- नवीन कुमार मोक्टा एवं सुकांत कुमार महापात्र
शोध सार : भारतीय शिक्षा
विभिन्न सामाजिक असमानताओं
से प्रभावित होती
है जोकि जाति,
धर्म, लिंग, जनजाति,भाषा, क्षेत्र, वर्ग
आदिपर आधारित होती
हैं। ये असमानताएँ
न केवल शिक्षा
तक समान पहुँच
में बाधा डालती
हैं, बल्कि व्यापक
स्तर पर सामाजिक
दूरियों को भी
बढ़ावा देती हैं।भारत
के शिक्षा जगत
में सामाजिक आधार
पर यह असामनता
एक प्रमुख समस्या
है। विभिन्न सामाजिक
समूहों के बीच
शैक्षिक उपलब्धियों में
काफी अंतर है,
पुरुष-महिला, अल्पसंख्यक,
भाषा, क्षेत्र, अनुसूचित
जाति और जनजाति
आदि ऐसे सामाजिक
आयाम
है
जिनके
माध्यम
से
इन
असमानताओं
और
अंतरों
का
अध्ययन
किया
जा
सकता
है।राष्ट्रीय
शिक्षा
नीति-
2020 सभी के
लिए
समावेशी
और
समान
शिक्षा
पर
जोर
देती
है,
जिसमें
अनुसूचित
जनजातियों
सहित
कम
प्रतिनिधित्व
वाले
समूहों
पर
विशेष
ध्यान
दिया
गया
है।
यह
नीति
इस
बात
पर
प्रकाश
डालती
है
कि
आदिवासी
समुदायों
को
गुणवत्तापूर्ण
शिक्षा
प्राप्त
करने
में
विशिष्ट
चुनौतियों
का
सामना
करना
पड़ता
है।
राष्ट्रीय
शिक्षा
नीति-2020
का
उद्देश्य
बहुभाषी
शिक्षा
को
बढ़ावा
देकर,
सांस्कृतिक
रूप
से
प्रासंगिक
पाठ्यक्रम
विकसित
करके,
बुनियादी
ढाँचे
में
सुधार
करके
और
शिक्षक
प्रशिक्षण
को
बढ़ाकर
इन
चुनौतियों
का
समाधान
करना
है।
प्रस्तुत
लेख
भारत
में
अनुसूचित
जनजातियों
की
शिक्षा
और
उनकी
चुनौतियों
को
राष्ट्रीय
शिक्षा
नीति-2020
के
सन्दर्भ
में
समझने
का
प्रयास
करता
है।
बीज शब्द : अनुसूचित जनजातियाँ, राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020, शिक्षा असमानता, समावेशी शिक्षा।
भारतीय
शिक्षा प्रणाली
में सामाजिक
असमानताएँ
भारतीय
शिक्षा
प्रणाली
में
सामाजिक
असमानताओं
का
मुद्दा
ऐतिहासिक,
सामाजिक,
आर्थिक
और
सांस्कृतिक
रूप
से
जुड़ा
हुआ
है।
शोध,
सैद्धांतिक
रूपरेखा
और
नीति
विश्लेषण
इस
बात
की
व्यापक
समझ
प्रदान
करते
हैं
कि
जाति,
धर्म,
रूप,
जनजाति,
भाषा
और
क्षेत्रीय
असमानताएँ,
शिक्षा
तक
पहुँच
और
उससे
जुड़े
अधिकार
को
प्रभावित
करती
हैं।
अनुसूचित
जातियों
और
जनजातियों
जैसे:
हाशिए
पर
खड़े
समुदायों
को
अक्सर
बहिष्कार
का
सामना
करना
पड़ता
है,
जिससे
गुणवत्तापूर्ण
शिक्षा
तक
उनकी
पहुँच
सीमित
हो
जाती
है।
थोराट
और
न्यूमैन
(2007) के शोध
में
पाया
गया
कि
कई
क्षेत्रों
में
अनुसूचित
जाति
के
विद्यार्थियों
को
अलग
बैठने
के
लिए
मजबूर
किया
जाता
है,
शिक्षकों
की
उपेक्षा
का
सामना
करना
पड़ता
है
और
उन्हें
अपमानित
किया
जाता
है।
यह
हाशिए
पर
रखा
जाना
उनके
शैक्षणिक
प्रदर्शन
को
प्रभावित
करता
है,
जिससे
स्कूल
छोड़ने
की
दर
बढ़
जाती
है।
मानव
विकास
रिपोर्ट
(2010) में यह
भी
पाया
गया
कि
केवल
55 प्रतिशत अनुसूचित
जाति
के
विद्यार्थी
ही
प्राथमिक
शिक्षा
पूरी
करते
हैं,
जबकि
उच्च
जाति
के
77प्रतिशतविद्यार्थी प्राथमिक
शिक्षा
पूरी
करते
हैं।
राष्ट्रीय
शिक्षा
नीति
- 2020 समावेशी शिक्षा
की
आवश्यकता
को
पहचानती
है।
इसी
तरह,
धार्मिक
अल्पसंख्यकों
को
सामाजिक-आर्थिक
चुनौतियों
और
सरकारी
स्कूलों
तक
पहुँच
की
कमी
के
कारण
कम
साक्षरता
दर
का
सामना
करना
पड़ता
है।शिक्षा
में
यह
धार्मिक
असमानता
गरीबी
और
बहिष्कार
को
बनाए
रखती
है,
जैसा
कि
उच्च
शिक्षा
और
कुशल
व्यवसायों
में
अल्पसंख्यकोंका
कम
प्रतिनिधित्व
देखा
जा
सकता
है।
लिंग
असमानता
लड़कियों
की
शिक्षा
में
बाधा
डालती
रहती
है,
विशेषकर
ग्रामीण
इलाकों
में,
जहाँ
सांस्कृतिक
मानदंड
और
कम
उम्र
में
शादी
कई
लोगों
को
अपनी
पढ़ाई
जारी
रखने
से
रोकती
है।
वार्षिक
शिक्षा
स्थिति
रिपोर्ट-2020
में
पाया
गया
कि
लड़कों
और
लड़कियों
के
बीच
नामांकन
दर
कम
होगया
है,
लेकिन
लड़कियों
को
अभी
भी
उच्च
ड्रॉपआउट
दरों
का
सामना
करना
पड़
रहा
है,
विशेषकर
माध्यमिक
स्तर
पर।
महिला
सशक्तिकरण
के
लिए
राष्ट्रीय
नीति
(2001) और बाद
में
राष्ट्रीय
शिक्षा
नीति
2020 में संशोधन
लिंग
असमानता
को
संबोधित
करते
हैं।
जनजाति
समुदायों
को
भौगोलिक
अलगाव,
भाषाई
बाधाओं
और
अपर्याप्त
बुनियादी
ढांचे
का
सामना
करना
पड़ता
है,
जिसके
परिणामस्वरूप
उच्च
ड्रॉपआउट
दर
और
आधुनिक
शिक्षा
तक
सीमित
पहुँच
होती
है।
भाषा
भी
असमानता
में
भूमिका
निभाती
है,
क्योंकि
जो
विद्यार्थी
स्कूल
में
प्रमुख
भाषाएँ
नहीं
बोलते
हैं,
वे
अक्सर
अकादमिक
रूप
से
संघर्ष
करते
हैं।जनजातीय
मामलों
के
मंत्रालय
(2018) के अनुसार,
भारत
में
60प्रतिशत
से
अधिक
इस
समुदाय
के
बच्चे
माध्यमिक
शिक्षा
पूरी
करने
से
पहले
ही
पढ़ाई
छोड़
देते
हैं।
रामचंद्रन
और
नोरेम
(2013) द्वारा
किए
गए
अध्ययन
शिक्षा
में
सांस्कृतिक
असंगति
के
प्रभाव
को
उजागर
करते
हैं,
क्योंकि
कई
विद्यार्थी
स्कूलों
में
इस्तेमाल
नहीं
की
जाने
वाली
स्वदेशी
भाषा
बोलते
हैं,
जिससे
अलगाव
और
शैक्षणिक
विफलता
होती
है।
आदिवासी
बच्चों
के
लिए
आश्रम
स्कूल
योजना,
जिसका
उद्देश्य
आवासीय
शिक्षा
प्रदान
करना
है,
कम
वित्तपोषित
है
और
अक्सर
खराब
बुनियादी
ढांचे
और
शिक्षकों
की
अनुपस्थिति
से
ग्रस्त
है।
भारत
की
शिक्षा
प्रणाली
में
सामाजिक
असमानताओं
को
संबोधित
करने
के
लिए
सिर्फ़
नीतिगत
उपायों
से
ज़्यादा
कुछ
करने
की
ज़रूरत
है;
इसके
लिए
हाशिए
पर
खड़े
समुदायों
के
प्रति
दृष्टिकोण
में
सामाजिक
बदलाव
की
ज़रूरत
है।
जबकि
RTE अधिनियम
और
NEP 2020 जैसी
नीतियों
ने
समावेशिता
की
दिशा
में
प्रगति
की
है,
कार्यान्वयन
अंतराल
और
गहराई
से
जड़
जमाए
हुए
पूर्वाग्रह
प्रगति
को
सीमित
करना
जारी
रखते
हैं।
भारत
में
सामाजिक
गतिशीलता
के
लिए
शिक्षा
को
एक
सच्चा
साधन
बनाने
के
लिए
समान
संसाधन
आवंटन,
सांस्कृतिक
समावेशिता
और
सामाजिक
परिवर्तन
पर
ध्यान
केंद्रित
करने
वाले
व्यापक
सुधार
की
आवश्यकता
हैं।
भारत
में अनुसूचित
जनजाति समुदाय
के शिक्षा
स्तर से
जुड़े आँकड़ों
का विश्लेषण
भौगोलिक
अलगाव,
सामाजिक-आर्थिक
हाशिए
पर
होने
और
सांस्कृतिक
असंगति
के
कारण
भारत
में
आदिवासी
अनुसूचित
जनजाति
शिक्षा
को
अलग-अलग
चुनौतियों
का
सामना
करना
पड़
रहा
है।
आश्रम
स्कूल
योजना
जैसी
सरकारी
पहलों
के
बावजूद,
आदिवासी
बच्चों
को
पढ़ाई
छोड़ने
की
दर
अधिक
है,
बुनियादी
ढांचे
की
कमी
है
और
भाषा
संबंधी
बाधाएं
उन्हें
मुख्यधारा
की
शिक्षा
से
दूर
रखती
हैं।
ये
बाधाएं
उन्हें
अवसरों
तक
पहुँचने
से
रोकती
हैं।
गरीबी
और
बहिष्कार
के
चक्र
को
बनाए
रखती
हैं,
जिससे
शिक्षा
प्रणाली
में
सामाजिक
असमानताएँ
और
गहरी
होती
जाती
हैं।
इन
मुद्दों
को
संबोधित
करने
के
लिए
न
केवल
नीतिगत
सुधारों
की
आवश्यकता
है,
बल्कि
सांस्कृतिक
रूप
से
समावेशी
शिक्षण
विधियों
और
आदिवासी
अनुसूचित
जनजातिआवश्यकताओं
के
अनुरूप
बेहतर
शैक्षिक
संसाधनों
की
भी
आवश्यकता
है।
इस
विषय
को
बेहतर
रूप
से
समझने
के
लिए
इससे
जुड़े
विभिन्न
आँकड़ों
को
पिछले
कुछ
दशकों
के
आधार
पर
समझने
की
आवश्यकता
है।
भारत
कीजनजातियों
में
सीखने
की
उपलब्धियों
के
निम्न
स्तर,
लड़कियों
की
कम
भागीदारी
जैसी
समस्याएं
भी
देखी
जाती
है।
1991 में
जनजातियों
के
बीच
साक्षरता
दर
29.6प्रतिशत
थी,
जबकि
कुल
जनसंख्या
के
लिए
साक्षरता
दर
52.21प्रतिशतथी
(जनगणना, 1991)।
2001 में,
जनजाति
समूहों
के
बीच
साक्षरता
दर
में
सुधार
हुआ
और
यह
47.10प्रतिशतहो
गई,
लेकिन
इसकी
तुलना
में
कुल
जनसंख्याकी
साक्षरता
दर
64.84प्रतिशतथी
(जनगणना, 2001)।
इसी
तरह,
प्रारंभिक
शिक्षा
में
कुल
बच्चों
की
तुलना
में
आदिवासी
समूहों
में
ड्रॉप-आउट
दर
अधिक
रही
है।
समग्र
जनसंख्या
के
लिए
ड्रॉप-आउट
दर
45.90प्रतिशतरही
है,
जनजातीय
समूहों
के
लिए
यह
ड्रॉप-आउट
दर
62.54प्रतिशतथी
(एसईएस, 2007-08)।
वर्तमान
समय
में
भी
अनुसूचित
जनजातियों
के
लिए
सकल
नामांकन
अनुपात
(जीईआर) शिक्षा
के
सभी
स्तरों
पर
राष्ट्रीय
औसत
से
कम
है।प्राथमिक
शिक्षा
में
उल्लेखनीय
नामांकन
होता
हैलेकिन
माध्यमिक
विद्यालय
तक
पहुँचने
तक
कई
छात्र
विद्यालय
छोड़
देते
हैं।उच्च
शिक्षा
में
अनुसूचित
जनजाति
का
नामांकन
अन्य
सामाजिक
समूहों
की
तुलना
में
बहुत
कम
है,
2019-20 में यह
14.2प्रतिशतथा जबकि
राष्ट्रीय
औसत
27.1प्रतिशत थी।
वर्तमान
आँकड़ें
शिक्षा
में
अनुसूचित
जनजातियों
के
लिए
एक
चिंताजनक
स्थिति
को
उजागर
करती
हैं।
अनुसूचित
जनजाति
में
शिक्षा
के
सभी
स्तरों
पर
नामांकन
दर
कम
है,
और
विशेष
रूप
से
माध्यमिक
और
उच्च
शिक्षा
में
ड्रॉपआउट
दर
अधिक
है।
उनकी
साक्षरता
दर,
राष्ट्रीय
औसत
से
बहुत
कम
है।
ये
चुनौतियाँ
इन
समुदाय
के
विद्यार्थियों
के
लिए
गुणवत्तापूर्ण
शिक्षा
तक
पहुँच
में
गहरी
असमानताओं
को
दर्शाती
हैं।
पाठ्यचर्या,
शिक्षण और
जनजातीय शिक्षा
शिक्षा
को
अनुसूचित
जनजाति
समुदायों
के
विकास
के
लिए
एक
महत्वपूर्ण
आधार
के
रूप
में
मान्यता
देते
हुए,
कई
नीतिगत
ढाँचों
में
शिक्षा
पर
विशेष
ध्यान
दिया
गया
है
जैसे
कि
जनजातीय
उप-योजना
दृष्टिकोण,राष्ट्रीय
प्रमुख
कार्यक्रम
सर्व
शिक्षा
अभियान,और
हाल
ही
मेंराष्ट्रीय
शिक्षा
नीति-2020
आदि।
पिछले
कुछ
दशकों
में
हुए
शोध
भी
इस
बात
की
पुष्टि
करते
हैं
कि
जनजाति
और
अन्य
जनसंख्या
के
बीच
न
केवल
नामांकन
सूचक
में
बल्कि
उपलब्धि
सूचक
के
मामले
में
भी
बड़ा
अंतर
है
(सुजाता, 2001, गोविंदा,
2002, प्रकाश एवं
अन्य,
1998)।
देश
में
इस
समूह
की
आबादी
के
लिए
प्राथमिक
शिक्षा
के
सार्वभौमीकरण
(यूईई) को
प्राप्त
करने
के
लिए
भारत
के
सामने
आने
वाली
चुनौतियों
और
बाधाओं
पर
विचार
करते
हुए,
एक
समग्र
दृष्टि
और
समझ
की
आवश्यकता
है।
तुलनात्मक
रूप
से,
स्कूल
प्रणाली
के
आंतरिक
कारकों
की
भूमिका
पर
कम
ध्यान
दिया
जाता
है
जो
इन
समुदायों
के
बीच
धीमी
शैक्षिक
प्रगति
में
योगदान
करते
हैं,
जो
उनके
समाज
के
रीति-रिवाजों
और
परंपराओं
को
नकारते
हैं
(सुजाता, 2001)।
यह
लेखजनजातीय
शिक्षा
प्रणाली
से
जुड़े
आंतरिक
कारकों
पर
विचार
करता
है,
जो
पाठ्यक्रम
और
शिक्षाशास्त्र
को
एक
सांस्कृतिक
घटना
के
रूप
में
संदर्भित
करता
है।
जनजाति
की
शैक्षिक
स्थिति
का
पता
लगाना,
इस
लेख
का
मुख्य
उद्देश्य
है।
कक्षा
के
अंदर
काम
करने
वाले
विभिन्न
कारकों
(पाठ्यक्रम, भाषा,
शिक्षक
और
शैक्षणिक
अभ्यास)
और
जनजातीय
शिक्षा
प्रणाली
में
कक्षा
की
स्थितियों
को
समझने
के
लिए
कुछ
भविष्य
की
रणनीतियों
के
सुझाव
भी
इस
लेख
में
दिए
गएहैं।
शिक्षक
आदिवासी
क्षेत्रों
के
बाहर
से
होते
हैं,
इसलिए
आदिवासी
परिवेश
से
कम
परिचित
होते
हैं।
इस
प्रकार,
कम
अनुभव
होने
के
कारण,
उनके
पास
जनजातीय
वास्तविकताओं
को
दर्शाने
और
कक्षा
की
स्थितियों
में
बच्चे
को
पूरक
बनाने
के
लिए
पर्याप्त
योग्यता
नहीं
हो
सकती
है।
शिक्षक
द्वारा
अपनाई
गई
भेदभावपूर्ण
प्रथाएँ
जैसे
कक्षा
में
बैठने
की
व्यवस्था
को
अलग
करना,
छात्रों
और
उनकी
नोटबुक
को
छूने
से
इनकार
करना,
साथ
ही
कम
उम्मीदें
और
हतोत्साहन,
अन्य
समूहों
की
तुलना
में
जनजाति
के
बीच
शिक्षा
में
कम
भागीदारी
की
ओर
ले
जाते
हैं
(महापात्रा, 2010)।
शोध
बताते
हैं
कि
कक्षा
में
स्थानीय
संदर्भों
को
शामिल
करने
से
शिक्षण
जीवंत
और
दिलचस्प
बनता
है,
यानि
शैक्षणिक
रूप
से
कल्पनाशील
और
नैतिक
रूप
से
मजबूत
(एनसीएफ, 2005)।
यह
बच्चों
को
खुद
और
अपने
आस-पास
की
दुनिया
को
या
तो
वस्तुनिष्ठ
रूप
से
या
अंतर-संबंधित
प्रणाली
के
हिस्से
के
रूप
में
देखने
की
क्षमता
रखने
में
मदद
करता
है।
लेकिन
शायद
ही
कभी
स्थानीय
संदर्भों
का
उपयोग
किया
जाता
है
(बार्नस्टीन, 1986)।
एक
बड़ी
चुनौती
यह
है
कि
अधिकांश
शैक्षिक
सामग्री
प्रमुख
क्षेत्रीय
भाषा
में
होती
है,
जबकि
आदिवासी
बच्चे
अक्सर
घर
पर
स्वदेशी
भाषाएँ
बोलते
हैं।
यह
भाषा
संबंधी
वियोग
प्रारंभिक
शिक्षा
और
समझ
को
बाधित
करता
है।मानक
पाठ्यक्रम
अक्सर
आदिवासी
समुदायों
के
सामाजिक-सांस्कृतिक
संदर्भ
को
प्रतिबिंबित
करने
में
विफल
रहता
है।
भारत
में जनजातीय
शिक्षा जगत
से जुड़ी
चुनौतियाँ :
शिक्षा
के
सामाजिक
सन्दर्भों
की
जाँच
और
समझ
का
मूल
यह
है
कि
हमें
समस्याओं
और
चुनौतियों
को
क्षेत्र
विशेष
के
साथ
जोड़कर
ही
विश्लेषण
करना
होगा।
उदाहरण
के
लिए
दलित
समुदाय
की
शिक्षा
की
चुनौतियों
को
महिलाओं
की
शिक्षा
की
समस्याओं
के
अनुरूप
पढ़
कर
नहीं
समझा
जा
सकता,
यह
समझ
अधूरी
ही
रहेगी।
दोनों
की
सामाजिक
और
ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि
भिन्न
है।
पाठ्यक्रम
का स्थानीयकरण : आदिवासी
क्षेत्रों
के
लिए
स्थानीय
रूप
से
प्रासंगिक
पाठ्यक्रम
को
लागू
करने
के
लिए
सामग्री
विकास
में
आदिवासी
समुदायों
और
शिक्षकों
की
गहन
भागीदारी
की
आवश्यकता
होती
है,
जो
तार्किक
और
प्रशासनिक
रूप
से
जटिल
हो
सकता
है।पाठ्यक्रम
का
स्थानीयकरण
शैक्षिक
सामग्री
को
स्थानीय
संस्कृति,
भाषा
और
संदर्भ
को
प्रतिबिंबित
करने
के
लिए
तैयार
करता
है।
शिक्षकों
के लिए
क्षमता निर्माण : शिक्षकों
की
क्षमता
निर्माण
से
उनके
कौशल,
ज्ञान
और
दक्षता
में
वृद्धि
होती
है,
जिससे
शैक्षिक
मानकों
और
विकसित
होती
कक्षा
आवश्यकताओं
के
साथ
तालमेल
बिठाते
हुए
शिक्षण
प्रभावशीलता
में
सुधार
होता
है।सांस्कृतिक
संवेदनशीलता
को
संबोधित
करने
और
बहुभाषी
शिक्षाशास्त्र
को
पेश
करने
के
लिए
पर्याप्त
शिक्षक
प्रशिक्षण
एक
चुनौती
बनी
हुई
है,
क्योंकि
इसके
लिए
शिक्षक
शिक्षा
कार्यक्रमों
में
बड़े
पैमाने
पर
सुधार
की
आवश्यकता
है।
बुनियादी
ढांचा : राष्ट्रीय
शिक्षा
नीति-2020
बुनियादी
ढांचे
में
सुधार
पर
जोर
देती
है,
सुदूर
बसे
आदिवासी
क्षेत्रों
में
इसे
लागू
करने,
विशेष
रूप
से
ऑनलाइन
शिक्षा
के
लिए
डिजिटल
बुनियादी
ढांचे
को
लागू
करने
में
समय
और
महत्वपूर्ण
निवेश
लगेगा।
परिवर्तन
का प्रतिरोध : कुछ
क्षेत्रों
में,
मुख्यधारा
की
शैक्षिक
सामग्री
के
प्रभुत्व
के
कारण
स्वदेशी
ज्ञान
और
भाषाओं
को
शामिल
करने
का
प्रतिरोध
हो
सकता
है,
जिससे
एकीकरण
एक
क्रमिक
प्रक्रिया
बन
जाती
है।
ड्रॉपआउट
दर : आर्थिक
कारणों,
कम
उम्र
में
विवाह
या
काम
के
लिए
पलायन
के
कारण
अनुसूचित
जाति
बच्चों
में,
विशेष
रूप
से
माध्यमिक
और
उच्चतर
माध्यमिक
स्तरों
पर,
ड्रॉपआउट
दरें
अधिक
देखी
जाती
हैं।
विद्यालयों
तक पहुँच : कई आदिवासी
बच्चे
दूरदराज
और
पहाड़ी
इलाकों
में
रहते
हैं
जहाँ
विद्यालय
तक
पहुँच
एक
महत्वपूर्ण
मुद्दा
है,
विशेषकर
माध्यमिक
और
उच्चतर
माध्यमिक
स्कूलों
में।
बुनियादी
ढाँचे की
गुणवत्ता : आदिवासी
क्षेत्रों
में
कई
विद्यालयों
में
अपर्याप्त
बुनियादी
ढाँचे
का
सामना
करना
पड़ता
है,
जैसे
शौचालय,
पीने
का
पानी,
बिजली,
पुस्तकालय
और
खेल
के
मैदानों
की
कमी।
यह
प्रतिधारण
दरों
को
नकारात्मक
रूप
से
प्रभावित
करता
है।
शिक्षकों
की कमी
और प्रशिक्षण : आदिवासी
क्षेत्रों
में
अक्सर
योग्य
शिक्षकों
की
कमी
होती
है।
इसके
अतिरिक्त,
शिक्षकों
को
आदिवासी
बच्चों
के
सांस्कृतिक
संदर्भों
और
विशिष्ट
आवश्यकताओं
को
समझने
के
लिए
प्रशिक्षित
नहीं
किया
जाता
है,
जिससे
शैक्षणिक
प्रभावशीलता
प्रभावित
होती
है।
मध्याह्न
भोजन और
पोषण सहायता : जबकि
मध्याह्न
भोजन
योजना
मौजूद
है,
कई
आदिवासी
अनुसूचित
जाति
क्षेत्रों
में,
इसकी
गुणवत्ता
और
निरंतरता
मुद्दे
हैं।
खराब
पोषण
छात्रों
की
ध्यान
केंद्रित
करने
और
अकादमिक
रूप
से
प्रदर्शन
करने
की
क्षमता
को
और
प्रभावित
करता
है।
जनजातीय
शिक्षा के
लिएराष्ट्रीय शिक्षा
नीति-2020
में प्रावधान
और भविष्य
की रणनीतियाँ
बहुभाषी
शिक्षा : एनईपी
2020 मातृभाषा में
शिक्षा
की
वकालत
करता
है,
खास
तौर
पर
शुरुआती
वर्षों
में।
यह
उन
आदिवासी
बच्चों
के
लिए
महत्वपूर्ण
है
जो
घर
पर
अपनी
स्वदेशी
भाषा
बोलते
हैं,
क्योंकि
यह
बेहतर
संज्ञानात्मक
और
भाषा
विकास
में
सहायता
करता
है।
एनईपी
विद्यालयों
में
आदिवासी
भाषाओं
को
बढ़ावा
देने
और
जहाँ
भी
संभव
हो,
स्थानीय
आदिवासी
भाषाओं
में
पाठ्यपुस्तकें
तैयार
करने
का
सुझाव
देता
है।
पाठ्यक्रम
लचीलापन : नीति
में
अधिक
लचीले
पाठ्यक्रम
का
प्रस्ताव
है,
जिसमें
स्थानीय
रूप
से
प्रासंगिक
ज्ञान
शामिल
है।
आदिवासी
छात्रों
के
लिए,
इसका
मतलब
है
पारंपरिक
ज्ञान
प्रणालियों,
सांस्कृतिक
मूल्यों
और
स्वदेशी
ज्ञान
को
मुख्यधारा
की
शिक्षा
में
एकीकृत
करना।
ब्रिजिंग
कोर्स और
उपचारात्मक निर्देश : एनईपी
2020 उन बच्चों
के
लिए
ब्रिजिंग
कोर्स
पर
जोर
देता
है
जो
पिछड़
जाते
हैं,
खास
तौर
पर
वंचित
समुदायों
में।
इसका
उद्देश्य
उन
आदिवासी
बच्चों
की
सहायता
करना
है
जिन्हें
अपनी
स्कूली
शिक्षा
में
व्यवधान
के
कारण
अतिरिक्त
मदद
की
आवश्यकता
हो
सकती
है।
बढ़ी
हुई फंडिंग
और बुनियादी
ढांचे का
विकास : एनईपी
का
उद्देश्यशिक्षा
में
अधिक
सार्वजनिक
निवेश
के
माध्यम
से
आदिवासी
क्षेत्रों
सहित
अविकसित
क्षेत्रों
में
विद्यालय
के
बुनियादी
ढांचे
में
सुधार
करना
है।
बेहतर
विद्यालय
बुनियादी
ढांचे
से
अनुसूचित
जाति
छात्रों
के
बीच
प्रतिधारण
और
नामांकन
में
सुधार
करने
में
मदद
मिलेगी।
प्रारंभिक
बचपन देखभाल
और शिक्षा
(ईसीसीई) : नीति
आंगनवाड़ी
केंद्रों
के
माध्यम
से
प्रारंभिक
बचपन
की
शिक्षा
पर
जोर
देती
है,
जिसमें
आदिवासी
क्षेत्रों
में
बच्चों
के
लिए
बुनियादी
शिक्षा
और
स्कूल
की
तत्परता
में
सुधार
करने
पर
विशेष
ध्यान
दिया
जाता
है।
शिक्षक
और प्रशिक्षण : एनईपी
2020 शिक्षक प्रशिक्षण
में
सुधार
पर
ध्यान
केंद्रित
करता
है,
जिसमें
अनुसूचित
जाति
छात्रों
की
विशिष्ट
आवश्यकताओं
के
प्रति
संवेदनशीलता
शामिल
है।
इसमें
बहुभाषी
शिक्षा
और
सांस्कृतिक
रूप
से
समावेशी
शिक्षण
पद्धतियाँ
शामिल
हैं।
छात्रवृत्ति
और वित्तीय
सहायता : नीति
अनुसूचित
जाति
छात्रों
के
लिए
छात्रवृत्ति
सहित
वित्तीय
सहायता
को
मजबूत
करने
पर
जोर
देती
है,
ताकि
यह
सुनिश्चित
किया
जा
सके
कि
वे
आर्थिक
बाधाओं
के
बिना
अपनी
शिक्षा
जारी
रख
सकें।
·
संभावित
नीतिगत
चुनौतियों
पर
विचार
करते
हुए,
भारत
में
अनुसूचित
जनजातियों
को
शिक्षित
करने
के
लिए
स्थानीय
संदर्भों
में
पाठ्यक्रम
और
शिक्षण
पद्धति
में
सुधार
की
आवश्यकता
है।
चर्चा
के
बाद,
कुछ
सुझाव
दिए
जा
सकते
हैं।
·
आदिवासी
क्षेत्र
में
नियुक्त
शिक्षक
यदि
आदिवासी
बच्चों
की
शिक्षा
के
लिए
अभिनव
कार्य
कर
रहे
हैं,
तो
उन्हें
प्रोत्साहन
प्रावधानों
के
माध्यम
से
प्रोत्साहित
किया
जाना
चाहिए।
इससे
शिक्षकों
में
दूरदराज
के
वातावरण
से
पीछे
हटने
के
बजाय
प्रभावशीलता
के
प्रति
स्वस्थ
और
उत्साही
भावपैदा
होगा।
·
नीति
निर्माताओं
और
अभ्यासकर्ताओं
को
समय-समय
पर
प्रगति
रिपोर्ट
और
फीडबैक
विकसित
करने
के
लिए
विश्वविद्यालय
विभागों,
जिला
स्तर
के
अधिकारियों,
शोधकर्ता
और
विद्यालय
के
बीच
एक
मजबूत
सहयोग
आवश्यक
है
ताकि
नीति
दृष्टिकोण
और
प्रथाओं
को
परिष्कृत
किया
जा
सके।
जिस
समुदाय
से
बच्चा
परिचित
है,
उससे
सांस्कृतिक
पूंजी
जो
वह
प्राप्त
करता
है,
वह
शुरुआती
वर्षों
में
विद्यालयी
शिक्षा
का
हिस्सा
होनी
चाहिए।
निष्कर्ष
: राष्ट्रीय शिक्षा
नीति-2020
शिक्षा
में
अनुसूचित
जनजातियों
के
सामने
आने
वाली
चुनौतियों
का
समाधान
करने
के
लिए
कई
रणनीतियों
की
रूपरेखा
तैयार
करता
है,
सफल
कार्यान्वयन,
स्थानीय
प्रयासों,
पर्याप्त
धन,
शिक्षक
प्रशिक्षण
और
आदिवासी
समुदायों
की
सक्रिय
भागीदारी
पर
निर्भर
करेगा।
बर्नस्टीन
(1986) के अनुसार,
"यदि सामाजिक
असमानताओं
को
कम
करना
है,
तो
शिक्षा
प्रणाली
को
अपने
पाठ्यक्रम,
शिक्षण
पद्धति
और
शिक्षा
की
अवधारणा
से
सभी
अंतर्निहित
वर्ग
पूर्वाग्रहों
को
दूर
करना
होगा।
इसके
अलावा,
विद्यालय
को
निम्न
वर्ग
के
परिवारों
के
बच्चों
को
ऐसी
भाषाई
और
सांस्कृतिक
जानकारी
और
कौशल
प्रदान
करने
के
लिए
मजबूर
नहीं
करना
चाहिए
जो
उनके
लिए
पूरी
तरह
से
अपरिचित
हैं।
इसके
बजाय
शिक्षा
प्रणाली
को
इस
बात
पर
ध्यान
केंद्रित
करना
चाहिए
कि
वह
बच्चों
को
उनके
अपने
कौशल
और
विद्यालयी
शिक्षा
के
संदर्भ
में
बड़े
समाज
की
मांग
के
बीच
की
खाई
को
पाटने
में
कैसे
मदद
कर
सकती
है।"
लेकिन
हम
यह
नहीं
कह
सकते
कि
हमारे
शैक्षिक
सिद्धांत,
नीति
और
व्यवहार
में
इस
दृष्टिकोण
को
कभी
संबोधित
नहीं
किया
गया
है।
जैसा
कि
ऊपर
के
अध्याय
में
चर्चा
की
गई
है,
राष्ट्रीय
शिक्षा
नीति
1986 और हाल
ही
में
सर्व
शिक्षा
अभियान
ने
स्थानीय
संस्कृति
के
दायरे
में
पाठ्यक्रम
और
शिक्षण
पद्धति
पर
अपनी
बात
रखी
है।
इसी
प्रकार,
हाल
ही
में
अनेक
राज्यों
में
बहुभाषी
शिक्षा
की
स्वीकृति
और
क्रियान्वयन
तथा
जनजातीय
परिवेश
के
विद्यालयों
में
स्थानीय
शिक्षकों
की
नियुक्ति
को
सांस्कृतिक
दृष्टिकोण
के
प्रति
संवेदनशीलता
के
रूप
में
देखा
जा
सकता
है।लेकिन
कक्षा
की
परिस्थितियों
में
इसका
कितना
अभ्यास,
प्रचार
और
अनुपालन
किया
जा
रहा
है,
यह
सबसे
अधिक
मायने
रखता
है
और
इसकी
समीक्षा
किए
जाने
की
आवश्यकता
है।
अंत
में,
यह
कहा
जा
सकता
है
कि
शैक्षिक
योजनाकारों,
नीति
निर्माताओं
और
प्रशासकों
को
पाठ्यक्रम
और
शिक्षण
पद्धति
को
सांस्कृतिक
मुद्दे
के
रूप
में
देखना
चाहिए,
जो
अनुसूचित
जनजाति
के
बच्चों
को
कक्षा
के
करीब
ला
सकता
है
और
निकट
भविष्य
में
अनुसूचित
जनजातियों
और
सामान्य
आबादी
के
बीच
की
खाई
को
पाट
सकता
है।
संदर्भ :
2. बी.बर्नस्टीन, ऑन पेदागोगिक डिस्कोर्स. इन जे. रिचर्डसन (एड.) हैंडबुक ऑफ थ्योरी एंड रिसर्च फॉर द सोशियोलॉजी ऑफ एजुकेशन में.न्यू वर्क: ग्रीनवुड, 205-40, 1986.
3. एच.ए.गीरूऔर पी. मैकलारेन, क्रिटिकल पेडागॉजी, द स्टेट एंड कल्चरल स्ट्रगल. अल्बानी: स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्कप्रेस, 1989.
4. भारत सरकार 2006 वार्षिक रिपोर्ट, नई दिल्ली: मानव संसाधन विकास मंत्रालय,2005-06
6. भारत सरकार वार्षिक रिपोर्ट,सर्व शिक्षा अभियान, आदिवासी विकास योजना, 2007.
7. झा और झिंगरन,एलीमेंट्री एजुकेशन फॉर द पूरेस्ट एंड अदर डीप्राविड ग्रुप्स:द रियल चैलेंज ऑफ़ युनिवेर्सलाइजेशन. नई दिल्ली: मनोहर प्रकाशक और वितरक, 2005.
10. जी.बी.नम्बिसन, आदिवासी बच्चों की भाषा और स्कूली शिक्षा: शिक्षण के माध्यम से संबंधित मुद्दे. आर्थिक और राजनीतिक साप्ताहिक, 29(42), 2747-54. 1994.
11. रेखा वज़ीर (सं.), में आदिवासी समुदायों की पहचान, बहिष्कार और शिक्षा. बुनियादी शिक्षा में लैंगिक अंतर. नई दिल्ली: सेज पब्लिकेशन्स, 2000.
12. एनसीईआरटी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बच्चों की समस्या पर राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा 2005। नई दिल्ली: एनसीईआरटी, 2006.
13. एनसीईआरटी, राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा 2005. नई दिल्ली: एनसीईआरटी, 2006.
14. के.सुजाता, उप-योजना क्षेत्रों में जनजातियों के बीच शैक्षिक विकास। नई दिल्ली: एशियन पब्लिशर्स, 1994
16. जांच दल, भारत में बुनियादी शिक्षा पर सार्वजनिक रिपोर्ट। ऑक्सफोर्ड और नई दिल्ली: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1999
19. https://www.education.gov.in/sites/upload_files/mhrd/files/NEP_Final_English_0.pdf
21. राष्ट्रीय शैक्षिक योजना और प्रशासन संस्थान (NIEPA). शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली (UDISE+)। https://udiseplus.gov.in/2019.
23. Thorat, S., & Newman, K.S. 2007. Caste and Economic Discrimination: Causes, Consequences, and Remedies. New Delhi: Oxford University Press.
सहायक आचार्य, शैक्षिक मनोविज्ञान और शिक्षा आधार विभाग, एनसीईआरटी, नई दिल्ली 110016
सुकांत कुमार महापात्र
सह आचार्य, शैक्षिक मनोविज्ञान और शिक्षा आधार विभाग,एनसीईआरटी, नई दिल्ली 110016
एक टिप्पणी भेजें