डिजिटल युग में सेंसरशिप: ओटीटी प्लेटफार्मों पर नियंत्रण की चुनौतियाँ
- सुमन यादव
शोध सार : यह शोध पत्र "डिजिटल युग में सेंसरशिप: ओटीटी प्लेटफार्मों पर नियंत्रण की चुनौतियाँ" विषय पर केंद्रित है, जिसमें ओटीटी (ओवर-द-टॉप) प्लेटफार्मों पर बढ़ती सेंसरशिप की प्रवृत्ति का विश्लेषण किया गया है। डिजिटल माध्यमों के बढ़ते उपयोग ने मनोरंजन और अभिव्यक्ति के नए आयाम खोले हैं, लेकिन इसके साथ ही कंटेंट पर नियंत्रण की मांग भी बढ़ी है। इस शोध का मुख्य उद्देश्य ओटीटी प्लेटफार्मों पर लागू सेंसरशिप के कानूनी, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं का गहन अध्ययन करना है।
इस शोध में निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर खोजा गया है:
1. ओटीटी प्लेटफार्मों पर सेंसरशिप की आवश्यकता क्यों उत्पन्न हुई?
2. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सेंसरशिप के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जा सकता है?
3. सेंसरशिप से जुड़े भारतीय कानूनों और अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का ओटीटी कंटेंट पर क्या प्रभाव पड़ता है?
4. सेंसरशिप की मौजूदा प्रक्रिया में सरकार, समाज, और प्लेटफॉर्म संचालकों की भूमिकाएँ क्या हैं?
शोध में प्राथमिक और द्वितीयक डेटा का उपयोग करते हुए ओटीटी पर प्रसारित सामग्री से जुड़े विवादों, अदालतों के फैसलों, और नीति-निर्माण की प्रक्रिया का विश्लेषण किया गया है। इसके अतिरिक्त, दर्शकों की अभिरुचि और सेंसरशिप की नीति के बीच द्वंद्व को भी समझा गया है। निष्कर्ष स्वरूप, यह शोध पत्र दर्शाता है कि डिजिटल युग में सेंसरशिप लागू करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, जहाँ दर्शकों की स्वतंत्रता, संवैधानिक अधिकार और सामाजिक संवेदनशीलताओं के बीच संतुलन बनाना अत्यंत आवश्यक है। इस अध्ययन के माध्यम से ओटीटी प्लेटफार्मों के लिए प्रभावी और न्यायपूर्ण नियमन की दिशा में संभावित सुझाव भी प्रस्तुत किए गए हैं।
ओटीटी प्लेटफार्मों पर सेंसरशिप की आवश्यकता -
डिजिटल युग में ओटीटी (ओवर-द-टॉप) प्लेटफार्मों का उदय एक क्रांतिकारी बदलाव के रूप में देखा जा रहा है जिसने दर्शकों को विभिन्न प्रकार के अनियमित और स्वतंत्र रूप से उपलब्ध कंटेंट तक पहुंच प्रदान की है। इन प्लेटफार्मों पर प्रसारित होने वाली सामग्री किसी पारंपरिक सेंसर बोर्ड की निगरानी से मुक्त होती है, जिसके परिणामस्वरूप कई बार ऐसी सामग्री प्रसारित हो जाती है, जो सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर विवाद उत्पन्न कर सकती है। अनियमित कंटेंट का बढ़ना, जैसे हिंसा, अश्लीलता या धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाली सामग्री, समाज में नकारात्मक प्रभाव पैदा कर सकती है। ओटीटी प्लेटफार्मों पर दिखाई जाने वाली सामग्री पर सेंसरशिप की आवश्यकता मुख्यतः इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि यह सामग्री समाज के विभिन्न वर्गों को प्रभावित करती है। कई बार धार्मिक, सांस्कृतिक, और नैतिक मान्यताओं से जुड़ी सामग्री दर्शकों की भावनाओं को आहत करती है जिससे सामाजिक विवाद उत्पन्न होते हैं। इसके अलावा बच्चों और किशोरों की पहुंच में ऐसी सामग्री आना जो उनके मानसिक और नैतिक विकास के लिए हानिकारक हो, एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। सेंसरशिप की आवश्यकता इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इन प्लेटफार्मों पर कंटेंट निर्माताओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो प्राप्त है लेकिन इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग न हो, यह सुनिश्चित करना आवश्यक है। इसके लिए एक संतुलित सेंसरशिप नीति की आवश्यकता है जो न केवल दर्शकों की संवेदनाओं की रक्षा करे, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी बनाए रखे। इस प्रकार, ओटीटी प्लेटफार्मों पर अनियमित कंटेंट के बढ़ने और सामाजिक विवादों के बढ़ते मामलों के कारण सेंसरशिप एक आवश्यक उपकरण के रूप में उभर कर सामने आया है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सेंसरशिप के बीच संतुलन -
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक समाज का एक मूल अधिकार है जो व्यक्तियों को अपने विचार, भावनाएँ, और राय स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने का अवसर प्रदान करता है। यह स्वतंत्रता न केवल व्यक्तिगत विकास और सामाजिक संवाद के लिए आवश्यक है बल्कि लोकतांत्रिक तंत्र की मजबूती के लिए भी महत्वपूर्ण है। भारत के संविधान में अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है, जो नागरिकों को बिना किसी डर या दबाव के अपने विचार प्रकट करने की अनुमति देता है। इस स्वतंत्रता के कारण समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता है, जिससे नए विचारों और नवाचारों को जन्म मिलता है। हालांकि, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं हो सकती। इसके साथ कुछ जिम्मेदारियाँ और सीमाएँ भी जुड़ी होती हैं। यह स्वतंत्रता तभी तक सही मानी जाती है जब तक यह दूसरों की प्रतिष्ठा, अधिकार, या समाज की शांति को हानि न पहुँचाए। इस संदर्भ में सेंसरशिप की अवधारणा उत्पन्न होती है। सेंसरशिप का उद्देश्य समाज में नैतिकता, शांति, और सुरक्षा को बनाए रखना है, जिससे अभिव्यक्ति के कुछ रूपों पर सीमाएँ लगाई जा सकें, विशेषकर जब वे सामाजिक या धार्मिक भावनाओं को आहत कर सकती हैं, या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न कर सकती हैं। परंतु, सेंसरशिप के दायरे का विस्तार कई बार स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर अवांछित प्रतिबंध लगाने का कारण बनता है जिससे लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास होता है। संवैधानिक और नैतिक दृष्टिकोण से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सेंसरशिप के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है। संविधान ने जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षण दिया है, वहीं इसे युक्तियुक्त प्रतिबंधों के तहत सीमित भी किया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टता, नैतिकता, राज्य की सुरक्षा, और मित्र देशों के साथ संबंधों के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। इसलिए सेंसरशिप का उद्देश्य होना चाहिए कि वह समाज में किसी भी प्रकार की वैमनस्यता या अशांति को रोकने के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन न करे। नैतिक दृष्टिकोण से भी यह समझना आवश्यक है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग न हो, और उसे समाज के हित में जिम्मेदारीपूर्वक प्रयोग किया जाए। इसमें सेंसरशिप का सही उपयोग यह सुनिश्चित करता है कि स्वतंत्रता का सम्मान बना रहे और समाज में किसी भी प्रकार की अव्यवस्था न हो। कुल मिलाकर, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सेंसरशिप के बीच संतुलन बनाए रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, जिसमें दोनों के अधिकारों और जिम्मेदारियों का समन्वय आवश्यक है।
सेंसरशिप के कानूनी, सामाजिक, और सांस्कृतिक पहलू -
ओटीटी प्लेटफार्मों पर बढ़ती सेंसरशिप को लेकर भारत में कई कानूनी, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू उभर कर सामने आते हैं। भारतीय कानूनी ढांचा सेंसरशिप के संदर्भ में मुख्य रूप से भारतीय दंड संहिता (IPC), सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 और केबल टेलीविजन नेटवर्क अधिनियम, 1995 जैसे कानूनों पर आधारित है। ओटीटी प्लेटफार्मों को नियंत्रित करने के लिए भारत सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा फरवरी 2021 में जारी सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 के तहत नए दिशानिर्देश लागू किए। इन दिशानिर्देशों के तहत ओटीटी प्लेटफार्मों को स्वयं-नियमन (self-regulation) के मानकों का पालन करने और शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है। यह कानून नागरिकों की धार्मिक, नैतिक और सामाजिक भावनाओं की रक्षा करने के उद्देश्य से बनाए गए हैं, लेकिन इसके साथ ही ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी सवाल खड़े करते हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सेंसरशिप के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद और अंतर्राष्ट्रीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संगठन जैसे कई निकाय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षण देने की दिशा में कार्यरत हैं। सार्वभौम मानवाधिकार घोषणापत्र (UDHR) और नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय समझौता (ICCPR) जैसे अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त है। हालांकि, यह स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है और सामाजिक शांति, राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक नैतिकता को बनाए रखने के लिए सीमित की जा सकती है। इस संदर्भ में भारत में लागू कानून और दिशानिर्देश अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के साथ कितने अनुकूल हैं, इस पर विचार किया जाता है।
सेंसरशिप से जुड़े सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव व्यापक और बहुआयामी होते हैं। भारतीय समाज विविधता से भरा है जहां धार्मिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय विविधताएँ देखने को मिलती हैं। ओटीटी प्लेटफार्मों पर दिखाए गए कंटेंट से संबंधित सामाजिक चिंताएँ अक्सर धार्मिक भावनाओं, पारिवारिक मूल्यों और सामुदायिक परंपराओं से जुड़ी होती हैं। उदाहरण के लिए, ओटीटी प्लेटफार्मों पर हिंसक या यौन सामग्री से पारंपरिक सामाजिक मूल्यों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना होती है। इसी प्रकार, सेंसरशिप का सांस्कृतिक प्रभाव भी महत्वपूर्ण है जहाँ एक ओर इसे संस्कृति और परंपराओं की रक्षा के रूप में देखा जाता है, वहीं दूसरी ओर यह कला और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता है। इस प्रकार, कानूनी, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं के बीच संतुलन बनाना एक बड़ी चुनौती है जो भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में सेंसरशिप की प्रक्रिया को और जटिल बना देता है।
ओटीटी कंटेंट से जुड़े विवाद और न्यायिक निर्णय -
ओटीटी प्लेटफार्मों पर प्रसारित कंटेंट ने हाल के वर्षों में कई विवादों को जन्म दिया है जिसमें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं के आहत होने के मुद्दे प्रमुख रूप से शामिल हैं। डिजिटल प्लेटफार्मों पर कंटेंट की पहुंच व्यापक और स्वतंत्र होने के कारण इसे पारंपरिक मीडिया की तरह सेंसरशिप का सामना नहीं करना पड़ता था, लेकिन समय के साथ कुछ विवादास्पद सामग्री ने सामाजिक और कानूनी बहस को जन्म दिया। इस संदर्भ में, महत्वपूर्ण कानूनी मामले और अदालती फैसले ओटीटी प्लेटफार्मों के लिए दिशा-निर्देशक बने हैं। महत्वपूर्ण मामलों में से एक "तांडव" वेब सीरीज से जुड़ा विवाद है जिसमें धार्मिक भावनाओं के आहत होने का आरोप लगाया गया था। इस मामले में उत्तर प्रदेश में कई एफआईआर दर्ज की गईं, और सीरीज के निर्माताओं को माफी मांगनी पड़ी। न्यायालय ने इस मामले में टिप्पणी की कि जब भी सामग्री से सामाजिक या धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं तो उसे संवैधानिक दायरे में रहकर देखा जाना चाहिए। यह मामला ओटीटी कंटेंट पर नियंत्रण और जिम्मेदारी के महत्व को उजागर करता है। इसी प्रकार, "मिर्जापुर" वेब सीरीज के खिलाफ भी न्यायालय में याचिकाएं दायर की गईं जिसमें कहा गया कि यह सीरीज शहर की छवि को नकारात्मक रूप से प्रस्तुत करती है। अदालती फैसलों में न्यायालय ने इस बात को स्पष्ट किया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे संविधान के अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत प्रतिबंधित कारणों के आधार पर नियंत्रित किया जा सकता है। यह भी देखा गया कि ओटीटी प्लेटफार्मों पर किसी भी प्रकार की सामग्री अपलोड करने से पहले प्लेटफार्म संचालकों को अधिक संवेदनशीलता और जिम्मेदारी का परिचय देना चाहिए।
इन न्यायिक निर्णयों का ओटीटी प्लेटफार्मों पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। कई प्लेटफार्म अब अपनी सामग्री को स्वयं-सेंसरशिप के तहत प्रकाशित करते हैं जिससे विवादों से बचा जा सके। सरकार द्वारा 2021 में लागू की गई सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियमावली भी इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है जिसमें ओटीटी प्लेटफार्मों को तीन-स्तरीय शिकायत निवारण तंत्र के तहत काम करने का निर्देश दिया गया है। यह सुनिश्चित करने का प्रयास है कि विवादित सामग्री से निपटने का एक सुव्यवस्थित और संवैधानिक मार्ग हो।
अंततः, अदालती फैसले और कानूनी प्रक्रिया ओटीटी प्लेटफार्मों पर कंटेंट के प्रसारण को अधिक संरचित और जिम्मेदार बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुए हैं जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक संवेदनशीलताओं के बीच संतुलन स्थापित किया जा सके।
सेंसरशिप की चुनौतियाँ और संभावित समाधान -
डिजिटल युग में ओटीटी प्लेटफार्मों पर सेंसरशिप लागू करना एक जटिल और चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह कठिनाई इस तथ्य से उत्पन्न होती है कि इंटरनेट और डिजिटल माध्यमों ने अभिव्यक्ति के नए द्वार खोले हैं जिससे व्यापक और विविध प्रकार की सामग्री का प्रसार हो रहा है। पारंपरिक मीडिया की तुलना में ओटीटी प्लेटफार्मों पर कोई केंद्रीय नियमन तंत्र नहीं होने के कारण, अक्सर संवेदनशील मुद्दों पर नियंत्रण और निगरानी करना कठिन हो जाता है। इसके अतिरिक्त, विभिन्न सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक संवेदनाओं को ध्यान में रखते हुए, सामग्री का नियमन करना एक बड़ी चुनौती साबित होता है। सेंसरशिप के लिए प्रभावी और न्यायपूर्ण नियमन की आवश्यकता है जिससे न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षित किया जा सके, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की भी रक्षा हो सके। इसके लिए सरकार, प्लेटफार्म संचालकों और विशेषज्ञों को मिलाकर एक संतुलित नीति बनाये, जिसमें पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित हो। कानून और नीतियाँ ऐसी होनी चाहिए जो दर्शकों को स्वतंत्रता प्रदान करें, लेकिन साथ-ही-साथ सामाजिक संवेदनशीलताओं और सार्वजनिक सुरक्षा को भी ध्यान में रखें।
दर्शकों की स्वतंत्रता, संवैधानिक अधिकार और सामाजिक संवेदनशीलताओं के बीच संतुलन बनाने के लिए प्लेटफार्म संचालकों को स्व-नियमन (self-regulation) की दिशा में कदम उठाने चाहिए। सामग्री की रेटिंग प्रणाली, दर्शकों के लिए शिकायत निवारण तंत्र और संवेदनशील विषयों पर स्पष्ट चेतावनी देना आदि ऐसे उपाय हो सकते हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित किए बिना सामाजिक ताने-बाने को सुरक्षित रख सकते हैं। इसके साथ ही, सरकार को एक ऐसी नीति तैयार करनी चाहिए जो न्यायपूर्ण हो और तकनीकी प्रगति के साथ तालमेल बिठाते हुए डिजिटल माध्यमों पर संवेदनशील और विवादास्पद सामग्री के प्रसार को नियंत्रित कर सके।
निष्कर्ष : डिजिटल युग में तेजी से बढ़ते ओटीटी प्लेटफार्मों ने मनोरंजन और अभिव्यक्ति के नए मार्ग खोले हैं, लेकिन इसके साथ ही सेंसरशिप की आवश्यकता भी बढ़ गई है। सामग्री की विविधता और दर्शकों की संवेदनशीलता के बीच संतुलन बनाना एक बड़ी चुनौती है। जहाँ एक ओर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संरक्षण आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं का सम्मान भी करना अनिवार्य है। सेंसरशिप की प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के लिए पारदर्शी और न्यायपूर्ण नीतियों की आवश्यकता है, ताकि सामग्री पर अनुचित प्रतिबंध न लगे और साथ ही समाज में अशांति भी न फैले। ओटीटी प्लेटफार्मों पर नियमन की संभावनाओं में सरकार, प्लेटफार्म संचालकों और दर्शकों के बीच एक सामंजस्यपूर्ण नीति का निर्माण करना शामिल है। यह नीति न केवल कंटेंट की गुणवत्ता और सुरक्षा को सुनिश्चित करेगी, बल्कि दर्शकों की स्वतंत्रता को भी संरक्षित रखेगी। इसके लिए स्पष्ट दिशानिर्देश और स्वनियमन (self-regulation) के उपाय भी आवश्यक हैं। सरकार द्वारा ओटीटी प्लेटफार्मों के लिए नियामक तंत्र की स्थापना एक सही दिशा में कदम है, परंतु इसे और अधिक संतुलित और लचीला बनाने की आवश्यकता है। शोध के आधार पर प्रस्तुत सुझावों में यह प्रमुखता से उल्लेख किया गया है कि सेंसरशिप नीतियों को संतुलित और पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। ओटीटी प्लेटफार्मों के संचालन में सरकार, संचालकों और दर्शकों के बीच एक सहयोगात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, सामग्री पर प्रतिबंध लगाने के बजाय जिम्मेदार अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित करने की दिशा में कदम उठाए जाने चाहिए। इससे दर्शकों की स्वतंत्रता बनी रहेगी और साथ ही समाज की संवेदनशीलताओं का भी सम्मान होगा।
संभावित सुझाव:
संतुलित और पारदर्शी सेंसरशिप नीतियाँ
ओटीटी प्लेटफार्मों पर कंटेंट को सेंसर करने की नीतियों को संतुलित और पारदर्शी बनाना आवश्यक है। नीतियों में सभी संबंधित पक्षों की राय और संवेदनशीलताओं का ध्यान रखा जाना चाहिए। कंटेंट की समीक्षा और अनुमोदन प्रक्रिया को अधिक स्पष्ट और तर्कसंगत बनाया जाए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि सामग्री पर बिना किसी अनुचित प्रतिबंध के दर्शकों की स्वतंत्रता को संरक्षित किया जा सके। साथ ही, इसके लिए उचित दिशानिर्देश तय किए जाने चाहिए, जो सभी प्लेटफार्मों के लिए एकसमान हों।
सरकार, प्लेटफार्म संचालकों और दर्शकों के बीच संवाद की आवश्यकता
सरकार, ओटीटी प्लेटफार्म संचालकों और दर्शकों के बीच एक संवाद कायम करना अत्यंत आवश्यक है। इससे सेंसरशिप और सामग्री निर्माण से जुड़े मुद्दों को समझने और हल करने में मदद मिलेगी। एक समावेशी दृष्टिकोण अपनाते हुए, प्लेटफार्म संचालकों को यह समझने का अवसर मिल सकता है कि दर्शकों और सरकार की चिंताएँ क्या हैं, और उसी के अनुसार कंटेंट का निर्माण और प्रस्तुति हो। यह संवाद सेंसरशिप नीतियों में सुधार के लिए भी लाभदायक होगा।
संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच सामंजस्य स्थापित करने के उपाय
सेंसरशिप के नियमों को इस प्रकार से लागू किया जाए कि संवेदनशील मुद्दों पर सामाजिक शांति बनी रहे, लेकिन साथ-ही-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी उल्लंघन न हो। इसके लिए प्लेटफार्म संचालकों को अपनी जिम्मेदारी के प्रति सचेत किया जाए और उन्हें सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक पहलुओं का ध्यान रखते हुए कंटेंट प्रस्तुत करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। सामग्री पर अत्यधिक सेंसरशिप के बजाय, जिम्मेदार अभिव्यक्ति और दर्शकों के विवेक को बढ़ावा देने की दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए।
- इशिता गोयल, ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की सेंसरशिप: विनियमन में उलझन और आगे का रास्ता, इशू १ : इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ एडवांस्ड लीगल रिसर्च, [ISSN: 2582-7340]
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