शोध आलेख : सामाजिक सहयोग की कमी तथा वृद्धजन : बढ़ती चुनौतियाँ / संजय कुमार एवं घूमन अहिरवार

सामाजिक सहयोग की कमी तथा वृद्धजन : बढ़ती चुनौतियाँ

- संजय कुमार एवं घूमन अहिरवार



शोध सार : आज बढ़ते हुए आधुनिक युग में जहाँ समाज दिन-प्रतिदिन विभिन्न नई बुलंदियों को छू रहा है, देश तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है वही उसके साथ ही समाज में विभिन्न प्रकार कि समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं। जहाँ नए दौर में युवा तकनीकी युग का आनंद उठा रहें हैं वही कहीं न कहीं जन स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। उम्र बढ़ने के साथ-साथ ही बुजुर्ग सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं का सामना कर रहे हैं। जहाँ उन्हें सहयोग व साथ की आवश्यकता है, वहां वह अपने आप को तिरस्कृत और असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।


विधि : उक्त अध्ययन में मध्य प्रदेश के 50 प्रतिभागियों को शामिल किया गया जिनकी आयु लगभग 60 वर्ष अथवा उससे अधिक थी। इस अध्ययन में गुणात्मक शोध विधि का उपयोग किया गया है तथा आंकड़ा संकलन के लिए अर्द्ध संरचित साक्षात्कार सूची के माध्यम से पुरुष व महिला प्रतिभागियों का साक्षात्कार लिया गया जो वृद्धाश्रम में रहते थे।


परिणाम : साक्षात्कार के उपरांत उक्त अध्ययन में मुख्यतः चार थीम प्राप्त हुए जिनका विवरण निम्न है-

बदलते सामाजिक परिवेश में उपेक्षित जन : इसमें वृद्धजनों में यह देखा गया कि आज के बदलते युग में कहीं न कहीं जन स्वयं को अकेला एवं समाज से दूर महसूस करते हैं।

शारीरिक अक्षमता एवं बढ़ती निर्भरता : उम्र के इस पड़ाव पर वह न केवल स्वयं के कार्यों को करने में अयोग्य पाते हैं बल्कि उनकी निर्भरता परिवार के अन्य सदस्यों पर और अधिक बढ़ गयी है।

धार्मिक एवं आध्यात्मिक गतिविधियाँ : ऐसा देखा गया है कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनकी रुचि में भी परिवर्तन देखने के लिए मिलता है, उनकी रुचि धार्मिक अनुष्ठानों में अधिक हो गयी है। कहीं न कहीं यह उनके अकेलेपन को भी कम करने में सहायक है।

पारिवारिक संघर्ष एवं सामाजिक असुरक्षा : बुजुर्ग व्यक्तियों ने बढ़ती उम्र के साथ पारिवारिक कलह एवं अन्य समस्याओं का सामना भी किया, उन्होंने समाज में स्वतंत्र रूप से जीवन यापन में भय भी महसूस किया है।


बीज शब्द : वृद्धजन, वृद्धाश्रम, उपेक्षित, भाग्य।


मूल आलेख :


प्रस्तावना : वृद्धावस्था बचपन का पुनरागमन होता है। जन्म से लेकर वृद्धावस्था के बीच व्यक्ति धीरे-धीरे अनेक अवस्थाओं से  होकर गुजरता है। जैसा कि विदित है कि बाल्यावस्था में व्यक्ति पूरी तरह से माता-पिता पर निर्भर रहता है। वास्तव में यह अवस्था व्यक्ति की सबसे सुखद अवस्थाओं में से एक मानी जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस अवस्था में व्यक्ति समस्त चिंताओं और आवश्यकताओं से पूर्णतया विरक्त रहता है। धीरे-धीरे वह बचपन अवस्था पूर्ण कर अगली अवस्था में प्रवेश करता है। इस प्रक्रम में वह कई अवस्थाओं से गुजरता हुआ वृद्धावस्था तक पहुँचता है। यह जीवन की अंतिम अवस्था भी कही जाती है। वास्तविकता में देखा जाये तो व्यक्ति की यह अवस्था तमाम अनुभवों से लबरेज होती है। दुर्भाग्यवश कई बार यह अवस्था बहुत कठिन और असहज बनकर रह जाती है।  विस्तृत संदर्भ में समझा जाए तो यह अवस्था कई समस्याओं की जन्मदात्री जैसी भी प्रतीत होती है।


दिन-प्रतिदिन की दिनचर्या में जन कई तरह की समस्याओं का सामना करते है।  इन समस्याओं में मृत्यु से सम्बंधित दुश्चिंता, विषाद सम्बंधित समस्या, पुत्र-पुत्रियों तथा सगे-संबंधिओं के द्वारा किए जाने वाले दुर्व्यवहार जैसी विभिन्न चुनौतियों का सामना भी करते हैं। इसके अतिरिक्त बढ़ती उम्र के साथ शारीरिक क्षमता में गिरावट एक सुस्पष्ट प्रक्रिया के रूप में परिलक्षित भी होने लगता है। शारीरिक क्षमता की गिरावट वृद्धजनों को न सिर्फ दैहिक रूप से ही क्षीण करती है, अपितु एक नए मानसिक चुनौती का दौर भी प्रारम्भ हो जाता है। यह दौर बेहद चुनौती भरा होने के साथ ही भविष्य में आने वाली विभिन्न कठिनाइयों का सामना करने में प्रबल बाधा के रूप में दिखाई पड़ने लगता है। शारीरिक क्षीणता तथा जीवन के उतार-चढ़ाव की उबन धीरे-धीरे वृद्धजनों को मृत्यु के आभास के प्रारंभिक चरण का बोध भी कराती है। मृत्यु का आरंभिक बोध मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियों का कारण बनती है, फलस्वरुप जन लगातार नाशाज स्वास्थ्य का अनुभव करते है जिसमें मृत्यु सम्बन्धित चिंता प्रमुख है।


साहित्य समीक्षा (Review of the literature) :


            टी. वी. शेखर ने 2016 में केरल में किये अपने अध्ययन में बताया कि भारतीय परिवारों में बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार और उपेक्षा मौजूद है। केवल गरीब ही नहीं, बल्कि अमीर लोग भी कई परिवारों में उपेक्षा और दुर्व्यवहार के शिकार होते हैं। तथा अंकित आनंद (2016) द्वारा किये एक अध्ययन में पाया गया कि महाराष्ट्र में बुजुर्गों के साथ मौख़िक दुर्व्यवहार एवं अनादर सबसे अधिक किया जाता है इसमें बेटे-बहु, पड़ोसी एवं रिश्तेदार शामिल होते हैं बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार और उपेक्षा के मामलों में निम्न आय वर्ग, कम शैक्षिक योग्यता, अकेले रहना और किसी भी विकलांगता और रुग्णता या चोट की उपस्थिति शामिल थी। हालाँकि जेहरा खलीली एवं अन्य द्वारा 2016 में ईरान में किये गये एक अन्य अध्ययन में बताया गया कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र लोग ही अपने बुजुर्ग सदस्यों के साथ भावनात्मक दुर्व्यवहार ज्यादा करते हैं। अर्थात् उन्होंने कहा कि शिक्षा के स्तर एवं बुजुर्गों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार में कोई भी सहसंबंध नहीं होता है। इसिल कलैसी एवं अन्य ने भी 2016 के अपने अध्ययन के आधार पर बताया कि अधिकांश बुजुर्गों ने बयानों में शारीरिक कृत्यों को दुर्व्यवहार के रूप में समझा और उनके साथ होने वाले आर्थिक दुर्व्यवहार को भी स्वीकार किया। बुजुर्गों ने दुर्व्यवहार के लिए परिवार के सदस्यों को जिम्मेदार ठहराया। ऐसे मामलों में जहाँ अपराधी परिवार का सदस्य था, उन्होंने इसकी रिपोर्ट करने से परहेज किया।


नेगर पीरी एवं साथियों (2018) ने कहा कि तेहरान में घरेलू बुज़ुर्गों में वृद्ध महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार आम है। बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार के लिए बुढ़ापा एक महत्वपूर्ण जोखिम कारक था। ठीक इसी प्रकार एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि घर बुज़ुर्ग लोगों के लिए एक जोखिम भरा स्थान होता है, ख़ास तौर पर उन लोगों के लिए जो कार्यात्मक निर्भरता रखते हैं जैसे सामाजिक आर्थिक तबके से आने वाले एवं महिलाओं के लिए। सलिबा गार्बिन एवं अन्य (2016) अपने अध्ययन में कहते है कि कॉकेशियाई बुजुर्ग महिलाएं जिनकी उम्र 60 से 65 वर्ष  है।, जो बेरोज़गार और/या सेवानिवृत्त हैं, मुख्य पीड़ित हैं, और हमलावर उनके अपने बच्चे हैं जिनकी उम्र 31 से 40 वर्ष की है। उन बुजुर्ग महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा में मनोवैज्ञानिक हिंसा सबसे प्रचलित पायी गयी जो कि उन्हीं के घर पर हुई। उन्होंने अपने अध्ययन में मुख्य रूप से बताया कि हिंसा करने वालों में कोई भी शराब और/या नशीली दवाओं के प्रभाव में नहीं है। एक अन्य अध्ययन में लिनो एवं साथियों (2019) ने बताया कि वृद्धों के साथ दुर्व्यवहार के बढ़ते जोखिम का संबंध देखभालकर्ताओं में देखभाल के बोझ, शराब की समस्याओं से और देखभाल प्राप्त करने वाले आश्रित वृद्धों में अवसाद से पाया गया।


वृद्धजनों की जीवन संतुष्टि के सन्दर्भ में मोहम्मद गेमेय और मोहम्मद एल कायल (2011) के द्वारा किये गये अध्ययन में बताया कि वृद्धाश्रम में बुजुर्गों के बीच दुर्व्यवहार और जीवन से असंतुष्टि का प्रचलन बहुत अधिक है, खास तौर पर सामाजिक दुर्व्यवहार। कम उम्र और कम आय दुर्व्यवहार के जोखिम के स्वतंत्र भविष्यवक्ता हैं, जबकि दुर्व्यवहार  आंकलन जीवन से असंतुष्टि का एकमात्र सकारात्मक स्वतंत्र भविष्यवक्ता है एवं महेंद्र राज जोशी तथा चैलिस होम नाथ द्वारा 2021 में नेपाल के ग्रामीण क्षेत्र किये जाने वाले अध्ययन द्वारा बताया कि दुर्व्यवहार का सामना करने वाले बुज़ुर्गों की जीवन की गुणवत्ता, दुर्व्यवहार का सामना न करने वाले बुज़ुर्गों की तुलना में काफ़ी कम होती है।


2019 में फदिमे सेन ने बुजुर्गों के मानसिक स्थिति के बारे में बताया कि बुज़ुर्ग व्यक्तियों में दुर्व्यवहार और अवसाद के स्कोर उच्च थे, जो एकल थे, प्राथमिक शिक्षा कम थी, आय उनके व्यय से कम थी, तथा जिनके पास कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं थी। बुज़ुर्ग व्यक्तियों के अवसाद और दुर्व्यवहार स्कोर के बीच एक सकारात्मक, महत्वपूर्ण और मध्यम संबंध पाया गया।  ठीक इसी प्रकार 2020 में मंजीत भाटिया एवं अन्य ने पाया गया कि बढ़ती उम्र के साथ व्यक्तियों में संज्ञानात्मक शिथिलता और मनोवैज्ञानिक रुग्णता अधिक प्रचलित थी, और उपेक्षा दुर्व्यवहार का सबसे आम रूप था, उसके बाद भावनात्मक, शारीरिक और यौन दुर्व्यवहार था। मानसिक दुर्व्यवहार के अध्ययनों के ही क्रम में पटेल एवं उनके अन्य साथियों ने 2018 में अवसादग्रस्त बुजुर्ग रोगियों में दुर्व्यवहार की व्यापकता पर किये गये अध्ययन में बताया कि अवसादग्रस्त बुजुर्गों में, महिला, कम शैक्षणिक स्तर, विधवा स्थिति और संयुक्त परिवार में रहना दुर्व्यवहार के अनुभव से महत्वपूर्ण रूप से जुड़ा हुआ है, जिसमें मनोवैज्ञानिक दुर्व्यवहार सबसे आम है। बेटों के बाद बहुएँ दुर्व्यवहार के सबसे आम अपराधी थे। उन्होंने आगे बताया कि गंभीर अवसाद और अशिक्षा अवसादग्रस्त बुजुर्ग रोगियों में दुर्व्यवहार का अनुभव करने के महत्वपूर्ण पूर्वानुमान हैं आगे जियोंग ली एवं साथियों ने 2021 में किये अपने अध्ययन में कहा कि अवसाद, खराब सामाजिक समर्थन, पुरानी बीमारी, कम उम्र और कम आर्थिक स्थिति बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार के संबंधित कारक हैं। जिनमें अवसाद में सबसे अधिक संभावना अनुपात है। इसके अलावा, बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार पर अवसाद का प्रभाव आंशिक रूप से सामाजिक समर्थन द्वारा अलग किया जाता है और एस्लामी  तथा अन्य (2017) ने बताया कि जीवन भर मनोवैज्ञानिक दुर्व्यवहार और चोटों के संपर्क में आने से कथित सामाजिक समर्थन के निम्न स्तर जुड़े हुए हैं, जो उनके जीवन के दौरान दुर्व्यवहार के पीड़ितों का पता लगाने और उनके उचित उपचार के महत्व पर जोर देता है। एल. एस. फ्रिडमैन एवं अन्य ने 2017 बुजुर्गों के पुनः पीड़ित होने के कारकों की ख़ोज करते हुए बताया कि जो व्यक्ति, महिला, विधवा मनोभ्रंश जैसी मानसिक बीमारियों से पीड़ित थे और वहाँ वापस आ रहे थे जहाँ उनके नजदीकी रिश्तेदार, विशेष रूप से पति, प्रेमी, बच्चे या दामाद रहते थे उनके द्वारा बुजुर्गों में निहत्थे बल के माध्यम से हमला किये जाने की संभावना अधिक थी। उन्होंने अपने अध्ययन में अस्पताल के रिकॉर्ड के आधार पर आगे बताया कि समुदाय में रहने वाले केवल 57% मामलों में वयस्क सुरक्षा सेवाओं या पुलिस को उनके दुर्व्यवहार की सूचना दी गई थी, जिनमें से केवल 26.6% मामलों में वयस्क सुरक्षा सेवाओं की जाँच रिकॉर्ड पर थी।  


भट्टाचार्य एवं भट्टाचार्य (2014) ने विश्व स्वास्थ्य संगठन पर आधारित अपने अध्ययन में बताया कि अधिकांश वृद्ध लोगों को यह एहसास ही नहीं होता है कि उनके साथ कोई दुर्व्यवहार किया जा रहा है। उनके द्वारा अपमान, धमकी, आर्थिक वंचना, उपेक्षा को दुर्व्यवहार के रूप में नहीं देखा जाता है क्योंकि अधिकांश लोग इन सब से दुखी होते हैं लेकिन इसे बहुत ही स्वाभाविक और आर्थिक दबाव के परिणाम के रूप में स्वीकार करते हैं। जिसका सामना आज की पीढ़ी कर रही है और उनमें से अधिकांश अपने बच्चों के खिलाफ कुछ भी कहने के लिए तैयार नहीं होती हैं। उनके अनुसार पुरानी पीढ़ी को अपने अधिकारों और उपलब्ध कानूनी विकल्पों के बारे में पता होना चाहिए। आमतौर पर, अपनी सांस्कृतिक परवरिश के कारण, भारत में बुजुर्ग व्यक्ति अपनी स्थिति के लिए अपने भाग्य को दोष देते हैं, जो बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार के परिणामस्वरूप होता है। ठीक इसी तरह संदीप राणा तथा अन्य लोगों द्वारा वर्ष 2016 में किये गए एक अध्ययन में बताया कि युवा पीढ़ी को बुजुर्गों की स्थिति को समझने की जरूरत है, जो सरकारें नहीं कर सकतीं अर्थात् वृद्धजनों का मानना ​​है कि उन्हें अपने नजरिए में कोई बड़ा बदलाव किए बिना ही अपना शेष जीवन गुजारना होगा। केंद्र और राज्य सरकारों ने बुजुर्गों की सुरक्षा, देखभाल और कल्याण के लिए कई नियम और कानून बनाए हैं। चूंकि बुजुर्गों का मुद्दा काफी हद तक परिवार से जुड़ा हुआ है, इसलिए सरकारें अकेले इस समस्या से नहीं निपट सकतीं। इसके लिए परिवार को ही आगे आकर बुजुर्गों की मदद करनी होगी। उन्होंने बताया कि वरिष्ठ नागरिक एक खजाना हैं, लेकिन साथ ही नाजुक भी हैं। उन्हें सावधानीपूर्वक और भावनात्मक रूप से संभाला जाना चाहिए। वे कोई वस्तु नहीं हैं और उन्हें केवल पैसे के मामले में तौला नहीं जाना चाहिए। यह चौंकाने वाली बात है कि सरकार और निजी एजेंसियां ​​बुजुर्गों को उनके अनुभव का लाभ उठाने के उद्देश्य से काम पर रखती हैं, लेकिन उनके परिवार उन्हें बोझ समझते हैं। वृद्धावस्था पेंशन, ब्याज की उच्च दर या किराए में कुछ छूट प्रदान करना वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए पर्याप्त नहीं है।


समस्या कथन (Statement of the Problems) :


वृद्धजनों की इस तरह की समस्याओं से सम्बंधित विभिन्न अध्ययन हए हैं। अध्ययनों से स्पष्ट है कि वृद्धाश्रमों में निवासरत वृद्धजनों की मृत्यु सम्बन्धी दुश्चिंता तथा जीवन की गुणवत्ता स्तर अपने या सम्बन्धियों के वृद्धाश्रमों में निवासरत वृद्धजनों की तुलना में अधिक पायी गयी (Ron, 2004)। वर्तमान अध्ययन का मुख्य उद्देश्य वृद्धाश्रमों में निवासरत वृद्धजनों की प्रमुख समस्याओं को समझना तथा साथ-साथ इन समस्याओं से निपटने में उपयोग की गयी लायी रणनीतियो को भी विस्तारपूर्वक समझना है। वर्तमान अध्ययन के एक अन्य उद्देश्य के अनुसार वृद्धाश्रमों तथा अपने परिवारों के साथ रह रहे वृद्धजनों द्वारा उपयोग की जाने वाली रणनीतियों की तुलनात्मक समझ भी विकसित करनी है। इस प्रकार वर्तमान शोध वृद्धाश्रमों और परिवार में रहने वाले वृद्धजनों की जीवन संतुष्टि, अवसाद स्तर, मृत्यु दुश्चिंता के साथ-साथ उनके मानसिक स्वास्थ्य और सामना कर रहे दुर्व्यवहारों को विस्तृत रूप से समझने का प्रयास है। 

 

अध्ययन के उद्देश्य (Objectives of the Study) :


वर्तमान अध्ययन के मुख्यतः दो उद्देश्य हैं जो इस प्रकार हैं-

  • वृद्धाश्रमों में निवासरत वृद्धजनों द्वारा सामना किये जाने वाली चुनौतियों को समझना तथा उनसे निपटने की प्रभावी रणनीतियों का पता लगाना।

  • वृद्धाश्रमों में निवासरत वृद्धजनों के मानसिक स्वास्थ्य, जीवन संतुष्टि, अवसाद, के साथ मृत्यु दुश्चिंता तथा उनके द्वारा सामना किये जा रहे दुर्व्यवहारों का अध्ययन करना। 


विधि (Methods)

अध्ययन का अभिकल्प (Design of the Study) : वृद्धजनों की समस्याओं के विभिन्न आयामों को समझने हेतु वर्तमान अध्ययन में गुणात्मक अभिकल्प का उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त बातचीत करने में निःशक्त वृद्धजनों को समझने हेतु प्रेक्षणात्मक प्रणाली का भी उपयोग किया गया था।

प्रतिदर्श (Sample) : वर्तमान अध्ययन में प्रतिदर्श के रूप में 50 महिला एवं पुरुष वृद्धजनों को शामिल किया गया था। जिनकी आयु 60 वर्ष या अधिक थी। अध्ययन में शामिल वृद्धजनों का चयन सोद्देश्य नमूना चयन प्रणाली द्वारा किया गया था। वर्तमान अध्ययन में अधिकतर सहभागी मध्य-प्रदेश राज्य के विभिन्न जिलों के निवासी थे। 

मापन के लिए उपकरण तथा तकनीक (Tools and Technique for the Measurement) : वृद्धजनों की समस्याओं को विस्तार पूर्वक समझने के लिए एक अर्ध-संरचित साक्षात्कार अनुसूची तैयार की गयी। इस अनुसूची के माध्यम से उनके बाल्यावस्था के सुखद अनुभितियों से लेकर वृद्धावस्था के सुखद व कटु अनुभवों को शामिल किया गया है। अर्ध-संरचित साक्षात्कार के साथ-साथ बृहद सूचना संग्रह हेतु प्रेक्षणात्मक तकनीकी का उपयोग भी किया गया है ।

प्रक्रिया (Procedure) : वर्तमान अध्ययन में मध्य प्रदेश के सागर, दमोह, भोपाल, तथा जबलपुर, जिलों के वृद्धाश्रमों में निवासरत वृद्धजनों से व्यक्तिगत साक्षात्कार तथा प्रेक्षण विधि का उपयोग करते हुए आंकड़ों का संकलन किया गया। शोधार्थियों द्वारा प्रत्येक जन से बातचीत कर उनकी समस्याओं से सम्बंधित जानकारी प्राप्त की गयी।

प्रदत्त विश्लेषण (Data Analysis) : वर्तमान अध्ययन में सहभागियों से प्राप्त आंकड़ों को प्रतिलेखित कर विभिन्न कसौटियों में विभाजित कर विषयों तथा उप-विषयों में वर्गीकृत किया गया। इन्हीं विषयों तथा उप-विषयों के द्वारा विभिन्न प्रासंगिक निष्कर्षों तक पहुंचने का प्रयास किया गया।

परिणाम एवं विवेचना (Results and Discussion) : वर्तमान शोध कार्य वृद्धाश्रमों में निवासरत व्यक्तियों पर किया गया था। इस शोध के दौरान शोधकर्ताओं ने वृद्धजनों की समस्याओं और अनुभवों को वैज्ञानिक विधि द्वारा विस्तार से जानने का प्रयास किया। थीमेटिक विश्लेषण के उपयोग से बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की गयी। कुछ मुख्य बातें विस्तारपूर्वक निम्नवत साझा की गयी हैं। वर्तमान शोध अध्ययन वृद्धाश्रमों में निवासरत वृद्धजनों पर किया गया है।


कोड (Codes)

उपथीम (Subthemes)

थीम (Themes)


बचपन की शिक्षा, पढ़ाई में रुचि, संसाधनों की कमी, माता-पिता का व्यवहार, बचपन में अनुशासन, आज की पीढ़ी का व्यवहार, पारिवारिक स्थिति, समर्थन की कमी

शिक्षा और संसाधन, पारिवारिक मूल्यों का प्रभाव, पीढ़ियों का अंतर

बदलते सामाजिक परिवेश में उपेक्षित जन


स्वास्थ्य समस्याएँ, दैनिक दिनचर्या, रोजगार के विकल्प, नौकरी पाने की कठिनाइयाँ

वृद्धावस्था की चुनौतियाँ, आर्थिक संघर्ष और आजीविका

शारीरिक अक्षमता एवं बढ़ती निर्भरता


बच्चों की शादी, पढ़ाई की जिम्मेदारी, पुराने और नए समय की तुलना

माता-पिता की भूमिका,

समय और मूल्य में बदलाव

पारिवारिक कलह एवं सामाजिक असुरक्षा का भाव


भजन-पूजन, भगवान में विश्वास, 

सहारा के लिए आश्रम आना

धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधियाँ,

आश्रय की आवश्यकता

धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधि मार्ग


थीम 1 - बदलते सामाजिक परिवेश में उपेक्षित जन : विषयगत विश्लेषण के उपयोग से कुल चार थीम प्राप्त की गयी जो इस प्रकार हैं- विश्लेषण के अनुसार प्रथम थीम "बदलते सामाजिक परिवेश में उपेक्षित जन" पायी गयी। वृद्धजनों से प्राप्त साक्षात्कारों के अनुसार यह स्पष्ट है कि वर्तमान आधुनिक युग में शिक्षा और संसाधन में तो अपार वृद्धि हुई है परन्तु इसके साथ ही पारिवारिक एवं सामाजिक मूल्यों में तीव्र गति से अवनति होती पायी गयी है। अध्ययन में सहभागिता कर रहे प्रत्येक जन ने प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप में वर्तमान पीढ़ी का वृद्धजनों के प्रति उदासीनता का भाव महसूस किया।


रामराज (परिवर्तित नाम) बताते हैं कि “आज के समय में और पुराने समय में बहुत बदलाव आ गया है जो दिन प्रतिदिन के कार्यों में देखने को भी मिलता है। उन्होंने माना कि बाल्यावस्था का जीवन बिना किसी उतार-चढ़ाव से बीतता है। इस दौरान न धन कमाने की लालच होती है और न ही किसी कार्य को करने का दबाव ही होता है। इस अवस्था में न कोई कार्य करने की चिंता होती है और न किसी लक्ष्य प्राप्ति का दबाव होता है। इस दौरान दुनिया की बढ़ी से बढ़ी चीज भी आसान सी प्रतीत होती है। यह पूरी अवस्था केवल मौज-मस्ती से लबरेज होकर बीत जाती है।  यह उम्र अनुभव की उम्र होती है। साथ ही साथ कुछ बचपन की इच्छाएं भी इसमें देखने को मिलती है। बचपन की अवस्था में जीवन की परिस्थितियों से अपरिचित होते हैं और वास्तविकता से भी अनजान होते हैं।” 

इसी प्रकार भैयालाल जी का मानना था कि आज के समय में और पुराने समय में बहुत बदलाव आ गया है जिसे दिन प्रतिदिन की दिनचर्या में महसूस किया जा सकता है। बचपन की अवस्था में जीवन की परिस्थितियों से अपरिचित होते हैं। वास्तविकता से अनजान होते हैं। शादी होती हैं मां-बाप बनते हैं जब उनके बच्चे उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं। तब पता चलता है कि जो सुख मां-बाप के समय में होते हैं ऐसा सुख बचपन के बाद इस तरीके से नहीं मिलते हैं। बस उस सुख की सिर्फ कल्पना की जा सकती है। हरी किशन जी का मानना हैं कि पुराने समय में प्रत्येक व्यक्ति की घर-परिवार में भूमिका सुनिश्चित होती थी तथा सभी को उन भूमिकाओं को सजगता के साथ निभाना पड़ता था। धीरे-धीरे व्यक्ति सभी भूमिकाओं का निर्वहन करते हुए बुजुर्ग अवस्था में पहुंचकर सभी भूमिकाओं से मुक्त होना चाहता है। ऐसा नहीं है कि हम बुजुर्ग गुनहगार हैं। हमने पूरा जीवन सिर्फ बच्चों के लिए ही व्यतीत किया है। 

मुन्ना लाल सोनी जी बताते है कि उन पुराने दिनों को सोचकर कितना खुश होते हैं कभी-कभी निराश भी होते हैं कि किस तरीके से भाई-बहनों के साथ रहते थे। किस तरीके से हमारा बचपन गुजरा। अक्सर लड़ना-झगड़ना होता था और फिर एक हो जाना, यह बचपन की खट्टी- मीठी यादें जो हमें अक्सर याद आया करती हैं और हमारी आंखें भर आती हैं। वृद्धाश्रम काटने को दौड़ता है और याद करते हैं कि काश वो दिन वापस आ जाए यही सोचते हैं। काश हम कुछ और अच्छा कर पाते अपने जीवन में और वृद्धाश्रम की दीवारों से न घिरे होते। जीवन को कम गंभीरता से लेने की कसक उम्र भर बनी रहेगी ।


थीम 2 - शारीरिक अक्षमता एवं बढ़ती निर्भरता : इस अध्ययन की दूसरी महत्वपूर्ण थीम "शारीरिक अक्षमता एवं बढ़ती निर्भरता" पायी गयी है। बढ़ती उम्र में जन स्वास्थ्य समस्याओं का सामना तो करते ही हैं साथ ही साथ उनकी दिनचर्या अन्य युवाओं से भी बिल्कुल अलग होती है। वृद्धावस्था में लोगों के रोजगार के विकल्प या नौकरी पाने की संभावना लगभग समाप्त हो जाती हैं। मनमोहन जी के अनुसार हर माँ-बाप का एक सपना होता है कि हमारे लड़के हमारा नाम रौशन करें। वास्तव में माँ-बाप  के लिए तो सभी बच्चे एक समान होते है। माता-पिता हमेशा ही सभी को एक समान हक और अधिकार देने का प्रयास करते हैं। ताकि हमारे बच्चों को कोई परेशानी न हो। एक अन्य प्रतिभागी हरीसिंह के अनुसार दुनिया में यदि कोई चीज है तो वो माँ-बाप का प्यार है जो निःस्वार्थ मिलता है। इसके बाद हर किसी चीज के लिए कुछ न कुछ चुकाना पड़ता है। प्रतिभागियों के अनुसार सामान्य रूप से देखा गया है कि जब कठिन समय दस्तक देता है तो अपनी खुद की औलाद ही अपने माँ-बाप से किनारा करने लगती है। लेकिन ऐसा अपवाद ही देखने को मिलता है जब बच्चे मुसीबत में हों और माँ-बाप उन्हें अनदेखा कर दें।  कोई भी माता- पिता अपनी संतान पर मुसीबत के छीटें भी नहीं पड़ने देते चाहे माता-पिता कितनी ही विपरीत परिस्थितिओं का सामना कर रहे हों।   

शारीरिक रूप से अत्यंत कमजोर व हल्के वीरजी के अनुसार इस आयु में किसी और पर निर्भरता कुछ नहीं बस भाग्य का खेल है जो अपने आप में अनोखा है। ईश्वर की मर्जी तो निराली है और कोई व्यक्ति कर्म की गति को न तो पहचान सकता और न ही तय कर सकता है। कोई जान ही नहीं सकता कि आज क्या और कल क्या होगा। आज का समय अत्यंत ही नाज़ुक है जिसमें बच्चे अपने खुद के माता-पिता से ही संतुष्ट नहीं है तथा माता-पिता अपने बच्चों से ही संतुष्ट नही है। कई प्रतिभागियों ने यह भी बताया कि उनके बच्चों को लगता है कि उनके बच्चों ने उन्हें इसलिए भी वृद्धाश्रम जाने को कह दिया कि उन्हें लगता था कि माता-पिता ने उनके साथ ज्यादती और नाइंसाफी की है। जबकि माँ-बाप को लगता है कि उनके साथ नाइंसाफी हुई है। 

वृद्धजनों का यह भी मानना है कि जब तक औलाद माता-पिता पर आश्रित होती है तब तक तो सब कुछ ठीक चलता है। परन्तु शारीरिक अक्षमता के बाद जब माता-पिता अपनी औलादों पर आश्रित हो जाते हैं तब माता-पिता एवं बच्चों के बीच तकरार प्रारम्भ हो जाती है। मुन्नी मिश्रा जी ने हिचकिचाते हुए बताया कि माता-पिता एवं बच्चों के बीच तकरार उस समय होने लगती है जब बढ़ती उम्र में माता-पिता को  किसी सहारे की अत्यंत ही आवशयकता पड़ती है उसी समय औलाद उन्हें छोड़ देती है। इसी दुर्व्यवहार के कारण माता-पिता और बच्चों के मध्य दूरियाँ बन जाती है और बाद में माता-पिता घर-बार छोड़ने संबंधी फैसला लेने पर आ जाते हैं और यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि अपना बाकी जीवन सम्मान के साथ गुजार सकें और अंत में स्वयं को ही दोषी मानकर और कर्म का हवाला देते हुए अपना बचा हुआ जीवन वह वृद्धाश्रम में ही गुजार देते हैं।

इसी प्रकार एक अन्य प्रतिभागी किशनलाल जी मानते हैं कि पूरा संसार स्वार्थमय है। जब युवा होते हैं तो उमंग होती है, इस उम्र में तो सब कुछ निराशाजनक लगने लगता है।  सबसे बड़ी बात है कि जो पहले व्यवहार था वह आजकल कुछ भी नहीं है। आजकल व्यवहार  का प्रदर्शन सिर्फ औपचारिकता बन गई है। सच कहें तो व्यवहार तो सिर्फ नाम मात्र का ही बचा है। भय और लज्जा तो व्यक्ति से कोसों दूर होती जा रही है। आजकल की औलाद तो वृद्धजनों को सिर्फ काम के लिए इस्तेमाल करती है और अंत में उन्हें बोझ समझकर घर से बाहर बेकार का जीवन जीने पर मजबूर कर देते हैं। नेमिचंद जैन जी मानते है कि जरूरत की चीजें जैसे कपड़े, खाना और अन्य प्रकार की चीजें नहीं मिलती हैं तब कलह की जड़ बनती है, इसी से मजबूर होकर इन बुजुर्ग जनो को वृद्धाश्रम आना पड़ता है।

एक अन्य प्रतिभागी हरिशंकर जी मानते हैं एक कहावत है कि अपना पूत सभी को प्यारा, एक पूत सभी को प्यारा। एक पिता अपनी सारी कमाई बिना किसी शर्त के अपने बच्चों पर लुटा देता है, और कोई उम्मीद नही करता है कि वो हमें मदद करेंगे कि नहीं करेंगे। समय के चक्र के आगे किसी की भी नही चलती है। जब हमने अपने बच्चों की सारी जरूरतों को पूरा किया तो कभी नहीं सोचा था कि अपने त्याग और बलिदान के बदले हमें वो दिन देखने को मिलेगा कि उनकी ही संताने उनको बोझ मानने लगेगी। सावित्री बाई मानती हैं कि लड़कियां तो इस उम्र में भले माँ-बाप की सेवा कर देती हैं, जितना बनता है, किसी भी चीज़ की उम्मीद किये बिना, पर लड़के सारी जमीन जायदाद और पैसा लेकर भी सेवा नहीं करते हैं। मनोहर सोनी जी बताते हैं कि बुजुर्ग व्यक्ति भाग्य को कोसते हैं।  यदि ऐसा होता तो वैसा होता सिर्फ यादों में सिमट कर रह जाता है ये सब। इस उम्र में शारीरिक और मानसिक दोनों तरीके की तकलीफ होती है, शारीरिक दर्द का तो इलाज है पर मानसिक दर्द का कोई इलाज नहीं है। जो गुजर गया सो गुजर गया ये सोच कर परेशान रहते हैं। जिसे हमने दूध पिलाया उन्हीं ने हमें भगा दिया, इसी प्रकार के मानसिक दर्द से परेशान रहते हैं, इसका कोई इलाज नही है। जिन्हें हम भाग्य का विधान कहते हैं। इस प्रकार अपना जीवन जीते हैं।


थीम 3 - धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधि मार्ग : कृष्णा देवी जी कहते हैं कि गीता में कहावत है जो जस करे सो तस फल चाखा। ऐसे कई व्यक्तियों ने हमें बताया कि सिर्फ भगवान पर जीते हैं क्योंकि अधिकतर जन अशिक्षित होते हैं। वह सिर्फ भगवान पर निर्भर रहते हैं और कर्म की बात पर भी निर्भर रहते हैं। जीवन में कई संघर्ष के बावजूद बुजुर्ग व्यक्ति हार नहीं मानते हैं चाहे परिस्थितियां विपरीत हों या सहज हों। सभी समस्याओं को दरकिनार करते हुए जीते हैं ऐसा मानते हैं कि हमने सारे जीवन में जो कुछ किया है सब उसी का परिणाम है। जिन्हें हमें चाहते या ना चाहते हुए भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भोगना पड़ता है। यदि कर्म अच्छे किए हैं तो अच्छा परिणाम और खराब किये हैं तो खराब परिणाम होता है। सतीश जी बताते हैं कि कर्म के अनुसार हमें दंड मिल रहे हैं ऐसा मानते हैं मैंने पूर्व जन्म में जो कर्म किए थे हमें इस जन्म में भोगना पड़ रहा है यदि घर में लड़के अच्छे तरीके से बात करेंगे तो उनकी पत्नियों का व्यवहार गलत होगा उनका नजरिया हमारे प्रति, हमारा उनके प्रति अलग होता है क्योंकि उस समय हमारे हाथ-पैर चलना बंद हो जाते तो सिर्फ घर में बैठे रहते हैं उनके लिए खाना देना और अन्य चीजें देना तकलीफ लगता  है।  इससे कई प्रकार के मतभेद बढ़ते हैं जो धीरे-धीरे कठिनाइयाँ बढातें हैं। 


रविशंकर जी ऐसा मानते हैं कि मृत्यु लोक में कर्म बंधन से मुक्त हो कि बार-बार नरक लोक में यातना से बचा जा सकता है। उनके अनुसार मनुष्य योनि में अच्छे काम खत्म करना चाहिए जिससे हमें बार-बार इस योनि में यात्राएं ना भोगना पड़े।  यह जीवन दुष्कर है  जहाँ जो चाहो नहीं मिलता है जो ना चाहो वह मिलता है। इसे ही वास्तव में जीवन कहते हैं, कुछ भी अप्रत्याशित घट जाता है। कभी-कभी उम्मीद से ज्यादा और कभी कभी उम्मीद से  कम मिलता है। चाहे सुख हो या दुःख हमें दोनों स्वीकारना चाहिए। 


थीम 4 - पारिवारिक कलह एवं सामाजिक असुरक्षा का भाव : प्रेम कुमार बताते हैं कि नौकरी से रिटायर हुए हैं।  जब तक पैसा है तब तक बच्चे कहां मानते हैं और जब पैसा खत्म हो जाता है तो बात को अनसुना करते हैं इसके बाद हम जन मानो असहाय हो जाते हैं और कुछ काम के नहीं बचते तो उन्हें हम खराब लगने लगते हैं। धन-संपत्ति मुख्य कारण है बुजुर्गों को घर से निकालने के लिए जिन्हें उनके लिए बच्चे मजबूर करते हैं। धन संपत्ति मिलने के बाद बेदखल कर देते हैं। इसी प्रकार काशीराम जी कहते हैं कि बच्चों ने जमीन अपने नाम करा ली और खाना भी अच्छे तरीके से नहीं देते हैं और यह भी कहते हैं कि दो वक्त की रोटी खाओ और पड़े रहो। जब जमीन अपने नाम पर हो जाती हैं तो उन्हें कई प्रकार की यातनाएं देकर वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर कर देते हैं।  या तो फिर बुजुर्ग खुद ही चले जाते हैं या उन्हें जबरदस्ती भगाया जाता है। मालती बाई जी ने अपनी व्यथा बताते हुए कहा कि बच्चों का मोह एक समय के बाद हमसे टूट जाता है।  जिन बच्चों की वजह से हम जीते हैं बस उन्हीं से लगाव होता है तथा बस उन्हीं की याद आती रहती है और कुछ याद नहीं आता। सब नालायक थे तथा सिर्फ उनके बच्चों की याद आती है। यदि हमारे साथ इस तरीके का व्यवहार नहीं किया जाता तो  हम  उनके साथ होते। 


निष्कर्ष : वृद्धजनों ने बताया कि यहाँ वृद्धाश्रम में आने के बाद उनका दैनिक जीवन वास्तव में दुखों से भर जाता है। जन अपने अतीत के बारे में बातें करते हैं और अपनी तकलीफ अपनी उम्र के अन्य लोगों के साथ साझा करते हैं। उन्हें हर वक्त हर समय यह याद आती है यदि ऐसा ना होता तो हम यहाँ क्यों आते। दुख भरी कहानी सभी के साथ साझा करते हैं कभी खट्टी-मीठी यादों में खोकर खुश हो जाते हैं तो कभी निराश भी होते हैं। उनकी यह दिनचर्या बस चलती ही जा रही है। कभी-कभी अपने आप से नाराज होते हैं और भगवान से यह शिकायत करते हैं कि उनको कैसी जिंदगी दे दी जिसमें ढेर सारे कष्ट उनके जीवन को कष्टप्रद बना देते हैं। उन्हें यह भी लगता है कि उनकी किस्मत में सब कुछ ख़राब ही लिखा है।  यह विधि का विधान है जो हमने किया है वह हमें भोगना भी पड़ता है। भगवान से दुआ करते हैं, कि इस प्रकार के जीवन से हमें मुक्त कर दें। वे भगवन का नाम जपते हैं और धार्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं और भगवान से यही प्रार्थना करतें हैं कि जो कर्म जीवन में हुए उनको माफ करते हुए विनती करते हैं कि अगले जन्म में कोई गलती ना हो।


सन्दर्भ : 

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संजय कुमार 

  सह-प्राध्यापक, मनोविज्ञान विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, उ.प्र.

dr.sanjaykumar@allduniv.ac.in, 8819034818


घूमन अहिरवार

  मनोविज्ञान विभाग, पहलवान गुरुद्दीन कॉलेज,ललितपुर, उ.प्र.


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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