इक्कीसवीं सदी का यह दौर आधुनिकता का वह बिंदु है जहाँ तकनीकी अपने शीर्ष पर है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, मनुष्य की प्राकृतिक बुद्धिमत्ता, जिसके कारण वह स्वयं को अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ समझता आया है, सेइक्कीस होने को है। संभव है आने वाले समय में वह हमें पराजित कर दे। इसके बाद वह मशीन में मानवीय भावानुभूतियों को विकसित करने की ओर अग्रसर होगा? दूसरी ओर इसी दौर में मानव में भावानुभूतियों व मूल्यों का ह्रास सभ्यता की ऐतिहासिक हानि साबित होने को है। एडवांस तकनीक मनुष्य को उसकी मौलिकता से विलग कर पंगु बना रही है। तकनीकी के अनुरूप अपने को भावाभिव्यक्त करने से, मनुष्य की नैसर्गिक भावों की अभिव्यक्तियों में एक द्वंद्व-सा उत्पन्न हो गया है। इसे सीधे तौर पर कहें तो एक रोबोट, मनुष्य में भी रोबोटीय क्षमता का विकास करने की ओर अग्रसर है। और उससे बड़ी चिंता इस रूप में की भावानुभूतियाँ, स्वभावगत न होकर तकनीक द्वारा संचालित है। यह संचालन क्रमबद्धता लाता है, एक दायरा तय करता है, जहाँ मौलिकता का कोई स्थान नहीं। वही मौलिकता, जो जोड़ती है चेतना को, हर एक चीज से; चाहे वह जड़ हो या चेतन। मसलन मनुष्य जब किसी तकनीकी संचार में प्रवृत्त होता है तो उसी की अभिव्यक्तियों के अनुरूप अपनी प्रवृत्तियों को ढालने लगता है। तकनीकी अपने प्रभाव के चलते मनुष्य में उन प्रवृत्तियों का निर्माण करने सक्षम हो गई है जो ये तय करने लगी है कि उसे कहाँ हँसना है, कहाँ रोना है, कैसी परिस्थितियों में कैसा रिएक्ट करना है। यह सब मानवीय रोबोटीय क्षमता का विकास नहीं तो क्या है? आज विश्व के सभी कार्य क्षेत्र चाहे वह भौतिक हो या मानसिक, मूर्त हो या अमूर्त, जड़ हो या चेतन, सभी कुछ तकनीकी के घेरे में आ चुका है। मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता रोटी-कपड़ा-मकान के अलावा और भी बहुत कुछ है, ये तकनीक और उसके शीर्ष पर बैठा बाजारवाद तय कर रहा है। पर इन सबके बीच वह मूल चिंता जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है वह है- भाव और संवेदना, उसका तकनीकीकरण मनुष्य की मनुष्यता का लुप्तीकरण, वह कैसे बचाया जाए?
मनुष्य में मनुष्यता की, भावों और संवेदना की, सार्वभौमिक मूल्यों का अंतिम स्रोत है - साहित्य। साहित्य, मनुष्य की चेतना को जड़-चेतन सब से जोड़ने का काम करता है। हालाँकि, साहित्य और तकनीक दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं पर दोनों के प्रभावित करने में अंतर है। साहित्य में विराम है, प्रतीक्षा है, यहाँ भावों का परिपाक होता है, समय पाकर वे पुष्ट होते हैं, तत्पश्चात रसास्वादन होता है। वहीं तकनीक भावों का उद्वेलन करती है, क्षण भर को ठीक बिजली की चमक की भाँति चमक उठती है और यकायक गायब हो जाती है। साहित्य व्यक्ति की मौलिकता को संवर्धित करता है। एक ही तथ्य के लिए या दृश्य के लिए विभिन्न मनुष्यों के बीच मौलिकता भिन्न-भिन्न छापों का निर्माण करती है। यह छाप प्रत्येक के लिए अपनी सहज अनुभूतियों के अनुरूप होगा। मौलिकता का यह विशिष्ट गुण साहित्य के बूटों में छिपा है। बूटें जितने पुष्ट होंगे, मौलिकता उतनी ही आह्लादिनी होगी। मैं साहित्य में मौलिकता के दो तरफा पक्षों में अलग-अलग भावानुभूति के होने के दावे का समर्थन करता हूँ । मतलब कि यह
साहित्यकार के साहित्य में उपस्थित भावानुभूति केवल अपनी ही मौलिक अनुभूति नहीं होती अपितु पाठक के अनुभूत से उत्पन्न सृजन की मौलिकता नई उद्भावना भी होती है। तकनीकी ने मनुष्य की सृजित मौलिकता पर अतिक्रमण करने का प्रयास किया है। दृश्य का प्रत्यक्ष दिखाई देना व दृश्य को शब्दों से उभारने में, इन दोनों प्रक्रिया में भावों की सघनता के साथ अनुभूति की तीव्रता अधिकतम किसमें होगी? और बात अनुभूति की तीव्रतम अधिकता की ही नहीं अपितु भावों के अधिक समय के ठहरने को लेकर भी है। हम पूर्व में कह आए हैं कि साहित्य, विराम की, प्रतीक्षा माँग करता है ताकि भाव स्थिर रहें और स्थिरता के इस दौर में वह पुष्ट होकर अपनी भाविक चेतना का अंग बन जाए ताकि संवेदना का दायरा विस्तृत हो सके। पर तकनीक हमें यह स्थिरता, वह पुष्टता दे पाने में असक्षम है। अच्छा, यहाँ जब मैं तकनीकी की बात कर रहा हूँ तो इसका सीधा-सा तात्पर्य साहित्य के तकनीकीगत होने से है। इसे आप साहित्य व सिनेमा या अन्य सिनेमेटिक या तकनीकी भावाभिव्यक्ति से लें। यहाँ तकनीकी में न केवल दृश्य-श्रव्य पक्ष ही शामिल है अपितु भावाख्यान के समस्त रूप, जो तकनीकी संचालित हैं, शामिल हैं। इन सब में मैं नाटक को भी शामिल कर लूँ तो कोई एतराज नहीं। क्योंकि नाटक भी मौलिक सृजन में बाधक है। मैं नाटक या सिनेमा में राम का चरित्र देखूँगा और उसी के अनुरूप अपने सृजकता को रूढ़ कर लूँगा। मसलन, ‘राम’ शब्द के आते ही वह रूढ़ता आकर मेरे समक्ष खड़ी हो जाएगी जैसा कि पूर्व प्रत्यक्ष था, पर अगर साहित्य के भिन्न-भिन्न राम के चरित्रों को पढ़ता तो उन प्रवृत्तियों के अनुरूप राम के नाना रूपों की सृजक मौलिकता की अनुभूति करता। साहित्य हमें सृजन क्षमता से लैस करता है, वह क्षमता जिनके अलग-अलग रूप हैं, जो देशकाल परिस्थितियों के अनुरूप है; जो सहृदय के मानसिक क्षेत्र में बनते हैं और उसे रसास्वादन हेतु प्रवृत्त करते हैं। अच्छा, इन क्षेत्रों से बनने वाले भावों का आनंद लोकोत्तर होता है जो सबके लिए भिन्न-भिन्न हो सकता है।
''साहित्य की ओर लौटना' वर्तमान मानवीय सभ्यता के बीच मनुष्यता की पुनर्स्थापना है।” मनुष्य अपने को जितना अधिक साहित्य के निकट लाएगा, मानवीय मूल्यों को पुष्ट करेगा। यह केवल मानवीय भावों के संरक्षण का ही प्रश्न नहीं है अपितु इसके माध्यम से प्रकृति चेतना का भी मनुष्य के साथ जुड़ाव भी है । यहाँ मैं प्रकृति चेतना को एकबारगी से उठा रहा हूँ, चूँकि आधार संरचना तो वही है। साहित्य का पठन-पाठन केवल भावों की मौलिक क्षमता तक ही सीमित नहीं है उसके बहुउद्देशीय बिंदुओं पर पोथे के पोथे भरे पड़े हैं। पर उन सबके बावजूद साहित्य हमे अनुभूति देता है, वह अनुभूति जो हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और साथ ही साहित्यिक अनुभूति हमें मूल्य भी देता है, सार्वभौमिक मानवीय मूल्य। साहित्य की आवश्यकता प्रत्येक देश व समाज के लिए वांछनीय है। यदि उसके बीच गायब होती जा रही 'मनुष्यता' तकनीकी के कारण अपनी भावानुभूतियों का संचालन करे तो? तकनीकी ने भावों को पुष्ट करने के बजाय उसे क्षणिक करने पर बल दिया है, यह क्षणिकता मनुष्य को स्थिर रख पाने में सक्षम नहीं है। इसका प्रभाव समस्त मानवीय क्रिया-कलापों में देखने को मिलता है। तीस सेकंड की रील देखनी है या नहीं, यह भी हम तीन सेकंड में तय करने लगे हैं। हर क्षण को क्षण भर में बदलने की प्रवृत्तियों का ऐसा वमन सभ्यता ने कभी नहीं देखा। अच्छा, यहाँ एक बात और भाव की भिन्नता जहाँ अलग-अलग समय तक कुछ देर टिके तो कुछ बात भी बने पर तुरंत ही एक भाव से दूसरे भाव का आ भिड़ना 'मेंटल ट्रैफिक' नहीं तो और क्या है? उदाहरण के लिए आजकल के स्मार्टफोन में बढ़ती रील्स देखने की प्रवृत्ति। इसलिए 'साहित्य की ओर लौटना' मनुष्यता के लिए के लिए बहुत जरूरी बन पड़ा है।
विद्यार्थी, स्नाकोत्तर (हिंदी साहित्य), जिला राजकीय महाविद्यालय, चित्रकूट (उत्तर प्रदेश)
vk6307260@gmail.com, 8090601872
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