शोध सार : मैत्रेयी पुष्पा साठोत्तरी हिन्दी कथा साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण स्त्रीवादी कथाकार हैं. उनके साहित्य में स्त्री की उपस्थिति सशक्त रूप में है। उनके साहित्य का आधार बुंदेलखंड है। बुन्देलखंडी समाज एवं संस्कृति में व्याप्त पितृसत्तात्मक मूल्य स्त्री-शोषण का वर्षों से कैसे आधार बना हुआ है मैत्रेयी पुष्पा का कथा साहित्य इसकी शिनाख्त करता है। सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक कुल-मर्यादा को मैत्रेयी पुष्पा अपने स्त्री पात्रों के माध्यम से तोड़ती चलती हैं। उनके यहाँ स्त्री-संघर्ष का विविध आयाम दीखता है। अपने समकालीनों से वह इस अर्थ में भिन्न हैं कि उनके यहाँ स्त्री-जीवन का खोखला नहीं, बल्कि यथार्थ प्रस्तुत हुआ है। मैत्रेयी पुष्पा का साहित्य पिछड़े एवं ग्रामीण क्षेत्र की स्त्री-संघर्ष की महागाथा है। प्रस्तुत शोध पत्र में इसी बात को दिखाने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : समकालीन, स्त्री-संघर्ष, समाज, संस्कृति, उपन्यास, कबूतरा जनजाति, दलित, पंचायतीराज, स्त्री-सशक्तिकरण, पितृसत्ता, सामंतवाद, स्त्री-शोषण...आदि।
मूल आलेख : साठोत्तरी हिन्दी कथा साहित्य में मैत्रेयी पुष्पा की उपस्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण है। हिंदी जगत में उनकी पहचान एक अत्यंत संवेदनशील, चिंतनशील एवं जुझारू लेखिका के रूप में रही है। उनके चिंतन के केंद्र में सदैव देश और देश की स्त्रियाँ रही हैं। देशकाल के प्रतिबद्ध पितृसत्तात्मक ताकतों से टकराना और एक प्रकार से ललकारते हुए उन्हें चुनौती देना इनके कथा साहित्य का स्थायी भाव माना जा सकता है। इनकी निष्कपट, निश्छल और ऊपर से निरीह और कोमल दिखलाई पड़ने वाली नारी चरित्रों में रबर का-सा लचीलापन और इस्पात-सी मज़बूती दिखलाई पड़ती है। स्त्री-विमर्श की गंभीर लेखिका मैत्रेयी पुष्पा अन्य महिला-लेखिकाओं की तरह आँकड़े जुटाने एवं घटित घटनाओं के विद्रूप चित्रण में विश्वास नहीं करती हैं, मनोवैज्ञानिक गहराई एवं कलात्मक ऊँचाई से युक्त इनकी सभी रचनाओं में गज़ब की पठनीयता है, जो इन्हें प्रेमचंद और रेणु की परंपरा से जोड़ती है। वैचारिक खुलेपन के बावजूद इन्होंने पश्चिमी आंदोलनों का अंधानुकरण नहीं किया। इन्होंने भारतीय नारी-जीवन की चतुर्दिक समस्याओं एवं विसंगतियों को बिल्कुल देशज परिवेश में देखा और परखा है, फलस्वरूप इनके द्वारा चित्रित स्त्री-चरित्रों की विश्वसनीयता एवं जीवंतता ही इन्हें विशिष्ट बनाती है। डॉ. रामचंद्र तिवारी के शब्दों में – “उनकी नारी-चेतना मूक विद्रोह से चलकर मुखर सामूहिक संघर्ष की दिशा में अग्रसर हुई है।”1
भारतीय स्त्रियों को कभी मनुष्य समझा ही नहीं गया। पुरुष से बराबरी की बात तो बहुत दूर की बात है। साहित्य में अक्सर अतिवादिता का शिकार रही है। एक ओर उन्हें पौराणिक ग्रंथों एवं स्मृति-ग्रंथों में देवी बनाकर पूजा जाता रहा है तो दूसरी ओर सांस्कृतिक समृद्धि के दौर में भी वे वारांगणाओं और नगरवधुओं के रूप में राजा-महाराजाओं की विलास-वस्तु बनी रहीं। प्रजाजन के समाज में भी कभी वे पूरे परिवार के केंद्र में रहकर ‘गृहस्वामिनी’ और ‘गृहलक्ष्मी’ से विभूषित होती रहीं तो कभी दासी बनकर ‘गृहदासी’ से भी बदतर जीवन जीने को अभिशप्त रहीं। स्त्री-जीवन की यह त्रासदी रही कि संपन्नता के दौर में महँगे वस्त्रों और आभूषणों से लदी वे कुल और परिवार के ऐश्वर्य-प्रदर्शन का साधन बनीं तो विपन्नता के दौर में अपना पेट काटकर पति और बच्चों का पेट भरती हुई अन्नपूर्णा के सम्मान से विभूषित होती रहीं। जैसे-जैसे मानव-समाज विकसित होता गया, उसकी सभ्यता समुन्नत होती गई, वह सांस्कृतिक विकास के विभिन्न सोपान तय करता गया। इन सभी के प्रतिफलन में वह धर्म, दर्शन, साहित्य, चिंतन, विभिन्न कलाओं एवं विज्ञान की दुनिया में नई-नई ऊँचाइयाँ छूता गया। इस बीच, दुर्भिक्ष, युद्ध, महामारी, बाहरी आक्रमण जैसी प्राकृतिक और मनव-निर्मित आपदाएँ सामाजिक विकास के मार्ग में गत्यावरोध डालती रहीं, सभ्यताओं के विकास के उत्थान-पतन के दौर चलते रहे, सांस्कृतिक संक्रमण एवं उत्थान-पतन का सिलसिला चलता रहा। धीरे-धीरे स्त्रियों के निजी और यहाँ तक कि नैसर्गिक अधिकारों पर भी पुरुष कब्ज़ा करता चला गया। कभी परिवार और कुल की मर्यादा का हवाला देते हुए, तो कभी विजातीय आक्रांताओं से बचाने के कारण उसे सात पर्दों के भीतर ढकेल दिया गया। वह पूरी तरह पुरुषों को शारीरिक संतुष्टि प्रदान करने, बच्चे पैदा करने, उन्हें पालने-पोसने और घर के सभी बड़े-बुजुर्गों की सेवा में उन्हें झोंक दिया गया। उससे भी समय बचा तो उन्हें खेती के काम में लगा दिया गया। त्रासद स्थिति यह थी कि घर से लेकर बाहर तक वे यौन-हिंसा का शिकार होती रहीं और उन्हें ‘इज्जत चली जाएगी’ का डर दिखाकर चुप्पी साध लेने की नसीहत दी जाती रही।
मैत्रेयी पुष्पा के अनुसार समाज में ब्राह्मण, क्षत्रीय एवं वैश्य पुरुषों के अधिकार और कार्य तो परिभाषित रहे, यहाँ तक कि शूद्रों की सेवकाई भी जगजाहिर थी, किंतु स्त्रियों की स्थिति समाज में लगभग धूरीहीन ही बनी रही। मैत्रेयी पुष्पा का स्त्री-चिंतन ‘अबला जीवन’ और ‘पीयूष-स्रोत सी बहा करो’ के आगे का चिंतन है। ये औरतें आधुनिक भारत की हैं, जो सामाजिक जड़ता को तोड़ने की कसमसाहट भरे आत्मसंघर्ष से गुजर रही हैं। ये पुरुषों के घुटनों पर सिर रखकर रोने के बजाय जड़वादी, पुरुषवादी सामजिक व्यवस्था के खिलाफ न सिर्फ़ विद्रोह करती हैं बल्कि विजेता बनकर भी उभरती हैं। ‘अगनपाखी’ की भुवन, ‘इदन्नमम’ की मंदा, ‘चाक’ की सारंग, ‘झूला नट’ की शीलो, ‘विज़न’ की डॉ. नेहा और ‘फरिश्ते निकले’ की बेला बहू ऐसी स्त्री पात्र हैं जो कि घर-परिवार से लेकर सरकारी विभाग, राजनीतिक महकमा और चिकित्सा के क्षेत्र में पुरुषवादी ताकतों के खिलाफ कायम किए गए उनकी भ्रष्ट व्यवस्था के मजबूत किलों को ध्वस्त करती हुईं उन्हीं के मैदान में उन्हें परास्त करती हैं। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में स्त्री-शक्ति के द्वारा सामाजिक सशक्तिकरण के क्षेत्र में तय किए गए सफलता के सोपान एक ओर आत्मसंतोष का भाव भरते हैं तो दूसरी ओर अधूरे कार्यों को पूरे करने की प्रेरणा देते हैं।
मैत्रेयी पुष्पा के प्रारम्भिक उपन्यासों – 'स्मृति दंश' (1990 ई०), 'बेतवा बहती रही'
(1993 ई०) – में नारी संघर्ष का मुखर रूप दिखाई देता है। नारी का संघर्षशील रूप 'इदन्नमम' (1994 ई०) उपन्यास में सामने आता है। मधुरेश जी के शब्दों में "प्रारंभिक उपन्यासों- 'स्मृति दंश' और 'बेतवा बहती रही’ में मैत्रेयी पुष्पा ने नई संभावनाओं की जो आस जगाई थी, वह 'इदन्नमम' में सर्जनात्मक उपलब्धि बनी।"2
‘इदन्नमम’ (1994) उपन्यास में सामाजिक सशक्तिकरण का अभियान चलाने वाली मंदा दूरदृष्टि रखने वाली युवती है। गाँव की बेटी होने के नाते वह अच्छी तरह समझती है कि सारे गाँव के सहयोग एवं साझेदारी के बिना वह गाँव की सूरत नहीं बदल सकती है। इसलिए वह प्रधानजी को पकड़ती है, उन्हें प्रेरित करती है और उनके माध्यम से लगातार सरकारी तंत्र से पत्राचार करती हुई गाँव में डाकखाना खोलने, चिकित्सा-केंद्र खोलने, बिजली लाने, सड़क बनवाकर अपने गाँव को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का काम करती है। उसका यह काम संपूर्ण समाज के लिए है, किंतु वह इन कार्यों को पूरा करने की ताकत नारी-संगठन से ताकत प्राप्त करती है। स्त्री की अस्मिता और आत्म-सम्मान की लड़ाई मंदा साथ-साथ लड़ रही है। वह जानती है कि दुश्मन उससे कहीं अधिक ताकतवर है। वह यह जानते हुए भी अभिलाख सिंह का डटकर सामना करती है और उसे फटकार लगाती हुई कहती है – ‘‘तुम बेईमान हो, दुश्चरित्र हो, गाँव भर का अहित कर रहे हो।’’3 औरतों और अभिवंचितों के उत्थान के लिए सामाजिक सशक्तिकरण के पक्ष में किए गए ये कार्य अवश्य ही प्रशंसनीय माने जाएँगे। इस उपन्यास के बारे में आलोचक मधुरेश का मानना है – “स्त्री की मुक्ति का सवाल पूरे समाज की मुक्ति से जुड़ा है।... लेखिका, स्त्री उत्पीड़न के विभिन्न संदर्भों को प्रामाणिक और विश्वसनीय रूप में प्रस्तुत कर सकी है।”4
‘चाक’ (1997) मैत्रेयी पुष्पा द्वारा रचित एक ग्रामगंधी रचना है जिसमें ग्रामीण परिवेश के नारी संघर्ष को दर्शाया गया है। कथाकार राजेंद्र यादव का मानना है कि ‘चाक’ सामंती-समाज में व्याप्त हिंसा, स्त्रियों पर की जाने वाली क्रूरता और लैंगिक भेद की प्रामाणिक कहानी है। उनके अनुसार – “‘चाक’ में बिना बड़बोलेपन के उन्होंने गाँव की स्त्री की जिस चेतना का विकास किया है, वह उपन्यास कला पर उनकी पकड़ को रेखांकित करता है।’’5 ‘चाक’ एक स्त्री की हत्या की पृमठभूमि में औरत की आजादी के लिए लिखा गया उपन्यास है। स्वयं लेखिका का मानना है कि – “ ‘चाक’ गाँव के रग-रेशों में जीता हुआ आत्मीय दस्तावेज़ है। पुरुष समाज में स्त्री की अपनी पहचान का संकल्प-पत्र।”6
इस उपन्यास की नायिका सारंग स्त्री-जाति की अस्मिता और आत्म-सम्मान की लड़ाई पुरुष वर्चस्ववादी ताकतों के खिलाफ लड़ती है। एक ओर सारंग अपने निजी जीवन में अपनी इयत्ता, अस्मिता, स्वतंत्रता, इच्छा और आकांक्षाओं की लड़ाई पारिवारिक स्तर पर लड़ती है, जिसमें उसका पति रंजीत ही उससे संबंध-विच्छेद करके सबसे बड़ा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में शत्रु ताकतों के द्वारा सामने खड़ा कर दिया जाता है, वहीं दूसरी ओर वह अपनी फुफेरी बहन रेशम और गुलकंदी की ‘ऑनर किलिंग’ की लड़ाई अपने समाज के शक्तिशाली लोगों के विरुद्ध लड़ती हुई हत्यारों को सजा दिलवाने में कामयाब होती है। इस उपन्यास में स्त्री के प्रेम करने का अधिकार, प्रेम-विवाह करने का अधिकार, गर्भधारण का अधिकार, मातृत्व का अधिकार, राजनीति में भागीदारी का अधिकार जैसे कई पहलुओं को कथानक के संदर्भ मे प्रभावशाली ढंग से उठाया गया है। डॉ. रामचंद्र तिवारी ने इस उपन्यास के बारे में लिखा है – “सारंग के नेतृत्व में धरती की बेटियाँ लौह जंजीरों को काट फेंकती हैं। लेखिका ने अपनी सम्पूर्ण रचनातमक प्रतिभा का उपयोग इसी नारी शक्ति को जगाने में किया है।7
‘झूलानट’(1999) सामाजिक दृष्टि से स्त्री-शोषण को उजागर करता है। शोषण की शुरुआत परिवार से ही होती है। नारी सशक्तिकरण की अवधारणा को एक नई दृष्टि से देखने वाले इस उपन्यास में सास-बहू के सम्बन्धों के चित्रण के साथ-साथ शीलो के रूप में एक जाट युवती के परम्परागत मूल्यों को चुनौती देने, स्त्री-संहिता को नकारने और विद्रोह की मुद्रा में तन कर खड़ी होने का भी चित्रण किया गया है। शीलो देश की स्वतंत्रता के पचास वर्षों के बाद की लोकतांत्रिक भारतीय समाज में जन्मी, पली और बढ़ी औरत है। शीलो एक अनपढ़ स्त्री होते हुए भी अपने अधिकारों के प्रति सतर्क और सचेत है। वह अपने पति को मुँहतोड़ जवाब देती है कि उसके लिए बालकिशन वहीं हैं जो आपके लिए शहर में रखी गई मनमर्जी बिन ब्याही औरत है। सास के कहने पर भी वह बालकिशन के साथ बिना बछिया दान करवाए हुई साथ-साथ रहती है और किसी भी अत्याचार और शोषण से स्वयं को बचाती है। मैत्रेयी पुष्पा ने शीलो को एक साहसी नारी के रूप में चित्रित किया है। साथ ही गाँव के निम्नवर्गीय समाज, उनके रीति-रिवाज और पुराने संस्कारों में हो रहे परिवर्तन की जो बयार बही है, शीलो यहाँ ग्रामीणों के बीच नेतृत्व की भूमिका निभाती है। स्त्रियों के सामाजिक सशक्तिकरण की दृष्टि से ‘झूलानट’ एक विशिष्ट उपन्यास बन पड़ा है। डॉ गोपाल राय के शब्दों में, ‘‘शीलो के रूप में एक जाट युवती के परंपरागत मूल्यों को चुनौती देने, स्त्री संहिता को नकारने और विद्रोह की मुद्रा को तनकर खड़े होने का चित्रण भी किया गया है।’’8
मैत्रेयी पुष्पा के सर्वाधिक चर्चित एवं बहुपठित उपन्यास ‘अल्मा कबूतरी’
(2000) कबूतरा समाज की स्त्रियों के दैहिक और मानसिक शोमाण पर आधारित है। हिंदी के सुधी समीक्षक डॉ. प्रेमकुमार मणि ने हंस के दिसंबर, 2000 ई. के अंक में मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास ‘अल्मा कबूतरी’ को उनकी सर्वप्रमुख औपन्यासिक सफलता माना है। उन्होंने अपना मत अभिव्यक्त करते हुए लिखा है, ‘‘मैत्रेयी जी ने इसे लिखकर अपने सभी उपन्यासों को छोटा कर दिया है। अपने ही नहीं, बल्कि पूरे देश में लिखे बाकी उपन्यासों को भी छोटा कर दिया है।’’9 इस उपन्यास में लेखिका ने दिखाया है कि किन रूपों में आजादी के कई दशकों के बाद भी यह जनजाति समाज की मुख्यधारा से कटकर जीवन जीने को अभिशप्त है। इस समाज के पुरुष जहाँ चोरी और छिनैती जैसी आपराधिक घटनाओं में संलिप्तता के कारण अपने जीवन का अधिकांश समय या तो जेलों में बिताते हैं, या जंगलों में भटकते हुए फर्जी इनकाउंटर में मारे जाते हैं। इस सभ्य समाज में ऐसा इसलिए चल रहा है क्योंकि अंग्रेजों ने इनके माथे पर इन्हें ‘जरायम पेशा जनजाति’ होने के काले कानून का ठप्पा लगा दिया था। भूरी, कदमबाई और अल्मा कबूतरी नामक तीन स्त्रियों के नेतृत्व में स्त्रियों के सामाजिक सशक्तिकरण के उद्देश्य से लड़ी गई यह लड़ाई यदि कोई सकारात्मक परिणाम नहीं दे पाती है, किंतु तीन पीढ़ियों के द्वारा लड़ा गया यह अछोर, अंतहीन संघर्ष संपूर्ण स्त्री-समाज के लिए प्रेरणादायी बन पड़ा है और लोकतांत्रिक सरकारों की आँखें खोलने वाला है। कदमबाई की दृष्टि में कबूतरा समुदाय में और कज्जा समाज के बीच एक अघोषित जंग जारी है। एक ओर उसकी दृष्टि में यह तथाकथित सभ्य कज्जा समाज और उनका साथ देने वाली पुलिस है, तो दूसरी ओर वे अकेले ही अपनी संपूर्ण जाति की पहचान मिटाने के लिए रचे गए षडयंत्र से बचने के लिए संघर्षरत है। इनके लिए त्रासद स्थिति यह है कि तथाकथित सभ्य कहा जाने वाला कज्जा समाज, पुलिस-व्यवस्था सभी इनके वर्ग शत्रु हैं। जन-काल्याण का ढोंग रचने वाली कल्याणकारी सरकार के मंत्रियों को भी सिर्फ इनके वोट बैंक से मतलब है, जो कि ये शराब और चंद पैसों के बल पर वोट के ठेकेदारों के द्वारा वे आसानी से ‘मैनेज’ कर लेते हैं। इस समाज के सामाजिक सशक्तिकरण का सर्वाधिक सार्थक प्रयास अल्मा के द्वारा किया जाता है। नई पीढ़ी की अल्मा अंग्रेजी पढ़ी-लिखी और तेज दिमाग की लड़की है। अल्मा की दृष्टि में वे सभी पुरुषवादी ताकतें उसके वर्गशत्रु के अंतर्गत आती हैं जिन्होंने कबूतरा समाज की औरतों का दैहिक-शोषण किया है, या जो उनकी खरीद-बिक्री के क्रिया-व्यापार में संलिप्त हैं। वह बेटा सिंह, सूरजभान और श्रीराम शास्त्री सबसे बदला लेना चाहती है, किंतु साथ ही साथ वह बुद्धिमत्ता और प्रत्युत्पन्नमति से भी भरी हुई है। वह बखूबी जानती है कि कब शत्रु के सामने झुककर रहना है, कैसे उसके पेट में प्रेवेश कर उससे काम निकालना है और कैसे पलटवार करना है। श्रीराम शास्त्री को अपनी बातों से प्रभावित करती हुई अपने समाज के हित में बहुत से जन-कल्याणकारी कार्य करवाती है। कालांतर में वह दैहिक शोषण करने वाले श्रीरामशास्त्री को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करती है और सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने का प्रयास करती है। वह जननेत्री के रूप में उभरती है और अपने समाज के सशक्तिकरण के लिए कई सकारात्मक कार्य करती है। इस उपन्यास के बारे में आलोचक रामचंद्र तिवारी का कहना है, “ ‘अल्मा कबूतरी’, कबूतरा जाति की कथा मात्र नहीं है ... अल्मा जैसी दलित की अपराजेय जीजिविषा समकालीन नारी-चेतना को शक्ति और प्रेरणा देने वाली है।”10
‘अगनपाखी’ (2001) उपन्यास की भुवन अग्निपंखों वाली एक ऐसी स्त्री है जो पुरुष वर्चस्व की सत्ता के प्रतीक अपने जेठ अजय सिंह को अपनी हिस्सेदारी पाने के लिए कोर्ट तक घसीट ले आती है। निश्चित रूप से भुवन का यह क्रिया-कलाप नारी के सामाजिक सशक्तिकरण की दिशा में उठाया गया एक बहुत कड़ा कदम माना जा सकता है, जहाँ एक विधवा औरत अजय सिंह जैसी सामंतवादी ताकत को कोर्ट में चुनौती देती हुई अपना हिस्सा प्राप्त करती है। आजादी के बाद लागू किए गए कानून के अनुसार विधवाओं को संपत्ति का अधिकार तो कानूनन प्राप्त हो चुका है, किंतु जागरुकता के अभाव में औरतें आज भी दर-दर की ठोकरें खाती हुई मिल जाती हैं। ग्यारह सालों के बाद ‘स्मृतिदंश’ के पुनर्लेखन के रूप में नये अवतार में दिखीं। ‘अगनपाखी’ उपन्यास में भुवन के द्वारा किया गया सामाजिक सशक्तिकरण का यह कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाएगा।
‘कस्तूरी कुंडली बसै’ (2002) की कस्तूरी समाज को यह संदेश देती है कि उसकी देह कोई सामाजिक संपत्ति नहीं है जिस पर एक बार सधवा या विधवा हाने की मुहर लग जाने के बाद उसका निजी जीवन ही समाप्त हो जाए। वैधव्य का सफेद लिबास उतारकर कस्तूरी घर से बाहर निकलकर सरकारी नौकरी करती हुई आर्थिक, सामाजिक स्तर पर स्वयं को सशक्त करती है और अपनी बेटी मैत्रेयी को पढ़ा-लिखाकर एक चिकित्सक के साथ उसका विवाह करती है। यद्यपि दोनों माँ-बेटियों को इन सामाजिक जड़-बंधनों को काटने में भारी मशक्कत करनी पड़ती हैं और दैहिक शोषण के रूप में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है, किंतु अंततोगत्वा वे सफल होती हैं। आत्मकथात्मक शैली में लिखे गए इस उपन्यास की मैत्रेयी बेटियों की शिक्षा के महत्त्व को गहराई से समझती है और उन्हें पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाती है ताकि वे सशक्त जीवन जी सकें।
‘विज़न’ (2002) की डॉ. नेहा का संघर्ष त्रि-स्तरीय है। लड़ाई का पहला स्तर है, लैंगिक-भेद के आधार पर स्त्रियों को कम आँकते हुए उनका जो प्राप्य है, उनसे उन्हें वंचित करना। दूसरा, संघर्ष निजी जीवन के स्तर पर लड़ना पड़ रहा है, जहाँ उसे समाज के लिए अपने ससुर और पति के विरुद्ध ही लड़ाई लड़नी पड़ती है। डॉ. नेहा के संघर्ष का तीसरा स्तर वे गरीब मरीज हैं जिनके पक्ष में न तो कोई सरकार खड़़ी है और न ही कोई संगठन ही आगे आ रहा है। उपेक्षित कामकाजी औरतों और अभिवंचित वर्ग के इन मरीजों के सामाजिक सशक्तिकरण के लिए लड़ी गई इस लड़ाई को इस क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण कदम माना जा सकता है।
‘कही ईसुरी फाग’ (2004) की रजऊ की पीड़ा और उसका संघर्ष एक ऐसी आम भारतीय ग्रामीण स्त्री की सच्चे प्रेम, पीड़ा और संघर्ष की कथा है जिनके पति बाहर नौकरी करते हैं। ईसुरी बुंदेलखंड के लोक कवि हैं जिनके शृंगारिक फागों की सुंदरतम नायिकाओं में से एक ‘रजऊ’ भी है। रजऊ का पति प्रताप पहले पढ़ाई के लिए बाहर रहा करता था, फिर बाद में फौज में नौकरी करने लगा। औरत का पति यदि परदेस में बसता हो और संयोग से यदि वह सुंदर हो तो उन दिनों के सामंती समाज में हर पुरुष उसे संभावनाशील दृष्टि से देखना शुरू कर देता था। कुछ इसी प्रकार की विपरीतताओं का सामना भोजपुरी का शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर के ‘बिदेसिया’ नाटक की नायिका सुंदरी को भी करना पड़ता है। सुंदरी का पति कमाने के लिए कलकत्ता चला गया है इधर गाँव के रूपलोभी सभी पुरुषों की कुदृष्टि का सामना उसे करना पड़ता है। कुछ इससे भी दयनीय स्थिति रजऊ की है। पुरुष तो पुरुष, गाँव की औरतें भी जब उसे प्रताड़ित करना शुरू कर देती हैं तब वह गाँव ही छोड़ देने का फैसला करती है। रजऊ का ईसुरी की खोज में गाँव छोड़कर निकलना उसके सामाजिक निष्कासन के रूप में देखा जाना चाहिए। यह बात अलग है कि देशप्रेम की बलिवेदी पर बलिदान देने वाली रजऊ के चरित्र का उदात्तीकरण हो जाता है और वह बुंदेलखंड के जनमानस में अमर हो जाती है। डॉ. रामचंद्र तिवारी के अनुसार – “ इस उपन्यास में पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर सदियों से किये जाने वाले अत्याचारों का पर्दाफ़ाश किया गया है।”11
सामाजिक अन्याय के विरुद्ध लड़ी गई ये लड़ाइयाँ मैत्रेयी पुष्पा की स्त्री पात्र ‘विज़न’ और ‘गुनाह-बेगुनाह’ (2012) में शहरी अखाड़ों में भी लड़ती हैं। ‘विज़न’ में डॉ नेहा की लड़ाई एक ऐसे भ्रष्ट चिकित्सा माफिया के खिलाफ है जो कि अपने अयोग्य और अक्षम डॉक्टर बेटे को नेत्र चिकित्सा के व्यवसाय में स्थापित करने के लिए दूसरों की आँखों की रौशनी छीनने का काम कर रहा था। ‘गुनाह-बेगुनाह’ की इला चौधरी भ्रष्ट पुलिस महकमे के उन अधिकारियों को हिलाकर रख देती है जो कि महिला पुलिसकर्मियों एवं महिला अपराधियों की देह को अपनी जागीर समझा करते थे। इसी प्रकार ‘फरिश्ते निकले’ की स्त्री पात्र उजाला का बलात्कार गाँव के सरपंच के इशारे पर गाँव के ही अपराधी प्रवृत्ति के कुछ युवक करते हैं। उपन्यास की स्त्री पात्र बेला बहू गाँव में सामंतवादी ताकत के प्रतीक सरपंच के खिलाफ एक कथित छोटी जात की स्त्री के साथ हुए यौन उत्पीड़न की कानूनी लड़ाई लड़ती है और उन्हें सजा दिलवाती है। सामाजिक सशक्तिकरण के लिए लड़ी गई चतुर्दिक लड़ाई नारी सशक्तिकरण के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के रूप में गिनने योग्य हैं। डॉ. रामचंद्र तिवारी ने ठीक ही लिखा है – “निश्चय ही समकालीन हिन्दी उपन्यासकारों में वे प्रथम पंक्ति की हक़दार हैं।”12
निष्कर्ष : मानव सभ्यता के विकास के आरंभिक दौर से ही पुरुषवादी समाज में स्त्रियों के राजनीतिक अधिकार अत्यंत सीमित रहे हैं। वैदिक युग में ‘सभा’ और ‘समिति’ में बैठकर निर्णय की सहभागिता के दौर में भी राजनीतिक क्षेत्र में वे निर्णायक की भूमिका में नहीं रहीं। वैदिक ऋचाएँ रचने वाली स्त्रियाँ भी आर्थिक स्तर पर ऋषियों की मुखापेक्षी थीं। मैत्रेयी पुष्पा व्यक्तिगत तौर पर ये मानती हैं कि ऋषि-पत्नियाँ आधुनिक नारियों की तुलना में भले ही अधिक प्रतिभा संपन्न थीं, किंतु वे आर्थिक स्तर पर स्वावलंबी नहीं थीं। यही कारण है कि अधिक पढ़ी-लिखी न होने के बावजूद भी ‘इदन्नमम’ की मंदा अभिलाख सिंह एवं क्रेशर-मालिकों से लोहा लेते वक्त खुद को आर्थिक स्तर पर मज़बूत करने के लिए ट्रैक्टर खरीदती है और उसे चलवाकर धन भी अर्जित करती है। इसी प्रकार लोकतंत्र में महिलाओं और अभिवंचितों को वोट की कीमत समझाने से लेकर वोट बहिष्कार तक के काम करती है। वह पंचायती राज-व्यवस्था का पूरा लाभ उठाकर ग्रामीण विकास के काम प्रधान जी से मिलकर करती है। इस प्रकार वह नारी सशक्तिकरण में पुरुषों से सहयोग लेने में परहेज भी नहीं करती है। ‘चाक’ की सारंग स्वयं गाँव के दबंगों के विरुद्ध खड़ी होकर पंचायत का चुनाव जीतती है। ‘अल्मा कबूतरी’ की अल्मा अग्रेंजी पढ़ी- लिखी लड़की है। वह अच्छी तरह जानती है कि बड़े सामाजिक बदलाव के लिए राजनीतिक स्तर पर सशक्त होना आवश्यक है। वह श्रीराम शास्त्री का सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल करती हुई प्रदेश की राजनीति में सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने का प्रयास करती है। ‘फरिश्ते निकले’ की बेला बहू भी नारी-संगठन एवं अपनी मित्र मंडली के बल पर स्त्रियों एवं अभिवंचितों की स्थिति में सुधार के लिए बड़े स्तर पर जनसेवा कार्य चलाती हुई यह सि़द्ध करती है कि सांगठनिक क्षमता के मामले में भी स्त्रियाँ पुरुषों से कम नहीं हैं। इस तरह मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों की स्त्री पात्र पंचायती राज से लेकर प्रतिनिधि सभाओं तक के राजनीतिक सफर में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
संदर्भ :
6. मैत्रेयी पुष्पा, चाक, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, आवरण पृष्ठ से।
7. रामचंद्र तिवारी, हिन्दी का गद्य साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृ. सं. 355
विभागाध्यक्ष, हिन्दी, प्रसन्न कुमार रॉय स्मारक महाविद्यालय, धनबाद.
singhdrsanjay08@gmail.com, 9199184645
मनीषा मंडल
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, बिनोद बिहारी महतो कोयलांचल महाविद्यालय, धनबाद.
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