वर्ष तक ही स्थिर रह सकेगा।”6 हालांकि यह कथन बहुत ही कठोर शब्दों में लिखा गया है और आमतौर पर इसका अर्थ यह लगाया जाता है कि गौतम बुद्ध स्त्रियों को संघ में शामिल करने से नाराज थे। लेकिन स्त्रियों के प्रति उनके दृष्टिकोण के बारे में हमारी पूरी राय को एक कथन से प्रभावित होने देना उचित नहीं होगा। यह भी याद रखना चाहिए कि भिक्षुओं ने ही गौतम के कथनों को लिखित रुप प्रदान किया था और भिक्षु स्वाभाविक रुप से स्त्रियों को दिए जाने वाले महत्व को कम करने की कोशिश करते रहते थे। ऐसी परिस्थिति में इस बात की पूर्ण संभावना है कि इस कथन को भी बाद में स्त्रियों पर पुरुषों की महत्ता को स्थापित करने हेतु जोड़ा गया हो। आई. बी. हॉर्नर पांच सौ वर्षों बाद बौद्ध धर्म के पतन की भविष्यवाणी को भिक्षुओं द्वारा की गई कल्पना मानती हैं।7
इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि बौद्ध ग्रन्थों के लेखन में भी पुरुषवादी मानसिकता एवं तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव अवश्य परिलक्षित होता है।
उपसम्पदा हेतु इच्छुक स्त्री को सर्वप्रथम श्रामणेरी के रूप में दो वर्षों तक पूर्व निर्धारित छह नियमों का सम्यक रूपेण पालन करने के उपरान्त भिक्षुणी के रूप में उपसम्पदा प्रदान की जाती थी। उपसम्पदा हेतु विवाहिता स्त्री की न्यूनतम आयु बारह वर्ष एवं अविवाहिता स्त्री की न्यूनतम आयु बीस वर्ष निर्धारित की गई थी। थेरीगाथा में अड्ढकासी नामक गणिका को दूत के माध्यम से उपसम्पदा प्रदान करने का भी उल्लेख प्राप्त होता है।8
बौद्ध भिक्षुणियों की विद्वता का प्रभाव बौद्ध साहित्य एवं अभिलेखों में स्पष्ट रुप से परिलक्षित होता है। जिससे प्रमाणित होता है कि बौद्ध भिक्षुणियां अध्ययन के प्रति समर्पित रहती थीं। भिक्षुणी पटाचारा को ‘विनयधारियों में अग्र’ कहा गया है।9 सुमेघा को ‘बहुश्रुता’, ‘शीलवती’ एवं ‘वज्जिनी’ कहा गया है।
मातापितरो उपगम्मे, भणति उभयो निसामेथ।।10
बौद्ध भिक्षुणी भद्राकापिलायनी को ‘मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाली’ एवं मार और उसकी सेना को जीतकर ‘अंतिम देह धारण करने वाली’ कहा गया है।
धारेति अंतिमं देहं, जेत्वा मारं सवाहनं।।11
भद्राकापिलायनी की तुलना स्थविर महाकश्यप से करते हुए उसे ‘तीनो विद्याओं की ज्ञाता’ बताया गया है। थेरीगाथा में ऐसी अनेक बौद्ध भिक्षुणियों का वर्णन प्राप्त होता है, जो तीनों विद्याओं में पारंगत थीं। यदि अभिलेख साक्ष्यों पर नजर डालें तो मथुरा से कुषाण शासक हुविष्क कालीन एक अभिलेख प्राप्त हुआ है, जिसमें भिक्षुणी बुद्धिमित्रा को ‘त्रिपिटका’ कहकर सम्बोधित किया गया था। उसको अपने आचार्य थेर ‘भदन्तबल के समान ज्ञानी’ बताया गया है। एक अन्य अभिलेख, जो सारनाथ से प्राप्त हुआ है, जिसमें उसे ‘त्रिपिटका’ अर्थात ‘तीनों पिटकों की ज्ञाता’ कहा गया है। सांची से प्राप्त हुआ एक अन्य अभिलेख में ‘अविषिणा’ नामक भिक्षुणी को ‘सूतातिकिनी’ कहा गया है।
वरिष्ठ भिक्षुणी को ‘प्रवर्तिनी’ अथवा ‘उपाध्याया’ कहा जाता था। जिसका मुख्य कार्य श्रामणेरी को दस शिक्षापदों के प्रति जागरूक करना तथा शिक्षामाणा को दो वर्ष की अवधि तथा ‘छह नियमों’ की नियमानुसार शिक्षा प्रदान करना तथा उनका सम्यकरूपेण पालन करवाना था। अभिलेखों की चर्चा करें तो अमरावती से प्राप्त एक बौद्ध अभिलेख में समुद्रिका, जो कि विनयधर आर्य पुनर्वसु की अन्तेवासिनी थी, को ‘उपाध्यायिनी’ कहा गया है, अर्थात् भिक्षुणियां भी अध्यापन का कार्य करती थीं। लेकिन संघ में यह विधान था कि कोई भिक्षुणी किसी भिक्षु को उपदेश नहीं दे सकती है और न ही कुछ सिखा सकती है, अर्थात् भिक्षुणियां केवल भिक्षुणियों को ही पढ़ाती थीं एवं गृहस्थ उपासक-उपासिकाओं को धर्मोपदेश देती थीं। विधान था कि जो भिक्षुणी विज्ञ ना हो उसे कम शब्दों में ही धर्मोपदेश करना चाहिए। वडठेसी, पटाचारा एवं गौतमी ऋषिदासी आदि महत्वपूर्ण उपदेशिकाएँ थीं।
संघ के विधान के अनुसार भिक्षुणियों को अकेले एकान्त, सुनसान स्थान या जंगल में रहना या भ्रमण करना निषिद्ध था। इन नियमों का पालन करते हुए भी भिक्षुणियां ध्यान करने हेतु स्थल की खोज कर ही लेती थीं। थेरीगाथा में, भिक्खुनी सुमंगला यह स्पष्ट करती हैं कि ‘‘यद्यपि पहले मेरा निर्लज्ज पति मुझे तुच्छ समझता था, किन्तु मैं आज पेड़ों के नीचे बैठकर ध्यान करती हुई जीवन-यापन करती हूँ। अब मैं बहुत सुख से ध्यान-साधना करती हूँ-”
सा रूक्खमूलमुपगम्म, अहो सुखं ति सुखतो झायामी ति।12
इससे पता चलता है कि संघ में शामिल होने के बाद स्त्रियां ऐसे सभी बंधनों से मुक्त हो गईं। उल्लेख प्राप्त होता है कि भिक्षुणी ‘दन्तिका’ ने गृध्रकूट पर्वत की चोटी पर ध्यानावस्था में बैठकर साधना करते हुए अपने चित्त को स्थिर कर उस पर विजय प्राप्त करते हुए निर्वाण की प्राप्ति की थी।13 भिक्षुणी ‘सेला’ एवं ‘चाला’ द्वारा अन्धकवन में ध्यान लगाकर साधना करने का उल्लेख है। सेला को तो मार ने अपने लोभकारी वचनों से धर्मच्चुत करने का प्रयत्न भी किया था। अधिकतर मामलों में प्रतीत होता है कि एकान्त स्थान की उपलब्धता कम ही थी, इसलिए भिक्षुणियां अपने विहारों के कक्ष में ही ध्यान करती थीं।
भिक्षुणियों द्वारा ध्यान करने की विधि-विधानों का उल्लेख पालि साहित्य में मिलता है। एकान्तवास का चयन करने के उपरान्त पैर धुलकर उस स्थान पर बैठने के बाद मन को एकाग्र करते हुए समाधि में स्वयं को स्थिर करना होता था। इस अवस्था में उन्हें संसार दु:खरूप, अनित्य एवं अनात्म प्रतीत होता था। इस एहसास के उपरांत उनके मन का उद्गार इस प्रकार प्रस्फुटित होता था कि उन्होंने रात के प्रथम याम में दिव्य चक्षुओं को विशोभित करते हुए उनके माध्यन से रात्रि के अन्तिम याम में अन्धकार पुंज का नाश कर दिया है। जब वे अपने आसन से उठीं तो वे तीनों विद्याओं की पूर्ण ज्ञात्री थीं।14 चित्त को एकाग्र करने हेतु कठोर प्रयत्न करना पड़ता था। उल्लिखित है कि भिक्षुणी उत्तमा हफ्ते भर एक ही स्थान पर विराजमान होकर ध्यान लगाकर एकाग्रचित्त होने का प्रयत्न करती रहीं। आठवें दिन उनका अन्धकार नष्ट हुआ। इसी प्रकार भिक्षुणी ‘अनुपमा’ एवं भिक्षुणी ‘सामा’15 को क्रमश: सात रात एवं आठ रात की कठोर साधना के पश्चात् अज्ञानों का भूलोच्छदेन और दिव्यचक्षु की प्राप्ति हुई। थेरीगाथा में उल्लिखित है कि एक भिक्षुणी कहती है कि ध्यान की परम अवस्था में उसे विशुद्ध दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ था।
बौद्ध साहित्य में सुसंस्कृत एवं सुशिक्षित गणिकाओं का उल्लेख मिलता है। महवाग्ग में वैशाली की आम्रपाली की परमसुन्दरी, गायन-वादन-नृत्य विशारदा, नयनाभिराम, रमणीय के रूप में प्रशंसा की गई है। आम्रपाली की प्रतिष्ठा एवं सामाजिक महत्व का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि महात्मा बुद्ध ने भी उसका निमंत्रण, आतिथ्य एवं अवदान स्वीकार किया था। आम्रपाली ने वैशाली में बौद्ध संघ हेतु आम्रवाटिका दान की थी। दूसरी शताब्दी ईस्वी के सन्नति से प्राप्त एक शिलालेख में ‘गोविंदासी’ नाम की एक नर्तकी (नतिका) का उल्लेख है। उसने एक ‘बाड़े’ या ‘प्राकार’ का निर्माण करवाया था। उसी अवधि से सम्बंधित सन्नति के एक अन्य शिलालेख में ‘आर्यदासी’ नामक एक अन्य नर्तकी का उल्लेख है। उसने एक ऊँचा प्रवेश द्वार बनवाया था।16
राजगृह की राजनर्तकी सालवती, जो अत्यंत रूपवती, संगीत कला में दक्ष थी, उसका गणिकाभिषेक हुआ था। विख्यात राजवैद्य जीवक सालवती का पुत्र था,17 जिससे प्रमाणित होता है कि समाज में गणिका पुत्र को भी उच्च सम्मान प्राप्त था। थेरीगाथा में विमला और सरला नाम की बहनों का उल्लेख है, जो गणिकाओं के रूप में कार्य करती थीं। जातकों के अनुसार अभिजात वर्ग तथा उच्च प्रशासनिक अधिकारी भी गणिकाओं की कला का यथोचित सम्मान करते थे। कणवेर जातक एवं सुलसा जातक में भी गणिकाओं द्वारा संगीत प्रदर्शन किये जाने एवं उसके द्वारा सहस्रों मुद्राएं अर्जित किये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। गणिकाओं के विभिन्न प्रकार के चारित्रिक गुण-दोषों का चित्रण करने वाली अनेक कथाएं जातकों में मिलती हैं, जिनसे उनकी मानवता, कोमलता, सहृदयता, क्रूरता, क्षुद्रता, धूर्तता, विश्वासघात एवं धनलोलुपता का पता चलता है। थेरीगाथा से विदित होता है कि धर्मदिन्ना को उसके पति ने यह निर्देश दिया था कि अपने माता-पिता के यहां जाते समय जो भी धन वह ले जाना चाहे, ले जाये।18
ऐसा नहीं था कि बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाली स्त्रियों का जीवन बहुत सरल था, उन्हें समय-समय पर लोगों के उलाहनों एवं प्रताड़नाओं का सामना भी करना पड़ता था। किसी भिक्षुणी द्वारा कोई गलती हो जाने पर लोग उन्हें ‘सिर मुंडी वेश्याएं’ कहकर तिरस्कृत करते थे। स्त्रियां बुरे कार्यों में भी सम्मिलित हो जाती थीं, जिससे उनको हीन भावना से देखा जाता था। भिक्षुणियों का स्थान भिक्षुओं की अपेक्षा निम्न था, लेकिन कहीं-कहीं ऐसे उदाहरण भी प्राप्त होते हैं कि भिक्षुणियाँ अपनी विद्वता एवं कुशलता के कारण भिक्षुओं एवं मुनियों से भी उच्च स्थान प्राप्त करती थीं। थेरीगाथा में ऐसी ही बौद्ध भिक्षुणियों का उल्लेख प्राप्त होता है, जिनमें पटाचारा, धम्मदीना, सोमा, संघा, मुत्ता एवं सुभा के नाम उल्लेखनीय हैं। इसमें वर्णित समस्त भिक्षुणियाँ महात्मा बुद्ध की समकालीन हैं। थेरीगाथा में उच्च वर्ग से लेकर निम्न वर्ग तक की भिक्षुणियों के द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण करने एवं निर्वाण प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि बौद्ध धर्म में जातिगत भेदभाव नहीं था सभी वर्ग की स्त्रियां अपने व्यक्तिगत कष्टों एवं सामाजिक बंधनों से विलग होकर, प्रव्रज्या ग्रहण करके निर्वाण प्राप्ति हेतु प्रयास कर सकती थीं।
निष्कर्ष : उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि स्त्रियों को बौद्ध संघ में स्थान प्राप्त करने हेतु कठोर एवं अथक प्रयास करने पड़े। सशर्त संघ में प्रवेश की अनुमति के बाद भी उनके लिए कठिनाइयां अवश्य जारी रहीं। परन्तु बौद्ध संघ ने नियमों की परिधि में स्त्रियों को अनुशासित एवं आध्यात्मिक जीवन जीने का अवसर प्रदान किया। बौद्ध धर्म ने ब्राह्मण धर्म की तुलना में स्त्रियों को अधिक अवसर, अधिकार एवं स्वतंत्रता प्रदान की। तत्कालीन समाज द्वारा स्त्रियों पर थोपी गई जिम्मेदारियों में सबसे महत्त्वपूर्ण परिवार, विवाह एवं प्रसूति थे, जिनके निर्वाहन हेतु स्त्रियों को पुरुषवादी सामाजिक संरचना में बंधकर रहना पड़ता था। बौद्ध धर्म ने स्त्रियों को इन संस्थाओं से मुक्त होने एवं स्वयं को संयोजित करने का अवसर प्रदान किया। संघ में शामिल स्त्रियां स्वयं को सांसारिक बंधनों से मुक्त महसूस करती थीं, जहाँ वह शांतिपूर्वक स्वाध्याय के माध्यम से निर्वाण प्राप्ति हेतु प्रचार कर सकती थीं। इसी कारण तत्कालीन समाज एवं उसकी कुरीतियों से त्रस्त होकर स्त्रियां लगातार बौद्ध संघ की ओर उन्मुख होती रहीं। इसके अतिरिक्त तथागत का ओजस्वी चरित्र, संघ का वातावरण एवं लगभग समान अधिकारों की अवधारणा स्त्रियों को संघ की ओर आकर्षित करती रही।
सन्दर्भ :
5. स्वामी द्वारिकादास शास्त्री : चुल्लवग्गपालि (हिंदी अनुवाद), बौद्ध भारती प्रकाशन, साधना प्रेस, द्वितीय संस्करण, वाराणसी, 2021, पृ. सं. – 573
6. स्वामी द्वारिकादास शास्त्री : चुल्लवग्गपालि (हिंदी अनुवाद), बौद्ध भारती प्रकाशन, साधना प्रेस, द्वितीय संस्करण, वाराणसी, 2021, पृ. सं. – 576
7. आई. बी. हॉर्नर : वीमेन अंडर प्रिमिटिव बुद्धिज़्म, मोतीलाल बनारसी लाल पब्लिशर्स, दिल्ली, 2007, पृ. सं.-105
8. डॉ. विमलकीर्ति : थेरीगाथा, सम्यक प्रकाशन, पंचम संस्करण,2018, नई दिल्ली, पृ. सं. - 65
12. डॉ. विमलकीर्ति : थेरीगाथा, सम्यक प्रकाशन, पंचम संस्करण, नई दिल्ली, 2018, पृ. सं. – 63
13. डॉ. विमलकीर्ति: थेरीगाथा, सम्यक प्रकाशन, पंचम संस्करण, नई दिल्ली, 2018, पृ. सं. – 85
14. डॉ. विमलकीर्ति: थेरीगाथा, सम्यक प्रकाशन, पंचम संस्करण, नई दिल्ली, 2018, पृ. सं. – 81
15. डॉ. विमलकीर्ति: थेरीगाथा, सम्यक प्रकाशन, पंचम संस्करण, नई दिल्ली, 2018, पृ. सं. -159
16. डॉ. विमलकीर्ति: थेरीगाथा, सम्यक प्रकाशन, पंचम संस्करण, नई दिल्ली, 2018, पृ. सं. - 79
17. रुपाली मोकाशी: रिसर्च आर्टिकल- 'फीमेल पट्रोन्स ऑफ़ अर्ली बुद्धिज़्म इन एन्सिएंट इंडिया: एन एपिग्राफिकल एनालिसिस', जर्नल ऑफ़ हिस्टोरिकल आर्कियोलॉजी & ऐंथ्रोपोलॉजिकल साइंसेज, EISSN: 2573-2897, 2017; 1 (4): 108-110. DOI: 10.15406/jhaas.2017.01.00021
असिस्टेंट प्रोफेसर, प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, ईश्वर शरण पी. जी. कॉलेज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
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