शोध आलेख : स्त्री विमर्श के नए अध्याय का सृजन करती अहिल्याबाई होल्कर / नीलम राठी

स्त्री विमर्श के नए अध्याय का सृजन करती अहिल्याबाई होल्कर
- नीलम राठी

यूं तो स्त्री विमर्श एक साहित्यिक आंदोलन है। लेकिन यदि हम उसके शाब्दिक अर्थ को समझे तो स्त्री विमर्श स्त्री को समग्रता में जानने,समझने और उसका जीवन बेहतर बनाने की पड़ताल है। विमर्श का अर्थ स्पष्ट करते हुए डॉ हरदेव बाहरी ‘हिन्दी पर्याय कोश’ में इसके कुछ अर्थ लिखते है – “ परामर्श, मशविरा, राय,बात,विचार विनिमय,विचार विमर्श,सोच विचार” 1 आदि। पश्चिम में इसे नारीवाद’ भी कहा जाता है। ‘नारीवाद’ और ‘स्त्री विमर्श’ में बुनियादी अंतर है। ‘नारीवाद जहां स्त्री को पुरुष के बरक्स खड़ा कर देता है। वहाँ स्त्री विमर्श उभय में सामंजस्य, मैत्री, बराबरी की भूमिका का निर्माण करता है। डॉ कृष्णदत्त पालीवाल के अनुसार – “ मूलत:नारी विमर्श या फेमिनिज़्म एक पाश्चात्य अवधारणा है और मर्दवाद के समकक्ष नारियों की राजनीतिक,सामाजिक समानता का आंदोलन। ---फ्रांसीसी राज्य क्रांति के समय भी कहा गया कि स्वतंत्रता,समानता तथा बंधुता को बिना किसी लिंग भेद के लागू करना चाहिए। उत्तरी अमेरिका में नारी आंदोलन 1848 में जार्ज वाशिंगटन तथा टामस जैफरसन के दबाव में शुरू हुआ। बड़ी घटना यह घटी कि एलिजाबेथ कैंडी स्टैनटण,लुक्रेसिया कफिनमोर और कुछ अन्य ने न्यूयार्क में महिला सम्मेलन करके नारी स्वतंत्रता पर एक घोषणा-पत्र जारी किया जिसमें पूर्ण कानूनी समानता,शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसर तथा वोट देने के अधिकार की मांग की गई” 2 ये तरीके मिलजुलकर लोगों की धारणा को बनाते हैं। हिंदी में ‘स्त्री-विमर्श’ ने सत्तर के दशक में ज़ोर पकड़ा और अनेक लेखिकाएं उसमें शामिल हुई हैं।

बीसवीं शताब्दी में भी कुछ लोग इसका प्रारंभ फ्रांसीसी लेखक सिमोन द बउआ की पुस्तक 'द सेकंड सेक्स'(1949)' के प्रकाशन-वर्ष से मानते हैं और कुछ मैरी एलमन की पुस्तक 'थिकिंग एबाउट वीमन'(1968) के प्रकाशन - वर्ष से। लेकिन अधिकांश विद्वान इस तरह के किसी वर्ष-विशेष को स्त्री-विमर्श का प्रस्थान बिंदु मानना उचित नहीं समझते, क्योंकि बीसवीं शताब्दी से पहले भी स्त्री की अलग पहचान, उसके स्वतंत्र अस्तित्व और उसके अधिकारों की समस्याओं को उठाया जाने लगा था। उदाहरण के लिए, वर्जीनिया वुल्फ ने अपनी पुस्तक 'ए रूम ऑफ़ वंस ओन'(अपना निजी कक्ष:1929) में लिखा था: "ह्वाइटहाल के पास से गुजरते हुए किसी भी स्त्री को अपने स्त्रीत्व का बोध होते ही अपनी चेतना में अचानक उत्पन्न होने वाली दरार को ले कर आश्चर्य होता है कि मानव-सभ्यता की सहज उत्तराधिकारिणी होने पर वह इसके बाहर, इससे परकीय और इसकी आलोचक कैसे हो गयी है।"3 वर्जीनिया वुल्फ की इस पुस्तक ने यूरोप और अमरीका के स्त्री-विमर्श को ही नहीं, भारतीय स्त्री-विमर्श को भी प्रभावित किया है। हिंदी की घोषित नारीवादी लेखिका प्रभा खेतान (उपनिवेश में स्त्री,2003) 4 भी इस पुस्तक से और सिमोन दि बुआ की पुस्तक 'द सेकंड सेक्स' से भी प्रभावित हई हैं। यूरोप और अमरीका में नारीवाद ने बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में खूब जोर पकड़ा और मोनीकविटिंग, काटे मिलेट, जूलिया क्रिस्टीवा, हेलेन सिक्सस, एलीन मोअर्स, एलेन शोवाल्टर, एंजिलाकार्टर, मैरी जैकोबर्स आदि अनेक नारीवादी लेखिकाओं की पुस्तकें प्रकाशित हुईं। इनके अतिरिक्त हिंदी की अनेक लेखिकाएं भी नारीवादी होने का दावा कर रही हैं और नारीवादी साहित्य के सृजन में संलग्न हैं। प्रसिद्ध स्त्रीवादी चिंतक कवि गोलेन्द्र पटेल ने नारीवाद के संदर्भ में कहा है कि –"स्त्री-दृष्टि में स्त्री-विमर्श वह मानवीय चिंतन धारा है जो स्त्री-चेतना को जागृत कर, उसकी स्वतंत्रता की वकालत करती है, इसे ही स्त्री की भाषा में नारीवाद कहते हैं”5 स्त्रीविमर्श और स्त्रीवाद की ये सोच पूर्णत:पश्चिम की मान्यताओं पर आधारित है।

भारतीय ज्ञान परंपरा में स्त्री को शक्ति स्वरूपा एवं शक्ति प्रदाता माना गया है। स्त्री और पुरुष पारस्परिक रूप से पूरक हैं। स्त्री को पुरुष की सह धर्मिणी,गृह लक्ष्मी,अर्धागनी आदि विशेषण स्त्री पुरुष संबंधों के साथ – साथ स्त्री के स्वरूप को भी द्योतित करते हैं। स्त्री शक्ति मात्र संख्या की दृष्टि से ही आधी आबादी नहीं कही जाती वरन समाज में स्त्री शक्ति ने परिवार व्यवस्था और लोक कल्याण के क्षेत्र में पुरुषों से भी श्रेष्ठ भूमिका का निर्वहन किया है। वे ज्ञान की समान रूप से अधिकारिणी भी हैं।यही कारण है कि अनेक ब्रह्मवादिनी ऋषिकाएं – लोपामुद्रा, शाश्वती, आँगिङरसी, विश्ववारा, आत्रेयी, अपाला, घोषा, अदिति,सूर्या सावित्री आदि मंत्र दृष्टा हैं। भारतीय समाज का केंद्र गृहस्थ आश्रम है। कुटुंब है। परिवार है। जिसकी धुरी स्त्री है। सुसंस्कारित एवं दायित्व बोध से युक्त स्त्रियों ने ही प्रत्येक युग में परिवार को अक्षुण्ण बनाए रखा। लेकिन स्त्री का प्रभाव मात्र परिवार तक सीमित नहीं है, नेतृत्व का गुण उसमें अंतर्निहित है। यही कारण है कि वैदिक काल में स्त्री को पुरंध्री की संज्ञा दी गई थी। शब्द कल्पद्रुम कोश के अनुसार –“स्वजन सहितं पुरं धारयतीति पुरंध्री”6 (जो सर्वगुण सम्पन्न अपने नगर का अपने स्वजनों सहित नेतृत्व करने वाली है) कहा गया। वैदिक काल में जब देवता राक्षसों से पराजित हो रहे थे, हम सब जानते हैं कि तब दुर्गा की उपस्थिति शक्ति पुंज,शत्रु हंता और जगत कल्याण हेतु हुई। - “या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै,नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:”7 ।। यत्र नार्यस्तु पूजयंते, रमंते तत्र देवता” मनु स्मृति का यह आप्त वाक्य स्मृति युग में स्त्री की स्थिति का भान कराता है। राधा वल्लभ त्रिपाठी अपनी पुस्तक बहस में स्त्री में कहते हैं कि – “शास्त्रार्थ में स्त्रियाँ अपनी उपस्थिति दर्ज करती रहीं हैं। और विजय भी स्त्रियों को मिली है। कई बार अकेली स्त्री ने पुरुष समाज को भी हतप्रभ कर दिया है। पुरुष उनके सामने शास्त्रार्थ में चुप रहे हैं या फिर हक्के -बक्के। --आगे चलकर राधा वल्लभ त्रिपाठी अहल्या,द्रोपदी तारा सीता और मंदोदरी जिनको की पाँच पावन चरित्र कन्याओं को स्मरण एवं स्त्री विमर्श के लिए प्रेरक भी बताया क्योंकि उनके अनुसार ये पांचों महिलाएं मर्दवाद के द्वारा तिरस्कृत और पीड़ित हैं। अपनी इस पुस्तक को डॉ त्रिपाठी विश्व की उन सब महिलाओं को समर्पित करते हैं जिन्होंने मर्दवाद के खिलाफ प्रश्न उठाने का साहस किया है”8

प्रकृति में जहां संस्कृति है वहां विकृति भी व्यवहार में आ गई है। विकृति को हटाकर ही हम राष्ट्र को वैभव संपन्न बना सकते है। आज जिन अनेक विकृतियों ने समाज में प्रवेश किया है,उनका समाधान हम भारतीय ज्ञान परंपरा से प्रेरणा पाकर ही संभव बना सकते हैं। पाश्चात्य से प्रभावित विमर्श एकांगी है। वह स्त्री की उत्पत्ति पुरुष के मनोरंजन के लिए पुरुष की पसली से मानता है। बाद में स्त्री आंदोलन स्त्री को पुरुष के बरक्स खड़ा करते हैं। जबकि भारतीय स्त्री पुरुष संबंध परस्पर पूरकता का है। जो किसी से भी न कमतर है न श्रेष्ठ। छोटा है न बड़ा, शोषक है न शोषित। भारतीय ज्ञान परंपरा में “स्त्री – पुरुष की उत्पत्ति दाल के एक दाने के दो बनने की भांति है”8 भारत में स्त्री –पुरुष संबंध अर्धनारीश्वर का स्वरूप लिए हैं। स्त्री यहाँ स्वरक्षिता है। हमें भारतीय स्थितियों –परिस्थितियों और भारतीय ज्ञान परंपरा के आलोक में अपना विमर्श चाहिए। जो पूर्णत: भारतीय हो। क्योंकि आधी आबादी का सशक्तिकरण अत्यंत आवश्यक है। मोहन भागवत जी के अनुसार – “ भारत को परम वैभव सम्पन्न बनाना है,तो भारत की मातृ शक्ति का जागरण,सशक्तिकरण और पुरुषों के बराबर समाज में उनका योगदान हो ऐसी स्थिति उत्पन्न करना पहली आवश्यकता है ----ऐसा सशक्तिकरण ---अपने देश के सनातन मूल्यों के आधार पर ही खड़ा करना पड़ेगा । क्योंकि इन सबब विषयों में बाकी दुनिया का जो अनुभव है,वह हमारी तुलना में बहुत थोड़ा है” 9

यदि भागवत जी के अनुसार हमें अपना स्त्री विमर्श सनातन मूल्यों के आधार पर ही खड़ा करना होगा क्योंकि पश्चिम का स्त्री विमर्श स्त्री को पुरुष के बरक्स खड़ा करता है और भारत में अर्ध नारिश्वर अर्थात युगल के रूप में पूर्णता पाता है। अब आज हम जब स्त्री विमर्श की पड़ताल करते हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि – “ क्या हमको फिर से प्रयोग की इस प्रक्रिया से गुजरना है? या ऐसे अनेक प्रयोगों से गुजरने के बाद जो कुछ शाश्वत अपने हाथ में है,उसके आधार पर खड़ा रहना है ? ऐसा प्रश्न जब मन में आता है,तो उसका उत्तर निस्संदिग्ध है जो शाश्वत सत्य अपने पास है,उसके आधार पर ही खड़ा होना पड़ेगा”10 हमें भारतीय संदर्भों में स्त्री विमर्श पर विचार करते समय अथवा मूल्य स्थापित करते समय इस तथ्य पर भी ध्यान देना होगा कि व्यक्तिगत धर्म निर्वाह और समाज धर्म निर्वाह में हमसे भूल कहाँ हुई है। उस भूल सुधार कर भारतीय जनमानस को जानकर देश,काल और परिस्थिति के अनुसार चित्र को रूपाकार देना होगा। --- “एक व्यवस्था हमारी चल रही थी ऐसे में मानव सुलभ क्षरण के कारण उसमें विकृति आने लगी। ---अनेक आक्रमणों के काल में ये सारी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो गई। ---अब डी रेल हो गई इस व्यवस्था को पटरी पर लाना है” 11

स्त्री के समक्ष समकालीन चुनौतियाँ - स्त्रीवादी विमर्श संबंधी आदर्श का मूल कथ्य यही रहता है कि कानूनी अधिकारों का आधार लिंग न बने। आधुनिक स्त्रीवादी विमर्श की मुख्य आलोचना हमेशा से यही रही है कि इसके सिद्धांत एवं दर्शन मुख्य रूप से पश्चिमी मूल्यों एवं दर्शन पर आधारित रहे हैं। लेकिन ये हमारे संवैधानिक अधिकार हैं जिन्हें हमें व्यवहारिक धरातल पर उतारना है। लैंगिक समानता न केवल एक मौलिक मानव अधिकार है, बल्कि एक शांतिपूर्ण, समृद्ध और टिकाऊ दुनिया के लिए एक आवश्यक आधार भी है। महिलाएँ दुनिया की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करती हैं और इसलिए इसकी क्षमता का भी आधा हिस्सा हैं। लेकिन लैंगिक असमानता हर जगह बनी हुई है और सामाजिक प्रगति को अवरुद्ध कर रही है। श्रम बाजार में महिलाएं अभी भी विश्व स्तर पर पुरुषों की तुलना में 23 प्रतिशत कम कमाती हैं। जबकि महिलाएं पुरुषों की तुलना में अवैतनिक घरेलू और देखभाल कार्यों में लगभग तीन गुना अधिक घंटे बिताती हैं। राजनीतिक नेतृत्व, निवेश और व्यापक नीति सुधारों की आवश्यकता है। लैंगिक समानता एक सर्वव्यापी उद्देश्य है और यह राष्ट्रीय नीतियों, बजट और संस्थानों का मुख्य फोकस होना चाहिए। लैंगिक समानता को आगे बढ़ाने की प्रतिबद्धताओं से कुछ क्षेत्रों में सुधार हुआ है। हाल के वर्षों में बाल विवाह और महिला जननांग विकृति (एफजीएम) में गिरावट आई है, और राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पहले से कहीं अधिक है। लेकिन एक ऐसी दुनिया का वादा जिसमें हर महिला को पूर्ण लैंगिक समानता प्राप्त हो, और जहां उनके सशक्तिकरण के लिए सभी कानूनी, सामाजिक और आर्थिक बाधाएं दूर कर दी गई हों, अधूरा है।

प्रश्न उठता है कि हम सब स्त्री सशक्तिकरण में कैसे सहायता कर सकते है? हमारा मानना ​​है कि स्वस्थ, शिक्षित,संस्कारित और सशक्त महिलाएं और लड़कियां बदलाव की वाहक हैं। जब महिलाओं को समर्थन दिया जाता है, तो उन्हें अपने अधिकारों के लिए बोलने और अपने समुदायों की वकालत करने के अवसर मिलते हैं। वे सामाजिक प्रतिष्ठा में भी वृद्धि करने में सक्षम हैं। इसका मतलब है कि महिला संगठन, महिला सशक्तिकरण नीतियां और महिला शिक्षा एवं कौशल वृत्ति प्रदान कर उन्हें आत्मनिर्भर एवं आत्मविश्वास से पूर्ण सशक्त स्त्री बनाने में योगदान दे सकते हैं, साथ ही इतिहास के प्रेरणादायी प्रतीकों,घटनाओं,चरित्रों एवं कथाओं से भी उन्हें जागरूक किया जा सकता है।

यदि हम इतिहास के पन्नों को पलटें तो स्त्री विमर्श के नए अध्याय का सृजन करते हुए जो सबसे सशक्त चरित्र हमारे समक्ष उभरता है वह हैं पुण्यात्मा अहिल्याबाई होल्कर। जो मराठा साम्राज्य मालवा की 31 मई 1725 से 13 अगस्त 1795 तक महारानी थी। वे इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होलकर के पुत्र खण्डेराव की धर्मपत्नी थीं। वे शिक्षित,कर्तव्य परायण,कुशल प्रबंधक,न्याय प्रिय,प्रजा वत्सल शासिका थी। उनमें नैसर्गिक प्रतिभा को देखकर ही उनके ससुर और मालवा के तत्कालीन शासक मल्हार राव होल्कर ने जाति भेद होने पर भी उन्हें अपनी पुत्रवधू के रूप में चुना। 1773 में युद्ध के समय पति की मृत्यु होने पर तत्कालीन समाज में प्रचलित सती प्रथा की मान्यता के अनुसार उन्होंने सती होने का निर्णय लिया लेकिन उनके ससुर ऐसी गुणी और प्रतिभाशाली अल्पायु की बालिका का सती होना स्वीकार नहीं करते, उन्होंने सामाजिक मान्यताओं से ऊपर उठकर न केवल सती होने से उन्हें रोका बल्कि उन्हें राज्य की बागडोर भी सौंप दी। अहिल्याबाई होल्कर की पहचान एक विनम्र एवं उदार शासक के रूप में थी। उनमें जरूरतमंदों, गरीबों और असहाय व्यक्ति के लिए दया और परोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने समाज सेवा के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया। अहिल्याबाई सदैव गरीब एवं निर्धनों की मदद करने के लिए तत्पर रहती थी। स्त्रियों के हित में उनके कल्याणार्थ,उन्हें सशक्त करने की दिशा में अनेक कार्य किए। उन्होंने देखा तत्कालीन समय की कुरीतियाँ जैसे सती प्रथा, विधवा का संपत्तिहरण, बाल विवाह या शिक्षा का अधिकार का छीना जाना समस्त कुरीतियां स्त्रियों से ही जुड़ी हुई थी। रानी अहिल्याबाई होल्कर ने स्त्री शिक्षा एवं विधवाओं के लिए संपत्ति अधिकार के लिए आवाज उठाई और कानून बनाएं।

अपने शासनकाल में उन्होंने नदियों पर स्नान घाट बनवाए उनमें महिलाओं के लिए स्नान की अलग व्यवस्था की। दान दक्षिणा में महिलाओं का विशेष ध्यान रखा। महिलाओं के लिए विशेषकर समाज सेवा के लिए खुद को समर्पित कर दिया उन्होंने विधवा महिलाओं की स्थिति पर भी काम किया उनके लिए कानून में बदलाव भी किया उन्होंने विधवा महिला को अपनी संपत्ति रखने का हकदार बनाया. वे महिला शिक्षा की प्रबल समर्थक थी। शिक्षा किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार लाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि में अहिल्याबाई होल्कर ने एक आदर्श स्थापित किया। उनका मत था कि शिक्षा न केवल समाज को सुधारने का एक साधन है बल्कि यह महिलाओं को सशक्त बनाने का भी प्रमुख जरिया है इसलिए उन्होंने लड़कियों को शिक्षित करना समाज में समानता और न्याय के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण माना, उन्होंने महिलाओं के लिए शिक्षा के दरवाजे खोलने का काम किया और अपने राज्य में अनेक शिक्षण संस्थाएं बनवाई जहां स्त्री शिक्षा प्राप्त हो। जो परिवार लड़कियों को शिक्षा दिलाना चाहते थे किन्तु आर्थिक दृष्टि से कमजोर थे उनके लिए छात्र वृत्ति की व्यवस्था भी की।

“सम्पन्न और मध्यम वर्ग की स्त्रियों की विवशता,उनके पतिहीन जीवन की दुर्वाहता समाज के निकट चिरपरिचित हो चुकी है। वे शून्य के समान पुरुष की इकाई के साथ सब कुछ हैं, परंतु उससे रहित कुछ नहीं”12 अर्थ एवं संपत्ति के संबंध में यही स्थिति अहिल्या बाई के शासन काल में भी थी लेकिन वे स्वंय स्त्री शासिका होने के कारण स्त्रियों का दर्द भी समझती थी । वे अपने समय से बहुत आगे की सोच रखती थी और सच्चे अर्थ में कल्याणकारी राज्य की नींव रख रही थी। यही कारण था कि उन्होंने विधवाओं को पति की संपत्ति लेने का अधिकार देने के लिए कानूनी सुधार किया जिससे महिलाओं के सशक्तिकरण में मदद मिली। कहा जाता है कि एकबार निसन्तान व्यापारी के मरने पर राज्य द्वारा (जो उस समय का कानून था) उस व्यापारी की संपत्ति का अधिग्रहण कर लिया गया। उस परिवार की दो विधवा स्त्रियाँ महारानी से मिली और संपत्ति के अभाव में अपने जीवन यापन के लिए होने वाले कष्टों का उल्लेख किया तो महारानी ने उनकी संपत्ति तो उन्हें लौटाई ही साथ ही ऐसा कानून भी बनाया जिसमें नि:संतान विधवा स्त्री पति की संपत्ति की हकदार हो और यदि परिवार चाहे तो परिवार के नि:संतान मुखिया की मृत्यु के पश्चात भी संतान गोद ले सकता है। उन्होंने विधवा स्त्रियों को समाज हित में कार्य करने के लिए भी प्रेरित किया। साथ ही उन्होंने विधवा महिलाओं के लिए भी शिक्षा का प्रसार किया जो उस समय के लिए काफी अनूठा कार्य था। अहिल्याबाई होल्कर ने शिक्षकों के प्रशिक्षण पर भी जोर दिया ताकि वे महिलाओं को सही और प्रभावित तरीके से शिक्षा दे सके इसके लिए उन्होंने अपने राज्य में शिक्षकों के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए थे। अहिल्याबाई ने महिलाओं के लिए धार्मिक और संस्कृत शिक्षा को भी महत्वपूर्ण माना उन्होंने महिलाओं को वेदों, पुराणों और अन्य धार्मिक ग्रंथो की शिक्षा दिलाई जिससे हर महिला समाज में सम्मानित स्थान प्राप्त कर सके। प्रत्येक आयु वर्ग की स्त्रियों की शिक्षा के लिए अहिल्याबाई होल्कर ने कार्य किया। -“आज भी लड़कियों की अशिक्षा या शिक्षा से पलायन का एक बडा कारण आर्थिक विपन्नता है। --निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। परिवार के ज्यादा से ज्यादा एक या दो बच्चों की शिक्षा का खर्च ही उठाया जा सकता है। ऐसे में लड़कियों को यह कह दिया जाता है – खाने को नही है,पढ़ाए कौन?”13 लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर लड़कियों की शिक्षा के लिए अहिल्या होल्कर जी ने वजीफे की व्यवस्था की। उन्होंने मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति की ताकि वहां शास्त्रों का चिंतन, मनन और प्रवचन हो सके। उन्होंने भारत भर के प्रसिद्ध तीर्थ स्थान पर मंदिर बनवाएं, घाट और बावडियों का निर्माण कराया। उन्होंने महिलाओं को सेना में भर्ती होने का सौभाग्य प्रदान किया। उन्होंने अपने राज्य में स्त्री सेना का भी निर्माण किया था। जिसके लिए उन्होंने महिलाओं को प्रशिक्षण दिया और युद्ध कौशल भी सिखाए। वे खुद भी शस्त्र और शास्त्र में निपुण थी, भाला फेंक में उन्हे विशेष विशेषज्ञता प्राप्त थी। उन्होंने सेना का नेतृत्व भी किया था।

महिला अहिल्याबाई होल्कर उस युग की शासक थी जब महिलाओं के लिए शिक्षा राजनीति और शासन में भाग लेना अत्यंत कठिन था लेकिन उन्होंने समाज की रूढ़िवादी धारणाओं को पार करते हुए न केवल शक्तिशाली राज्य पर शासन किया बल्कि एक कुशल नेता, दूरदर्शी विचारक और प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में अपनी पहचान बनाई। उनका जीवन वृत आज के युवाओं और स्त्रियों के लिए प्रेरणा स्रोत है। अहिल्याबाई होल्कर महिला शासक थी जिन्होंने न केवल अपने राज्य को समृद्धि की ऊंचाइयों पर पहुंचाया बल्कि सामाजिक सुधारो में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। महेश्वर में लघु उद्योग स्थापित कर उन्होंने महिलाओं को न केवल शिक्षित शिक्षा प्राप्त करने का अवसर दिया अपितु उन्हें आत्मनिर्भर और सशक्त भी बनाने की दिशा में कार्य किया।

अहिल्याबाई होल्कर की विरासत आस्था नेतृत्व और सांस्कृतिक संरक्षण की है । उन्होंने हिंदू समाज के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ताने बाने को मजबूत करने के लिए मंदिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार करवाया। अहिल्याबाई होल्कर का जीवन आधुनिक महिलाओं को बहुत बहुमूल्य सबक देता है। उनका समर्पण जन कल्याण के लिए था उन्होंने सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित करने के लिए रूढ़िवादी परंपरा से नाता तोड़ लिया, एक महिला होने के उपरांत उन्होंने लोगों का विश्वास जीता, न्याय के प्रति उनकी लग्न, दृढ़ता और करुणा के कारण अहिल्याबाई होल्कर ने दिखाया कि एक महिला नेत्री मजबूत और दयालू दोनों हो सकती है। न्याय के लिए वे पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध थी। वे मनुष्य ही नहीं पशु तक को न्याय दिलाती थी। यही कारण था कि गाय को न्याय दिलाने के लिए उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र को भी मृत्यु दंड सुना दिया था।

आधुनिक सनातनी महिलाएं अहिल्याबाई होल्कर की विरासत से प्रेरणा ले सकती हैं। वह उनकी शक्ति, बुद्धि और परोपकार के गुण को अपना सकती हैं। शासन करते हुए धर्म के प्रति उनकी गहरी भक्ति सीखने के लिए एक और सबक है। अहिल्याबाई होल्कर शिव भक्त थी उन्हें सिर्फ एक रानी के रूप में याद नहीं किया जाता उन्हें हिंदू परंपराओं की संरक्षक, अटूट भक्ति के रूप में सम्मान सहित याद किया जाता है। उन्होंने बुनियादी ढांचे में सुधार, कृषि को बढ़ावा देने और कला तथा संस्कृति का समर्थन करने पर ध्यान केंद्रित किया। वह हिंदू मंदिरों के संरक्षण और कई मंदिरों के निर्माण के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। उनके शासनकाल को भारत के मालवा क्षेत्र में शांति, समृद्धि और विकास के रूप में देखा जाता है उन्हें उनकी विनम्रता, धर्मपरायणता और लोगों के कल्याण के प्रति प्रतिबद्धता के लिए याद किया जाता है वे बहुत ही अनुशासित और सादा जीवन व्यतीत करती थी। वह भारतीय शैली की चटाई पर फर्श पर सोती थी।

अहिल्याबाई भी करुणामयी भारतीय स्त्री थी अनेक कैदियों को शपथ लेकर रिहा कर दोबारा समाज में ईमानदारी से जीवन प्रारंभ करने की उदारता भी दिखाई थी। करुणा में जब प्रतिभा समाविष्ट हो जाती है तभी अहिल्याबाई सा उदारमना, प्रजा वत्सल शासक बनता है। अहिल्याबाई होल्कर ने अपने राज्य की कर प्रणाली में सुधार कर कल्याणकारी राज्य की स्थापना की। उन्होंने अकाल,ओला वृष्टि अथवा बाढ़ आदि आपदा के समय कर माफी की नीति बनाई। हल जोतते हुए बैलों को राज्य की ओर से जल पिलाने की व्यवस्था की। इंदौर से काशी मार्ग पर तीर्थ यात्रियों को भील जाति लूट लेती थी । तब रानी ने भीलों के जीवन यापन के लिए जमीन देकर व्यवस्था बनाई और तीर्थ यात्रियों का मार्ग भी निष्कंटक किया।

उन्होंने मंदिरों का निर्माण केवल अपने राज्य में ही नहीं किया अपितु अपने राज्य की सीमा के बाहर भी सम्पूर्ण राष्ट्र में उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक किया। उन्होंने यात्रियों के लिए आश्रय स्थल, मार्ग के दोनो तरफ छायादार वृक्ष लगवाना, और लुटेरों से यात्रियों की सुरक्षा जैसे जन कल्याण के कार्य किए। कूटनीति हो सैन्य प्रशिक्षण, शस्त्र निर्माण हों य गोल बारूद। अपनी सेना को सदैव सुसज्जित रखती थी। व्यक्तिगत जीवन में अनेक कष्टों ने भी उन्हे कभी कर्तव्य विमुख नहीं किया। काम उम्र में पति फिर सास –ससुर ,पुत्र –पुत्री दामाद सभी ने साथ छोड़ दिया किन्तु उन्होंने अपनी प्रजा का साथ कभी नहीं छोडा ।

निष्कर्ष : हम कह सकते हैं कि वे अपने समय से बहुत आगे की सोच रखती थी। आधी आबादी स्त्रियों के सशक्तिकरण की दिशा में उनके द्वारा किए गए कार्य, कुरीतियों पर कुठराघात, कृषि,कर सुधार,कुटीर उद्योग के रूप में महेश्वर में बुनकरों की व्यवस्था तो की ही साथ ही सफल विदेश नीति के तहत अपने प्रतिनिधियों को हैदराबाद ,कलकत्ता और अन्य अनेक राज्यों में नियुक्त करना भी एक सफल विदेश नीति को कार्यरूप देना है। स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देकर,स्त्री सेना का निर्माण कर और महेश्वरी साडी जैसे स्त्रियों को आत्मनिर्भर बनाने वाले कुटीर उद्योग को विकसित कर,निसन्तान विधवाओं को संपत्ति का अधिकार देकर अहिल्याबाई होल्कर ने स्त्री विमर्श के नए अध्याय का सृजन किया। नई इबारत लिखी और स्त्री जागरूकता का नए युग का सूत्रपात किया। स्त्री विमर्श की जिस भारतीय अवधारणा का का स्वरूप हम सब अपनी जीवंत आंखों से देखना चाहते हैं। स्त्री दशा और दिशा पर जिस अर्थ में जो चिंतन मनन,विचार विनिमय डॉ हरदेव बाहरी हिन्दी पर्याय कोश में अर्थ को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं स्त्री विमर्श की पड़ताल करने के लिए यदि हम कोई एक चरित्र इतिहास से उठाते हैं तो वह नि: संदेह अहिल्याबाई होल्कर हैं।

संदर्भ :
1 राजपाल साक्षिप्त हिन्दी शब्द कोश, डॉ हरदेव बाहरी,दिल्ली, संस्करण,2007
2 नारी विमर्श की भारतीय परंपरा,डॉ कृष्ण दत्त पालीवाल,सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन,संस्करण,प्रकाशकीय
3 हिंदी_साहित्य_का_इतिहास_आधुनिक_काल/स्त्री_विमर्श, मयूर पब्लिकेशन, पृ 432 संस्करण 2021
4 उपनिवेश में सत्री, अनुवादक प्रभा खेतान, राजकमल प्रकाशन,संस्करण 2022
5 हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ नगेन्द्र, मयूर बुक्स पृ 432-433
6 यजुर्वेद(22वेंअध्याय का 22 वन मंत्र ) का सुबोध भाष्य,-2 डॉ श्रीपद दामोदर , स्वाध्याय मण्डल प्रकाशन,संस्करण 2007,पृष्ठ 386
7 मार्कन्डेय पुराण / दुर्गा सप्तशती , गीता प्रेस गोरखपुर प्रकाशन, संस्करण ,2005
8 बहस में स्त्री ,राधा वल्लभ त्रिपाठी, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन,संस्करण ,2025,प्रकाशकीय ,पृ 07
9 यशस्वी भारत, श्री मोहन भागवत,प्रभात प्रकाशन,दिल्ली, संस्करण 2022 ,पृ 118
10 वही
11 वही ,पृ 125
12 स्त्री चिंतन और विमर्श, संपादक रेखा सेठी ,रिजवाना फातिमा, लेख – स्त्री के अर्थ – स्वातंत्र्य का प्रश्न ,महादेवी वर्मा,सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन,संस्करण 2025,पृ 122
13 आधी दुनिया का सच,कुमुद शर्मा,सामयिक पेपरबैकस,नई दिल्ली,संस्करण,2023,पृ 77

 

नीलम राठी 

प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, अदिति महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली 

drneelamrathi123@gmail.com, 9873910379


अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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