शोध आलेख : भारतीय सिनेमा में दलित प्रतिनिधित्व का प्रश्न / मंजुल कुमार सिंह, शिखा सिंह

भारतीय सिनेमा में दलित प्रतिनिधित्व का प्रश्न
- मंजुल कुमार सिंह, शिखा सिंह

शोध सार : जिस प्रकार साहित्य भारतीय जनमानस को प्रभावित कर उनके जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है, ठीक उसी प्रकार सिनेमा भी उत्तरोत्तर विकास के पथ पर आगे बढ़ते हुए लोगों के जीवन को प्रभावित करने तथा लोक जागृति फैलाने का एक सशक्त माध्यम बन कर उभर रहा है। सिनेमा ने अपनी विकास यात्रा के दौरान अनेक पड़ावों को पार किया है। प्रारंभ में सिनेमा की पहुंच सीमित दर्शक वर्ग तक थी, परंतु वर्तमान समय में सिनेमा लगभग प्रत्येक व्यक्ति तक अपनी पहुंच बना चुका है। साहित्य की तरह ही सिनेमा के कंधों पर भी आज समाज के विकास की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि वह समाज में आए परिवर्तन को अपने दृश्य-श्रव्य माध्यम के द्वारा व्यक्तियों के हितों की बात लोगों के समक्ष रख सकता है।

सामान्यतः कहा जाता है कि सिनेमा समाज का दर्पण है अतः जो समाज में परिलक्षित होता है वही सिनेमा में प्रतिबिंबित होता है। लेकिन जब उसी दर्पण में दलित प्रतिनिधित्व को देखते है तो वह उसी दर्पण में कहीं धूमिल या खोया सा नज़र आता है। यह देखते हुए कि सिनेमा अक्सर वास्तविक जीवन से प्रेरणा लेता है वहीं भारतीय फिल्मों में जातिगत प्रश्न और दलित प्रतिनिधित्व एक अनावर्ती विषय रहा है। भारतीय सिनेमा में दलित प्रतिनिधित्व एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद विषय है। भारत में दलित समुदाय को लंबे समय से सामाजिक और आर्थिक रूप से दबाया जाता रहा है, और यह उनके सिनेमाई प्रतिनिधित्व में भी परिलक्षित होता है। प्रस्तुत शोध विषय के आधार पर सिनेमा में दलित प्रतिनिधित्व जैसे विषय का विश्लेषण किया गया है।

बीज शब्द : दलित, प्रतिनिधित्व, जातिवाद, अछूत, समाज, सामाजिक स्थिति, भारतीय सिनेमा, दक्षिण का सिनेमा, फिल्में।

मूल आलेख : भारतीय फिल्म उद्योग के जनक घुंडीराज गोविंद फालके (दादासाहब फालके) ने वर्ष 1913 में राजा हरिश्चंद्रबनाकर भारतीय सिनेमा की नींव रखी। प्रारंभिक भारतीय सिनेमा की पृष्ठभूमि धार्मिक और पौराणिक रहीं। वर्ष 1912 से 1917 के बीच लगभग 23 फिल्मों का निर्माण होता हैं। जिनमें सभी फिल्मों की पृष्ठभूमि धार्मिक और पौराणिक रहीं। यदि दलित परिप्रेक्ष्य में धार्मिक और पौराणिक फिल्मों की विषयवस्तु की बात करें तो इनमें दलित जीवन कहीं नज़र नही आता है। इनमें जो नायक है वह उच्च जाति में उत्पन्न कोई भक्त युवक होता हैं या कोई हिन्दू देवी-देवता। इन फिल्मों में ईष्ट देवी देवता की शक्ति का अलौकिक प्रदर्शन या व्यक्तिगत मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति दिखाई देती हैं। उस दौर में कुछ दलित समुदाय के संतों पर आधारित फिल्मों का भी निर्माण हुआ। जिनमेंसंत नामदेव’ (1922), ‘संत एकनाथ’ (1926), ‘कबीर कमाल (1930), ‘संत तुकाराम’ (1936), ‘भक्त कबीर’ (1942), ‘भक्त रैदास’ (1943), ‘धन्ना भक्त’ (1945) प्रमुख हैं। इन सभी संतों का स्वर क्रांतिकारी और दृष्टिकोण समझौतावादी नहीं रहा है फिर भी इन फिल्मों में संतों का जो मूल क्रांतिकारी स्वर और चरित्र है उसे प्रस्तुत नहीं किया गया। इन संतों को ऐसे प्रस्तुत किया गया है जैसे कि वे परंपरावादी वैष्णव भक्त हो और आध्यात्मिक मुक्ति का संदेश दे रहे हों।

यह दौर देश में स्वतंत्रता प्राप्ति का था। हर वर्ग अपने हिस्से की स्वाधीनता चाहता था। महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और डॉ. भीमराव अंबेडकर के मानवतावादी विचारों का समाज पर प्रभाव पड़ रहा था। जिसका प्रभाव सिनेमा पर भी हुआ। जिससे धार्मिक, पौराणिक विषयवस्तु पर आधारित मिथकीय फिल्मों का चलन घटने लगा और सामाजिक विषयों पर केन्द्रित फिल्में अस्तित्व में आने लगी थी। इन्हीं फिल्मों में कुछ दलित सरोकारों से संबंधित फिल्में भी आयी। जिनमेंधर्मात्मा’ (1934), ‘अछूत कन्या (1936), ‘अछूत’ (1940), ‘नीचा नगर’ (1946) प्रमुख थी।इस तरह हम यह कह सकते हैं कि अस्पृश्यता के बारे में पहली फिल्म जो थी वह गांधी जी के सुधार-आंदोलन से प्रेरित फ्रैंज ऑस्टेन (Franz Osten) की अछूत कन्या थी।”¹

कुछ समाजशास्त्रियों का मानना है कि भारत कृषि प्रधान नहीं, जाति प्रधान देश है। हजारी प्रसाद द्विवेदी जाति के संबंध में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहते है- “हिन्दू समाज में नीची से नीची समझे जाने वाली जाति भी अपने से नीची एक और जाति ढूँढ लेती है।”² सारी दुनिया में पाए जाने वाले रेसिज़म (Racism) का सबसे घृणित रूप जातिवाद हमें भारत की पावन भूमि पर देखने को मिलता है। जिसे सभी ने अपनी सहूलियत के हिसाब से नजरंदाज करना सीख लिया है। भारतीय समाज एक विभाजित समाज है जो वर्णों और जातियों में बंटा है, जिसका आधार जातिगत श्रेष्ठता है। भारत का अभिजात्य वर्ग भारतीय सिनेमा में दलित पिछड़ों के प्रतिनिधित्व पर चुप रहता है। ललित जोशी का मानना है कि हिन्दी सिनेमा के लंबे इतिहास में दलित विषयक फिल्में या तो दलित विमर्श की अधूरे एजेंडे को साथ लेकर चली या राजनीतिक यथास्थिति को बनाए रखने में कामयाब हुई।”³

हिन्दी का लोकप्रिय सिनेमा जिसका मुख्य काम मनोरंजन करना है। वह साफ तौर पर ऐसे किसी भी विषय को अपनी फिल्म के माध्यम से नहीं उठाता जिसमें कि उसे लगता है की फिल्म के विवादास्पद होने की गुंजाइश है। इसलिए वह ऐसे सारे संदर्भों को चाहे वह कितने ही महत्वपूर्ण क्यों ना हो उन संदर्भों की उपेक्षा करता है उसमें जाति एक महत्वपूर्ण सच्चाई है। हिंदी सिनेमा का शुरू से प्रयास रहा है कि वह ऐसा मेलोड्रामा पेश करे जो भारत के प्रत्येक क्षेत्र, जाति, समुदाय और धर्म को मानने वाले लोगों की भावनाओं के अनुरूप हो अर्थात उनके विचारों, संस्कारों और भावनाओं को आघात पहुंचाए बिना दर्शकों का मनोरंजन करे।”⁴ लेकिन समय समय पर ऐसे निर्देशक आते रहते है जिन्हें सामाजिक कुरीतियां झकझोरती रहती है। उन्हीं में से एक विमल राय ने हिन्दी में दलित विषयक पहली गंभीर फिल्मसुजाता’ (1959) बनाई। सुजाता को हिन्दी सिनेमा का लिटमस परीक्षण कहा जा सकता है। फिल्म अपने माध्यम से समाज की एक दलित विषयक गंभीर समस्या को उठाती है जिसमें अधीर (सुनील दत्त) उच्चकुलीय ब्राह्मण लड़का, अछूत जाति की लड़की सुजाता (नूतन) से प्रेम करने लगता है और फिल्म के अंत में विवाह की स्वीकृति भी प्राप्त कर लेता है। लेकिन फिल्म समाज के एक वर्ग की महानता का प्रतीक सी लगती है। सिनेमा में यदि कोई ब्राह्मण किसी अछूत कन्या से विवाह करता है तो वह समाज में बहुत बड़ी क्रांति करता है और महान बनता है, जबकि दलित महिला महान नहीं बनती है। जिस कारण सुजाता स्वर्ण चश्मे से देखी गई दलित विषयक फिल्म जान पड़ती है। जवरीमल्ल पारख कहते हैहिंदी सिनेमा जातिवादी आधार की अपेक्षा करते हुए भी नायक-नायिका की कुलीनता और रक्त श्रेष्ठता को प्रबल ढंग से रखता है।”⁵

दलितों के साथ हमेशा से समाज में भेदभाव किया जाता था जो अभी तक जारी है। दलितों का जीवन अत्यंत दयनीय बना दिया गया था। दलितों को न पढ़ने का अधिकार था न सार्वजनिक जगह से पानी पीने का यहां तक कि उनका मंदिरों में प्रवेश भी वर्जित था। उच्च वर्ग के लोग दलित जाति में विवाह करना तो दूर उनके हाथ का छुआ खाना भी पसंद नहीं करते थे। उनको उच्च वर्ण के लोगों के बराबर में बैठने तक का अधिकार प्राप्त नहीं था। एक तरफ जहां समाज के दलित वर्ग के लोगों का जीवन इतना कष्टमय था वहीं दूसरी तरफ सिनेमा प्रेम विषयक, मार- धाड़, उछल-कूद, अश्लील, चार्मिंग बॉय और एंग्री यंग मैन की कहानी कहने में व्यस्त था। सिनेमा का समाज के दलित वर्ग से कोई सरोकार नहीं था। सिनेमा से दलित और दलित समस्या नदारद थी। चाहे समाज हो या सिनेमा सभी जगह दलित उपेक्षित ही रहे। उन्हें वह सम्मानजनक स्थिति प्राप्त नहीं हुई जिसके वह हकदार थे। दलितों को हर जगह अपना स्थान बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था। धीरे-धीरे सिनेमा में दलित पात्रों का आगमन होता है पर जिस सशस्त्र तरीके से सिनेमा में दलित और उनकी समस्याओं को रखने की जरूरत थी उस तरीके से दलित पात्र व उनकी समस्याएं नहीं आती हैं।

अछूत कन्या’ (1936), सुजाता’ (1959) आदि फिल्मों में नायिकाएं भले ही दलित समाज से थी पर उनको दया करुणा और त्याग की मूर्ति के रूप में चित्रित करके उनमें दलित चेतना की चिंगारी का सर्वथा अभाव दिखाया गया। दलितों पर एक तो फिल्में ही कम बनी और जो बनी भी वे दलित चेतना का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ है। ऐसी फिल्मों में दलितों को दबा, कुचला, अनपढ़ दिखाया गया है। दलित महिलाओ को भी किसी के घर में नौकरानी का काम करने वाली या किसी जमीदार, साहूकार या किसी उच्च वर्ग के किसी व्यक्ति के हाथों उसकी वासनाओं की पूर्ति के लिए लिए शोषित होने वाली भूमिका में ही रखा गया। दलित वर्ग के पुरुष पात्र को भी समाज में नीचे समझे जाने वाले कार्यों में संलग्न ही दिखाया गया। उनको पॉकेट मार, शराबी, काला, अशिक्षित, कमजोर, लाचार दिखाकर उनको सहानुभूति पाने वाले पात्रों के रूप में ही दिखाया गया। इन सबका कारण यही है कि सिनेमा मनोरंजन का एक महंगा माध्यम है, इसकी पहुंच सामान्य जन तक नहीं थी। दलितों की तो आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय थी कि वह अपना जीवन यापन ही अच्छे से नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उनका पहुंच पाना और सिनेमा का केंद्रीय पात्र बन पाना बहुत ही मुश्किल था। उच्च वर्ण के कुछ पढ़े-लिखे लोगों का ही सिनेमा में बोलबाला था। आज भी स्थिति में बहुत अधिक सुधार नहीं आया है। फिल्म निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, संगीतकार आदि सभी व्यक्ति कहीं ना कहीं उच्च वर्ग से ही संबंधित है। तभी दलित चेतना पर शायद उस तरीके से फिल्में नहीं बन पा रही हैं। क्योंकि जिसने यथार्थ में वह पीड़ा ना भोगी हो, इसका साक्षी ना रहा हो या समाज के उस वर्ग के जीवन से उसका एक तरह का आत्मीय तादात्म्य ना रहा हो तब तक वह उस पीड़ा का चित्रण उस मार्मिकता या सच्चाई के साथ नहीं कर सकता है जितनी की दलित समाज को उससे अपेक्षा है। इस समय तक जितनी भी फिल्मों का निर्माण हुआ उनमें दलित प्रतिनिधित्व वाली फिल्मों की संख्या नगण्य है यदि कुछ फिल्मों में दलित पात्रों को चित्रित किया गया है तो उन फिल्मों को आसानी से उंगलियों पर गिना जा सकता है।जब हम बॉलीवुड फिल्मों की संख्या के बारे में सोचेंगे तो यह देखेंगे कि दलित न सिर्फ जाति के वरीयता-क्रम से बाहर है बल्कि सिनेमा से भी बाहर है। सौ करोड़ से ऊपर की जनसंख्या वाले देश के सिनेमा में बहुजन-जीवन के स्वाभाविक चित्रण का अभाव चिंता जनक है।”⁶

समाज के शोषित और वंचित तपकों का अस्तित्व जो अभी भी अमानवीय जाति व्यवस्था से घिरा हुआ था। उनकी पीड़ा, उनके दैनिक जीवन का संघर्ष, नयी पीढ़ी की समस्याएं एक ऐसा विषय था। जिसे मुख्य धारा के सिनेमा द्वारा नजर अंदाज किया जा रहा था। उसी समय सिनेमा में आम जनमानस का प्रवेश होता है और वे समाज में उत्पन्न कुरीतियों को अपनी फिल्मों का विषय बनाते है। जिसे भारतीय सिनेमा में क्रांतिकारी सिनेमा की संज्ञा दी जा सकती है। वह दौर था समानान्तर सिनेमा का जिसमें दलित विषयक कई फिल्मों का निर्माण हुआ। जिनमें दलितों की मूल संवेदनाओं और समस्याओं को दिखाने का प्रयास किया गया। यह काल भारतीय सिनेमा के 'स्वर्ण युग' का हिस्सा माना जाता है।”⁷ इसी स्वर्ण युग मेंअंकुर (1974), मंथन’ (1976), ‘आक्रोश (1980), सद्गति (1981), पार (1984), गिद्ध (1984), दामुल (1985), गुलामी (1985), बैंडिट क्वीन (1994) दलित संवेदनाओं से ओत प्रोत फिल्में आती है। जिनमें दलित की स्थति और उनकी समस्याओं को काफी हद तक सही रूप में प्रस्तुत करने की पहल की गई। इन फिल्मों के नायक विपरीत परिस्थितियों में, सामर्थ्यहीन, दलित वर्ग के व्यक्ति होते हुए भी अपनी-अपनी मुक्ति और उत्थान का समाजीकरण करने में एक हद तक सफल होते हैं। दलित समाज की समस्याओं को प्रदर्शित करने में इन फिल्मों की भूमिका प्रमुख रही किन्तु मुख्यधारा के लोकप्रिय कलाकार दलित पात्र निभाना नही चाहते है। जिस कारण ओम पुरी, नसरुद्दीन शाह, नाना पाटेकर, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल जैसे कलाकार को इन पात्रों का रूढ़ प्रारूप (Stereotype) मान लिया गया। जिस कारण इन पात्रों को मुख्यधारा के सिनेमा में हिकारत की दृष्टि से देखा जाने लगा। जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि महज़ अभिनय करने से किसी अभिनेता और अभिनेत्री को इस दृष्टि से देखा जा सकता है तो सिनेमा में दलित प्रतिनिधित्व जैसा प्रश्न अपना पैर कैसा पसार सकता है।

हिन्दी भाषी पट्टी में जातिवाद मध्ययुगीन मानसिकता का जबरदस्त अगड़ा होने के कारण सिनेमा के माध्यम से दलित शोषित वर्ग के जीवन का खुलासा न किया जा रहा हों या यह अनुपात बहुत छोटा हो। लेकिन दक्षिण भारत भूमि में दलित सिनेमा की एक नई लहर उभर रही है। वहां का सिनेमा काफी प्रगतिशील है। हिंदी की तुलना में तमिल, मलयालम, तेलुगू , मराठी सिनेमा अधिक उन्नत है। जिसने द्रविड़ सौन्दर्यशास्त्र को डॉ. भीमराव अंबेडकर के जीवन मूल्यों से जोड़ा हैं। जिसमें दलित किरदारों को न सिर्फ नायक का दर्जा दिया गया है बल्कि वे सभी लड़ते, भिड़ते अपनी जगह बनाते दिखाई देते हैं। उसकी वजह यह है कि इनमें से अधिकांश निर्माता, निर्देशक उसी दलित समुदाय से आते हैं जिन्होंने यह पीड़ा बचपन से झेली है। जिस कारण वहां के सिनेमा में दलित बोध मिलता है।कई लोग यह तर्क देते हैं कि साहित्य, कला, सिनेमा को जातिवाद, क्षेत्रवाद और भौगोलिकता की बंदिशों में नहीं बांधा जा सकता।”⁸ निश्चित तौर पर कोई भी कला बंधन मुक्त होनी चाहिए लेकिन समाज के यथार्थ को चित्रित करने के लिए कुछ बंधनों को तोड़ना पड़ता है जिससे एक नया विमर्श जन्म लेता है।पेरियम पेरूमल’, ‘असुरन’, ‘कर्णन’, ‘पलासा 1978’, ‘जैत रे जैत’, ‘काला’ ‘पेरारियातवर’, ‘पिस्तुलिया’, ‘फैंड्री’, ‘सैराटऐसी ही फिल्मों के उदाहरण है जो दलित प्रतिनिधित्व का प्रश्न उठाते है। असुरन फिल्म के एक प्रगतिशील संवाद से इस संवेदना का समझा जा सकता है- “अगर हम खेत रखेंगे तो वह उन्हें हड़प लेंगे, अगर हमारे पास पैसा होगा तो उसे छीन लेंगे लेकिन अगर हमारे पास शिक्षा है तो उसे हमसे कोई नहीं छीन सकता।”⁹ दलित नायक जो दशकों से हमारे सिनेमा से गायब रहे हैं। अब दक्षिण के सिनेमा के माध्यम से अपनी किस्मत बदलने का फैसला कर रहे हैं दक्षिण भारत के सिनेमा में हमें अपने अस्तित्व के साथ, अपने बजूद के साथ दलित किरदार दिखते हैं वह पीड़ित नहीं है, वह अपनी चीजों को लेकर आश्वस्त हैं दक्षिण भारत में जागरूकता और दलित चेतना अधिक है साथ ही साथ उस समाज से फिल्मकार भी आए हैं हिन्दी  फिल्मों और हिन्दी समाज में यह दिक्कतें रही है कि यहां दलित चेतना और दलित समुदाय के फिल्मकार नहीं रहे हैं जिस कारण दलित किरदारों को तवज्जो नहीं दी गई है यह स्थिति तमाम वंचित समुदायों के साथ रही है हिन्दी पट्टी के फिल्मकार दलित किरदारों की आंतरिकता में नहीं घुस पाए, वह उसके हृदय की धड़कन और स्पंदन को पर्दे पर सही रूप में प्रस्तुत नहीं कर सके।

किन्तु 21वी सदी के सिनेमा में नए फिल्मकारों ने आकर इन मिथकों को तोड़ा है। जिनमें नीरज घेवान, पा रंजीत, नागराज मंजुले, मारी सेल्वराज, वेट्रीमारन, करुणा कुमार का नाम लिया जा सकता है। जो दलितों की समस्याओं को केन्द्र में रखकर फिल्म का निर्माण करते है और दलित की उचित संवेदना को व्यक्त करते है। जिससे भारतीय सिनेमा एकसूत्र में जुड़ा हुआ नज़र आता है।भारतीय सिनेमा में जब तक भारत के दलित बहुजन समुदाय का उचित प्रतिनिधित्व एवं यथार्थ पूर्ण फिल्म का नहीं होगा तब तक भारतीय सिनेमा सच्चे अर्थों में भारतीय नहीं बन सकेगा।”¹⁰

निष्कर्ष : डॉ भीमराव अंबेडकर ने तो संविधान निर्माण के द्वारा दलितों को उनके अधिकार दिलाए पर सिनेमा दलितों को वह अधिकार नहीं दे पाया जिसके वह अधिकारी थे। वर्तमान समय में भी दलित और उनकी समस्याओं को उतने पुरजोर तरीके से सिनेमा में चित्रित नहीं किया जा रहा है जितना की सिनेमा से अपेक्षा की जाती है। वर्तमान सिनेमा में भी दलितों को वह स्थान नहीं दिया जा रहा है जिसके वह हकदार हैं। शुरुआती दौर में तो सिनेमा दलित की समस्याओं से दूर-दूर ही रहा पर जब सिनेमा में दलित पात्र आने भी लगे तब भी उनको फिल्मों में बेचारा, करुणा, दया और सहानुभूति का पात्र बनाकर ही दिखाया गया। फिल्मों के नायक हमेशा उच्च वर्ग के लोग रहते थे, किसी दलित जाति के व्यक्ति को नायक नहीं बनाया गया। दलितों को तो सहायक पात्र के रूप में ही चित्रित किया गया। इसके लिए सिनेमा में दलित फिल्म निर्माता, निर्देशक, दलित समाज के अभिनेता, अभिनेत्री की जरूरत है। जब यह संभव हो सकेगा तभी यह कहा जा सकेगा की सिनेमा में समाज के सभी वर्गों को समान प्रतिनिधित्व मिल पा रहा है। जब तक यह नहीं किया जाएगा तब तक हमें दलित चेतना को उजागर करने वाला सिनेमा नहीं मिल पाएगा। सिनेमा में दलितों को समान अधिकार पाने के लिए राह इतनी आसान नहीं है उन्हें अभी और संघर्ष करना पड़ेगा खुद ही इसके लिए आगे आना होगा तभी उनकी स्थिति में सुधार आ पाएगा। प्रत्येक वर्ग की हिस्सेदारी सिनेमा में सुनिश्चित की जानी चाहिए क्योंकि सिनेमा आज मात्र एक मनोरंजन का साधन न होकर लोगों के जीवन का अहम हिस्सा बन गया है। इधर कुछ फिल्में ऐसी आई है जिनमें दलित चेतना की बात की जा रही है पर भारतीय सिनेमा में अभी वह तेजी नहीं है जो दलितों का सच्चा प्रतिनिधित्व कर सके।


संदर्भ :
  1. तत्याना षुर्लेई, हिंदी सिनेमा के सौ साल, अक्षर प्रकाशन प्रा. लि. 2013, पृष्ठ-158,159
  2. हजारी प्रसाद द्विवेदी की लोक प्रचलित पंक्तियां (https://www.duniyahaigol.com/hazari-prasad-dwivedi-quotes-in-hindi/)
  3. ललित जोशी, कथाचित्र पत्रिका, जनवरी-मार्च, 2005, पृष्ठ-138
  4. जवरीमल्ल पारख, लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ, अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्टिब्यूटर्स प्रा. लि., 2023, पृष्ठ-113
  5. वही , पृष्ठ-114
  6. तत्याना षुर्लेई, हिंदी सिनेमा के सौ साल, अक्षर प्रकाशन प्रा. लि. 2023, पृष्ठ-179
  7. https://hi.m.wikipedia.org
  8. डॉ. रमा, हिन्दी सिनेमा में साहित्यिक विमर्श, हंस प्रकाशन, 2022, पृष्ठ-75
  9. असुरन फिल्म देखें।
  10. डॉ. रमा, हिन्दी सिनेमा में साहित्यिक विमर्श, हंस प्रकाशन, 2022, पृष्ठ-75

मंजुल कुमार सिंह
शोध छात्र, हिंदी विभाग, दयानंद गर्ल्स पी. जी. कॉलेज, कानपुर 
संबद्ध छत्रपति शाहू जी महाराज विश्विद्यालय, कानपुर, उत्तर प्रदेश
manjulsingh3393@gmail.com, 9582427718

शिखा सिंह
शोध छात्रा - हिंदी विभाग, दयानंद गर्ल्स पी. जी. कॉलेज, कानपुर 
संबद्ध छत्रपति शाहू जी महाराज विश्विद्यालय, कानपुर, उत्तर प्रदेश
csinghshikha@gmail.com, 6388686748

  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
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  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
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