शोध आलेख : भारत कला भवन, वाराणसी में संग्रहीत कुषाणकालीन प्रसाधिका मूर्ति / आकाश कुमार श्रीवास्तव

भारत कला भवन, वाराणसी में संग्रहीत कुषाणकालीन प्रसाधिका मूर्ति

- आकाश कुमार श्रीवास्तव

 

शोध सार : भारत कला भवन, वाराणसी में संग्रहीत कुषाणकालीन प्रसाधिका की मूर्ति भारतीय शिल्पकला का एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत करती है। यह मूर्ति तत्कालीन समाज में व्याप्त उच्च सौंदर्य-प्रतिमान और शिल्प की उच्चता का प्रतीक है। प्रस्तुत लेख में इस मूर्ति की शिल्पकला, संरचना और उसके ऐतिहासिक संदर्भ पर विस्तार से चर्चा की गई है। यह मूर्ति न केवल शारीरिक सौंदर्य का प्रदर्शन करती है, बल्कि कलाकार ने मुख-सौंदर्य में भी सौम्यता का समावेश किया है, जो उसे जीवन्त और आकर्षक बनाता है। लेख में इस मूर्ति के सौंदर्यशास्त्र और इसके सांस्कृतिक संदर्भ को समझने के साथ-साथ, इसके निर्माण में प्रयुक्त शिल्प, तकनीकी दक्षता और संरक्षित स्थिति पर भी विचार किया गया है। मूर्ति के प्रत्येक तत्व की व्याख्या करते हुए, इसे भारतीय कला के इतिहास में एक महत्वपूर्ण धरोहर के रूप में प्रस्तुत किया गया है। प्रसाधिका की यह मूर्ति कुषाणकालीन शिल्पकला की उत्कृष्टता का प्रतीक है, और इसका संरक्षण भारतीय कला के इतिहास को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है।


बीज शब्द : कुषाण काल, प्रसाधिका, मथुरा, शृंगार, कला केंद्र, सौन्दर्य, वाराणसी, संग्रह, शिल्प, कला-इतिहास


मूल आलेख : कुषाणकालीन मथुरा मूर्तिशैली के उदाहरणों में प्रस्तुत मूर्ति अद्वितीय तथा प्रतिनिधि स्वरूप है। जिसका अवलोकन कर हम तत्कालीन कला की उत्कृष्टता तथा शिल्पी की कुशलता का अनुमान लगा सकते हैं। यदि हम इसके संबंध में यह कहें की यह भारतीय मूर्तिकला के कुछेक सर्वोत्तम उदाहरणों में से एक है तो अत्युक्ति न होगी। विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रारंभ में इसे भाग्य की देवी लक्ष्मी अथवा नदी-देवी (नदी-मातृका) के रूप में पहचान गया। परंतु सबसे ज्यादा मान्य मत यह है कि यह ‘प्रसाधिका’ की मूर्ति है क्योंकि मूर्ति के हाथों के साथ शृंगार की वस्तुएं जुड़ी होने के कारण वासुदेव शरण अग्रवाल ने इसे ‘प्रसाधिका’ के रूप मे पहचाना, जिसका काम प्राचीन काल की रानियों के प्रसाधन अर्थात शृंगार की सामग्री लिए हुए उनकी सेवा में उपस्थित रहना होता था (चित्र 1)। इससे पता चलता है की उस समय राजपरिवार की स्त्रियों के शृंगार-प्रसाधन का प्रबंध करने के लिए प्रसाधन-कला में निपुण परिचारिकायें होती थीं। सौंदरानन्द काव्य में इन परिचारिकाओं के कार्यों का परिचय मिलता है तथा प्रसाधन-कला में निपुण भिन्न-भिन्न काम वाली प्रसाधिकाओं के नाम भी मिलते हैं। इसके अतिरिक्त कालिदास के ग्रंथ कुमारसंभवम् में पार्वती के विवाह के अवसर पर प्रसाधिका द्वारा उन्हें अंजन  आदि लगाने का उल्लेख है, रघुवंशम् से पता चलता है कि अतिथि के राज्याभिषेक के अवसर पर प्रसाधिकाएं ही उनका शृंगार करती थीं। भगवतीसूत्र से भी पता चलता है की शृंगार से संबंधित विशेष कार्यों के लिए अलग-अलग प्रसाधिकायें होती थीं। अजंता के भित्तिचित्रों में भी प्रसाधिकाओं का चित्रण मिलता है। गुहा सं. 17 में एक प्रसाधिका राजकुमारी के साथ प्रसाधन-सामग्री लिए चित्रित है। 


            भारत कला भवन में इस मूर्ति के अतिरिक्त दो अन्य प्रसाधिका की मूर्तियाँ भी संग्रहीत हैं। कुषाण काल में मथुरा के अतिरिक्त संघोल से भी प्रसाधिकाओं की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इस प्रकार यह बात स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में प्रसाधिका एक विशेष वर्ग की स्त्रियों को कहा जाता था और प्रस्तुत मूर्ति उसी परंपरा की द्योतक है। इसका उल्लेख हमें साहित्यिक विवरणों में मिलता है तथा इस मूर्ति को उन साहित्यिक विवरणों का पुरातात्विक प्रमाण माना जा सकता है। परंतु स्टैला क्रैम्रीश (1981) का मत इससे भिन्न है वे इतना तो मानती हैं कि प्रस्तुत मूर्ति एक परिचारिका की है, किन्तु उनके अनुसार ये परिचारिका प्रसाधन-सामग्री लिए हुए नहीं है बल्कि इस मूर्ति के उठे हुए बाएं हाथ में ढ़की हुई टोकरी में भोज्य तथा पेय पदार्थ है एवं नीचे वाले दाहिने हाथ में जल का पात्र है। संभवतः इसे रानी के लिए खाद्य पदार्थ लेकर जाते हुए दिखाया गया है। वस्तुतः व्यापक तौर पर यह मत सर्वमान्य नहीं है क्योंकि इस मूर्ति के लक्षणों तथा इसी प्रकार की अन्य मूर्तियों के समुचित अध्ययन के पश्चात् इसे प्रसाधिका मनाने में कोई संदेह नहीं रह जाता।

  

कुषाणकालीन मथुरा कला केंद्र की आदर्श मूर्ति : कला की दृष्टि से मथुरा का स्थान अद्वितीय है। यह हजारों वर्षों से भारत में कला का प्रमुख केंद्र रहा है। यह स्थान प्राचीन भारत के व्यापारिक मार्गों के बीच पड़ता था। इस कारण भी इसका ज्यादा महत्त्व था। मथुरा का विकास एक व्यापारिक केंद्र के रूप में हुआ। जो उसकी समृद्धि का कारण भी था। कुषाण काल में मथुरा की कला और भी ज्यादा पुष्पित व पल्लवित हुई। इस काल में मथुरा बहुत बड़ा मूर्ति-निर्माण का केंद्र बन गया था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पूर्ववर्ती कालीन भरहुत-कला की लोक शैली तथा साँची-कला की उन्नत शैली साथ-साथ चल रही थी। इस काल में ये दोनों शैलियाँ एक हो जाती हैं। अर्थात कुषाण-आश्रय पाकर वहाँ एक राजकला का विकास होता है। फलतः कुषाणकालीन, मथुरा कला में चिपटापन दूर हो जाता है, प्रस्तुत मूर्ति इस बात का प्रमाण है। इसी समय पूर्व प्रचलित मथुरा कला परंपरा में एक नवीन परिष्कार हुआ और यहाँ के शिल्पियों द्वारा निर्मित मूर्तियाँ दूर-दूर तक भेजी जाने लगीं। इस युग में कला में बुद्ध की मानव-रूप में मूर्तियों का सर्वप्रथम निर्माण किया गया, जो भारतीय कला को इस युग की सर्वोत्तम देन हैं। निःसंदेह इस युग में प्रचलित मथुरा और गांधार कला-परंपरा के सम्यक विवेचन से ही मूर्तिकला का ऐतिहासिक और शिल्पगत स्वरूप स्पष्ट हो सकता है।


            कुषाणों के काल तक आते-आते मथुरा-कला की अभूतपूर्व उन्नति हुई। अब तक शिल्पी कई शताब्दियों तक मूर्ति निर्माण करने के उपरांत प्रगति कर चुका था। अब मूर्तियों में शुंगकालीन चपटापन समाप्त हो गया। कलाकार सम्मुख दर्शन के अतिरिक्त पार्श्वगत, पृष्ठगत आदि अनेक स्थानों से मूर्तियों को दर्शनीय बनाने लगा था। प्रस्तुत मूर्ति में इस बात का निदर्शन होता है। भरहुत तथा साँची की प्राचीन परंपरा के साथ उसने नई विधाओं और नए तत्वों के संयोग से कला की जिस नवीन शैली को जन्म दिया वह शताब्दियों तक भारतीय कला का आदर्श बनी रही। प्रस्तुत मूर्ति कुषाणकालीन स्त्री-मूर्तियों के निम्नलिखित प्रतिमानों को व्यक्त करती है।

  1. स्त्री मूर्तियाँ अलंकरणों से सुशोभित हैं किंतु उनके शरीर पर बहुत कम वस्त्र प्रदर्शित किये गये हैं। 

  2. स्त्रियों के केश प्रायः अलंकृत हैं। 

  3. ऊपरी भाग पर वस्त्र का अभाव दिखता है। प्रायः सभी मूर्तियों में कमर से नीचे का भाग ही आवृत है। 

  4. स्वतंत्र मूर्तियाँ चारों ओर से उकेर कर बनाई गई हैं। लगता है मथुरा के शिल्पी जीवन के अनेक पहलुओं को कला में उद्धृत करने के लिए प्रयासरत थे।


           मथुरा की कला इस बात में साँची व भरहुत से कुछ भिन्न है कि इनकी अभिव्यक्ति शारीरिक न होकर मानसिक है। पूरी कुशलता के साथ निर्मित इन मूर्तियों को साँची, कौशाम्बी, पंजाब, वैराठ (राज.), बंगाल, अहिच्छत्रा आदि स्थानों पर भेजा जाता था, जहाँ से मथुरा कला केंद्र में निर्मित मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।


            मथुरा की कुषाण कालीन कला भारतीय कला इतिहास में विकास के एक महत्वपूर्ण चरण को प्रदर्शित करती है। यहाँ की कला अपनी पूर्ववर्ती मौर्य तथा शुंग कालीन कला से प्रभावित हुई तथा इसने कालांतर की गुप्तकालीन कला को प्रभावित किया। सी. शिवराममूर्ति प्रसाधिका की इस मूर्ति को मौर्यकलीन दीदारगंज की यक्षिणी की मूर्ति के समकक्ष रखते हैं। साथ ही इस मूर्ति को मौर्यकालीन प्रभाव मानते हैं। जबकि वासुदेवशरण अग्रवाल ने भरहुत तथा साँची की वेदिकाओं पर उत्कीर्ण यक्षिणी से इस मूर्ति को प्रभावित माना है। इस तरह यदि यह कहें की कुषाण कालीन मथुरा में गुप्तकालीन कला की श्रेष्ठता की नींव रखी जा रही थी, तो कोई अत्युक्ति न होगी। कालांतर में राजपूतकालीन कला में भी मथुरा कला का प्रभाव पड़ा जब प्रसाधिकाओं तथा अप्सराओं का विभिन्न क्रीड़ा में रत हुए अंकन प्रमुख रूप से दिखता है। खजुराहो का देवी जगदंबी मंदिर, पाटन का विराटेश्वर मंदिर तट रानी का वाव कालांतर के प्रमुख उदाहरण हैं, जहाँ हमें इसी प्रकार की प्रसाधिकाओं तथा अप्सराओं का प्रदर्शन मिलता है।   


मूर्ति का कलात्मक विश्लेषण : प्रसाधिका की यह मूर्ति मूलतः चित्तिदार लाल बलुआ पत्थर का बना एक मूर्तिस्तंभ है, जिसकी ऊंचाई 38’1/2 है, इसमें सामने की अंश में एक स्त्री खड़ी है। उसके परिपूर्ण मुखमंडल पर जो गंभीर प्रसन्नता एवं शांत भाव है, वह अनुपम है। इसके नेत्र सुकोमल हैं, जो इसकी सुंदरता में चार चाँद लगा रहे हैं। इसके अंग-प्रत्यंग बड़े ही सुडौल हैं तथा वास्तविकता को दिखाने का पूर्ण प्रयास किया गया है। प्रस्तुत मूर्ति के कलात्मक सौन्दर्य की व्याख्या निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत की जा सकती है-


अधोभाग : सम्मुख दर्शन में हमें प्रस्तुत मूर्ति से संबंधित निम्न बातें दिखलायी पड़ती हैं-

  1. इसका दाहिना हाथ नीचे है जिसमें वह एक पात्र लिए हुए है। रायकृष्ण दास के अनुसार इसे ‘शृंगार’ कहते थे, जिसमें राजा-रानियों के लिए सुगंधित जल रखा जाता था। तत्कालीन साहित्यों (दिव्यावदान) में इसका उल्लेख है। 

  2. बायाँ हाथ कंधे के ऊपर उठा हुआ है जिसमें एक पिटारी है। उसका ढ़कना थोड़ा खुला हुआ है जिस कारण ढ़क्कन एक और झुका हुआ है। वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार इसमें संभवतः पुष्पमाला तथा फूलों के बने आभूषण वह स्त्री लिए हुए है, जिसका प्रयोग राजमहिषी के पुष्प-आभूषण से शृंगार करने के लिए किया जाता था। उनके अनुसार इसके लिए साहित्य में ‘पुष्पभारण-श्रृंगार’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इस मूर्ति के हाथों में इन वस्तुओं के होने के कारण भी यह प्रसाधिका की मूर्ति मानी गई है जिसका काम प्राचीन काल में रानियों के प्रसाधन अर्थात श्रृंगार की सामग्री लिये हुए उनकी सेवा में उपस्थित रहना होता था।

  3. बायें हाथ की पिटारी के खुले अंश से एक पुष्पमाला का कुछ भाग बाहर निकला हुआ है। राय कृष्णदास का विचार है कि आज भी वैसी पिटारियों की स्मृति उन सुहाग-पिटारियों में बनी हुई है जिन्हें सौभाग्यवती स्त्रियाँ संक्रांतियों पर ब्राह्मणों को दान दिया करती हैं।

  4. इस मूर्ति के सिर के ऊपर एक खोखला कटोरा बना हुआ है। जिसके आधार पर विद्वानों के भिन्न मत सामने आये हैं। कुछ का विचार है कि इसमें सुगंधित द्रव्य रखा जाता था। जबकि कुछ इसका प्रयोग पीकदान के रूप में होता होगा, ऐसा मानते हैं। स्टैला क्रैम्रिश (1981) का मत है कि यह एक सुरा-पात्र हैं जिसका प्रयोग मथुरा के बौद्ध विहारों में सुरा-उत्सव के दौरान होता रहा होगा। वे इसे ग्रीक-प्रभाव मानती हैं क्योंकि वहाँ ‘बकस’ नामक सुरा-देवता के स्मरण में यह उत्सव मनाया जाता था। राय कृष्णदास का भी मत है कि यह पूज्य नहीं है, बल्कि अलंकरण मूर्ति है जो किसी प्रसाद या उद्यान में सजावट के काम में आती रही होगी।

  5. स्टैला क्रैम्रिश (1981) तो यहाँ तक कहती हैं कि इस मूर्ति के हाथों में पिटारी तथा पात्र प्रदर्शित कर यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि उन सुरा-उत्सवों में इस प्रकार की देवियाँ अर्थात काल्पनिक व मिथकीय चरित्र भी भाग लेते हैं।

  6. इस मूर्ति स्तंभ का शीर्ष जो कि इसके पिछले भाग में निर्मित है। सम्मुख दर्शन में इसके दाहिने कंधे के पास दिखलाई पड़ता है। यहाँ एक छोटी सिंह-नारी का मुख दिखलाई पड़ रहा है जिसे इस स्टैला क्रैम्रीश ‘स्फिन्क्स’ मानती हैं जो कि भारतीय कला में ग्रीक प्रभाव का स्पष्ट प्रमाण भी प्रस्तुत करता है।


पृष्ठभाग : मूर्ति के ठीक पीछे एक खंभा बना है जिसके ऊपरी परगहे में पंखवाली चार सिंह-नारियाँ बनी हैं तथा उनके ऊपर एक खोखला कटोरा है। इस मूर्ति-स्तंभ में पृष्ठभाग के छह हिस्से स्पष्ट दिखलाई पड़ते हैं, जो निम्नलिखित हैं।

  1. पूर्णकलश, जिसका बाहरी आवरण कमल के पत्तों से आवृत है।

  2. अष्टकोणीय स्तंभ

  3. स्तंभ के शीर्षस्थ स्थान पर एक पूर्ण घट

  4. पूर्ण घाट के ऊपर चार सपक्ष सिंह-नारियां एक-दूसरे से पीठ से पीठ सटाकर बैठी हैं, जो कि स्तंभ-शीर्ष के समान हैं।

  5. सपक्ष सिंहों के सिर के ऊपर तथा प्रसाधिका के सिर के ठीक पीछे चतुष्कोणीय आधार निर्मित है, जिसके दो कोण सम्मुख दर्शन में दिखाई देते हैं।

  6. इस आधार के ऊपर पूर्ण अलंकृत एक कटोरा प्रदर्शित है, जिसके आधार भाग में पुष्पमाला, मोतियों का किनारा तथा पद्मवल्लरी या कमल के पत्तियों का अलंकरण है।


            इन सभी आकृतियों के आधार पर वासुदेव शरण अग्रवाल ने इस पृष्ठभाग पर चार मंगल प्रतीकों के समूहों की पहचान की है।

  1. ‘पूर्णकुंभ’ या मंगल कलश, जो कि ‘ताल-पत्र-पादुका’ पर स्थित है। यह एक प्राचीन प्रतीक है जो कि स्वतंत्र अथवा समूह रूप में पवित्रता के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त होता है।

  2. दूसरा प्रतीक सपक्ष-सिंह वाले स्तंभ शीर्ष से युक्त अष्टकोणीय स्तंभ है। यहाँ इन सिंहों का मुख मानव का है जिसे वासुदेव शरण अग्रवाल ने ईरानी प्रभाव माना है। स्पष्ट है कि प्रस्तुत मूर्ति मथुरा कला पर गांधार कला के प्रभाव का प्रमाण भी प्रस्तुत करती है।

  3. तीसरा प्रतीक सिंह-शीर्षक के ऊपर रखा हुआ धार्मिक व पवित्र कटोरा है, जो बुद्ध के भिक्षा-पात्र का प्रतीक है।

  4. चौथा प्रतीक इन सबका समवेत रुप है। वासुदेव शरण अग्रवाल ने इसे ऋग्वेद में वर्णित ‘ऋभु’ नामक देव के ‘चमष’ नामक पात्र से इंगित किया है।


            इस प्रकार वासुदेव शरण अग्रवाल ने संपूर्ण मूर्ति-स्तंभ को इस पवित्र कटोरे का आधार-स्तंभ माना है। बौद्ध साहित्य में यक्ष तथा गंधर्वों के समान पारलौकिक शक्तियों का एक अलग वर्ग प्राप्त होता है जिसे दिव्यावदान में ‘करोत-पाणि-देव’ तथा महावंश में ‘पात्री-धारा-देव’ कहा गया है। बौद्ध-उत्सवों के वर्णन में इस प्रकार के देवों का उल्लेख मिलता है। मथुरा कला केंद्र से इस प्रकार के अनेक बड़े-बड़े पाषाण के पत्र प्राप्त हुए हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि इनका प्रयोग बौद्ध विहारों में सजावट के लिए अथवा पवित्र बौद्ध प्रतीकों के रूप में होता था।


            प्रसाधिका के संबंध में हैरी फॉक (2009) का सुरा निर्माण से संबंधित अध्ययन तथा उनका बौद्ध विहारों से संबंध अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनका यह अध्ययन मुख्य रूप से बौद्ध-वास्तु  केंद्रों पर उत्कीर्ण दृश्यों, प्रसाधन-पात्र व सामग्री तथा इसी प्रकार के प्राप्त कुछ अन्य बड़े कटोरों पर उत्कीर्ण लेखों पर आधारित है। इसके आधार पर उन्होंने बताया कि इस प्रकार के पात्र बौद्ध विहारों में सुरा-निर्माण हेतु प्रयोग होते थे। उन्होंने यह भी बताया कि इस प्रकार के क्रियाकलाप मथुरा में गांधार क्षेत्र से प्रभावित थे। इस प्रकार प्रस्तुत मूर्ति बौद्ध सम्प्रदाय में तांत्रिक-साधना तथा सुरा-सुंदरी के प्रयोग का स्पष्ट पुरातत्विक प्रमाण प्रस्तुत करती है।


वेश-भूषा : प्रस्तुत मूर्ति कुषाणकालीन भारत में स्त्रियों द्वारा धारण किये जाने वाले वस्त्रों का उदाहरण प्रस्तुत करती है। यह मूर्ति प्रत्यक्ष प्रमाण है तत्कालीन वेश-भूषा का, जिसके आधार पर हम कुषाणकाल के सामाजिक प्रतिमानों का अनुमान लगा सकते हैं। कुषाणकालीन मूर्तियों में प्रायः एक बात समान नजर आती है की शिल्पी ने पुरुष तथा स्त्रियों को वस्त्र तथा आभूषणों से भरा हुआ नहीं दिखाया है। प्रस्तुत मूर्ति में भी यह विशेषता दिखलायी पड़ती है। इसका विस्तृत विवरण निम्न प्रकार है-


  1. न्यूनतम वस्त्र और अलंकरणों से सुसज्जित ये स्त्री-मूर्ति यौवन से परिपूर्ण है और मथुरा के उस युग की सामाजिक वातावरण की प्रतिच्छाया है। 

  2. वस्त्र के नाम पर इस प्रसाधिका ने उमेठे हुए कमरबंद को कमर के दोनों ओर फंदे पड़ते हुए बाँधा है। 

  3. इस कमरबंद का लंबा सिरा कमर से बाँध लिया गया है और झब्बेदार छोटा सिरा सामने लटकता हुआ छोड़ दिया गया है। 

  4. कमरबंद का एक सिरा बायें जंघे से घूमकर पीछे की ओर गया है तथा लंबा होने के कारण नीचे पैर तक लटकता हुआ दिखाया गया है। 

  5. कमर के ऊपर का अधोभाग पूरी तरह से अनावृत है। 

  6. मथुरा में कुषाणकाल की स्त्रियाँ, जैसा की प्रस्तुत मूर्ति से प्रदर्शित होता है, कंचुक या चोली नहीं पहनती हैं। 

  7. जैसा कि इस मूर्ति से पता चलता है कि स्त्रियाँ अपने सिर इसलिए नहीं ढँकती थीं कि लोग उनकी सुंदर केश-रचना देख सकें। 


केश-सज्जा : कुषाण काल में हमें नारियों के केश-सज्जा के दर्जनों प्रकार मिलते हैं। इसमें सबसे प्रचलित शैली का निदर्शन हमें इस मूर्ति में मिलता है। इसमें बालों को सामने की ओर बीच से विभाजीत करते हुए कानों के पीछे से होते हुए सिर के पिछले हिस्से तक ले जाया  जाता था। इस शैली के लिए साहित्यों में ‘काकपक्ष’ शब्द का प्रयोग हुआ है। यह मूर्ति सामने की ओर केशों के केंद्र में एक आभूषण पहने हुए है। तत्कालीन साहित्यों में केशों को विभाजित करने वाले स्थान पर धारण करने वाले इस आभूषण को ‘चंद्रबिंदी’ या ‘चंद्रवेणी’ कहा गया है। 


  • कानों के ऊपर केशों को घुमाते हुए पीछे ले जाया गया है तथा यहाँ पर झालरनुमा आभूषण पहने हुए है। 

  • पीछे की तरफ स्तम्भ शीर्ष बने होने के कारण वहाँ केश नहीं दिखायी दे रहे हैं। 

आभूषण : प्रसाधिका की इस मूर्ति के अवलोकन से पता चलता है कि कुषाण काल में पूर्ववर्ती शुंगकाल की अपेक्षा शरीर को आभूषणों से बोझिल करने की प्रवृत्ति में कुछ कमी दिखलायी पड़ती है जिससे शिल्पी की परिष्कृत रूचि का परिचय मिलता है। यह मूर्ति आभूषणों में गले में तीन लड़ियों वाला मुकताहार धारण किए हुए है। 

  • गले से लगा कुछ ढ़ीला बड़े मानकों की दो लड़ियों की मला है। 

  • इस हार की एक लड़ी कुछ ढ़ीली छोड़कर लटकाई गई है जो प्रसाधिका के स्तनों के बीच स्थित होकर उसका सौन्दर्य द्विगुणित कर रहा है। 

  • यह प्रसाधिका कर्णाभूषण के रूप में अपने दोनों कानों में लटकते हुए भारी झुमके जैसे आभूषण पहने है, जिनकी आकृति कुछ घिस जाने के कारण स्पष्ट नहीं है। 

  • कराभूषण के रूप में यह भर-हाथ चूड़ी पहने हुए है, जो कि भारतीय नारियों के सौन्दर्य-प्रसाधन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व चित्ताकर्षक होता है। 

  • चूड़ियों के साथ ही यह दोनों कलाई पर ‘वलय’ अर्थात गोल कड़े जैसा आभूषण भी धारण किए है। कलाई पर चूड़ियाँ प्रायः वलय के पीछे ही पहनी जाती हैं, जिसका यहाँ स्पष्ट निरूपण हुआ है। 

  • हाथ ऊपर उठाने के कारण वलय, चूड़ियों से बड़ा होने की वजह से नीचे सरक आता है। इस प्रक्रिया को बड़े वास्तविक ढ़ंग से दिखाने का प्रयास शिल्पी ने किया है। प्रसाधिका के ऊपर उठे बायें हाथ का वलय हल्का टेढ़ा होकर एक तरफ झुक गया है। 

  • प्रसाधिका को अपने दोनों बाजुओं पर चार लड़ियों वाला ‘अंगद’ धरण किए दिखाया गया है। 

  • कमर में प्रसाधिका चार लड़ियों वाली मेखला धारण किए है, जिसमें मुक्ता जुड़े हुए हैं। प्रो. कमल गिरी (1987) के अनुसार मुक्तायुक्त मेखला के लिए साहित्यों में ‘मौक्तिक-जाल’ शब्द का प्रयोग हुआ है। 

  • प्रसाधिका के पैरों में शरीर से चिपकी हुई महीन चूड़ियाँ प्रदर्शित की गईं हैं। यह नीचे से ऊपर की ओर बड़ी होती गई हैं। 

  • चूड़ियों के नीचे पैरों में भारी और गोलाकार आभूषण दिखाई देता है। यह संभवतः दो वृत्तों वाला एक आभूषण था, जिसका सम्मुख भाग खुला हुआ है। दोनों वृत्तों को जोड़ने के लिए इसमें काँटे लगाये गए हैं। 


            ये सभी आभूषण एक साथ मिलकर प्रस्तुत मूर्ति में प्रदर्शित नग्नता को आवरण प्रदान करते हैं, जिससे यह मूर्ति कहीं से भी अशिष्ट नजर नहीं आती। 


मूर्ति की निर्माण-प्रविधि एवं संरक्षण : प्रस्तुत मूर्ति का निर्माण सफेद चित्तिदार लाल-खादार पत्थर से किया गया है। मथुरा के शिल्प में प्रयोग किया जाने वाला यह पाषाण रूपवास और सीकरी के खदानों से प्राप्त किया जाता था। सफेद रंग चित्तिदार रूप में सम्पूर्ण मूर्ति में व्याप्त है, जो इसका प्राकृतिक गुण है। सम्पूर्ण मूर्ति एक ही पाषाण-खंड को तराश कर बनाई गई है और कहीं से कोई अलग प्रस्तर-खंड नहीं जोड़ा गया है। अतः इसे एकाश्मक-मूर्तिस्तंभ भी कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त यह मूर्ति भास्कर-कर्म के उच्च चरण का उदाहरण है। शिल्पी स्त्री के सभी अंगों में कटाव को प्रदर्शित करने में पूर्ण सफल हुआ है। साथ ही सभी अंग अनुपात में हैं और नतोन्नत दृष्टि का ध्यान बखूबी रखा है। 


            यह प्रतिमा अपने पूर्ण रूप में कहीं से भी खंडित नहीं है। दो हजार वर्षों के पश्चात भी यह ज्यों की त्यों है। वर्षों के मानवीय तथा प्राकृतिक झंझावात भी इसे नष्ट न कर सके। केवल दायें हाथ में नीचे लिए हुए पात्र का एक सिरा खंडित हो गया है। कान के झुमके भी क्षरित हो गए हैं। बगल से देखने पर पता चलता है की उपर रखा हुआ पात्र दोनों ओर से चिटका हुआ है परंतु उसे सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया है। यह मूर्ति संभवतः भारत कला भवन में संरक्षित सर्वश्रेष्ठ पुरावस्तु है इसलिए इसे शीशे के आवरण में विशेष रूप से सुरक्षित किया गया है। 


उपसंहार : प्रस्तुत अध्ययन के दौरान मुझे ज्ञात हुआ की प्रसाधिका की यह मूर्ति भारतीय-सौन्दर्यशास्त्र की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट रचना है तथा नारी-सौन्दर्य की मिसाल होने के कारण कलविदों ने बहुत पहले ही इसे ‘भारतीय मोनालिसा’ का खिताब दिया है। सचमुच यह बात अत्युक्ति नहीं है। मोनालिसा कि पेंटिंग की तरह ही इस प्रसाधिका की खासियत भी यह है कि चाहे जिस भी कोण से इसे देखें, लगेगा कि वह आपको ही देखकर मुस्कुरा रही है। यही कारण है कि प्रायः प्रतिदिन भारत कला भवन आने वाले देशी-विदेशी पर्यटक इस मूर्ति के आगे न सिर्फ ठिठक जाते हैं बल्कि देर तक इसका अवलोकन भी करते हैं। 


            प्रख्यात कलाविद् व भारत कला भवन के पूर्व निदेशक डॉ. डी. पी. शर्मा का स्पष्ट कथन है कि ‘कुषाणकाल की अब तक मिली स्त्री-मूर्तियों में प्रसाधिका की यह मूर्ति निःसंदेह सर्वाधिक सुन्दर है।’ कई वर्षों पहले यहाँ का अवलोकन करने आये लंदन म्यूजियम के रॉबर्ट ब्रेसी ने भी कहा था कि ‘वाकई यह सुन्दर स्त्री की मूर्ति है जो उस काल की सुंदरता की पराकाष्ठा की द्योतक है।’ इस अद्भुत सौन्दर्य व मुस्कान वाली धरोहर की महत्ता इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई बार लंदन म्यूजियम व अमेरिका में प्रदर्शनी के लिए इसकी मांग की गई, बावजूद इसके सिर्फ इसको क्षति पहुँचने की आशंका से इसे कहीं नहीं भेजा गया।   


            निःसंदेह यह मूर्ति तत्कालीन समाज में व्याप्त उच्च सौन्दर्य-प्रतिमान को लिये हुए है। इसके निर्माण में प्रयुक्त तकनीकि दक्षता तथा निर्माण-कौशल शिल्पी की कार्य-कुशलता तथा उसके युग में प्रचलित कला-शिल्प की उच्चता का प्रमाण है। कुषाण-शिल्पी तथा उनकी कला-परम्परा ने नारी-सुलभ सौन्दर्य को प्रदर्शित करने का प्रयास किया है तथा इस कार्य में उसे सफलता प्राप्त हुई है। इसमें कटि-भाग से नीचे का हिस्सा, जो कि उमेठे हुए धोती से ढ़का है, परंतु भारी ऊरुह उसे अर्ध-नग्न प्रदर्शित कर रहे हैं। ऊपरी भाग ढ़का हुआ नहीं है तथा प्रसाधिका के उभरे हुए गोल उरोज उसके शारीरिक-सौन्दर्य में वृद्धि कर रहे हैं। परंतु मेरी दृष्टि में इतना सब होने के बावजूद भी यह कहीं से भी अशिष्ट नहीं लगता। कलाकार मुख-सौन्दर्य को सौम्यता प्रदान करने में सफल लगता है, जो की मूर्ति में प्राण फूँक देता है। 


            यह मूर्ति प्रमाण है कि तत्कालीन समाज में शृंगार व प्रसाधन का कितना महत्व था। जब शृंगार करने वाली परिचारिका को इतना सुंदर दिखाया गया है तो उस समय की रानियाँ तथा उच्च कुल की महिलायें तो सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति सी होंगी। यह मूर्ति तत्कालीन परिवेश में सुख, शांति व समृद्धि की भी परिचायक है, तभी तो लोगों के पास शृंगार-प्रसाधन हेतु वक्त होता था तथा नारियाँ भी स्वतंत्र होकर मनमाफिक विचरण करती थीं। अंततः कहा जा सकता है कि सौन्दर्य-प्रसाधन लिये निकली इस पाषाण-मूर्ति में पत्थर भी जीवित हुआ सा लगता है।  


संदर्भ :

  1. रायकृष्ण दास, भारतीय मूर्तिकला, नागरी प्रचारिणी सभा, पृ. 57-59. 1996.   

  2. मोतिचंद्र, प्राचीन भारतीय वेशभूषा, भारती भंडार प्रकाशन, पृ. 122-127, 1950. 

  3. कमल गिरि, भारतीय शृंगार, मोतीलाल बनरसीदास, पृ. 35-243, 1987.

  4. हैरी फॉक, मेकिंग वाइन इन गांधार अन्डर बुद्धिस्ट मोनेस्टिक सुपरविजन, बुलेटिन ऑफ दी एसिया इंस्टिट्यूट 23, पृ. 65-78, 2009. 

  5. पद्मा उपाध्याय, फीमेल इमेजेस इन दी म्यूजियम्स ऑफ उत्तर प्रदेश एण्ड देअर सोशल बैकग्राउन्ड, चौखंभा ऑरिएन्टेलिया, पृ. 110-294, 1978. 

  6. एस. के. सरस्वती, ए सर्वे ऑफ इंडियन स्कल्पचर, मुंशीलाल मनोहरदास, पृ. 72-73, 1975. 

  7. स्टैला क्रैम्रिश, आर्ट ऑफ इंडिया थ्रू एजेस, मोतीलाल बनरसीदास, पृ. 201-203, 1981. 

  8. वी. एस. अग्रवाल, दी वाइन मोटिफ इन मथुरा आर्ट, जर्नल ऑफ दी इंडियन सोसाइटी ऑफ ओरियंटल आर्ट, पृ. 130-133, 1936. 

  9. वी. एस. अग्रवाल, मास्टर पिसेज ऑफ मथुरा स्कल्पचर, पृथिवी प्रकाशन, पृ. 23-24, 1965. 

  10. श्यामली आचार्य, कुषाणकालीन कला में प्रतिबिम्बित सांस्कृतिक जीवन, शोध-प्रबंध, प्रा. भा. इ. सं. एवं पुरातत्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, पृ. 139-149. 2004. 

  11. स्टैनिस्लॉ जे. कजुमा, कुषाण स्कल्पचर इमेजेस फ्रॉम अर्ली इंडिया, दी क्लीवलैण्ड म्यूजियम ऑफ आर्ट, पृ. 7-87, 1985. 


संलग्न चित्र :



चित्र 1 (प्रसाधिका)




आकाश कुमार श्रीवास्तव

शोध-छात्र, मानवतावादी अध्ययन विभाग, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) वाराणसी, उ. प्र.

akashkrsrivastava.rs.hss21@itbhu.ac.in8416901436


अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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