शोध आलेख : भारतीय सिनेमा में इफ़ेक्टस और ऐनिमेशन की क्रांति / स्वाति

भारतीय सिनेमा में इफ़ेक्टस और ऐनिमेशन की क्रांति
- स्वाति

शोध सार : अनेक परिवर्तनों के बाद भी भारतीय सिनेमा की मनोरंजक एवं रोमांचक यात्रा बदस्तूर जारी है। इस सिनेमा ने मूक युग से लेकर विशेष प्रभावों के रोमांचक दौर तक एक लम्बा सफ़र तय किया है। डिजिटल क्रांति के बाद सामने आयी कम्प्यूटर आधारित तकनीकों ने पारम्परिक फ़िल्म निर्माण के तरीक़ों में लगने वाले समय, श्रम और पूँजी तीनों की बचत की है। वर्तमान भारतीय सिनेमा रचनात्मकता और प्रौद्योगिकी के निरंतर परिवर्तनों का परिणाम है। ऐनिमेशन और वीएफएक्स तकनीक ने फ़िल्म उद्योग को अनोखे तरीक़े से कहानी कहने का सुनहरा मौक़ा दिया है। आज भारतीय फ़िल्मों में वास्तविक दुनिया के तत्वों और डिजिटल उपक्रमों का सहज सम्मिश्रण देखा जा सकता है। कलाकारों और तकनीकी विशेषज्ञों के मध्य उपजे सहयोगात्मक प्रयास ने सिनेमा की सीमाओं को तोड़कर एक नए परिदृश्य का निर्माण किया है। 

बीज शब्द : तकनीक, विशेष प्रभाव, रचनात्मक, फ़िल्म, ऐनिमेशन, दृश्य प्रभाव, डाईमेंसन, प्रक्रिया, कल्पना

मूल आलेख : किसी भी रचनात्मक प्रक्रिया में कल्पनात्मक तत्व सदैव सक्रिय रहते हैं। फ़िल्मशास्त्री रूडोल्फ़ अर्नहीम के अनुसार, “यदि सिनेमा वास्तविक जीवन का मात्र यांत्रिक प्रस्तुतिकरण होता तो हम उसे कभी भी कला नहीं कहते।”1 फ़िल्म निर्माण में भी सबसे पहले वांछित वस्तु के अस्तित्व की कल्पना की जाती है। फ़िल्म के अंदर उपस्थित ऐसे दृश्य जो काल्पनिक, ख़तरनाक या अव्यवहारिक हैं उन्हें वीएफएक्स(विजुअल इफ़ेक्ट्स) व एसएफएक्स(स्पेशल इफ़ेक्ट्स) तकनीकों से कैमरे में क़ैद किया जाता है। “दर्शक अब साधारण पारिवारिक नाटकों से ऊब चुके हैं, वे डिज़ाइनर सिनेमा देखना चाहते हैं, वे काल्पनिक सिनेमा देखना चाहते हैं, और वे एक नई और अद्भुत सपनों की दुनिया का आनंद लेना चाहते हैं।”2 

भारत के फ़िल्मी इतिहास पर नज़र डालें तो अनेकानेक फ़िल्मों में दृश्य एवं विशेष प्रभावों का कुशलता से प्रयोग किया गया है। अंततः वे वांछित वस्तुएँ या आश्चर्यजनक क्षण भी स्क्रीन पर फ़िल्माए जा सकते हैं जो अब तक केवल कल्पनाओं में सम्भव हुआ करते थे। प्रारम्भ में उन्नत तकनीकी के अभाव में केवल विशेष प्रभावों से काम चलाया गया, जिसे अंग्रेज़ी में स्पेशल इफ़ेक्ट्स(एसएफएक्स) की संज्ञा दी गयी है। यहाँ सबसे पहले एसएफएक्स(विशेष प्रभाव) और वीएफएक्स(विशेष दृश्य प्रभाव) के बीच अंतर समझना ज़रूरी है। 

सरल शब्दों में कहें तो एसएफएक्स(विशेष प्रभाव) में भौतिक संसाधनों की सहायता से असम्भव दृश्य को साकार करना शामिल है। फ़िल्मों में बारिश, बर्फ़, कोहरा, बादल आदि इसी प्रक्रिया से बनते आए हैं। भारत में सबसे पहले दादा साहेब फाल्के की फ़िल्म ‘कालिया मर्दन’(1919) में विशेष प्रभावों को सम्मिलित किया गया था। यह एक मूक फ़िल्म थी जिसमें बाल कृष्ण के द्वारा कालिया नाग को पराजित करते हुए दिखाया गया है। दादा साहेब फाल्के की तीसरी फ़िल्म ‘श्री कृष्णा जन्म’ के बारे में एक पत्र में लिखा है, “दर्शकों को तब झटका लगा जब कंस का सिर धड़ से अलग हो गया और वह उड़कर गायब हो गया। यह असाधारण उपलब्धि उन दिनों में हासिल की गई जब ग्रीन मैट और सीजीआई सपनों में भी दूर की बात थी! फाल्के ने इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए फिल्म को कई बार एक्सपोज करने का साहस किया, जिससे फिल्मों में ट्रिक फोटोग्राफी की शुरुआत हुई।”3 इसके बाद भारतीय सिनेमा ने इस विधि का खुल कर प्रयोग किया। बॉलीवुड की पहली स्पेशल इफ़ेक्ट्स वाली फ़िल्म ‘ख़्वाब की दुनिया’ (1937) मानी जाती है। इस फ़िल्म में स्क्रीन पर कुछ विशेष प्रभाव दिखाने के लिए अभिनव तरीक़ों का इस्तेमाल किया गया जिसका सारा श्रेय भारतीय ट्रिक फ़ोटोग्राफ़ी और स्पेशल इफ़ेक्ट्स के जनक व डाईरेक्टर श्री बाबूभाई मेस्त्री को जाता है। इन्होंने पृष्ठभूमि में काले पर्दे व मंद प्रकाश का प्रयोग किया, साथ में काले धागे से वस्तुओं को दोनों ओर से बाँधकर उनमें गति भ्रम का विशेष प्रभाव उत्पन्न किया। इस फ़िल्म के उपरांत बैकग्राउंड को प्रोजेक्टर की सहायता से बनाने का काम भी किया गया। फ़िल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ में इसी प्रभाव से ही अभिनेत्री मधुबाला को गाड़ी चलाते हुए दिखाया गया है। 

फ़िल्मों में निभायी गयी दोहरी भूमिकाएँ भी एसएफएक्स की श्रेणी में आती हैं। इसके लिए एक ही दृश्य को दो बार शूट किया जाता है। पहले आधे हिस्से का फ़िल्मांकन किया जाता है और दूसरे हिस्से को छिपा लिया जाता है फिर दूसरे आधे हिस्से को फ़िल्माया जाता है और पहले आधे को छिपा लिया जाता है। ‘परोस्थेटिक मेकअप’ भी एसएफएक्स कला का एक रूप है। यह किसी कम्प्यूटर तकनीक का उपयोग किए बिना चेहरे की वास्तविक आकृति को मेकअप द्वारा अलग-अलग किरदार में ढालने की कला है। फ़िल्म ‘चाची चार सौ बीस’, ‘दशावतारम’, ‘इंडीयन’ और ‘अप्पू राजा’ में कमल हासन ने इसी प्रभाव से बौने, नौकरानी, बूढ़ा व्यक्ति व विकलांग जैसे विभिन्न किरदार निभाए। “अव्वाई शानमुगी और चाची 420 जैसी फिल्मों में परिवर्तनकारी प्रोस्थेटिक काम दिखाया गया, जबकि "धूम 2" और "पा" में विस्तृत चरित्र बदलाव को उजागर किया गया, जिसने भारतीय सिनेमा की प्रोस्थेटिक कला की बढ़ती वैश्विक प्रमुखता को रेखांकित किया।”4 एसएफएक्स के अंतर्गत ‘लघु मॉडल’ का निर्माण भी आता है। फ़िल्मों के शुरुआती दौर में वायुयान, भव्य इमारतें और कुछ वृहतकाय संरचनायें उनका एक छोटा मॉडल तैयार कर पर्दे पर साकार की जाती थी।

वीएफएक्स या दृश्य प्रभाव में दृश्यों को बनाने में डिजिटल तकनीक का योगदान अनिवार्य रूप से शामिल होता है। इसी कारण वर्तमान फ़िल्मी परिदृश्य के विषय में डॉक्टर अर्जुन तिवारी लिखते हैं “फ़िल्मों में विज्ञान की शक्ति और कला का सौंदर्य होता है, जो मस्तिष्क को खाद देती है और हृदय को आंदोलित करती हैं।”5 प्रारम्भिक फ़िल्मों में फिल्म निर्माता एसएफएक्स में शामिल चतुर संपादन, इन-कैमरा ट्रिक्स और डबल एक्सपोज़र के माध्यम से फिल्मों में वांछित तत्व जोड़ने का कार्य कर रहे थे लेकिन वीएफएक्स या विज़ुअल इफ़ेक्ट्स के उपयोग ने भारतीय सिनेमा की रचनात्मकता और सृजनशक्ति को और अधिक विकसित कर दिया। यह टीम वर्क की ऐसी कलात्मक विधा है जिसने ऐसे असम्भव दृश्यों के फ़िल्मांकन को सम्भव बनाया है जिनका अब तक किसी भी प्रकार के व्यावहारिक तरीक़े से निर्माण करना सम्भव नहीं था। “1990 के दशक की शुरुआत में, वीएफएक्स का उपयोग मुख्य रूप से फ्रेम से अवांछित वस्तुओं को हटाने के लिए एक सुधार उपकरण के रूप में किया जाता था लेकिन वर्तमान में वीएफएक्स लाइव एक्शन तत्वों को भी दरकिनार कर रहा है।6 आज भारतीय सिनेमा में दृश्य प्रभावों की चमक सर्वत्र बिखरी हुई है। 

फ़िल्म बनाने की कुछ पटकथाएँ और शैलियाँ स्पेशल एवं विज़ूअल इफ़ेक्ट्स की माँग करती हैं। प्रारम्भ से ही भारतीय फ़िल्मों में स्टार सिस्टम का दबदबा रहा है इसलिए उन्नत शैली के वीएफएक्स के बड़े बजट की गुंजाइश बहुत कम रही है। “जिस फ़िल्म में वीएफएक्स का काम रहता है उस फ़िल्म की लागत पूरी फ़िल्म की लागत से तीन गुणा तक बढ़ जाती है।”7 धीरे-धीरे इन दृश्य प्रभावों को फ़िल्मप्रेमियों का प्यार और सराहना मिलने लगी जिससे निर्माताओं का ध्यान इसके महत्व की ओर विशेष रूप से पहुँच गया। वीएफएक्स में एसएफएक्स के साथ-साथ ऐनिमेशन, कुछ विशेष डिजिटल तकनीक(जैसे- मैट पेंटिंग) या सोफ्टवेयर और सीजीआई (कम्प्यूटर जेनरेटेड इमैजिनेरी) जैसे दृश्य प्रभावों की एक विस्तृत शृंखला शामिल है। यह भी कह सकते हैं कि वीएफएक्स डिजिटल और वास्तविक तत्वों का एक मिश्रित प्रभाव प्रस्तुत करता है। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह कहानीकारों को ऐसी कल्पनायें करने के लिए भी स्वतंत्र कर देता है जो कि वास्तविक दुनिया में हैं ही नहीं या जिन्हें मात्र एसएफएक्स की कला से पर्दे पर नहीं उतारा जा सकता।

भारतीय फ़िल्मों में वीएफएक्स की असीम क्षमताओं का लाभ उठाया गया है। इन फ़िल्मों में वास्तविकता से परे ऐसे दृश्य फ़िल्माए गए हैं जो दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। शुरुआत में टू-डी तकनीक से कुछ छोटी फ़िल्में बनायी गयी थी। धीरे-धीरे थ्री-डी फ़िल्मों का दौर शुरू हुआ। इक्कीसवी सदी के पहले दशक में सीजीआई जैसी उच्च तकनीक ने भारतीय फ़िल्मों में दस्तक दी। ‘कोई मिल गया’, ‘धूम’ और ‘कृष’ फ़िल्म में सीजीआई की प्रारम्भिक अवस्था का प्रमाण मिलता है। इन फ़िल्मों ने भविष्य में डिजिटल बदलाव के प्रबल संकेत दिए। इसके कुछ एक वर्षों बाद ही अंतर्राष्ट्रीय सहयोग व साझेदारी के कारण फ़िल्म निर्माताओं की पहुँच अत्याधुनिक वीएफएक्स तकनीकों तक जा पहुँची। ‘रोबोट’, ‘रा-वन’, ‘ब्रह्मास्त्र’, और ‘आर॰आर॰आर॰’ फ़िल्मों में ये प्रभाव देखने को मिलते हैं। सीजीआई तकनीक से बने दृश्य प्रभाव फ़िल्मी संसार की सर्वाधिक उन्नत तकनीक मानी जाती है। इस तकनीक में ‘कम्प्यूटर ग्राफ़िक्स’ का विशिष्ट अनुप्रयोग किया जाता है। इसमें विभिन्न प्रकार के इमेजिंग सॉफ़्टवेयर प्रयोग कर स्थिर या ऐनिमेटेड दृश्यों का निर्माण किया जाता है। इसमें कम्प्यूटर सॉफ़्टवेयर के माध्यम से पूर्णत्या काल्पनिक दृश्य बनाए जा सकते हैं जो आसानी से वास्तविक दृश्यों के साथ जुड़ जाते हैं। दृश्य की शूटिंग के समय बैकग्राउंड में एक हरा या नीला पर्दा लगा दिया जाता है, उसके बाद सीजीआई सोफ्टवेयर की सहायता से उस पर्दे के स्थान पर एक काल्पनिक दृश्य बना दिया ज़ाता है जो बिल्कुल वास्तविक दृश्य प्रतीत होता है। “एक्टर को लोकेशन या मार्क देने के लिए हरे या नीले रंग के पर्दे पर कुछ निशान चयनित किए जाते हैं ताकि पर्दे पर शूटिंग की जाने वाली गतिविधियों को ऐनिमेशन या विजुअल इफ़ेक्ट्स से बदल सके।”8 यही वजह है कि ‘तुम्बाड’ और ‘बाहुबली’ फ़िल्मों के काल्पनिक और लुभावने दृश्यों ने दर्शकों का खूब प्यार बटोरा।

ऐनिमेशन वीएफएक्स का सर्वाधिक लोकप्रिय प्रकार है। यह स्थिर छवियों को गतिशील छवियों में परिवर्तित करने की तकनीक है। मनोरंजन उद्योग में ऐनिमेशन दृश्य प्रभाव का एक प्रमुख कलात्मक माध्यम बनकर उभरा है। ऐनिमेशन की सहायता से पर्दे पर निर्जीव चित्रों में प्राण फूँककर उनसे अभिनय करवाया जाता है। “सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में ऐनिमेशन का कार्य बहुत तेज़ी से फैल रहा है। 2005 में भारतीय ऐनिमेशन बाज़ार का आकार 28.5 करोड़ अमेरिकी डॉलर था जो 2009 में बढ़कर 95 करोड़ अमेरिकी डॉलर के लगभग हो गया था।”9 आज यह लगभग 460 मिलियन अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा है। ऐनिमेशन के प्रारम्भिक दौर में ‘पारदर्शी सेल्यूलाइड शीट’ पर चित्रित छवियों को हाथ से खींचा जाता था, अनेक भंगिमाओं के चित्र बनाकर एक साथ मिश्रित किया जाता था जिससे उन्हें एक साथ फ़ोटोग्राफ़ किया जा सके और फ़िल्म में दर्शाया जा सके। ‘स्टॉप मोशन’ ऐनिमेशन एक पारम्परिक ऐनिमेशन प्रक्रिया है जिसमें विभिन्न वस्तुओं को (कठपुतलियाँ, मॉडल या मिट्टी की आकृतियाँ) फ़ोटोफ़्रेम के बीच छोटे-छोटे अंतराल में अलग-अलग शारीरिक बदलाव के साथ रखा जाता है। अभिनेताओं के साथ निभायी गयी इस प्रक्रिया को ‘पिक्सिलेशन’ व काग़ज़, कपड़े और तस्वीरों के ‘स्टॉप मोशन’ ऐनिमेशन को ‘कटआउट ऐनिमेशन’ कहा जाता है। ये सभी भौतिक वस्तुएँ हैं। “इसका मतलब है कि भौतिक वस्तुओं को एक भौतिक कैमरे के सामने एनिमेटेड किया जा रहा है, और एक एनिमेटर भी इस प्रक्रिया के दौरान शारीरिक रूप से शामिल है। इन सभी शैलियों में काम करते समय शरीर के साथ-साथ दिमाग का भी उपयोग होता हैं।”10 ये पारंपरिक ऐनिमेशन प्रक्रियाएँ कम्प्यूटर जनित नहीं हैं। इसलिए कम खर्चीली मानी जाती हैं। वर्तमान में सीजीआई (कम्प्यूटर जनित कल्पना) का सहयोग  ले कर ऐनिमेशन को और भी प्रभावी बना दिया गया है। 

ऐनिमेशन ने ऐतिहासिक एवं पौराणिक कथ्यों के लिए ऊँची तकनीक और बड़े बजट की बाधा को पार कर भारतीय दर्शकों में इन कथानकों को पहुँचाया है। धार्मिक कथाओं पर आधारित ऐनिमेटिड फ़िल्में इसका उदाहरण हैं। “दर्शकों को नए किरदारों के साथ नई कहानी सुनाने की तुलना में किसी जानी-पहचानी कहानी को रोचक तरीके से सुनाना ज़्यादा आसान है। इसके अलावा, ऐसे समाज में जहाँ दादी-नानी की कहानियों की जगह वीडियो गेम और स्मार्ट फोन गेम्स ने ले ली है, एनिमेशन फिल्में बच्चों को भारतीय पौराणिक कथाओं, महाभारत और रामायण जैसे भारतीय महाकाव्यों से परिचित कराने का एक बेहतर और स्वागत योग्य तरीका है।”11 दादा साहेब फाल्के ने 1912 ईस्वी में भारत की पहली ऐनिमेशन फ़िल्म ‘दी ग्रोथ ओफ़ अ पेन प्लांट’ बनायी थी किंतु कुछ अपरिहार्य कारणों से यह फ़िल्म रिलीज़ नहीं हो पायी। इसके बाद धीमी रफ़्तार से ही सही ऐनिमेशन फ़िल्मों का निर्माण होने लगा था। कुछ हिंदी फ़िल्मों में थोड़ा बहुत अंश ऐनिमेशन कला का जोड़ा जाने लगा। ‘राजू चाचा’, ‘हम-तुम’, ‘मैं प्रेम की दीवानी हूँ’ जैसी फ़िल्में इसका उदाहरण हैं। इसके उपरांत पांडवास, अली बाबा, सन ऑफ़ अल्लाहदिन, सिंदबाद और भागमती जैसी फ़िल्में ऐनिमेशन विधा से बनायी गयी। सिंदबाद भारत की पहली ऐनिमेटिड फ़िल्म है लेकिन भारत की सबसे पहली सफल ऐनिमेटिड फ़िल्म का दर्जा ‘हनुमान’ फ़िल्म को दिया जाता है। “महज़ तीन करोड़ की लागत वाली इस फ़िल्म ने अपने शुरुआती पचास दिनों में ही बारह करोड़ का कारोबार किया था।”12 इस फ़िल्म की सफलता ने ऐनिमेशन फ़िल्म उद्योग में क्रांति लाने का काम किया। इस फ़िल्म को बनने में दो वर्ष का समय लगा था। आज कई विदेशी कंपनियों के टीवी प्रोग्राम और फ़िल्में भारत के ऐनिमेटर तैयार कर रहे हैं। फ़िल्मशास्त्री अजय ब्रह्मताज के अनुसार “यह तो हमारे ऐनिमेटरों की योग्यता है। वे साबित कर चुके हैं कि अगर उन्हें सही योजना और कल्पना के साथ कोई प्रोजेक्ट दिया जाए तो वे कमाल दिखा सकते हैं।”13

ऐनिमेशन कला को प्रत्येक वर्ग का दर्शक मिलता है। विदेशों में इस तकनीक की सफलता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस वर्ग के लिए एक अलग से ऑस्कर पुरस्कारों की श्रेणी बनायी गयी है जिसमें कड़ा मुक़ाबला होता है। ऐनिमेशन उद्योग की सबसे बड़ी समस्या इसकी निर्माण अवधि है। ऐनिमेशन फ़िल्म बनाने में न्यूनतम दो वर्ष का समय लग जाता है जिससे इसका खर्च भी बढ़ जाता है। उसके बाद भी अगर फ़िल्म न चले तो इसके निर्माताओं को एक बड़ी आर्थिक हानि का सामना करना पड़ता है। “विकसित बाजार का अभाव, व्यावसायिकता का निम्न स्तर तथा प्रौद्योगिकी में नगण्य निवेश, भारतीय एनीमेशन उद्योग के समक्ष आने वाली कुछ चुनौतियां हैं, जिन्हें प्राथमिकता के आधार पर दूर करने की आवश्यकता है ताकि इस उद्योग को उच्च विकास पथ पर लाया जा सके।”14 यही कारण है कि ऐनिमेटिड फ़िल्मों का वितरण भी एक समस्या बन जाता है। भारत की हर कम्पनी यह जोखिम नहीं उठा सकती। कुछ प्रभावशाली कम्पनियाँ ऐनिमेटिड फ़िल्मों में फ़िल्मी दुनिया के प्रसिद्ध अभिनेताओं से आवाज़ की डबिंग कराती हैं ताकि ऐसी फ़िल्मों की सफलता और अधिक सुनिश्चित की जा सके। 

भारत के ऐनिमेशन उद्योग के समक्ष तकनीकी समस्याएँ भी खड़ी हैं। भारत की मल्टीडाईमेन्शनल ऐनिमेशन कला अभी भी उन्नत अवस्था में नहीं है। यहाँ की कम्पनीयाँ अधिकांशतः केवल टू-डी या टूडाईमेन्शन ऐनिमेशन का संचालन कर रही हैं जबकि ज़माना फ़ाइव डाईमेंशन का चल रहा है। नि:संदेह भारत में ऐनिमेशन फ़िल्में कम दाम में बन रही हैं परंतु लागत और तकनीक के स्तर पर हॉलीवुड की फ़िल्में भारत से कहीं ऊँचे पायदान पर हैं। भारत में ऐनिमेशन कला को शासन से विशेष अपेक्षाएँ हैं। “चूंकि यह सेवा श्रम-प्रधान हैं, इसलिए इस क्षेत्र में रोजगार में वृद्धि हुई है, अब भारतीय कंपनियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती सही कौशल स्तर वाले कर्मचारियों को ढूंढना है।”15 जिस प्रकार शासन आई.आई.टी. जैसे तकनीकी पाठ्यक्रमों को हर स्तर पर वरीयता एवं सहायता प्रदान करता है उसी स्तर पर ऐनिमेशन जैसे पाठ्यक्रमों को मिलने लगे तो इस क्षेत्र से नयी-नयी प्रतिभाओं का आगमन होने लगेगा जिससे यह कला न केवल भारत में अपितु विश्वस्तर पर उभरने और निखरने लगेगी।

निष्कर्ष : सिनेमा के प्रारम्भिक दौर में स्पेशल इफ़ेक्ट्स का प्रयोग कुछ ख़ास परिस्थितियों में ही किया जाता था लेकिन आज यह हर फ़िल्म का ज़रूरी हिस्सा है। अत्याधुनिक ऐनिमेशन तकनीक व वीएफएक्स प्रभावों ने पटकथा में निहित जटिल से जटिल विषयों तक दर्शकों की पहुँच को क़ायम किया है। वर्तमान में एसएफएक्स और वीएफएक्स जैसी तकनीकों को अलग-अलग करने वाली रेखाएँ धुँधली पड़ती जा रही हैं। पटकथा के प्रभावी फ़िल्मांकन के लिए फ़िल्म निर्माताओं द्वारा दोनों के संतुलन का प्रयास किया जा रहा है क्योंकि दोनों ही अपनी पृथक ताक़त एवं सीमाओं से परिपूर्ण हैं। भारतीय फ़िल्म निर्माताओं ने नयी-नयी तकनीकों को अपनाकर फ़िल्म उद्योग को विविधताओं से समृद्ध कर दिया है। ऐसे में कहा जा सकता है कि सिनेमाई सृजनात्मकता का उज्जवल भविष्य विभिन्न तकनीकों को चतुराई और सहजता से मिश्रित करने के कौशल में निहित है।


संदर्भ :

1.मृदुला पंडित, सिनेमा और यथार्थ, वाणी प्रकाशन, 2023, पृष्ठ संख्या 118

2.संपादक गोविंद निहलानी, गुलज़ार, सईबल चटर्जी, ऐनसाईक्लोपीडिया ऑफ़ हिंदी सिनेमा, ऐनसाईक्लोपीडिया ब्रिटानिका पब्लिकेशन, पृष्ठ संख्या 195

3.https://www.thehansindia.com/posts/index/Cinema/2015-03-16/Tricks-Lenses-ingenuity-and-creativity/137746?infinitescroll=1

4.https://www-digitalstudioindia-com.translate.goog/production/cinema/indian-cinemas-prosthetic-revolution-a-look-at-transformative-makeup-moments-over-two-decades?_x_tr_sl=en&_x_tr_tl=hi&_x_tr_hl=hi&_x_tr_pto=tc

5.डॉक्टर सेवा सिंह बाजवा, दी फ़ासेट्स ऑफ़ इंडीयन सिनेमा, के. के. पब्लिकेशन, 2021, पृष्ठ संख्या 241

6.ओमिता गोयल, रतीश राधाकृष्णन, सुभाजीत चटर्जी, एस वी श्रीनिवास, इंडियन सिनेमा-टुडे एंड टोमोरो, टेलर एंड फ़्रैन्सिस पब्लिकेशन, 2024, भाग 6

7.चंदन सिंह राठौर, सिनेमा तकनीकी ज्ञान, फ़ेयरीटेल पब्लिकेशन, 2018, पृष्ठ संख्या 169

8.डॉक्टर सुनैना एवं विकास कुमार बेरवाल, फ़िल्म मेकिंग, बुक्सक्लिनिक पब्लिशिंग, 2023, पृष्ठ संख्या 91

9.डॉक्टर रवीन्द्रनाथ मुखर्जी व डॉक्टर भारत अग्रवाल, भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक आंदोलन, एसबीपीडी पब्लिकेशन, 2022, पृष्ठ संख्या 66

10.क्रिस्टोपेर वॉल्श, स्टॉप मोशन फ़िल्ममेकिंग, ब्लूम्ज़बेरी पब्लिशिंग, 2019, पृष्ठ संख्या 17

11.https://www-indianetzone-com.translate.goog/28/animation_films_indian_cinema.htm?_x_tr_sl=en&_x_tr_tl=hi&_x_tr_hl=hi&_x_tr_pto=tc

12.डॉक्टर बानो सरताज क़ाज़ी, बाल साहित्य के सोपान, कल्पना प्रकाशन, 2021, पृष्ठ संख्या 61

13. अजय ब्रह्मताज, सिनेमा समकालीन सिनेमा, वाणी प्रकाशन, 2012, पृष्ठ संख्या 247

14.https://m.economictimes.com/industry/media/entertainment/indian-animation-industry-faces-several-challenges/articleshow/2751805.cms

15.डीयाना बोरोकलफ़ व जेलका कोज़ुलराइट, क्रीएटिव इंडुस्ट्रीज़ एंड डिवेलपिंग कंट्रीज़, टेलर एंड फ़्रैन्सिस पब्लिकेशन, 2012, पृष्ठ संख्या 179


स्वाति

सहायक आचार्या, हिंदी, राजकीय महाविद्यालय सरस्वतीनगर(यमुनानगर)

swati571988@gmail.com 7252975701

  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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