- रविन्द्र कुमार गौतम
शोध सार : प्रस्तुत शोध पत्र में किस प्रकार नाथ-सिद्ध योगियों का अभ्युदय हुआ तथा उनका प्रसार एवं प्रचार हुआ, इस पहलू को दिखाने का प्रयास किया गया है। नाथसिद्ध का मूल उद्भव बौद्धों की वज्रयानी परम्परा से माना जाता है। सिद्ध शब्द भी बौद्ध तांत्रिकों, शैव योगियों एवं नाथ योगियों के लिए प्रयुक्त हुआ। सिद्ध का अभिप्राय
84 सिद्धों से है। तांत्रिक परम्परा में 84 योग और आसनों को महत्त्वपूर्ण माना गया। 84 संख्या वास्तविक न होकर काल्पनिक थी और यह एक प्रकार का शुभ अंक मान जाता था। शोध पत्र में यह प्रदर्शित किया गया है कि कैसे 84 तांत्रिक सिद्धों और नाथ-सिद्धों में बहुत सारी समानताएं हैं। वर्णरत्नाकर जैसे ग्रंथों में सिद्ध संतों की संख्या 84 नहीं है। बहुत से ऐसे सिद्ध संत हैं जिनका नाम नाथ - सिद्धों की सूची में पाया गया है। कभी-कभी एक सिद्ध अनेक प्रकार की सिद्धि प्राप्त कर लेने के उपरान्त जब दूसरे गुरु से दीक्षा लेता था तो उसका नाम भी बदल जाता था।
बीज शब्द : तांत्रिक सिद्ध, योग, नाथपंथ, हठयोग, गुरु,साधना, कनफटा।
मूल आलेख : प्रस्तुत शोध पत्र में 84 सिद्धों के क्रम में नव नाथों को महत्त्व प्रदान किया है। यही नवनाथ नाथ संत परम्परा के आधार हैं। नाथ का अभिप्राय ब्रह्म का बोध कराने से है। नाथ पंथी हठयोग की विशिष्ठ साधना का अनुसारण करते थे, जिन्हें योगी कहा गया। यह गोरखनाथी, कनफटा, पवित्री, दर्शनी योगी के रूप जाने गए। गोरखपंथी लोग कान के मध्य भाग में कुण्डल धारण करते थे। यह इनकी विशेष पहचान थी।
नाथ सिद्धों ने सामाजिक सौहार्द बढ़ाने का प्रयास किया। इस पंथ परम्परा में सभी जाति तथा धर्म के लोगों का बराबर सम्मान था। पंजाब प्रांत में मुसलमान वर्ग के भी योगी पाये गए। इन्हें रावल के नाम से पुकारा जाता है। नाथ परम्परा का प्रभाव केवल सामान्य जन मानस में ही नहीं था बल्कि राजाओं और राजवंशों के लोगों ने भी गृह त्याग कर योगी बन समाज को संदेश देने का प्रयास किया। जिसमें राजा भर्तृहरि जो उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के बडे़ भाई थे। इसी प्रकार गोपीचन्द्रनाथ जो बंगाल के राजा मानिकचन्द के पुत्र थे। इसी क्रम में कनिफानाथ यह मद्र देश के राजा सुरथ के पुत्र थे। उक्त नाथ संत राजा या राजा के भाई या पुत्रादि ने राज-पाठ छोड़कर योगी बनकर समाज को संदेश देने में महती भूमिका निभाई। नाथ योगी गोपीचन्दनाथ द्वारा आविष्कृत यंत्र सारंगी को बजाकर राजा भर्तृहरि की कहानियों को गा-गाकर गाँव-गाँव फेरी लगाते थे।
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सिद्ध केवल वज्रयान परम्परा नहीं बल्कि नाथ परम्परा में भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं। प्रत्येक परम्परा में अनेक योगी हुए लेकिन कुछ योगी विलक्षण सिद्धियों को प्राप्त करने के कारण सिद्ध संत कहलाए। प्रत्येक सम्प्रदाय या परम्परा में सिद्धों की सूची अलग-अलग मिलती है। बौद्ध एवं नाथों की सूची अलग प्राप्त होती है लेकिन उल्लेखनीय है कि बहुत सारे ऐसे नाम दोनों सम्प्रदायों में स्पष्ट देखे जा सकते हैं। यह 84 सिद्ध परम्परा नेपाल, तिब्बत, कामरूप, उड़ीसा ही नहीं बल्कि दक्षिण भारत में भी अपने अस्तित्व में थी। यह कह पाना कठिन है कि 84 सिद्धों की सूची में कौन सिद्ध बौद्ध परम्परा तथा कौन सिद्ध नाथ परम्परा से है। कभी-कभी एक सिद्ध अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त कर लेने के बाद जब दूसरी सिद्धि प्राप्त करने के लिए दूसरे गुरु से दीक्षा लेता तो उसके साथ ही उसका पूर्व नाम भी परिवर्तित हो जाता अथवा उसके पूर्व नाम की उपाधि परिवर्तित हो जाती है।1
महामहोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री द्वारा निर्दिष्ट वर्णरत्नाकर की सूची में 84 सिद्धों का वर्णन दिया गया है। हालांकि इस सूची में नाम केवल 76 सिद्धों के ही हैं। वर्णरत्नाकर एक ताम्रपत्र पर हस्तलिखित ग्रंथ है जो बंगलाक्षरों में लिखा हुआ है। यह ग्रन्थ एशियाटिक सोसाइटी के संग्रहालय में सुरक्षित है। 76 सिद्धों के नाम इस प्रकार हैं- (1) मीनन्नाथ, (2) गोरखनाथ, (3) चौरंगीनाथ, (4) चामरीनाथ, (5) तन्तिया, (6) हालिया, (7) केदारिया, (8) घोंगया, (8) दारिया, (10) विरूपा, (11) कपाली, (12) कमारी, (13) कान्ह, (14) कनखल, (15) मेखल, (16) उन्मन, (17) काण्डलि, (18) धोबी, (19) जालन्धर, (20) टोगी, (21) मवह, (22) नागार्जुन (23) दौली (24) भिषाल, (25) अचिति, (26) चम्पक, (27) ढेण्टस, (28) भुम्बरी,
(29) बाकलि, (30) तुजी, (31) चर्पती, (32) भादें, (33) चान्दन, (34) कामरी, (35) करवल, (36) धर्मपापतंग, (37) भद्र, (38) पातलिभद्र, (39) पालिह्दिृ, (40) भानु, (41) मान, (42) निर्दय, (43) सबर, (44) शान्ति, (45) भर्तृहरि, (46) भीषण, (47) भटी, (48) गगनपा (49) गमार, (50) मेनुरा, (51) कुमारी, (52) जीवन, (53) अधोसाधव, (54) गिरिवर, (55) सियारी, (56) नागवालि (57) विभवत, (58) सारंग, (59) विविकिधज, (60) मगरधज, (61) अचित, (62) विचित, (63) नेचक, (64) चाटल (65) नायन (66) भीलो, (67) पाहिल, (68) पासक, (69) कमल-संगारि, (70) चिपिल, (71) गोविन्द, (72) भील, (73) भैरव, (74) भद्र, (75) भमरी (76) भुरूकुटी।
शास्त्री महोदय ने इस सूची को नाथ सम्प्रदाय की मान्य सूची माना। इसका आधार सम्भवतः यही है कि इस सूची में मीननाथ को आदि सिद्ध माना गया है और मीननाथ की मत्स्येन्द्रनाथ से भिन्नता दिखाकर इस सूची को नाथ सम्प्रदाय की सूची कहा गया।2 इसका यह अभिप्राय है कि नाथों को भी सिद्ध कहते थे।
महायान बौद्ध तथा वज्रयान विशेष रूप से तंत्र के क्षेत्र में जिज्ञासुओं को ध्यान में रखते हुए 84 सिद्ध संतों का जीवन दर्शन प्रस्तुत है। तिब्बत के सस्क्य विहार के पाँच प्रधान गुरुओं की ग्रंथावली है जो तेर्गी मठ से छपी हैं। इसमें 84 सिद्धों की संख्या पूरी है जो उनकी जाति तथा देश का भी उल्लेख किया गया है-
(1) लुईया, कायस्थ, सिंहल, राजा धर्मपाल (2) लोलापा, क्षत्रिय, दक्षिण, सरहपा (3) विरूपा, क्षत्रिय, पूर्वी भारत, राजा देवपाल (4) डोम्बिया, क्षत्रिय, मगध, लुईया (5) शबरपा, जंगलीजाति, मन्त्रविक्रम, लुई, सरह (6) सरहपा, ब्राह्मण, राज्ञी के अन्तर्गत राजा रत्नपाल (7) कड्करिया, शूद्र (गृहपति), मापहुर (8) मोनपा, महुआ, कामरूप, जालन्धरण का शिष्य (9) गोरक्षपा, गन्धिक, पूर्वी भारत, राजा देवपाल (10) चौरड्गीपा, क्षत्रिय, पूर्वी भारत, राजा देवपाल का पुत्र (11) वीणापा, क्षत्रिय, गौड़ (बिहार), कण्हपा का शिष्य (12) शान्तिपा, ब्राह्मण, विक्रमाशिला, देवपाल (13) तन्तिपा (तन्तुपा), जुलाहा, सेन्धी नगर जालन्धर का शिष्य (14) चमरिया, चर्मकार, विष्णुनगर (15) खड्गपा, शूद्र, मगध, गुरु योगी चर्परी (16) नागार्जुन, ब्राह्मण, काज्वी, सरह का शिष्य (17) कण्हपा, कायस्थ, सोमपुरी, गुरू जालन्धरपा (18) कर्णरिपा, क्षत्रिय, सिंहल, गुरु नागार्जुन (19) थाकणपा, शूद्र, पूर्वी भारत, शान्तिपा के गुरु (20) नरोपा, मदीरा, शालिपुत्र, महिपाल (21) श्यालिपा, शुद्र, विधपुर (22) तिल्लिपा, ब्राह्मण, विष्णुनगर, नरोपा का गुरु (नडपा) (23) चत्रपा, चत्तपा, शूद्र, सेन्धोनगर (24) भद्रपा, ब्राह्मण, मणिधर, सरहज (25) भद्रपा, भद्रिपा, ब्राह्मण (26) अजोगी (अयोगी), गृहपति, पाटलिपुत्र (27) कलपा, राजपुर, अवधुतिपा (28) धोबीपा, धोबी, सालिपुत्र (29) कड्कनपा (कड्किन), क्षत्रिय, विष्णुनगर (30) कम्बलपा, क्षत्रिय, कड्करम, घण्टापा का शिष्य (31) डेडिंगपा, ब्राह्मण, सालिपुत्र, लूहिपा का शिष्य (32) भन्धेपा, देव(?), श्रावस्ति, गु़रु कण्हपा (33) तन्तिपा, शूद्र, कौशाम्बी (34) कुकुरिपा, ब्राह्मण, कपिल क्रुन, मीनपा का गुरु (35) कुचिपा; (कुसुलिपा भी), शूद्र, कहरि (36) धर्मपा, ब्राह्मण, विक्रमपुर, कण्हपा, जालन्धरपा (37) महिलपा (महीपा), शुद्र, मगध, कण्हपा का शिष्य (38) अचिन्त, लकड़हारा, धनिरूप (39) भधह, बधहि अथवा क्षत्रिय, धज्जुर (40) नलिपा(पद्य का मूल), क्षत्रिय, सालिपुत्र (41) भुसुकुपा, क्षत्रिय, नालन्दा, राजा देवपाल (42) इन्द्रभूति, क्षत्रिय, सम्भोल देश, अनङ्गयज के शिष्य (43) मकोपो, वणिक, भंगल देश (44) कोदपिला (कोडलिपा), केनेत (?), रामेश्वर, शान्तिपा का शिष्य (45) कमरिपा, लोहार, सालिपुत्र, अवधुतिपा का शिष्य (46) जालन्धरपा, ब्राह्मण, नगरभो, कन्हण और मत्स्येन्द्र (47) राहुल, शूद्र, कामरुपा, सरह तीसरा (48) धर्मपा, ब्राह्मण(?), बोधिनगर, विरुपा से चौथे पीढ़ी (49) धोकरिपा, शुद्र, सालिपु़त्र, (50) मेधिनि, शुद्र, सालिपुत्र, लीलापा से चौथी पीढ़ी (51) पङकजपा, ब्राह्मण, नागार्जुन के शिष्य (52) घण्टपा, क्षत्रिय, वारेन्द्र नालन्दा, राजा देवपाल (53) जोकिया, डोम, ओदन्तपुरी, शबरपा का शिष्य (54) चलुकिपा, शुद्र, मंगलपुर, मैत्रिपा का शिष्य (55) गोधुरिपा (गुण्डरिपा), ब्याध, डिसु नगर, लीलापा का शिष्य (56) लुचिकपा, ब्राह्मण, भंगल देश (57) नगुणपा, शुद्र, पूर्वदेश (58) जयानन्द, ब्राह्मण, भंगलपुर (59) पचरिपा, कहार, चम्पक, मीनपा का गुरु (60) चम्पकपा, क्षत्रिय, चम्पक (61) भिक्षनपा, शुद्र, सालिपुत्र (62) धिलिपा, तेल वणिक, सतपुरी (63) कुम्भरिपा, कुम्भकार जोमनश्री(?) (64) चरिपा, चरवक, मगध, कण्हपा की तीसरी (65) योगिनी मणिभद्रा, गृहपति कन्या, अगचे नगर, कुकुरिपा की शिष्या (66) योगिनी मेखली, गृहपति कन्या, देवीकोट, कण्हपा की शिष्या (67) योगिनी कनखलापा, गृहपति कन्या, देवीकोट, कण्हपा की शिष्या (68) किलपा, किलिकिलि शुद्र भिरिलिड़ नगर (69) कन्तलिया, कनालिपा, जमादार मणिभद्र (नगर) (70) धहुलिया धगुलिय, शुद्र धोकर देश (71) उडिलिपा उधलिपा भी, वैश्य, देवीकोट कर्णरिपा की शिष्या (72) कपालिपा, शूद्र, राजपुरी (नगर) (72) किरपालपा (किलपा), क्षत्रिय, ग्रहर (प्रहार, सहर) (74) सागरपा, क्षत्रिय, काञ्ची, राजा इन्द्रभूति (छोटा इन्द्रभूति) (75) सर्वभक्ष, शूद्र आभीर नगर राजा, हरिश्चन्द्र गुरु सरह (छोटे) (76) नागबोधि, ब्राह्मण, पश्चिमी भारत नागार्जुन की शिष्या (77) दारिकपा, क्षत्रिय, सालिपुत्र, समकालीन (78) पुतलिपा, शूद, भंगाल (बंगाल) (79) पनहपा, उपनहपा, चर्मकार, सेन्धो नगर (80) कोकिलपा, क्षत्रिय, चम्पार्ण (चम्पारण) (81) अनड्गपा, शुद्र, घहुर (गौड़) (82) योगिनी, लक्ष्मीकर, राजकुमारी सम्भल नगर राजा इन्द्रभूति (83) समुद्रपा, शूद्र सर्वडि (?) (84) व्यालिपा, ब्राह्मण, अपत्र देश, नागार्जुन (वृत्तान्त के अनुसार)
जिस प्रकार सिद्धों की संख्या 84 है उसी प्रकार नाथों की संख्या नौ है। गोरख सिद्धान्त संग्रह में 9 मार्ग प्रवर्तकों के नाम गिनाए गए हैं।3 नागार्जुन, जडभरत, हरिश्चन्द्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरखनाथ, चर्पट, जालंधर, मलयार्जुन। अनेकों स्रोतों एवं सूचियों जिसमें मुख्यतः 1-हठयोग, 2-वर्णरत्नाकर 3-सस्कय विहार के आधार पर नौ नाथ नामावली इस प्रकार है-आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ, जालंधरनाथ, चपर्टीनाथ, कानिफानाथ, चौरंगीनाथ, भर्तृहरिनाथ, गोपीचन्दनाथ। (1) आदिनाथ-परम शिव स्वरूप हैं। यही लिंगायत, पाशुपत तथा अन्य शैव सम्प्रदाय के गुरु माने जाते हैं। यही सर्वप्रथम गुरु, महागुरु, महायोगी के रूप में स्वीकृत हैं। 2-मत्स्येन्द्रनाथ-यह गोरखनाथ के गुरु थे। नाथ परम्परा के अनुसार आदि गुरु माने जाते हैं। हर प्रसाद शास्त्री का अनुमान है कि यह मत्स्येनाथ मछली मारने वाली कौवर्त जाति में उत्पन्न हुए थे। 3-गोरखनाथ-मत्स्येन्द्र के शिष्य तथा नाथ सम्प्रदाय के संगठनकर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं इन्होंने कायातीर्थ तथा इनकी अमरता का साधन हठयोग को बताया। गोरखबानी में इनकी 14 रचनाओं का संकलन है।4 नाथ सम्प्रदाय में इनका व्यक्तित्व सबसे व्यापक है। भारत के अतिरिक्त नेपाल, तिब्बत, चीन, लंका, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, आदि देशों में भी यह व्याप्त है। 4-जालंधरनाथ-यह मत्स्येन्द्र के गुरु भाई थे। पंजाब के जालंधर पीठ में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम जालंधर पड़ा। यह कापालिक मत के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। मत्स्येन्द्रनाथ, कण्हपा और ताप्तिया इनके शिष्यों में से थे। भोटिया ग्रन्थ में इन्हें आदिनाथ माना गया है।5
5 - चर्पतीनाथ-‘यह परपटीनाथ, चर्पटीया, पचरीया नाम से भी जाने जाते हैं। वज्रयानी सिद्धों में भी इनका नाम है। नाथ परम्परा में ये गोरक्षनाथ के शिष्य हैं। यह जाति के ब्राह्मण थे। तिब्बती परम्परा में इन्हें मीनपा का गुरु भाई बताया गया है।
6-कानिफानाथ-इनका जन्मस्थान सोमपुरी है। ये जालंधरपाद के शिष्य कुष्ठाया ही है। राजा देवपाल द्वारा निर्मित सोमपुरी बिहार के ये एक भिक्षु थे। यह भद्र देश के राजा सुरथ के पुत्र थे। इन्होंने अनेक तांत्रिक ग्रन्थ की रचना की तथा सिद्धियॉं प्राप्त कीं। एक आँख के होने के कारण इनका नाम कानपा पड़ा।
7-चौरंगीनाथ-यह राजा सालवाहन के पुत्र मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य और गोरखनाथ के गुरु भाई थे। 84 सिद्धों में आपका 10वॉं स्थान हैं इनकी रचनाएँ नाथ-सिद्धों की बानियॉं, संग्रह में प्रकाशित हैं। इन्होंने एक पागलपंथ भी चलाया था।
8-भरथरी नाथ (भर्तृहरि) ऐसा माना जाता है कि राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। वे गोरखनाथ के शिष्य थे इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ वाक्पदीय, शृंगार शतक प्रसिद्ध हैं। इन्हें उज्जैन का राजा माना गया है। उज्जैन से 6 किलोमीटर दूर भर्तृहरि की गुफाएँ हैं जो नाथ साधना की केन्द्रस्थली है। चुनार के किले में इनकी समाधि है। इनकी समाधि भरथरि पर साधु आज भी इकट्ठा होते हैं।
9-गोपीचन्दनाथ-यह राजा गोविन्द चन्द के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनके पिता बंगाल के राजा मानिक चन्द थे। इन्होंने ही सारंगी (गोपीतंत्र) का आविष्कार किया थे। इनके गीतों में नाथयोग की साधना तथा वैराग्यभाव है। भर्तृहरि साधु इनकी स्थापनाओं तथा इनसे सम्बन्धित कहानियों को गा-गा कर सारंगी बजाते हुए फेरी लगाते हैं।
नाथ सम्प्रदाय की प्राथिमिक रूप से पहचान आदि नाथ के अनुसार सब नाथों में प्रथम नाथ शिव हैं। नाथ दो शब्दों से मिलकर बना है। शक्ति संगम तंत्र के अनुसार ‘ना’ का तात्पर्य उस नाद ब्रह्म से हैं जो मोक्ष दान में निपुण है तथा उसका ज्ञान करता है। ‘ज्ञ’ का अभिप्राय ज्ञान का बोध से है। अर्थात् नाथ वह है, जो ज्ञान का बोध कराए तथा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करे। गोरखाबानी में भी गोरखनाथ ने ‘नाथ’ शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ परमतत्त्व या ब्रह्म तथा गुढ़ है।6 जो साधक नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित होता था उसके नाम के अंत मे नाथ उपाधि जोड़ दी जाती थी ऐसे साधक जो नाथ को परमतत्त्व या गुढ़ स्वीकार कर योग साधना करते थे तथा नाथ सम्प्रदाय द्वारा निर्धारित नियमों एवं विधि-विधानों का पालन करते थे उन्हें नाथ पंथी कहा गया। जो नाथ पंथी साधक ‘हठयोग’ की विशिष्ठ साधना का अनुसरण थे उन्हें योगी कहा गया। इन योगियों में ‘कनफटा’ एवं पवित्री तथा दर्शनी, योगियों को गोरखनाथी साधक के नाम से जाना जाता है। जिन योगियों की दीक्षा के समय कान की लो को फाड़ा जाता था उन्हें कनफटा कहा गया। यह कनफटे योगी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, गंगा के आस-पास के प्रदेशों और नेपाल में मिलते हैं।7 दर्शनी शब्द का मूल अर्थ दर्शन है। दर्शन को कुण्डल भी कहते हैं। कान फड़वाकर स्फटिक या अन्य किसी धातु का कुण्डल धारण करने के कारण इन्हें दर्शनी कहा गया। नाथ पंथी साधकों को अत्यधिक पवित्र माना जाता है। इसलिए इन्हें पवित्री भी कहा गया।
गौरखपंथी लोग कान के मध्यभाग में कुण्डल धारण करते थे जबकि कानिया पंथ के लोग कान के लो में उसे पहनते थे। यह मुद्रा गोरखनाथी योगियों का चिह्न है।8 कान में कुण्डल धारण करने की परम्परा नाथपंथियों में कहा से प्रारम्भ हुई इस प्रश्न को लेकर विद्वानों में मतभेद है। प्रथम नाथपंथी योगी जालंधर कुण्डल धारण करते थे, उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर यह कह पाना कठिन है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुण्डल धारणा करने की प्रथा मत्स्येन्द्रनाथ या गोरखनाथ द्वारा प्रारम्भ की गयी थी। हालांकि यह परम्परा कोई नहीं थी क्योंकि मत्स्येन्द्र से पहले कुण्डलधारी शिव मूर्तियाँ मिली हैं। एलोरा एवं एलीफेण्टा की गुफाओं में शिव की अनेक ऐसी मुर्तियों हैं जो कुण्डल धारण किए दिखाई गयी है। अनुभूतियों के आधार पर कहा जाता है कि मत्स्येन्द्र द्वारा कठोर तपस्या के उपरान्त शिव जी ने अपना देश ज्यों का त्यों मत्स्येन्द्र जी को दे दिया था।
विपिन्न प्रदेशों में नाथपंथी लोगों को विभिन्न नामों जाना गया। ब्रिग्स के अनुसार, जो लोग पंजाब, हिमालय बम्बई में रहते थे उन्हें ‘नाथ’ नाम से, पश्चिम भारत में प्रायः धर्मनाथी नाम से तथा भारत के अन्य भागों में गोरखनाथी और कनफटा नाम से पुकारे गए।9 पंजाब प्रान्त में मुसलमान वर्ग में भी ये योगी मिलते हैं। उन्हें रावल नाम से पुकारा जाता है।
गोरखनाथ के नाथ पंथ का मूल बौद्धों की वज्रयान शाखा है।10 इसमें मुख्यतः प्रथम संत जालंधर पाद को लिया जाता है जालंधर के शिष्य कृष्णपाद थे जो सहजिया सिद्ध है, जो बौद्धों से सम्बन्धित थे, हालांकि जालंधर हठ योगी नहीं था। नाथ पंथ में हठयोग साधना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सहजिया सिद्ध और नाथ मत में स्पष्ट अन्तर हैं। नाथों का चमत्कार, सिद्धि गूढ़ता, कष्टमय साधना, बाह्य प्रदर्शन आदि प्रमुख था जबकि सहजयानियों का उक्त क्रियाओं के प्रति तीव्र विरोध था। सहजयानियों का लक्ष्य सुखानुभव एवं राजयोग था। जलांधर को नाथ मतानुयायी माना जाता है। लेकिन उनकी कार्यपद्धति एवं सिद्धान्त मूलतः नाथ पंथियों से भिन्न थे। जालंधर के शिष्य मत्स्येन्द्र थे। मत्स्येन्द्र गोरखनाथ के गुरु थे। मत्स्येन्द्र तांत्रिक परम्परा यौगिनी कौल मार्ग से सम्बन्धित थे। यौगिनी कौलमार्ग का उद्भव स्थल कामरूप (आसाम) माना जाता है। इसी मार्ग के अनुयायी मत्स्येन्द्रनाथ थे। अतः नाथपंथियों का उद्गम स्थल आसाम माना जाता है। कौलमार्गी के साथ ही कापालिक भी नाथ पंथी थे। कापालिक प्रारम्भ में स्वतंत्र अस्तित्व में थे लेकिन बाद में नाथपंथी साधुओं में समाहित हो गये।11 नाथ पंथियों का कापालिकों, पाशुपतों और अधोरियों से घनिष्ठ सम्बन्ध था। लेवी के प्रमाण के आधार पर कहा जा सकता है कि नेपाल में मत्स्येन्द्र नाथ पाशुपत शैव मत और बौद्ध मत के मिश्रित धर्म का प्रतिनिधित्व करते थे।12
गोरखनाथी लोग मुख्यतः बारह शाखाओं में विभक्त थे। इन्हीं को पंथ के नाम से जाना जाता है। अनुश्रुति के अनुसार स्वयं गोरखनाथ ने परस्पर विभिन्न नाथ पंथियों को संगठित करके इन्हें 12 शाखाओं में विभक्त कर दिया।13 ये बारह पंथ निम्न हैं-सत्यनाथी, धर्मनाथी, रामपंथ, नटेश्वर, कन्हड़, कपिलायी, बैराग, माननाथी, आईपंथ, पागल पंथ, धजपंथ, गंगानाथी। ब्रिग्स महोदय ने कनफटा योगियों के बारह पंथ माने हैं।14 जिसमें से 6 पंथ शिव द्वारा प्रवर्तित तथा 6 पंथ गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित माने गए। शिव द्वारा प्रवर्तित 6 पंथ-(1) कण्ठासाथ का भुग प्रदेश (2) पागलनाथ पेशावर और रोहतक, (3) रावल आफ अफानिस्तान (4) पंख (5) वैन आफ मेवार (6) गोवाल और राम के गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित 6 पंथ- (1) हरनाथ (हेठनाथ) (2) चोली का आईपंथ (देवी विमला बाम्बे) (3) चंदनाथ कपिलानी (4) वैराग्य-रताधाण्डो मारवाड़ रतननाथ (5) पावननाथ का जयपुर का हूय-जालंधरवा, कानीया, गोपीचन्द (6) धजपंथी।
नाथ योगी मेखला, शृंगी, सेली, गूदरी, खप्पर, कर्णमुद्रा, बधम्बर, झोला आदि धारण करते थे। कान में कुण्डल धारण करने की प्रथा कब और किसने प्रारम्भ की इस पर मतैक्य नहीं है। कुछ लोगों का कहना है कि गोरखनाथ ने भरथरी का कान फाड़कर इस प्रथा को चलाया था। भरथरी के कान में गुरू ने मिट्टी का कुण्डल पहनाया था।15 गोरखपंथी लोग किसी शुभ दिन (विशेषकर वसंत पंचमी को) कान को चिरवा कर मंत्र संस्कार के साथ इस मुद्रा को धारण करते हैं।
नाथ योगियों के वेश का मलिक मुहम्मद जायसी एवं कबीर दास जैसे कवियों ने अपने रचनाओं में सुन्दर वर्णन किया है। योगियों का वेश जो आज है वह दीर्घ काल से चला आ रहा है। योगी वेश धारण करने वाले राजा रतन सेन ने हाथ में किंगरी, सिर पर जटा, शरीर में भस्म, मेखला, शृंगी, योग को शुद्ध करने वाला धंधारी चक्र, रूद्राक्ष और आधार (आसन का पीढ़ा) धारण किया था। कन्था पहनकर हाथ में सोटा लिया था और गोरख-गोरख की रट लगाते हुए निकल पड़ा था, उसने कान में मुद्रा, कण्ठ में रूद्राक्ष की माला, हाथ में कमण्डल, कन्धे पर बधम्बर (आसन के लिए) पैरों में पावरी, सिर पर छाता और बगल में खप्पर धारण किया था। इन सबकों उनसे गेरूए रंग में रंगकर लाल कर लिया था।16
उक्त चिह्नों में किंगरी एक प्रकार की चिकारी थी जिसे भर्तृहरि के गीत गाने वाले योगी लिए फिरते थे। मेखला-यह मूंज की रस्सी का कटिबंध है। शृंगी-पद हिरण के सींग का बना था जो मुँह से बजाया जाता था। यह शृंगी प्रातः या सायं कालीन उपासना के पूर्व और भोजन ग्रहण के पूर्व योगी लोग बजाया करते थे। धन्धरी-यह एक तरह का चक्र हैं गोरखपंथी साधु लोहे या लकड़ी की शलाकाओं के हेर-फेर से चक्र बनाकर उसके बीच में छेद करते हैं। इस छेद में कोड़ी या मालाकार धागे को डाल देते हैं फिर मंत्र पढ़कर उसे निकाला करते हैं। यह प्रक्रिया आसान नहीं थी जो इस प्रक्रिया को नहीं जानता था वह उलझ जाता था इसी को धॉंधरी या गोरखधंधा कहा गया।
गोरखपंथियों को ऐसा विश्वास है कि मंत्र मढ़कर गोरखधंधे से डोरा निकालने से गोरखनाथ की कृपा से मोक्ष की प्राप्ति होती है।17 रूद्राक्ष-यह एक माला होती थी जिसमें 32, 64, 84, 108 मनके होते थे। रुद्राक्ष दोमुखी, पंचमुखी और ग्यारह मुखी होते थे। ग्याहर रूद्राक्ष सबसे पवित्र माना जाता था। अधारी-काठ के डण्डे में लगा काठ का पीढ़ा (आसा) है। जिस पर योगी लोग बैठते थे। बिना अभ्यास के इस पर बैठता कठिन था। कंथा-इसे गूदरी भी कहते थे। यह गेरूए रंग का चोला होता था जिसे गले में डाल लेने से अंग ढक जाता था। गेरूआ या लाल रंग ब्रह्मचर्य का साधक माना जाता था। सोंटा-यह काले रंग का 3 फीट के आस-पास का डंडा होता था जो झाड़ फूक करने के काम आता था। खप्पर-मिट्टी के घड़े के फोड़े हुए आधे भाग को खप्पर कहते हैं। यह नारियल या कांसे का भी होता था। कांसे का बना होने के कारण इसे कांसा भी कहते हैं। विदेशी पर्यटक इब्नबतूता भारत आया और भारत भ्रमण के दौरान उसने योगियों को देखा। इब्नबतूता बताता है कि कुछ लोगों ने बताया बाघ मनुष्यों का संहार करते थे। वास्तव में यह बाघ नहीं बल्कि योगी ही बाघ के रूप में मनुष्यों की हत्या करते थे। इब्नबतूता कहता है कि इस पर मुझे विश्वास नहीं हुआ।18 इब्नबतूता बताता है कि योगी बड़े-बड़े अद्भुत कार्य करते थे। कुछ ऐसे भी संत थे जो महीनों बिना खाये रह जाते थे। कोई-कोई तो धरती के भीतर गढ्ढे में बैठ ऊपर से चुनाई कराकर सांस लेने के लिए रंध्र छुड़वा देते थे-इसमें कई मास या वर्ष पर्यंत रहते थे।19
1. नागेन्द्र नाथ उपाध्याय-गोरखनाथ सम्प्रदाय के परिपेक्ष्य में। विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी 2020, पृ.-08।
2. धर्मवीर भारती, सिद्ध साहित्य, लोकभारती, प्रकाशन, प्रयागराज, 2016, पृ. 22।
3. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 30-31।
4. हजारी प्रसाद द्विवेदी-नाथ सम्प्रदाय, लोक भारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2022, पृ. 47।
5. पंडित राहुल सांस्कृत्यापन-आधार-पुरातत्व निबंधावली।
6. नागेन्द्र नाथ उपाध्याय-गोरखनाथ सम्प्रदाय के परिपेक्ष्य में। विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी 2020, पृ.-02।
7. जार्ज वेस्टन ब्रिग्स-गोरखनाथ एण्ड दी कनफटा योगी, मोतीलाल बनारसी दास प्रकाशन, नई दिल्ली, पुर्नमुद्रण 2009।
8. हजारी प्रसाद द्विवेदी-नाथ सम्प्रदाय, लोक भारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2022, पृ. 19।
9. वहीं, पृ. 1।
10. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली, 2010, पृ. 29।
11. हजारी प्रसाद द्विवेदी-नाथ सम्प्रदाय, लोक भारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2022, पृ. 19।
12. नागेन्द्र नाथ उपाध्याय-गोरखनाथ सम्प्रदाय के परिपेक्ष्य में। विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी 2020, पृ.-77।
13. हजारी प्रसाद द्विवेदी-नाथ सम्प्रदाय, लोक भारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2022, पृ. 22।
14. जार्ज वेस्टन ब्रिग्स-गोरखनाथ एण्ड दी कनफटा योगी, मोतीलाल बनारसी दास प्रकाशन, नई दिल्ली, पुर्नमुद्रण 2009, पृ. 63।
15. हजारी प्रसाद द्विवेदी-नाथ सम्प्रदाय, लोक भारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2022, पृ. 26।
16. वहीं पृ. 27।
17. वहीं पृ. 28।
18. इब्नबतूता-इब्नबतूता की भारत यात्रा (हिन्दी), अनुवाद मदनगोपाल, नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया, नई दिल्ली 2005, पृ. 179।
19. वहीं, पृ. 179।
एसोसिएट प्रोफेसर, इतिहास विभाग, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी
ravindragautam95@gmail.com, 9235702206
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