कर्म योगी
- श्यामल बिहारी महतो
कामता बाबू को लोग दफ़्तर में गाँधी जी कहा करते थे। कंपनी काम के प्रति पूर्ण समर्पित! यह समर्पण की भावना उनके रिटायरमेंट के बाद भी किसी आदत की भाँति कायम रही। अपने कार्यकाल के दौरान शायद ही कभी ऐसा मौका आया हो, जब उन्होंने किसी मजदूर का काम करने से आनाकानी की हो। दूसरों की सेवा की खातिर सदैव तत्पर रहते। सेवा की यह भावना उनके भीतर एक जुनून की भाँति हरदम विद्यमान रहती थी। कोई अंधे से पूछे कि तुम्हें क्या चाहिए तो नि:संदेह उसका जवाब होगा, " दो आँखें..!" उसी तरह कोई कामता बाबू से पूछता कि आपको क्या चाहिए तो वे कहते, " काम..और काम के सिवाय कुछ नहीं..!" चाहे दफ़्तर का पढ़ाई-लिखाई वाला कोई भी काम हो, बेकार बैठकर समय काटना उन्हें आता नहीं था। लेन-देन के मामले में भी वे अनोखे और अजूबे थे! अपने सर्विस जीवन में रिश्वत तो कभी ली ही नहीं उन्होंने, बस यही कहते रहे, " यह पाप है! नाजायज है! दूसरों का गला दबाना है, उनका हक छीनना है..। "
हाँलाकि इसी गाँधीवादी सिद्धांत को लेकर उनका बड़ा बेटा महेश बाप से खफा - खफा रहता था। दिन भर जाने कहाँ-कहाँ भटकता फिरता और देर रात आकर घर में बाप से लड़ता। दोनों बाप-बेटों के बीच मतभेद कभी कम नहीं हुए। महेश सदैव उबाल में रहता -" कोई कुछ करना चाहे तो कैसे करे? इस घर में गांधी की आत्मा जो वास करती है।"
कामता बाबू कसमसाकर रह जाते। उनके लिए सुकून की बात यह थी कि उनका छोटा बेटा नरेश अपनी बीए की पढ़ाई के साथ-साथ एक अखबार के दफ़्तर में प्रुफ रीडिंग का काम भी सीख रहा था। कामता बाबू को अपने इस होनहार बेटे से ढेर सारी उम्मीदें बँधी हुई थीं।
हाँ,तो कामता बाबू जब यह कह रहे होते कि रिश्वत लेना पाप है,दूसरों का हक छीनना है,तो आस-पास के मुस्कुराते चेहरों से अनभिज्ञ होते। जबकि रिश्वतखोरों के बीच ही हर दिन उनका उठना बैठना होता। देखना तो तब दिलचस्प होता, जब कोई मलकटा सरदार अपने दंगल का तिमाही बोनस या फिर सिक लीव का पैसा चेक करवाने आता और काम के बदले सौ-दो सौ देने लगता तो वे एकदम से उस पर भड़क जाते, " तुम सब मुझे नोट दिखाते हो,कामचोर कहीं के,हमें क्या समझ रखा है,अकाल की ढेंकी..! चल भाग। "
सरदार हंसते हुए भाग खड़ा होता।
तभी कोई कह उठता, "कामता बाबू,आपको इस युग में पैदा नहीं होना चाहिए था। "
कामता बाबू बिना कुछ कहे मुस्कुरा उठते थे। लेकिन ऊपरी आमदनी को इस तरह लतियाता देख सेल विभाग के मास्टर बाबू कुढ़ सा जाता था। खखस कर कह उठता -" कामता बाबू आपको ऐसी जगह नौकरी नहीं करनी चाहिए थी।"
जवाब में कामता बाबू केवल हँस भर देते।
निर्धारित समय पर आफिस आना और गोंद की तरह दिन भर अपने काम पर चिपके रहना उन्हें बहुत भाता था। कंपनी नियम से सदैव बँधे होते। सर्कुलर से कभी इंच भर भी इधर-उधर होते नहीं देखा गया । जोड़-घटाव के मामले में वे खुद एक कम्प्यूटर थे। सालाना बोनस हो या सैलरी, सहकर्मी सब उन्हीं से 'वेरीफाई' करवाते।
अधिकारी भी उनकी बेदाग छवि और ईमानदारी से खासा प्रभावित थे।
लेबर आफिसर अमरीक सिंह तो यहाँ तक कह देते " कामता बाबू, सालाना बोनस पर आपका जोड़ ही अंतिम माना जायेगा..।"
अपने जीवन और काम को उसने रूटीनबद्ध कर रखा था।
आफिस से घर और घर से आफिस। यही उनकी दुनिया थी। बाकी बचा तो सगे- संबंधियों के यहाँ कभी कभार मेहमानी भी कर लेते थे। लेकिन मेला- सिनेमा या अन्य मनोरंजन के साधन कभी उनको आकर्षित नहीं कर सके। हाँ, वक्त निकाल गाँव समाज की बैठकों में जरूर शामिल होते थे,ताकि गाँव का भाईचारा हर किसी के साथ बना रहे।
उनके जीवन के साथ जुड़े कई दिलचस्प प्रसंग आज भी लोगों याद हैं। वह भादौ माह की एक रात थी। अचानक कामता बाबू बिस्तर से उठ बैठे। उन्हें नींद नहीं आ रही थी। रोगों से मुक्त रमा देवी गहरी नींद सो रही थी। कामता बाबू ने धीरे से दरवाजा खोला और बाहर निकल आएँ। घर से आफिस की दूरी महज तीन किलोमीटर की थी। जब वे आफिस गेट के सामने पहुँचे तो रात के दो बज रहे थे और रात्री सुरक्षा गार्ड कुर्सी पर बैठे- बैठे ऊँघ रहा था। उन्होंने धीरे से गेट को धकेला और अंदर आ गए। जेब टटोली, आफिस की चाबी उनकी जेब में थी। पहले उन्होेंने दरवाजा खोला और अंदर जाकर कुर्सी पर बैठ गए। रात को पहली बार अपने ही आफिस में बैठ,अपने ही आफिस का मुआना कर रहे थे। एक अद्भुत अहसास!
जब वापस लौटने लगे तो रात्रि गार्ड लंगन सिंह चौंकता हुआ उठ खड़ा हुआ। पहचानते ही पूछ बैठा -" कामता बाबू आप यहाँ इस वक्त..? "
" घर में नींद नहीं आ रही थी । बाहर निकला तो टहलते हुए इधर आ गया। यहाँ पहुँचा तो देखा,आप कुर्सी पर ही सो रहे हैं..!"
" आप, अंदर भी गये थे..?"
" हां, अंदर गया , आफिस खोला,लाइट जलाई,थोड़ी देर बैठा फिर दरवाजा बंद किया और चल दिया..।"
लगन सिंह सोंच में पड़ गया । उसे लगा इन्हें नींद में चलने की बीमारी है। ताज्जुब है! यह अंदर गया और मुझे पता तक नहीं चला। अगले ही पल क्या सोच वह कामता बाबू के चरणों पर झूक गया था, "कामता बाबू,यह बात पीओ साहब से मत कहिएगा,नहीं तो मेरी नौकरी चली जायेगी..।"
" उठो,नहीं कहूँगा। लेकिन इर तरह सोना ठीक नहीं है,लाखों-करोड़ों की संपति यहाँ पड़ी है, तुम्हारे भरोसे में..चोर लुटेरे हैं..।"
" कसम खाता हूँ, आगे से ऐसा नहीं होगा..!" लगन सिंह ने कहा और कान पकड़ लिए।
लोगों ने सुना तो खूब हंसे " कामता बाबू भी हद करते हैं..!"
इधर कामता बाबू को काफी परेशान देखा जा रहा था । पता चला पत्नी बीमारी से जूझ रही है। एक दिन अचानक फुसरो दवा की दुकान में मिल गए। बीमार- बीमार से लगे । प्रणाम- पाती हुई । तो पूछा " कैसे हैं आप, बीमार लग रहे हैं..?"
लगा हिचक कर रो पड़ेंगे,ऐसा भाव उभर आया उनके चेहरे पर।
" पत्नी बीमार है,उसी की दवा लेने आया हूँ..!"
" क्या हुआ भाभी जी को,मनसा पूजा में देखा था,भली चंगी थी..!" मैं हैरान था।
" दो माह पहले सर में तीव्र दर्द उठा था। डॉक्टर के पास ले गया। एक्स-रे हुआ। देख कर डॉक्टर ने कहा, " इसे कैंसर हो गया है!"
" मुझे विश्वास नहीं हो रहा डॉक्टर साहब..। " मै स्तब्ध था।
" आपके न मानने से इसका कैंसर ठीक नहीं हो जायेगा, जब तक है, दवा चलाते रहिए, रीलीफ मिलेगी..!" डॉक्टर ने जोर देकर कहा था। तब से भाग - दौड़ जारी है..सुधीर बाबू..।"
उन्होंने आगे और भावुक स्वर में कहा, "जानते हैं सुधीर बाबू, जिस दिन मैं रिटायर हुआ, सबसे ज़्यादा रमा ही खुश थी। मुझसे कहने लगी, "अब फुर्सत ही फुर्सत! अब हम जहाँ चाहें,घूम-फिर सकते हैं,रिश्तदारों से मिल सकते हैं, उनसे न मिलने-जुलने की शिकायत भी अब हम दूर कर देंगे।" बेचारी को पारसनाथ पहाड़ भी हम एक बार घूमा न सके,हम जैसों का ज़िन्दगी इसी तरह इम्तिहान लेती है सुधीर बाबू..!"
इसी के साथ वे चले गए थे। उनको जल्दी जाना था। पर उनके अंतिम शब्दों ने मुझे झकझोर डाला था। अच्छे के साथ ही यह सब क्यों होता है? बहुत देर तक मैं इसी सोच में डूबा रहा।
तमाम भाग दौड़ के बावजूद कामता बाबू पत्नी रमा देवी को नहीं बचा सके। पत्नी की मृत्यु से वे मर्माहत और शोकाकुल तो थे लेकिन उनके लिए यह कोई अनहोनी न थी। सबका सब कुछ तय रहता है। यह उनका दार्शनिक विचार था। जो वे अक्सर लोगों से कहा करते थे।
सुबह रमा देवी ने अंतिम साँस ली थी। अड़ोस- पड़ोस के लोगों का आना जाना शुरू हो गया था ।
" कभी जर न बुखार, सीधे कैंसर....!" लोग भी हैरान थे ।
रमा देवी की मृत्यु की खबर गाँव में फैल चुकी थी। सगे- संबंधियों का भी आना शुरू हो गया था। घर में मातम छाया हुआ था और सबकी आँखें नम थी। कामता बाबू एक कोने में खड़े शोक में डूबे हुए थे। रोने वालों में सबसे ऊँची आवाज महेश की थी,जो कहीं से पीकर आया था और आंगन के बीचों-बीच खड़ा था। छोटा बेटा नरेश मां की शवयात्रा की अंतिम तैयारी में लगा हुआ था। रमा देवी के सिरहाने अगरबत्ती जला दी गई थी। अब सबकी निगाहें कामता बाबू पर आ टिकी थीं। नरेश ने बाप के करीब पहुँच कंधे पर हाथ रखा और फफककर रो पड़ा " बाबू जी, मां..अ !" लगा कामता बाबू भी रो पड़ेंगे।
" लोगों से अब भी कहते सुना जा रहा था" बेचारी गौ थी..गौ..! "
" कम खर्च से भी कैसे घर चलाया जाता है,यह कोई रमा देवी से सीखे।"
, कम पैसों को लेकर कभी पति को कौसते नहीं सुना..!"
" यह बड़ी बात है..! "
तभी जीप रुकने की आवाज ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा।
" कामता बाबू के दफ़्तर के साथी होंगे..।" किसी के मुँह से निकला ।
परन्तु वह धनपत सिंह था। आफिस का चपरासी। उसे आया देख कुछ देर के लिए कामता बाबू भी सोच में पड़ गये। " इस तरह धनपत का अचानक से आना! क्या वजह हो सकती है, वह भी कोलियरी जीप से आया है।" कामता बाबू को मालूम था धनपत साइकिल से आना जाना करता है । "फिर यह जीप ...?" कामता बाबू के दिमाग में सवाल ही सवाल थे। " कामता बाबू के मन में यह उमड़- घूमड़ चल ही रही थी कि तभी उन्हें चेतलाल की कही बात याद आई। परसों ही वह बतला रहा था " कामता बाबू, लगता है कंपनी को लाखों का एल बी लगेगा..।"
" क्यों,ऐसी क्या बात हो गई है..?"
" दोनों कम्प्यूटर खराब हो गए हैं। पानीपत और रोपड़ का कोल बिल रुका पड़ा है। "
" कहीं यह जीप मेरे लिए तो नहीं भेजी गई है..?"
तभी धनपत सिंह सामने आया। उसने प्रणाम के साथ ही मैनेजर अग्रवाल साहब का पत्र उन्हें पकड़ा दिया । पत्र खोला । लिखा था, "कामता बाबू! इस वक्त हमारे सामने एक समस्या आ खड़ी हुई है। पंद्रह तारीख तक पानीपत और रोपड़ का बिल भेजना है और हमारे दोनों कम्प्यूटर खराब हो गए हैं, मास्टर बाबू तो है,पर उसके जोड़- घटाव पर भरोसा नहीं किया जा सकता। लाखों का मामला है। हमें आपकी मदद चाहिए। मैं जानता हूँ, आप रिटायर हो चुके हैं। इसके लिए आपको मजबूर नहीं किया जा सकता। लेकिन कंपनी के लिए आज भी आप बहुत खास हैं। आज भी हमें आप पर पूरा भरोसा है..कुछ रकम भेज रहा हूँ, अस्वीकार मत कीजियेगा। आपका ..अग्रवाल साहब मैनेजर।"
धनपत ने दूसरा लिफाफा कामता बाबू को पकड़ा दिया था।
" भतीजे!अच्छा होगा, दाह-संस्कार के लिए माँ को सीधे काशी ले जा..।" पड़ोसी लटन चाचा नरेश से कह रहा था -" सब काम एक ही साथ निपट जायेगा । काशी में दाह-संस्कार बड़ा पुण्यकर्म है, जलने वाले और जलाने वालों का जीवन भी तर जाता हैं..! बाप से कहो,वह हां कह दे..।"
" अरे,मैं तो कहुँगा,बाप से पूछना बेकार है।" सगा जेठा ने कहा -" जिस आदमी ने आज तक घर में सत्यनारायण कथा तक न होने दी,उनसे काशी ले जाने की बात करोगे तो कहेगा, " सब फिजूल खर्ची है, वहाँ पण्डों का पेट भरना है...।"
बढ़ते शोरगुल से कामता बाबू का ध्यान भंग हुआ। जीवन की पटरी ने उनको आंगन में खड़ा कर दिया। उन्होंने वर्तमान हालात का जायजा लिया। दोनों बेटे उन्हीं की ओर देख रहे थे। कामता बाबू को लगा उन्हें अपना कर्म नहीं छोड़ना चाहिए। आज तक तो वे कर्म को ही जीते चले आ रहे हैं। जीना- मरना संसार का दस्तूर है। जब वह नहीं बदलता है, फिर हम क्यों बदलें,क्यों पीछे हटें अपने कर्म से। इसी के साथ उलझनों से वे बाहर निकल आए थे। दोनों बेटों को उन्होंने पास बुलाया और कहा, " मुझे अभी दफ़्तर जाना है। मां का दाह-संस्कार तुम दोनों को करना है, कहाँ और कैसे करोगे,आपस में तय कर लो..।"
चलने से पूर्व उन्होंने अग्रवाल साहब का भेजा लिफाफा नरेश के हाथ में थमाते हुए कहा " इसे संभाल कर रखो, इसमें जो भी रकम है, तुम्हारी माँ के श्राद्ध कर्म में काम आएगी,मैं चलता हूँ..चलो धनपत..।"
" इस तरह चले जाने से लोग क्या कहेंगे " यकायक मन में आए इस विचार ने कामता बाबू के बढ़ते कदमों पर ब्रेक लगा दी। उसने रमा देवी की ओर देखा। दो कदम आगे बढ़ आए। उस पत्नी की खातिर जो आज तक उनके साथ हर सुख-दुख में भागीदार बनी रही और जो अब इस दुनिया में नहीं रही। उन्होंने मृत्युशैया पर लेटी पत्नी से कहा, " क्षमा करना रमा! तुमने अपना कर्म पूरा किया,अब मैं अपना कर्म करने जा रहा हूँ..! " डबडबाई आँखों को कामता बाबू ने गमछे से पोछा और धीरे से धनपत के पीछे हो लिए।
नरेश, महेश से कह रहा था, "दादा! ठाकुर ( हज्जाम) से कह दो, गाँव में खबर कर दे। माँ का दाह-संस्कार, दामोदर घाट पर होगा, पुण्य- प्रताप के चक्कर में आदमी सदियों से लुटते रहे हैं। लेकिन हमें वही गलती नहीं करनी है। मनुष्य का जीवन कर्म के साथ जुड़ा है,उसके लिए कर्म ही धर्म है! काशी- बनारस में दाह-संस्कार से लोगों का पाप नहीं धुल जाता..!"
नरेश की कही बातें जीप पर सवार हो रहे कामता बाबू के कानों में भी पहुंची थी । उनके अंदर का द्वंद्व छंट चुका था। और वो शांतचित्त नजर आने लगे थे ।
श्यामल बिहारी महतो
मुंगो, गुंजरडीह, नावाडीह, जिला- बोकारो, झारखंड, पिन कोड-829132
6204131994
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र विजय मीरचंदानी
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