शोध आलेख : आधुनिक हिन्दी काव्य-धारा में मेवाड़ / राजेन्द्र कुमार सिंघवी

आधुनिक हिन्दी काव्य-धारा में मेवाड़
- राजेन्द्र कुमार सिंघवी

शोध सार : मेवाड़ का नाम स्वातंत्र्य चेतना की श्रेणी में बड़े आदर से लिया जाता है। इसी कारण आधुनिक हिंदी कविता में मेवाड़ का ऐतिहासिक गौरव स्वाधीनता संग्राम का पदचिह्न बना। यहाँ का शौर्य साहित्यकारों के लिए विस्मयकारी रहा। लेखन की विषय-वस्तु में अत्याचारों के विरुद्ध नहीं झुकने का संदेश, मातृभूमि की आन-बान-शान पर कर्तव्य निभाते हुए युद्ध करना, सतीत्व की रक्षा के मर मिटना, प्रताप का मातृभूमि प्रेम, पन्ना का पुत्र-बलिदान जैसे कई कथानक मेवाड़ की माटी के माध्यम से साहित्य की धरोहर बने। दासता के विरुद्ध संघर्ष के प्रेरणा स्रोत रहे इन उदात्त चरित्रों को लेकर महाकाव्य, खंडकाव्य, मुक्तक काव्य लिखे गए, जिसमें मेवाड़ का शौर्य प्रखर रूप में प्रदीप्त हुआ। इस अनुपम अवदान में श्यामनारायण पांडेय रचित ‘जौहर’ और ‘हल्दीघाटी’, रामकुमार वर्मा की रचना ‘चित्तौड़ की चिता’, जयशंकर प्रसाद कृत ‘महाराणा का महत्त्व’, लाला भगवानदीन की ‘वीर पंचरत्न’ जैसी प्रबंध रचनाओं के साथ प्रसाद रचित ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ जैसी अमर कविता उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त वाचिक परम्परा में गाए जाने वाली स्तुतियों की संख्या अपार हैं। कालांतर में शांति की कामना का स्वर भी डॉ. हरीश का खंडकाव्य ‘महीयषी मीरा’ में मुखरित हुआ है।

बीज शब्द : मेवाड़ का गौरव, जौहर, सतीत्व की रक्षा, शौर्य, स्वामिभक्ति, स्वातंत्र्य-बोध, आत्मोत्सर्ग-भाव, औदात्य, युद्ध की भीषणता, वाचिक परम्परा, भक्ति-भाव।

मूल आलेख : राजस्थान शूरवीरों की भूमि के रूप में विख्यात है। मेवाड़ का इतिहास स्वातंत्र्य-चेतना का सदैव आदर्श प्रतीक बनकर उपस्थित रहा। वीर गाथाओं में महाराणा प्रताप का शौर्य स्वाधीन मातृभूमि का प्रेरणा-स्रोत बनकर प्रकट हुआ तो पन्नाधाय का मातृभूमि के लिए पुत्र का बलिदान अपूर्व है। पद्मिनी-कर्मवती का जौहर, गोरा-बादल की वीरता को समय की अबाध गति में भी अविस्मरणीय बनाए रखने का स्तुत्य कार्य कवियों ने किया है। मेवाड़ की भूमि जो भारतीय ललनाओं के रक्त से लाल है। उन्होंने अपने सुकुमार हाथों से अपने लिए चिता सजाई थी। प्रचंड आग और कोमल शरीर कैसा विचित्र संयोग था? उस बलिदान में कांति और गौरव की चिंगारियाँ भरी हैं।

डॉ. रामकुमार वर्मा लिखते हैं, “चित्तौड़ की चिता की ज्वालाएँ अब भी इतिहास के पृष्ठों पर चमकती हैं। वासना में डूबे मुसलमानों की आँखों में अक्षम्य अपराध था। किसी हिंदू के घर में सौंदर्य का फूल खिलना, उसकी नियति- यवनों की वासना की भीषण अग्नि थी, अत्याचार, निर्दयता, शासन और वासनामयी प्रवृत्ति थी। चित्तौड़ भूमि में गौरव और सम्मान की भावना बची थी। चित्तौड़ ने जागृत रखा- सम्मान युक्त सूखी रोटी खाकर क्रूर शासकों से लड़कर, मिटकर भी गौरव को बचाना। वे टूट गए पर चित्तौड़ की आत्मा को, गौरव को कोई कुचल नहीं सका।“ [1] यह भूमि सम्पूर्ण भारतवर्ष में क्यों पूजनीय है, उसका उत्तर मैथिलीशरण गुप्त की 'भारत भारती' में मिलता है। यह रचना स्वाधीनता आन्दोलन की कंठ-हार बनी, उसमें मेवाड़ की धरा के लिए व्यक्त उक्त पंक्तियाँ सभी कवियों के लिए प्रेरणास्पद मानी गई, जिसमें वर्णित है-

चित्तौड़ चंपक ही रहा यद्यपि यवन अलि हो गए,
धर्मार्थ हल्दीघाटी में कितने सूभट बली हो गए।
कुलमान जब तक प्राण तब तक, यह नहीं तो वह नहीं,
मेवाड़ भर में वक्तृताएँ गूंजती ऐसी रही।। [2]

श्री श्यामनारायण पांडेय ने जौहर की भूमिका में लिखा, "जौहर अपनी आर्य संस्कृति के

संरक्षण में सहायक होगा और संस्कृति के पुजारियों की कमी नहीं, इसलिए इसका प्रचार स्वयंसिद्ध है। इस संघर्ष काल में आर्य संस्कृति के रक्षकों को जौहर के छंदों ने मंत्रों से भी अधिक बल दिया है, जो सर्वत्र स्पष्ट है।” [3] श्यामनारायण पांडे ‘जौहर’ में इस भूमि के माहात्म्य का परिचय एक संन्यासी के कथन के माध्यम से देते हैं जब कवि प्रश्न करता है कि संन्यासी तुम कहाँ पर पूजन करने के लिए जा रहे हो-

थाल सजाकर किसे पूजने चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का पीतांबर तन पर डाले?
कहाँ चले ले चंदन अक्षत, बगल दबाए मृगछाला?
कहाँ चली यह सजी आरती, कहाँ चली जूही माला?
इधर प्रयाग न गंगासागर, इधर ना रामेश्वर काशी।
कहाँ किधर है तीर्थ तुम्हारा, कहाँ चले तुम संन्यासी ? [4]

कवि संन्यासी से प्रश्न करता है और पूछता है कि तुम उपवीत, मेखला, जल से भरा कमंडल लेकर किसे नहलाओगे? मौलसिरी का गजरा किसके गले में पहनाओगे? कहाँ दीप जलाकर माला-फूल चढ़ाओगे? सारे प्रश्नों को सुनकर संन्यासी उत्तर देता है-

मुझे न जाना गंगासागर, मुझे न रामेश्वर काशी।
तीर्थराज चित्तौड़ देखने को, मेरी आँखें प्यासी।। [5]

राजपूतों का युद्ध के लिए प्रस्थान करना, केसरिया वस्त्र धारण करना, क्षत्राणियों का जौहर करने का व्रत लेना, चिता के समीप फूलों की रेखाएँ सुसज्जित होना, फूलों से द्वार बनाने, आर्य ललनाओं का पूजन करना, धर्म हित मरण हेतु जौहर करना, दुर्गा देवी का पूजन करना कहना और अपनी भूलों के लिए क्षमायाचना करते हुए मरण-पथ पर प्रस्थान करना कितना लोमहर्षक है-

देवी यह है अंतिम पूजन, क्षमा करना सब की सब भूल,
रहे सब पर सदैव अनुकूल, न करना हमसे निष्ठुरपन। [6]

मेवाड़ धरा के गौरव, राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक एवं मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले शूरवीर महाराणा प्रताप का व्यक्तित्व सदैव प्रेरणास्पद रहा है। श्याम नारायण पांडेय रचित खंडकाव्य ‘हल्दीघाटी’ प्रताप के जीवन-चरित्र को अमरत्व प्रदान करने वाली कृति है। हल्दीघाटी नामकरण राजस्थान की वीरभूमि के उस स्थल का नाम है, जहाँ राणा प्रताप और अकबर के मध्य भीषण संग्राम हुआ, परन्तु अकबर की मेवाड़ विजय की कामना अधूरी रही। श्याम नारायण पांडेय ने अपनी ओजस्वी प्रस्तुति से इस कृति को जनव्यापी बना दिया। ‘हल्दीघाटी’ के नायक राणाप्रताप हैं और प्रतिनायक हैं- अकबर। प्रताप राजपूताना की छोटी-सी रियासत के राणा हैं, जबकि अकबर मुगल साम्राज्य का सम्राट। उसने संपूर्ण भारत पर एकाधिकार कर लिया, परन्तु प्रताप को झुकाने में विफल रहा। यह दंश उसे रह-रहकर सालता रहता। रत्नजटित महलों में अकबर की मनःदशा का चित्रण कवि ने इस प्रकार किया-

स्वर्णिम घर में शीत प्रकाश, जलते थे मणियों के दीप।
धोते आँसू-जल से चरण, देश-देश के सकल महीप ।
तो भी कहता था सुल्तान, पूरा कब होगा अरमान ।
कब मेवाड़ मिलेगा आन, राणा का होना अपमान ।। [7]

दूसरी तरफ राणा प्रताप तनिक भी विचलित नहीं और अकबर से किसी प्रकार का भय नहीं। अरावली की उपत्यकाओं में अपना दरबार सजाए हुए हैं । उन्हें पता है कि मानसिंह की अवज्ञा से अब रण अनिवार्य है, परन्तु मातृभूमि की अस्मिता अक्षुण्ण रहे, उसकी रक्षा का प्रण अटल है। अपनी छोटी सी सेना, भील सरदारों के प्रण और स्वाभिमानी गौरव के साथ भावी रण की तैयारियाँ वीरोचित गरिमा के साथ प्रस्तुत हुआ है-

शुचि सजी शिला पर राणा भी, बैठा अहि-सा फुंकार लिए।
फर-फर झंडा था फहर रहा, भावी रण का हुंकार लिए।

+++ +++ +++

तरकस में कस कस तीर भरे, कंधों पर कठिन कमान लिए।
सरदार भील भी बैठ गए, झुक-झुक रण के अरमान लिए। [8]

अकबर द्वारा अब्दुर्रहीम खानखाना को जब मेवाड़ विजय के लिए भेजा, तब महाराणा प्रताप के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अकबर को जाकर जो वर्णन किया, वह स्वयमेव रोमांचित करता है। जयशंकर प्रसाद रचित ‘महाराणा का महत्त्व’ कविता में बताया गया कि इस घटना को सुनकर अकबर ने प्रताप से भविष्य में युद्ध करने का विचार ही त्याग दिया-

जिस दिवस मुझे कर सैनप भेजा आपने,
वीरभूमि मेवाड़ विजय के हेतु, हाँ-
उस दिन सचमुच मुझे असीम प्रसन्नता
हुई, कि मैं भी देखूँगा उस वीर को,
जो अब तक होकर अबाध्य सम्राट का
करता है सामना बड़े उत्साह से।
सचमुच शहंशाह एक ही शत्रु वह
मिला है आपको है कुछ ऊँचे भाग्य से;
पर्वत की कंदरा महल है, बाग है-
जंगल ही आहार-घास, फल-फूल है।
सच्चा हृदय सहायक उसके साथ है। [9]

प्रताप की प्रतिज्ञा कि उनके जीवित रहते हुए मेवाड़ कभी भी पराधीन नहीं होगा। इसके लिए विशाल मुगल सेना से भिड़ने का अदम्य साहस अकल्पनीय है। राणा का महान् चरित्र तत्कालीन वातावरण में उनके अटल प्रण के साथ प्रकट होकर अथाह ऊर्जा का संचार करता है। माँ भवानी का आशीष लेकर जब हल्दीघाटी के मैदान में भीषण रण हुआ, तब मानसिंह के पैर उखड़ गए। राणा की सेना के अदम्य उत्साह से भीषण प्रहार हुआ, मुगल सेना में हाहाकार मच गया। युद्ध की भीषणता का अनुमान कवि की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-

हयरुण्ड गिरे, गजमुण्ड गिरे, कट-कट अवनि पर शुण्ड गिरे।
लड़ते-लड़ते अरिझुण्ड गिरे, भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे।
क्षण महाप्रलय की बिजली-सी, तलवार हाथ की तड़प-तड़प।
हय-गज-रथ, पैदल भगा-भगा, लेती थी बैरी वीर हड़प।। [10]

हल्दीघाटी का युद्ध यदि राणा प्रताप के तेज को कालजयी बनाता है तो स्वामिभक्त चेतक के अद्भुत रण-कौशल को भी अमर कर देता है। चेतक का शौर्य कवि की दृष्टि में विस्मयकारी था। रण-क्षेत्र में स्वामी के आदेश पर चौकड़िया भरकर अरि मस्तक को रौंद रहा था। हवा से बातें करने वाला चेतक दुश्मनों पर कहर बनकर टूट रहा था, कवि ने चेतक के कौशल को इन शब्दों में प्रकट किया है-

रणबीच चौकड़ी भर-भरकर, चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से, हवा का पड़ गया पाला था।
गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दौड़ रहा अरि-मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था। [11]

भारतीय जनता जब स्वाधीनता संग्राम की वेला में अपनी विरासत को भूल चुकी थी, तब प्रसाद ने ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ कविता में कवि ने महाराणा प्रताप सिंह की उत्तराधिकारी की आस का वर्णन किया है कि किस प्रकार वह अपने अंतिम समय में अपनी आस को पूरा होते देखना चाहते थे। कवि आधुनिक प्रतीकों के माध्यम से भारतीय जन मानस में दासता के विरुद्ध चेतना का संचार कर रहे हैं-

फिर भी पुकार सी है गूँज रही व्योम में -
"कौन लेगा भार यह ?
कौन विचलेगा नहीं ?
दुर्बलता इस अस्थिमांस की -
ठोंक कर लोहे से,परख कर वज्र से,
प्रलयोल्का खंड के निकष पर कस कर
चूर्ण अस्थि पुंज-सा हँसेगा अट्टहास कौन?
साधना पिशाचों की बिखर चूर-चूर होके
धूलि सी उड़ेगी किस दृप्त फूत्कार से? [12]

महारानी पद्मिनी भारतीय जन-मानस में अप्रतिम सौन्दर्य और औदात्य की प्रतिमूर्ति के रूप में बिम्बित है। वीरभूमि मेवाड़ के गौरव को अक्षुण्ण रखते हुए पद्मिनी ने भारतीय नारी की गरिमा और तेजस्विता को आने वाली पीढ़ियों के समक्ष आदर्श रूप में प्रस्तुत किया। मेवाड़ और दिल्ली सल्तनत के संघर्ष में महारानी पद्मिनी का व्यक्तित्व तत्कालीन राजनीति और आत्मोत्सर्ग की प्रबल भावना को प्रकट करता है, वहीं एक आदर्श नारी प्रतीक के रूप में समकालीन समाज को भी सनातन सांस्कृतिक मूल्यों से परिचित कराता है। कामांध अल्लाउद्दीन खिलजी जब पद्मिनी की चाह में व्याकुल है, तब एक सरदार उसके व्यक्तित्त्व को इस प्रकार वर्णित करता है-

साध्वी परम पुनीता है वह, रामचंद्र की सीता है वह,
अधिक आपसे और कहूँ क्या, रामायण है गीता है वह।
खुद आग में जल जाएगी, गिरी से गिरकर मर जाएगी,
मेरा कहना मान लीजिए, पर न हाथ में आएगी।
नभतारों को ला सकते हैं, अंगारों को खा सकते हैं,
गिरह बाँध ले मैं कहता हूँ, लेकिन उसे न पा सकते हैं। [13]

लाला भगवानदीन साहित्य में बहुत बड़ा नाम है। वे लक्ष्मी पत्रिका के संपादक रहे। वीर क्षत्राणी, वीर बालक, वीर प्रताप शीर्षक से इनकी कविताएँ पुस्तकार में प्रकाशित हुई है। फिर वीर माता तथा वीर पत्नी शीर्षक से दो और पुस्तकें तैयार कर समग्रत: ‘वीर पंचरत्न’ प्रकाश में आई जिसमें- वीर प्रताप, वीर बालक, वीर क्षत्राणी, वीरमाता, वीर पत्नी को समर्पित कविताएँ हैं। ‘वीराबाई’ शीर्षक में चित्तौड़ के राणा उदयसिंह की पत्नी का वीर क्षत्राणी के रूप में कविता में अंकन किया गया है। अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण करने का निश्चय किया। वह विकट फौज लेकर चित्तौड़ का घेरा डालकर वीरा को पकड़कर निज कंठ से लगाने का सोचता था। राणा भयभीत हो गए तब वीरा ने बीड़ा उठाया-

कैसी है यह मेवाड़ धरा जग को दिखा दूँ,
वीरत्व के इतिहास में निज नाम लिखा दूँ,
नारी के विकट क्रोध का परसाद चखा दूँ,
इस दुष्ट मुगल जोद को कुछ सिखा दूँ। [14]
उसके वीरोचित उद्बोधन ने राणा को छुड़ाया और चित्तौड़ का सम्मान बचाया-
वीरा की थी तलवार, कि हनुमान की थी लूम,
जिस ओर को फिर जाती, मचाती थी वहीं धूम। [15]

‘महीयषी मीरा’ खंडकाव्य में पथिक पात्र काल्पनिक है जो बंगाल से चलकर मीरा का आख्यान सुनने चित्तौड़ आया है। वह मीरा मंदिर पर वृद्ध वाचक पुजारी से उसकी भव्य जीवन गाथा का पान करता है। इसमें मीरा के जीवन के ऐतिहासिक सत्यों को उजागर करते हुए सामाजिक प्रभावों को दर्शाया गया है। साथ ही माँ की विराटता, प्रेम की असाधारणता और मेवाड़ का गौरव अंकित है। कवि की दृष्टि में मीरा जनकल्याण और मानव प्रेम की उपासिका रही है। मीरा के पदों में लोक व लोक दर्शन दोनों हैं। इसी करण भावविभोर होकर पथिक पूछता है-

दूर से आया सुना, इस द्वार प्रभु का वास,
भक्ति और अनुराग में डूबा यहाँ हर सांस।
प्रीति का सरगम जहाँ बनता अटल आधार,
कृष्ण औ मां का जहाँ होता सदैव विहार।। [16]

मीरा का अमर संदेश- मानव प्रेम, नारी जागरण, भक्ति गान का संगम है। इस खंडकाव्य के माध्यम से देश की वर्तमान दशा का यथार्थ चित्रण, शिक्षा, जीवन मूल्य, आस्थाएँ, आस्तिकता, वर्तमान नारियाँ, युवामन, व्यक्ति स्वार्थ, सृजन में अतीत का गौरव, सांस्कृतिक उन्मुखता, जन कल्याण के भाव का स्वर प्रधान रहा है। इस खंडकाव्य की अंतिम पंक्तियाँ मेवाड़ को गौरव प्रदान करती है-

आज भी चित्तौड़ के उस दुर्ग पर साकार,
प्रणयिनी की प्रीति ममता के खुले हैं द्वार,
कीर्ति का वह स्तंभ, गौरव की लिए मुस्कान,
प्रणयिनी की साधना से अमर राजस्थान। [17]

निष्कर्ष : मातृभूमि को प्रणम्य बनाने का संकल्प और उसके लिए प्राणों का अर्पण की भावाभिव्यंजना पराधीन राष्ट्र के लिए चेतना की संवाहक होती है। राष्ट्रीय-चिंतन का उद्देश्य समष्टि में आत्म-गौरव की भावना का निर्माण कर उसे उन्नति के पथ पर अग्रसर करने में है। इसी राष्ट्रीय-भावना से ओतप्रोत आधुनिक हिन्दी साहित्य में मेवाड़ के चरित-नायकों का वर्णन इस दृष्टि से हुआ कि राष्ट्र के जनमानस में सामूहिक रूप में अपनी तथा अपने देश को उन्नत बनाने की इच्छा प्रबल हों तथा अपने देश के लिए अगाध भक्ति, अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति गौरव की भावना जाग्रत हों। स्वाधीन भारत में भी मेवाड़ प्रेरणा का केंद्रबिंदु बना रहे, रचनाकारों का यही अभीष्ट है।

सन्दर्भ :
  1. रामकुमार वर्मा, चित्तौड़ की चिता, परिचय, चाँद कार्यालय, चंद्रलोक, इलाहाबाद, सं. 1929, पृ. 1
  2. मैथिलीशरण गुप्त, भारत भारती, साहित्य सदन, चिरगांव, सं. 1984, पृ. 79
  3. श्यामनारायण पांडेय, जौहर, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं. 2012, पृ. 13
  4. वही, पृ. 4
  5. वही, पृ. 5
  6. रामकुमार वर्मा, चित्तौड़ की चिता, परिचय, चाँद कार्यालय, चंद्रलोक, इलाहाबाद, सं. 1929, पृ. 111
  7. श्यामनारायण पांडेय, हल्दीघाटी, सर्ग-3, कविताकोश वेबपेज
  8. वही, सर्ग-1 कविताकोश वेबपेज, http://kavitakosh.org
  9. महाराणा का महत्त्व, जयशंकर प्रसाद, भारती भण्डार, बनारस, सं. 1985 पृ. 21-22
  10. श्यामनारायण पांडेय, हल्दीघाटी, सर्ग-12, कविताकोश वेबपेज, http://kavitakosh.org
  11. वही, सर्ग-12, कविताकोश वेबपेज, http://kavitakosh.org
  12. जयशंकर प्रसाद, पेशोला की प्रतिध्वनि, (सं.) सत्येन्द्र पारीक, आधुनिक काव्य सोपान, पुनीत प्रकाशन, जयपुर, सं. 2004, पृ. 50-51
  13. श्यामनारायण पांडेय, जौहर, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं. 2012, पृ. 42
  14. लाला भगवानदीन, वीर पंचरत्न, आदर्श ग्रन्थ माला, कलकत्ता, सं. 1920, पृ. 190
  15. वही, पृ. 190
  16. हरीश, महीयषी मीरा, कृष्णा ब्रदर्स, अजमेर, सं. 1998, पृ. 15
  17. वही, पृ. 92

राजेन्द्र कुमार सिंघवी
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, डॉ. भीमराव अंबेडकर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, निम्बाहेड़ा जिला: चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) पिन- 312601

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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