- पल्लवी फताटे एवं अमरनाथ प्रजापति
शोध सार : काशीनाथ सिंह की रचनाओं में वर्तमान समय और समाज का बहुआयामी चित्रण यथार्थ रूप में हुआ है। बाजारवाद, भूमंडलीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण आज की युवा पीढ़ी अपने परिवार, रिश्ते-नाते, रहन-सहन एवं गाँव की जीवन शैली से धीरे-धीरे कटती जा रही है। नैतिकता, मानवीयता, संस्कार एवं बड़ों के प्रति आदर-सम्मान का भाव विलुप्त होता जा रहा है, जिससे वृद्ध लोगों को विभिन्न प्रकार की पारिवारिक, सामाजिक, एवं आर्थिक समस्याओं से गुजरना पड़ रहा है। काशीनाथ सिंह ने अपने कथा साहित्य में वृद्धों की पीड़ा, व्यथा, अकेलापन एवं उनके साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार को बड़ी गहराई से उजागर किया है।
बीज शब्द : वृद्धावस्था, युवापीढ़ी, भूमंडलीकरण, बाजारवाद, पीड़ा, अकेलापन।
मूल आलेख
: काशीनाथ सिंह हिंदी कथा साहित्य के प्रसिद्ध एवं बहुआयामी रचनाकार हैं। उनके कथा साहित्य में विषयगत विविधता एवं भाषागत वैशिष्ट्य को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में वृद्धावस्था की पीड़ा एवं व्यथा को बहुत मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है। वृद्धों की दयनीय स्थिति, अकेलापन, मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा, आर्थिक समस्याएँ, समाज में अपमान, निराशा और पुत्रों द्वारा उपेक्षा की भावना को सूक्ष्म तरीके से अभिव्यक्त किया है। इन परिस्थितियों का प्रमुख कारण भूमंडलीकरण, बाजारवाद, भौतिकवाद, औद्योगीकरण, नयी पीढ़ी में संस्कार का अभाव आदि है। उन्होंने अपने प्रमुख उपन्यास ‘रेहन पर रग्घू’,‘उपसंहार’,‘काशी का अस्सी’ और ‘महुआचरित’ के साथ-साथ ‘अपना रास्ता लो बाबा’ एवं ‘एक बूढ़े आदमी की कहानी’ जैसी कहानियों में वृद्धावस्था की संवेदना एवं समस्याओं को गहराई से प्रस्तुत किया है।
साहित्य और समाज का अंतर्संबंध घनिष्ठ एवं अविच्छिन्न है। साहित्य समाज की वास्तविकता को दिखाता है। मनुष्य अपने जीवन में किसी न किसी समस्या से घिरा रहता है। आज के भौतिकतावादी समाज में वृद्धों को प्रायः अपमान, तिरस्कार, घोर अकेलापन महसूस करते हुए देखा जा सकता है। वर्तमान कथा साहित्य में वृद्धावस्था की समस्याओं पर विशेष बल दिया जा रहा है। इस सन्दर्भ में पुष्पपाल सिंह लिखते हैं कि-“इधर कहानी और उपन्यास दोनों में वृद्धावस्था निरंतर रचनाकारों पर विशेष दबाव बनाए हुए है। उम्र की संध्या में प्रवेश किए हुए कथाकारों ने इस विषय पर निरंतर और प्रचुर मात्रा में लिखा है, विभिन्न कोणों से विभिन्न समस्याओं पर।”[1]
वृद्धों की समस्या एवं पीड़ा को काशीनाथ सिंह ने अपने कथा साहित्य में मार्मिकता के साथ व्यक्त किया है। इस दृष्टि से उनका ‘रेहन पर रग्घू’ उपन्यास अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है। इस उपन्यास की कथा सिर्फ गाँव तक नहीं है, बल्कि गाँव से शहर एवं अमेरिका तक फैली हुई है। इसमें एक ऐसे मध्यवर्गीय परिवार की कथा है जिसमें संयुक्त परिवार की आत्मीयता का विघटन होता है। जैसे-जैसे ज्ञान-विज्ञान का विकास हो रहा है, वैसे-वैसे युवा पीढ़ियों की बौद्धिक क्षमता का विकास तो हो रहा है किन्तु नैतिकता का आभाव होता जा रहा है। भूमंडलीकरण, औद्योगीकरण, बाजारवाद के कारण रिश्तों में दूरियाँ बन रही हैं। इस उपन्यास का प्रमुख पात्र रघुनाथ उर्फ़ रग्घू है, जो एक अध्यापक हैं। उनके दो बेटे संजय और धनंजय उर्फ़ राजू है, बेटी सरला और पत्नी शीला है। इनका परिवार व्यवस्थित रूप से था और सफल जिंदगी जी रहा था। रघुनाथ चाहता था कि बड़ा बेटा संजय इंजनियर बनकर नौकरी करे और वह नौकरी के लिए अमेरिका चला जाता है। वह अपने माता-पिता को बिना बताए सोनल से प्रेम विवाह करता है, जिसका माता-पिता विरोध करते हैं। संजय अपने माता-पिता की इच्छाओं, आकांक्षाओं को महत्त्व नहीं देता है, बल्कि उन्हें अपने जीवन से निकाल देने का निर्णय लेता है। भूमंडलीकरण के कारण वर्तमान युवापीढ़ी मानवीयता एवं नैतिकता के बजाए आर्थिक व्यवस्था पर अधिक निर्भर हो गई है।
इस उपन्यास के सभी पात्र स्वतंत्र रूप से अपनी जिंदगी व्यतीत करना चाहते हैं। उनके अन्दर एक अलग सी छटपटाहट दिखायी पड़ती है। धनंजय अपने मन की बात रघुनाथ के सामने इस प्रकार रखता है - “और बताएँ! हमारे बापजन के दो बेटे संजू और मैं! इन्होंने एक आँख से हमें देखा ही नहीं। सारी मेहनत और सारा पैसा इन्होंने उस पर खर्च किया, पढ़ाया, लिखाया, कंप्यूटर इंजिनियर बनाया और मेरे लिए? कामर्स पढ़ो। जिसे पढ़ने में न यह मेरी मदद कर सकते थे, न मेरा मन लगता था।”[2]
धनंजय अपनी बेरोजगारी की समस्या को अपने पिता पर आरोपित करता है। रिटायरर्मेंट के पैसों पर भी हक जमाता है और अपने डोनेशन के लिए रखने के लिए कहता है। इस तरह माता-पिता के पैसों पर हक जमाना आधुनिक युवा पीढ़ी की अमानवीयता एवं अनैतिकता को दर्शाती है।
रघुनाथ के घर के पीछे की जमीन नरेश घेर लेता है। जमीन के लिए मार-पीट एवं गाली-गलौज होता है। रघुनाथ गिर जाता है, पर गाँव वाले रघुनाथ की सहायता नहीं करते हैं। रघुनाथ को लगता है कि गाँव वाले उसके बेटों की प्रगति और अंतर्जातीय विवाह के कारण ऐसा कर रहे हैं, वह अपने गाँव और खेत से लगाव होने के कारण एवं अपने बच्चों के कारण समाज में अकेलापन एवं अपमान महसूस करता है। गाँव के बदलते परिवेश के बारे में काशीनाथ सिंह एक साक्षात्कार में जिक्र करते है कि- “गाँव का परिवेश पूरी तरह से बदला है, मैं ऐसा महसूस कर रहा था कि भूमंडलीकरण, उदारीकरण आदि का जितना प्रभाव गाँव पर पड़ा है उतना शहर पर नहीं। गाँव ज्यादा बदल रहे हैं।... गाँव का रिश्ता मानवीय रिश्ता होता है। आत्मनिर्भरता गाँव की विरासत है। गाँव एक जैविक समाज होता है। उस गाँव को भूमंडलीकरण ने देखते-देखते क्षत-विक्षत कर डाला। पूरा ग्राम समाज तहस-नहस हो गया है।”[3]
गाँव में इस तरह के परिवर्तन से मानवीय संवेदना, संस्कार और नैतिकता नष्ट होती जा रही है।
रघुनाथ अपने परिवार को बिखरता हुआ देखकर टूट जाता है। अर्थकेन्द्रित समाज, वैश्वीकरण, और बाजारवाद से भारत की युवापीढ़ी नई-नई नौकरियों एवं अधिक पैसों के लालच में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पीछे भाग रही है। माता-पिता, गाँव और खेत से नाता टूट रहा है। रघुनाथ अपनी पत्नी से कहता है कि-“शीला हमारे तीन बच्चें हैं लेकिन पता नहीं क्यों, कभी-कभी मेरे भीतर ऐसी हूक उठती है जैसे लगता है मेरी औरत बाँझ है और मैं निःसन्तान पिता हूँ! माँ और पिता होने का सुख नहीं जाना हमने। हमने न बेटे की शादी देखी, न बेटी की! न बहू देखी, न होने वाला दामाद देखा।”[4]
यह सिर्फ रघुनाथ की अंतर्वेदना की चीख नहीं है, बल्कि आज के समय के हर वृद्ध माता-पिता की करुण व्यथा है।
शहर भूमंडलीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण परिवर्तित हो रहा है, गाँव में भी पहले जैसा रहन-सहन अब नहीं रहा है। भूमंडलीकरण, बाजारवाद, उपभोक्तावादी विचारधारा ने गाँव में भी अपनी पैठ जमा ली है जिसका प्रभाव रघुनाथ के जीवन में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहा है-“भूमंडलीकरण और बाजारवाद के प्रभाव से रघुनाथ जैसा वृद्ध व्यक्ति भी बच नहीं पाया है जिसके प्रभाव से घर के घर तबाह हो रहे हैं, पति-पत्नी संबंध टूट रहे हैं, पिता-पुत्र में दूरियाँ बढ़ रही हैं, पुत्री पिता के लिए पराया धन है। जहाँ पहले कभी संयुक्त परिवार का बोलबाला था, आज परिवार टूटकर बिखर रहे हैं।”[5] अब समाज कालोनियों में बँट रहा है। अशोक विहार में सेवानिवृत सरकारी, गैर सरकारी कर्मचारी रहते हैं। आधुनिकीकरण के कारण गाँव का भौगोलिक संरचना एवं जीवन मूल्य बदल रहे हैं। इस संदर्भ में प्रसिद्ध आलोचक चौथीराम यादव लिखते हैं कि-“रघुनाथ देख रहे हैं कि पहाड़पुर तेजी से बदल रहा है। परिवर्तन जीवन मूल्यों में भी हो रहा है और पहाड़पुर के इतिहास भूगोल में भी। भौगोलिक परिवर्तन साफ-साफ दिखाई दे रहा है।”[6]
काशीनाथ सिंह का दूसरा उपन्यास ‘उपसंहार’ है। यह उपन्यास उत्तर महाभारत की कृष्ण कथा पर आधारित एक मिथकीय रचना है। इस उपन्यास की विशेषता यह है कि यहाँ कृष्ण एक साधारण मनुष्य के रूप में चित्रित हुए हैं जो वृद्ध हो चुके हैं। कृष्ण भगवान के रूप में सत्य, धर्म, नैतिकता के लिए जाने जाते थे, पर महाभारत युद्ध में अन्याय, अनीति, अधर्म, अनैतिकता से लड़ते हैं, इससे द्वारका नगर में अत्याचार, व्यभिचार, अपहरण, मदिरापान, भ्रष्टाचार, हत्या, कुसंस्कार, बड़ों की अवहेलना, अपने कुल में ही भेद-भाव प्रारंभ हो जाता है। इन सारी समस्याओं से जूझते हुए कृष्ण का आत्मविश्वास टूट जाता है, उनकी सारी शक्ति क्षीण हो जाती है, लेखक ने कृष्ण को आधुनिक मनुष्य के दृष्टिकोण से देखा है। वृद्ध आदमी कई परिस्थितियों में समाज से, परिवार से दूर होता जाता है और अकेलापन महसूस करने लगता है।
काशीनाथ सिंह ‘उपसंहार’ में केवल कृष्ण को ही वृद्ध रूप में चित्रित नहीं करते हैं, बल्कि दुर्वास मुनि, बलराम, उग्रसेन, और नन्द बाबा, यशोदा इनको भी वृद्ध रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस उपन्यास में कृष्ण की वृद्धावस्था का वर्णन एक साधारण मनुष्य की तरह होता है, जैसे उनको थकान महसूस होती है और वे बाल्यावस्था, युवावस्था की यादों में खोए रहते हैं। लेखक उनकी वृद्धावस्था का काव्यमय वर्णन इस तरह करता है- “उनका नीला वर्ण स्याह पड़ चुका था -एकदम सलेटी/उनकी लम्बी सफेद दाढ़ी छाती पर फहराती रहती थी/ चौड़े कन्धे झुक गए थे/ सिर के बाल घुँघराले नहीं रह गए थे/ कानों को ढँके हुए कन्धों पर झूलते रहते थे/ खोपड़ी बीच से थोड़ी गंजी हो चली थी/ जिस मुस्कान के लिए वे जाने जाते थे/ वह कुरुक्षेत्र में ही कहीं खो गई थी/ उसके बाद से ही कहीं दिखी नहीं/ न ओठों पर, न चेहरे पर, न आँखों में/ उन्हें नहीं पता चलता था, लेकिन रानियों का कहना था/ कि कुछ ऊँचा सुनने लगे हैं/ हथेलियों की पीठ पर नसें उभर आई थीं/लेकिन चेहरे पर अब भी वही चमक और दीप्ति और भव्यता थी।”[7]
मनुष्य युवावस्था में जोश, उत्साह, शौर्य के साथ जीता है, किन्तु वृद्धावस्था में शक्ति, शौर्य से नहीं रह पाता है, सिर्फ मनुष्य अपने जीवन के अनुभव की स्मृतियों को याद करते रह जाता है।
कृष्ण अपनी मर्यादा, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य के लिए युद्ध तो जीत गये पर अधर्म, अन्याय के साथ। कृष्ण अपनी वृद्धावस्था में सोचते है कि अपने कर्म में ही फल छिपा रहता है भले दिखाई न दे, आज द्वारका जिन समस्याओं से गुजर रही है मेरे ही कारणों से है। मनुष्य वृद्धावस्था में मृत्यु के बारे में जब सोचता है तब उसकी जीवन जीने की इच्छा खत्म हो जाती है। इस सन्दर्भ में डॉ. रोशन कुमार झा कहते है- “मनुष्य का जीवन सबसे संघर्षशील है। उसमें भी वृद्धावस्था अत्यंत कष्टमय अवस्था है। इस अवस्था में जीवन जीना दुर्लभ है। जीवन की परेशानियाँ उनकी बीमारियाँ उन्हें कई बार उनके मनोबल को तोड़ देती है और वे मरने की इच्छा प्रकट करते हैं।”[8]
‘काशी का अस्सी’ उपन्यास में बनारस की संस्कृति, ऐतिहासिकता, मुहल्ला अस्सी, पप्पू की चाय की दुकान में दुनिया भर की बातें, बहस, गाली-गलौज, लड़ना-झगड़ना, मौज-मस्ती की अभिव्यक्ति के साथ-साथ बाजारवाद की समस्या को भी देख सकते हैं। बाजारवाद से दुनिया बदल रही है और नई पीढ़ी उसके आकर्षण में डूब रही है। आज वृद्धवस्था की समस्या का एक प्रमुख कारण बाजारवाद है, क्योंकि बाजारवाद भारतीय समाज को सम्पूर्ण रूप से बदलने की कोशिश कर रहा है। बाजारवाद के कारण बूढ़ों की समस्याओं, विवशताओं, अकेलापन एवं पारिवारिक अवहेलना को इस उपन्यास में देखा जा सकता है- “वे घर के किसी कोने में बुक्की मारे पड़े थे और अपनी किस्मत को झंख रहे थे। वे जब तक मर नहीं जाते, तब तक जिए जाने के लिए विवश थे। दो-तीन दिनों से ‘धर्मसंघ’ में चलने वाली ‘रामकथा’ भी बन्द थी और घाट पर चलने वाला ‘सन्त प्रवचन’ भी। बेटा-बहू, पोता-पोती-किसी के पास इतना वक्त नहीं कि उन्हें देख सकें या उनकी सुन सकें। वे देख रहे थे कि सभी बूढ़े घर पर नहीं, अस्पताल में मर रहे हैं-डॉक्टरों और नर्सों के भरोसे। मरने वाले को क्या चाहिए -बस अपनों का प्यार! और जब यहीं नहीं तो कहो मर नहीं रहे हैं, मारे जा रहे हैं।”[9]
लेखक ने इस कथन द्वारा वृद्धोंपर हो रहे अमानवीय व्यवहार और उनकी मानसिक स्थिति को बहुत बारीकी से अभिव्यक्त किया है।
‘महुआचरित’ उपन्यास में एक मध्यवर्गीय परिवार का यथार्थ चित्रण हुआ है। इस उपन्यास में महुआ के पिताजी अस्सी साल के स्वतंत्रता सेनानी हैं, ये भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति दोनों से प्रभावित रहते हैं और महुआ को विवाह के बारे में कहते हैं कि स्वतंत्र रूप से रहना पर अपनी धर्म, जाति, मर्यादा में। पर यह एक लड़की के लिए असंभव बात होती है। पिता अपने कर्तव्य को भूलते जा रहे थे, इस बात को महुआ समझ रही थी। वह अपने पिता से कहती है कि - “कभी अपनी बेटी के बारे में भी सोचा? तुम्हें तो यहाँ तक पता नहीं कि तुम्हारी बेटी की उम्र क्या है? उनतीस या तीस तुम जिन सहेलियों के बारे में पूछते हो, उनमें कितनी माएँ बन चुकी हैं और कितनी पेट से हैं।”[10]
महुआ के पिता पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होने पर भी अपने बेटे सुशांत के अंतर्जातीय विवाह से खुश नहीं होते हैं। सुशांत गुडगाँव में नौकरी करता था और वहीं अपनी मनपसंद लड़की से शादी कर लेता है। माता-पिता का आशीर्वाद लेने के लिए घर लौटता है, तो माता-पिता के सारी खुशियाँ बिखर जाती हैं- “बहू को देखने के बाद ही मम्मी-पापा का चेहरा उतर गया था। उन्होंने और मैंने भी सोचा था कि आम पंजाबी लड़कियों की तरह बलविंदर भी गोरी लम्बी खूबसुरत और सुघड़ होगी लेकिन यह कद की दुहरे बदन की लड़की थी शायद सुशांत से उम्र में बड़ी थी।”[11]
आज की युवा पीढ़ी माता-पिता एवं परिवारवालों की अनुपस्थिति में भी विवाह कर लेती है। वे सिर्फ अपनी सुविधाओं को महत्त्व देते हैं, न कि परिवार वालों की। महुआ की बड़ी बहन कुँवारी रहती है, यहाँ सुशांत पारिवारिक जिम्मेदारियों को छोड़कर सिर्फ अपने बारे में सोचता है।
‘एक बूढ़े आदमी की कहानी’ में एक पाँच साल की लड़की का बलात्कार होने पर बुढ़ेराम के आक्रोश को लेखक ने बारीकी से अभिव्यक्त किया है। बूढ़ेराम दो युवकों को उस लड़की की अवस्था के बारे में बताता है पर वे उन बातों को हँसी मजाक में लेते हैं। दुनिया में अपहरण, बलात्कार, चोरी, धोखेबाजी, बेईमानी कुछ भी हो पर नयी पीढ़ी को इससे कुछ मतलब नहीं है। वे इंसानियत को खोते जा रहे हैं, इसलिए इस कहानी में बूढ़ेराम उन युवकों को कहता है कि- “तो यह बात है। बच्ची भी छोकरी है और छोकरी तो छोकरी है ही। तुम्हारे लिए सब कुछ हँसी और मजाक की चीज है। न कोई शर्म और न लिहाज। न करने के लिए बात है और न सुनने के लिए कान। समझ तो जैसे रह ही नहीं गई। खैर छोड़ो। तुमको इससे क्या मतलब कि मुझे ये बाते कैसे मालूम हुई।”[12]
प्राचीन काल में युवक बड़ों की बातों को सुनते, समझते और मानते थे तथा उनसे आदर सत्कार से बातें करते थे पर आधुनिक काल में सब छूट रहा है। काशीनाथ सिंह इस कहानी में अन्याय के प्रति वृद्ध का आक्रोश, विरोध, और नयी पीढ़ी की ईर्ष्या, द्वेष, अमानवीयता, असहायता, संवेदनहीनता को अभिव्यक्त करते हैं।
‘अपना रास्ता लो बाबा’ कहानी में वृद्धावस्था की पीड़ा, बाजारवाद, रिश्तों में दूरियाँ, शहरी स्त्री का स्वभाव एवं औद्योगीकरण का चित्रण हुआ है। काशीनाथ सिंह ने इस कहानी में आधुनिकता एवं बाजारवाद के कारण हो रहे बुजुर्गों के अनादर एवं अपमान को प्रस्तुत किया है। गाँव के कई युवक उद्योग के लिए शहर आते हैं और शहरी रहन-सहन, खान-पान में अपना जीवन व्यतीत करने लगते हैं। वे उद्योग में इतना व्यस्त हो जाते है कि गाँव, घर, परिवार को भूल जाते हैं। देवनाथ भी गाँव से शहर आकर अपने परिवार एवं सगे-संबंधी से दूरी बना लेता है। जब उसके चाचा बेंचू उसके यहाँ आते हैं तो उन्हें बोझ समझने लगता है, तथा उनका आदर करने के बजाय पूछता है कि ‘किसलिए आए हैं’ इससे बेंचू बाबा आहत होकर कहते हैं-“तू मुझसे मतलब पूछ रहा है? बाप किसी मतलब से बेटे के यहाँ जाता है?”[13]
देवनाथ के इस तरह पूछने के तरीके से पता चलता है कि उसके अन्दर मानवीयता, प्रेम-भावना एवं नैतिकता ही नहीं रह गया है।
बेंचू बाबा शारीरिक पीड़ा से ग्रस्त है। देवनाथ बेंचू बाबा का इलाज इसलिए कराना चाहता है ताकि गाँव में उसका नाम हो, लोग ताने न मारे। किन्तु देवनाथ की पत्नी उन्हें घर में रखने से बिल्कुल इंकार कर देती है। वह देवनाथ से कहती है कि- “समझ लो तुम! इतना कहे देती हूँ कि मुझसे रोज-रोज का खाना नहीं बनेगा। यही है तो कोई नौकर रखो, चाहे जो करो। एक-दो दिन की बात और है। बाबा या जो भी होंगे, तुम्हारे होंगे। मेरे कुछ नहीं हैं। अपनी पतोहू लाएं, किराए का कमरा लें या धर्मशाला में रखें, बनवाएं-खाएं। मैं यह सब लफड़ा नहीं पालती!”[14]
इस तरह शहरी स्त्री के अमानवीय एवं अनैतिक विचार को देख सकते हैं, वसुधैव कुटुम्बकम की परिभाषा अब नहीं रह गई है, इसलिए आज दुनिया में बड़ी संख्या में वृद्धाश्रम होने की सम्भावना बढ़ रही है। देवनाथ का मन बेंचू बाबा की परिस्थिति को देखकर उदास होता है, और बचपन, गाँव की यादें आती हैं। उसके ह्रदय में भावुकता, संवेदना कुछ क्षण के लिए तो जगती है पर इस दुनिया के नियमानुसार वह पुनः पहले जिंदगी में लिप्त हो जाता है।
निष्कर्ष : इस प्रकार निष्कर्ष रूप में देखते हैं कि काशीनाथ सिंह के कथा साहित्य में वृद्धावस्था की मानसिक, शारीरिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याएँ मार्मिकता के साथ उद्घाटित हुई हैं। उनके उपन्यास एवं कहानियों में गाँव और शहर में रहने वाले वृद्धों का सूक्ष्म और सजीव चित्रण हुआ है। उनके साहित्य को पढ़ने के बाद पाठकों को लगता है कि ऐसे बुजुर्ग हमारे घर, परिवार, रिश्तेदारी में, मोहल्ले में, गाँव में उपस्थित हैं। उनकी भी पीड़ा, बीमारी, शारीरिक दुःख, भावनात्मक स्थिति इसी तरह की है। ये रचनाएँ पाठकों को वृद्धों के बारे में सकारात्मक सोचने के लिए मजबूर करती हैं।
सन्दर्भ
:
एक टिप्पणी भेजें