गुलमोहर के फूल
प्यारे पेड़ के नाम एक ख़त
[16 जनवरी 2025]
- रेखा कँवर
तुमने कभी भी यह सवाल नहीं किया मुझसे, कि क्या करोगी तुम, जब मुझे दूसरे पेड़ों की तरह कटते देखोगी? अगर ऐसा हुआ तो क्या तुम बचा पाओगी मुझे ? पर मैं हर बार जवाब देती रही तुम्हें कि कम से कम एक अदद पेड़, जो मेरे हिस्से आया है, उसे तो मुझे बचाए रखना है। और देखो ना, आज तुम नहीं हो। तुम्हारा सवाल है, मगर मेरे पास जवाब नहीं। जब तुम्हें कुल्हाड़ी से काटा जा रहा था तब क्या कोई आवाज दी थी तुमने मुझे? में नहीं जानती प्यारे पेड़। नहीं! शायद मैंने जानने की कोशिश ही नहीं की। नहीं कर पाई मैं इतनी हिम्मत कि देख सकूं तुम्हें कटते हुए। ओ ! प्यारे पेड़ मेरे, मैं आई तो थी तुम्हें देखने मगर तुम्हारे पास नहीं आ पाई l बस खिड़की से देखती रही तुम्हें चुपचाप। याद है तुम्हें वह सारी बातें जो मैंने कही थी तुमसे। हां, याद तो होगी ही। तो फिर क्यों कुछ नहीं कहा तुमने मुझे? हमेशा चुप रहना जरूरी नहीं होता प्यारे पेड़ कभी-कभी कुछ बातें कह देनी चाहिए ताकि जाते वक्त कंधों पर भार ना रहे। वह सारी बातें न जाने उस वक्त किस गहरे खड्डे में जा गिरीं कि मेरे होंठ हिलते न थे। मैं बस देखती रही तुम्हें बिना कुछ बोले बिना कुछ कहे। और तुमने भी कौन सा कुछ कहा था । तुम भी तो चुप थे। मैं तुमसे कुछ पूछ पाती इससे पहले ही अंदर से दादी की आवाज आई-
रेखा…sss। मुझे रोटी बनानी थी। तुम्हें वहीं छोड़ मैं अंदर रोटी बनाने चली गई। मगर मन तो मेरा वही था, तुम्हारे पास। शायद तुम्हें बचाने से अधिक जरूरी काम था रोटी बनाना मेरे लिए। जानते हो मुझे कुछ भी उतना परफेक्ट नहीं आता है जितना कि रोटी बनाना आता है। मुझे चीजों को बचाना नहीं आता। मुझे बोलना नहीं आता। क्यों नहीं सिखाया गया मुझे रोटी बनाने की ही तरह चीजों को बचाना। यह नहीं तो कम से कम बचाने की कोशिश करना ही सिखा देते । पर बचा तो मैं शायद तुम्हें फिर भी नहीं पाती। पर तुमसे वह आखिरी शब्द तो कह ही सकती थी जो एक दोस्त दूसरे दोस्त को अलविदा कहते समय कहता है । कैसा लगता है जब सुबह कोई अपने घर से किसी कारणवश बाहर जाए और शाम को जब वापस लौटे तो उसे उसका घर मिले ही ना? सुबह से गए हुए वे पंछी जब शाम को अपने घर आए होंगे तो क्या बीती होगी उन पर जब शाम अपने घर की जगह बिखरे हुए पत्ते नजर आए होंगे। मैंने देखा था आज शाम को उस चिड़िया को जिसकी आंखों में अपना घर था मगर हकीकत में कहीं नजर नहीं आया उसे अपना घर। न जाने कितनी देर तक वह ढूंढती रही थी अपना घर। खोई हुई चीजें तो मिल जाती है वापस मगर खत्म हुई चीजें नहीं मिलती फिर कभी। तब जानते हो उसने एक फीकी हँसी हँसते हुए कहा था मुझे – “तुम झूठी ही निकली ना! मेरा घर छोड़ो, तुम तो उस पेड़ जिसे कि तुम शायद अपना दोस्त कहती थी उसे भी नहीं बचा पाई।” अब तुम ही बताओ क्या कहूं मैं उसे? मेरी हर बातों का जवाब तो तुम ही देते थे ना उसे हर बार। पर आज तो तुम भी...l
मुझे हैरानी होती है, क्यों दुनिया में कुछ नहीं बदला प्यारे पेड़। सब अपने कामों में लगे हुए हैं, क्या तुम्हें कोई याद नहीं करता? दुनिया के इतने सारे पेड़ों में से क्या तुम थे भी किसी के लिए? क्या किसी को मालूम है इतने सारे पेड़ों में से एक पेड़ कम हो गया आज? अब तुम भी अस्तित्ववाद के लेखक फ्रांस काफ्का की तरह यह मत कहने लग जाना कि - वह सब कुछ जिसे आप प्यार करते हैं, वह सब आप एक दिन खो देंगे लेकिन अंत में वह प्यार एक अलग रूप में वापस लौट आएगा। हाँ ! चलती होगी प्रकृति, प्रकृति के नियम से और दुनिया, दुनिया के नियम से। मगर यह जो मन है ना यह अपने हिसाब से चलता है। इसके लिए तो जैसे कोई नियम कायदे मायने ही नहीं रखते। और मेरा मन नहीं मानता तुम्हारे जाने को। क्या तुमसे एक बात पूछूँ। जवाब तो दोगे ना ? क्या तुम भी वहाँ चले गए हो जहाँ माँ गई थी। अगर हाँ, तो प्लीज मुझे बताओ ना उनके बारे में। कम से कम इतना ही बता दो कि वहाँ माँ मुझे भूल तो नहीं गई है। अच्छा चलो इतना ही बता दो कि तुम कहाँ हो अभी ताकि यह खत भेज सकूँ मैं तुम्हें। अरे! तुम तो माँ से भी ज्यादा ढींठ हो। कुछ तो बताओ प्यारे दोस्त। अच्छा तो तुम मुझसे नाराज हो, है ना! क्योंकि मैं तुमसे आखिरी बार मिलने नहीं आई इसलिए ना। तो क्या तुम्हें नहीं मालूम कि मैं तुम्हारे सामने रोती नहीं हूं। और उस वक्त जो तुम मेरा चेहरा देख लेते तो मुझे कितना चिढ़ाते तुम फिर मुझे। अच्छा चलो मैं माफी मांगती हूं तुमसे। मगर सुनो! हर बार की तरह मां की जैसे तुम भी इतनी जल्दी माफी स्वीकार मत कर लेना मेरी। मैं चाहती हूं कि माफी का रिश्ता बचा रहे हमारे बीच और मैं लिखती रहूँ इसी तरह तुम्हें खत और एक दिन जब मैं वहां आऊँगी तो ये सारे खत अपने साथ ले आऊँगी । ...और बताऊंगी कि मैं तुम्हें कभी भूली नहीं। मैं हमेशा तुमसे बात करती हूं। तब तक के लिए इंतजार करना और हां! मां का ख्याल अच्छे से रखना। और उन्हें यह भी कहना कि मैं उन्हें याद करती हूं। बाकी इसके अलावा तो तुम सब जानते ही हो कि तुम हमेशा मेरी मन की जमीन पर इसी तरह हरे- भरे लहराते रहोगे। वहां से तुम्हें कोई नहीं काट पाएगा। ओ हो ! मैं एक बात तो बताना भूल ही गई तुम्हें। तुम्हें मालूम है मैंने एक लंबी लिस्ट बना रखी है उन चीजों की, जिन्हें मैं अपने ससुराल अपने साथ ले जाना चाहती हूं। अरे! नहीं-नहीं, अभी नहीं जा रही पर जाना तो है ही ना एक दिन तो फिर क्यों ना पहले से ही चीजें इकट्ठी कर लूं। पहले नंबर पर तुम ही थे इस लिस्ट में प्यारे पेड़। पर अब तो...! चिंता ना करो, यह खत हैं ना मेरे पास l इन्हें मैं अपने साथ ले जाऊंगी। दूसरे नंबर पर है मेरी खिड़की, जिसके बाहर दिखता हुआ वह थोड़ा सा आसमान। जिस पर बल्ब की भांति चमकता हुआ वह सूरज और चांद - तारें जो कि मेरे हिस्से आए हैं। और तीसरे नंबर पर है मेरी पड़ी हुई किताबें, कविताएं, कुछ कहानियां और अंतिम में थोड़ा सा अपना गांव ताकि मुझे दूसरे गांव से वहां के लोगों के हिस्से से का गांव ना छीनना पड़े। बस इतनी सी तो चीजें है जिन्हें मैं अपने साथ ले जाने के सुंदर सपने हर रोज देखा करती हूं।
और शायद बस देखती ही रहूं हमेशा।। नही ले जा पाऊंगी मैं यह सब चीजें अपने साथ । जानती हूं मैं कि जिस तरह पिता का घर बेटी का नहीं होता, इसी तरह पिता का गांव, उस गांव में रहने वाले पेड़, वहां की नदी भी उसकी नहीं होती। खिड़कियां भी बेटी की नहीं होती । हमेशा सबसे अधिक अधिकार बेटियों का वहां की स्मृतियों पर ही रहेगा। पर चलो कम से कम इतना हक तो है बेटियों के पास।ओ हो, मैं भी ना जाने कौन-कौन सी बातें लेकर बैठ गई तुम्हारे सामने। एक तो तुम वैसे ही नाराज हो और ऐसी बातों से कहीं और अधिक नाराज ना हो जाओ तुम मुझसे। मगर कुछ भी हो, कहूंगी तो मैं तुमसे ही। जैसे हमेशा कहती आई हूं और ऐसे ही हमेशा कहती रहूंगी। तुम क्या सोचते हो कि तुम मेरे पास नहीं रहोगे तो मैं तुम्हें परेशान करना छोड़ दूंगी। नहीं! कभी नहीं प्यारे पेड़। तुम्हें पता है मेरे सिरहाने पड़ी किताब और पेन, खिड़की से दिखता हुआ वह थोड़ा सा आसमान और एक पेड़ मेरी स्मृतियों में हमेशा रहेंगे। इन सबको मैं जब भी देखती हूं तो मेरी कांटों से भरी देह पर कई नए-नए फूल खिल आते हैं । खुशियों के फूल। मेरे लिए खुशी का अर्थ कोई ज्यादा बड़ा नहीं है। वैसे एक बात और कहनी थी तुमसे। पर वादा करो पहले तुम डांटोगे तो नहीं मुझे। देखो डांटना मत अब। अभी ना रात के ग्यारह बजे रहे हैं और मैं यहां समाज के हिसाब से कहूं तो इतनी रात को एक अकेली लड़की होकर खिड़की पर बैठी - बैठी बंद घरों में फैले अंधेरों को देख रही हूं। ओहो, अब प्लीज तुम यह मत कहने लग जाना कि इतनी रात को ऐसे ठीक नहीं होता चलो जाओ और सो जाओ। तुम तो जानते हो ना प्यारे पेड़ कि मुझे कितना पसंद है इस तरह देर रात तक अकेले बैठना और दिन की सारी पाबंदियों को हटाकर रात कि यह आजादी महसूस करना।
मैं सड़कों पर अकेली घूमना चाहती हूं बेफिक्र होकर। मगर मुझे पता है कुछ नजरों में इस तरह अकेले बैठे रहने का अर्थ क्या है।और वैसे भी मैं हमेशा बच्ची थोड़ी ना रहूंगी। मुझे बड़ा भी तो होना पड़ेगा और जो बड़ी हुई तो फिर पत्नी भी होना पड़ेगा। खैर कर भी क्या सकते हैं भला? प्रकृति का नियम जो ठहरा। इसलिए स्मृतियों के डिब्बे में आसमान के रंग भर रही हूं फिर इसे देखना भी मुनासिब हो या ना हो। क्या पता? वैसे यह आसमान पर बड़े करीने से जमे हुए तारों को देख रहे हो। ये सभी तारें जो लगातार बड़ी हसरत से अकेले चमकते उस ध्रुव तारे की ओर निहार रहे हैं और सोच रहे हैं कि कितना अच्छा होता अगर हम भी ध्रुव तारा होते तो सबसे अलग चमकते रहते तो हमारी भी एक अलग पहचान होती। और ठहरो जरा प्यारे पेड़ उधर देखो जरा ध्रुव तारे की ओर। वह भी तारों की ओर छुप - छुप कर निहार रहा है। और सोच रहा है कि कितना अच्छा होता मैं भी इन्हीं सभी तारों में से एक होता तो मुझे यूं अकेले सबसे अलग भटकना ना पड़ता। क्या तुम्हें नहीं लगता कुछ ऐसी ही स्थिति है हम इंसानों की भी? हमे दूसरों की थाली में घी कितना ज्यादा नजर आता है। खैर छोड़ो भी अब। मेरी इन बेमतलब की बातों का भला क्या ही अर्थ होगा तुम्हारे लिए। लेकिन फिर भी मुझे मालूम है तुम सुनोगे मेरी बातें, क्योंकि तुम इंसान नहीं पेड़ हो ना !मेरे प्यारे दोस्त। कितना जरूरी है घर में खिड़कियों का होना, एक पेड़ का होना और गांव में गांव का होना। अच्छा चलो अब बाय, वरना किसी ने देख लिया तो मेरी खैर नहीं आज। सुनो ख्याल रखना अपना और मां का। मुझे संकेत भेजते रहना वहाँ से जहां तुम हो अभी।और हां, इन्तजार करना मेरा। मैं जल्दी ही आउंगी वहां। और खबरदार जो किसी और को दोस्त बनाया ।।
मैं तुम्हारी सखी
रेखा कँवर
अपनी माटी मण्डली सदस्या
एक डायरी प्रेम। वर्ष की अंतिम किश्त
[27 दिसंबर 2024]
- दीपक कुमार

सिलसिला आगे बढ़ता है तो एक विशेष समारोह में हिस्सेदारी के दौरान एक लड़की से भेंट होती है। उसके साथ एक छोटा पप्पी होता है जो उसका फैमिली मेंबर जान पड़ता है। हमारे बीच ख़ूब सारी बातें हुई। मानों समारोह आयोजित ही इस कारण हुआ हो। लेकिन मुझे बस दो बातें याद रही। पहली यह कि उसे फ़राज़ के शेर पसंद है। और दूसरी उसकी आँखें।! मैंने जाते समय उससे सिर्फ इतना ही कहा कि - ‘आई लाइनर’ थोड़ा लंबा खींचा करो और काजल थोड़ा हल्का गहरा लगाया करो। बेहद सुंदर दिखोगी। ये सब क्यों कहा इसके बारे में बाद में कभी सोचा नहीं, सोचा तो बस इतना कि यदि अगली बार मुलाक़ात होती तो उसके घर का पता पूछ उसे एक फ़राज़ की किताब भिजवाता। अगला माह फरवरी था जो अब तक वेलेंटाइन डे वीक के बहाने यादगार बनता था। लेकिन इस साल गुणवंत भाई की शादी का सप्ताह भी था। श्रेया का वो 'हग डे' वाला मैसेज अभी भी याद कर रहा हूं। अर्जुन का बिन्दौली में डांस, टीना का दूजे गांव में होते हुए भी बिन्दौली के हर गाने को सुन-सुन कर मैसेज पर बताना। सब कुछ ताज़ा ताज़ा लग रहा है। अगला दिन 14 फरवरी था। पूरी मंडली का एक साथ मिलना। वो फोटो फ्रेम जिसमें माणिक सर के दोनों हाथ मेरे कंधों पर रखे हुए मानों मुझमें ऊर्जा भर रहे हो। वो ऊर्जा अभी भी महसूस कर रहा हूं। वह दिन मानों बहुत सुखद था। क्योंकि उसी दिन मुझे कान्हा पहली बार मिला था। माफ कीजियेगा कान्हा से यहां मेरा मतलब मेरे यार अभिषेक से है।! इससे पहले सिर्फ हमारी बाते होती थी। श्रुति गौतम मेरी पसंदीदा लेखिकाओं में से एक है जिन्होंने एक बार लिखा था कि - “आपके पास कम से कम एक दोस्त तो ऐसा होना चाहिए जिसके सामने आप अपने मन की गिरह खोल सके कि वो एक दरख़्त हो जिसकी खोखल में खो जाए आपकी तमाम परेशानियां। जो आपकी 'फ्रीक्वेंटली कॉन्टेक्टेड लिस्ट में पूरी ठसक से बैठा हो।' ऐसा दोस्त मेरे पास नही है। लेकिन ऐसा एक दोस्त होना चाहिए।” जब मैं इन पंक्तियों से संक्रमित हुआ तब मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था क्योंकि मेरे पास ऐसा कोई दोस्त नहीं था। लेकिन आज मैं श्रुति दीदी के उस सवाल के जवाब को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हूं कि मेरे पास भी एक ऐसा मित्र है। दोस्तों की बात अगर आती है तो अदिति को कतई नहीं भूल सकता जो मेरे इस आधे साल में सबसे पक्के वाले दोस्तों में से एक है। अभिषेक और अदिति मेरे अज्ञातवास के साथी बने हैं। मुश्किल सफर के बहुत सच्चे साथी बने हैं जिन्होंने मुझे मेरे जीवन के स्याह दिनों में भी संभाले रखा। आधे साल में यदि सबसे ज्यादा बातें करने का रिकॉर्ड कहीं दर्ज हुआ तो वो इन्हीं के नाम का है।
मार्च महीना फाग की मस्ती, वृन्दावन और आगरा की यात्रा में बीता। यात्रा का कारण यात्रा कम और घर से आउटिंग ज्यादा थी। रंग तेरस को दोस्तों और मौसेरे भाई का घर पर फाग का धावा कभी भुलाया नहीं जा सकता। सभी तरफ रंग ही रंग थे। मुंह में रंग और मिठाई दोनों।! अप्रैल, मई और जून ' हीटवेव' यानी लूं कि लपटों से बचते-बचते निकल गया। मम्मी की ज़िद के आगे विवश होकर पतंजलि योगपीठ भी जाना पड़ा। ठीक उन्हीं दिनों पतंजलि, बाबा रामदेव और सुप्रीम कोर्ट तीनों में होड़ मच रही थी। वापसी में माणिक सर और नंदिनी मेम से छंटाक भर मिलना यात्रा का सबसे लाभदायक हिस्सा था। उस दिन की रोहित की दाल बाटी भुलाई नहीं जा सकती है। उन्हीं दिनों आचार्य प्रशांत के साथ समय अधिक बीतने लगा था। अब ये मेरे हर दिन का हिस्सा बनने लगे थे। सौरभ की हिंदी का आज भी मुरीद हूं। वह जो भाषा गढ़ता है उसका कायल हूं। प्रशांत सर का पहले पेज पर लिखा हुआ प्यार और उनकी किताब को सहेज कर रखा है। खेद है अभी तक पूरी नहीं पढ़ पाया हूं। जुलाई में ताऊजी और अक्टूबर में दादाजी के चले जाने से उनकी कमी आज भी महसूस करता हूं। लेकिन आचार्य प्रशांत से संगत बढ़ने पर अब दुःख नहीं होता है। क्योंकि जान गया हूं। मंजिल हमारी सभी की एक है। अब मन विश्लेषण करने लगा है। दिमाग एनालिस्ट बन गया है। साल के अंतिम दिनों में खुद की संगति ज्यादा की है। पहले की तरह अब एकांत से घबराता नहीं हूं। अब प्राथमिकता में खुद को रखने लगा हूं। अभी थोड़ा पहले लल्लन टॉप पर युवल नोआ हरारी और सौरभ का इंटरव्यू सुन रहा था। उससे कुछ दिन पहले ही एक लड़की ने मुझे उनकी किताब 'Nexus - A Brief History of Information Networks from the Stone Age to AI' पढ़ने का सुझाव दिया। उससे इस किताब पर चर्चा करना बाकी है। सोशल मीडिया आज कल बहुत हद तक छूट गया है। जिसके अपने फायदे और नुकसान है। विष्णु सर की डायरी को बहुत मिस करता हूं। जीवन में उसे समेटने का हुनर सीख रहा हूं, जो बिखरा पड़ा है। अब दिनों और कामों को साधने लगा हूं। पापा मम्मी से मिलना कभी-कभी ही हो पाता है। उनकी आउटिंग और मेरा आना एक साथ होता है। परिवार के प्रति निज धर्म निभाने की पूरी कोशिश करता हूं। ये बात अलग है कि पूरी तरह निभा नहीं पा रहा हूं। एक दोस्त को अपने हाथ से खाना बनाकर खिलाने का वादा किया है।
आचार्य प्रशांत कहते हैं कि जीवन की—हमारे—क्या गुणवत्ता है, क्या क्वालिटी है?—वो अगर किसी एक चीज़ से निर्धारित होती है, तो वो ये है कि हमने किससे सम्बन्ध जोड़कर रखा है। इस बात को गाँठ बाँध लो बिलकुल। तुम्हारे जीवन की गति को, दिशा को, पूर्णता को और सुन्दरता को अगर कुछ निर्धारित करेगा, तो वो ये है कि तुम किनके साथ जुड़े रहे, किन लोगों को तुमने अपनी ज़िंदगी में जगह दी, किनको तुमने अपना दोस्त बना लिया। सब कुछ इसी से बदल जाना है। मुझे खुशी है कि मैं ऐसे हीरे जैसे दोस्तों के संपर्क में हूं। अभिषेक ने और हमने कई प्लान बनाए हैं। जिनमें से एक आचार्य प्रशांत से मिलना भी था। उसी के चलते वर्षांत समारोह में भागीदारी करने का निर्णय लिया है। सुखद संयोग ये रहा कि इसी दिन एक गोष्ठी में सुंदर डायरी लिखने वाले विष्णु सर और माणिक सर से भी मिलना हो पाएगा। माणिक सर से जब कभी भी मिलना होता है खुद को ऊर्जावान महसूस करता हूं। खुद की कमियों को पहचान कर उन पर काम करने को प्राथमिकता देने लगा हूं। सुधार की बहुत सारी गुंजाइश है, जाने वाले साल से कोई शिकायत नहीं है। आने वाले साल की सटीक रणनीति है। इसी ऊर्जा और सहयोग के साथ नए साल का स्वागत करना चाहता हूं, आप सभी के प्रेम में झूमना चाहता हूं। नए अनुभव लेना चाहता हूं। नया सृजन, नई आदतें अपनाना चाहता हूं। लव यू मेरे अपनों। इसी तरह प्रेम बरसाए रखना।!
दीपक कुमार
अपनी माटी मण्डली सदस्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज(जयपुर)
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