- प्रियंका गोंड
शोध सार : लोक गीत लोक साहित्य की सबसे प्रधान विधा है। लोकगीत के द्वारा संस्कृति के विभिन्न पक्षों का दर्शन होता है। जीवन की प्रत्येक अवस्था जन्म से लेकर मृत्योपरांत तक जीवन के हर्ष-विषाद, आशा-निराशा, सुख-दुःख सभी की अभिव्यक्ति होती है। जीवन का कोई ऐसा पहलू नहीं, ऐसा कोई दृष्टिकोण नहीं, ऐसा स्पंदन नहीं, जो लोकगीतों की सीमा का संस्पर्श न करता हो। ऐसे ही लोकगीतों के गायन की परम्परा में शारदा सिन्हा जैसे वक्तित्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने पुरबिया संस्कृति के लगभग सभी पहलुओं को आधार बनाकर गीत गाये। उनकी आवाज में एक मिठास और गहरायी है जो सुनने वालों को अपनी ओर खींचती है। वर्तमान परिवेश का अवलोकन करें तो लोक तीव्र गति से वैश्विक हो रहा है और परिणामस्वरूप वह स्थानीयता से कटता जा रहा है। लोक समाज वैश्वीकरण, उदारीकरण और बाजारवाद की गिरफ्त में आवेष्टित हो रहा है। जिसका परिणाम हो रहा है कि लोक अपने मूल उद्देश्यों से कटता चला जा रहा है। लेकिन शारदा सिन्हा इसके सख्त खिलाफ थीं, वे अपने गीतों में संगीत का नया प्रयोग करते हुए भी उनकी प्राचीनता को बनाये रखती थीं। इस प्रकार शारदा सिन्हा का संगीत पारंपरिकता और आधुनिकता का संगम है। लोकगीतों के माध्यम से उन्होंने न केवल पुरबिया संस्कृति को उजागर किया बल्कि उसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान भी दिलाई। उन्होंने ग्रामीण समाज के संघर्षों, खुशियों और परम्पराओं को अपने गीतों में पिरोया, जिससे लोगों को अपनी जड़ों से जुड़ने का मौका मिलता है।
बीज शब्द : शारदा सिन्हा, लोक गीत, पुरबिया संस्कृति, लोक संस्कृति, लोक गायिका, जीवनमूल्य।
मूल आलेख :
“तन मोर अदहन, मन मोरा चाउर
नयन मूंग के दाल
अपने बलम के जेवना जेवईबे
बिनु अदहन बिनु आग
I”(1)
इस लोकगीत में उमड़ते यौवन का, सहज प्राप्त वस्तुओं के माध्यम से ऐसा चित्र उकेरा गया है जिसे सुनकर ह्रदय रससिक्त हो उठता है। इससे पता चलता है कि लोकगीतों की महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी सजीवता और जीवंतता है जिसे किसी वायवीय या असंभव कल्पना के स्थान पर कवि किसी सहज सामान्य उपनामों को चयनित करता हुआ अपने आंतरिक भावों को अभिव्यक्त करता है। ऐसे प्रयोगों से सभी भाषाओँ के लोकगीतों का संसार भरा पड़ा है।
शारदा सिन्हा के लोकगीतों में अभिव्यक्त होती पुरबिया संस्कृति की बात करने से पूर्व लोकगीतों के सैद्धांतिक पहलू को भी जानना आवश्यक हो जाता है। ‘लोक’ शब्द संस्कृत के ‘लोकदर्शने’ धातु में ‘घ’ प्रत्यय लगाकर बना है, जिसका अर्थ है-देखने वाला। साधारण जनता के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर हुआ है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘लोक’ शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम से न लेकर नगरो एवं गाँवों में फैली उस समूची जनता से लिया है जो परिष्कृत, रुचिसम्पन्न तथा संस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन की अभ्यस्त होती है। और जब इसी लोकजीवन की दैनिक अनुभूतियाँ, सुख-दुःख, पर्व-त्यौहार, रहन-सहन, वेशभूषा आदि संगीतात्मक परिवेश में लयात्मक शब्दावली के माध्यम से अभिव्यंजित होती है, तो उसे लोकगीत की संज्ञा दी जाती है। डॉ. कुंजबिहारी दास ने लोकगीतों की परिभाषा देते हुए कहा है की, “लोकसंगीत उन लोगों के जीवन की अनायास प्रवाहत्मक अभिव्यक्ति है, जो सुसंस्कृत तथा सुसभ्य प्रभावों से बाहर कम या अधिक आदिम अवस्था में निवास करते हैं। यह साहित्य प्रायः मौखिक होता है और परम्परागत रूप से चला आ रहा हैI”(2)
वहीं महादेवी वर्मा के शब्दों में, “सुख-दुःख की भावावेशमयी अवस्थाविशेष को गिने-चुने शब्दों में स्वर-साधना के उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीत है और इस गीत में जब सहज चेतना जुड़ जाती है, तो वह लोकगीत बन जाता हैI”(3)
लोकगीतों की परम्परा प्राचीन हैI संसार में मानव के अविर्भाव के साथ ही लोकगीतों का उद्गम माना जाता हैI लोकगीतों के जन्म की कोई निर्धारित काल रेखा नहीं है। लोकगीत मौखिक परम्परा में ही विकसित हुए हैं। इनके रचयिता मूल रूप से अशिक्षित नर नारी हैं जो कार्य की व्यस्तता के दौरान सहज ही शब्द से पंक्ति और पंक्ति से पंक्ति जोड़कर गीत की रचना कर देते हैंI इसमें शब्दों की अपेक्षा भावना की प्रधानता रहती हैI राहुल सांकृत्यायन के अनुसार- “जब लिपि का अविष्कार नहीं हुआ था तब भी भारतीय समाज में स्त्रियों के बीच लोकगीत गाये जाते थे, जो पीढ़ी दर पीढ़ी बेटी माँ से या बहु सास से सुनकर याद कर लेती थी। भारत में यह वाचिक परम्परा हजारों वर्षों तक चलती रही है और आज भी ग्रामीण क्षेत्रों, महानगरों के पिछड़े इलाकों में इस परम्परा के लोकगीतों को किसी विशेष अवसरों पर ढोलक की थाप के साथ सुना जा सकता है
I”(4) लोकगीतों के महत्व को देखते हुए इन्हें पांच प्रमुख भागों में बांटा गया है-
1.
संस्कार संबंधी गीत : जन्म के पहले से लेकर मृत्यु के बाद तक विभिन्न संस्कारों पर गीत गाने की परम्परा रही हैI इन संस्कारों में पुत्र जन्म, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह, गवना, मृत्यु इत्यादि प्रमुख संस्कार आते हैंI जिनकी विशेषताओं को स्त्री-पुरुष मिलकर इन लोकगीतों के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं।
2.
ऋतुओं और व्रत संबंधी गीत : विभिन्न ऋतुओं को लेकर गीत गाये जाते हैं।
3.
देवता संबंधी गीत : भारत में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के भिन्न-भिन्न देवी-देवता विद्यमान हैंI इनकी स्तुति में गीत गाकर वे अपनी आस्था प्रकट करते हैंI
4.
जातियों संबंधी गीत : कुछ लोकगीतों का प्रचलन कुछ प्रमुख जातियों के नाम से होता हैI जैसे-अहीरों, कहारों, धोबियों के गीतI इन गीतों में इनकी जीवनशैली एवं कार्यों का वर्णन रहता है।
5.
श्रम संबंधी गीत : कुछ गीत जो किसी विशेष कार्य से जुड़े होते हैंI जैसे-रोपनी, सोहनी, चरखा, कोल्हू आदि।
इन लोकगीतों को भारत के भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न नामों से जाना जाता है, जो इस प्रकार हैं-
1- उत्तर प्रदेश के लोकगीत- रसिया, होरी, सोहर, कजरी, कव्वाली
2- बिहार के लोकगीत- सुकर के बियाह
3- जम्मू कश्मीर के लोकगीत- भाखा, छकरी, लादिशाह
4- महाराष्ट्र के लोक गीत- लावणी, ओवी, पोवाडा
5- गोवा के लोकगीत- ओवी, मांडो, बनवरह
6- पंजाब के लोकगीत- टप्पा, भांगड़ा, जुगनी
7- पश्चिम बंगाल के लोकगीत- बाउल, भटियाली, रवीन्द्रसंगीत
8- तमिलनाडु के लोकगीत- विल्लू पट्टू, नट्टूपुरा, कुम्मी पट्टू, अम्मानेवारी
9- गुजरात के लोकगीत- डांडिया, गरबा
10- राजस्थान के लोकगीत- पानी हारी, मांड, पंखिड़ा, तीज, लोटिया इत्यादि।
इसके साथ ही विभिन्न राज्यों से अनेकों लोकगायकों का उदय हुआI कुछ प्रमुख लोकगायकों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- रामकिशोर त्रिपाठी(बघेली लोक गायक), स्व श्रीमती शारदा सिन्हा (भोजपुरी, मैथिलि लोकगायिका), प्रहलाद सिंग टिपानिया, तारासिंह डोडवे, बांकेलाल, डॉ. शंकर प्रसाद, मोतीलाल मंजुल, विंध्यवासिनी देवी, नन्द किशोर प्रसाद, कमला देवी, अजीत कुमार अकेला, भारत शर्मा व्यास, विपिन बिहारी पाठक, कविता कृष्णमूर्ति, आशा भोंसले, लता मंगेशकर, किशोरी आमोनकर, उषा उथुप, मनदीप सिंह, बेगम अख्तर, गीता दत्त, मालिनी अवस्थी इत्यादि।
शारदा सिन्हा के लोकगीतों पर बात करने से पूर्व उनके व्यक्तित्व को भी संक्षिप्त में जान लेना जरूरी हैI शारदा सिन्हा का जन्म
1952 में बिहार के सुपौल जिले के हुलास गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम सुखदेव ठाकुर था और नौ भाई-बहनों में वो अकेली बहन थीं। इनके पति का नाम डॉ. ब्रजकिशोर सिन्हा था। इनको बचपन से ही गीतों एवं नृत्य में अत्यधिक रुचि थी। इनकी संगीत के प्रति रुचि को देखते हुए बचपन में पिता का और शादी उपरांत पति का काफी सहयोग मिला, जिसके बदौलत ये अपनी एक अलग पहचान स्थापित करने में सफल हो पायींI लेकिन जब हम इनके जीवन को देखते हैं तो पाते हैं कि उन दिनों स्त्रियों के लिए संगीत एवं नृत्य जैसी चीजों को अपना करियर बनाना आसान चीज नहीं थीI क्योंकि लोगों के रुढ़िवादी नजरिये से उन दिनों महिलाएं केवल पर्दे एवं चारदीवारी के अंदर ही अच्छी लगती थींI यही कारण था कि शारदा सिन्हा ने भी जब गाना शुरू किया तो लोगों की काफी आलोचना एवं उपेक्षा का सामना करना पड़ाI यहाँ तक कि ससुराल में भी सास से काफी नाराजगी झेलनी पड़ी थी, लेकिन कहते हैं कि प्रतिभा को कितना भी रोका जाये वह उस झरने के पानी के सामान होती है जो पत्थर जैसे कठोर चट्टान को भी काटकर अपना रास्ता बना ही लेती हैI इन्होंने भी ऐसा ही किया और उसमें वो सफल भी हुईंI स्कूल के प्रारंभिक स्तर पर इनको क्रमशः पण्डित रामचंद्र झा, पण्डित रघु झा, एवं पण्डित सीताराम हरीदांडेकर जी के माध्यम से संगीत की बारीकियों को समझने का मौका मिला। इसके उपरांत श्रीमती पन्ना देवी जी से ठुमरी एवं दादरा संगीत की शिक्षा लीI
इन्होंने अपनी कैरियर की शुरुआत मैथिली लोक गीतों के माध्यम से की थीI इसके अलावा इन्होंने भोजपुरी, मगही, वज्जिका, खड़ीबोली में भी गीतों को अपनी आवाज दीI इनकी लोकप्रियता का ही परिणाम था कि इनके द्वारा गाये गये गीतों को क्षेत्र विशेष से निकलकर हिंदी फिल्मों में भी स्थान मिला और लोगों द्वारा काफी पसंद की गयाI इन्हीं सब प्रसिद्धि के कारण ही इनको ‘बिहार-कोकिला’, ‘बिहार की लता मंगेशकर’ आदि उपनामों से संबोधित किया जाता हैI लोकगीतों को एक नया स्वरूप और देश एवं विदेशों में लोगों के दिलों में अपनी मिट्टी की सोंधी खुशबू की महक को बरक़रार बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान देने के लिए क्रमशः
1991 में पद्मश्री, 2018
में पद्मभूषण, और मृत्यु उपरांत
2024 में पद्मविभूषण जैसे उत्कृष्ट पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त ‘भिखारी ठाकुर सम्मान’, ‘बिहार गौरव’, ‘बिहार रत्न’, ‘मिथिला विभूति’ एवं साहित्य नाटक अकादमी से कई अवार्ड्स मिलेI
2018 में बिहार राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा आपको बिहार की जनता को चुनावों के प्रति जागरूक करने के लिए अपना ब्रांड एम्बेसडर भी नियुक्त किया था।
हमें मालूम है कि लोकगीतों की परम्परा कोई नई विकसित परम्परा नहीं है अपितु प्राचीन काल से महिलाएं समूह में विभिन्न अवसरों पर गायन करती आ रही हैं। इसी परम्परा को शारदा सिन्हा ने और समृद्ध करने का कार्य कियाI शारदा सिन्हा के गीतों में जीवन से मृत्यु तक, जीवन के विभिन्न सांस्कृतिक पक्षों यथा किसी बच्चे के जन्म के समय सोहर गीत, विवाह के विवाह गीत या गारी, विदाई गीत, कोई पर्व या त्यौहार हो, कोई धार्मिक अनुष्ठान हो, कोई ऋतु गीत हो, श्रम गीत हो, चाहे किसी का हौसला बढ़ाना हो, भाव चाहे जिंदगी के दिनचर्या से उमड़े हों या भविष्य की चिंताओं से और चाहे कोई ख़ुशी हो या गम सबकी झलक दिखाई देती हैI इस तरह देखा जाये तो शारदा सिन्हा के लोकगीतों में जिंदगी का शायद ही ऐसा कोई कोना हो जो छूटा रह सकाI शारदा सिन्हा ने अपने लोकगीतों की शुरुआत अपने ही आँगन से की थी जब अपने बड़े भाई की शादी में द्वार की छेकाई के दौरान नेग लेने के लिए उनकी भाभी के द्वारा गीत गाने के लिए आग्रह किया गया थाI तब शारदा सिन्हा ने मैथिलि भाषा में ये गीत गाया था-
‘द्वार के छेकाई नेग पहिले चुकययौ
हे दुलरुआ भैया
तब जय ह कोहबर अपन
हे दुलरुआ भैया
ससुर के कमाई देहला बहिनी के दियौ
हे दुलरुआ भैया I’
इस प्रकार आँगन के साधारण से गीत से शुरू हुआ यह सिलसिला फिर कभी रुका नहीं और निरंतर बढ़ता चला गयाI शारदा सिन्हा ने शुरुआती दिनों में विद्यापति, महेंदर मिसिर, त्रिलोकी नाथ, विश्वनाथ सैदा, भिखारी ठाकुर, अरविंद अकेला, स्नेहलता, महादेव सिंह जैसे श्रेष्ठ लोक गीत रचनाकारों के गीतों को अपनी संगीत में ढाला, जो लोगों द्वारा काफी पसंद किया गयाI इन गीतों में पुरबिया संस्कृति के प्रदर्शन के साथ-साथ विविध संवेदनशील विषयों को आधार बनाकर गाया गयाI
शारदा सिन्हा ने जब गायन शुरू किया था तब पर्दा प्रथा था, स्त्रियों को उतनी आज़ादी भी नहीं थी कुछ भी अपने मर्जी से कहने की एवं कहीं जाने कीI ऊपर से शादी के पश्चात ससुराल में सास, ननद और ससुर के ताने से उनका जीवन बहुत कष्टमय हो जाता थाI पति भी उन दिनों अक्सर काम के चलते दूसरे शहरों में चले जाते थेI शारदा सिन्हा ऐसे कई स्त्रियों से मिलती थीं जो उन्हें अपने पति तक अपनी तकलीफ को पहुंचाने के लिए चिट्ठी लिखने के लिए आग्रह करती थीं-
“छोटकी गोतनिया के
तनवा के बतिया
पतिया रोई-रोई ना,
लिखावे रजमतिया पतिया रोई-रोई ना
I”(5)
इस प्रकार ‘रजमतिया’ उन तमाम स्त्रियों का प्रतीक है जो चिट्ठियों के माध्यम से अपने मन के सुख, दुःख, हर्ष, विषाद, प्रेम आदि सारे भाव व्यक्त करती थींI इसी तरह जब नई-नई ब्याहता शर्म और लिहाज के चलते अपनी अस्वस्थता के बारे में सास एवं ननद से नहीं कह पाती थी तो डॉक्टर के पास ले जाने के लिए अपने पति के माध्यम से कहलवाती थींI जिसे शारदा सिन्हा ने अपने संगीत के माध्यम से कुछ इस तरह व्यक्त किया है-‘पटना से बैदा बुलाई दा, बेमरा गईलीं गुइयाँ’ इन लोकगीतों के माध्यम से तत्कालीन समाज की स्त्रियों की विवशता एवं पर्दा प्रथा को बखूबी समझा जा सकता है।
शारदा सिन्हा ने उस दौर का भी जिक्र किया है जब भारतीयों को ‘गिरमिटिया मजदूर’ के तौर पर मॉरीशस, त्रिनिदाद, टोबैगो, सूरीनाम और फ़िजी जैसे देशों में ले जाया जाता थाI उस समय चूँकि आज के समय जैसे चीजें बहुत सहजता से उपलब्ध नहीं हो पाती थीं तो जाते समय उनकी पत्नियाँ जिन्हें यह मालूम भी नहीं होता था कि उनके पति कहाँ और किस रास्ते जा रहे हैं। वे उनसे आग्रह करती थीं कि वो जल्दी काम से घर आयेंगे और आते समय उनके लिए बंगाल का सिंदूर लायेंगे-
“पनिया के जहाज से पलटनिया बनके जईह
हमके ले के अईह हो
पिया सेनुरा बंगाल के
I”(6)
इस गीत के माध्यम से एक स्त्री के द्वारा अपने पति से बहुत कुछ अपेक्षा न करते हुए सुहाग की निशानी सिंदूर की मांग की जाती हैI आज भी ग्रामीण स्त्रियों के लिए शृंगार के सभी चीजों में सिंदूर का सबसे अधिक महत्व होता हैI इसके साथ ही इस गीत के माध्यम से बंगाल का वो पूरा सांस्कृतिक परिवेश भी जीवंत हो उठता है जहाँ सौभाग्य का चिन्ह सिंदूर और आलता पूरे भारत की स्त्रियों द्वारा पसंद किया जाता हैI
चाहे बिहार हो या भारत का कोई राज्य लड़कियों का विदाई का समय अत्यंत भावुक कर देने वाला पल होता है, जो सभी को रोने के लिए मजबूर कर देता हैI शारदा सिन्हा ने कई विदाई के गीत गाये जो उस समय के विदाई के समय गाये जाते थे, साथ ही वे आज भी उतने ही प्रांसगिक बने हुए हैं-
“बन के कोयलिया चली जात हे,
डोलिया उठावे मिली बत्तीसों कहरवा,
रोबेले बाबा रोबेली माई रोबेल भैया हमार हे,
विधना के इहे बेह्बार हे,
बन के कोयलिया चली जात हे I”(7)
इस तरह के गीतों के माध्यम से विदाई का वो पूरा कारुणिक दृश्य जीवंत हो उठता है, जिसे सुनकर हर किसी की आँखे भर जाती हैं।
विवाह के पूर्व बिहार एवं उत्तर प्रदेश में द्वार पर माड़ो छवाया जाता हैI इस रस्म के दौरान ‘हरे हरे हरे दादा बसवा कटहिया, ऊँचे ऊँचे मड़वा छविया हो’ गीतों को कैसेट पर चलाकर या गाकर माड़ों बाधा जाता था I वहीं चुमावन जैसी रस्म के समय ‘दादी चुवाहि सरबस लुटावे’ जैसे गीतों को गुनगुनाया जाता था तो वहीं ‘हरी हरी दुबिया बछरुओ न चरे गे माई से हमरो सुंदर दूल्हा मौरियो न पेन्हे गे माई’ जैसे गीतों के माध्यम से दुल्हे का मौरी परछाता था।
शारदा सिन्हा का जो समय था वो पितृसत्ता में जकड़ी स्त्रियों को उतनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं प्रदान करता था, अपितु आज भी ग्रामीण अंचल की महिलाओं को यह स्वंत्रता शहरी महिलाओं की तुलना में कम ही मिली हुई है। इसलिए गाँव में बियाह का माटीकोड़वा का रस्म हो, बियाह बैठने का समय हो या दुआरपूजा का समय, जब भी मौका मिलता था, तो वे जी भरकर गरियाती थीं और अपने दिल की खीज निकालती थींI इस समय शारदा सिन्हा द्वारा गाये गीतों की बहुत लोकप्रियता थीI लोग इन गीतों को बहुत धैर्य से सुनते थे, मानों कुछ पलट के प्रत्युत्तर देना खुद की और बेज्जती करने के समान था–‘इ बूढ़े बाबा के पक्कल पक्कल दाढ़ी, देखन में पातर खाए भर थारी, बता दा बबुआ लोगवा देत कहे गारी, बता दा बबुआ लोगवा देत कहे गारीI’ हम देख सकते हैं कि भले ही विभिन्न अवसरों पर गाये जाने वाले इन गीतों को गारी की संज्ञा दी जाती थी लेकिन कहीं भी इन गीतों में अश्लील एवं द्विअर्थी शब्दों का इस्तेमाल नहीं होता था बल्कि शारदा सिन्हा ने सदैव अपने लोकगीतों में पवित्रता एवं स्वाभाविकता को बनाये रखा।
शारदा सिन्हा द्वारा गाये गीतों में केवल लोक का रोमानी पक्ष ही नहीं अभिव्यक्ति पाता अपितु लोक की विद्रूपता, विडंबना एवं रूढ़िवादिता की आलोचना भी दिखाई देती हैI इसके अंतर्गत तत्कालीन समय में बाल विवाह एवं दहेज़ जैसी सामाजिक बुराई प्रमुख हैं। बाल विवाह की विद्रूपता उनके गीतों में कुछ इस प्रकार आती है-
“सूतल चली अइली बाबा के भवनवा,
अचके में आइल कहांर,
लेई दे ए निकसल बिजुवन पईसल
जहाँ अपन नाहीं कोई
I”(8)
एक छोटी सी बच्ची का विवाह हो चुका है लेकिन उसे इसका ज्ञान तक नहीं हैI उसे तो तब कुछ समझ आता है जब कहांर उसे उसके पिता के घर से डोली में उठा के ससुराल ले जाने के लिए तैयार होते हैंI तब वह छली हुई सी महसूस करती हैI इसी प्रकार उस समय दहेज़ के लिए दी जा रही यातना के ऊपर भी उन्होंने कई दहेज़ गीत गाये जो कलेजे को छननी कर देता है– “कौन सी नगरिया हे, चार फुट की देहिया हे, बैगन से सस्ता बिक गयी बाबू जी, छोटी सी कलईया से, बड़ा-बड़ा पत्थर तोड़ा, छैनी और हथौड़ा थमा दी हे बाबू जी, ढर-ढर ढरकत आंसू मोरा बाबू जीI”(9)
शारदा सिन्हा कहती हैं कि उनके समय से लेकर आज भी दहेज़ एक सामाजिक बुराई के रूप में विद्यमान है, जिसके चलते कितनी मासूम लड़कियों को यातना सहन करनी पड़ती है।
बिहार एवं आस-पास के राज्यों में छठ पूजा का पर्व बहुत ही महत्व रखता हैI इस पर्व की ख़ासियत होती है कि इसमें पहले डूबते सूरज एवं उसके बाद उगते सूरज की प्रार्थना की जाती हैI साथ ही इसके माध्यम से यह संदेश भी दिया जाता है कि चाहे सूरज डूबे लेकिन उससे उसकी महत्ता कम नहीं होती है बल्कि वह उतने ही सम्मान का स्थान रखता हैI इस तरह यह पर्व प्रकृति के विशुद्ध रूप की पूजा अर्चना के लिए जाना जाता है और शारदा सिन्हा के गीतों के बिना तो यह अधूरा सा मालूम पड़ता हैI जैसे आज भी बंगाल में दुर्गा पूजा के दौरान बिरेंद्र कृष्ण भद्र की आवाज में गूंजती हुई स्तुति सुनकर देवी के साक्षात् प्रकट हो जाने का भ्रम होता है, वैसे ही ऐसा लगता है मानों अरघ के बेर सूर्य शारदा जी की आवाज सुनके ही उदित होता है क्योंकि उनकी आवाज़ एक गायिका से ज्यादा एक व्रती की गुहार अधिक लगती है।
कई गायिकाओं ने छठ पूजा के गीत गाये, लेकिन शारदा सिन्हा एवं अन्य के गीतों में बड़ा पवित्र सा अंतर दिखाई पड़ता है। शायद इसलिए भी कि वह व्रती पहले थीं और लोकगायिका बाद में।
“सकल जग तारिणी, हे छठी मईया,
सभक शुभ कारिणी हे छठी मईया,
जल, थल ,वायु, अगिन में अहि छी
अहि गगन के आधार,
‘सकल जग तारिणी, हे छठी मईया
I”(10)
एवं
“डोमिनी बेटी सूप नेने ठाढ छै
उग हो सूरज देव
अरघ के बेर हो पूजन के बेर
मालिन बेटी फूल नेने ठाढ़ छै
उग हो सूरज देव अरघ के बेर
I”(11)
यह गीत छठ पूजा की प्रविधि के साथ-साथ कुछ खास वर्गों के व्यवसाय को भी संकेतित करता है, जैसे-बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में इस पूजा के दौरान डोम जाति के द्वारा बनाये गये ‘सूप’ तो माली जाति के द्वारा दिए गये फूलों आदि के माध्यम से पूजा सम्पन्न की जाती हैI इस तरह यह पर्व सामाजिक समरसता को बनाये रखने की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इन छठ गीतों की लोकप्रियता सिर्फ भारत के विभिन्न राज्यों में ही नहीं है अपितु विदेशों में बसे भारतीय नागरिकों के घरों में भी हैI वे इन गीतों के माध्यम से अपनी संस्कृति एवं संस्कारों से जुड़ा हुआ पाते हैं।
शारदा सिन्हा ने लोक में प्रचलित लोककथाओं को आधार बनाकर कई देवी-देवताओं की भी स्तुति की हैI इसमें भी वही लयात्मकता एवं भावुकता दिखाई पड़ती है जो उनके अन्य गीतों में, जैसे-उनके शिव, राधा-कृष्ण एवं देवी सम्बन्धित गीत इतने लोकप्रिय हुए कि उनके बिना कोई धार्मिक अनुष्ठान पूरा नहीं होता था, जैसे-
“जगदम्बा घर में दियरा बार अयिनी हो,
जगतारण घर में दियरा बार अईनी हो,
मैया के आरती उतार अईनी हो,
जगदम्बा घर में दियरा बार अयिनी हो
I”(12)
यह गीत उन दिनों अपनी प्रसिद्धि के चलते रातों-रात मिथिला की परिधि से निकलकर भोजपुरी समाज के घर- घर में आरती के तौर पर गाया जाने लगा था।
लोक संगीत की खुशबू अपने कच्चे रंग में महकती है पके रंगों में ये खुशबू कुछ ऐसे ही दब के रह जाती है जैसे बारिश के बूंदों की खुशबू की शर्त ही है कच्ची मिट्टी, वरना संगमरमर के लाख ख़ूबसूरत फर्श में ऐसा कर ले जाने की कुव्वत कहाँ ?? इसी का परिणाम था कि शारदा सिन्हा को भोजपुरी फिल्मों में अपने स्वर देने के साथ-साथ हिंदी फिल्मों में भी गाने के लिए कहा गयाI जिसे सभी के द्वारा बहुत पसंद किया गया और आज भी वे गीतों की लोकप्रियता वैसे ही बरक़रार हैI सबसे पहला गीत ‘अशद भोपाली’ द्वारा रचित फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ में गाया।
“कहे तोसे सजना,
ये तोहरी सजनिया पग पग लिये जाऊं, तोहरी बलइयाँ,
मगन अपनी धुन में, रहे मोरा सईयाँ,
पग पग लिये जाऊं, तोहरी बलइयाँ
I”(13)
इसी फिल्म में एक विदाई गीत-‘बाबुल जो तूने सिखाया, जो तुमसे पाया सजन घर ले चली’ गाया जो उस समय की लड़कियों की शादी के विदाई के दौरान ज़रूर सुना जाता था। उसके बाद क्रमशः ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ में “तार बिजली से पतले हमारे पिया, ऊ री सासु बता तूने ये क्या किया, तूने ये क्या किया सुख के हो गये हैं छुआरे पिया, कुछ खाते नहीं हैं हमारे पिया।”(14)
तो हिंदी वेब सीरीज़ ‘महारनी-2’ में “सेनुर धुआइ गईलि, रहिया अन्हार भईले, पियवा हमार होई गये निरमोहिया, ए सजनी ए सजनी”(15)
गीत को गायाI ये सभी फिल्म अपनी कहानी एवं पात्रों के साथ-साथ इन लोकगीतों की वजह से भी बहुत सफल हुए, जिसकी वजह लोक की मिठास, साधारणपन, नैसर्गिकता, भावुकता एवं लयात्मकता थी। इस तरह देखें तो शारदा सिन्हा की गीतों की शुरुआत तो एक क्षेत्र विशेष से हुई लेकिन जल्द ही वह हर भारतीय के घर-घर में सुनी एवं गायी जाने लगी।
शारदा सिन्हा का मानना था कि लोकगीत शाश्वत है, चाहे कितना भी प्रतिस्पर्धा का दौर आ जाए लेकिन लोकगीतों के प्रति मोह, प्रेम एवं उसकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आएगीI ऐसा इसलिए क्योंकि लोकगीत मानव जीवन शैली से जुड़ा हुआ होता है, अपनी बोली में होता है, अपनी मिट्टी की सोंधी खुशबू उसमें घुली होती है और ग्रामीण परिवेश के सुख-दुःख को अपने अंदर पिरोये हुए होती हैI जिन लोगों को रोजी रोटी के चलते अपना गाँव छोड़कर दूसरे शहरों या देशों में बस जाना पड़ता है और वे चाहते हुए भी समय के आभाव के चलते घर नहीं जा पाते, उनके लिए ये लोकगीत अपने घर परिवेश से नजदीकी का अहसास कराने के साथ-साथ अपनी संस्कृति से जुड़े रहने के लिए भी प्रेरित करते हैं।
अपनी इतनी विशेषताएं समेटे होने के बावजूद भी वर्तमान बाजारीकरण के दौर में लोकगीतों के आकर्षण में कुछ कमी आयी हैI इसका बहुत हद तक कारण यह है कि वर्तमान युवा गीतकारों को लगता है कि अश्लील एवं द्विअर्थी गानों की मांग ज्यादा है इसलिए वे लोकगीतों के मूल उद्देश्यों से भी समझौता कर लेते हैंI लेकिन शारदा सिन्हा सदैव इसके खिलाफ रहीं, उनका कहना था कि लोकगीतों के माध्यम से उस क्षेत्र की रहन-सहन, वेशभूषा, खान-पान, पर्व त्यौहार, परिवार की संरचना, प्रकृति का सौंदर्य या कहें तो पूरी संस्कृति प्रदर्शित होती है और यदि अश्लील, द्विअर्थी एवं फूहड़ता से भरे गीतों को गाया जायेगा तो दूसरे लोगों के द्वारा इस संस्कृति के प्रति एक अपेक्षापूर्ण अवधारणा बनेगीI इसलिए वे चाहती थीं कि लोकगीतों के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग किये जाएँ ताकि नई पीढ़ी द्वारा उसे सुना जाये लेकिन इस प्रक्रिया में उसकी मूलता के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिएI क्योंकि जब नई पीढ़ी इन्हें पसंद करेगी तभी वह अपनी संस्कृति एवं जड़ों को सुरक्षित रखने में समर्थ हो सकेगी, साथ ही दूसरे क्षेत्रों के लोग भी यह संस्कृति वास्तव में क्या है और कैसी है, इसे समझने में समर्थ हो सकेंगे।
निष्कर्ष : पुरबिया संस्कृति के विविध पक्षों को सामने लाने के साथ-साथ शारदा सिन्हा का योगदान इस रूप में भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि उन्होंने सार्वजनिक मंच पर महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी अवधारणा को तोड़कर नाम, काम और दाम तीनों के रास्ते खोले, उनका जब भी मूल्यांकन होगा तो इस बात पर विशेष जोर दिया जाएगा कि अगर उनका पदार्पण लोकगीतों की दुनिया में न हुआ होता तो बिहारी और पुरबिया लोकगीत, सार्वजनिक मंचों पर केवल पुरुषों का गायन बनकर रह गया होताI इस तरह उन्होंने न सिर्फ सम्मान दिलवाया अपितु उस समय की सैकड़ों महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत भी बनीं। दूसरा महत्त्वपूर्ण योगदान यह भी है कि उन्होंने पुरबिया संस्कृति को अपने लोक गायन के द्वारा पारंपरिकता की परिधि से निकालकर लोकसाहित्य से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और अपनी शर्तों पर पूरे भारतीय क्षेत्रों, विदेशों एवं बॉलीवुड तक पहुँचाने का कार्य किया।
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असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, सी.एम.पी कॉलेज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
priyankagond123@gmail.com
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