साहित्य अध्ययन का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण
- सुनंदा गराईं
शोध सार : साहित्य के साथ समाजशास्त्र के संबंधों की चर्चा करते हुए साहित्य के साथ समाज के अंतःक्रियाओं का सविस्तार वर्णन किया गया है| साहित्य के समाजशास्त्रीय दृष्टि से समाज को सम्पूर्णता में देखने का जो नजरिया है, वही इसका मूल है| समाजशास्त्र केवल तथ्यों का ही अनुकरण करता है जबकि साहित्य तथ्यपरकता के साथ-साथ समाज में रहने वाले मनुष्यों की संवेदनाओं एवं अनुभूतियों को भी न केवल देखने का कार्य करता है अपितु अपनी समाजशास्त्रीय दृष्टि के द्वारा साहित्य और समाज के अन्तःसंबंधों का भी निर्धारण करता है| साहित्य की समाजशास्त्रीय दृष्टि साहित्य की बाजार में उपयोगिता, पाठक की रूचि, लेखक, रचना, पाठक एवं प्रकाशन आदि के घनिष्ठ संबंधों की भी चर्चा करता है| साहित्य की समाजशास्त्रीय दृष्टि के अंतर्गत विशेष रूप से दो धाराएं हैं- मीमांसावादी और अनुभववादी| मीमांसावादी धारा के अंतर्गत केवल मुख्य धारा के साहित्य का ही अध्ययन किया जाता है| जबकि अनुभववादी धारा मुख्य धारा के साहित्य के साथ-साथ लोक साहित्य एवं लोकप्रिय साहित्य के अध्ययन पर भी जोर देता है|
बीज शब्द : समाजशास्त्र, साहित्य, समाज, संरचना, विचारधारा, अनुभववादी, मीमांसावादी, लोकप्रिय साहित्य, सामाजिक संदर्भ, पाठक समुदाय, मार्क्सवाद, उत्पादन, उपभोग, बाजार ।
मूल आलेख : साहित्य के साथ समाजशास्त्र का घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाजशास्त्र समाज और मनुष्य का वैज्ञानिक एवं वस्तुगत अध्ययन है। समाजशास्त्र का कार्यक्षेत्र समाज और उसकी सम्भावनाएं हैं। इसमें सामाजिक संस्थाओं एवं उसकी तमाम प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है, इसमें यह विचार किया जाता है कि समाज का सही अस्तित्व कैसे सम्भव है, उसकी कार्यपद्धति कैसी होती है? राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक संस्थाए मिलकर समाज का ढाँचा कैसे बनाती हैं? समाज को परिवर्तित करने वाली प्रक्रियाएं कौन सी हैं, इन परिवर्तनों से सामाजिक संरचना पर क्या प्रभाव पड़ता है आदि। साहित्य की स्थिति भी इससे भिन्न नहीं है। रचना किसी भी दृष्टि अथवा उद्देश्य से क्यों न रची जाए वह सामाजिक संदर्भ से जुड़े बिना अपना संवेदनात्मक आकार ग्रहण नहीं कर सकती। साहित्य और समाज का रिश्ता बहुआयामी है। समाज कृति की रचना के पूर्व भी उपस्थित रहता है और कृति की रचना हो जाने के बाद भी। अर्थात् लेखक समाज से अनुभव प्राप्त करता है और अपने अनुभवों से रचित साहित्य के द्वारा समाज को एक नयी दृष्टि देता है।
साहित्य और समाजशास्त्र को जोड़ने वाली कड़ी समाज है। साहित्य में भी समाज है और समाजशास्त्र में भी समाज है| समाजशास्त्र के अंतर्गत सामाजिक घटकों, तत्वों, वस्तुओं, परिस्थितियों आदि का वस्तुनिष्ठ अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन में रागात्मकता और संवेदना के लिए कोई स्थान नहीं होता है। समाजशास्त्री शुद्ध वैज्ञानिक नियमों के अनुरूप समाज का विवेचन, विश्लेषण करता है। इसके विपरीत साहित्य में संवेदना का पक्ष अधिक प्रबल है। साहित्यकार के लिए समाज एक कच्ची वस्तु ही नहीं है, वह समाज में मूल्यों की खोज और उसका स्थापन करता है। यद्यपि समाजशास्त्र और साहित्य की प्रविधियां भिन्न हैं तो भी उसका लक्ष्य एक है। दोनों को एक-दूसरे का पूरक होना प्रत्येक के अध्ययन को वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है।
साहित्य का समाजशास्त्र जैसी अवधारणा के मूल में साहित्य और समाज की अन्योन्याश्रित की धारणा निहित है। इसके माध्यम से साहित्य की सामाजिकता स्पष्ट हो जाती है। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से शास्त्र जो साहित्य के माध्यम से समाज का अध्ययन करता है वह साहित्य का समाजशास्त्र कहलाता है। मैनेजर पाण्डेय के अनुसार, “साहित्य के समाजशास्त्र ने साहित्य की ऐसी अवधारणा विकसित की है जिससे साहित्य का सामाजिक स्वरूप स्पष्ट हो और समाज से साहित्य के सम्बन्ध की व्याख्या सम्भव हो।”1 इसलिए साहित्य के समाजशास्त्र के अनुसार साहित्य मात्र कलात्मक अभिव्यक्ति नहीं है। उसकी दृष्टि में मात्र कलात्मक मानदण्डों के संदर्भ में किये जाने वाले साहित्य विश्लेषण अपूर्ण हैं। कलात्मक श्रेष्ठता की दृष्टि से रचना कितना ही महान क्यों न हो जब तक वह समाज के गहन अध्ययन के संदर्भ में उपयोगी न होगी, तब तक साहित्य की उपादेयता संदिग्ध होगी। "साहित्य विश्लेषण का यह समाजशास्त्रीय नजरिया परंपरागत तथा दूसरे समकालीन नजरियों से आधारत: इस मुद्दे पर भिन्न है कि यह साहित्य को महज आस्वाद, उपभोग या आनन्द की वस्तु न मानकर उसे एक सामाजिक और सांस्कृतिक कर्म मानता है।”2
साहित्य का समाजशास्त्र साहित्य के अध्ययन की एक ऐसी प्रणाली है, जो लेखक कृति और पाठक के अन्तःसंबंधों का अध्ययन करता है। इसका सम्बन्ध बाजार से भी है। कृति लेखक से पाठक तक पहुँचने की प्रक्रिया में उत्पादन और उपभोग है। कई बार कमजोर कृति भी बाजार से होते हुए समाज के बीच पहुंच जाती है। साहित्य का समाजशास्त्र समाज में लेखक और साहित्य की स्थिति आदि का अध्ययन करता है। यह लोकप्रिय साहित्य की भी व्याख्या करता है। लोकप्रिय साहित्य का बड़े पैमाने पर उत्पादन और उपभोग किस तरह से होता है? इसका विचार भी करता है।
साहित्य का समाजशास्त्र विविध विधाओं की उत्पत्ति और उसके रूपों के विकास, रचना की उत्पत्ति का भी अध्ययन करता है। कृति की उत्पत्ति की व्याख्या के साथ ही कृति के आस्वाद का भी वर्णन या विवेचन करता है। मैनेजर पाण्डेय का कहना है कि "जैसे प्रकृति की समग्रता में अप्राकृतिक भी शामिल होता है और असामाजिक को छोड़कर सामाजिक को समझना कठिन है, वैसे ही साहित्य की दुनिया की संपूर्ण वास्तविकता को समग्रता से समझने के लिए कलात्मक साहित्य के साथ-साथ लोकप्रिय साहित्य की सामाजिक सत्ता और भूमिका को समझना जरूरी है।”3 साहित्य समाज का एक ऐसा महत्वपूर्ण अंग है जिससे समाज की अंतःक्रियाओं को भी समझा जा सकता है। समाजशास्त्रियों के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि साहित्य लिखने वाले बड़े साहित्यकार हैं या छोटे। रचना बड़ी है या छोटी। उनके लिए यह महत्वपूर्ण है कि कोई भी रचना कैसी भी हो वह समाज को समझने में उपयोगी सिद्ध हो।
साहित्य के समाजशास्त्र के चिन्तन की परम्परा की शुरुआत 17वीं-18वीं शती से माना गया है तब उसका उद्देश्य साहित्य के बारे में ऐतिहासिक दृष्टि का विकास था। अगस्त कॉम्टे ने 1838 में इस शाखा का नामकरण किया और बाद में इसकी शाखा-प्रशाखा का विकास होता चला गया। इस चिन्तन धारा को शुरू करने की पहल फ्रेंच विदूषी मादाम द स्ताल ने किया। मादाम ने अपने ग्रंथ साहित्य के विषय में 'द ला लितरात्यार' (De La Literature) के आरम्भ में ही कहा है मेरा उद्देश्य साहित्य पर धर्म, रीति-रिवाज और कानून के प्रभाव का परीक्षण करना है।
दूसरा महत्वपूर्ण नाम है फ्रांसीसी इतिहासकार तेन का। तेन के पहले एडम स्मिथ, हीगेल, स्पेंसर साहित्य और समाज के संबंधों पर अपने विचार व्यक्त कर चुके थे। पर तेन ने अपने ग्रंथ ‘अंग्रेजी साहित्य का इतिहास’ में साहित्य संबंधी मूल्यांकन का एक सिद्धान्त स्थापित किया। यह सिद्धान्त प्रजाति, काल और पर्यावरण के त्रिक पर आधारित है। प्रजाति को वह वंशानुक्रम तथा शारीरिक संरचना, काल को युग चेतना और पर्यावरण को जलवायु तथा सामाजिक परिवेश के रूप में लेते हैं। ये तीनों तत्व परस्पर सम्बद्ध हैं| दूसरी महत्वपूर्ण समाजशास्त्रीय दृष्टि जो 19वीं सदी में विकसित हुई वह मार्क्सवादी दृष्टि थी। मार्क्सवाद एक भौतिकवादी दर्शन है, जो पदार्थ की प्राथमिकता पर विश्वास करता है। 19वीं शताब्दी के समाजशास्त्र में तेन का प्रत्यक्षवाद एवं द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद अर्थात मार्क्सवादी दृष्टि से साहित्य को परखने की दृष्टि विकसित हुई।
20वीं शताब्दी में साहित्य का समाजशास्त्र कृति की संरचना पर केंद्रित होने लगा और कृति की बाहरी कारणों जैसे भूगोल, पर्यावरण आदि से उसका ध्यान हटने लगा। 20वीं सदी के सर्वप्रथम मार्क्सवादी विचारक लुकाच के अनुसार साहित्य सामाजिक चेतना के विकास अथवा ह्रास के लिए उपयोगी अथवा हानिकारक है। इनके अनुसार महान् यथार्थवादी लेखकों को आदर्श के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। लुकाच साहित्य को दस्तावेज मानते हुए उसके द्वारा नैतिक सिद्धि को स्वीकृति देते हैं। बीसवीं सदी के साहित्य के समाजशास्त्र को एक व्यवस्थित और विश्वसनीय ज्ञानानुशासन बनाने में लुसिए गोल्डमान का विशेष योगदान है। “बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में तो साहित्य के समाजशास्त्र पर कई पुस्तकें भी आयी। इस विषय पर डंकन हैरी, लेबिन, एस्कारपिट...आदि की पुस्तकें द्रष्टव्य हैं...इन लेखकों की केंद्रीय विषय-वस्तु साहित्य की संस्था के रूप में प्रस्तुत करना है। जिस प्रकार समाज की अन्य संस्थाओं का निर्माण समाज करता है और समाज का निर्माण ये संस्थाएं करती हैं, उसी प्रकार साहित्य का निर्माण समाज करता है और समाज का निर्माण साहित्य करता है।”4
1950 के बाद के यूरोप में समाजशास्त्र और साहित्य के समाजशास्त्र के क्षेत्र में हुई विशेष प्रगति का प्रमाण पियरे बौर्डियु का चिंतन और लेखन है। “पियरे बौर्डियु आधुनिक युग अर्थात पूंजीवादी युग में संस्कृति, कला और साहित्य के सामाजिक स्वरूप, सामाजिक आधार, सामाजिक प्रयोजन और सामाजिक प्रभाव की पहचान और व्याख्या करने वाले सामाजिक वैज्ञानिक हैं।...वे साहित्य और कला के सापेक्ष स्वायत्तता को स्वीकार करते हैं और उनके प्रतीकात्मक मूल्य और महत्व की पहचान भी करते हैं।...वे यह भी मानते हैं कि कृति का सामाजिक अर्थ अनिवार्यतः सामूहिक होता है।...उनके समाजशास्त्रीय चिंतन और लेखन के बीज शब्द हैं स्वभाव या आदत, जिसे वे ‘हैबिट्स’ कहते हैं और क्षेत्र जिसे वे ‘फील्ड’ कहते हैं| इन धारणात्मक शब्दों की मदद से उन्होंने संस्कृति, कला और साहित्य के समाजशास्त्र की नई भाषा विकसित की है।”5
हिन्दी में साहित्य के समाजशास्त्र की चिंतन और चर्चा बीसवीं सदी के अस्सी के दशक में शुरू हुई। साहित्य के समाजशास्त्र की दो महत्वपूर्ण धाराएं है- मीमांसावादी और अनुभववादी धारा| मीमांसावादी धारा मूलतः यूरोप में विकसित हुई और अनुभववादी मूलत: अमेरिका में। “एक में साहित्य के सामाजिक महत्व के अर्थ का विश्लेषण होता है और दूसरी धारा में साहित्य के सामाजिक अस्तित्व का। पहली धारा साहित्य में समाज की अभिव्यक्ति की खोज करती है और दूसरी समाज में साहित्य की वास्तविक स्थिति की पहचान। पहली को प्रायः साहित्यिक समाजशास्त्र या समाजशास्त्रीय आलोचना कहा जाता है और दूसरी को साहित्य का समाजशास्त्र।”6
अनुभववादी प्रयोग सिद्धि है, जिसमें इन्द्रियबोध की बात आती है। जैसे रामानन्द सागर की रामायण धारावाहिक का समाज पर बड़े पैमाने पर प्रभाव पड़ता है। इसका अध्ययन अनुभववाद के अन्तर्गत आता है। प्रेमचंद अपने निबंध ‘साहित्य का उद्देश्य’ में लिखते हैं, “साहित्य अपने कल का प्रतिबिम्ब होता है| जो भाव और विचार लोगों के ह्रदय को स्पंदित करते हैं, वही साहित्य पर भी अपनी छाया डालते हैं।”7 मीमांसावादी धारा इस बात का अध्ययन करती है कि साहित्य में विचारधारा, सौन्दर्यबोध किस तरह आता है, समाज की नीतियों का प्रभाव इन्द्रियबोध पर पड़ता है या नहीं? इन्द्रियबोध का सम्बन्ध केवल रसास्वादन से नहीं, समाज की विभिन्न नीतियों से भी है। मीमांसावादी धारा लोकप्रिय साहित्य का अध्ययन नहीं करता। यह केवल मुख्य धारा के साहित्य का ही अध्ययन करता है। कोई भी कृति और विचारधारा साहित्य में किस रूप में आई है, साहित्य की सामाजिक व्याख्या, रचना की सामाजिक दृष्टि, रचनाकार की दृष्टि का अध्ययन, रचना के सौन्दर्यबोध का अध्ययन आदि मीमांसावादी धारा के अंतर्गत आता है। अनुभववादी धारा समाज में साहित्य की स्थिति का अध्ययन करता है। यह लोकप्रिय साहित्य का भी अध्ययन करता है। बाजार के आने के बाद एक विशेष प्रकार का साहित्य चल पड़ा जिसका उत्पादन और उपभोग से गहरा रिश्ता है। लोक साहित्य हर युग में था लेकिन बाजार के आने के बाद, प्रिंट मीडिया के आने के बाद एक विशेष प्रकार का साहित्य चल पड़ा। जिसका उत्पादन और उपभोग से बड़ा गहरा रिश्ता है, जो लोक साहित्य नहीं है, लेकिन उसका सम्बन्ध बाजार से है उसे लोकप्रिय साहित्य कहते हैं।
अनुभववादी धारा को इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि रचनाकार कितना बड़ा अथवा छोटा है। जबकि मीमांसावादी धारा महत्वपूर्ण कृतियों को देखता है। मीमांसावादी धारा महत्वपूर्ण रचनाओं का ही अध्ययन करती है। मीमांसावादी धारा में एक मूल्य दृष्टि भी होती है, जबकि अनुभवादी धारा मूल्यवत्तता पर ध्यान नहीं देती है। क्या कारण है कि लोकप्रिय साहित्य बड़े पैमाने पर बिकता है, इसका अध्ययन करना अनुभववादी का काम है। रचनाकार की विश्वदृष्टि, रचनाकार की विचारधारा क्या है, समाज को रचनाकार कैसे देखता है? रचना में समाज कैसे आ गया, किन रूपों में आया, इसका अध्ययन मीमांसावादी धारा करती है। इसमें ‘मूल्य’ केंद्र में है जबकि अनुभववादी धारा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की साहित्य कितना मूल्यवान है| अनुभवादी धारा के अंतर्गत समाज में साहित्य की स्थिति और मीमांसावादी धारा के अंतर्गत साहित्य में समाज कैसे आया यह देखा जाता है।
साहित्य के समाजशास्त्र के स्वरूप को समझने के लिए उसके भीतर समाज में साहित्य के संबंध की व्याख्या में सक्रिय मुख्य दृष्टियों को जान लेना जरूरी है। मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं, “आजकल साहित्य के समाजशास्त्र के क्षेत्र में तीन दृष्टियां सक्रिय हैं जिनका लक्ष्य है- (1) साहित्य में समाज की खोज, (2) समाज में साहित्य की सत्ता और साहित्यकार की स्थिति का विवेचन, (3) साहित्य और पाठक के संबंध का विश्लेषण।”8
साहित्य के समाजशास्त्र की पहली दृष्टि है समाज से साहित्य के सम्बन्ध की खोज और उसकी व्याख्या करना। “प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है।”9 साहित्य का समाजशास्त्र उस प्रतिबिंब को खोजता है। साहित्य में समाज किन रूपों में आया, विचारधारा क्या है? किस कृति में समाज के कौन-कौन से पहलू साहित्य में आए हैं? जैसे हम ‘गोदान’ कृति लेते हैं। इसमें जो समाज निरूपित है क्या वास्तव में समाज ऐसा ही है अथवा नहीं? चाहे भाषा के आधार पर हो, कथानक के आधार पर, अथवा संवादों के आधार पर। हम इसके माध्यम से यही खोजने का प्रयास करेंगे कि इसमें समाज किन रूपों में आया है, यह एक दिशा है साहित्य के अध्ययन की। वास्तव में समाज कैसा है और प्रेमचन्द ने उसे किन रूपों में निरूपित किया है। "उन्नीसवीं सदी में साहित्य का समाजशास्त्रीय चिंतन साहित्य से समाज को दो स्तरों पर जोड़ता था। एक तो समाज को साहित्य की उत्पत्ति और उसके स्वरूप का निर्धारण करने वाली शक्ति के रूप में और दूसरा साहित्य को समाज के दर्पण के रूप में।”10 साहित्यिक कल्पना के सामाजिक अभिप्राय की पहचान भी साहित्य के समाजशास्त्र का विषय रहा है।
साहित्य के समाजशास्त्र की दूसरी दृष्टि समाज में साहित्यकार और साहित्य की स्थिति को दर्शाता है। इस संदर्भ में मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं कि “साहित्य के समाजशास्त्र की दूसरी दृष्टि समाज में साहित्य की भौतिक सत्ता और साहित्यकार की वास्तविक स्थिति के विश्लेषण पर बल देती है। इस परम्परा में विधेयवादी अनुभववादी दृष्टिकोण की प्रधानता है...इसके अंतर्गत दो प्रवृत्तियां हैं। एक प्रवृत्ति साहित्य के समाजशास्त्री को समाजशास्त्र की एक शाखा बनाने पर जोर देती है, दूसरी प्रवृत्ति समाजशास्त्रीय अंतर्दृष्टी की मदद से समाज में साहित्य और साहित्यकार की स्थिति समझने की कोशिश करती है।”11
आज के समाज में साहित्य और साहित्यकार की वही स्थिति नहीं है, जो गण समाज या सामंती समाज में थी। भारतीय समाज में साहित्यकार की बदलती स्थिति पर विचार करें तो हम पायेंगे कि अपने समाज में जो स्थिति वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति, कबीरदास और बिहारी या भूषण की थी, वह आज के लेखक की नहीं है। “साहित्य और साहित्यकार की आज के समाज में जो स्थिति है, उसका विवेचन साहित्य का समाजशास्त्र करता है, जो स्थिति थी या होनी चाहिए, वह समाजशास्त्र का विषय नहीं है।”12 साहित्य के समाजशास्त्र में समाज से लेखक के संबंध, उसकी सामाजिक स्थिति, जीविका, आश्रय और इन सबसे प्रभावित होने वाली मानसिकता का अध्ययन होता है। क्योंकि “प्रत्येक कृति में जनता के बड़े हिस्से का योगदान होता है। कृतिकार के निष्कर्ष उसके जीवन अनुभव की भूमि से रूप ग्रहण करते हैं। जीवन के कार्यों में अनेक ऐसे परिणाम संचित होते हैं। जिसका संकुचन शैशव से कैशोर्य और कैशोर्य से यौवन तक अर्जित संवेदनाओं-प्रतिक्रियाओं तथा घात-प्रतिघात के जटिल आदान-प्रदान के दौर में होता है।”13 कुछ समाजशास्त्रियों ने सत्ता में लेखक के बनते-बिगड़ते संबंधों का भी विवेचन किया है। आर्थिक, राजनीतिक और विचारधारा इन सबका संबंध साहित्य से है।
साहित्य के समाजशास्त्र की तीसरी दृष्टि पाठक समुदाय से साहित्य के संबंधों की विवेचना करती है। पाठक के पास पहुंचकर ही कृति सार्थक होती है। कितने बड़े पैमाने पर किसी कृति को पाठक मिलता है, कुछ समय बाद कोई कृति कितनी संख्या में बिकती है, इन सबका अध्ययन साहित्य का समाजशास्त्र करता है। आज के लेखक संभावित पाठकों के लिए लिखते है। लेखक का कोई निश्चित पाठक वर्ग नहीं होता है, लेकिन पहले ऐसा नहीं था। पहले पाठक वर्ग निश्चित था। सहित्य का समाजशास्त्र इन संभावित पाठकों और कृतियों के सम्बंधों का अध्ययन करता है। “पाठक और साहित्य के संबंध पर दो दृष्टियों से अधिक विचार हुए हैं। एक में मुख्य रूप से साहित्य को विकास में पाठक समुदाय की भूमिका का विवेचन हुआ है तो दूसरी में कृति की पाठकीय अभिग्रहण पाठक पर प्रभाव और पाठकीय प्रतिक्रिया का विश्लेषण हुआ है।”14
साहित्य का समाजशास्त्र इस बात का भी अध्ययन करता है कि रचना का उपभोग किस कारण से किया जा रहा है। पाठक, कृति का अर्थ क्या समझता है? क्यों पढ़ता है? पाठक किस रूप में कृति को देखता है, किस दृष्टि से पढ़ता है? कृति का अर्थबोध क्या होता है? पाठक कृति का चयन क्यों करता है? इन सबका अध्ययन साहित्य का समाजशास्त्र करता है। साहित्य के विकास में पाठक की रूचि के अनुसार भी साहित्य रचा जाता है। कोई भी रचना जब जनता अथवा पाठक के बीच आती है उसके मध्य केवल बाजार नहीं आता, आलोचना भी आती है। “जहाँ तक आलोचना में पाठक के महत्त्व का प्रश्न है तो आलोचक स्वयं एक पाठक होता है।”15 साहित्य के समाजशास्त्र की यही मुख्य दृष्टियाँ और दिशाएं हैं, दिशायें और भी हो सकती हैं। “एक दिशा साहित्यिक विधाओं के विकास के समाजशास्त्रीय अध्ययन की है, तो दूसरी दिशा साहित्यिक आन्दोलन के समाजशास्त्रीय अध्ययन की हो सकती है।”16
साहित्य के समाजशास्त्रीय अनुशीलन की अनेक दृष्टियों के साथ उसके भीतर अनेक पद्धतियाँ भी हैं, जिसमें विधेयवादी, मार्क्सवादी, संरचनावादी, आलोचनात्मक, उत्पत्तिमूलक संरचनावादी आदि प्रमुख हैं। साहित्य का समाजशास्त्र जिस पद्धति को अपनाता है उसके अनुसार उसका स्वरूप भी बनता है। समाजशास्त्र की सबसे पुरानी पद्धति विधेयवादी है। विधेयवाद का अद्यतन रूप अनुभववाद है।
साहित्यिक समाजशास्त्र का लक्ष्य कृति की केवल व्याख्या करना नहीं है, उसका लक्ष्य साहित्यिक कृति की सामाजिक अस्मिता की व्याख्या है। साहित्यिक कृति की सामाजिक अस्मिता रचना के सामाजिक संदर्भ और सामाजिक अस्तित्व में निर्मित होती है। इसलिए साहित्य के समाजशास्त्र में उस पूरी प्रक्रिया को समझने की कोशिश होती है। जिसमें कोई रचना साहित्यिक कृति बनती है, लेखन को साहित्यकार बनाने वाली इस प्रक्रिया का विश्लेषण केवल साहित्य के समाजशास्त्र में होता है।
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि साहित्य का समाजशास्त्र साहित्य के सभी रूपों और पक्षों को समग्रता में समझने पर जोर देता है। साहित्य प्रक्रिया के मुख्य तीन पक्ष हैं- लेखक, रचना और पाठक। साहित्य-विश्लेषण के अधिकांश दृष्टियों के केंद्र में इन तीनों में से कोई एक रहता है। साहित्य के समाजशास्त्र में इन तीनों का विवेचन होता है और इनके आपसी सम्बन्धों का भी। उसमें गम्भीर कलात्मक साहित्य के साथ लोकप्रिय साहित्य के सामाजिक संदर्भ और प्रयोजन का भी विश्लेषण होता है। केवल साहित्य के समाजशास्त्र में ही साहित्य-प्रक्रिया के अनुभवों और तथ्यों का व्यवहारिक विवेचन किया जाता है, जिसमें साहित्य के लेखन, प्रकाशन, वितरण और उपभोग की पूरी व्यवस्था की भूमिका स्पष्ट होती है। इससे एक ओर साहित्य चर्चा हवाई होने से बचता है तो दूसरी ओर साहित्य के इतिहास लेखन में भी मदद मिलती है। इसका महत्व इस बात से भी है कि साहित्य का समाजशास्त्र किसी भी रचना को ठीक समझने के लिए उस सामाजिक यथार्थ की अलग से समझने की मांग करता है। जिसमें रचना अनेक रूपों से जुड़ी होती है।
संदर्भ
1. मैनेजर पाण्डेय, 'साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका', आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), संस्करण: 1989, पेज-७
2. शिव कुमार मिश्र, साहित्य और सामाजिक संघर्ष, प्रकाशन संस्थान- 1977, पेज- 22,23
3. मैनेजर पाण्डेय, साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), संस्करण- 2018, पेज-15
4. बच्चन सिंह, साहित्य का समाजशास्त्र, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण- 2011, पेज-2
5. मैनेजर पाण्डेय, साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), संस्करण- 2018, पेज-10
6. वही, पेज-14
7. प्रेचन्द: साहित्य का उद्देश्य, अनुराग प्रकाशन, वाराणसी, 2017, पेज-6
8. मैनेजर पाण्डेय, साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), संस्करण- 2018, पेज- 29
9. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास,(काल विभाजन), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011, भूमिका
10 .मैनेजर पाण्डेय, साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), संस्करण- 2018, पेज- 30
11. मैनेजर पाण्डेय, साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), संस्करण- 2018, पेज- 36
12.मैनेजर पाण्डेय, साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), संस्करण- 2018, पेज- 37
13.मुक्ता व कुसुम चतुर्वेदी: आचार्य रामचंद्र शुल्क, प्रकाशन विकास, सूचना एवम् प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 2017, भूमिका
14. मैनेजर पाण्डेय, साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), संस्करण- 2018, पेज- 42
15. वही, पेज-40
16. वही, पेज-47
सुनंदा गराईं
शोधार्थी, हिंदी विभाग, महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय मोतिहारी, बिहार
Sunanda.garain@gmail.com, 9911953456
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र विजय मीरचंदानी
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