शोध आलेख : मार्कंडेय का कथा साहित्य और बाल मनोभूमि / अजय कुमार यादव

मार्कंडेय का कथा साहित्य और बाल मनोभूमि
- अजय कुमार यादव

            आधुनिक अभिव्यक्ति के इतिहास मेंशार्ट स्टोरीलेखन अर्थात (आधुनिक) कहानी की नई विधा ने सभ्यताके नए परिवर्तनों को सूक्ष्मता से प्रकट करना आरम्भ किया। यह नई विधा आधुनिक जीवन को पूर्णता में व्यक्त करने वाली समर्थ विधा रही है। इस विधा में समाज का यथार्थपूर्ण चित्रण अपने समय के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों से जुझने का उपक्रम भी है। कथा साहित्य के अंतर्गत उपन्यास और कहानी दोनों कि चर्चा होती है, और बार-बार यह लक्षित किया जाता है कि उपन्यास बड़े फलक पर अभिव्यक्त होता है किन्तु अपनी पूर्णता के गुण के कारण भी अनन्य प्रभावी रही।अपनी इसी विशेषता के कारण यह स्वतंत्र विधा मानी जाती है। कहानी के इसी विशिष्ट संदर्भ में प्रेमचंद ने अपने लिखते हैं किकहानी(गल्प) एक रचना है, जिसमें जीवन के किसी एक अंग या मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली तथा कथाविन्यास सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं।1 हिंदी कहानी परम्परा में विभिन्न प्रवृत्तियों का विकास एवं समावेश हुआ है। जिसमें मनोविज्ञान भी शामिल है। जो केवल मनुष्य की प्रवृत्ति का ही नहीं बल्कि उन प्रवृत्तियों के मूल कारणों का अध्ययन करने में भी उपयोगी सिद्ध हुआ है, “बाह्य-जीवन मात्र के निरिक्षण से मनुष्य-बुद्धि ने जो नियम और सिद्धांत बना रखे हैं, उनका निषेध कर, नविन, गूढ़ता सत्यों का अन्वेषण करना मनोविज्ञान का उद्देश्य है। जीवन प्रतिक्षण परिवर्तनशील है। उसके भूत, वर्तमान और भविष्य की दशाएँ बहुत कुछ अज्ञेय हैं। ऐसे जीवन के स्वरुप को और उस जीवन के मध्य में विभिन्न प्रकार के विकारों के आघातों को सहन करने वाली आंतरिक चेतना को जानना ही मनोवैज्ञानिक कहानियों का प्रथम कार्य है।2 मनुष्य की आंतरिक प्रवृत्ति का अध्ययन मनोविज्ञान की भूमि है किंतु कथासाहित्य मानव जीवन के उन पक्षों को इस अध्ययन शाखा से जोड़ता है, जो मनुष्य के सभ्यतामूलक व्यवहार को उजगार कर सके। वैश्विक साहित्य, कथासाहित्य में इस भावभूमि को आधार बनाकर नई अनुभूतियों का विस्तृत संसार रचा गया है, इसी कड़ी मे प्रसिद्ध कथाकार मार्कण्डेय के साहित्य में भी मनोविज्ञान की जो बारिक समझ दिखलाई पड़ती है उससे उनके कथासाहित्य के संवेदनात्मक सूत्रों को समझा जा सकता है। 

            हिंदी साहित्य जगत मेंमार्कण्डेयको जनमानस का लेखक माना जाता है। मार्कण्डेय ने ग्रामीण समाज एवं संस्कृति को अपने कथा साहित्य का आधार बनाया है। सामान्य जनता की विभिन्न समस्याओं पर खुल कर अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।उन्होंने ग्रामीण-परिवेश, स्त्रियों की दशा, कृषकों की दयनीय स्थिति, बाल- मनोविज्ञान आदि को अपनी कहानियों का विषय बनाकर अपनी अलग पहचान बनायी है।3 मार्कण्डेय ने कथा-साहित्य को एक नई जीवन दृष्टी प्रदान की है। यह तो स्पष्ट है कि मार्कण्डेय के कथा साहित्य में मनोविज्ञान एक महत्वपूर्ण पहलू है, इसके माध्य्म से उन्होंने पात्रों की जटिलताओं, उनकी विशिष्टता को उजागर किया है किंतु बाल मनोभूमि के चित्रण में जिस मार्मिकता एवं सूक्ष्मता का परिचय दिया है, वह उल्लेखनीय है।

महत्त्वपूर्ण है कि मार्कण्डेय ने शहरी जीवन में फंसी हुई हिंदी कहानी को वैयक्तिकता के संकीर्ण दायरे से मुक्त किया और व्यापक मनुष्यता के अनुभवों से उसे संपन्न बनाया। मार्कण्डेय ने जहाँ समाज की समस्याओं पर खूब लिखा वहीं उन्होंने बाल-मनोविज्ञान पर केन्द्रित कथाएं भी लिखीं  हैं। बच्चे मात्र संततियां नहीं होते अपितु किसी भी समाज के गुणात्मक निधियां भी हैं। इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है कि, “बालकों पर ही देश का भविष्य निर्भर करता है। बाल जीवन ही नई सभ्यता की नींव है। इसलिए बाल जीवन का अध्ययन करने, उनकी सेवा करने में हमारा कल्याण है। बालकों की चिंता करने का अर्थ है मनुष्य जाति को नया जीवन देना। सभ्यता को नया रूप देना, समाज के लिए सुख और शांति की व्यवस्था करना है।4 बच्चों के विकास के द्वारा ही अपने समाज का भी विकास संभव है। चूँकि बच्चों में स्वयं का अपना अनोखा व्यक्तित्व होता है, वह भी अपने जीवन और जगत के प्रति क्रियाशील दिखाई देते हैं। इसलिए उनके द्वारा किये जा रही क्रियात्मकता को समझना अधिक महत्त्वपूर्ण है कि इस गफलत में रहना कि यह छोटे हैं, अर्थात अनुभवहीन हैं। हमारे समाज की यही विडंबना है कि हम अपने बच्चों को छोटा कहकर उन्हें अबोध मान लेते हैं, तथा किसी भी कार्य को करने से रोकते हैं।बच्चों का अर्धचेतन मन वृक्ष की तरह सक्रिय रहता है। जैसे वृक्ष में धरती से रस खीचने की शक्ति होती है, वैसे ही बच्चे के मन में अपने चारों ओर के वातावरण से ज़रूरी खाद्य प्राप्त करने की  क्षमता होती है।5 बच्चे हमेशा जिज्ञासु प्रवृत्ति वाले होते हैं। उनके सामने जो भी नई चीज़ या नया व्यक्ति आये उससे वह कुछ कुछ सिखने की चेष्ठ अवश्य करते हैं। यही से उनके पुष्ट व्यक्तिव की नींव पड़ती है, यह गुण उन्हें समाज में नई चेतना के उद्वाहक के रूप में भी स्थापित करते हैं।   

 मार्कण्डेय ने बाल-मनोविज्ञान पर आधारित बेहद मार्मिक कहानियाँ लिखी हैं, जिसमें से कुछ कहानियों के उदहारण से हम उनकी बाल मनोविज्ञान संबंधी संवेदना के मर्म को समझ सकते हैं। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण कहानी हैपान-फूल’, यह कहानी आधुनिक सभ्यताओं के सूक्ष्म मनोविज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लिखी गई अनोखी कहानी है। कहानी के मुख्य पात्र हैं दो छोटी बच्चीनीली’,‘रीतियाऔर एक विशिष्ट पात्र है उनकी कुतिया पूसी। पूरी कथा इन्हीं तीनों पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है। नीली-और रीतिया दोनों एक ही गाँव की बच्चियां हैं लेकिन दोनों की आर्थिक स्थिति भिन्न है। नीली एक सम्पन्न परिवार से संबंध रखती है तो वहीं रीतिया एक गरीब परिवार से। दोनों बच्चियों का संबंध भले पारिवारिक स्तर पर भिन्न है लेकिन लेखक ने उनकी मित्रता का बड़ा ही मनोहारी एवं मार्मिक चित्रण किया है। नीली, रीतिया और पूसी की मित्रता के कारण ही कहानी का कथानक अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है। नीली और रितिया की मित्रता एक घटना के कारण हुई। नीली की पूसी कुतिया को एक बड़ा कुत्ता दबोच लेता है। यह बड़ा कुत्ता रीतिया का है उस कुत्ते से पूसी को बचाने के चक्कर में नीली को कुत्ता काट लेता है जिससे उसे काफी रक्त स्राव होता है। नीली के माता-पिता को नीली से मिलता हुआ रक्त कहीं नहीं मिलता तब रीतिया नीली को रक्त देने की बात करती है। वह डॉ. से कहती है,“रानी बिटिया...अच्छी हो जाएँगी 6 प्रस्तुत उद्धरण में रीतिया की मानसिकता का परिचय होता है कि कैसे एक छोटी बच्ची अपनी संग-साथी की स्थिति को समझती है और उसे बचाने के लिए रक्त दान करने जैसा फैसला एक क्षण में कर लेती है। रीतिया द्वारा रक्त दान करने से नीली की जान बच जाती है। इस घटना के बाद से नीली और रीतिया में गहरी मित्रता हो जाती है।पान-फूलकहानी मार्मिकता के सरोवर में डूबी हुई है। रीतिया को खून देने के बाद नीली भी उससे कहती है कि तूने जैसे मेरी मदद की मैं भी तेरी मदद करुँगी। इस बात को करते हुए वह रीतिया से कहती है कि, “देख लीती मैं बीमार थी , तो तूने खून दिया और अब तू बीमाल क्यों नहीं होती, मैं खून दूँगी तुझे, मेली लानी।7 इस तरह दोनों मासूम बच्चों में गहरी दोस्ती हो जाती है। रीतिया और नीली अपनी छोटी सी उम्र में एक-दूसरे की मदद करने को तत्पर दिखाई देती हैं। लेखक ने इनकी मित्रता के माध्यम से मासूम से बालमन का पाठकों से सामना कराते हुए यह सीख भी बड़ी खूबसूरती से दे डाली है कि हमें मनुष्यता के लिए निश्वार्थ भाव से आगे बढ़कर कदम उठाना चाहिए। 

नीली, रीतिया और कुत्ते की निस्वार्थ मित्रता इस कहानी का मूल केंद्र है। कहानी के अंत में आते-आते कथानक इतना मार्मिक हो जाता है कि कहानी का पाठक भावुक हुए बिना रह ही नहीं पाता। रीतिया अपने गुड्डे की शादी के लिए कमल के फूल लेने के लिए जैसी तलब में उतरती है तो पानी का गहराव उसे अपने में समाने लगता है। रीतिया को डूबते देख नीली भी पानी में कूद जाती है। इतना ही नहीं मन तब अधिक विचलित होता है कि उन दोनों को बचाने के लिए पूसी भी पानी में छलांग लगा देती है। इस तरह एक दूसरे की जान बचाते हुए तीनों का ही अपने प्राण त्याग देना और जलमग्न हो जाना ही कहानी को अत्यंत मार्मिक बनाता है। यह कहानी अपने परिवेश के अनुसार एकदम नयी कहानी है, यही इसकी विशेषता है। 

बाल-मनोविज्ञान की दृष्टी से एक और  कहानीजूतेभी बहुत महत्वपूर्ण है।जूतेकहानी का पात्र है मनोहर जोकि ग्रामीण परिवेश में पला है। मनोहर को शहरी चमक का कोई अनुभव नहीं है। वह तो गाँव में नौकर बनकर जिंदगी बसर करता है। छोटा सा मनोहर मानसिक द्वंद्व से उलझता प्रतीत होता है। उसकी इस उलझन का कारण है उसकी गरीबी। वह अपनी गरीबी के कारण शहर की चमचमाती दुनिया से कोसों दूर है। ऐसे में उसके मालिक के घर शहर से बहु आती है। जोकि अपनी बच्ची के लाईट वाले जूते लेकर आती है। शहरी दुनिया से दूर रहने वाला ग्रामीण व्यक्ति जिसे सामान्य से जूते पहनना नसीब नहीं होता वह भला लाईट वाले जूतों के बारे में क्या जाने। छोटी बहू उन्हीं लाईट वाले जूतों को लेकर आने का आदेश मनोहर को देती है, लेकिन मनोहर को वह जूते कमरे में कहीं भी दिखाई नहीं देते। छोटी बहू उसे कई बार उसी कमरे का हवाला देते हुए कहती है ठीक से देखो,जूते वहीं है। मनोहर कमरे के बीचो-बीच खड़ा होकर जूते ढूंढने का प्रयास करता है। परन्तु उसे वहां कोई लाल चमकती सी वस्तु दिखाई देती है जिसे देख कर वह कहता है कियह तो जूते नहीं हो सकते, और चाहे कुछ भी हो...बच्चों के केवल दो लाल खिलौने! उसने उन्हें हाथ में उठा लिया, यह तो बड़े चिकने हैं, पैर में कैसे पहने जा सकते हैं?”8 मनोहर जिस तरह से उन जूतों को निहारता है उससे यह ज्ञात होता है कि उस अबोध बालक ने ऐसे जूते कभी नहीं देखे। जूते देखकर वह खूब प्रसन्न होता है और स्वयं भी वैसे ही चमकते लाल जूते लाने की आस लगते हुए सोचता है किमैं बड़ा होकर जरुर एक जूता बनवाऊंगा। चाहे उसके लिए कितना ही काम क्यों करना पड़े।9  अत: मनोहर लाईट वाले जूते लेने की लालसा लिए सोचता है कि वह खूब मेहनत करके ऐसे जूते ज़रूर लेगा। मनोहर का इतना सकारात्मक व्यवहार दर्शाता है कि वह छोटा सा बच्चा होते हुए भी अपनी गरीबी को अपने सपने पूरे करने के बीच में नहीं आने देता। लेखक द्वारा प्रस्तुत कहानी जूते में बाल-मनोविज्ञान का बड़ा ही सकारात्मक वर्णन देखने को मिलता है। जहाँ बच्चे अपनी गरीबी के कारण गलत रास्तों पर अपनी राह तलाशते हैं वहीं मनोहर एक अच्छी विचारधारा को अपनाते हुए यह प्रमाणित करता है कि मनुष्य को हर स्थिति में अपने मानसिक विचार अच्छे रखते हुए जिंदगी का निर्वाह करना चाहिए। 

मनोहर का उन लाल जूतों के प्रति प्रेम बढ़ता जाता है। वह हर समय यही सोचता है कि यह जूते पहने कैसे जाते हैं, और इसी गुत्थी को सुलझाने के लिहाज से वह बच्ची के आस-पास ही मंडराता है ताकि वह उसे जूते पहनते हुए देख सके। जूते पहनते हुए देखने की चाह में वह सोचता है किमैं आज बहू जी का साथ नहीं छोडूंगा, देखें कब बच्ची को जूते पहनाती हैं! फिर उसके जी में आया कह दे बच्ची को तैयार कर दीजिए, जूते पहना दीजिए, मैं लेकर चलूँ!10 मनोहर की जूते पहनते देखने की लालसा उसके कोमल ह्रदय का परिचय देती है। वह रात-दिन सिर्फ उन्हीं जूतों के बारे में सोचता रहता। लाल जूतों के बारे में ख्याल करते हुए वह सोचता कि मालकिन यह जूते यहाँ गाँव में क्यों ले आई क्या वह जानती नहीं थी की यहाँ मिटटी कंकड़ बहुत अधिक हैं। चमचमाते हुए यह जूते सारे गंदे हो जाएंगे। इसी उधेड़ बून में लगे-लगे वह सोचता है कि, “मैं ऐसे ही लाल-लाल जूते लूँगा लेकिन धूल में, कंकड़ पर, ओस में, कीचड़ में नहीं पहनूंगा। जब बरात में जाऊंगा, बैठूँगा, तो उतारूंगा....पर नहीं, कोई चुरा ले जायेगा.....चुरा...11  मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अभावों की जिंदगी इन्सान को अधिक सयाना बना देती है, जिसका जीता-जगता उदाहरण मनोहर है। मनोहर का जूतों को लेकर इतना गंभीर होना उसकी मासूमियत एवं उसके दयनीय परिवेश को दर्शता है कि वह किन परिस्थितियों से गुजरा है। लेखक ने जूते कहानी के माध्यम से बाल-मनोविज्ञान का बड़ी ही खूबसूरती से चित्रण किया है। मनोविज्ञान हमारे आंतरिक विचारों को बाह्य स्तर पर प्रस्तुत कर सकने में काफी सफल होता है। इसी मनोविज्ञान के माध्यम से  मनोहर के भीतर पनप रहे आंतरिक द्वन्द को उद्घाटित होते हुए देखा जा सकता है। 

बाल-मनोविज्ञान को आधार बनाकर मार्कण्डेय ने जिस तरह से कहानियों का लेखन किया है उससे लेखक के कोमल ह्रदय का परिचय मिलता है। बाल-मनोविज्ञान पर उनकी एक और उल्लेखनीय कहानी हैमाँ जी का मोतीयह कहानी एक ऐसे बच्चे की है जो अपनी उम्र से पहले ही समझदार हो जाता है। कहानी का केंद्रीय पात्र हैमोती मोती एक गरीब माँ का बेटा है। मोती अपनी माँ की दयनीय स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ़ होता है। जिस छोटी सी उम्र में उसे पढ़ना-लिखना चहिए, खेलना चाहिए तथा अपने बचपन को जीना चाहिए उस समय में वह वह अपनी माँ के साथ काम करके हाथ बंटाता है। वह छोटा सा बच्चा अपना बचपन भूल का माँ की परिस्थिति को समझते हुए उसके कार्य में सहायक की भूमिका निभाते हुए अपने बड़े भाई होने का भी प्रमाण देता है। मोती स्वयं तो काम करता है लेकिन अपने दोनों भाइयों को स्कूल भेजता है। 

मोती की माँ दूसरों के घर जाकर काम करती है। माँ का बहार जाकर दूसरों की चाकरी करना मोती को बिलकुल पसंद नहीं। वह भी अपनी माँ को घर के अंदर ही देखना चाहता है। वह सोचता है कि, “वह बड़ा होकर माँ को दर-दर भटकने वाले इस काम से छुट्टी दिला देगा। आस-पास के बच्चों की माएँ तो घर में रहती हैं, फिर मेरी माँ?”12 मोती इतनी छोटी सी उम्र में इतना गहन चिंतन करता है, इससे उसकी चिन्तनशीलता का परिचय मिलता है। मोती की यह गहन चिंतनशीलता उसकी मनोवैज्ञानिकता के कारण ही है। चूँकि मनोवैज्ञानिकता व्यक्ति को परिपक्व होने में सहायक होती है।

मोती बहुत मेहनती बालक है। एक दिन मोती को एक बीमार बछिया मिलती है। मोती अपनी मेहनत और लगन से उस बछिया को ठीक कर लेता है। एक दिन मोती अपनी बछिया को लेकर स्टेशन तक जाता है। वहाँ जाकर वह अपने काम में इतना मगन हो जाता है कि उसे अपनी बछिया के पटरी पार जाने का भी आभास नहीं हो पाता। मोती को जैसी अपनी बछिया का ख्याल आता है तो उसे बचाने के लिए वह दौड़ता है तो उसे स्टेशन की सीढियों पर नोटों से भरा पर्स मिलता है। जिसे वह पूरी इमानदारी और निष्ठा के साथ उसके मालिक तक पहुँचाने के प्रयास में चिल्ला-चिल्ला कर कहता है कि जिसका भी यह पर्स है आकर लेले। परन्तु उसकी ईमानदारी का अंतत: यह परिणाम होता है कि वहाँ का कर्मचारी उसे पकड़ लेता है और खूब मारता है, यहाँ तक की मोती पर चोरी का इल्जाम भी लगा देता है, “बहुत बड़ा जेबकट है। आप क्या-क्या समझेंगे! हम लोग तो रात-दिन यही देखते रहते हैं.....वह मोती को बेहताशा पीटने लगा। मोती बेहोश होकर गिर पड़ा तो उसे लातें मारी और घसीट कर प्लेटफोर्म के अंदर ले गया।13 इस इस कहानी में जहाँ हम एक छोटे बच्चे का गहन चिंतन देख पाते हैं, वहीं प्रशासन का अमानवीय रूप भी देखने को मिलता है। अत: मोती और पुलिसकर्मी दोनों की ही मानसिकता का परिचय यहाँ लेखक के माध्यम से देखने को मिलता है।  दोनों के बीच उम्र और परिस्थितियों का इतना बड़ा अंतर होने के बावजूद मानसिकता का जो महत्वपूर्ण पक्ष मोती में मिलता है वह अत्यंत काबिल--तारीफ है। 

हिंदी साहित्य में मार्कण्डेय ने जो लेखन किया है वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। व्यापक अनुभव के कारण उनके लेखन कला की यह विशेषता है कि वह स्वयं को कभी दुहराते नहीं है। उन्होंने ग्रामीण एवं शहरी समाज के प्रत्येक तबके की समस्याओं को अपने लेखन का विषय बनाया। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए सामाजिक यथार्थ का हूब-हूब चित्रण दिखाई देता है। वह समाज में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक समस्याओं पर खुलकर लिखते रहे। उनके लेखनानुसार सामाज का यथार्थ सबसे निचले तबके के लोगों, के द्वारा ही व्यक्त  होता है। उपरोक्त कहानियों में लेखक ने बाल-मनोविज्ञान के द्वारा समाज के उस वर्ग का चित्रण किया है जो अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है। प्रत्येक कहानी अपनी कथावस्तु के आधार पर भिन्न है। उनकी कहानियों में बड़ा गहरा अर्थ-संकेत छिपा होता है। उनकी कहानियों में बच्चों की मानसिकता का परिचय होता है। जैसा कि कहा जाता है कि मनोवैज्ञानिकता मनुष्य में उसके परिवेश के कारण उत्पन्न होती है। प्रस्तुत कहानियों में हमें जो बाल मनोविज्ञान दिखाई देता है उसका आधार भी बच्चों का अपना परिवेश है। बच्चे अपनी पारिवारिक स्थिति के कारण अपनी उम्र से पहले ही समझदार हो जाते हैं। उनके द्वारा किया जाने वाला कार्य उनके अपने विशिष्ट अनुभव का परिचायक है।

मार्कण्डेय के कथा साहित्य में मनोविज्ञान की यह सूक्ष्म अभिव्यक्ति उनके अनुभव जनित ज्ञान का ही परिचायक है। उन्होंने जिस तरह बाल मन की सरलताओं, उनकी समस्याओं, दुविधाओं और जीवन दृष्टि को प्रस्तुत किया है उस यह स्पष्ट है कि बच्चों के संसार में बहुत कुछ ऐसा है जिसे परिपक्व मानसिकता नहीं समझ पाती बल्कि वह यह करती है कि उनके गुणों को उम्र के साथ तिरोहित कर देती है। मार्कण्डेय के कथा साहित्य में बालमन के विशिष्ट गुण उजागर हुए हैं वह यह भी बताने का प्रयास करते हैं कि व्यक्ति के नींव निर्माण की प्रक्रिया कितनी महत्त्वपूर्ण हैं। यह बालमन की गुत्थियाँ जिन्हें अक्सर समाज समझता नहीं अथवा अनदेखा कर देता है  उसके दूरगामी परिणाम होते हैं। मार्कण्डेय की यह सभी कहनियाँ जिनमें बच्चे केंद्र में हैं अथवा कथानक बाल अनुभव केन्द्रित है उसे इसलिए भी बहुत ध्यान से पढ़ने की आवश्यकता है ताकि भारतीय परिवेश में बालानुभवों के संसार को समझा जा सके।

संदर्भ :
1. डॉ. अमरनाथ, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, 2013,पृ. 117
2. डॉ. महेशचन्द्र, ‘दिवाकरबीसवी शती की हिंदी कहानी का समाज मनोवैज्ञानिक अध्ययन, लोकवाणी संस्थान, शाहदरा, दिल्ली, 1992, पृ. 191
3. त्रिपाठी, हिमंगी, मार्च 2014, अनहद पत्रिका, मार्कण्डेय की कहानियों में बाल-मनोविज्ञान
4. सं. डॉ. शम्भुनाथ सिंह पाण्डेय, गद्य साहित्य का उद्भव और विकास, पृ. 217
5. सं. डॉ. शम्भुनाथ सिंह पाण्डेय, गद्य साहित्य का उद्भव और विकास, पृ. 217
6. मार्कण्डेय,मार्कण्डेय की कहानियां, लोकभारती प्रकाशन, 2002, पृ. 30
7. मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियां, लोकभारती प्रकाशन, 2002, पृ. 30
8. मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियां, लोकभारती प्रकाशन, 2002, पृ. 89
9. मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियां, लोकभारती प्रकाशन, 2002, पृ. 89
10. मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियां, लोकभारती प्रकाशन, 2002, पृ.94
11. मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियां, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2002, पृ. 92
12. मार्कण्डेय, हलयोग, लोकभारती, 2012, पृ. 109
13. मार्कण्डेय, हलयोग, लोकभारती, 2012 पृ. 111

 

अजय कुमार यादव
सहायक प्राध्यापक, सत्यवती महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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