शोध आलेख : दुष्यंत कुमार की कविताओं में तत्कालीन समाज और प्रतिरोध / स्नेह द्विवेदी 'सूरज'

दुष्यंत कुमार की कविताओं में तत्कालीन समाज और प्रतिरोध
स्नेह द्विवेदी 'सूरज'

शोध सार : दुष्यन्त कुमार आठवें दशक के सर्वाधिक प्रखर और मुखर कवि थे, उन्होंने अपने समय का बहुत प्रामाणिक चित्रण किया है। उनकी कविताओं में उनके समय की घनीभूत अभिव्यक्ति हुई है। दुष्यन्त कुमार की कविता में जीवन और युग की सघन भावात्मक जटिलता और बौद्धिक संघर्ष एवं उसकी विषमता अभिव्यक्त है। युग के अंतर्विरोधों को उन्होंने भी भोगा-देखा है । ऐसा नहीं कि वह किसी वायवीय स्वप्नलोक की अदृश्य रहस्यात्मक अनुभूतियों के कवि हैं या किसी सिद्धान्त के वशीभूत नारेबाजी करते हैं। वह भी युग के समसामयिक यथार्थ के कवि हैं और जीवन की समस्त तिक्त - कटु संवेदनाओं को लेकर साधारण से साधारण और महान से महान वास्तविकताएँ उनके काव्य का विषय बन सकी हैं। इस दृष्टि से उनकी अनुभूतियों का क्षेत्र समसामयिक यथार्थ ही है, वही उनकी पृष्ठभूमि, वही उनका जीव्य - वहाँ से वे जीवन की बड़ी से बड़ी सच्चाई और छोटी से छोटी वास्तविकता को देखते हैं, उनकी समस्याओं से जूझते हैं और उसके समस्त अन्तर्विरोधों और जटिलताओं को एक ऐसी स्थिति पर अनुभव करते हैं जो सारे संदर्भों में व्याप्त हो।

बीज शब्द : वायवीय, अनुभूति, अंतर्विरोध, भावात्मक जटिलता, समसामयिक यथार्थ, घनीभूत, बौद्धिक संघर्ष, यथास्थिति, प्रतिरोध।

मूल आलेख : हिंदी कविता के प्रतिष्ठित कवि दुष्यन्त कुमार की कविताओं में सामाजिक यथार्थ परिवर्तनकामी चेतना और तत्कालीन व्यवस्था विरोधी स्वर मुखर होकर सामने आया है। “दुष्यंत हिंदी की उस क्रांतिकारी नव-निर्माणकारी परम्परा से जुड़े माने गए, जिसमें भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान और नवीन ही नहीं आते, प्रसाद-निराला जैसे छायावादियों की ऐसी कवितायेँ भी आती हैं |”1दुष्यंत ने कविताएँ, गीत, ग़ज़ल इन सभी विधाओं में लिखा है। उनकी काव्य-रचनाओं में किशोरावस्था के दिवास्वप्नों में विचरण करने वाले दुष्यंत से युवावस्था के व्यवस्था - विरोधी स्वरों को अभिव्यक्त करते दुष्यंत के परिपक्व होते विचारों को देखा और समझा जा सकता है। समय के साथ-साथ दुष्यंत के विचारों की परिपक्वता उनकी रचनाओं में भी नज़र आती है। उनकी अंतिम रचना ’साये में धूप’ में हम व्यवस्थालोचना के सभी बिंदुओं को देख पाते हैं ।‘साए में धूप’ में वे एक परिपक्व, सुलझे हुए व तटस्थ रचनाकार की भांति व्यवस्था के सभी हिस्सों को चुन-चुनकर निशाना बनाते हैं व व्यवस्था के बदलाव की उम्मीद करते हैं। दुष्यन्त की काव्य रचनाओं से गुज़रना उनकी रचना प्रक्रिया से गुज़रना भी है जिसमें पाठक व्यवस्था के शोषक चेहरों से परिचित होता जाता है और अंत तक आते-आते ये सब अपने आस-पास के वातावरण में उसे नज़र आने लगता है, शोषणकर्ता द्वारा बनाया गया वह वातावरण भी नज़र आने लगता है, जहाँ शोषित या तो अपने शोषण से अंजान है या विवश है। यह किसी व्यक्ति या वर्ग की नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की असफलता है, जिसमें रहते हुए व्यक्ति स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है।

प्रत्येक सजग रचनाकार की भाँति दुष्यन्त कुमार की दृष्टि भी अपने समय और समाज पर टिकी है। अपने समाज में घटित होने वाली हर अच्छी-बुरी घटना पर उनकी नज़र बहुत सावधान है। वे देख रहे थे कि असत्य, छल, प्रपंच, ईष्र्या, द्वेष, पाखण्ड आदि आज का अनिवार्य धर्म बनता जा रहा है। जिसे अपना समझा जा रहा है, वही धोखा दे रहा है, आस्तीन का साँप बन जा रहा है। इसलिए उन्होंने लिखा-

हमने पाले साँप आस्तीनों में
दूध पिलाया / खुले हुए आँगन में छोड़ा
पक्का फर्श उखाड़ / बनाए उनके लिए रास्ते
उनको अपना माना
पर ये साँप रहे/उनके दाँतों से विष न गया ।
हमने तोड़े नहीं / इन्होंने उन्हें प्रयोग किया
आज नसों में व्याप गया है जो
वह अपनी उदारता का विष है
इसे उतारो कडवे-कडवे घूँट पियो ।2

इसलिए इस कविता के दूसरे भाग में यह निष्कर्ष निकालते हैं कि अपने बच्चों को साँप के साथ-साथ पालना चाहिए ताकि वे साँप की सारी चालाकियों को बचपन से ही जानते रहें और वक्त आने पर उसका मुकाबला कर सकें-

साँप पालेंगे / सुनो हम साँप पालेंगे
उसे मारो मत/घर के सहन में छोड़ दो
बड़ा होने दो बालकों के साथ
वे इसे अपनत्व दें / आगे कभी जब जिन्दगी में
उन्हें साँप मिले परायापन न मानें
डरें-झिझकें नहीं/ उचककर हाथ में ले लें
तोड़ दें विष के अनिष्टकारी दाँत और यों साँप पालेंगे।3

विकल्पहीनता, पस्तहिम्मती, पराजयबोध और व्यर्थताबोध नई कविता की एक प्रवृत्ति थी । यह दुष्यन्त कुमार के समय में भी थी और आज भी है । हर तरफ हाथ-पैर मारकर आज का महत्वाकांक्षी मनुष्य अन्ततः हताश होकर पराजयबोध से ग्रस्त हो जाता है। उसे लगता है कि अब सब कुछ समाप्त हो गया है। राम के मिथक के माध्यम से दुष्यन्त ने इस बात को अपनी ’महत्वाकांक्षी’ शीर्षक कविता में बड़े सुन्दर ढंग से पेश किया है-

...जड़ता.... निश्चयता यही ज़िन्दगी है आज
यह जो चोला बदलकर नई स्थितियाँ आई हैं
इस जिन्दगी को हरने
या उसका सतीत्व नष्ट करने महत्वाकांक्षाएँ
ये रावण से कहीं अधिक पतित हैं
उसने तो सीता का अपहरण वायुयान में बिठाकर किया था
और ये महत्वाकांक्षाएँ
घसीटती हुई ले जा रही हैं जिन्दगी को
स्वार्थ सिद्धकर जाने किस वन में छोड़ने के लिए ।
मैं अपनी जिन्दगी की सीता का राम
मायावी हिरन के सींगों से
क्षत-विक्षत होकर कुछ करने की शक्ति जो बैठा हूँ
मेरा पुरुषार्थ भ्रात लक्ष्मण
मेरे उपचार में लगा है ।4

बेरोजगारी आज देश की ही नहीं समूची दुनिया की बड़ी समस्या है। बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या और उसी के साथ बढ़ती शिक्षित-अशिक्षित बेरोजगारों की फौज अपनी विवशताओं के कारण कुछ भी करने के लिए मजबूर है। बहुत से अपराधी तत्व बेरोजगार नौजवानों को थोड़े से प्रलोभन देकर आपराधिक कार्यों में लगा रहे हैं। बेरोजगारी के इस दंश को दुष्यन्त कुमार ने भी सहा था। उनकी ’बेरोजगारी : एक अनुभूति’ शीर्षक कविता इसी पीड़ा की अभिव्यक्ति है-

तभी एक रिक्शे वाले ने पूछा-’बाबूजी कहाँ चलेंगे?’
मैंने पहले अपनी जेब टटोली
फिर खाली मन !
अनायास मुँह से आई मोटी सी गाली अपनी किस्मत को दे डाली
उसने बोला- ’कहाँ चलोगे, पता नहीं है’
उसको अखरा होगा कुछ / पर मुझको अखरा...
पहले अनगिनत पथभ्रष्ट
थक-हारों की आकृतियाँ- सी उभरी
औ फिर गूँज उठे स्वर - कहाँ चलेंगे ?
कहाँ चलेंगे? कहाँ चलेंगे?.....5

उनकी ’मैं कौन हूँ’ शीर्षक कविता भी बेराजगारी की समस्या पर ही है । व्यक्ति की पहचान और उसकी प्रतिष्ठा पद से होती है। जिसके पास कोई पद नहीं है, धन-दौलत नहीं है, उसकी कोई पहचान भी नहीं है । ऐसा व्यक्ति अपनी दृष्टियों में भी गिर जाता है और पूछने लगता है- मैं कौन हूँ?

चप्पलों सी ज़िन्दगी को
सड़कों पर घिसटा हुआ
किसी छत सा गाँव की
चूता हुआ, रिसता हुआ
ऊँगलियों में पिरा रहे
रुमाल सा मैं कौन हूँ?. 6

गरीबी, अभाव और बेरोजगारी मनुष्य को किसी भी हद तक ले जा सकती है। जब पेट में आग लगी हो तो बाकी सारी कामनाएँ, कोमल भावनाएँ सो जाती हैं। पर्व-त्यौहार और हर प्रकार के उत्सव सुख देने के बजाय दुख देने लगते हैं। ऐसे में होली, दीवाली और दशहरा अच्छा नहीं लगता। दुष्यन्त की एक कविता जो होली को सम्बोधित है, इस दृष्टि से बडी मार्मिक और प्रभावशाली है-

हे होली के त्यौहार हमें तुम माफ करो.....
है आज पेट में समाधिस्थ भीषण ज्वाला
जिसकी लपटों में जलकर पिघल गया
ये मोम सदृश उत्साह हृदय का..
अब हमसे चला नहीं जाता भूखे पेटों
हमको पहिले खाली पेटों को भरना है
पहिले ये रोटी का मसला हल करना है
हम गा न सकेंगे गीत तुम्हारे स्वागत के
हैं क्योंकि तुम्हारी पावक से
अपनी जठराग्नि कहीं प्यारी
हमें तुम माफ करो...7

दुष्यन्त कुमार की एक कविता है - ’इनसे मिलिए, इसका दूसरा शीर्षक है- ’नख - शिखवर्णन ।’ इसमें उन्होंने अपनी अस्त-व्यस्त दीन-दशा का वर्णन किया है। एक ऐसा नौजवान जो अपनी गरीबी और परेशानियों के कारण गलकर कंकाल मात्र रह गया है। इस कविता के माध्यम से उन्होंने अपने साथ-साथ ऐसे तमाम नौजवानों का चित्रण किया है जो अभावग्रस्त परिस्थितियों के कारण चढ़ती उम्र में बूढ़ों जैसे दिखने लगते हैं-

टखने ज्यों मिले हुए रखे हों बाँस
पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस .....
गट्टों सी जंघाएँ निष्प्राण मलीन
कटि रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण
छाती के नाम महज हड्डी दस-बीस
जिस पर गिन-चुनकर बाल खड़े इक्कीस
पुट्ठे हों जैसे सूख गये अमरूद
चुकता करते-करते जीवन का सूद......
कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यन्त कुमार । 8

इस कविता में उपमानों का प्रयोग भी दर्शनीय है ।व्यंग्यधर्मिता दुष्यन्त कुमार की कविताओं की एक खास विशेषता है। वैसे हिन्दी के सभी बड़े कवियों ने व्यवस्था और राजनीति की विद्रूपताओं का पर्दाफाश करने के लिए व्यंग्य का सहारा लिया है। दुष्यन्त ने भी तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं को व्यंग्यात्मक कविताओं के माध्यम से उठाया है। आज़ादी प्राप्ति के तुरन्त बाद ही तमाम अवसरवादी और लम्पट किस्म के लोग राजनीति में दाखिल होकर अपने छल-छद्म और झूठ के बदौलत व्यवस्था में ऊँचे पदों पर आसीन हो गए थे और सुख-सुविधाओं का भोग कर रहे थे। सन् 1949 में लिखी अपनी एक कविता ’विज्ञापन के पर्चे हैं’ में उन्होंने अपनी पत्नी को सम्बोधित करते हुए इस समस्या को बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है-

ये जो छपवाकर लाया हूँ ये विज्ञापन के पर्चे हैं ।
व्यर्थ की लेक्चरबाजी से ही भोली जनता को फुसलाकर
चालीस प्रतिशत से भी ज्यादा बन बैठे हैं आज मिनिस्टर
तन पर निजके कोट नहीं था फक्कड़ बैठे हैं कुर्सी पर गाँधी टोपी वालों को भी रानी! अब नेता कहते हैं।...9

दुष्यन्त जी ने सत्ताधारी वर्ग की लूट, शोषण और आतंक का अपनी कविताओं में जमकर विरोध किया है। उनकी ’साये में धूप’ की ग़ज़लें तो व्यवस्था - विरोध में ही लिखी गयी हैं। उन ग़ज़लों की व्यंग्य की मार बड़ी तेज है। खराटे मधु का उद्धरण इनके व्यंग्य को लेकर कुछ इस प्रकार है-“व्यंग्य-विनोद में तो दुष्यंत कुमार काफी सिद्धहस्त थे। उनके व्यंग्य व्यथा से परिपूर्ण हुआ करते थे | यह व्यथा व्यष्टि की अपेक्षा समष्टि की अधिक रहती थी |”10

आपात काल के दिनों में ही (1975) उन्होंने एक कविता आपातकाल के विरोध में लिखी थी जो व्यवस्था की हकीकत को व्यंग्यात्मक लहजे में व्यक्त करती है। कुछ अंश इस प्रकार हैं-

...घर के दरवाजों पर पहरा
जलसों पर नारों पर पहरा
सारे अखबारों पर पहरा
खबरें आती हैं छन-छनकर ।
अपनी कलम उड़ाकर रख दे
या फिर इसको इसका हक दे
तनिक सच्चाई की न झलक दे
सिर्फ उजालों का वर्णन कर ।11

दुष्यन्त कुमार ने एक कविता 1 अप्रैल 1975 में उज्जैन में आयोजित टेपा सम्मेलन के लिए लिखी थी और उन्होंने उसे तरन्नुम में सुनाई थी। यह कविता तत्कालीन राजनीति, नई कविता और कई कवियों पर प्रहार करती है। हास्य और व्यंग्य का मिला-जुला रूप इस कविता को बहुत

ये बड़े शैतान मच्छर हैं ये समझाता हूँ मैं
ये सुमन उज्जैन का है इसमें खुशबू तक नहीं
दिल फिदा है इसकी बदबू पर कसम खाता हूँ मैं
इससे ज्यादा फितरती इससे हरामी आदमी
हो नहीं दुनिया में पर उज्जैन में पाता हूँ मैं....12

दुष्यन्त कुमार की कविताओं में समाज की समस्याओं का चित्रण तो हुआ ही है, उन्हें बदलने की बेचैनी भी है । वे यथास्थिति को चुपचाप स्वीकार करने और उसके सामने सिर झुकाने या समर्पण कर देने के लिए तैयार नहीं है। राजनेताओं तथा समाज विरोधी तत्वों के कुचक्रों के सामने वे किसी भी हाल में घुटने टेकने के विरोधी हैं। जब तक समाज में शोषण और अन्याय है, तब तक शान्ति की उम्मीद असम्भव है । सब कुछ देखते-सहते हुए जो लोग चुप हैं, दुष्यन्त उन्हें धिक्कारते और दुत्कारते हुए उनकी आत्मा को झकझोरने की कोशिश करते हुए कहते हैं कि-

इस जूते को सिर पर रखकर
इस घूँसे को अधरों से चिपका लो
इस गाली को प्यार समझकर
इन लड़ने वालों को गले लगा लो
और नीचता की बाँहों को
हार मान फूलों का हिप उकसा लो
और बैठकर मुझ जैसे शान्ति बघारो
शान्ति चाहने वालों । 13

सत्ता की चुनौती और उसके अत्याचार को झेलने वाले लोगों को वे प्रतिरोध करने के लिए प्रेरित करते हैं और साहस के साथ हर प्रकार के बन्धनों और प्रतिबन्धों का जवाब देने के लिए ललकारते हैं-

दोस्त मेरे / आज तू ही नहीं / हम भी
इसी सत्ता की चुनौती के तले हैं
हमारे सपने निपट / बन्धन नियत होने चले हैं
पर नहीं कि जैसे सिर उठाया
और सहसा चुनौती के सामने आया
लेखनी अपनी पराई तो नहीं हम चुनौती की दिशा में मोड़ देंगे/ उस तरह हम भी
खनकती हुई जंजीरें / दमन की तोड़ देंगे
दुखी मत हो / तू हमारा दोस्त भी है / देवता भी। 14

दुष्यन्त अपनी कई कविताओं में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष की बात करते हैं। वे समाज के अजगरों को समाप्त करने का आह्वान करते हैं और स्वयं सबसे आगे बढ़कर लड़ने का संकल्प करते हैं। ’नए कवि से’ शीर्षक कविता में वे कहते हैं कि-’मैंने ही बीड़ा उठाया है / कालिदह का / मैं ही लडूंगा / कंदुक लाऊँगा / पीठ पर अजगर की चढूँगा मैं ही ।15

यहाँ कंदुक जनता की सुख-शान्ति और सुविधाओं का प्रतीक है। इसी प्रकार अपनी ’कालदह’ कविता में अपनी संघर्षशीलता का बहुत स्पष्ट शब्दों में परिचय देते हुए किसी भी सीमा तक लड़ने की बात करते हैं-

...अभी मुझे और आगे जाना होगा - जाऊँगा
वहाँ नीलधारा में
फेनिल आवर्तों के मध्य व्यूह रचना कर
जहाँ एक अजगर रहता है / वहीं तो पड़ी है गेंद
जाकर उसे लाऊँगा / अजगर के जबड़े से जूझँगा
आतुल मत हो / अधीर मत हो
शीघ्र लौट आऊँगा / खड़े रहो तुम केवल तट पर
घबराओ मत / मत निराश हो / वापस जाओ मत।16

कवि को यह विश्वास है कि उसके द्वारा किये जा रहे परिवर्तन के ये प्रयास अन्ततः अपना असर दिखाएँगे। वह जानता है कि रचनात्मक प्रयास व्यर्थ नहीं जाते कल नये चाँद-तारे उगेंगे, कल सूर्य की नई किरण आयेगी और कल बंजर खेत भी फसल देने लगेंगे-

सिर्फ मृगछलना नहीं वह चमचमाती रेत
अर्थ लेंगे कल हमारे आज के संकेत ।
सूर्य की पहली किरन पहचानता है कौन
क्या हुआ जो युग हमारे आगमन पर मौन
तुम न मानो शब्द कोई है ’नामुमकिन’
कल उगेंगे चाँद-तारे कल उगेगा दिन
कल फसल देंगे समय को यही बंजर खेत ।17

दुष्यन्त कुमार ने अपने समय के ताप को बहुत शिद्दत से महसूस किया था। उन्होंने अपने युग की पीड़ा बैचनी छटपटाहट त्रासदी और आम आदमी की विकल्पहीनता तथा आक्रोश को अनुभव करते हुए अपनी कविताओं में उसे व्यक्त करने की कोशिश की है। यही कारण है कि दुष्यंत के यहाँ विद्रोही तेवर अक्सर देखने को मिलते हैं | इसके साथ ही सांस्कृतिक विघटन और नैतिक अवमूल्यन के कई चित्र इनकी रचनाओं में प्रायः दिखता है | भोगवादी संस्कृति के वर्चस्व से एक ऐसी तहजीब को महत्ता मिलने लगी, जिसने आदमी को नरभक्षी बनाकर रख दिया है |

अब नई तहजीब के पेशे-नजर हम
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं |18

सरदार मुजावर ने दुष्यंत कुमार के गजलों को केंद्र में रखकर समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को रेखांकित करते हुए, इस प्रकार लिखा है-“जहाँ उन्होंने अपनी गजलों के माध्यम से व्यक्ति एवं समाज की आँखें खोलने का प्रयास किया है, वहां उन्होंने समाज की बुराईयों को खत्म करने के लिए क्रांति की बात भी कही है | निः संदेह उनकी हर गज़ल हमें एक मशाल की तरह नजर आती है, जिसके प्रकाश में चाहे व्यक्ति हो या समाज हो, दोनों ही विकास के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं |”19

आजाद भारत में समाजवाद लाने का और गरीबी मिटाने का आश्वासन कई बार दिया गया | आमजन के सरोकार से मुक्त पूंजीवादी समाजवाद लाकर इस आश्वासन को पूरा किया गया | गरीबी आज भारत देश की वैश्विक पहचान बनी हुई है | गरीबी-उन्मूलन की कई योजनायें चलाने के बावजूद आज भी करोड़ों लोग गरीबी-रेखा के नीचे गुजर-बसर करने को बाध्य है | इसका वास्तविक कारण यह है कि व्यावहारिक धरातल पर योजनाओं को सही ढंग से क्रियान्वित नहीं किया जाता है | दुष्यंत कुमार ने अपनी कई रचनाओं में नेताओं के आश्वासनों के यथार्थ को बेपर्दा किया है | उनके संग्रह ‘साये में धूप’ का पहला शेर ही इन आश्वासनों की सच्चाई को विस्तार से व्यंजित करता है |

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए | 20

निष्कर्षतः देखें तो दुष्यंत की कविताएं अपने युग की वेदना को वाणी देती हैं। उनकी अभिव्यक्ति में एक सहजता है यह सहजता सदैव एक ताप और आवेग का परिणाम होती है और इस दृष्टि से दुष्यन्त की पूरी कविता में एक आग,ताप और आवेग है, क्योंकि वह मात्र संवेदना की अभिव्यक्ति नहीं है, निश्चित अनुभवों और स्वछंद अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है। दुष्यन्त सिर्फ समाज की विद्रूपता का चित्रण करके ही संतुष्ट नहीं होते वह उसे बदलने के लिए भी प्रयत्नशील दिखाई पड़ते हैं।

संदर्भ :
1. विजय बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार (भारतीय साहित्य के निर्माता), साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, संस्करण-2023, पृष्ठ संख्या-50
2. दुष्यन्त कुमार रचनावली, पहला खण्ड, पृ०-382
3. दुष्यन्त कुमार रचनावली, पहला खण्ड, पृ०-382
4. दुष्यन्त कुमार, साये में धूप, राधाकृष्णन प्रकाशन, इलाहाबाद(प्रयागराज), संस्करण-2008, पृष्ठ संख्या-56
5. दुष्यन्त कुमार रचनावली, पहला खण्ड, पृ०-404
6. दुष्यन्त कुमार रचनावली, पहला खण्ड, पृ०-423
7. दुष्यन्त कुमार रचनावली, पहला खण्ड, पृ०-203-204
8.दुष्यन्त कुमार, साये में धूप, राधाकृष्णन प्रकाशन, इलाहाबाद(प्रयागराज), संस्करण-2008, पृष्ठ संख्या-25
9. दुष्यन्त कुमार रचनावली, पहला खण्ड, पृ०-172
10. खराटे मधु, हिंदी गज़ल के प्रमुख हस्ताक्षर, विद्या प्रकाशन, कानपुर, प्रथम संस्करण, 1994, पृष्ठ संख्या -10
11. दुष्यन्त कुमार रचनावली, दूसरा खण्ड, पृ०-232
12. दुष्यन्त कुमार रचनावली, दूसरा खण्ड, पृ०-232
13. दुष्यन्त कुमार रचनावली, पहला खण्ड, पृ०-240
14. दुष्यन्त कुमार रचनावली, पहला खण्ड, पृ०-407
15. दुष्यन्त कुमार रचनावली, पहला खण्ड, पृ०-410
16. दुष्यन्त कुमार रचनावली, पहला खण्ड, पृ०-411
17. दुष्यन्त कुमार रचनावली, पहला खण्ड, पृ०-414
18. सं.- विजय बहादुर सिंह, दुष्यंत रचनावली भाग-2, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2007, पृष्ठ सं.-262
19. मुजावर डॉ. सरदार , दुष्यंत कुमार की गजलों का समीक्षात्मक अध्ययन, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2003, पृष्ठ संख्या-34 |
20. सं.- विजय बहादुर सिंह, दुष्यंत रचनावली भाग-2, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2007, पृष्ठ सं.-261

स्नेह द्विवेदी ’सूरज’
शोधार्थी (हिंदी विभाग) तिलकधारी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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