शोध सार : अकबर पदमसी
(1928-2020) भारत के एक प्रसिद्ध कलाकार और बॉम्बे प्रोग्रेसिव समूह के सदस्य हैं। प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप को संक्षिप्त में ‘पैग’ अथवा
‘PAG’ के नाम से भी जाना जाता है। यह समूह सन
1947 में एफ. एन. सूजा ने शुरू किया था। इस प्रकार वे इस समूह के संस्थापक सदस्य हुए। इस समूह के सदस्यों ने चित्र बनाने के लिए ऑइल पेंट को अपनाया। वॉल्टर लंगहैमर को भारत के आधुनिक ऑइल पेंट की चित्रकला के सबसे प्रसिद्ध घराने ‘बॉम्बे प्रोग्रेसिव्स’ के संस्थापकों में से एक माना जाता है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया से जुड़े रुडोल्फ वेन लिंडन, वॉल्टर लंगहैमर और एमानुएल स्लेसिंगर ने बम्बई में हो रहे भारतीय कला की आलोचना की।
यह शोध पत्र अकबर पदमसी के कार्यों पर आधारित है, जिसका उद्देश्य है कि चित्रकला की पद्धति द्वारा विभिन्न प्रकार की कलाकृति के पहलुओं पर चर्चा की जाए। साथ ही साथ इस शोध पत्र में पदमसी के द्वारा चुने गए चित्रकारी के माध्यम, तकनीक, विधि और सतह पर भी प्रकाश डाला गया है। कलाकार ने हर एक अवधि को दिखाने के लिए अलग-अलग माध्यम, विषय और सतह का उपयोग किया है। पदमसी के कार्य के विषय की भी चर्चा इस शोध पत्र में की गई है।
बीज शब्द : बॉम्बे प्रोग्रेसिव ग्रुप, अकबर पदमसी, मॉडर्न इंडियन आर्ट, ऑइल पेंट, मेटास्केप, कला इतिहास, कला इतिहासकार, आधुनिक कला, भारतीय कला, पेंटिंग।
मूल आलेख : सन
1940 के दशक को भारतीय आधुनिक कला का महत्त्वपूर्ण समय माना जाता है।
1947 में ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप’ की स्थापना हुई और इस समूह ने चित्रकला के क्षेत्र में जो पहले से चले आ रहे मानक थे उससे अलग हटकर विषयों को प्रस्तुत किया। इस समूह ने चित्रकला के क्षेत्र में किसी भी प्रकार की स्थानीयता अथवा राष्ट्रीयता को खारिज करते हुए कला को अपनी समग्रता में तथा किसी भी तरह की भौगोलिक सीमाओं के परे विश्व स्तर पर देखने का प्रयास किया। ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप’ बहुत अल्पकालिक ग्रुप रहा लेकिन इसके बावजूद इस ग्रुप ने एक ऐसा नज़रिया विकसित किया, जिससे बाद में इस समूह से जुड़े कलाकारों एवं अन्य स्वतंत्र कलाकारों को प्रेरणा मिली। अंग्रेजों द्वारा कला स्कूल की स्थापना के बाद अगर भारतीय आधुनिक कला के समय का मूल्यांकन किया जाए तो यह स्पष्ट होगा कि उस दौर में प्रायः कला का एक सा स्वरूप चला आ रहा था। अब चाहे वह भारतीय शैली हो अथवा शांतिनिकेतन के लोक जीवन से प्रभावित चित्रशैली। जबकि प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के लिए कला का मतलब व्यक्तिगत स्वतंत्रता रहा है। उन्होंने कलाकार को किसी शैली से बांधने की जरूरत नहीं समझी।
1928
में जन्मे पदमसी जो कि बाद में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप से जुड़े, उनके कार्यों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कला का वैश्विक स्वरूप देखा जा सकता है। पदमसी एक कलाकार, फोटोग्राफर, कंप्यूटर ग्राफिक्स, मूर्तिकार और लेखक के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स से ली तथा स्नातक के बाद वे सन्
1951 में पेरिस के लिए रवाना हो गए।
1965 ई. में उन्हें ‘रॉकफेलर 3rd
फंड स्कॉलरशिप’ प्राप्त हुई, अतः उन्हें स्टाउट स्टेट यूनिवर्सिटी, विस्कोंसी में आवासीय कलाकार के रूप में आमंत्रित किया गया। उन्हें
1969–70 में नेहरू फेलोशिप भी प्राप्त हुई। बाद के दिनों में उन्होंने
‘SYZYGY’ नाम से एक शॉर्ट फिल्म भी बनाई जिसमें उनके बनाए हुए ज्यामितिक कलाकृतियों का एनीमेशन किया गया। भारत में भी उनकी प्रसिद्धि कम नहीं थी, समय-समय पर उनकी कलाकृतियों के संदर्भ में कई सारी प्रदर्शनियां लगी।
1947
में प्रोग्रेसिव समूह के सभी कलाकारों का एक साथ मुंबई में आना हुआ, जिसका उद्देश्य एक ऐसी कला का सृजन करना था, जो अंतर्राष्ट्रीय प्रवृत्तियों के साथ तो जुड़ी हुई थी, लेकिन अपनी वास्तविकता को अधिक प्रतिबिंबित करती थी। उन्होंने कला विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली अकादमिक शिक्षा को अस्वीकार कर दिया, साथ ही बंगाल स्कूल के यथार्थवादी तरीकों को भी खारिज कर दिया, तथा एक ऐसी कला की शुरुआत की जो वर्तमान की आवश्यकताओं से संबंधित थी। जो एक नए प्रकार की कला को अपने साथ लेकर आए थे (हाशमी एवं डालमिया,
2007:132)। इस समूह के प्रमुख चित्रकार एफ. एन. सूजा, एस. एच. रजा, एम. एफ. हुसैन, के. एच. आरा, एस. के. बाकरे और एच.
ए. गाड़े हैं।
1950 के आसपास इस समूह से कुछ नए चित्रकार भी जुड़े, जिनके नाम हैं – राम कुमार, अकबर पदमसी, तैय्यब मेहता, कृष्ण खन्ना, मनीषी डे, मोहन सामंत और वासुदेव एस. गायतोंडे (पुरी,
2007: 139)।
बम्बई में संघर्ष करने वाले लगभग चित्रकार ‘प्रोग्रेसिव कलाकार समूह’ के सदस्य हो चुके थे। अकबर पदमसी भी उन्हीं में से एक थे। इस समूह में कार्य करने वाले कलाकारों की शैली अमूर्त तथा अर्ध-अमूर्त थी। कुछ चित्रकार ऐसे भी थे जिन्होंने आकृतियों का अध्ययन नए रूप में किया था। इन कलाकारों में एम. एफ. हुसैन, एफ. एन. सूजा, अकबर पदमसी और तैय्यब मेहता आते हैं। इसी कड़ी में इस समूह के कलाकारों को देश के बाहर अध्ययन का मौका भी मिला। यही कारण था कि हमें इनकी शैली में भारतीय एवं यूरोपियन दोनों ही शैलियों का सम्मिश्रण मिलता है। इस क्रम में इनकी कला नवीन और अलग प्रतीत होती है। कला स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले अकादमी प्रशिक्षण को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। उन्होंने
बंगाल स्कूल के पुनरुत्थानवादी विधि का भी विरोध किया और एक ऐसी कला की शुरुआत की जो वर्तमान की आवश्यकताओं से संबंधित थी (हाशमी एवं डालमिया,
2007:132)। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर से जुड़ने के लिए ‘इंडियन अवंत गार्ड’ प्रस्तावित किया।
इन कलाकारों ने अपनी रचनाओं में ऑइल पेंट को प्रमुखता दी। पदमसी की सृजन क्षमता
मुख्यतः उनके ‘दृश्य चित्रण’ में मिलती है। अपनी कलाकृतियों में उन्होंने कल्पना का सुंदर प्रयोग किया है जो अपने आप में विशिष्ट है। इन्होंने बहुत सारे विषयों पर एक शृंखला तैयार की। इसमें सुप्रसिद्ध ‘पोट्रेट’, ‘मेटास्केप’, ‘ग्रे न्यूड’ और ‘न्यूड फोटोग्राफी’ प्रसिद्ध हैं। इसके साथ-साथ इन्होंने अपने चित्रकला में वाटर कलर और चारकोल से भी काम लिया (पुरी,
2007: 138)। अपनी कला के प्रारंभिक दौर में पोट्रेट का निर्माण, उसके बाद में ‘मेटास्केप’ और इसी कड़ी में ‘मिरर इमेजेस’ की शृंखला भी निर्मित हुई।
2004 में इनका रुझान फोटोग्राफी की तरफ भी हुआ। इसमें भी विषय प्रायः वही थे जो उनकी कला कृतियों में मिलते हैं।
उनकी कला महानगर में अवश्य विकसित हुई किंतु उसकी हलचल, राजनीति और सामाजिक मुद्दे कभी भी उनकी कृतियों का विषय नहीं बन सके (पुरी,
2007: 143)। उनके कृतियों के विषय थे - ‘पोट्रेट चित्रण’ तथा ‘न्यूड अध्ययन’ जिसमें उन्होंने शोक, दु:ख एवं अन्य विभिन्न मनः स्थितियों को दर्शाया है। मेटास्केप और मिरर चित्र में दर्शनशास्र, उपनिषद और अभिज्ञान शाकुन्तलम् के मूलपाठ से, वे प्रेरित नज़र आते हैं। महिलाओं की न्यूड फोटोग्राफी में लचीलापन तथा यौन सुख को दिखाया गया है। उनके कामों में यह भी देखा जा सकता है कि जीवन से भ्रमित व्यक्ति एकांत में कैसे खो जाते हैं, साथ ही व्यक्ति का भ्रम भी उनकी कृतियों में स्पष्ट नज़र आता है। उनके कुछ कामों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वे बंद कब्र और गहरे आत्मनिरीक्षण में लगे हैं। यदि हम उनके अमूर्त अलंकरण को देखें जिसमें उन्होंने न्यूड का अध्ययन किया है तो उसमें भी उन्होंने कामुकता को दिखाने का प्रयास किया है (पुरी,
2007: 143)। पदमसी के चरित्र क्लासिक से संबंधित हैं। उनकी कृतियों के चरित्र अधिक दार्शनिक मामलों पर विचार करते हैं जैसे- पीड़ा और आनंद का भाव, जीवन और मृत्यु। उनका दृश्य चित्रण या मेटास्केप शृंखला में बड़े-बड़े घाटियों जैसे भू-तल को चमकीले क्रिम्सन लाल रंगों से दिखाया गया है, इनकी यह शृंखला लोगों को मंत्रमुग्ध कर देने वाली है।
मेटास्केप और अमूर्तन
पदमसी की रचना में माध्यम और विषय दोनों की विभिन्नताएं देखी जा सकती हैं। उन्होंने पोट्रेट को अलग-अलग प्रयोगात्मक शैली के माध्यम से दिखाया है। उनकी सृजनात्मकता को एक तरह की शृंखला अथवा चरणों में भी देखा जा सकता है। उन्होंने अपनी रचनाओं की विभिन्न शृंखलाओं में अलग-अलग विषय को स्थान दिया है, जैसे ‘मेटास्केप शृंखला’ में दृश्य चित्रण को ‘पॉइंटीलिस्ट शैली’ से प्रस्तुत किया गया है। ‘मिरर इमेजेस’ उनकी दूसरी शृंखला है। इन दोनों रचना शृंखला के भीतर विषय और शैली में एक प्रकार की समानता देखी जा सकती है। जब हम उनके ‘कंप्यूटर ग्राफिक्स’ के काम को देखते हैं तो कलाकार की एक दूसरी झलक दिखती है जो उनके पहले के कामों में नहीं दिखती। इतना ही नहीं उन्होंने फोटोग्राफी में भी अपने चित्रकारी को बखूबी प्रस्तुत किया है। फोटोग्राफी में चुना गया विषय न्यूड था जिसमें उन्होंने महिलाओं के न्यूड को इस तरह पेश किया जिसमें शरीर की रूपरेखा, वक्र रेखा और छाया-प्रकाश को दिखाने के लिए ‘काइरोस्कोरो तकनीक’ का उपयोग किया गया है। इसी कारण चाहे वह चित्र चारकोल में हो अथवा ड्राइंग में, तैल रंग में बनाए गए हों या प्लास्टिक इमल्शन से, फोटोग्राफी के माध्यम से हों अथवा कंप्यूटर ग्राफिक्स से, प्रत्येक माध्यम में उनकी दक्षता और दृढ़ता को देख सकते हैं।
1952
के शुरुआत में न्यूड और पोट्रेट चित्रण
1952
में पेरिस प्रवास के दौरान ‘न्यूड स्टडी’ तथा ‘पोट्रेट’ पर काम किए। चित्र की खासियत यह है कि इनकी संरचना ईसा मसीह के स्वरूप से प्रभावित है, साथ ही साथ इनका भाव शांत स्वरूप का दिखाया गया है। उनके इन चित्रों में दुख और उदासी के बावजूद एक समभाव की स्थिति देखी जा सकती है जो यह दर्शाती है कि यह जीवन के भाव हैं जिनसे होकर सबको गुजरना है। इनके चित्र ‘बीब्लिकल थीम’ से प्रभावित रहे हैं (चित्र 01)। इनके कार्य में काइरोस्कोरो (छाया-प्रकाश) का एक अनूठा समन्वय दिखता है।
इस पेटिंग का शीर्षक ‘क्राइस्ट’ है। इस न्यूड पेंटिंग में पीले रंग का लाइट और डार्क शेड देखा जा सकता है। उन्होंने क्रोम यल्लो, डीप यलो, नारंगी और बहुत कम मात्रा में सफेद रंग का प्रयोग किया है (चित्र 02)।
प्राचीन सभ्यताओं, धर्म और दर्शन का इनके कार्यों पर पर्याप्त प्रभाव दिखता है।
1952 की उनकी एक रचना ‘वुमन विद कॉर्न’ देखने में ऐसे प्रतीत होता है जैसे वह किसी प्राचीन सभ्यता की देवी हो। चित्र में काले रंगों की बाह्य आकृति या रेखांकन देखा जा सकता है (चित्र 03)। पार्श्वभूमि को गहरे रंगों से उकेरा गया है जिससे चित्र निखर कर बाहर आ सके और लोगों का पूरा ध्यान सिर्फ चरित्र पर केंद्रित हो। इस चित्र में सौंदर्य का ऐसा बोध प्रदर्शित नहीं है जिससे मांसलता उद्घाटित हो।
1960
के ग्रे न्यूड
पदमसी के ग्रे न्यूड चित्र में फ्लैट ब्रश स्ट्रोक के साथ-साथ छाया अथवा शैडो और प्रकाश को बहुत व्यवस्थित तरीके से दिखाया गया है। इस दशक की कृतियों में प्लास्टिक इमल्शन और ऑयल पेंट का सम्मिश्रण है जिसमें ज्यादातर कमर के ऊपर की आकृति को दर्शाया गया है (चित्र 04)। इस चित्र को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि यह लोग बहुत उदास और पीड़ा में हैं, चेहरे पर उदासीनता है और झुकी हुई आंखों के पीछे दर्द छिपा हुआ है।
1974
में मेटास्केप शृंखला का निर्माण
उन्होंने कुछ अमूर्तन कार्यों की एक प्रदर्शनी सन
1974 में मेटास्केप के नाम से की थी। मेटास्केप को माइंड बॉर्न इमेज भी कह सकते है। ऐसे स्केपस या दृश्य जिसमें वास्तविक जगहों का यथार्थ बोध ना हो वह पौराणिक कथा के जैसे लगते हैं। इस प्रदर्शनी में पदमसी कहते हैं,
"मैं दृश्य चित्रण चित्रकार नहीं हूँ। मैं दृश्य चित्रण या किसी स्थानों में रुचि नहीं रखता, मेरा सामान्य विषय प्रकृति है, जो पहाड़, पानी, तत्वों तथा बेशक पर्यावरण से प्रभावित हैं।"
लेकिन वह राजस्थान के मरुस्थल के चित्र बनाने में रुचि नहीं रखते। जब कलाकार चित्रकार पेड़, पहाड़ अथवा नदी चित्रित करते हैं तब उनकी वास्तविक रूचि 'दि माउंटेन', 'द ट्री', 'द रिवर' में होती है। उनकी पेंटिंग न तो पूर्ण रूप से मूर्त होती है न ही प्रतिनिधित्ववादी। उन्होंने हमेशा कोशिश की है कि जो पेंटिंग उन्होंने पहले बनायी है और जो वे अभी बना रहे हैं उनमें पहले की अपेक्षा प्रक्रिया स्तर पर तथा निष्कर्ष में भी अंतर हो। वे पूर्व की अपेक्षा कुछ अलग अथवा नवीन चित्रित करें। वह केवल विषय के बदलाव के लिए ऐसा नहीं करते बल्कि अर्थ के परिवर्तन के लिए भी करते हैं। अर्थ का मतलब यहाँ पर यह है जिसके बारे में हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं वह है माध्यम या पैमाना या स्थानीय अस्थाई संबंध। मेटास्केप शृंखला आदिम दुनिया, आदर्श आकार की दुनिया, मेटास्केप की ख्याति, शांत, सामंजस्यपूर्ण निहित है (चित्र 05)। प्रत्येक कैनवस में नदी, धरती, आसमान, वृक्ष जैसे चार तत्वों को जोड़ा गया है। पदमसी अपने कामों में ज्यादातर चमकदार और चटकीले रंगों का इस्तेमाल करते हैं जिससे उनकी कृतियां जीवंत दिखती हैं (मारवाह:
34)।
उनका कहना है कि उनके द्वारा प्रस्तुत रंग संयोजन और उसमें इस्तेमाल तकनीक, बहुत व्यक्तिगत है। दर्शक, प्रायः पूर्ण कृति को देखते हैं और उनके लिए रंगों के ऊपर रंगों की जो एक सतह बनती है उसके पीछे का तंत्र समझना थोड़ा मुश्किल है। क्योंकि उनके लिए रंगों का चुनाव उसका एप्लीकेशन का एक अपना संदर्भ है, जो कि उनके आध्यात्मिक चिंतन, संस्कृति तथा अन्य भाषाओं के अध्ययन अथवा धर्मों आदि के अध्ययन से विकसित होते हैं। पदमसी के काम में आंतरिक और बाह्य विश्व दोनों का समावेश है। पदमसी कहते हैं - छः शब्द जो कला में प्रयोग होते हैं -- विभावानुभाव - व्यभिचारी - संयोगाद्रसनिष्पत्ति (स्त्रोत: यूट्यूब)।
पदमसी कहते हैं -
"मैं कभी रंग लगाते समय यह नहीं सोचता कि वह चित्र कैसा दिखेगा लेकिन कैसे वह मूव करेगा।"
वह रंगों का गति के रूप में वर्णन करते हैं। वह रंगों को गति की संज्ञा देते हैं, उनका मानना है कि रंगों में एक गति होती है जो खुद ब खुद केवल कलाकार ही इस तीव्र गति को समझ सकते हैं, साधारण मनुष्य शायद से सिर्फ रंगों का बदलाव देख सकते हैं।"
इसका मतलब यह हुआ कि लाल के ऊपर लाल ही लगाएं या पीला के ऊपर पीला रंग की तीव्रता को अभूतपूर्व सीमा तक ले जाना या खींचना।
1975
में उनके द्वारा जो भूचित्रण तैयार किया गया उसमें भी ब्रश के टेक्सचर और स्पेटुला से रंगों को लगाया गया है। इस काम में भी ऑइल पेंट का उपयोग किया गया है। इस कृति में अर्द्ध चंद्र तथा एक गोलाकार आकृति को दिखाया गया है जो पीला, लाल और नारंगी रंग में है बचे हुए कैनवास को लाल, नारंगी, पीला एवं अन्य नजदीकी रंगों से उकेरा गया है।
मेटास्केप में ज्यादातर ज्यामितीय आकार का इस्तेमाल किया गया है तथा कैनवास को दो से तीन भागों में विभाजित किया गया है। इसमें अर्द्ध चंद्र, त्रिभुज, आड़ी-तिरछी रेखा, ज्यामितीय आकार और साथ ही साथ दूर के खेतों को दिखाने के लिए एक खास परिप्रेक्ष्य का उपयोग किया गया है। लेखक और इतिहासकार ने भी अपनी किताबों में इस बात की पुष्टि की है कि कलाकार जो रंग लगाते हैं उनके रंगों की प्रेरणा अमृता शेरगिल के चित्र से ली गयी है (चित्र 06)।
उन्होंने जो रंग अपने कैनवास पर लगाए हैं वह बहुत ही परिकलन के साथ ही हम उनके रंगों में एक गणितीय प्रभाव भी देख सकते हैं। उन्होंने नकारात्मक और सकारात्मक बोध दोनों को अपने रंगों से दर्शाया है। कुछ आकार का भी इस्तेमाल किया गया है जो कि ज्यामितीय हैं।
निष्कर्ष : पदमसी ने एक कलाकार के रूप में लंबा जीवन व्यतीत किया और उन्होंने बहुत सारे माध्यमों में काम किया। इस पूरी अवधि को देखने से ऐसा लगता है कि वह एक बहुमुखी कलाकार हैं। उनके काम में भारतीय दर्शन, उपनिषद, संस्कृति के साथ-साथ विभिन्न देश की संस्कृतियों का प्रभाव दिखता है। उनकी कला का स्वरूप बहुत अलग था और प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के कलाकारों से उनका कार्य संबंधित था। इन्होंने राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी कला का प्रदर्शन किया और अपनी पहचान बनायी। इनके काम में कुछ गिने-चुने
रंगों का समावेश है जैसे पीला, नीला, नारंगी, लाल, भूरा और बहुत कम मात्रा में सफेद का उपयोग किया है। इनके काम का जो विषय था वह है- आलंकारिक चित्रण, न्यूड अध्ययन, चाहे वह ड्राइंग में हो या चारकोल से बनाया गया हो, या फोटोग्राफ से खींचा गया हो। उन्होंने अपने काम में ज्यादातर एक ही रंगों के शेड्स का उपयोग किया है।
अभिस्वीकृति : मैं अपने शोध निर्देशक डॉ. निशांत के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ। उन्होंने समय-समय पर न केवल मेरा मार्गदर्शन किया बल्कि इस आलेख को एडिट करने में भी मेरी सहायता की है। कुमुद रंजन ने भी इस आलेख को एडिट करने में मेरी सहायता की है। इनकी सहायता से यह लेख त्रुटि रहित बन पाया है।
सन्दर्भ :
- Akbar
Padamsee. ‘Sun Moon Metascpaes’. Bombay: Pundole Art Gallery, 1975.
- Akbar
Padamsee. ‘Mirror Images’. Bombay: Pundole Art Gallery, 1994.
- Asima
Bhatt. ‘Samkalin 50’. New Delhi: Lalit Kala Akademi, 2018.
- Bhanumati
Padamsee, & Annapurna, Garimella. ‘Akbar Padamsee: Work in Language’.
Mumbai: Marg Publications and Pundole Art Gallery, 2010, p. 29-33.
- Eunice
de Souza. ‘Akbar Padamsee: Retrospective’. New Delhi: Art Heritage, 1980,
p. 04.
- Gayatri
Sinha. ‘Indian Art an Overview’. New Delhi: Rupa & Co, 2003.
- Ina
Puri. ‘Faces of Indian Art Through The Lens of Nemai Ghosh’. Hyderabad:
Pragati Offset Pvt. Ltd, 2007.
- Mala
Marwah. ‘Akbar Padamsee – A Conversation’. Lalit Kala Contemporary 23. New
Delhi: Lalit Kala Akademi, 1977, p. 34-36.
- Priya
Karunakar. ‘Akbar Padamsee – Nature as Landscape’. Lalit Kala Contemporary
23. New Delhi: Lalit Kala Akademi, 1977, p. 31-33.
- Shamlal
‘Padamsee’ (Book). Bombay: Vaklis, 1964, p. 01-08.
- Yashodhara
Dalmia. ‘Charcoal and Oil on Canvas’. Bombay: Cymroza Art Gallery, 1990.
- Yashodhara
Dalmia & Hashmi. (2007). ‘Memory, Metaphor, Mutation: The Contemporary
Art of Indian & Pakistan’, 2007.
Catalogue
:
- A.
Padamsee. Cymroza Art Gallery. Bombay: 72 Bhulabhai Desai Road, 1980.
- A.
Padamsee, “Exhibition of works on Paper”. Sakshi Gallery, Bombay: Synergy
Art Foundation Ltd, 1992- 1993.
Youtube
:
- A.
Padamsee, Interview by Vandana Shukla, Chandigarh, Lalit Kala Akademi. Sep
10th 2011. Accessed on 10th Sep 2022. https://youtu.be/bTxtQ2BZcBE
45:32 mins.
- A.
Padamsee, Slide Lecture – Chandigarh Lalit Kala Akademi. 9th
Sep 2011. Accessed on 05th Sep 2022 https://youtu.be/qJRFgR8x-DU
57:39 mins.
Webliography
:
- https://www.mutualart.com/Artwork/Prophet-Series/9517EAB23F93A1D7
- https://www.outlookindia.com/culture-society/this-idle-wild-did-akbar-padamsee-foresee-the-majestic-sweep-of-our-desolations--news-120530
सीनियर रिसर्च फ़ेलो, कला-इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
sarikakumari51@gmail.com, 7277525858
एक टिप्पणी भेजें