जेएनयू / ज़ूद-फ़रामोश : फिरूँ ढूँढता मयकदा तौबा-तौबा..
- सुमित कुमार
ऑटो जब बेरसराय से दाहिने मुड़कर थोड़ा आगे बढ़ता है तभी बाईं ओर से आने वाली ठंडक एहसास दिला देती है कि ‘मुस्कुराइए, आप जेएनयू के नजदीक हैं’। वर्षों बाद जेएनयू आना हुआ तो अपने एक सहपाठी की बात फिर से याद हो आई कि जेएनयू आने के साढ़े तीन रास्ते हैं लेकिन इससे जाने का कोई रास्ता नहीं। कई विश्वविद्यालयों में पढ़ता रहा, कई देखे और कई में काम किया लेकिन ऐसी आत्मीयता कहीं नहीं कि साल दर साल मुहब्बत बस बढ़ती गई हो। अब वहाँ इक्का दुक्का सहपाठी बचे हैं और प्रोफेसर भी तमाम आ जा चुके। लेकिन यहाँ हम सबका अपना एक परिवार है। उस परिवार में यहाँ की दीवारें, पेड़, पत्थर, ढाबे, पीएसआर और वो सब कुछ है जो लिखा नहीं जा सकता। यहाँ आकर न जाने क्यों अपने इस महबूब के साथ हुई वह पहली मुलाकात आँखों में घूम रही है जब यहाँ एमए हिन्दी में प्रवेश के लिए आना हुआ था।
संयोग कुछ ऐसा बना था कि मेरे साथ मेरी माँ और पापा भी थे। हालाँकि इससे पहले ऐसा सौभाग्य कभी नहीं हुआ था कि घरवाले हमारे साथ एडमिशन करवाने या प्रवेश परीक्षाएँ दिलवाने गए हों। जिन बालकों के साथ उनके घरवाले गाड़ी भरकर ऐसे अवसरों पर आते थे वे हमारी दृष्टि में घोर एलीट थे। हम उनकी सुंदर डलियों में सजे शायद चटनी और जैम से भरे छोटे-छोटे काँच के इमर्तबानों को देखते, फोइल पेपर में रैप किए गए सेब और आलू बुखारों को देखते। समझते कि परीक्षाओं से पूर्व बच्चे दबाव में भी होते हैं ऐसे में उन्हें कम्फर्ट और सहज फ़ील करवाया जाता है। और...और फिर अपने कुरकुरे के पैकेट से बचे हुए कुरकुरे निकाल कर खाते, ऊपर से स्लाइस या माज़ा गटकते और चल देते परीक्षा भवन के अंदर। हमें अक्सर कहा जाता था कि अभाव में ही प्रतिभाएँ निखरती हैं। आज कई वर्षों बाद जब अपन सुविधाएँ जुटाने की स्थिति में पहुँचे हैं तो दो तरह के भाव मन में आते हैं। एक तो ये कि अभाव कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका महिमामंडन किया जाए और दूसरी ये कि जो जिस उम्र के काम हों वे उसी में हो जाने चाहिए। खैर, ये तो विषयांतर हो गया। तो पहली दफ़ा जब जेएनयू के भीतर पहुँचा तब पता नहीं था कि मैं इसके भीतर नहीं जा रहा था, यह मेरे भीतर आ रहा था। जुलाई के महीने में बरसात के बाद दिल्ली के इस हिस्से पर जो रौनक आती है, उस पर तो कोई भी दिल हार बैठे। गुलाबी, सफेद फूलों से लकदक भरा बोगनबेलिया तो अपनी भरपूर जवानी पर होता ही है, पूरी गर्मी का ताप झेलकर झुलसे पड़े कीकर भी ऐसे इठला के झूम जाते हैं कि लगता ही नहीं आप दिल्ली में हैं।
उन दिनों तक विचारधाराओं, मनभेद, मतभेद जैसी गुत्थियों से सामना नहीं हुआ था और जेएनयू मेरे लिए देश का एक प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान था बस। उस समय एडमिशन के लिए प्रक्रिया ऑफलाइन ही थी। एक लम्बी लाइन लगी थी और वॉलन्टीयर नये छात्रों की मदद कर रहे थे। मेरी माँ एक सामान्य घरेलू महिला हैं जो बहुत रूढ़िवादी नहीं हैं लेकिन बहुत उदारवादी भी नहीं हैं। कुल मिलाकर उनके समाज को देखने के वैसे ही मापदंड हैं जैसे उनकी पीढ़ी की किसी भी आम महिला के होते होंगे। शुरू में उनको बड़ा अच्छा लगा और उन्होंने मुझसे कहा भी कि कभी सोचा नहीं था कि ये दिन भी देखने को मिलेगा। हालाँकि कुछ समय बाद उनके इसी वाक्य का अर्थ बिल्कुल उल्टा हो गया। जेएनयू के विचारों में तुलनात्मक रूप से खुलापन है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, व्यक्ति मात्र की आईडेंटिटी तथा अधिकारों को लेकर यहाँ बहुत सजगता है। हम लाइन में खड़े अपनी बारी का इंतजार ही कर रहे थे कि एक लड़का जो संभवतः दक्षिण भारत का रहा होगा, हमारे करीब आया। उसने बेतरतीब सी दाढ़ी के साथ बालों का जूड़ा बनाया हुआ था, ढीला कुर्ता और पठानी सलवार जैसा कुछ पहने। साथ में वही जेएनयू मार्क झोला। डीयू में तीन साल पढ़ने के बाद ये मेरे लिए बहुत बड़ी बात नहीं रही थी। यों भी मेरा नजरिया व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को लेकर बहुत सामान्य रहा है। लेकिन माँ एकदम से सकपका कर पीछे हट गईं। कहा तो कुछ नहीं लेकिन उनके भाव सकारात्मक भी नहीं थे। उसने हमें एडमिशन में आसानी के लिए कुछ जानकारी दी और चला गया। कुछ देर बाद आगे की तरफ शोर सा हुआ तो ध्यान उधर गया। एक लड़की जिसकी लम्बाई औसत, रंग गहरा और देह इकहरी सी थी, फर्राटेदार अंग्रेजी में कुछ बोल रही थी। माँ का ध्यान उधर गया और उनकी भावभंगिमा से लगा कि जैसे वे उससे गहरी प्रभावित हो गई हों। लेकिन जैसे ही वो करीब आई तो दिखाई दिया कि उसने सिर मुंडाया हुआ था। ये दृश्य माँ के लिए कल्पना से परे था। उसकी अंग्रेजी से मंत्रमुग्ध हुई माँ उसे देखने के बाद सोच में सी पड़ गईं। पापा से कई बार पूछा कि ,एँ जी! ये बालक यहाँ पढ़ाई करने ही आए? देखो तो कैसा भेष बनाए फिर रहे। उनके मन में ऐसा गहरा बैठ गया ये प्रतिबिंब कि घर जाने के बाद सबको ये बात बतायी। एक तरफ ये हनक कि हमारा बच्चा इतनी बड़ी यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा है तो दूसरी तरफ उनकी ये फ़िक्र तब तक मन से नहीं निकली जब तक मैं कोर्स पूरा करके आ न गया कि कहीं मैं भी जूड़ा बनाकर न घूमने लगूँ। लेकिन मुझे आश्वस्ति मिश्रित आश्चर्य हुआ जब जेएनयू पर लग रहे तरह-तरह के आरोपों के दौर में हर तरफ से मुँह उठाए चले आ रहे सवालों में न तो उनका कोई सवाल था और न ही मेरी सुरक्षा के लिए कोई चिंता। वे इतनी आश्वस्त थीं जैसे मैं बस घर से मौसी के घर गया हूँ।
जेएनयू में उस वक़्त एमफिल पीएचडी का इंटीग्रेटिड कोर्स चलता था। एमए में पढ़ रहे विद्यार्थियों का एक मात्र ख्वाब उस समय इस कोर्स में प्रवेश लेने का हो जाता था। हमारे एक सीनियर कहा करते थे कि जब एमफिल में एडमिशन का वक़्त था और लगता था कि यहाँ से जाना भी पड़ सकता है तो उनको यहाँ के डस्टबिन से भी प्यार हो गया था। जिस साल हम एमए के दूसरे साल में थे तब पीएचडी प्रवेश प्रक्रिया में कई तरह के बदलाव हुए और एमए पूरा होने के साथ-साथ यह लगभग तय हो गया कि उस साल एमफिल- पीएचडी में एक भी सीट नहीं आनी थी। ऐसे में बिना परीक्षा दिए ही हम प्रक्रिया से बाहर थे। इसलिए विन्टर समेस्टर की अंतिम परीक्षा होने तक हम अपने मन में यहाँ से चले जाने की नियति स्वीकार कर चुके थे। अगले सत्र तक इंतज़ार जेआरएफ के नियमों पर भारी पड़ जाता। वो फ़ैज़ साहब ने कहा है न कि ‘तुझसे भी दिलफरेब हैं ग़म रोज़गार के’। अपने उन साथियों के लिए भी बुरा लग रहा था जो डेढ़-दो साल से प्रोफेसरों के पीछे इसी उम्मीद में लगे थे कि वे उनकी नैया इंटरव्यू में पार लगा देंगे। खैर शायद अच्छा ही हुआ। कुछ प्यास जीवन में अधूरी ही रह जानी चाहिए वरना ‘ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता’। फिर भी जब मई के आखिरी हफ्ते में किताबों और कपड़ों के बैग हाथ में लिए यहाँ से जाने के लिए कदम बढ़ा रहा था तब मुड़ कर एक बार पीछे तो देखा ही। शायद ऐसे ही किसी वक़्त परवीन शाकिर ने कहा होगा कि ‘तुझको क्या इल्म, कि तुझे हारने वाले कुछ लोग, किस कदर सख़्त निदामत से तुझे देखते हैं’। उसके बाद से तमाम तरह की बातें हुईं, यूनिवर्सिटी और हॉस्टल में आने-जाने के नियम बदले, माहौल बदला लेकिन मेरे मन में आज तक वही पुराने जेएनयू की महक ऐसी बसी है जो न तो मन से निकलती है और न ही मैं इसे निकलने देना चाहता हूँ। आँखों के स्पर्श, हृदय के आह्लाद और श्वास के तारल्य से देखे-समझे गए उस जेएनयू को मैं कभी धुँधला नहीं होने देना चाहता।
जेएनयू में हॉस्टल, कैंपस, ढाबों, लाइब्रेरी, पीएसआर के जाने कितने किस्से जेहन में ताज़ा हो रहे हैं। किस्से दोस्ती के, किस्से इश्क़ के, बहसों के, यारियों के, बेकारियों के, जुनून के, बेखबरी के, स्पर्धा के और नफ़रत ओ गैरत के भी। किस्से जिनमें खुशबू थी इंकलाब की, कोमलता थी स्नेह की, स्निग्धता थी स्पर्श की, नजाकत थी लहजे की और गुमान था जेएनयू का। ऐसे ही कुछ किस्से आप तक पहुँचाना चाहता हूँ। ये बेहद निजी होते हुए भी सार्वभौमिक किस्म के हैं। यों भी आचार्य ने कहा है कि मानव मात्र के हृदयों में एक ही तार होता हुआ गया है।
जेएनयू में डीयू की तरह हॉस्टल की सीटें मेरिट के आधार पर फिक्स नहीं हैं। अमूमन दिल्ली से बाहर के सभी छात्र-छात्राओं को हॉस्टल मिलता ही था। लेकिन ये प्रवेश परीक्षा में आई रैंक के हिसाब से पहले से बाद के क्रम में मिलता था। जैसे-जैसे हॉस्टल की सीट खाली होती जाती वैसे-वैसे हॉस्टल की लिस्ट आती रहती थी। क्योंकि मेरिट लिस्ट में मेरा नाम कुछ नीचे था, ऐसे में मुझे शुरू के एक-दो महीने हॉस्टल नहीं मिला और उन दिनों मैं डीयू के नॉर्थ कैंपस में रह रहे अपने भाई के साथ रहता था। विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन से हौज खास मेट्रो से जाता और उसके बाद ऑटो से जेएनयू। उन दिनों मुनिरका का मेट्रो स्टेशन बना नहीं था और हौज खास से जेएनयू तक ऑटो में साठ रुपये लगते। डीयू में हम मेट्रो से अपने कॉलेज तक दस रुपये में पहुँच जाते थे। उन दिनों पैसों की कड़की भी अच्छी खासी रहती थी ऐसे में ये साठ रुपये बड़े खलते। हमारा एक क्लासमेट मुखर्जी नगर में रहकर यूपीएससी की तैयारी कर रहा था। यूँ भी कहा जाता था कि जेएनयू में आने के बाद हर किसी को दो कुत्ते काटते हैं एक तो असल में जेएनयू में घूमने वाले कुत्ते जिन्होंने हमारे कई सहपाठियों को काटा भी और दूसरा यूपीएससी की तैयारी करने का कुत्ता। तो हमारा वह सहपाठी क्योंकि मुखर्जी नगर से आता था, ऐसे में हमने कोशिश की कि हम एक समय पर आएँ ताकि ऑटो के पैसे को शेयर किया जा सके। शुरुआत के दिनों में ही जब मैं हौज खास पहले पहुँच गया और मैंने अपने उस सहपाठी को कॉल किया तो उसने कहा कि तुम रुके रहना हम आ रहे हैं। मुझे संतोष हुआ कि ये लोग आएंगे तो ऑटो का पैसा शेयर हो जाएगा और बीस रुपये में जेएनयू पहुँच जाएँगे। लगभग 15-20 मिनट बाद जब वह आया तो वह अकेला था। मैंने उससे पूछा कि तुम तो कह रहे थे कि हम आ रहे हैं बाकी लोग कहाँ हैं? तो वह बोला कि ‘हम’ ही तो आए हैं। भाषाई विविधता और क्षेत्रीय परंपराओं से पहला सीधा संवाद जेएनयू में ही हुआ। मेरा एक दोस्त पश्चिम बंगाल से था। वो कई बार पूछता सिंघाड़ा खाने चलोगे? मुझे अजीब लगता कि क्या इतनी गर्मी में ये हर वक़्त सिंघाड़ा खाने को लेकर उतावला रहता है। बाद में पता चला कि सिंघाड़ा समोसे को कहते हैं और मैंने जाने कितनी बार अपने अल्प भाषाई ज्ञान के चलते मुफ़्त समोसे खाने के मौके गँवा दिए जबकि समोसा मुझे हमेशा बेहद पसंद रहा है।
महीने- दो महीने के इंतजार के बाद मुझे नर्मदा हॉस्टल मिला। दो में से कोई एक रूम चुनने का मौका दिया गया था। मैं पहला रूम जब देखने गया तो उसकी स्थिति वैसी ही थी जैसी हॉस्टल डेज़ वेब सीरीज के निखिल विजय (पात्र का नाम लिखना संभव न होगा) के कमरे की दिखाई गई है। हालाँकि बाद में अपने सहपाठी, जो अभी भाई सदृश है, आनंद के कमरे की हालत देखी और उसके रूममेट की व्यवस्था देखी; आप कहेंगे तो उसका वर्णन कभी करेंगे, तब अपने इस नर्मदा वाले साथी के लिए मन में सम्मान जाग उठा। हालाँकि उनके साथ मैं रहा नहीं। जिनके साथ रहा उनकी खासियत ये थी कि वे दिन भर सोने के बाद फिर रात भर सो सकते थे। एक बार मैंने उन्हें तीन दिन तक सिर्फ सोते देखा। उन दिनों सोशल मीडिया पर एक कहानी, सच्ची थी या झूठी पता नहीं, वायरल हो रही थी जिसमें बताया जा रहा था कि किसी का रूममेट तीन दिन तक सोता रहा था। बाद में पता चला था कि उसकी तो तीन दिन पहले ही कहीं और मृत्यु हो चुकी थी। बात तब खुली जब उसके पिताजी हॉस्टल से उसका सामान लेने आए थे। कितना भी वैज्ञानिक और आधुनिक बनता रहूँ लेकिन हवा तो मेरी टाइट हो ही गई थी। खैर ये किस्सा फिर कभी। इन भाईसाहब के जाने के बाद जो दूसरा लड़का रहने के लिए आया वो मेरा मेरा हमनाम था। वह सुबह 5 बजे उठ जाता, नहाने के बाद पूरे शरीर पर घी रगड़ता, मैस से बड़ा वाला मग भरकर दूध ले आता और एक साँस में गटक जाता। लगभग एक जैसी पृष्ठभूमियों से आने के कारण हमारे बीच मैत्री भाव बहुत जल्दी विकसित हुआ। हालाँकि वह अधिकतर समय पढ़ने में ही लगा रहता तो कमरे से बाहर हमारा वक़्त साथ में बहुत कम बीता। उस समय की गप्पबाजियाँ और बेकारियाँ आज कैसी कीमती लगती हैं। एक बार की बात आपको बताता हूँ। हमारा कमरा फर्स्ट फ्लोर पर था। पानी लेने के लिए नीचे मैस में जाना पड़ता। मुझे सुबह उठते ही पानी पीना होता है। मेरे पास मिल्टन की एक आइसोथर्मल टाइप की बोतल थी। उसमें पानी भर कर रखता था। कई दिनों तक ऐसा हुआ कि वो मेरा पानी पी जाता। सुबह उठकर देखता तो बोतल खाली। मुझे बड़ी झूँझल आती। पूछता तो साफ इंकार कर देता। एक दिन मैंने पानी को इलेक्ट्रिक कैटल में खूब उबाला और बोतल में भरकर रख दिया। बोतल को छूकर तो पता चलता नहीं था कि अंदर कितना गरम पानी है। उसने सीधे पानी मुँह में उड़ेल लिया। उसके बाद जो उसकी स्थिति हुई वो आज तक मुझे याद है। उस दिन के बाद कभी मेरी बोतल का पानी कम नहीं मिला। वो दर्शन का विद्यार्थी था और साथ में यूपीएससी के लिए भी पढ़ रहा था। एक बार उसकी एक क्लासमेट से बातचीत हो रही थी। वह दर्शन की उस अवधारणा पर बात कर रही थी जिसमें माना जाता है कि असल में कुछ भी भौतिक रूप से उपस्थित नहीं है, सबकुछ मन के भीतर है। वो उसकी पूरी सपोर्ट लेने पर लगा था। चलते चलते हम साबरमती ढाबे पर पहुँचे और जैसे बैठने को हुए मैंने कुर्सी खींच ली। भाईसाहब सम्हल नहीं पाए। सहारा लेने के क्रम में अपनी सहपाठी का हाथ पकड़ा और दोनों गिर पड़े। मेरी तरफ़ देखा तो मैंने कहा कि ये कुर्सी तो वैसे भी मन के भीतर थी इसलिए मैंने हटा ली।
हमारी क्लास एसएल की जिस मुख्य बिल्डिंग में होती थी उसके नीचे एक कैन्टीन थी जिसे एक राजस्थानी दंपती चलाते थे। उनमें से अंकल का स्वभाव तो काफी सॉफ्ट था लेकिन आंटी किस बात पर ममतामयी होते-होते भड़क जाएँगी पता नहीं चलता था। हमारा एक साथी अक्सर ऐसा करता कि जरूरत से ज्यादा खाना लेता और फिर उसे छोड़ देता। उसकी ऐसी आदत सी ही हो गई थी जोकि बहुत बाद तक भी नहीं छूटी। एक दिन इस कैन्टीन से हमने कॉफी ली। अपनी आदत से मजबूर आनंद ने कॉफी आधी पी कर छोड़ दी। आंटी ने उसे ऐसा करते देख लिया। वे वहीं आ गईं और बड़े प्यार से पूछा कि कॉफी में कुछ कमी है बेटा? इसने कहा नहीं आंटी, कॉफी बहुत अच्छी बनी है। तब आंटी ने ऐसी जोर की डाँट लगाई कि फिर छोड़ी क्यों? आनंद कहता रहा कि हमारा मन नहीं है बस। लेकिन आंटी का स्वर इतना दृढ़ और डोमीनेटिंग था कि आनंद को कॉफी पीनी ही पड़ी। हम सब वहीं बैठे खी-खी करके हँसते रहे। कोरोना के दौर के बाद जब आंटी की कैन्टीन में जाना हुआ तब उनके चेहरे का लावण्य, आँखों की चमक और स्वर की खनक कहीं खोई हुई सी लगी। पता चला कि कोरोना ने उनके परिवार को दो तरफा तोड़ दिया था। यूनिवर्सिटी बंद होने के कारण कैन्टीन बंद रही और समय ने परिवार के किसी सदस्य को उनसे छीन लिया। वक़्त में स्थान और व्यक्तियों के समान होते हुए भी भावनाओं और संवेदनाओं को बदल कर रख देने की कितनी क्षमता होती है। अब आंटी बची हुई कॉफी को पीने के लिए किसी से जबरदस्ती नहीं करतीं। अब आनंद ने भी शायद जरूरत से ज्यादा खाना लेकर छोड़ना बंद कर दिया है।
एमए का पहला साल आधे से ज्यादा ही गुजरा था कि फरवरी के महीने में कैंपस में कुछ ऐसा हुआ कि प्रबुद्ध वर्ग के गलियारों में अपनी उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और शोध के लिए जाना जाने वाला जेएनयू एकदम से पूरे देश भर के गली-मुहल्ले तक में चर्चा का विषय बन गया। तब ज़ूद-फ़रामोश की डायरी में कुछ किस्से कैंपस से बाहर के भी आ जुड़े।
क्रमशः.....
सुमित कुमार
असिस्टेन्ट प्रोफेसर, हिन्दी, महामाया राजकीय महाविद्यालय, शेरकोट,बिजनौर (उत्तर प्रदेश)
sumitlamba828gmail.com
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र विजय मीरचंदानी
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