21वीं सदी की नेपाली कविता : विमर्शों की दशा एवं दिशा
- गोविंद थापा क्षेत्री
बीज शब्द : नेपाली कविता, इक्कीसवीं सदी, विमर्श, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, वृद्ध विमर्श, आदिवासी विमर्श, पर्यावरण विमर्श, किसान विमर्श, बाल विमर्श।
मूल आलेख : ‘विमर्श’ शब्द अँग्रेजी के ‘डिस्कोर्स’ शब्द का पर्यायवाची है। जिसका अर्थ है- ‘संवाद’, ‘बहस’, ‘विचारों का आदान-प्रदान’ तथा ‘वार्तालाप’। किसी समस्या या स्थिति को पूर्वाग्रह से मुक्त होकर जाँचने-परखने की प्रक्रिया विमर्श है। बीसवीं सदी में ‘वाद’ की लहर ऐसी उमड़ी थी कि हर चीज़ के पीछे ‘वाद’ को जोड़कर देखा जा रहा था, इक्कीसवीं सदी में ‘विमर्श’ शब्द की भी कुछ वैसी ही स्थिति बनी हुई है। स्त्री, दलित, आदिवासी, प्रवासी, पर्यावरण, थर्ड जेंडर, विकलांग, वृद्ध, बाल, किसान, मुस्लिम आदि विमर्श के केंद्र में आए हैं। इनकी छोटी-बड़ी समस्याओं, इनकी अस्तित्व-अस्मिता एवं इनसे जुड़े अहम सवालों को उठाने का कार्य साहित्य की विभिन्न विधाओं द्वारा किया जा रहा है। परिणामत: आज का साहित्य ‘विमर्शों का साहित्य’ की संज्ञा पाने लगा है। साहित्य विमर्श का मतलब है किसी रचना या साहित्य के बारे में गहराई से सोच-विचार करना और उसे समझने की कोशिश करना। साहित्य की अन्य विधाओं के मुक़ाबले जन-जन को आंदोलित एवं प्रेरित करने में कविता की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है, क्योंकि कविता का स्वभाव ग्राह्यता, स्वीकार्यता से पूर्ण प्रभावित होता है, इसलिए यह संवेदनात्मक अभिव्यक्ति का सशक्त कलात्मक माध्यम होती है। आज का कवि क्षुब्ध, जीवन्त एवं जागरूक है, अत: उसके भीतर परिवर्तन की ललक उफान पर है। परिणामत: आज हाशिए पर रह रहे समाज को मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास विमर्शों के माध्यम से कवि कर रहा है।
नेपाल में जनजातियाँ देश के लगभग हर हिस्से में फैली हुई हैं। इन जनजातियों के विकास के लिए 2002 में ‘आदिवासी जनजाति उत्थान राष्ट्रीय प्रतिष्ठान अधिनियम’ बनाया गया। इस अधिनियम के तहत नेपाल सरकार ने कुल 59 जनजातियों को पहचान दी है।[1] जिनमें मुख्य हैं- मगर, नेवार, भोटिया, तमंग, लिम्बू, राइ, शेरपा, गुरूंग, सुनुवार, किरात, एवं लेप्चा आदि। इनकी अपनी-अपनी भाषाएँ हैं। विशिष्ट संस्कृति, खान-पान, वेशभूषा, लोक गीत हैं। नेवार जनजाति की भाषा नेवारी है। नेवारी भाषा का अपना व्याकरण, शब्दकोष तथा लिखित साहित्य भी है। इसके बावजूद भी नेवारी भाषा की उपेक्षा राजनीतिक कारणों से होती रही है। नेपाल में नेपाली भाषा एवं संस्कृत भाषा को प्रमुखता दी गई है। दफ्तरों, स्कूलों तथा अन्य सरकारी जगहों में नेपाली भाषा का बोल-बाला रहा है। नेपाल की अन्य भाषाओं से सम्बन्धित जतियों को नेपाली भाषा में शिक्षा ग्रहण करने को बाध्य किया जाता रहा है। पश्चिम नेपाल में मगर जनजाति की बहुलता है। मगर जनजाति की भाषाएँ हैं- मगर, खाम और कायकेक। मगर जनजाति ने सरकार से इनकी भाषा में शिक्षा देने की माँग की थी, परन्तु सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी। नेपाल के स्कूलों में संस्कृत अनिवार्य होने से मगर जनजाति ने इसका विरोध किया। मगर जनजाति ने संस्कृत की पुस्तकों को जलाकर इसका विरोध किया। इन सभी घटनाओं के बाद भी सरकार पर कोई असर नहीं हुआ।
आज वर्तमान समय में आदिवासी विमर्श एक ज्वलंत विषय बनकर साहित्य एवं बुद्धिजीवियों के चिंतन-मनन के केंद्र में आया है। सञ्जय बांतवा ने ‘आदिवासी केटीको निम्ति’ कविता में आदिवासी समुदाय को बाहरी दुनिया की स्वार्थपरकता से अवगत करने का प्रयास किया है। आदिवासियों के भोलेपन का फायदा उठाने वाले व्यापारियों, सत्ताधारियों एवं राजनेताओं को बेनकाब किया है -
कि कति टाढ़ा छ/ मानव र मानव को बस्ती !/ तिम्रो झुपड़ी देखि कति दूर छ
तिम्रै व्यापार गर्ने/ व्यापारी को गाउँ!![2]
(अर्थात् कि कितनी दूर है मानव और मानव की बस्ती ! तुम्हारी झोपड़ी से कितनी दूर है तुम्हारा व्यापार करने वाले व्यापारियों का गाँव!!)
आज तेज़ी से बढ़ते औद्योगिकीकरण के चलते पेड़-पौधों को काटा जा रहा है। जंगल धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं। मनुष्य अपनी लालची प्रवृत्ति के चलते पर्यावरण के विनाश को आमादा है। प्रगति एवं तरक्की के नाम पर जल-जंगल-जमीन की महत्ता को पूंजीपति नहीं समझ पा रहे हैं। मनप्रसाद सूबा की ‘जङ्गलको कुरा’ और ‘ती जङ्गलकाहरु’ कविताओं में जंगल एवं आदिवासी चिंतन को प्रस्तुत किया गया है-
तिमी बोल्छौ मशिनको भाषा/ त्यसैले यो जङ्गललाई तिमी/ ठीक बुझ्न सकिरखेको छैनौ/ तिम्रो कर्पोरेट व्याख्याले त झन्/ यो कथाको एक-एक वाक्यलाई/ शब्द/शब्द गिंडेरा क्षत-विक्षत परेको छ।[3]
(अर्थात् तुम बोलते हो मशीन की भाषा इसलिए इस जंगल को तुम ठीक से समझ नहीं पा रहे हो। तुम्हारे कॉर्पोरेट व्याख्या ने तो और इस कथा के एक-एक वाक्य को शब्द-दर-शब्द गिनकर क्षत-विक्षत कर दिया है।)
इक्कीसवीं सदी में समाज के हर वर्ग की स्त्री घरेलू हिंसा से पीड़ित एवं ग्रसित है। जिसमें स्त्री के साथ चारदीवारी में अपशब्द, मार-पीट, मानसिक प्रताड़ना, यौन हिंसा आदि अमानवीय कृत्य शामिल हैं। नेपाल में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की स्थिति गंभीर और व्यापक है। ‘SAATHI द्वारा किए गए एक अध्ययन (1997) में यह सामने आया कि 93% महिलाओं ने मानसिक और भावनात्मक उत्पीड़न का अनुभव किया, 82% महिलाएं शारीरिक हिंसा का शिकार हुईं, 30% बलात्कार का, जबकि 28% महिलाओं को वेश्यावृत्ति में धकेला गया। 64% महिलाएं बहुविवाह से प्रभावित थीं। यह अध्ययन बताता है कि नेपाल में महिलाओं को कई प्रकार की हिंसा का सामना करना पड़ता है, जिनमें मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न प्रमुख हैं। यह स्थिति समाज में महिलाओं की कमजोर स्थिति को दर्शाती है, जिसे सामाजिक बदलाव और प्रभावी कानून के जरिए बदलने की आवश्यकता है।
नेपाल पुलिस द्वारा दर्ज मामलों से संबंधित आंकड़े निम्नलिखित हैं :
इन आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि घरेलू हिंसा हर साल सबसे अधिक रिपोर्ट की गई घटना है। इसके बाद बलात्कार, बहुविवाह, और बलात्कार के प्रयास जैसे अपराध आते हैं।’[4] नेपाली समाज में स्त्री को देवी की तरह पूजा अवश्य जाता है, लेकिन आज भी नेपाली समाज में स्त्री को बोक्सी(डायन) साबित कर मारा-पीटा जा रहा है। समाज में वेश्यावृत्ति की समस्या भी फैलती जा रही है, जिसका उदाहरण सरिता तिवारी की कविता ‘हे देवी’ में देखा जा सकता है -
थाहा छ?/ तिमी निदाइरहेको बेला/ उनीहरुले तिमीलाई बोक्सी बनाए/ र बलात् ख्वाए रछ्यान/ बलजफ्ती थुनेर कोठीभित्र गरिदिए वेश्या करार/ र नैतिकताको सफ़ेदपोस भिरेर/ लेखे धर्मका नाममा पापका मन्त्र।[5]
(अर्थात् पता है? जब तुम सो रही थी, उस समय इन लोगों ने तुम्हें डायन बना दिया। बलपूर्वक तुम्हें एक कमरे में बंद कर तुम्हें वेश्या घोषित कर दिया। और नैतिकता की सफ़ेद चादर ओढ़कर लिखा धर्म के नाम पर पाप का मंत्र।)
इक्कीसवीं सदी के नेपाली कवियों ने स्त्री जीवन के विभिन्न पक्षों को समाज के समक्ष बड़ी ही गंभीरता के साथ प्रस्तुत किया है। इक्कीसवीं सदी का कवि यह स्पष्ट करता है कि स्त्री सशक्तीकरण एवं स्त्री-पुरुष समानता की बात हो रही है, परन्तु केवल योजनाओं एवं कागज़ी घोषणाओं से यह सिद्ध नहीं होगा। अभी इसे सफल होने में काफी लंबा समय लगेगा। इक्कीसवीं सदी के भारतीय नेपाली कवियों एवं नेपाल के नेपाली कवियों ने स्त्री के विविध पक्षों को उजागर किया है।
इक्कीसवीं सदी में दलित अवधारणा नेपाली साहित्य में चर्चा का मुख्य केंद्र बनने को दस्तक दे रही है। हिन्दू समाज में शूद्र जाति को दलित कहकर सम्बोधित किया जाता है, फिर भी नेपाली समाज में दलित शब्द का प्रयोग एवं प्रचलन नई बात है। यद्यपि इस वर्ग विशेष से सम्बन्धित दलित स्वर कतिपय रचनाओं में प्रस्फुटित होकर सामने आए हैं, परंतु नेपाली साहित्य में दलितों पर विमर्श होना अभी शेष है। ‘दलित शब्द आधुनिक है लेकिन दलितपन प्राचीन है।’[6] आज भी समाज में छुआछूत जैसी विसंगतियाँ प्राय: देखने-सुनने को मिल जाती हैं। अत: इन परिस्थितियों के चलते नेपाली दलित कवि के हृदय में भी आक्रोश उमड़ने लगा है। ‘उमेश परियार’ की कविता ‘म दमाई’ में कवि इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था एवं विसंगतिपूर्ण सामाजिक नियम के प्रति तीखे स्वर में प्रहार करते हैं -
एउटा जानकारी दिउँ है त बाजे/ कि मेरो थुकले भिजेको धागोले सिएको हो/ तिमीले लगाइराखेको सुरूवाल/ जुन सुरवाल लगाएर तिमी/ वेद पढ्छौ/ गीता, रामायण पढ्छौ/ चालीसा र अरू पनि केक्के-केक्के पढ्छौ/ फेरि पनि तिम्रो शास्त्रमा/ मेरो नाम किन बदनाम छ?[7]
(अर्थात् एक जानकारी दीजिए तो बाबा, कि मेरे थूक से भीगे हुए धागे से सिया है मैंने तुम्हारे लगाने वाले सुरूवाल को। जो सुरूवाल पहनकर तुम वेद पढ़ते हो, गीता, रामायण पढ़ते हो, चालीसा और न जाने क्य-क्या पढ़ते हो। फिर भी तुम्हारे शास्त्रों में मेरा नाम इतना बदनाम क्यों है?)
दलित साहित्य संघर्ष एवं विरोध का साहित्य है। अत: इसमें क्रांति का स्वर स्वत: ही प्रस्फुटित हो उठा है। ‘हजारों वर्षों से दलितों को सत्ता, संपत्ति और प्रतिष्ठा से वंचित रखा गया। दलित इस व्यवस्था के विरुद्ध बगावत न करें इसलिए ‘यह व्यवस्था ईश्वर ने बनाई है’ ऐसा सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया। दलितों की हजारों पीढ़ियाँ यह अन्याय सहन करती हुई जी रही हैं।‘[8] नेपाली कवि ‘आहुति’ की कविता ‘गहुँगोरो अफ्रिका’ से उदाहरण -
तिम्रो मन्दिरको मूर्तिमा मेरो आरनको गंध आउँछ/ ओदानीमाथिको कराहीमा मेरो पसिनाको गंध आउँछ/ आँखा जुधाउने आँट गर धर्माती मान्छे/ कि मेरो अस्तित्वलाई भुङ्ग्रोमा पोल र धर्म धान्ने आँट गर/ कि मेरो अपमान गर्ने शास्त्रका पानालाई च्यत्ने या/ जलाउने साहस गर/ म तिम्रो मंदिरको देवता बनाउने कामी हुँ।[9]
(अर्थात् तुम्हारे मंदिर के मूर्ति से मेरे परिश्रम एवं मेहनत की गंध आती है। बर्तन रखने वाली जगह में रखी कढ़ाई से मेरे पसीने की गंध आती है। आँख मिलने का साहस कर धर्मात्मा पुरुष। कि मेरे अस्तित्व को जलती हुई आग की भट्टी में जला कर धर्म धारण करने का साहस कर। कि मेरा अपमान करने वाले शास्त्रों के पन्नों को फाड़ने या जलाने का साहस कर। मैं तुम्हारे मंदिर के देवता को बनाने वाला कामी(शूद्र) हूँ। )
नेपाली साहित्य की कविताओं में दलित विमर्श की अवधारणा अभी पल्लवित हो रही है। नेपाली साहित्य में दलित पर पूर्ण रूप से विमर्श होना अभी शेष है। नेपाली साहित्य में दलित चेतना से सम्बन्धित कविताएँ प्राप्त होती हैं, परन्तु दलित चेतना पर खुलकर कोई विमर्श, संवाद अथवा चर्चा उस रूप में अभी हुई नहीं है। जिसे अभी पुष्पित एवं पल्लवित होना बाकी है।
आज के नेपाली कवि प्रकृति के प्रति मनुष्य के विरोध वाले रवैये से चिंतित दिखाई देते हैं। मोहन ठकुरी अपनी कविता ‘आकाश-धरती’ में धरती तथा मानव के सम्बन्ध की ओर संकेत करते हुए बताता हैं कि आज ऐसा लगता है, मानो मनुष्य का जन्म धरती को क्षति पहुँचने के लिए हुआ है और धरती का सहने के लिए -
हुन त धस्किएका पखेरोहरु र/ एम्प्युटेटेड रुखका हाँगाहरु/ उसैका चोटहरु हुन्/ दुखेका घाउहरु छन् उसका/ सङ्घातहरु पनि छन्/ तर सहनु भनेको धरतीकै/ अर्को नाम हो[10]
(अर्थात् होना तो धसा हुआ संकीर्ण पहाड़ी क्षेत्र और एम्प्युटेटेड वृक्षों की शाखाएँ उनके चोटें हैं। दुख के घाव हैं उसके संघात भी हैं। पर सहन करना धरती का दूसरा नाम है।)
आज प्रकृति का दोहन अंधाधुंध होने की वजह से जलवायु असंतुलन की समस्या पूरे विश्व के लिए एक चुनौती का कारण बनी हुई है। जलवायु परिवर्तन के कारण ऋतुओं में भी परिवर्तन आया है जिसके परिणामस्वरूप मौसम चक्र बदलने लगा है। आज गर्मी, सर्दी और वर्षा कभी अत्यधिक होती है तो कभी बिल्कुल कम। ‘मूल फूट्न सकेन’ कविता में वर्षा एवं गर्मी के बिगड़े चक्र को उजागर किया गया है -
पानी पर्नभन्दा बेसी/ पसिना झर्दैछ।/ पानी त पर्छ अचेल/ तर प्रपोगाण्डा जस्तो/ अर्थात् टि.भी. सिरियलको बीच-बीचमा विज्ञापन जस्तो।[11]
(अर्थात् पानी बरसने से ज़्यादा पसीना गिर रहा है। पानी तो बरसता है आजकल पर प्राँपगैन्डा जैसे, अर्थात् टी. वी. सीरियल के बीच-बीच में आने वाले विज्ञापन जैसे। )
इक्कीसवीं सदी की नेपाली कविताओं में भी हिंदी कविताओं की भाँति प्रकृति के रक्षण, संवर्द्धन एवं समाज में पर्यावरण के प्रति जागृति को लेकर चिंतन-मनन किया जा रहा है। इक्कीसवीं सदी के नेपाली कवियों ने प्राचीन काल में मनुष्य द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के संतुलित दोहन तथा आज के असंतुलित दोहन की तुलना करते हुए चिंता व्यक्त की है। अविनाश श्रेष्ठ अपनी कविता ‘भोलिको गीत’ में प्राचीन काल के वन, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, तथा नदी-नाले के लुप्त होने पर चिंता व्यक्त करते हैं-
कहाँ गए ती परीकथाका नायक जस्ता रुखहरु?/ रुखहरु फूल जस्तै फक्रेका देखिने चराहरु?/ चराहरुका गहनाले झलमल्ल सिंगारिएकी चिरयौवना आकाश?/ आकाशलाई छातीमा राखेर हिंडीरहने सङ्लो नदी?/ नदीलाई पुजेर नअघाउने तत्वदृष्टा मान्छे?/ मान्छेको हात्केलामा सभ्यता राखिदिने जङ्गल?/ खै कता गए ?[12]
(अर्थात् कहाँ गए वह परिकथा के नायक जैसे वृक्ष ? नहीं दिखी वृक्षों में फूलों जैसी चहकती चिड़ियाँ? चिड़ियों के गहनों से सुशोभित चिरयौवन आकाश ? आकाश को छाती में रखकर चल रही नदी? नदी को पूज कर नहीं उभने वाले तत्वदृष्टा मानव ? मानव के हथेली में रख देने वाले जंगल?)
वृद्धों की समस्या सम्पूर्ण विश्व में चिंता का विषय है। पश्चिमी संस्कृति के चलते बहुत से देशों की पुरातन संस्कृति धूमिल होती दिख रही है। ऐसे में पारिवारिक मूल्यों का विघटन हो रहा है। परिणामस्वरूप बहुल परिवार एकल परिवार में तब्दील हो रहे हैं और वृद्ध माता-पिता और दादा-दादी व नाना-नानी आदि को त्यागने की परम्परा तेज़ी से विकसित हो रही है। ऐसे में वृद्धों के हृदय में निराशा एवं हताशा जन्म ले रही है। ‘संक्रमण’ कविता में नोर्जाङ् स्याङ्देन वृद्धों की दयनीय स्थिति को प्रस्तुत करते हुए, उनकी अहमियत को उजागर करते हैं -
यदि यो बूढ़ो मान्छेले चाहे/ आफ्ना मक्किएका हाड़हरूबाट एउटा मणि भई फस्टिन सक्छ।/ आफ्नो चाउरिएका छालाहरूबाट एउटा कमल भई फुल्न सक्छ।/ ओह! किन आउंदैन कोही सुजाता/ दिउसोको खाजा बोकेर/ यो बूढ़ो मान्छेको जीर्णावस्थामा।[13]
(अर्थात् यदि यह वृद्ध व्यक्ति चाहे तो अपने मुरझाए हुए हाथों से मणि बनकर विकसित हो सकता है। अपने कुम्हलाए हुए त्वचा से कमल बनकर फूल सकता है। ओह! क्यों नहीं आता कोई सुजात, दोपहर का खाना लेकर, इस वृद्ध के जीर्णावस्था में।)
पर्यावरण असंतुलन के कारण ऋतु चक्र में बदलाव हो रहा है, जिसका प्रभाव कृषक जीवन पर पड़ रहा है। कृषि संतुलित मौसम पर निर्भर रहती है। ऐसे में मौसम में हुए बदलव का सीधा असर फसलों पर पड़ता है। मनप्रसाद सुब्बा की ‘बर्खा’ कविता में किसान जीवन के संघर्ष एवं कृषि संबंधी समस्याओं को प्रस्तुत किया है-
बल्ल बर्खा आएकोमा रमाउँदै/ उत्साहको लामो कुलो तानेर/ आशाको फाँटिलो टारी खेतमा/ सपनाको धान रोप्ने त्यो कृषक दाइ/ आज थाप्लोमा हात राखेर झोक्रिएको छ।/ रातभरि खोला बौलेर/ उसको खेत आधै हराएको छ।[14]
(अर्थात् अभी वर्षा आने से खुश होते, उत्साह का लम्बा फव्वारा खिचकर आशा की पहाड़ी क्षेत्र की खेती में सपना के धन को लगाने वाला वह कृषक भाई, आज माथे में हाथ रखकर परेशान है। रात भर पागल छोटी नदी के कारण उसके खेत आधे खो गए हैं।)
इक्कीसवीं सदी के नेपाली कवियों ने कृषक जीवन की परेशानियों एवं दयनीय स्थितियों के चित्रण के साथ-साथ कृषक जीवन के विभिन्न पहलुओं को भी उजागर किया है। सुब्बा की ‘खेत-रोपाइँ’, ‘कार्त्तिक-२०५६’ और ‘खेतको घाममा इच्छाहरु केही’ आदि कविताओं में किसान और खेत के बीच के सम्बन्ध को प्रस्तुत किया गया है-
सर्वाङ्ग हिलै पारेर/ खेत उत्तनो पल्टिएको छ।/ हिलोमा हलो कुदाउँदै/ हलीले आफ्नो पुरुषार्थ जोतिराहेछ।[15]
(अर्थात् सम्पूर्ण शरीर में कीचड़ डालकर खेत उल्टा होकर लेटा हुआ है। कीचड़ में हल को चलाते हुए किसान अपना पुरुषार्थ जोत रहा है। )
निष्कर्ष : अस्तु यह कह सकते हैं कि इक्कीसवीं सदी की नेपाली कविताओं में विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक विमर्शों की स्पष्ट उपस्थिति देखी जा सकती है। स्त्री, आदिवासी, पर्यावरण और किसान आदि विमर्श प्रमुखता से उभरे हैं, वहीं दलित विमर्श अभी अपनी शैशव अवस्था में दिखाई देता है, जो हाशिए पर खड़े वर्गों की समस्याओं, उनकी अस्मिता, और अधिकारों को सामने रखते हैं। नेपाली कवियों ने अपने शब्दों के माध्यम से पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती दी है और समाज में नए विचारों का संचार किया है। कविता, अपनी संवेदनशीलता और प्रभावशाली अभिव्यक्ति के कारण, इन विमर्शों का सशक्त माध्यम बनी है। समकालीन नेपाली साहित्य में, कविताओं ने सामाजिक बदलाव और समानता की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इक्कीसवीं सदी की हिंदी-नेपाली कविता में विमर्शों की दशा एवं दिशा प्राय: समान है, लेकिन दोनों विमर्शों के स्वरूप एवं अभिव्यक्ति में कुछ अंतर है। हिंदी कवियों की अभिव्यक्ति में सूक्ष्मता अधिक है।
संदर्भ
[1] National Foundation for Development of Indigenous Nationalities, Government of Nepal, NFDIN an Introduction, Pg. no, 6-7, 2003.
[2] सञ्जय बान्तवा, त्यो गाउँ/त्यो बस्तीमा, आदिवासी केटीको निम्ति, पृ. सं. 58, हिमाली प्रकाशन, पश्चिम सिक्किम, प्रथम संस्कारण 2007.
[3] मनप्रसाद सुब्बा, भुइँफुट्टा शब्दहरू, जङ्गलको कुरा, पृ. सं. 91, साङ्ग्रिला पुस्तक प्रा.लि., काठमाडौं, संस्कारण 2013.
[4] Radha Devi Dhakal, Situation of Gender Based Violence against Women and girls in Nepal, Pg. no. 54-56, DMC Journal, Vol: 4, Year 2075.
[5] सरिता तिवारी, प्रश्नहरुको कारखाना, हे देवी!, पृ. सं. 34, साङ्ग्रिला पुस्तक प्रा. लि., काठमाण्डू, संस्कारण, 2015.
[6] नरेन्द्र शर्मा, दलितों की रूपान्तरण की प्रक्रिया, पृ. सं. 03, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्कारण 1993.
[7] कविता लामा, नेपाली कवितामा दलित चेतना, खबरम्यागजिन, 15 अगस्त 2017.
[8] शरणकुमार लिम्बाले, दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र (अनु.-रमणिका गुप्ता), पृ. सं. 43, वाणी प्रकाशन, 2004.
[9] कविता लामा, नेपाली कवितामा दलित चेतना, खबरम्यागजिन, 15 अगस्त 2017.
[10] मोहन ठकुरी, अभिन्न अक्षर, आकाश-धरती, पृ. सं. 32, निर्माण प्रकाशन, नाम्ची, दक्षिण सिक्किम, संस्कारण 2006.
[11] मनप्रसाद सुब्बा, ऋतु-क्यान्भस्मा रेखाहरु, मूल फूट्न सकेन, पृ. सं. 38, श्याम ब्रदर्श प्रकाशन, दार्जीलिङ, संस्कारण 2001.
[12] अविनाश श्रेष्ठ, करोडौं सूर्यहरुको अंधकार, भोलिको गीत, पृ. सं. 16, कालचक्र प्रकाशक, नेपाल, संस्कारण 2003.
[13] नोर्जाङ् स्याङ्देन, राग-रन्थरुमा, पृ. सं. 86, संक्रमण, साझा पुस्तक प्रकाशन, दार्जीलिङ, संस्कारण 2001.
[14] मनप्रसाद सुब्बा, ऋतु-क्यान्भस्मा रेखाहरु, बर्खा, पृ. सं. 22, श्याम ब्रदर्श प्रकाशन, दार्जीलिङ, संस्कारण 2001.
[15] मनप्रसाद सुब्बा, खेत-रोपाईं, पृ. सं. 34, श्याम ब्रदर्श प्रकाशन, दार्जीलिङ, संस्कारण 2001.
गोविंद थापा क्षेत्री
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, संत अलोशियस मानित विश्वविद्यालय, मंगलूरु
govind07chetry@gmail.com, 8287569075
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज(जयपुर)
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